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महावीर का जीवन सदेश
भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर के जमाने मे हमारे देश के बहुतसे लोग मास खाने थे । बडे-बडे ब्राह्मण भी मास खाते थे । जनक जैसे थोडे लोग मास से निवृत्त हुए थे । वेद मे गाय को 'अघ्न्या' कहा हे । 'अघ्न्या' माने न मारने योग्य । तो भी पुराने जमाने मे गोहत्या होती थी । सनातनियो ने इस बात से इनकार नही किया है । घर मे ग्राये हुए मेहमानो को मधुपर्क अर्पण करते पशु हत्या करने का रिवाज था । राजा रन्तिदेव चर्मण्वती (चम्बल) नदी के किनारे वडे-बडे यज्ञ करते थे । तब इतने पशु मारे जाते थे कि नदी का पानी लाल रहता था और नदी के किनारे जानवरो के चमडे सूखने के लिए इतने फैलाये जाते थे कि लोगो ने नदी का नाम ही 'चर्मण्वती' रखा ।
नाहक का झगडा खडा न करने के हेतु मैने ऊपर की बाते सयम से लिखी है ।
प्राचीन भारत मे, और देशो के समान मनुष्य का मास खाने वाले लोग भी कही-कही पाये जाते थे । मनुष्य - मास के बिना जिसका चलता नही था ऐसे राजा का जिक्र भी पुराने ग्रथो मे पाया जाना है । मुसाफिरी करते जब किसी सौदागर की लडकी रास्ते मे मर गयी और सौदागर के पास खाने का दूसरा कोई अन्न था नही तव उसने अपनी लडकी का मास पका कर खाया ऐसे वर्णन भी उस जमाने के धर्म-ग्रन्थो मे पाये जाते है ।
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ऐसे गिरे हुये जमाने मे जिसके मन से अहिंसा-धर्म का उत्कट उदय हुआ और जिसने पशु-पक्षी तो क्या, कृमि-कीट की हिसा को भी पाप समझा उसकी कारुणिकता लोकोत्तर थी । सर्वत्र जव मासाहार प्रचलित या, नरमाँस खाने के किस्से भी सुनाई देते थे, ऐसे जमाने मे विश्वास और श्रद्धा के साथ प्रात्यति अहिंसा का प्रचार करना और विश्वास करना कि 'ऐसे लोग भी तेजस्वी धर्मोपदेश असर मे आ सकेगे और मासाहार छोड देगे, प्राणीहत्या से निवृत्त होगे' यह सर्वोच्च प्रास्तिकता का लक्षण है ।
किसी धर्म का हृदय मे जब उदय होता है तब उसका प्राचरण धीमेधीमे वढता है । कॉलेज के दिनो मे जब मैंने स्वदेशी का व्रत लिया तब शुरु मे घर मे परदेशी चीनी लाना बन्द कर दिया। लेकिन होटलो मे जाकर जव चाय पीता था और मिष्टान्न खाता था तव वहाँ स्वदेशी चीनी का ग्राग्रह नही