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अहिंसा की पुण्यभूमि छाया, पूजा के अक्षत-जैसी धवल रेत और 'हम कोई सामान्य पादप नही है, कुदरत के दरवार के दरवारी है, ऐसे गर्व से झूमने वाले ताड के वृक्ष और बीच-बीच मे घास और हरियाली का गलीचा सभी कुछ चित्त को तर करने वाला था। 'मैं आई, मै आई' कहती हुई सध्या ने सोने के छोटे छिडकना शुरु कर दिया था और पिता के समान पहाड उसे रोक रहा था।
रेत मे मोटर चलाना कोई सहज काम नही था । परन्तु गाँव के लोगो ने ताड के विशाल हाथ रेत मे समानान्तर पसार दिये ये । इमलिये, हम आसानी से उस पार जा सके और वहाँ से पीछे की तरफ मुंह फेरकर अतृप्त आँखा से उस सारे दृश्य का फिर से पान कर सके । हम जहाँ खडे थे, वहाँ हमारे पीछे छोटा-सा गिरियक गॉव व्याल की तैयारी कर रहा था।
गिरियक पार करते ही हम वज्रलेप रास्ते पर आये और वाई ओर हमने पाँच मील की दौड लगाई । यह सारा रास्ता तय करते वक्त हमारी
ऑखें पश्चिम दिशा की तरफ लगी हुई थी । पहाड लॉघते ही सूर्यनारायण के फिर दर्शन हुए, जिसका प्लैटिनम अव सोने का रूप ग्रहण कर रहा था। ताड के पेड खिलाडी वालको की तरह दौड-दौड कर दर्शन मे अन्तराय करते और दर्शन का आनन्द दस गुना बढाते थे। अस्तायमान सूर्य अपनी शोभा से यह सिद्ध कर रहा था कि आर्यजन प्रत्येक स्थिति में प्रार्य ही रहते है और आदर के अधिकारी होते है । क्या यहाँ की खेती, क्या ताड के और दूसरे पेड, क्या रास्ता सभी कलामय नजर आते थे । आधे बुने हुए खेत अपनी सीधी लकीरो से सारे चित्र को रेखाकित कर रहे थे और मूरज हलके-हलके अपना ऊँचा स्थान छोडकर पृथ्वी को पुचकारने और महलाने के लिए नीचे उतर रहा था । आँखो को चौधियाने वाला अपना तेज अब उसने उतार रखा था। सूर्यास्त को आखिर तक देखते रहे या नहीं, इसका निर्णय कर सकने के पहले ही हमारी दाहिनी तरफ रास्ते पर के खम्भा ने 'पावापुरी रोड' की गर्जना की और हमने तुरन्त ही दाक्षिण्य का सेवन किया।
हरे-हरे खेतो के विस्तार मे पावापुरी के शुभ्र मन्दिर कमे शोभा देते है ? इस जगह एक आर्य-हृदय के जीवन-काल का अन्त हुआ था। इस जगह 'वायु अनिल, अमृत अथेद भस्मान्त शरीर' की वेदवाणी कृतार्थ हुई थी और यहीं मे भगवान् महावीर के गणधर अहिंमा का सन्देश लेकर दस दिशाओ मे फैल गये थे । जिसने उस स्थान को 'अपापापुरी' का नाम दिया, उसे अतिशयोक्ति करने की आदत थी, ऐमा कोई नहीं कह सकता । अहिमा, अपरिग्रह