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हिसा की पुण्यभूमि
जन्म और मृत्यु जीवन के दो पहलू है । इन दोनो के प्रति जिसे मोह हो, वह जीवन-निष्ठ नही हो सकता । भव तृष्णा और विभव तृष्णा दोनो जीवन-द्रोही है । इमलिए, जो कोई जीवन - देवता की उपासना करना चाहे, उसे अहिंसा के द्वारा मृत्यु पर विजय प्राप्त करनी चाहिए और तपस्या के द्वारा जीवन का साक्षात्कार करना चाहिए ।
मृत्यु को जीतने के अनेक प्रयत्नों का उल्लेख हर एक धर्म के ग्रन्थो मे पाया जाता है। हजारो वर्षो तक शरीर को बनाये रखना, वार्धक्य टालना, रसायन खा कर वज्रकाय होना श्रादि श्रमर होने के सच्चे उपाय नही हैं । अमर होना हो, तो मृत्यु को परास्त करना चाहिए। जिसका मृत्यु मे विश्वास है, वही दूसरे को मारने का और अपने लिए मृत्यु टालने का प्रयत्न करेगा | जिसने यह जान लिया कि मृत्यु निर्वीर्य है, वह किसी को उसकी इच्छा के विरुद्ध मारेगा नही और जहाँ मर जाना श्रावश्यक हो, चहाँ मृत्यु का स्वागत करने मे हिचकेगा नही, उसी को हम मृत्युंजय कह सकते है ।
ऐसे जो इने-गिने मृत्युंजय महापुरुष संसार मे हो गये है, उनमे महावीर का स्थान अनोखा है क्योकि उन्होने मनुष्य जाति मे विश्वास करके अहिंसा के अन्तिम स्वरूप का उपदेश किया । प्राज हम कहते है, "मनुष्यमनुष्य का वैर शान्त नही हुआ है, भाई की हत्या से भाई नही हिचकता । जिसका वह दूध पीता है, गाय आदि पणु को मारकर खाने मे भी मनुष्य ने कोई कोर-कसर नही की। जिन जानवरो को पालकर अपने परिवार मे दाखिल किया, जिनकी मेहनत से अपना आहार जुटाया, उसको कत्ल करने मे भी जिसका दिल नही पिघलता, उस मनुष्य प्राणी से यह कहना कि 'तू हिंस्र पशु की भी हत्या न कर, कृमि - कीटको को भी यथाशक्ति बचाने की कोशीश कर और वनस्पति आहार मे भी जहाँ तक हो सके, जीव रक्षा का ध्यान रख,' शुद्ध मूर्खता है ।"
परन्तु, किसी ने यह नही कहा है कि जीव मात्र के लिए आदर भाव रखना हमारा धर्म नही है । और, अगर, हिंसा के आत्यन्तिक त्याग में ही जीवन की सफलता हो, तो जिमे उसका साक्षात्कार हुआ हो, उसे उस सिद्धान्त को जनता के सामने रखना तो अवश्य चाहिए। उस वस्तु को स्वीकार करने की पात्रता श्राज मनुष्य जाति मे मले ही न हो, उसमे से कही-कही केवल हास्यास्पद दम्भ भले ही पैदा होता हो, तो भी सत्य वस्तु