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हिन्दू की दृष्टि से जैन धर्म
श्रादर है | उस मस्था मे फिर से चैतन्य लाया जा सकता है. इस विश्वास से ही हम मन्दिर प्रवेश की ताईद करते हैं ।
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पारसी लोगो का जरथुन्त धर्म, मुसलमानो का इस्लाम, ईसाइयों का विश्वासी धर्म तीनो परदेश मे प्राये धर्म है । यहूदी धर्म भी वैसा ही है । इनको छोड़ बाकी के धर्म इमी भूमि मे निकले हैं । यहाँ की ममाज-व्यवस्था भी उन्हें मान्य है | ये नव हिन्दू धर्म की शाखाएं हैं। ऊपर बताये परदेशी धर्म भी प्रदान-प्रदान द्वारा ग्राहिना-ग्राहिस्ता स्वदेशी वन रहे है । उनके अमर के कारण पूरे हिन्दू धर्म मे भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होते रहे हैं । हिन्दू धर्म की यही खूनी है कि उसने कभी भी प्रादान-प्रदान मे इनवार नही किया है ।
मूर्तिपूजा का प्रश्न ग्रव बिल्कुल गोण हो गया है । एक ही मन्दिर मे दिगम्बर और श्वेताम्बर मान्यता की मूर्तियां रखकर भेदभाव क्यो न मिटा दिया जाय ?
आहार के बारे में भी नये ढंग से मोचना चाहिये । जो लोग मासाहार नहीं करते, उनको अपने शुभ सिद्धान्तो मे दृढ रहने के लिये क्या मामाहारी लोगो के बहिष्कार की श्रावश्यकता है ?
अप्रगतिशील रूटिवादी ही वहिष्कार श्रीर पार्थक्य का सहारा लेते हैं । जैन लोगों ने हिन्दू धर्म मे रह कर श्रहिंसा का जितना प्रचार किया है, उतना प्रचार वे हिन्दू-ममाज में अलग रह कर नही कर सकेंगे । किन्तु ग्राज-कल कई जैनियो मे धार्मिक व्यक्तिवाद घुम गया है और दो-एक कानूनो से बचने के लिये वे कहने लगे हैं कि हम 'हिन्दू' नही हैं। में उनका प्रतिवाद नही करूंगा | जो बाहर जाना चाहता है उसके लिये दरवाजे खुले रखना हिन्दू समाज का स्वभाव ही है। पहरा रखा जाता है अन्दर आने वालो के लिये । मेरा दिल इतना ही कहता है कि हिन्दू-समाज के सब से बडे पाप अस्पृश्यता को जिन्होने अपनाया है, कम से कम वे तो पूरे-पूरे हिन्दू ही हैं ।
श्रहिंसा के कई क्षेत्र हैं । श्राहार के बारे मे सब लोग जानते ही हैं । किमी का भी द्रोह किये बिना, किसी की मेहनत से नाजायज फायदा उठाये विना आजीविका प्राप्त करना, यह है अहिंसा का सब से वडा क्षेत्र । बिना अपराध किसी को हीन या नीच समझना सामाजिक हिंसा है। अफ्रिकन या चीनी या यूरोपियन किसी भी वश के लोगो को अपने से हीन समझना, उनका