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महावीर का जीवन सदेश
ऐसे लोगो की विचार-पद्धति मै धर्मों का मादर्श स्वरूप भूतकाल में ही था। याज्ञवल्क्य, जनक, अष्टावक्र, गौडपाद, शकर, रामानुज, मध्व, वुद्ध, महाबीर आदि लोगो मे मानवता का पूर्ण विकास हुआ था। उनके आगे अब कोई जा नहीं सकता। वे सर्वज्ञ थे, हम अल्पज्ञ है। वे पूर्ण पुरुष थे । अब वह पूर्णता फिर से पाने वाली नही । इसलिये हमे मान ही लेना चाहिये कि जो कुछ भी श्रेष्ठता कल्पना मे आ सकती है वह इन प्राद्य धर्मसस्थापको मे थी ही। अगर इतिहास कुछ दूसरी बात कहता है तो इतिहास गलत है अथवा उसका अर्थ दूसरे ढग से करना चाहिये ।
___ अगर कोई कहे कि आजकल के कोई युगपुरुष प्राचीनकाल के प्रवतारी पुरुषो से भी श्रेष्ठ थे अथवा है, तो उनके लिये ऐसी बात सुननी भी असह्य होगी। धार्मिको की वात दरकिनार, अगर मैंने कहा कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर महाकवि कालिदास से कई दर्जे श्रेष्ठ और प्रतिभाशाली थे तो हमारे लोगो को अच्छा नही लगेगा।
हम लोगो ने एक और भी तरीका चलाया है। प्राचीनकाल के श्रेष्ठ पुरुषो को हम ईश्वर का अवतार बनाते है और ईश्वर की सम्पूर्णता का उन पर प्रारोप भी करते है। फिर तो ऐतिहासिक तथ्यो के लिये कोई जगह ही नही रही । राम, कृष्ण, शकर, बुद्ध, महावीर, रामकृष्ण परमहस सब के सब परमात्मा के अवतार ही थे। उनमे कुछ अपूर्णता थी ही नहीं। अपूर्णता का अवकाश ही उनमे कहाँ से हो सके "
जो बात धर्ममस्थापको की और अवतारी पुरुषो की, वही बात धर्मग्रन्थो की। उन ग्रन्थो मे सम्पूर्ण ज्ञान और पूर्ण विकसित ज्ञान पाया जा सकता है। उन मे गलती होने की सभावना ही नहीं है। धर्म का पूर्ण विकसित रूप इन ग्रन्थो द्वारा प्रकट हो सके ऐमा ही उनका अर्थ करना चाहिये ।
जिन लोगो ने ऐसी मनोभूमिका धारण की उनके लिये भविष्यकाल कुछ मानी ही नहीं रखता।
अहिंसा धर्म लीजिये। अगर शुद्ध दृष्टि से प्राचीन इतिहास और प्राचीन धर्मग्रन्थो का अध्ययन हम करे तो हमे पता चलता है कि अहिंसा धर्म का प्राकलन कही स्थूल था, कही सूक्ष्म था। उसके पालन मे पहले क्षति ज्यादा होती थी। सामान्य जनता तो प्रमादी ही रहती है। हर एक जमाने के श्रेष्ठ