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महावीर का जीवन सदेश
वाली सूक्ष्म कीटो की हिंसा कम करने के लिये नाक के नीचे मुहपत्ती वाँधते है। चन्द लोग नहीं बाँधते । स्वय महावीर स्वामी मुहपती बाँधते थे या नही सो हम नही जानते । वस्त्रमात्र का त्याग करने के बाद मुहपत्ती का तो शायद सवाल ही नही रहता।
तो क्या महपत्ती न बाँधने वाले महावीर स्वामी अपने धर्माचरण मे कच्चे या शिथिल गिने जायेंगे ? जो माधु ग्राज मुहपत्ती बाँधते है उनकी अपेक्षा मुंहपत्ती न वांधने वाले साधु कम या हीन समझे जाये ? धर्म का विकास क्रमश होता है । पुराने जमाने के अच्छे-से-अच्छे लोगों का भी अनुमरण आज हम नही कर मकते।
वेदकाल मे नियोग की प्रथा थी। वेदव्यास जी के दिनो तक वह प्रथा चान थी। आज उसे हम निन्द्य समझते हैं। व्यास जी का उदाहरण सुनकर अाज हम आज के लोगो के लिये नियोग का समर्थन नहीं करते और यह भी नीं कहते कि व्यास जी के नियोग का अर्थ ही कुछ अलग था। रामायण मे जिक्र पाता है कि श्री रामचन्द्र जी मृगया करते थे और मास खाते थे । सीता माता ने गगा नदी का शराव के घडो से अभिषेक किया था। लेकिन ऐसी पुरानी बातो से हम आज उनका अनुकरण करने को नही तैयार होते और पुरानी वातें छिपाना भी नहीं चाहते ।
एक वात यहाँ स्पष्ट कर दूं। मै जन्म से निरामिष भोजी हूँ। न कभी मास खागा है और न पाइन्दा खाने की सम्भावना है। मैं आहार के लिए प्राणियो की हत्या करना पाप समझता हूँ। दिल से च हता हूँ कि मनुष्य जाति प्राणी हत्या छोड दे, मामाहार भी छोड दे। लेकिन किसी को मास छोडने की नमीहत देते कई वाते सोचनी पडती है।
पुराने जमाने मे लोग अपने व्यक्तिगत धर्म का या सामाजिक धर्म का जब विचार करते थे तव समस्त व्यापक दुनिया का ख्याल उनके सामने हमेशा नही रहता था। नैतिक प्रादर्श के आधार पर वे धर्म-निर्णय करते थे और वह योग्य भी था ।
आज व्यवहार की दृष्टि से भी सोचना पडता है । गाँधीजी ने कहा भी है कि जो धर्म व्यवहार की कसौटी पर खरा नही सिद्ध होता वह शुद्ध