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महावीर का जीवन संदेश
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रहकर मैने गांधीजी की
महात्मा गाँधीजी के साबरमती आश्रम में हसा समझने की पूरी कोशिश और साधना की और हिंसात्मक क्रान्ति का मार्ग छोडकर श्रहिमात्मक सत्याग्रह की चोर भुडा । मेरा श्रहिंसा का अध्ययन' केवल दार्शनिक नही था। मैं अपना जीवन ग्रहिसमय करने की कोशिश arat था | स्वाभाविक था कि गुजरात के अनेक जैनियो से मेरा परिचय वढा । उन्हें ने मुझे अपनी विरादरी मे ले लिया । यहाँ तक कि पर्युपण-पर्व मे व्याख्यान देने के लिए मेरे बम्बई के मित्र मुझे वर्षों से बुलाते आये है । क्षुल्लक गणेशप्रसाद जी जैसे जैन धर्म प्रचारक को अभिनन्दन ग्रथ अर्पण करने के लिए मुझे बुलाया गया था। इस तरह से जैन स्नेही मुझे अपनाते गये और धीरे-धीरे मै भी मानने लगा कि मैं जैन हूँ । एक जैन कन्या ने मेरी पुत्रवधु बनकर उस भावना को मजबूत किया। मै अनेक जैन मन्दिरों
के
श्रद्धा-भक्ति से गया हूँ और वहाँ प्रेम और प्रादर से मेरा स्वागत भी हुआ। हैं । पालीताणा के पास शत्रुंजय के पहाड़ पर भी जैन मन्दिरों की यात्रा मैंने की है। आबू के जैन मन्दिरो की शिल्पकला का प्रास्वाद मैंने लिया है ।
लेकिन हरिजन और देवद्रव्य का परिवर्तन हो रहा है । कुछ दिन हुए मैं
सवाल लेकर जैनियो मे शायद कुछ अजमेर मे, जैनियो के सुवर्ण मन्दिर गया था । इसके पहले भी एक बार गया था। अब की बार देखा तो जैनेतरो को अन्दर प्रवेश नही है । वैसे नोटिस लगी थी। मैने कहा कि नोटिस के अनुसार शायद मैं अन्दर है । मुझे नही जाने दिया । लेकिन वे अन्दर नही गये जैनेतर हूँ ।
नही जा सकता हूँ, मेरे साथ पदमचन्द्र । अजमेर मे मुझे
लेकिन दर्शन की अभिलाषा सिंघी थे । वे जा सकते थे, अनुभव कराया गया कि मैं
प्राजकल चन्द जैन कहने लगे है कि वे हिन्दू नही है । मरजी उनकी । मै तो हिन्दू उसे कहता हूँ, जिसका चित्त हिंसा से दुखी होता है ।
हिसा मनुष्य जाति के मन में धीरे-धीरे प्रकट होती है, पहले स्थूल रूप मे । बाद मे वह सूक्ष्म होती है। हर एक युग में अहिंसा कुछ आगे वढती है । भगवान् महावीर ही एक ऐसे थे जिन्होने अपने जमाने से बहुत आगे जाकर सूक्ष्मातिसूक्ष्म अहिसा का उपदेश दिया ।