________________
समन्वयकारी जैन दर्शन
बौद्धदर्शन, जनदर्शन, वेदान्तदर्शन इन तीनो का अगर हम ममन्वय कर सके तो हमारी तमाम दार्शनिक कठिनाइयां दूर हो जायेगी। ममन्वय के इम प्रयास मे हमे अधिक मे अधिक महायता मिलनी है जनदर्शन से इमका कुछ चिन्तन करें इसके पहले हम इन तीनो की भूमिका फिर मे थोडे मे समझ ले।
हमने कहा ही है कि तत्त्व ज्ञान के क्षेत्र मे जितने भी दर्णन है, जीवन-रहस्य को ढूंढने की और जीवन की सफलता पाने की कोशिश करते है । इनमे वौद्धदर्शन का कहना है कि जीवन की गुत्थियां हल करने के लिये हमे प्रात्मा, परमात्मा, परब्रह्म आदि तत्त्वो की तनिक भी जमरत नही है । हमारा जीवन है, उसके राग-द्वेप है, उनको प्रेरणा देने वाली तृष्णा याने वासना है, इनके पीछे "मैं हूँ, मैं हूँ" इस प्रकार अपने अस्तित्व का अनुभव कराने वाला अहकार है । इनका स्वरूप ममझने से हम देख सकते है कि जीवन जैसा हम जी रहे है, दुःखपूर्ण है । तृप्णा दूर करो, अहकार को खत्म करो (अस्मि मानस्म यो विनयो) तो जीवन मे मुख ही मुख है, गान्ति और सन्तोप है, जो हमारे साथ स्थायी रूप मे रहेगे । इस दोप-मुक्त स्थायी शान्ति को बौद्ध 'निर्वाण' कहते है।
जैनदर्णन के अनुसार परमात्मा-परब्रह्म की तो कोई दार्शनिक आवश्यकता हे ही नही, किन्तु आत्मा को मानना जरूरी है । जिम अवस्था को वौद्ध लोग 'निर्वाण' कहते है, उसे जैन परिभापा 'केवलज्ञान' कहती है । केवलज्ञान ही सम्पूर्ण ज्ञान है, वह जव तक नही हुना, मनुष्य के जीवन का प्राकलन एकागी ही रहता है । जब एक अग से देखता है, तब उसे जीवन के एक अग का साक्षात्कार होता है । दृष्टि दूसरी ओर चलायी तो उसी चीज का दूसरी वाजू से किन्तु एकागी दर्शन होता है । सोचने के जितने तरीके उतने अलग-अलग दर्शन बनते हैं । इसको जैनदर्शन सप्तभगी-न्याय कहता है और उदाहरण देता है सात अन्धो को स्पर्श से हाथी का जो दर्शन होता है, उसके कारण उनके बीच कमा झगडा हुया । पाँव को स्पर्श करने वाला अन्धा कहता है हाथी खम्मे के जैसा है, हाथी के पेट को स्पर्श करने वाला