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नया समन्वय
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वौद्ध दर्शन कहता है— श्रात्मा और परमात्मा, जीव और ईश्वर की झझट मे आप पडे ही क्यो ? हमारा सम्बन्ध ग्राता है जीवन के साथ । जीवन की उन्नति करना हमारा ध्येय है । हमारा नित्य का अनुभव है कि जीवन दुखमय है । वह दुख वामना के कारण पैदा होता है । वामना-विजय से दुख दूर होकर जीवन शुद्ध होता है। ऐमी जीवन-सिद्धि का मार्ग है-शुद्र जीवन-दृष्टि, शुद्ध सकल्प, शुद्ध प्रवृत्ति, गुद्ध जीविका आदि आठ प्रकार की साधना | हमारा कर्तव्य है जीवन के प्रति । एक वार जीवन शुद्ध हो गया और ग्रहकार का नाश हुप्रा तो फिर जो स्थिति होगी उसी को निर्वाण कहते है |
'निर्वाण परमा पान्ति' प्राप्त करने के लिए मनुष्य को धर्माचरण करना चाहिये । हम ग्राज जिसे धर्म कहते है वह वस्तु बहुत जटिल वन गई है । शास्त्र, पुराण, तरह-तरह के पन्य, त्योहार, व्रत-वैकल्य, श्राद्वादि नम्कार, भूत-प्रेतो की पूजा, दान-धर्म, मदावन-कौन-सी बात का धर्म मे समावेश नही होता ? भगवान् बुद्ध अपने उपदेश मे जिम धर्म का उल्लेख करते थे, उती को हम 'धम्म' कहे । मन पाप कर्मों का त्याग करना, कुशल कर्म करते रहना, चित्त-शुद्धि के लिए प्रयत्न करना, मयमपूर्वक जीवन व्यतीत करना और ग्रहकार छोडकर अन्तिम शान्ति तक पहुँचने की तैयारी करना इसको भगवान् 'धम्म' कहते है । 'कल्याणो धम्मो । धर्म का पालन करने में, अनुशीलन करने से ही व्यक्ति का, समाज र विश्व का कल्याण होता है ।
श्रायु के स्सी वर्ष तक इस 'कल्याण उसके प्रचार के लिए एक धर्म-सेना तैयार निर्वाण प्राप्त कर लिया ।
धम्म' का उपदेश करके और करके सिद्धार्थ गौतमबुद्ध ने
इस बात को ढाई हजार साल हो चुके । भगवान् महावीर भी उसी समय के थे । ढाई हजार साल के बाद दुनिया के राष्ट्रो की स्थिति का खयाल करते और मानव संस्कृति का तय किया हुया रास्ता देखते श्राश्चर्य होता है कि भगवान् बुद्ध का उपदेश, भगवान् महावीर का उपदेश श्रौर वेदान्त की सिखावन अभी तक 'वासी' नही हुई है और गौडपादाचार्य के अनुसार कहना पडता है कि वाद-विवाद का अखाडा छोडकर समन्वय की उच्च भूमिका पर चलें । हर एक दृष्टि और हर एक भूमिका का सहानुभूति के साथ चिन्तन