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अहिंसा का नया प्रस्थान
जीवदया, मासाहार का त्याग और अहिंसा, इन तीन वातो का प्रचार कुछ रिवाजी-सा हो गया है । जैन धर्मियो की घोर से इन तीनो विषयो मे कुछ-न-कुछ प्रकाशित होता ही रहता है । अनेक सस्थाये भी चलती है । गाँधीजी ने श्रीमद् राजचन्द्रजी से कुछ प्रेरणा पाई, इस बात से जैनियो का राजी होना स्वाभाविक है। गाँधीजी के ग्रहसा प्रचार का स्वरूप कुछ अलग ही था। लेकिन जीवदया और मामाहार-त्याग दोनो के बारे मे गाँधीजी का उत्साह कम नही था । मनुष्य के लिये मासाहार स्वाभाविक नही, शाकाहार, धान्याहार अथवा अन्नाहार ही मनुष्य के लिये योग्य आहार है ऐसा गाँधीजी का दृढ विश्वास था । पश्चिम के चन्द शाकाहारी प्रपने सिद्धान्त के प्रचार मे शाकाहार के नैतिक तत्त्व पर भार न देते हुए मासाहार मनुष्य शरीर के लिये बाधक है इस बात पर अधिक जोर देते है। गाँधीजी जब आखरी वक्त लन्दन गये थे जब वहाँ के शाकाहारी मण्डल को उन्होने भारपूर्वक कहा था कि शाकाहार- प्रवार को केवल आरोग्य-प्रधान वैद्यकीय बुनियाद मत दीजिये । शाकाहार की बुनियाद तो नैतिक याने दयामूलक प्राध्यात्मिक ही होनी चाहिये ।
गांधीजी ने भारत के हम लोगों को समझाया कि मामाहारी लोगो को पापी कहने से या समझने से हमारा प्रचार विगड जायेगा। यूं देखा जाय तो शाकाहार र फलाहार मे भी सूक्ष्म हिंसा तो है ही और दूध कोई वनस्पतिजन्य पदार्थ नही, प्राणीज वस्तु है । दुनिया की अधिकाश जनता मासाहारी है । वह मासाहार को पापमूलक नही समझती । ऐसी हालत मे हम धैर्य के साथ और प्रेम के साथ उन्हे समझाने की कोशिश करें । लेकिन उनके प्रति नफरत रखने का पाप न करें ।
लेकिन गांधीजी ने मानव-मानव के बीच जो भयानक सघर्ष और विद्वेष चल रहा है उसी को केन्द्र मे रखकर हिंसा का प्रचार किया । राष्ट्रराष्ट्र के बीच, वश-वश के बीच, वर्ग वर्ग के बीच और धर्म-धर्म के बीच जो विद्वेष और सघर्ष पाया जाता है उसे दूर करदे । अन्याय का प्रतिकार श्रात्मबलिदान द्वारा करने का शास्त्र गाँधीजी ने चिन्तक गाँधीजी की यह बान समझ गये है
बताया । विश्व के मानव - हिनऔर अपने-अपने ढंग से इस चीज