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________________ 86 महावीर का जीवन सदेश सव को भूलकर धर्म का ही द्रोह करने वाले धर्मान्ध आचार्य धर्म को रक्षा नही कर पायेगे । शान्ति, नितिक्षा और उदारता जिनमे है, विरोधी पक्ष के तर्क मे रहे सत्याश और शुभ हेतु को समझने और स्वीकारने जितना स्याद्वाद जिन के गले उतर गया है, ऐसे धर्म-परायण लोग ही धर्म के रक्षक होते है । उच्च धर्मं मे जन्म पाने से मनुष्य उच्च नही होता, परन्तु उच्च जीवन से ही वह उच्च बनता है, यह वुद्ध और महावीर ने अनेक बार कहा है । धर्म का अर्थ ही है जीवन सुधार । प्राकृत मनुष्य का जीवन सामान्यत आहार-निद्रादि आवश्यकताओ के, राग-द्वेषादि वासनाओ के तथा दम्भमत्मरादि विकृतियो के अनुसार ही वहता रहता है। इसमे सुधार कर के जीवन को सु-सस्कृत बनाना ही धर्म का मुख्य कार्य है । जिस प्रकार जीवन पर जग चढता है उसी प्रकार धर्म-वचनो और धार्मिक संस्थानो पर भी जग चढता है । इस जग को दूर करने का कार्य यदि धर्म स्वय न करे तो दूसरा कौन करेगा ? सामाजिक सुधार ही धर्म का प्रयोजन है । यदि कोई यह कहे कि बुद्ध और महावीर के बाद समाज-सुधारको की आवश्यकता नही रही, तो इससे यही सिद्ध होगा कि बुद्ध और महावीर की भी उनके जमाने मे कोई आवश्यकता नही थी । प्रत्येक धर्म -सस्थापक पर यही न्याय लागू होता है, भले ग्रन्थ-वचन कुछ भी कहे । ' ऐसा एक भी देश नही है और ऐसा एक भी युग नही है, जिसे समाज सुधार करने के लिए धर्म-सस्थापक प्राप्त न हुए हो ।' इसलिये हमे धर्म से ही समाज-सुधार के सिद्धान्त मिल सकते है । और इन सिद्धान्तो का उपयोग सर्वप्रथम हमे प्रगति सिद्ध करने, धर्म सस्था को सुधारने के लिए ही करना चाहिये । प्रगति का अर्थ क्या है ? यह प्रश्न हमेशा उठता है जहाँ जीवन के आदर्श बार-बार बदलते है वहाँ प्रगति की दिशा निश्चित करना आसान नही होता । सामान्यत यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक समय के लोगो को तात्कालिक जो कुछ वाछनीय मालूम हो उसकी परिवर्तन करना प्रगति है । लोगो को जो दिशा वे जायेगे । एक समय हमारे लोगो ने सगीत और उन्होने इन दोनो कलाओ को सामाजिक बुराई मान के कुछ लोगो ने इन कलाओ के खिलाफ जोरो का और जाने के लिए आवश्यक पसद होगी उसी दिशा मे नृत्य की निन्दा की थी । लिया था । उस समय आन्दोलन कियाथा ।
SR No.010411
Book TitleMahavira ka Jivan Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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