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महावीराज
है।
वेद को प्रमाण दो मानते है, कर्य करने में हैं। वन के ही नहीं यसरी के किये वेद के अर्थ से भी वे तत्त्वत बँधे नहीं है कान छेद के प्रति आदर अवश्य रखते हैं लेकिन हर एक बचत का प्रामाम्य स्वीकार नहीं करते। आज कल के बहुत से मनान देव के प्रति सर्वसामान रखते हैं। वे लोग न वेद पढ़ने हैन उनके वचन ने अपने को देना है। हिन्दु संस्कृति की गगोत्री है, इसलिये उस प्रेमन्ति वे अवश्य रखते हैं। गांधीजी की यही भूमिका है। कोक्तियुत धर्मानुकूल न होता हो, वहाँ हम बह कमरे में नहीं आता या अर्थ करने में कुछ भूल हुयी है या
हैं
नहीं है, 'जिन सदर्भ को हम नही जानत ऐम. कु सदर्भ के अनुसार ही वह वचन योग्य होता हावा
हम लोग वेद-वचनों ने से उन्ही को स्वीकार करते हैं, गे बुद्धिशास और धर्मानुकूल हो । बाकी वचनो के प्रति हम मानान रही या सहानुभूतिपूर्वक उनका व्यापक अर्थ करेंगे या यादर के साथ उमे रख देने । निर्दोष ही शाह्य हो सकता है। यह सारा भाववि
ने 'विगतृ" मे भर दिया है । स्वामी दयानन्द सरस्वती न ग्रन्य ग्रन् पावलम्बियों की अपने 'सत्यार्थ प्रवाश' म वडी ही कही
की है। किन्तु ब्रह्म समाजिया से अपील करते समय अनुनय को वृति है, यह बात महत्त्व की है। ब्रह्म समाजियो के सिद्धाना करने पर वे तुले नहीं दीख पडते । किन्तु उनके साथ राष्ट्रीय, सास्कृतिक के भाव में वे अनुनय करते दीख पडते हैं।
Fearer या sare सम्प्रदायी लोग वेद के प्रामान्य के frage उदामीन है। कुछ वैष्णव कहते हैं कि हम हिन्दू हैं या नहीं, यह नही जानते। उनका भाव यह है कि धर्म है । मुसलमान ईसाई, पारसी, यहूदी आदि सब लोग कर सकते हैं । बौद्ध और जैन तो वेदप्रामाण्य से says trait at मा का भी मान्य नहीं । व
कोई सम्बन्ध नही । क्खि लोग ईश्वर भक्त हैं, जाfi के प्रति कम से कम उदासीन तो है ही । अवतारवाद के बी