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नया आध्यात्मिक समाजशास्त्र
मनुष्य-स्वभाव मे जो अनेक सद्गुण है उनमे सहयोग और सहकार का सामाजिक महत्त्व बहुत है । बहुत से लोग एक कल्पना से या ध्येय से प्रेरित होकर जब एकत्र काम करने लगते है तब असाधारण शक्ति पैदा होती है । अगर ये लोग केवल एक ध्येय से ही नही, वल्कि एकतन्त्र से चलने लगे, तो उनकी शक्ति करीब-करीब अमर्यादित हो जाती है । यह सहकार शक्ति आज के युग मे ही विशेष विकसित हुई है ऐसा कहा जा सकता है । जब लोग व्यक्तिगत जिम्मेवारी पहचान सकते हैं और सोच समझकर कोई तन्त्र पैदा करके उस तन्त्र के अधीन निष्ठा से वरतने लगते है तब उनका सघ- सामर्थ्य शारीरिक, बौद्धिक और प्राध्यात्मिक तीनो तरफ से सर्वसमर्थ बनता है ।
पशु मे चन्द पशु जगल मे अकेले अकेले रहते है और चन्द वडे - वडे झुण्ड बना कर रहते है । हिरन, भेडिये यादि प्राणिय के झुण्ड और उनकी तन्त्रनिष्ठा विख्यात है । पक्षियो मे और कीटको मे भी इस प्रकार की समूह निष्ठा दिखाई देती है । चीटियाँ, मक्खियाँ, दीमक श्रादि क्षुद्र लगने वाले कीट भी वडे-वडे समाज चलाते हे । जिस टिड्डी दल के हमले से देखतेदेखते हमारा भारी नुकसान हो जाता है उस टिड्डियों के दल मे भी एक तरह की व्यवस्था होती है । कोट्यवधि टिड्डियां मील के मील फैलती हैं। और एक साथ मिलकर प्रवास करती है । कभी-कभी विलकुल अकस्मात् वे सब की सब अपनी दिशा बदलती है | यह फेरफार कौन सुझाता है ? हुकुम कौन देता है ? और वह सर्वत्र एकदम कैसे फैलती है ? यह एक गूढ रहस्य ही है ।
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लेकिन क्या पशु पक्षियो और कृमि कीटो की इस समूहवृत्ति को हम सहकारिता कह सकते है ? मनुष्य की सहकारिता मे उसके व्यक्तित्व का विकास होता है । वह व्यक्ति-स्वातन्त्र्य का प्रेमी होता है । समूह से अलग होकर स्वतन्त्रता से जीने की उसमे हिम्मत होती है । उसको मालूम होता है कि तन्त्रनिष्ठा को स्वीकार करने मे व्यक्तिगत जीवन के महत्त्व का भाग छोड देना पडता है । उसके गुण दोप भी वह जानता है। और फिर विचारपूर्वक स्वेच्छा से वह तन्त्रनिष्ठा को स्वीकार करता है । क्या पशु-पक्षियो के टालीधर्म को इस तरह सहकारिता कहना ठीक होगा ? शायद ठीक नही होगा ।