________________
प्रस्तावना
साहित्यकार साहित्य का वह महतो महीयान् देवतात्मा हिमगिरि है, जिसके अन्तस्तल से जनमन को पावन करने वाली माहित्यिक भावधारा प्रवाहित होती है । ग्रन्तस्तत्त्व का साहित्यकार, लिखने के लिए नही लिखता । वह लिखता है सत्य के साक्षात्कृत ज्ञानसागर मे सहज रूप से उच्छलित उदात्त भावतरंगो को जनहित मे शब्दबद्ध करने के लिए। यह लेखन, उसकी अपने में अनिवार्यता है । सत्य का बोधामृत ज्योही अनुभूतिगम्य होता है, त्यही उसे वह जनकल्याणी भावना से जन-जन मे मुक्तभाव से वितरण करने के लिए ग्राकुल हो उठता है । साहित्य शब्द का निर्वचन है - " सहितस्य भाव साहित्यम् ।" उक्त निरुक्ति मे जो 'हित' मुखरित है, वही सार्वजनीन सर्वमंगल हित है, जो तत्त्वदर्शी साथ ही उदारमना एव करुणामूर्ति साहित्यकारो को साहित्य लेखन मे प्रवृत्त करता है। यही वह साहित्य है, जो काल के तीव्रगति से बहते प्रवाह मे भी चिरस्थायी रहता है, और रहना हे हरक्षण ताजा । वह यो ही अकालमृत्यु नही पा जाता, बासी नही हो जाता कि ग्राज वना श्रीर कल मुर्दाघाट मे या रद्दी की टोकरी मे ।
प्रज्ञापुरुप, विद्वद्वरेण्य श्री काका साहेव यथार्थ मे उपरि वर्णित महत्तम कोटि के साहित्यकार है । उनका साहित्य न किसी सम्प्रदाय एव मतविशेष की रूढ मान्यताओ पर प्राधारित होता है और न किन्ही पूर्वाग्रहो मे प्रभावित । उनके साहित्य का मूल स्वानुभूति सत्य पर प्रतिष्ठित है । उनका सत्य केवल भाषा का सत्य ही नही, उनके स्वय के शब्दो मे जीवन सस्कृति की बुनियाद है । सत्य से भिन्न कोई धर्म हो ही नही मकता । तीर्थकर भगवान महावीर का सत्य के सम्बन्ध में एक बोधवचन है 'मच्च खु भगर्व'"- - सत्य ही भगवान है । और, इसी श्रमर दिव्यध्वनि से मुखरित सत एकनाथ का वचन उद्धृन करते हुए काका साहेव ने कहा है- 'सत्य ही परब्रह्म है' - 'सत्य तेचि परब्रह्म ।' जिसके अन्तश्चेतना मे सत्य के प्रति इतना प्रगाढ समर्पण हो, उसके विचार प्रोर व्यवहार मे सर्वत्र सत्य का अपराजित स्वर ग्रनुगु जित रहता है । यही
१ प्रश्नव्याकरण सूत्र