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महावीर का जीवन सदेश दूसरी बुराई है। जहाँ रुढि के नाम पर दयाधर्म का खून होता है, जहाँ आत्मा अपमानित होती है, जहाँ धर्म-प्रीति के स्थान पर लालच और भय को स्थान दिया जाता है वहाँ धर्म को इन सब के खिलाफ अपनी अधिकार पूर्ण बुलद आवाज उठानी चाहिये। हर जगह सरकारी अधिकारी और कर्मचारियो को रिश्वत देकर अपना मतलब निकालना सीखे हुये लोग एक ईश्वर को छोडकर उसके स्थान पर अनेक भयानक शक्तियो को प्रलोभन देने मे अपना धर्म समझने लगे। निरकुश, क्रोधी, तरगी और खुशामद-पसद अधिकारियो के जुल्म मे रहकर नामर्द और कायर बने हुए लोगो ने देवी-देवतानो के बारे मे भी वैसी ही निरकुशता, क्रोध आदि की कल्पना करके उनके प्रति भी अपने भीतर डरपोक की वृत्ति बढा ली। इस प्रकार हमने धर्म मे ही अधर्म का साम्राज्य स्थापित कर दिया । सत्यनारायण से लेकर शीतला माता तक के सब देवी-देवताओं को हमने डराने वाले गुण्ड. (bullies) का रूप दे दिया। आकाश के तारे और ग्रह, जगल के पेड-पौधे और वनस्पतिया, हमारे भाईवद जैसे पशु और पक्षी, ऊपा और सध्या, ऋतु और सवत्सर-सव मे हमारे पूर्वज ऋपि-मुनि परम मागल्य की प्रेममय विभूतियो के दर्शन करते थे और उनके साथ आत्मीयता तथा एकता का अनुभव करते थे, लेकिन हमे आज इन सब मे शाप का और कोप का भय ही भय दिखाई देता है। धर्म के शुद्ध और उदात्त स्वरूप को जानने वाले लोग हमारी धार्मिक विधियो मे निहित काव्य को समझ सकते है, परन्तु अज्ञानी जन-समुदाय उस काव्य को सनातन सिद्धान्त अथवा वास्तविक स्थिति मानकर विचित्र अनुमान लगा लेता है और धर्म के कार्य को विफल बना देता है।
आज हिन्दू धर्म का उत्कर्ष चाहने वाले प्रत्येक मनुष्य का पहला कर्तव्य यह है कि वह अपने समाज मे धर्म का शुद्ध स्वरूप प्रकट होने की आतुरता से प्रतीक्षा करे। इस बात को हमे अच्छी तरह समझ लेना चाहिये और दूसरो को समझाना चाहिये कि जिस धर्म मे सत्य की निर्भयता और प्रेम की एकता नही है, जिसमे नि स्वार्थ त्याग की भावना नहीं है, जिसमे उदारता की सुगध नही है, वह धर्म नही है। अब हिन्दू धर्म के सस्करण और परिष्करण का समय आ गया है, क्योकि उसके ऊपर जमी हुई अशुद्धि की परते अव उसका दम घोटने लगी है।
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