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महावीर का जीवन सदेश पाकर, उन्होने राज-पाट छोड दिया और पुत्रो को राज्य-भार सौप कर, गुरु के साथ, जैनियो की इस तपोभूमि मे रहना पसद किया। गुरु ने जब देखा कि वृद्धावस्था पा रही है तो सलेखना (समाधि-मरण-मरण समय सव कुछ त्याग देना) द्वारा शरीर को छोड दिया । चन्द्रगुप्त ने बारह वर्ष तक गुरु पादुकाओ की पूजा की और अन्न मे स्वय ने भी सलेखना कर अपनी जीवनलीना समाप्त कर दी।
कुछ लोगो का कहना है कि यहाँ आने वाले चन्द्रगुप्त अशोक के दादा मौर्यवशी नही, प्रत्युत समुद्रगुप्त के द्वितीय पुत्र चन्द्रगुप्त थे। इस मान्यता के पीछे जवर्दस्त ऐतिहासिक प्रमाण हो सकते है । इतने पर भी यदि यह मान लिया जाय कि ये मौर्य ही थे तो अशोक के शिलालेखो मे उसके दादा का उल्लेख क्यो नही मिलता ? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है । चन्द्रगुप्त ने जैनधर्म की दीक्षा ली, इससे अशोक ने उसकी उपेक्षा की अथवा वह यहाँ आया ही नहीं, यह कौन कह सकता है ?
चन्द्रगिरि और विध्यागिरि दोनो पहाडियां इतनी पास-पास हैं और इनके आस-पास का प्रदेश इतना सुहावना है कि कवि-हुदय यहाँ आकर निवास किये बिना नहीं रह सकता। लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि ससार से पीडित और जीवन से उदासीन साधुओ ने सनेखना के लिए ऐसा सुन्दर-स्थान चुना। जिस प्रकार भैरवघाटी आत्म-हत्या के लिए पसद की जाती है, उसी प्रकार असख्य जैनियो ने चन्द्रगिरि को सलेखना के लिए पसद किया था। आज भी कितने ही जैन दिगम्बर साधु इस पर्वत पर आकर अपने अन्तिम दिन पूरे करते है।
___ इन दोनो पहाडियो के बीच मे एक सुन्दर, स्वच्छ और चौरस तालाब है । इसी का नाम बेलगोल अथवा सफेद तालाब (धवल सरोवर) है । श्रमणो (साधुओ) के यहाँ रहने के कारण ही इसका नाम श्रवणबेलगोल पडा होगा और आगे चलकर लोग। ने इसी को श्रवणवेलगोल कहना पसद क्यिा होगा। बेलगोल का अर्थ सफेद बैंगन भी होता है और गोमटेश्वर के अभिषेक के साथ सम्बन्ध रखने वाली एक भक्त बुढिया के साथ बैगन का सम्बन्ध है। जो हो, श्रवणवेलगोल जैनियो का एक बडा तीर्थ-स्थान है ।
हासन से हम दोपहर को रवाना हुए। पांच-छ आदमियो का सग था। रवाना होने में काफी वक्त लग गया। तेईस मील की दौड पूरी कर हमारी बस (मोटर-लारी) चन्नरायपट्टण आ पहुँची। वहाँ से आठ मील