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धर्म-संस्करण १
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कुछ लोग कहते हैं कि हमारा धर्म प्राचीन ने प्राचीन है, इसलिये वह प्रच्छा है । कुछ लोग कहते है कि हमारा धर्म अन्तिम मे अन्तिम है, इसलिये वह ताजा है । कुछ चोर लोग कहते हैं कि अमुक पुस्तक ग्राद्य धर्मग्रन्थ है, इसलिये उनमें सब कुछ गा जाता है। दूसरे लोग कहते है कि प्रमुक ग्रन्थ ईश्वर के द्वारा जगत को दिया हुआ अन्तिम से अन्तिम धमग्रन्थ है, इसलिये उसे स्वीकार करना चाहिये ।
सनातन धर्मी इस बारे में दूसरी ही दृष्टि मे विचार करते है । श्राज की सृष्टि का आदि और ग्रन्त हो मकता है । धर्मप्रन्या का भी ग्रादि श्रोर अन्त हो मक्ता है । परन्तु धम अनादि प्रोर अनन्त है, उसीनिये वह सनातन कहलाता है । सनातन का प्रयं क्या है ? जो उस सृष्टि प्रारम्भ से पहले भी था श्री एम नृष्टि के प्रन्त के बाद भी रहेगा वह सनातन है। इस श्रयं मे केवन ग्रात्मा और परमात्मा हो मनानन माने जायेंगे ।
लेकिन मनातन का एक दूसरा प्रयं है । जो स्वभाव से ही नित्यनूनन है, वह मनातन होना है। जो जीणं होता है वह मर जाता है, जो चदलता नही वह मड जाता है, जिसकी प्रगति नहीं होती उसकी अधोगति होती है । कधी हुई हवा बदबू करती है। न बहने वाला पानी स्वच्छ नही रहता । पहाड़ के पत्थर बदलते नही, इमीलिये धीरे-धीरे उनका चूरा हो जाता है । घाम बार-बार उगती है, इसलिये वह ताजी रहती है । जगन की वनस्पति हर साल सूख जानी है और हर माल फिर मे उगती है । बादल खाली होते है और फिर पानी से भर जाते हैं । प्रकृति को नित्य नूतन वनने की कला प्राप्त हो गई है, इसीलिये प्रकृति सदा नवयोवना दिखाई देती है ।
इस सिद्धान्त को जानने के कारण ही मनातन धर्म के व्यवस्थापका ने युगधर्म के अनुसार भिन्न-भिन्न धर्मों की व्यवस्था की है । काल की महिमा जानने के कारण ही वे काल को जीत सके है । धर्म के प्राध्यात्मिक सिद्धान्त
चल और अटल है | परन्तु उनके व्यवहार को देश-काल के अनुसार बदलना पडता है । इसका ज्ञान होने के कारण धर्मकारा ने हिन्दू धर्म की बुनियादी