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सुधारक धर्म मे सुधार
91 नाम पर उनको प्रतिष्ठा मिली है वह धर्म गहरे सोच में पड़ जाता है कि 'अब मैं कहाँ जाऊँ ? जिनके आधार को मैंने मुख्य माना था वे मेरे रक्षक होने का दावा तो करते है, परन्तु अपने जीवन से ही मेरा गला घोटते है।' महाराष्ट्र मे नागपुर के पास रामटेक नामक एक स्थान है। वहाँ का एक जैन-मन्दिर देखने मै गया था। उसके द्वार पर बन्दूक, तलवार आदि शस्त्र रखे गये थे और सिपाही उस मन्दिर की रक्षा करते थे। इस तरह मन्दिर मे एकत्र की हुई धन-दौलत की रक्षा जरूर होती थी, लेकिन अहिंसा-धर्म की तो निरन्तर विडबना ही होती थी।
धन-दौलत के भडार और अहिंसा का मेल कभी बैठ ही नही सकता । यूरोप मे अहिंसावादी क्वेकरो को और भारत मे अहिंसावादी जैन लोगो को काफी धनी देखकर मेरे मन मे शका होती है कि इन लोगो की समझ मे अहिंसा-धर्म अच्छी तरह आता होगा या नही ? गरीवो का वृत्तिच्छेद किये बिना कोई धनवान हो ही नहीं सकता और वृत्तिच्छेद मे शिरच्छेद से कम हिंसा नही है। यदि धर्माचार्य धर्म की विजय देखना चाहते हो, तो उन्हे समाज की अन्याय मूलक व्यवस्था को बदलना ही होगा और ऐसी स्थिति लाने का प्रयत्न करना होगा जिसमे प्रत्येक मनुष्य को उसकी मेहनत का पूरा फल मिले ।
यह अच्छा ही हुआ कि प्राचीन काल मे आहारशास्त्र के सूक्ष्म नियम बनाये गये। परन्तु आज वे नियम बदलने ही चाहिये । नया आहारशास्त्र बडी तेजी से विकास कर रहा है। धर्म की दृष्टि से उसका लाभ उठाकर धर्माचार्यों को चाहिये कि वे अपने समाज को नया रास्ता दिखाये । मेरी समझ मे यह बात नही आती कि प्याज, आलू, बैगन या टमाटर न खाने मे धर्म मानने वाले लोग कीडो को उवाल कर तैयार किये हुए रेशम के कपडो का घर मे और उपाश्रय मे कैसे उपयोग करते होगे । लेकिन यह तो तुलना मे एक गौण बात हुई । आज स्त्रियो, हरिजनो, गरीवो, किसाना और मजदूरो के प्रति जो जीवन-व्यापी अन्याय चल रहा है, उसे रोकने के लिए धर्मवीरो को कटिबद्ध होना चाहिये ।
जैन का अर्थ है वीर । उसे तो सदा लडने की तैयारी रखनी ही चाहिये । उमका शस्त्र अहिंसा है, लेकिन इस कारण कम वीरता से उसका काम नही चल सकता । जिस धर्म की स्थापना एक महान् सुधारक ने की