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सर्व त्याग या सर्व स्वीकार ?
अनुयायी तो सब से बडी बला है । कोई किसी का अनुयायी न रहे इसी बात का हम पुरस्कार करे ।
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बात फिर से यहीं आकर खडी होती है कि जिन लोगो मे धर्म का आग्रह नही होता, जिनकी 'धर्म' - निष्ठा शिथिल होती है वे ही सर्व-धर्म समभाव की बात मानते है और वे ही धर्मों को गौण बनाकर हृदय की स्वतन्त्रता कबूल करते है ।
ऐसी हालत मे हृदय की स्वतन्त्रता स्थापित करने के लिये सब धर्मो का विरोध करने की अपेक्षा सब धर्मों के उत्तम तत्वों का स्वीकार करना ही अच्छा रास्ता है । हम सघर्ष मे न उतरे । हृदय से सब धर्मों के प्रति आत्मीयता धारण करे और धार्मिकता की शक्ति पर विश्वास रखे, यही सच्चा मार्ग है । तत्त्वनिष्ठा और व्यवहार दोनो की दृष्टि से यही मार्ग ठीक है ।