Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 03
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला ( तीसरा भाग) प्रस्तावना सन् १९६६ श्रावण मास में प्रथमवार, पं० कैलाश चन्द्र जी बुलन्दशहर वालों की शुभ प्रेरणा से हम को अध्यात्म सत् पुरुष श्री कांजी स्वामी के दर्शन हुए। जगत के जीव दुःख से छूटने के लिए और सुख प्राप्त करने के लिए सतत् प्रयत्नशील है। परन्तु मिथ्यात्व के कारण जगत के जीवों के समस्त उपाय मिथ्या हैं। सुखी होने का उपाय एकमात्र अपने शुद्ध स्वरूप की पहिचान उसका नाम सम्यग्दर्शन है। ऐसे सम्यग्दर्शन का उपदेश ही श्री कांजी स्वामी के प्रवचनों का सार है। हमें लगता है भव्य जीवो के लिए इस युग में श्री कांजी स्वामी के उपकार करोड़ों जबानों से कहे नहीं जा सकते है। सोनगढ़ में श्रीखेम चन्द भाई तथा श्री राम जी भाई से जो कुछ हमने सीखा पढ़ा है उसके अनुसार श्री कैलाश चन्द्र जी द्वारा ग्रंथित प्रश्नोत्तर का हमने बारम्बार मनन किया तो हमें ऐसा लगा कि हमारे जैसे तुच्छ बुद्धि जीवों की बहुलता है । अपना हित करने में निमित्त रूप से प्रश्नोत्तर के रूप में जैन सिद्धान्त प्रवेशरत्नमाला तीसरा भाग बहुत ही उपयोगी ग्रंथ होगा। हमने पडित कैलाश चन्द्र जी से इस ग्रंथ को छपा देने की इच्छा व्यक्त की। उनकी अनुमति पाकर, मुमुक्षुओं को सद्मार्ग पर चलकर अपना आत्महित करने का बल मिले ऐसी भावना से यह पुस्तक आपके हाथ में है। इस पुस्तक में कार्य की स्वतंत्रता बताने के लिए विश्व द्रव्य, गुण और पर्याय का विशेष स्पष्टीकरण किया है Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके अभ्यास से प्रवश्य ही पर कर्ता-भोक्ता की खोटी बुद्धि का प्रभाव होकर जीवों को धर्म की प्राप्ति का अवकाश है। ऐसी भावना से ओतप्रोत होकर हम आत्मार्थियों से निवेदन करते हैं कि वे इस पुस्तक का अभ्यास कर अपने हितमार्ग पर आरुढ होवें । पाठ प्रकरण १ २ ४ ५ मंगलाचरण भेद विज्ञान विश्व द्रव्य गुण पर्याय विनीत मुमुक्षुमंडल श्री दिगम्बर जैन मंदिर सरनीमल हाऊस, देहरादून मुख्य विषय तथा सम्यग्दर्शन और मोक्ष के लिए आठ बोलों का वर्णन पृष्ठ ३ १३ ૪૨ १०० १२२ १८३ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृपया शुद्धि ठीक करके पढ़ें अशुद्ध करोज संशय सशय बंध INK मिथ्यादशन बध प्रात्रव सम्बध सम्पूर्ण मिध्यादर्शन बंध प्रास्त्रव सम्बंध सम्पूर्ण पदाथ जानन सम्वध पदार्थ जानने सम्बंध ४२ सम्बष सम्बंध ४८ ४८ सम्पकता पधित्रा و प्रभद सख्या م ع सम्यक्ता पवित्रा प्रभेद संख्या द्रव्य छदमस्थ स्पर्श उत्पार व्यय द्रव्यों गुणा ८६ छमदस्थ स्पक्ष उत्पादव्य बव्यों १०५ १०८ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ܐܕ ११० १११ १२३ १२८ १३८ १५६ १६७ १७८ १८४ १८८ १८८ १६२ १९५ १९८ १६६ १६६ २०० २०० २०० कृपया शुद्धि ठीक करके पढ़े गणों सामान्त सामान्त सिद्ध १८ ११ २६ ४ १६ १३ ४ २५ १८ २५ ४ २० Ε २२ २६ १ १६ ८ १५ १८ कवलज्ञानावर्णी आहोर विभावप्रथ कहने जाति बनाया बध स द्वषादि बंध स 1÷1 ## hd म म ह स्वतंत्र बध सख्या जय महावीर जय गुरुदेव 5 गुणों सामान्य सामान्य सिद्धि केवलज्ञानावर्णी आहार विभावअर्थ कहते जातीय बताता गंध से द्वेषादि बंध ho स्वतंत्र बंध संख्या Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री बीतरामाय नमः॥ द्रव्य, गुण पर्याय हा जैन सिद्धान्त प्रवेश रलमाला तीसरा भाग मंगलाचरण 'मंगलं भगवान वोरो, मगलं गोतमो गयो मंगल कुन्दकुन्दार्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥१॥ तत्प्रति प्रोति चित्त न येन वार्तापि हि श्रुता। निश्चितं स भवेद्भव्यो, भावि निर्वाण भाजनम् ॥ पद्मनन्दि पंच विशतिका वस्तु विचारत ध्यावते, मन पावै विश्राम । रस स्वावत सुख ऊपज, अनुभव याको नाम । अनुमव चितामनि रतन, अनुभव है रस कूप । अनुभव मारग मोक्ष को, अनुभव मोक्ष स्वरुप । भेदज्ञान साबू भयो, समरस निरमल नोर । धोबो अंतर आत्मा,धौवे निज गुरण चोर ॥नाटक समयसार । जो कर सको तो ध्यानमय, प्रतिक्रमरण आदिक कीजिए। यदि शक्ति हो नहिं तो अरे. श्रद्धान निश्चय कीजिए । दगज्ञान-लक्षितं और शाश्वत मात्र-प्रात्मा मम परे । अरू शेष सब संयोग लक्षित भाव मुझसे हैं परे ।नियमसार। शास्त्रों बड़े प्रत्यक्ष प्रादि थो, जाणतो जे अर्थ ने। तसु मोह पामे नाश निश्चय, शास्त्र समध्ययनीय है। जे ज्ञान रुप निज आत्मने, परने वली निश्चय बड़े॥ द्रव्यत्व थी संबध्द जाणे, मोहनोक्षय ते करे ।। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेषी यदि जीव इच्छतो, निर्मोहता निज आत्मने । जिनमार्ग यी द्रव्योमहीं ,जाणोस्व परने गुरम बड़े ॥१०सार।। तातं जिनवर-कथित तस्व अभ्यास करोजे । सशय विभ्रम् मोहल्याग, पापो लख लीजे । तास ज्ञान का कारण, स्वपर विवेक बखानो कोटि उपाय बनाय भव्य ताको उर आनौ। लाख बात की बात यही निश्चय उर लामो तोरि सकलजग बंद-फंद, नित प्रातमध्याओछ: ढाला। देखो तत्त्व विचार की महिमा।। तत्व विचार रहित देवादिक की प्रतीति करे, बहुत शास्त्रों का अभ्यास करे, व्रतादिक पाले, तपश्चरणादि करे, उसको तो सम्यक्त्व होने का अधिकार नही, और तत्व विचारवाला इनके बिना भी सम्यक्त्व का अधिकारी होता है । .. "इसलिए इसका तो कर्त्तव्य तत्त्व निर्णय का अभ्याम ही है. इसीसे दर्शन मोह का उपशम तो स्वयमेव होता है, उनमें जीव का कर्तव्य कुछ नहीं' [प्राचार्य कल्प पडित श्री टोडरमल जी मोक्ष मार्ग प्रकाशक] जिन, जिनवर और जिनवर वृषभ द्वारा द्रव्य गुण पर्याय का सूक्ष्म रीति से अभ्यास ही सच्ची धर्म प्रभावना है प्रत्येक भव्य जीव इसका सच्ची दृष्टि से अभ्यास कर मिथ्यात्व का अभाव कर, सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर, कम से मोक्ष का पयिक बने । इस बात को ध्यान में रखकर प्रश्नोत्तर के रुप में द्रव्य गुण पर्याय का क्रम से वर्णन किया जाता है। जिनमत मे तो ऐसी परिपाटी है कि प्रथम सम्यवत्व और फिर वतादि होते हैं । सम्यक्त्व तो स्व-पर का श्रद्धान होने पर होता है, तथा वह श्रद्धान द्रव्यानुयोग का अभ्यास करने से होता है इसलिए प्रथम द्रव्य गुण पर्याय का अभ्यास करके सम्यग्दृष्टि बनना प्रत्येक भव्य जीव का परम कर्तव्य है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १ मेद विज्ञान प्रश्न (१)-तुम कौन हो? उत्तर- मैं जान दर्शन चरित्र आदि अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड प्रात्मा हूँ। प्रश्न (२)-तुम कौन नहीं हो ? उत्तर-अत्यन्त भिन्न पर पदार्थ, अाँख नाक शरीर मन वाणी पाठ कर्म तथा शुभाशुभ विकारी भाव में नहीं है। प्रश्न (३)-तुम कब से हो ? उत्तर-मैं अनादिअनन्त ज्ञायक स्वभावी सदा से हूं। प्रश्न (४)-जन्म मरण तो होता है, फिर सदा से कैसे हो ? उत्तर-जन्म मरण शरीर की अपेक्षा कहा जाता है जीव से नहीं। प्रश्न (५)-तुम्हारा कार्य क्या है ? उत्तर-मेरा कार्य ज्ञाता-दृष्टा है। प्रश्न (६)-तुम दुःखी क्यों हो? उत्तर (१)-अनादिअनन्त ज्ञायक स्वभावी आत्मा को न जानने से दुःखी हूं पर से नहीं। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न (७)-पर पदार्थों में तेरी मेरी मान्यता को छढाला की पहली ढाल में क्या कहा है ? उत्तर - "मोह महा मद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि" अर्थ :- इस संसार में अज्ञानी जीव अनादिकाल से मोह में फंसकर, अपने आत्मा के स्वरूप को भूलकर चारों' गतियों में जन्म मरण धारण करके भटक रहा है किन्हीं पर पदार्थों के कारण या कर्मो के कारण नहीं भटक रहा है। प्रश्न (८).-एक मात्र मोह में फंसकर ही ससार में घूम रहा है। किसी पर के कारण नहीं. जरा इसे स्पष्ट समझाइये? उत्तर-(१) भगवान कुन्दकुन्द व अमृतचन्द्राचार्य जी ने समय- . सार गा० २३७ से २४१ तक एक मात्र रागादि को ही बध का कारण कहा है पर को नहीं। (२}- “मैं भूल स्वयं के वैभव को पर ममता में अटकाया हूँ" ऐसा पूजा में भी पाया है। १३)- जैसे तोता नलनी को पकड़ कर इसने मुझे पकड़ा है वैसे ही अज्ञानी मात्र अपनी मूर्खता से मानता है स्त्री पुत्रादि ने मुझे पकड़ा है। । ४)- जैसे बन्दर ने चने के लिए घड़े में हाथ डाला तो मुट्ठी बंद होने पर न निकलने पर इसने मुझे पकड़ा है वैसे ही अज्ञानी मानता है। इसलिए यह सिद्ध हुआ मात्र एकत्वबुद्धि भ्रमबुद्धि ही एक मात्र संसार का कारण है पर नहीं है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) प्रश्न ( ६ ) - पर पदार्थों में तेरी मेरी मान्यता को छढाला की दूसरी ढाल में क्या कहा है ? उत्तर- "ऐसे मिथ्यादृग ज्ञान चरण वंश, भ्रमत भरत दुःख जन्म मरण" अर्थात् मिथ्या दर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचरित्र कहा है। प्रश्न (१०) - जिनेन्द्र भगवान ने सबसे बड़ा पाप किसे कहा है ? उत्तर - मिथ्यात्वादि को सप्तव्यसन से भी भयंकर पाप कहा है । प्रश्न (११ - मिथ्यात्वादि को सप्तव्यसनादि से भी भयकर बड़ा पाप किस जगह कहा है ? उत्तर - अरे भाई, चारों अनुयोगों में कहा है । प्रश्न (९२) - क्या आचार्यकल्प श्री टोडरमल जी ने मिथ्यात्व को सप्तव्यसनादि से भयंकर पाप कहीं कहा है । उत्तर - हां कहाँ है देखो मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ १९१ में लिखा है "हे भव्य ! faचितमात्र लोभ व भय से भी कुदेवादि का सेवन न कर ! कारण कि इससे अनन्तकाल तक महान दुःख सहना पड़ता है इसलिए मिथ्यात्व भाव करना योग्य नहीं है । जैनधर्म में तो ऐसी आम्नाय है- पहले मोटा पाप छुड़ाकर पीछे छोटा पाप छुड़ाया है इसलिए मिथ्यात्व को सात व्यसनादि से भी महान पाप जान पहले छुड़ाया है" Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) प्रश्न ( १३ ) - मिथ्यादर्शनादि कितने प्रकार के होते हैं ? उत्तर - प्रगृहीत और गृहीत के भेद से मिथ्यादर्शनादि दो दो प्रकार के हैं । प्रश्न (१४) - प्रगृहीत मिथ्यादर्शन किसे कहते हैं ? उत्तर- "जीवादि प्रयोजन भूततत्त्व, सधै तिन माहि विपर्ययत्त्व" अर्थात् जीव है आदि में जिसके ऐसे जीव, प्रजीव, श्राश्रव, बघ, सम्बर, निर्जरा और मोक्ष यह प्रयोजनभूत तत्त्व हैं इनका उल्टा श्रद्धान करना अगृहीत मिथ्यादर्शन है । प्रश्न ( १५ - अगृहीत मिथ्यादर्शन को जरा खोलकर समझाइये ? उत्तर - निजकारण परमात्मा में और नौ प्रकार के पक्षों में एकत्वपने की श्रद्धा वह प्रगृहीत मिथ्यादर्शन हैं । प्रश्न (१६) - नौ प्रकार का पक्ष कोनसा है जिसमें आत्मपने की बुद्धि से मिथ्यादर्शन है ? उत्तर - ( १० मत्यन्त भिन्न पर पदार्थ का पक्ष, (२) - आँख नाक कान आदि श्रदारिक शरीर का पक्ष । (३) - तेजस कार्माण शरीर का पक्ष । ( ४ ) - भाषा और मन का पक्ष । (५) - शुभाशुभ विकारी भावों का पक्ष । (६) - अपूर्ण पूर्ण शुद्ध पर्याय का पक्ष । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) (७) - भेद कर्म का पक्ष । (८) - प्रभेद कर्म का पक्ष । (E) भेदाभेद कर्म का पक्ष । इस नौ प्रकार के पक्ष में अपनेपने की बुद्धि यही गृहीत मिथ्यादर्शन है । प्रश्न ( १७ ) - गृहीन मिथ्यादर्शन किसे कहते हैं ? उत्तर- "जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव, शेषं चिर दर्शन मोह एव" अर्थात् कुगुरु, कुदेव और कुधर्म का सेवन ही गृहीत मिथ्यादर्शन कहलाता है। प्रश्न ( १८ ) - गृहीत मिथ्याज्ञान किसे कहते हैं ? उत्तर- "याही प्रतोतिजुत कछुक ज्ञान, सो दुखदायक प्रज्ञान जान" अर्थात् प्रगृहीत मिथ्यादर्शन सहित जो कुछ ज्ञान है वह दुःखदायक गृहीत मिथ्याज्ञान है । प्रश्न ( १९ ) - गृहीत मिथ्याज्ञान किसे कहते हैं ? उत्तर "एकान्तवाद - दूषित समस्त विषयादिक पोषक प्रशस्त कपिलादि रचित श्रुतको अभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास" अत् वस्तु में सत्-असत् नित्य प्रनित्य, एकअनेक अनन्त धर्म हैं उसमें से किसी भी एक ही धर्म को पूर्ण वस्तु कहने के कारण मिथ्या है ऐसे विषय कषाय की पुष्टि करने वाले ( दया दान अणुव्रत महाव्रतादिक शुभराग जो कि पुण्यास्त्रव हैं प्रादि शुभभावों से धर्म होना बतलावे) कुगुरुयों के रचे हुए सर्व प्रकार के मिध्याशास्त्रों Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को धर्मबुद्धि से लिखना-लिखाना, पढ़ना-पढ़ाना, सुनना और सुनाना उसे अगहीत मिथ्याज्ञान कहते हैं वे एकान्त और अप्रशस्त होने के कारण कुशास्त्र हैं क्योंकि उनमें प्रयोजनभूत सात तन्वों की यथार्थता नहीं है इसलिये जो शास्त्र शुभभावों से भला होता है, या शुभभाव करते करते धर्म की प्राप्ति होती है. निमित्त से उपादान में कार्य होता है आदि बातो को बताये वह कुशास्त्र है। सर्वथा एक पक्ष को मानना गृहीत मिथ्याज्ञान है। प्रश्न (२०)-अगृहीत मिथ्याचारित्र किसे कहते हैं ? उत्तर -."इन जुत विपयनि में जो प्रवत, ताको जानो मिथ्या चरित्त' अर्थात् अगृहीत मिथ्यादशन और अगृहीत मिथ्याज्ञान सहित पांच इन्द्रियों के विषयो में प्रवृत्ति करना उसे प्रगृहीत-मिथ्याचारित्र कहते है। प्रश्न (२१)-गृहीत मिथ्याचारित्र किसे कहते है ? उतर - “जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविध विध देहदाह प्रातम अनातम के ज्ञान हीन, जे जे करनी तन करन छीन" अर्थात् शरीरादि और आत्मा का भेद ज्ञान न होने से जो यश, धन, सम्पत्ति, आदर-सत्कार आदि की इच्छा से मानादि कषाय के वशीभूत होकर शरीर को क्षीण करने वाली अनेक प्रकार की क्रियाय करता है उसे गृहीत मिथ्याचारित्र कहते हैं। प्रश्न (२२)-मापने संक्षेप में मिथ्यादर्शन तो बताया अब संक्षेप में मिथ्याज्ञान किसे कहते हैं ? Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ε) उत्तर - निज कारण परमात्मा में भौर नौ प्रकार के पक्षों में एकत्वपने का ज्ञान वह मिथ्याज्ञान है । प्रश्न ( २३ ) - संक्षेप में मिथ्याचारित्र किसे कहते हैं ? उत्तर - निजकारण परमात्मा में और नौ प्रकार के पक्षों में एकत्वपने का प्राचरण वह मिथ्याचारित्र है । प्रश्न ( २४ ) - सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं ? उत्तर - निजकारण परमात्मा में धौर तो प्रकार के पक्षों में भिन्नत्व का श्रद्धान वह सम्यग्दर्शन है । प्रश्न २५) सम्यग्ज्ञान किसे कहते हैं ? उत्तर -- निजकारण परमात्मा में श्रौर नौ प्रकार के पक्षों में भिन्नत्व का ज्ञान, वह सम्यग्ज्ञान है । प्रश्न (२६) सम्यकचारित्र किसे कहते हैं ? उत्तर-निज कारण परमात्मा में और नौ प्रकार के पक्षों में भिन्नत्व का प्राचरण वह सम्यकचारित्र है । प्रश्न (२७) - जिनेन्द्र भगवान ने मिथ्यात्व का बीज किसे कहा है? उत्तर - ब्रात्मा नौ प्रकार के पक्षों से प्रसंयुक्त होने पर भी अज्ञानी जीवों को नौ प्रकार के पक्ष संयुक्त जैसे प्रतिभासित होते हैं वह प्रतिभास ही वास्तव में सतार का बीज है। प्रश्न ( २८ ) - नौ प्रकार के पक्षों में संयुक्तपना मिथ्यात्व का बीज है । यह कहीं भगवान अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है ? Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) उत्तर - पुरुषार्थसिद्धिउपाय गा० १४ में कहा है कि "यह श्रात्मा रागादि और शरीरादि भावों से प्रसयुक्त होने पर भी अज्ञानियों को संयुक्त जैसा प्रतिभासता है वह प्रतिभास वास्तव में संसार का बीज है । प्रश्न ( २ ) - अब क्या करें तो धर्म की शुरुआत होकर वृद्धि और पूर्णता होवे । उत्तर- नौ प्रकार का पक्ष पृथक है। मेरी आत्मा इन प्रकार के पक्षों से भिन्न है ऐसा जानकर अपनी आत्मा की भोर दृष्टि करने से धर्म की शुरुआत होती है और अपने में विशेष स्थिरता करने से धर्म की वृद्धि और पूर्णता होती है । प्रश्न (३०) --प्रापने सात तत्त्वों के झूठे श्रद्धान को मिथ्यात्व कहा और सात तत्त्वों के सच्चे श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा और सात तत्वों के नाम भी बताये परन्तु सात तत्त्व की परिभाषा क्या क्या है ? उत्तर- (१) जीव अर्थात् भ्रात्मा । वह सदैव ज्ञातास्वरूप पर से भिन्न और त्रिकाल स्थायी है । (२) अजीव जिसमें चेतना - ज्ञानपना नहीं है । ऐसे पाँच द्रव्य हैं । इन पाँच में से धर्म, धर्म, प्रकाश और काल चार अरुपी हैं और एक पुदग्ल स्पर्श, रस, गंध, वर्ण सहित होने से रुपी है । (३) भाव मात्र = शुभाशुभ भावों का उत्पन्न होना वह भाव भाव है । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) (४) भाव बंध = शुभाशुभ भावों में भटकना वह भाव बध हैं। (५) भाव सम्वर=शुभाशुभ भावों का रुकना और शुद्धि का प्रगट होना वह भाव सम्वर है। (६) भाव निर्जरा=अशुद्धि की हानि और शुद्धि की वृद्धि वह भाव निर्जरा है।। (७) भाव मोक्ष परिपूर्ण अशुद्धि का अभाव भोर परिपूर्ण शुद्धता की प्रगटता वह भाव मोक्ष है। प्रश्न (३१)-संवर निर्जरा और मोक्ष की प्राप्ति किसके प्राश्रय से होती है और किसके आश्रय से नहीं होती ? उत्तर-एक मात्र अपने त्रिकाली भूतार्थ स्वभाव के प्राश्रय से ही सम्बर निर्जरा मोक्ष की प्राप्ति होती है नौ प्रकार के पक्षों से कभी भी नही होती है इसलिए पात्र जीवों को एकमात्र भूतार्थ स्वभाव का ही प्राश्रय करना चाहिए ऐसा जिन, जिनवर और जिनवर वृषभों का आदेश है। प्रश्न । ३२)-साततत्वों में हेय, उपादेय, जय कौन कौन से तत्त्व है ? उत्तर-(१) जीवाश्रय करने योग्य परम उपादेय (२) अजीव-ज्ञेय (३) प्रात्रव और बंध हेय और अहितरुप (४) सम्बर निर्जरा-प्रगट करने योग्य उपादेय (५) मोक्ष = पूर्ण प्रगट करने योग्य उपादेय Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) प्रश्न ( ३३ ) क्या शुभभावों के श्राश्रय से धर्म की प्राप्ति नहीं होती ? उत्तर - कभी भी नहीं होती है। जैसे लहसन खाने से कस्तूरी की डकार नहीं प्राती, उसी प्रकार शुभभावों से शुद्ध भावों की प्राप्ति नहीं होती है। प्रश्न (३४) जो जीव शुभभावों से धर्म की प्राप्ति मानकर उसमें प्रधे हैं उन्हें जिनेन्द्र भगवान ने क्या कहा है ? उत्तर (१) - प्रवचनसार गा० २७१ में "संसार तत्त्व" कहा है (२) समयसार में नपुंसक, मिथ्यादृष्टि, पापी, अभव्य प्रादि कहा है। (३) पुरषार्थसिद्धिउपाय में "तस्य देशना नास्ति" कहा है । + प्रश्न (३५) - शुभ प्रच्छा और अशुभ बुरा ऐसा मानने वाले जीवों को भगवान ने क्या कहा है ? उत्तर - प्रवचनसार गा० ७७ में भगवान कुन्दकुन्द स्वामी ने "घोर अपार संसार में भ्रमण करते हैं" ऐसा कहा है। प्रश्न ( ३६ ) क्या करें तो धर्म की प्राप्ति का अवकाश रहे ? उत्तर - सूक्ष्म रीति से विश्व, द्रव्य, गुण, पर्याय का निर्णय कर तो धर्म की प्राप्ति का अवकाश है इसलिए अब यहां पर विश्व, द्रव्य, गुण, पर्याय का स्वरूप क्रम से प्रश्नोंत्तर के रूप में कहा जाता है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २ विश्व प्रश्न ( १ ) - विश्व किसे कहते हैं ? उत्तर- छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं । प्रश्न ( २ ) - छह द्रव्यों के समूह को क्या कहते हैं ? उत्तर - विश्व कहते हैं । प्रश्न ( ३ ) - क्या छह द्रव्यों के पिण्ड को विश्व कहते हैं ? उत्तर - बिल्कुल नहीं, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य पृथक पृथक है । प्रश्न ( ४ ! -- विश्व के पर्यायवाची शब्द क्या क्या हैं ? उत्तर - ब्रह्माण्ड, लोक, दुनिया, वर्ल्ड, जगत प्रादि विश्व के पर्यायवाची शब्द हैं । प्रश्न ( ५ ) -- विश्व में कितने द्रव्य हैं ? उत्तर- छह हैं। प्रश्न ( ६ ) - हमें तो विश्व में बहुत से द्रव्य दिखते हैं प्राप छह ही क्यों कहते हो ? उत्तर - जाति प्रपेक्षा छह हैं वैसे बहुत से हैं Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) प्रश्न (७)--जाति अपेक्षा छह द्रव्य कौन कौन से हैं ? उत्तर- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल हैं । प्रश्न (८)--वैसे बहुत से द्रव्य किस प्रकार हैं ? उत्तर- (१) जीव अनन्त, (२) पुदगल जीवों से अनन्तानन्त (३) धर्म एक, (४) अधर्म एक (५) आकाश एक (६) लोक प्रमाण असंख्यातकालद्रव्य प्रश्न (६) जीव द्रव्य किसे कहते हैं ? उत्तर-जिसमें ज्ञान दर्शनरुप शक्ति हो उसे जीव द्रव्य कहते हैं। प्रश्न (१०)-जिसमें ज्ञान दर्शनरुप शक्ति हो उसे जीव द्रव्य कहते हैं । इसको जानने से क्या लाभ रहा ? उत्तर-मेरा स्वरुप ज्ञान दर्शनरुप है नौ प्रकार के पक्षरुप नहीं है ऐसा जानकर, अपने ज्ञानदर्शनरुप स्वभाव का आश्रय ले, तो जिसमें ज्ञानदर्शनरुप शक्ति है उसे जीव द्रव्य कहते हैं, तब जाना और माना । पर पदार्थो की और विकारी भावों की पोर देखना नहीं रहा, मात्र अपनी ओर देखना रहा। प्रश्न (११)--जीवतत्त्व का 'ज्यों का त्यों" श्रद्धान क्या है ? उत्तर-जीव तो एक ही प्रकार का है परन्तु पर्याय में तीन प्रकार का है । बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) प्रश्न (१२) बहिरात्मा किसे कहते हैं ? उत्तर -निजकारण परमात्मा में और नौ प्रकार के पक्षों में एकत्व का श्रद्धान, ज्ञान और आचरण हो उसे बहि रात्मा कहते हैं। प्रश्न (१३)-बहिरात्मा कब तक कहलाता है ? उत्तर- जब तक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति ना हो तब तक निगोद से ___ लगाकर द्रव्यलिंगी मुनि तक सब बहिरात्मा कहलाते हैं। प्रश्न (१४)--अन्तरात्मा किसे कहते हैं ? उत्तर - निजकारण परमात्मा में प्रौर नौ प्रकार के पक्षों में भिन्नत्व की श्रद्धा, ज्ञान और आचरण हो उसे अन्तरात्मा कहते हैं। प्रश्न (१५)--अन्तरात्मा कहाँ से कहाँ तक कहलाते हैं ? उत्तर-चौथे गुणस्थान से १२ वें गुण स्थान तक सब अन्तरात्मा कहलाते हैं। प्रश्न (१६)- चौथे गुण स्थान से लेकर १२वें गुणस्थान तक सब अन्तरात्मा कहलाते हैं इन सबमें कुछ अन्तर है या समान हैं? उत्तर-अन्तरात्मा के तीन भेद हैं:-उत्तम, मध्यम और जघन्य। प्रश्न (१७)- उत्तम अन्तरात्मा किसे कहते है ? उत्तर-१४ प्रकार के अन्तरंग मोर १० प्रकार के बहिरंग Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) परिग्रह से रहित सातवें गुण स्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक वर्तते हुए शुद्ध उपयोगी प्रात्मध्यानी मुनि उत्तम अन्तरात्मा हैं। प्रश्न (१८)-मध्यम अन्तरात्मा किसे कहते हैं ? उत्तर-छटे गुणस्थानी भावलिंगी मुनि और दो कषाय के प्रभावरुप पंचम गुणास्थानी श्रावक मध्यम अन्तरारमा प्रश्न (१९)- जघन्य अन्तरात्मा किसे कहते हैं ? उत्तर-वत रहित सम्यग्दृष्टि जीव अनंतानुबंधी के प्रभाव रुप स्वरुपाचरण चारित्र सहित जघन्य अन्तरात्मा प्रश्न (२०)-परमात्मा किसे कहते हैं ? उत्तर-जैसा त्रिकाली स्वभाव है वैसा ही परिपूर्ण शुद्धि का प्रगट होना वह परमात्मा है। अरहतं और सिद्ध परमात्मा है। प्रश्न (२१)-जीव एक प्रकार का है पर्याय में तीन प्रकार का है इतना जानने से क्या लाभ है ? उत्तर-मेरी पर्याय में अनादिकाल से एक एक समय करके बहिरात्मपना है और मेरा स्वभाव एकरुप पड़ा है ऐसा जानकर अपनी भोर दृष्टि करे तो बहिरात्मा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७ का प्रभाव होकर पर्याय में अन्तरात्मापना प्रगट होता है और फिर एक रुप मात्मा में परिपूर्ण लीनता करके परमात्मापना प्रगट होता है ऐसा मानकर परमात्मापना प्रगट करना यह जानने का लाभ है। प्रश्न (२२)-जीव एक प्रकार का, पर्याय में तीन प्रकार का ऐसा जानने वाला जीव क्या जानता है ? उत्तर-मेरे एक रुप त्रिकाली भगवान के प्राश्रय से ही सम्यग्दर्शन है, श्रावकपना है, मुनिपना है, श्रेणीपना है, अरिहत सिद्धपना है, पर के आश्रय से, नौ प्रकार के पक्षों के पाश्रय से नहीं हैं ऐसा जानने वाला जीव एकमात्र प्रफ्नी ही मोर देखता है और क्रम से निर्वाण को प्राप्त करता है। प्रश्न (२३)-जीव कितने हैं और कहाँ कहाँ रहते हैं ? उत्तर-जीव अनन्त है और सम्पूर्ण लोकाकाश में रहते हैं ! प्रश्न (२४)-जीव मनन्त हैं यह कब माना कहा जावेगा ? उत्तर-(१) मैं जीव द्रव्य अपने द्रव्य क्षेत्रकाल भाव से हूँ पर जीवों के द्रव्य क्षेत्र काल भाव से नहीं हूँ। प्रत्येक जीव अपने अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव से है, दूसरे जीवों के द्रव्य क्षेत्र काल भावों से नहीं हैं ऐसा ज्ञान होने पर मैं दूसरे जीवों का भला या बुरा कर सकता हूं, या दूसरा जीव मेरा भला या बुरा कर सकता है, प्रश्न उपस्थित नहीं होगा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और दृष्टि स्वभाव पर होगी तब जीव अनन्त हैं तभी माना सार्थक कहा जावेगा। (२) जीव अनन्त हैं हमारे ज्ञान में भी अनन्त जीवों के द्रव्य गुण पर्याय पृथक पृथक हैं ऐसा ज्ञान में आवे तब जीव अनन्त हैं ऐसा माना । प्रश्न (२५)-जीव अनन्त हैं और सम्पूर्ण लोकाकाश में हैं। इसमें "सम्पूर्ण लोकाकाश मे है" यह बात साची है या झूठी? उत्तर-झूठी है, क्योंकि व्यवहारनय से कहा जाता है कि जीव सम्पूर्ण लोकाकाश में है। प्रश्न (२६)-जीव सम्पूर्ण लोकाकाश में हैं यह बात झूठी है तो साची बात क्या है ? उत्तर-वास्तव में प्रत्येक जीव अपने अपने असंख्यात प्रदेशों में रहता है यह बात साची है। प्रश्न (२७)-पुद्गल द्रव्य किसे कहते है ? उत्तर-जिसमें स्पर्श रस गंध वर्ण यह गुण हों उसे पुद्गल कहते हैं। प्रश्न (२८)-पुद्गल के कितने भेद है ? उत्तर-दो भेद हैं-एक परमाणु और दूसरा स्कंध । प्रश्न (२६)-परमाणु किसे कहते हैं ? Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) उत्तर जिसका दूसरा कोई भाग न हो सके ऐसे छोटे से ___छोटे पुद्गल को परमाणु कहते हैं। प्रश्न (५०)-स्कध किसे कहते हैं ? उत्तर-दो अथवा दो से अधिक परमाणुओं के बंध को स्कंध कहते हैं। प्रश्न (३१)-स्पर्श की कितनी पर्याय है ? उत्तर-हल्का-भारी, ठंडा-गरम, रुखा-चिकना, कड़ा-नरम इस प्रकार आठ पर्यायें है। प्रश्न (३२)--रस गुण की कितनी पर्यायें है ? उत्तर-खट्टा, मीठा, कड़ा , चरपरा, कषायला इस प्रकार पाँच पर्याये हैं। प्रश्न (३३)-गंध गुण की कितनी पर्यायें है ? उत्तर - सुगंध और दुर्गध इस प्रकार दो पर्यायें हैं प्रश्न (३४)-वर्ण गुण की कितनी पर्यायें हैं ? उत्तर-काला, पीला. नीला, लाल, और सफेद इस प्रकार पांच पर्यायें है प्रश्न (३५)-स्पर्शादि की २० पर्यायों के जानने का क्या लाभ है ? उत्तर-- यह बीस पर्याय पुद्गल द्रव्य की हैं इनसे मेरा किसी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) भी प्रकार का सम्बंध नहीं है ऐसा जानकर अस्पर्श अरस, गंध, प्रवर्ण स्वभावी अपनी आत्मा का श्राश्रय ले तो यह २० पर्यायों के जानने का लाभ है । प्रश्न ( ३६ ) - इन बीस पर्यायों से अपना सम्बंध माने तो क्या होगा ? उत्तर - जैसे माता का पुत्र के साथ जैसा सम्बंध है वैसा ही संबंध माने तो ठीक है उससे विरुद्ध सम्बंध माने तो निन्दा का पात्र होता है, उसी प्रकार पुद्गल की २० पर्यायों के साथ व्यवहार से ज्ञेय-ज्ञायक सम्बंध है ऐसा माने तो ठीक है परन्तु २० पर्यायों को ही स्वयं अपने रुप माने तो वह जिनवाणी माता की विराधना करने वाला निगोद का पात्र है । प्रश्न ( ३७ ) - मैं मुंह धोता हूँ, मै दातून करता हूं, मैं खाता हूं, शरीर के चलने को मैं चलता हूं, मैं टट्टी पेशाब जाता हूं, मैं कपड़े पहनता हूं, मेरा हाथ है, मेरा मुंह है, ऐसी मान्यता वाले जीव ने क्या किया ? उत्तर - यह सभी कार्य पुद्गल के हैं आत्मा के नहीं हैं परन्तु अज्ञानी सभी जगह "मैं" लगाता है यह तभी सम्भव हो सकता है जबकि मैं (जीव ) मिटकर पुद्गल हो जावे परन्तु ऐसा नहीं हो सकता है परन्तु ऐसी खोटी मान्यता वाले ने अपने अभिप्राय में अपने जीब को Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) नहीं माना और अपने अभिप्राय में अपने प्रात्मा का प्रभाव माना। प्रश्न (३८)-मैं पर का कर सकता हूँ ऐसी मान्यता वाले ने अभिप्राय में प्रात्मा का नाश माना यह बात कहाँ आई है ? उत्तर-समयसार गा० १०० के चार बोल हैं उसके प्रथम बोल में आया है कि “यदि प्रात्माव्याप्य-व्यापक भाव से पर द्रव्य का कर्ता बने तो अभिप्राय में प्रात्मा के नाश का प्रसंग उपस्थित होवेगा।" प्रश्न (३६)-पुद्गलास्तिकाय का संधि अर्थ क्या है ? पुजुड़ना-मिलना गल=बिखरना अस्ति होना काय इकट्ठा होना (समूह) प्रश्न (४०)-पुद्, अर्थात्, जुड़ना, मिलना है इससे क्या तात्पर्य है? उत्तर-किताब के पन्ने विखरे पड़े थे, वह 'पुद्' से जुड़े हैं। रुपया बिखरा पड़ा था वह 'पुद्' से इकट्ठा हुआ है। चावल के दाने बिखरे पड़े थे वह 'पुद्' से इकट्ठा हुए हैं । कमरे में सामान इकट्ठा हुमा यह 'पुद्' से हुआ अर्थात् पुद्गल का कार्य है जीव का नहीं,यह तात्पर्य है। प्रश्न (४१)-'पु' को समझने से पात्र जीव को क्या लाभ हमा? Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) रनर--अज्ञान दशा में अज्ञानी जीव यह मानता था कि मैंने । गेहं इकट्ठ करे, मैंने माचीस की सींक इकट्ठी की, कूड़ा मैंने झाडू से साफ किया, कपड़े बिखरे पड़े थे मैंने उन्हें इकट्ठ कर दिये, परन्तु जब यह ज्ञान हा कि यह पु= जुड़ना, मिलना पुद्गल का स्वभाव है मेरा नहीं । ऐसा जानने से अनादि की पर में जुड़ाना मिलाना आदि बुद्धि का अभाव होकर ज्ञाता-दृप्टा बुद्धि प्रगट हो गई यह लाभ हुआ। प्रश्न ४२)-गल' अर्थात् बिखरना से क्या तात्पर्य है ? उत्तर-लड्डु, के दो टुकड़े 'गल' से हुए हैं। एक कलम की दो कलम 'गल' से हुई है। दूध उफन कर निकला वह 'गल' से हुआ है। हजार का नोट जल गया वह 'गल' से हुआ है। घी जल गया वह 'गल' से हुा । बिखरना ढलना आदि पुद्गल के गल के कारण होता है जीव के कारण नही। यह बिखरना आदि पुद्गल का ही स्वभाव है. बिछडना पृथक होना आदि कार्य 'गल' स्वभाव के कारण होते है जीव से नहीं । प्रश्न (४३)-'गल' को समझने से पात्र जीव को क्या लाभ रहा? उत्तर-घी बिखर गया,चाय बिखर गयी इत्यादि अनादिकाल से अज्ञानी अपने से होना मानता था उस खोटी बुद्धि का अभाव हो गया और बिखरना आदि 'गल' स्वभाव के कारण है मेरे से नहीं, मैं तो मात्र ज्ञायक हूं ऐसा पात्र जीव को लाभ हुआ। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) प्रश्न (४४)--अस्ति = अर्थात् होना से क्या तात्पर्य है ? उत्तर-पुद्गलास्तिकाय में अस्तिपना पुद्गल का पुद्गल से है, शरीर का अस्तिपना शरीर से है जीव से नहीं-यह अस्ति से तात्पर्य है। परन्तु अज्ञानी 'मैं हूँ तो शरीर है, मैं है तो शरीर का कार्य होता है' ऐमी मान्यता वाले जीव ने पुद्गल का अस्तिपना नहीं माना । पुद्गल का अस्ति (होनापना) पुद्गल से ही है मेरे से नहीं तभी पुद्गल का अस्ति स्वभाव माना । प्रश्त (४५)--पुद्गल के अस्ति स्वभाव को जानने से क्या लाभ रहा ? उत्तर--सात प्रकार के भयों का अभाव होकर ज्ञाता-दृष्टापना प्रगट होना पुद्गल के अस्ति स्वभाव को जानने का लाभ है। प्रश्न (४६)--काय अर्थात् समूह से क्या तात्पर्य है ? उत्तर-लड्डु बना, हलवा बना, दाल बनी, खीर बनी, वह पुद्गलास्तिकाय के 'काय' के कारण बनी जीव से नहीं। प्रश्न (४७)--काय अर्थात् समूह को जानने से क्या लाभ रहा? उत्तर-बुन्दी अलग अलग थी तो मैंने लड्डु बना दिया, दस दवायें मिलाकर मैंने चूर्ण बनाया, घी चीनी सूजी से मैंने हलवा बना दिया ऐसी खोटी बुद्धि का अभाव हो गया क्योंकि यह सब कार्य 'काय' का है पात्र जीव को Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) ज्ञाता-दृष्टा बुद्धि प्रगट हो गई और मैं करता हूँ ऐसी खोटी मान्यता का प्रभाव हो गया। प्रश्न (४८)--पुद्गलास्तिकाय के विषय में क्या ध्यान रखना चाहिए ? उत्तर--(१) पुद्, (२) गल, (३) अस्ति, (४) काय यह पुद्गल का स्वभाव है यह पुद्गल का हीकार्य है जीव का नहीं। पुद्गल का स्वभाव न मानकर मैं इनको करता है उसने पुद्गलास्तिकाय को नहीं माना और अपने को नहीं माना। प्रश्न (४६)--पुद्गल कितने हैं और कहाँ कहां रहते हैं ? उत्तर-पुद्गल द्रव्य जीव से अनतानन्त गुणें हैं और सम्पूर्ण लोकाकाश में रहते हैं। प्रश्न (५०)-पुद्गल द्रव्य जीव से अनन्तानन्त गुणें हैं यह कब माना ? उत्तर-एक परमाणु के द्रव्य क्षेत्र काल भाव का दूसरे पर माणुमों के द्रव्य क्षेत्र काल भाव से सम्बंध नहीं है जैसे किताब है इसमें वास्तव में एक एक परमाणु अपने २ द्रव्य क्षेत्र काल भाव में ही रहकर कार्य कर रहा है। जब एक पुदगल का दूसरे पुदगल से सम्बध नहीं है तो जीव से पुद्गल का सम्बध का प्रतिभास निगोद का कारण है। प्रश्न (५१)-पुद्गल द्रब्य सम्पूर्ण लोकाकाश में रहते हैं यह बात साची है या झूठी ? Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) उत्तर-झूठी है क्योंकि व्यवहारनय से कहा जाता है कि लोकाकाश में रहते हैं। प्रश्न (५२)-पुद्गल द्रव्य सम्पूण लोकाकाश में रहते हैं यह बात झूठी है तो साची बात क्या है ? उत्तर-प्रत्येक परमाणु अपने अपने एक एक प्रदेश में रहता है यह बात साची है। प्रश्न (५३)-पुद्गल द्रव्य जीव से अनन्तानन्त गुणा हैं यह बात शास्त्रों से जानी या और किसी प्रकार से जानी है ? उत्तर-यह बात शास्त्रों में तो है ही। परन्तु विचारो-एक प्रात्मा इसके साथ तेजस, कार्माण, मौदारिक शरीर है, यह पुदगल का स्कध है इसमें अनन्त पुद्गल हैं। तो जीव एक, पुद्गल अनन्त हैं । तो जीव अनन्त तो पुद्गल परमाणु जीव से अनन्तानन्त गुणे सिद्ध हो गये। प्रश्न (५४)-धर्म द्रव्य किसे कहते हैं ? उत्तर-जो स्वयं गमन करते हुए जीव और पुद्गलों को गमन करने में निमित्त हो उसे धर्म द्रव्य कहते हैं । जैसे स्वयं गमन करती हुई मछली को गमन करने मे पानी। प्रश्न (५५)-धर्म द्रव्य को कब माना ? . उत्तर--प्रत्येक जीव और पुद्गल अपनी अपनी क्रियावती शक्ति से चलता है धर्म द्रव्य से नहीं चलता है । मैं (जीव) शरीर को नहीं चलाता और शरीर जीव को नहीं चलाता है Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) परन्तु दोनों अपनी अपनी क्रियावती शक्ति से चलते हैं। तो धर्मद्रव्य को निमित्त कहा जाता है । प्रश्न (५६) - मैं देहली से बम्बई आया तो अज्ञानी कहता है कि. शरीर तो अपनी क्रियावती शक्ति से आया लेकिन मैं निमित्त तो हूं ना, क्या यह बात ठीक है ? उत्तर - बिल्कुल गलत है, प्रज्ञानी मिथ्यात्व के कारण, धर्म द्रव्य चलते हुए जीव और पुद्गलों को निमित्त होता है, ऐसा न मानकर स्वयं धर्म द्रव्य बन गया। अभिप्राय में धर्मद्रव्य का नाश माना, इसका फल निगोद है । प्रश्न (५७ ) -- धर्म द्रव्य कितने है और कहाँ कहाँ रहते हैं ? उत्तर- धर्म द्रव्य एक ही है और सम्पूर्ण लोकाकाश में फैला हुआ है। प्रश्न (५८) -- धर्मद्रव्य सम्पुर्ण लोकाकाश में फैला हुआ है यह बात साची है या झूठी है ? उत्तर- झूठी है क्योंकि व्यवहारनय से कहा जाता है कि सम्पूर्ण लोकाकाश में फैला हुआ है 1 प्रश्न (५६) - धर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में फैला हुआ है यह बात झूठी है तो साची बात क्या है ? उत्तर- धर्म द्रव्य अपने असंख्यात प्रदेशों में फैला हुआ है यह बात साचो है । प्रश्न (६०) - अधर्म द्रव्य किसे कहते हैं ? Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) उत्तर -- जो स्वयं गतिपूर्वक स्थितिरुप परिणमित जीव प्रौर पुद्गलों को स्थिर होने में निमित्त हो उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं । जैसे पथिक को स्थिर रहने में वृक्ष की छाया । प्रश्न ६१ ) -- प्रधमं द्रव्य को कब माना ? उत्तर - प्रत्येक जीव श्रौर पुद्गल अपनी अपनी क्रियावती शक्ति से ही ठहरता है प्रधर्म द्रव्य से नहीं ठहरता है। मैं ( आत्मा ) शरीर को ठहराता हूँ, शरीर जीव को ठहराता है ऐसा नही है परन्तु जीव पुद्गल स्वयं चल कर स्थिर होते है तब अधर्म द्रव्य निमित्त है ऐसा ज्ञान हो तब धर्मद्रव्य को माना । प्रश्न (६२) - मैं सामायिक करने के लिए स्थिर होता हूं प्रज्ञानी कहता है कि शरीर अपनी क्रियावती शक्ति के कारण स्थिर हुम्रा, मैं स्थिर होने में निमित्त तो हूँ ना, क्या यह बात ठीक है ? - बिल्कुल गलत है। अज्ञानी मिथ्यात्व के कारण, श्रधर्म द्रव्य स्वयं चलकर स्थिर हुए जीव पुद्गलों को निमित्त होता है ऐसा न मानकर स्वयं श्रधर्मेंद्र व्य बन गया । अपने अभिप्राय में अधर्मद्रव्य का नाश माना, इसका फल निगोद है । उत्तर प्रश्न (६३) -- अधर्मद्रव्य कितने हैं और कहाँ कहाँ रहते हैं ? उत्तर - अधर्मद्रव्य एक ही है औौर सम्पूर्ण लोकाकाश में फैला हुभा है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) प्रश्न (६४)--अधर्मद्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में फैला हुआ है यह बात साची है या झूठी है ? उत्तर-झूठी है क्योंकि व्यवहारनय से कहा जाता है कि सम्पूर्ण लोकाकाश में फैला हुआ है प्रश्न (६५)-अधर्मद्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में फैला हुआ है यह बात झूठी है तो साची बात क्या है। उत्तर-अधर्मद्रव्य अपने असंख्यात प्रदेशों में फैला हुआ है। यह बात साची है। प्रश्न (६६)--अधर्मद्रव्य की व्याख्या में कहा है कि जो "गति पूर्वक स्थिति" करे उसे अधर्मद्रव्य निमित्त है, उसमें से यदि “गतिपूर्वक" शब्द निकाल दें तो क्या दोष पायेगा ? उत्तर-जो गतिपूर्वक स्थिति करे ऐसे जीव और पुद्गलों को ही अधर्मद्रव्य स्थिति में निमित्त ह। यदि "गतिपूर्वक" शब्द निकाल दें तो सदैव स्थिर रहने वाले धर्म,प्राकाश और कालद्रव्यों को भी स्थिति में अधर्म द्रव्य के निमित्तपने का प्रसंग आवेगा। प्रश्न (६७)--पाकाश द्रव्य किसे कहते हैं ? उत्तर-जो जीवादिक पांच द्रव्यों को रहने का स्थान देता है उसे माकाश द्रव्य कहते हैं। प्रश्न (६८)-माकाश के कितने भेद हैं ? Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) उत्तर - प्रकाश एक ही अखण्ड द्रव्य है परन्तु उसमें धर्म अधर्म द्रव्य स्थित होने से आकाश के दो भेद हैं- लोकाकाश और अलोकाकाश । प्रश्न (६६ ) -- लोक अलोक भेद किस कारण से है ? " उत्तर- धर्म, धर्मद्रव्य, होने से लोक प्रलोक का भेद है । यदि लोक में धर्म अधर्म द्रव्य ना होते तो लोक प्रलोक ऐसे भेद ही नहीं होते । प्रश्न ( ७० ) - फष्ट क्लास के डब्बे में एक घनी बैठा है कोई गरीब आदमी आता है बाबू जी गाड़ी में कहीं भी जगह नही है मुझे भी ज़रा सी जगह दे दो । धनी आदमी कहता है कि चल चल भागे । गरीब चारों तरफ चक्कर काटता रहा और गाड़ी ने सीटी देदीतब वह गरीब घनी प्रादमी से हाथ जोड़कर बोला बाबू जी मेरा बाप मर गया है मुझे पहुंचना जरुरी है। तब धनी कहता है कि आवो आवो, देखो हमने तुम्हें जगह दी है ना ? उत्तर - देखो जगह देने में निमित्त है आकाश द्रव्य । मानता है मैंने जगह दी । ऐसी मान्यता वाले जीव ने अभिप्राय में प्रकाश को उड़ा दिया, इसका फल निमोद रहा । प्रश्न (७१) - प्रकाशद्रव्य कितने हैं और कहाँ २ रहते हैं ? उत्तर - प्रकाश एक ही द्रव्य है और वह लोक अलोक में रहता है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) प्रश्न (७२)--प्राकाश द्रव्य लोक अलोक में रहता है यह बात साची है या झूठी है ? उत्तर - झूठी है. क्योंकि व्यवहारनय से कहा जाता है कि लोक अलोक में रहता है। प्रश्न (७३)-आकाशद्रव्य लोक अलोक में रहता है यह बात झूठी है तो साची बात क्या है ? उत्तर-आकाशद्रव्य अपने अनन्त प्रदेशों में रहता है यह बात साची है। प्रश्न (७४ --कालद्रव्य किसे कहते हैं ? उत्तर - जो अपनी-अपनी अवस्थारूप से स्वयं परिणमित होने वाले जीवादिक द्रव्यों को परिणमन में निमित्त हो उसे काल द्रव्य कहते हैं; जैसे कुम्हार के चाक को घूमने में लोहे को कीली। प्रश्न (७५)--काल के कितने भेद हैं ? उत्तर - निश्चयकाल और व्यवहार काल दो भेद हैं। प्रश्न (७६)-कोई कहे छहों द्रव्यों का परिणमन तो स्वय अपने अपने से होता है परन्तु मैं निमित्त तो हूं ना? उत्तर-छहों द्रव्यों का परिणमन स्वभाव है उसमें निमित्त है कालद्रव्य । लेकिन मिथ्यात्व के कारण अपने को निमित्त माननेवाला कालद्रव्य को उड़ाता है उस जीव ने अभिप्राय में काल द्रव्य को नहीं माना-यह भगवान की विराधना करनेवाला निगोद का पात्र है । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) प्रश्न ( ७ 19 ) - कालद्रव्य कितने हैं और कहां कहां पर रहते हैं ? उतर - कालद्रव्य लोक प्रमाण प्रसंख्यात हैं । और काल द्रव्य लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान अनादिश्रनन्त स्थित हैं । प्रश्न ( ७८ ) -- कालद्रव्य लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान स्थित हैं यह बात साची है या झूठी है ? - झूठी है; क्योंकि व्यवहारनय से कहा जाता है कि कालद्रव्य लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान स्थित है । उत्तर- द्रव्य लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान स्थित हैं यह बात झूठी है तो साची बात क्या है ? प्रश्न ( ७९ ) - - काल उत्तर - वास्तव में एक एक काल द्रव्य अपने अपने एक एक प्रदेश में स्थित हैं यह बात साची हूँ ? प्रश्न ( ८० ) - अजीव द्रव्य का 'ज्यों का त्यों' श्रद्धान क्या है ? उत्तर - पुद्गल धर्म अधर्म श्राकाश और काल द्रव्य हैं इनसे मेरा किसी प्रकार का सम्बंध नहीं है मात्र व्यवहार से ज्ञेय-ज्ञायक सम्बंध है, यह जानकर अपने स्वभाव की दृष्टि करके परिपूर्ण सिद्ध दशा की प्राप्ति, यह ग्रजीव द्रव्य का 'ज्यों का त्यों' श्रद्धान है । प्रश्न (५१) - मजीव से किसी भी प्रकार सम्बंध नहीं है यह Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) बात तो समयसार की है परन्तु छः ढाला में भी कहीं बतलाया है कि अजीवों से कोई सम्बंध नहीं है ? उत्तर=अरे भाई चारों अनुयोगों में यह बात बतलाई है और छ. ढाला में भी : चेतन को है उपयोग रूप बिनमूरत चिन्मूरत अनूप । पुद्गल नभ धर्म धर्म काल, इनते न्यारी हैजीव चाल । अर्थात् - मेरा काम ज्ञाता दृष्टा है प्रांख नाक शरीर जैसा मूर्तिक आकार नहीं है, चैतन्य प्ररुपी प्रकार है, अनुपम है, पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल से जीव की चाल पृथक पृथक है। ऐसा जाने तो धर्म की गुरुप्रात होकर क्रम से वृद्धि करके निर्वाण का पथिक बने । प्रश्न (५२) - छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते है इसको जानने से हमें पहला क्या लाभ है ? उत्तर - केवली भगवान के लघुनंदन बन जाते हैं । प्रश्न (८३ ) -- छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं इसको जानने से केवली भगवान के लघुनंदन कैसे बन जाते हैं ? उत्तर - जैसे हमारी तिजोरी में छह रुपये हैं, हमारे खाते में भी छह रुपये हैं और हमारे ज्ञान में भी छह रुपये हैं; उसी प्रकार केवलज्ञानरुप तिजोरी में छह द्रव्य हैं, जिनवाणी में भी छह द्रव्य भाये हैं और हमने भी Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह द्रव्य जाने । इस अपेक्षा छह द्रव्योंके समूह को विश्व कहते हैं इसको जानने से केवली के लघुनंदन बन गये। प्रश्न (८४)--छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं इसको __ जानने से दूसरा लाभ क्या रहा ? उत्तर-जैसे हमारी पाकिट में छह रुपये हैं, उन्हें कोई एक रुपया कहे तो वह झूठा है; उसी प्रकार हमने छह द्रव्य जाने, उन्हें कोई एक द्रव्य कहे तो वह झूठा है यह विश्व को जानने से दूसरा लाभ रहा । प्रश्न (८५)-विश्व में मात्र एक द्रव्य है ऐसा कौन मानता है ? उत्तर-वेदान्ती मानता है। प्रश्न (८६)--विश्व को जानने से तीसरा क्या लाभ रहा ? उत्तर-जैसे हमारी पाकिट में छह रुपये हैं उन्हें कोई पाँच रुपये कहे तो वह झूठा है; उसी प्रकार हमने छह द्रध्य जाने, उन्हें कोई पाँच द्रष्य कहे तो वह झूठा है । विश्व को जानने से यह तीसरा लाभ रहा। प्रश्न (८७)-विश्व में पांच द्रव्य है ऐसा कौन मानता है ? उत्तर-श्वेताम्बर मानता है प्रश्न (८८)-विश्व को जानने से चौथा लाभ क्या रहा? उत्तर-जैसे हमारी पाकिट में छह रुपये हैं इसके बदले कोई कम कहे या ज्यादा कहे तो वह सब झूठे हैं; उसी Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) प्रकार हमने छह द्रव्य जाने, इसके बदले कोई कम कहे या ज्यादा कहे तो वह सब झूठे हैं । इस प्रकार विश्व को जानने से यह चौथा लाभ रहा । प्रश्न (८६ ) - विश्व को जानने से पांचवा क्या लाभ रहा ? उत्तर - कर्ता-भोक्ता की खोटी बुद्धि का अभाव और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति, यह विश्व को जानने से पाँचवा लाभ रहा । प्रश्न (१०) -छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं इसको जानने से कर्ता- भोक्ता की खोटी बुद्धि का प्रभाव और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कैसे हो जाती है ? उत्तर - केवली भगवान केवलज्ञान एक समय की पर्याय में तीन काल और तीन लोकवर्ती सर्व पदार्थों को (अनन्त धर्मात्मक सर्व द्रव्य गुण पर्यायों को) प्रत्येक समय में यथास्थित परिपूर्ण रूप से स्पष्ट और एक साथ जानते हैं, ऐसी मान्यता वाले को, क्या पर पदार्थो में कर्ता-भोक्ता को बुद्धि का भाव श्रावेगा ? आप कहेगें नहीं । जब कर्ता-भोक्ता बुद्धि का भाव नहीं आया तो दृष्टि कहाँ होगी ? आप कहेगें कि अपने त्रिकालज्ञायक स्वभाव पर । इस प्रकार विश्व को जानने से कर्ता-भोक्ता को खोटी बुद्धि का प्रभाव और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है । प्रश्न ( ११ ) - शास्त्रों में माता है जितना केवली जानता है उतना ही छदमस्थ साधक ज्ञानी जीव जानता है Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो केवली के जानने में और साधक ज्ञानी के जानने में कोई अन्तर नहीं है ? उत्तर-जानने में कोई अन्तर नहीं, मात्र प्रत्यक्ष परोक्ष का भेद है। प्रश्न (६२)-जितना केवली जानता है उतना ही साधक ज्ञानी जानता है मात्र प्रत्यक्ष परोक्ष का भेद है यह बात शास्त्रों में कहां २ आई है ? उत्तर-(१) अष्ट सहस्त्री दशम परिच्छेद-१०५ में पाया है। (२) मोक्षमार्ग प्रकाशक पाठवां अधिकार पा० २७० __ में आया है। (३) प्राचार्यकल्प पं० टोडरमल जी की रहस्यपूर्ण चिट्ठी मे पाया है। (४) समयसार गा० १४३ की टीका तथा भावार्थ में प्राया है (५) समयसार कलश टीका कलश ११२ में पाया है प्रश्न (६३)-केवलज्ञान एक समय की पर्याय में सर्व द्रव्यों के गुण पर्यायों को प्रत्येक समय में यथास्थित रुप से जानता है ऐसा शास्त्रों में कहाँ कहाँ माया है ? उत्तर -(१) छ ढाला में "सकल द्रव्य के गुण अनन्त, परजाय मनन्ता, जाने एके काल-प्रगट केवली भगवन्ता' (२) भगवान उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में "सर्व द्रव्य पर्यायेषुकेवलस्य:' ऐसा कहा है । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) (३) प्रवचनसार गाथा २१, ३७, ४७, २०० की टीका सहित में आया है। (४) अष्टपाहुड भावपाहुड़ गा० १५० पं० जयचन्द्र जी की टीका में आया है । (५) महाबंघ, महाधवला सिद्धान्तशास्त्र प्रथम भाग प्रकृति बधाधिकार पृष्ठ ६७ में आया है । (६) धवल पुस्तक १३ पृष्ट ३४६ से ३५३ तक में आया है । सब दिगम्बर शास्त्रों में श्राया है । प्रश्न ( ४ ) -- जब केवली और साधक ज्ञानी सब जानते हैं तो दिगम्बर धर्मके पंडित कहे जाने वाले और त्यागी नाम धराने वाले ऐसा क्यों कहते है; (१) केवली भगवान भूत और वर्तमान कालवर्ती पर्यायों को ही जानते हैं और भविध्यत् पर्यायों को, वे हों तब जानते हैं । (२) सर्वज्ञ भगवान अपेक्षित धर्मों को नहीं जानते है । (३) केवली भगवान भूत-भविष्यत पर्यायों को सामान्य रूप से जानते हैं किन्तु विशेष रुप से नहीं जानते हैं । (४) केवली भगवान भविष्यत पर्यायों को समग्ररुप से जानते हैं भिन्न-भिन्न रुप से नही जानते हैं । (५) ज्ञान सिर्फ ज्ञान को ही जानता है । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) (६) सर्वज्ञ के ज्ञान में पदार्थ झलकते है किन्तु भूत काल तथा भविष्यत काल की पर्यायें स्पष्ट रुप से नहीं झलकती आदि खोटी मान्यतायें क्यों पाई जाती हैं ? उत्तर-दिगम्बर धर्मी कहलाने वाले त्यागी पंडितों में खोटी मोन्यता यह बताती है कि उन्हें शीघ्र निगोद में जाने की तैयारी है। क्योंकि :(१)-प्रादिनाथ भगवान से भरत जी ने पूछा थाभगवान भविष्य में आप के समान तीर्थीर होने वाला कोई जीव यहाँ है, तो भगवान ने कहा था यह मारीच अन्तिम २४ वा तीर्थकर महावीर होगा। तो विचारो समोशरण में कितने जीव थे भगवान को सभी जीवों की भूत भविष्य वर्तमान पर्यायों का ज्ञान था । खोटी मान्यता वालों ने यह नहीं माना इसलिए निगोद के पात्र हैं। (२)-भगवान नेमिनाथ से द्वारिका का भविष्य पूछा था उन्होंने कहा था-१२ वर्ष बाद आग लगेगी। खोटी मान्यता वालों ने यह भी नही माना इसलिए निगोद के पात्र हैं। (३)-दिगम्बर शास्त्र पंचम काल के प्राचार्यों के लिखे हुए हैं उनमें जीवों के भूत भविष्य के दस दस भवों का वर्णन आता है उसे भी नहीं माना इसलिए निमोद के पात्र हैं। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) (४)-भरत जी ने कैलाश पर्वत पर भूत भविष्य वर्तमान चौबीसी की स्थापना की थी वह कहाँ से पाई ? अज्ञानियों को जरा भी विचार नहीं आता है। (५)-उत्सपिणी प्रवसपिणी आदि छ: काल होते हैं और चौथे काल में चौवीस तीर्थकर होंगे आदि न मानने से उल्टी मान्यता वाले कोई भी हों सब निगोद के पात्र हैं। प्रश्न (९५)--सर्वज्ञ देव के विषय में श्री भगवान कार्तिकेय स्वामी ने धर्म अनुप्रेक्षा में क्या बताया है ? उत्तर-वास्तव में स्वामी कातिकेय प्राचार्य ने गाथा ३२१ ३२२-३२३ में जैन धर्म का गूढ़ स्हस्य खोल दिया है। __ गा० ३२१ तया ३२२ में कहा है कि "जिस जीव को, जिस देश में, जिस काल में, जिस विधि से जन्ममरण, सुख-दु:ख तथा रोग और दारिद्रय इत्यादि जैसे सर्वज्ञ देव ने जिस प्रकार जाने हैं उसी प्रकार वे सब नियम से होंगे । सर्वज्ञदेव ने जिस प्रकार जाना है उसी प्रकार उस जीव के उसी देश में, उसी काल में और उसी विधि से नियमपूर्वक सब होता है। उसके निवारण करने के लिए इन्द्र या जिनेन्द्र तीर्थकरदेव कोई भी समर्थ नहीं हैं। तथा गाथा ३२३ में कहा है इस प्रकार निश्चय से सर्वद्रव्यों (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म प्राकाश, काल) तथा उन द्रव्यों की समस्त पर्यायों को सर्वज्ञ के आगमानुसार जानता है-श्रद्धा करता है वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि है, और जो ऐसी श्रद्धा नहीं Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) करता, संदेह करता है वह सर्वज्ञ के प्रागम के प्रतिकूल है - प्रगटरूप में मिथ्यादृष्टि है । प्रश्न (१५) - विश्व को जानने से छठा क्या लाभ है ? उत्तर - क्रमबद्ध पर्याय की सिद्धि । प्रश्न ( १७ ) - विश्व को जानने से क्रमबद्ध पर्याय की सिद्धि कैसे हो गई । उत्तर - केवली के ज्ञान में श्राया है वैसा ही छहों द्रव्यों का स्वतन्त्र परिणमन हो रहा है, होता रहेगा, और होता रहा है क्योंकि " जो जो देखी वीतराग ने, सो सो होंसी वीरा रे" ; प्रश्न ( ८ ) - क्रमबद्ध पर्याय की सिद्धि से क्या लाभ रहा ? उत्तर - केवली भगवान के समान ज्ञाताद्रष्टा बुद्धि प्रगट हो गई । प्रश्न ( C ) - प्रत्येक द्रव्य अपना अपना स्वतंत्र परिणमन करता है ऐसा कहीं प्राचार्यकल्प टोडर मल जी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक में कहा है ? उत्तर - मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ५२ में लिखा है कि " जैसा पदार्थों का स्वरूप है वैसा ही श्रद्धान हो जावे तो सर्व ही दुःख मिट जायें" प्रश्न (१००) - पदार्थों का स्वरूप कैसा है ? Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) उत्तर - अनादिनिधन वस्तु जुदी जुदी अपनी अपनी मर्यादा पूर्वक परिणमे है, कोई किसी के आधीन नहीं तथा कोई पदार्थ कोई का परिणमाया परिणमता नहीं। यह पदार्थों का स्वरूप है। प्रश्न (१०१)--अज्ञानी क्या करता है ? उत्तर- अज्ञानी अपनी इच्छानुसार परिणमाया चाहता है यह कोई उपाय नही, यह तो मिथ्यादर्शन है। अज्ञानी पदार्थों को अन्यथा मानकर अन्यथा परिणमाना चाहता है इससे जीव स्वयं दुखी होता है । प्रश्न (१०२)-साचा उपाय क्या है ? उत्तर-पदार्थों को यथार्थ मानना और यह पदार्थ मेरे परिण माने से परिणमेगें नहीं ऐसा मानना यह ही दु:ख दूर करने का उपाय है। भ्रमजनित दुःख का उपाय भ्रम दूर करना यह ही है। भ्रम दूर होने से सम्यक श्रद्धा होती है यह ही साचा उपाय जानना चाहिए। प्रश्न (१०३)--प्रत्येक द्रव्य अपना अपना स्वतंत्र परिणमन करता है ऐसा कहीं समयसार में भी पाया है क्या ? उत्तर-श्री समयसार गाथा ३ में पाया है कि "वे सब पदार्थ अपने द्रध्य में अन्तर्मग्न रहने वाले अपने अनन्त धर्मों के चक्र को (समूह को) चुम्बन करते हैं-स्पर्श करते हैं तथापि वे परस्पर एक दूसरे को स्पर्श नहीं करते हैं। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ प्रश्न ( १०४ ) - कहीं पूजा में भी प्राया है कि प्रत्येक पदाथ अपना अपना स्वतंत्र परिणमन करते हैं ? परिणति प्रभु, अपने अपने में उत्तर- "जड़ चेतन की सब होती है ॥ अनुकूल कहें प्रतिकूल कहें, यह झूठी मन की वृत्ति है । प्रश्न (१०५) - विश्व को जानसे से सातवाँ लाभ क्या रहा ? उत्तर -- ज्ञेय-ज्ञायक सम्बंध का सच्चा ज्ञान-विश्व को जानन से यह सातवां लाभ हुआ । प्रश्न (१०६) - विश्व को जानने से ज्ञेय-ज्ञायक के सच्चा ज्ञान का लाभ कैसे हुआ ? उत्तर - शास्त्रों में आता है "लोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवादि पदार्था यत्र स लोकः " अर्थात् जहाँ जीवादि पदार्थ दिखाई देते हैं वह लोक है । प्रश्न (१०७ ) -- जैसा छह द्रव्यों का परिणमन होना है वैसा ही होगा उसमे जरा भी हेर फेर नहीं हो सकता ऐसा भगवान ने कहा है और वस्तु स्वरूप है तब प्रज्ञानी क्यों नहीं मानता ? उत्तर - चारों गतियों में घूमकर निगोद में जाना भच्छा लगता है इसलिए प्रज्ञानी नहीं मानता है। देखो कार्तिकेय अनुप्रेक्षा श्लोक ३२३ । प्रश्न (१०८) - छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहा है तो क्या व सब आपस में मिले हुए हैं ? Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) उत्तर-आपस में बिल्कुल मिले हुए नहीं हैं क्योंकि हमने . छह द्रव्यों के पि को विश्व नहीं कहा है । परन्तु छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहा है इसलिए प्रत्येक द्रव्य अपना अपना कार्य करता है किसी का किसी दूसरे द्रध्य से किसी भी प्रकार का सम्बध , प्रश्न (१०६)-छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं इन छह द्रव्यों में प्रापस में कैसा सम्बंध है? उत्तर-एक क्षेत्रावगाही सम्बंध है क्योंकि समयसार गा० ३ में कहा है कि "अत्यन्त निकट एक क्षेत्रावगाह रुप से तिष्ठ रहे है तथापि वे सदा काल अपने स्वरुप से च्युत नहीं होते"। प्रश्न (११०)--सम्बंध कितने प्रकार का है ? उत्तर- तीन प्रकार का है, (१) नित्यतादात्म्य सम्बंध (२) अनित्य तादात्म्य सम्बंध (३) एक क्षेत्रावगाही सम्बंध। प्रश्न (१११)--नित्य तादात्म्य सम्बंध किसका किसके साथ है ? उत्तर - प्रत्येक द्रव्य का अपने अपने गुणों के साथ नित्य-' तादात्म्य सम्बंध है। प्रश्न (११२)-प्रनित्यतादात्म्य सम्बंध किसका किसके साथ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) उत्तर- दया, दान, अणुव्रत महाव्रतादि शुभाशुभ विकारीभावों के साथ अनित्यतादात्म्य सम्बंध है । प्रश्न ( ११३) एक क्षेत्रावगाही सम्बंध किसका किसके साथ है ? उत्तर - पाठकर्मों का तथा भांख नाक आदि प्रौदारिक शरीर के साथ एक क्षेत्रावगाही सम्बंध है प्रश्न ( ११४ ) -- छ: द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं, इनमें (छह द्रव्यों में ) इन तीन सम्बंधों में से कौनसा सम्बंध है ? उत्तर - एक क्षेत्रावगाही सम्बंध है । प्रश्न ( ११५) -- गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं इनमें कैसा सम्बध है ? उत्तर - नित्यतादात्म्य सम्बंध है । प्रश्न ( ११६ ) -- सोना, चान्दी के साथ इन तीनों में से कौनसा सम्बंध है ? उत्तर- इन तीनों में से किसी भी प्रकार का सम्बंध नहीं है जैसे पेड़ पर पक्षी श्रा म्रा कर बैठते हैं प्रौर घंटे दो घंटे में अपने आप चले जाते हैं; उसी प्रकार म्रात्मा के साथ अत्यन्त भिन्न पदार्थ, अनन्त आत्मा, अनन्तानन्त पुद्गल, सोना, चान्दी, दुकान, मकान, धर्म, धर्म, आकाश, काल का किसी भी प्रकार का सम्बंध नहीं है क्योंकि यह स्वयं अपने अपने कारण प्राते हैं और चले जाते हैं । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४) प्रश्न (११७/-जब अत्यन्त भिन्न पदार्थों से किसी भी प्रकार का कोई सम्बंध नहीं है तो यह अज्ञानी जीव क्यों पागल हो रहा है ? उत्तर-मैं अनादिमनन्त ज्ञानस्वरुप भगवान प्रात्मा हैं इसका अनुभव ज्ञान प्राचरण ना होने से अर्थात् पर वस्तुओं में तेरी मेरी मान्यता से ही पागल हो रहा है। प्रश्न (११८)--यह जीव अनादिकाल से संसार में दुःखी होता हुमा क्यों भ्रमण करता है ? उत्तर-विश्व का सच्चा ज्ञान ना होने से परिभ्रमण करता है प्रश्न (११९)-संसार परिभ्रमण का कारण ज़रा खोलकर समझामो? उत्तर-इच्छा, माकुलता यह रोग है और इच्छा मिटाने का इलाज अज्ञानी विषय सामग्री मानता है। अब एक प्रकार की विषय सामग्री की प्राप्ति से एक प्रकार की इच्छा रुक जाती है और दूसरी तुरन्त खड़ी हो जाती है परन्तु तृष्णा इच्छा रोग तो अंतरंग में से नहीं मिटता है इसलिए दूसरी अन्य प्रकार की इच्छा और उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार सामग्री मिलाते मिलाते आयु पूर्ण हो जाती है और इच्छा तो बराबर, निरन्तर बनी रहती है। उसके बाद अन्य पर्याय प्राप्त करता है तब वहाँ उस पर्याय सम्बधी नवीन कार्यों की इच्छा उत्पन्न होती है इस प्रकार अज्ञानी जीव अनादिकाल से चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न (१२०)-संसार परिभ्रमण का प्रभाव कैसे हो ? उत्तर-विश्व के किसी भी पदार्थ से मेरा सम्बंध नहीं है ऐसा जानकर नित्यतादात्मय सम्बंध ऐसे अपने अभेद आत्मा का पाश्रय ले तो संसार परिभ्रमण का प्रभाव होकर धर्म की प्राप्ति होती है। अपने भूतार्थ स्वभाव के आश्रय के बिना संसार का प्रभाव नहीं हो सकता। इसलिए पात्र जीव को अपने स्वभाव का प्राश्रय करके सम्यग दर्शनादि की प्राप्ति करना परम कर्तव्य है। प्रश्न (१२१)-महावत, सोलह कारण का भाव, दया, दान, पूजा आदि का कैसा सम्बध है ? उत्तर-अनित्यतादात्म्य सम्बंध है अर्थात् नष्ट होने वाला सम्बंध है। प्रश्न (१२२)-अनित्यतादात्म्य पूजा आदि भावों से मोक्ष होना माने या इनके करते करते धर्म की प्राप्ति हो जावेगी उसका फल क्या है ? उत्तर-निगोद की प्राप्ति है क्योंकि 'जो विमानवासी हूं थाय, सम्यग्दर्शन बिन दुःख पाय । तहते चय थावर तन धरे, यों परिवर्तन पूरे करे । प्रश्न (१२३)-ऐसी वस्तु का नाम बताओ जिसका आत्मा से कभी प्रभाव ना हो और उसका फल क्या है ? उत्तर-गुणों का कभी प्रभाव नहीं होता है-उन गुणों के प्रभेद का माश्रय ले तो निर्वाण की प्राप्ति होती है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) प्रश्न (१२४)-छः द्रव्य के समूह को एक नाम से क्या कहते हैं ? उत्तर-विश्व। प्रश्न (१२५)-विश्व अर्थात् क्या ? उत्तर-समस्त पदार्थ- द्रव्य-गुण-पर्याय प्रश्न (१२६)--विश्व में छः द्रव्य हैं यह कथन कैसा है ? उत्तर-व्यवहार नय का है। प्रश्न (१२७,--विश्व में छ. द्रव्य है इसका निश्चय कथन क्या है ? उत्तर- प्रत्येक द्रव्य अपने अपने प्रदेशों में है यह निश्चय कथन है। प्रश्न (१२८)-विश्व को कौन जानता है और कौन नहीं जानता। उत्तर---ज्ञानी जानते है अज्ञानी नहीं जानते हैं। प्रश्न (१२९)-विश्व को ज्ञानी जानते हैं अज्ञानी नहीं जानते यह कहां आया है ? उत्तर-समयसार कलश टीका कलश पहले में लिखा है कि 'संसारी जीव के (मिथ्यादृष्टि जीव के) सुख नहीं. ज्ञान भी नहीं और उनका स्वरुप जानने वाले जीव को सुख नही, ज्ञान भी नहीं इसलिए 'सारपना' घटता नहीं है। शुद्ध जीव को (ज्ञानियों को) सुख हैं Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) ज्ञान भी है इसलिए शुद्ध जीव को 'सारपना' घटता है । प्रश्न ( १३० ) - विश्व को जानने वालों को किस किस नाम से कहा जाता है ? - (१) जिन, (२) जिनवर, उत्तर प्रश्न (१३१) - जिन किसे कहते हैं ? (३) जिनवरवृषभ उत्तर- - मिथ्यात्व और रागादि को जीतने वाले ४-५-६ वें गुणस्थानी ज्ञानियों को जिन कहते हैं। प्रश्न ( १३२ ) - जिनवर किसे कहते हैं ? उत्तर - जो 'जिनो' में श्रेष्ठ होते हैं वे जिनवर | श्री गणधर देव भी जिनवर हैं । प्रश्न (१३३) -- जिनवरवृषभ किसे कहते हैं ? उत्तर - जो जिनवरों में भी श्रेष्ठ होते हैं उन्हें जिनवरवृषभ कहते हैं । प्रत्येक तीर्थकर भगवान को भाव अपेक्षा सेजनवरवृषभ कहते हैं । प्रश्न (१३४)- क्या द्रव्यलिंगी मुनि को ११ अग ९ पूर्व का ज्ञान होने पर वह विश्व को नहीं जानता ? उत्तर - बिल्कुल नही जानता है । प्रश्न ( १३५ ) -- द्रव्यलिंगी मुनि ११ होने पर भी विश्व को कहाँ लिखा है ? ग ६ पूर्व का ज्ञान नही जानता है यह Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) उत्तर-समयसार गा) २७३-२७४- २७५ तथा गा० ३१७ देखो। क्योकि आत्म ज्ञान हुये बिना ११ अंग का ज्ञान मिथ्याज्ञान है और व्रतादि सव मिथ्या चारित्र हैं। प्रश्न (१३६)--क्या करे ? उत्तर-मोक्ष महल की प्रथम सीढी, या बिन ज्ञान चरित्रा। सम्पकता न लहे, सो दर्शन. धारो भव्य पधित्रा। 'दौल' समझ, मुन, चेत स्याने काल वृथा मत खोवै । यह नरभव फिर मिलन कठिन है जो सम्यक नहिं होवे।। ॥ छ:ढाला ॥ प्रश्न (१३७)-सम्यग्दर्शन के लिए क्या करना ? उत्तर-विश्व के पदार्थों में से एक मेरी आत्मा ही आश्रय करने योग्य है ऐसा जानकर अपनी आत्मा का प्राश्रय लेते ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है। अनादि से अनन्तकाल तक जिन, जिनवर और जिनवरवषभों ने विश्व का स्वरुप बताया है और बतायेगें उन सब के चरणों में अगणित नमस्कार । - - - Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ३ द्रव्य प्रश्न (१)-द्रव्य किसे कहते है ? उत्तर-गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं। प्रश्न (२)--गुणों के समूह को क्या कहते हैं ? उत्तर-द्रव्य कहते हैं। प्रश्न (३)--क्या गुणों के समूह को विश्व कहते हैं ? उत्तर – नही, गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं, विश्व नहीं ? प्रश्न (४)--गुणो का समूह कौन है ? उत्तर-द्रव्य है। प्रश्न (५ --गुणों का समूह कौनसा द्रव्य है ? उत्तर-प्रत्येक द्रव्य गुणों का समूह है। प्रश्न (६)--प्रत्येक द्रव्य अर्थात् क्या ? उत्तर -(१) जीव अनन्त, (२) पुद्गल अनन्तानन्त, (३) धर्म, अधर्म, आकाश एकेक (४) काल लोक प्रमाण असंख्यात __यह सब गुणों के समूह हैं। प्रश्न (७)--लोग द्रव्य किसे कहते हैं ? उत्तर- रुपया, सोना, चान्दी आदि को लोग द्रव्य कहते हैं । प्रश्न (८)-क्या रुपया सोना चान्दी मादि द्रव्य नहीं हैं ? Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) उत्तर - रुपया, सोना, चान्दी श्रादि में जितने परमाणु हैं वह प्रत्येक परमाणु गुणों का समूह द्रव्य है । प्रश्न ( C ) -- भगवान ने द्रव्य किसे बताया है ? उत्तर- गुणो के समूह को द्रव्य बताया है । प्रश्न (१०) -- द्रव्य के पर्यायवाची शब्द क्या २ हैं ? उत्तर-वस्तु कहो, सत् कहो, सत्ता कहो, तत्त्व कहो, श्रन्वय कहो, अर्थ कहो, पदार्थ कहो, आदि द्रव्य के पर्यायवाची शब्द है । प्रश्न ( ११ ) -- क्या मैं भी गुणों का समूह हूँ ? उत्तर - हाँ, मैं भी गुणों का समूह हूं क्योंकि मैं एक जीव द्रव्य हूँ । प्रश्न ( १२ ) -- क्या प्रत्येक सिद्ध भगवान भी गुणों का समूह है ? उत्तर - हा प्रत्येक सिद्ध भगवान भी गुणों का समूह है क्योंकि वह पृथक पृथक जीव द्रव्य है । प्रश्न ( १३ ) -- क्या श्वास में अठारह बार जन्म मरण करने वाले गोदिया जीव भी गुणों का समूह हैं ? उत्तर - प्रत्येक निगोदिया जीव भी गुणों का समूह है क्योंकि वह भी जीव द्रव्य है । प्रश्न ( १४ ) -- मक्खी, जू, पेड़ का जीव, मछली, आदि तिर्यच भी गुणों का समूह हैं ? उत्तर - अरे भाई, निगोद से लगाकर दो इन्द्रिय जीव, तीन इन्द्रिय जीव, चार इन्द्रिय जीव, पाँच इन्द्रिय असनी और Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) चागें गतियों के सैनी जीव तथा पंच परमेष्ठी सब गुणों के समूह है क्योंकि यह सब जीव द्रव्य हैं। प्रश्न (१५)-क्या दो इन्द्रिय वाले जीव और सिद्ध भगवान में समान गुण हैं ? उत्तर–हां भाई, चाहे कोई भी जीव हो चाहे निगोद का हो, दो इन्द्रिय वाला हो या सिद्ध हो उन सबमें गुण समान ही हैं। गुणों की संख्या में जरा भी हेर फेर नहीं है। प्रश्न (१६)--यह कहाँ लिखा है कि निगोदिया जीव और सिद्ध जीव में समान गुण हैं ? उत्तर-(१) श्री नियमसार जी गाथा ४७-४८ में लिखा है कि "है सिद्ध जैसे जीव, त्यों भवलीन ससारी वही। गुण पाठ से जो है अलंकृत, जन्म मरण जरा नही ॥४७ बिनदेह अविनाशी, अतीन्द्रिय, शुद्ध निर्मल सिद्धज्यों। लोकान में जैसे बिराजे, जीव हैं भवलीन त्यों ॥४८॥ इन श्लोकों में शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से संसारी जीवों में, मुक्त जीवों में कोई अन्तर नहीं है इसलिए अपने स्वभाव का आश्रय लेकर सिद्ध दशा प्रगट करना पात्र जीव का लक्षण है। (२) द्रव्यसंग्रह गा० १३ में “सव्वे सुद्धा हु सुद्ध णया" ___ शुद्धनय से सभी जीव वास्तव में शुद्ध हैं। यहां पर भी शुद्धपारिणामिक भाव जो द्रव्यरुप है वह अविनाशी है इसलिए वही पाश्रय करने योग्य है इसी के आश्रय से धर्म की शुरुपात, वृद्धि और पूर्णता होती है, पर और विकार के प्राश्रय से नहीं। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) प्रश्न ( १७ ) - क्या निगोद से लेकर चारों गतियों के जीव और सिद्ध भगवान में समान गुण हैं ? उत्तर - हॉ, सब जीवों में समान गुण हैं। किसी में भी कम ज्यादा गुण नहीं हैं । प्रश्न (१८) -क्या एक परमाणु है, उसमें भी समान गुण हैं, और वह भी गुणों का समूह है । उत्तर- - हाँ परमाणु में भी सिद्ध भगवान जितने गुण हैं और परमाणु भी गुणों का समूह है क्योकि परमाणु वह द्रव्य है । प्रश्न ( १ ) - क्या धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य भी गुणों के समूह है और सबमे सिद्ध भगवान जितने गुण हैं ? उत्तर- धर्मादि सब द्रव्य है और जो जो द्रव्य होता है वह सब गुणों का समूह होता है और उनमें समान गुण होते हैं कम ज्यादा नहीं होते है । इसलिए धर्म, अधर्म, आकाश, काल भी द्रव्य हैं और गुणों के समूह है और सिद्ध भगवान जितने ही प्रत्येक द्रव्य में गुण हैं । प्रश्न ( २० ) - काल द्रव्य तो संख्या में असंख्यात हैं और प्रत्येक काला एक प्रदेशी है, क्या प्रत्येक कालाणु गुणों का समूह है, और कालाणु में भी सिद्ध भगवान जितने गुण हैं ? उत्तर - प्रत्येक कालाणु गुणों का समूह है और सिद्ध भगवान के समान गुण कालाणु में भी हैं क्योंकि कालाणु भी द्रव्य है । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) प्रश्न (२१) - धर्मादि द्रव्य तो अचेतन हैं और जीव चेतन है उसके गुण एक समान कैसे हो सकते हैं ? उत्तर- हमने संख्या अपेक्षा समान कहा है । प्रश्न (२२) - तो क्या प्रत्येक द्रव्य में गुण समान ही हैं ? उत्तर - हां, प्रत्येक द्रव्य में संख्या अपेक्षा गुण समान ही हैं कम ज्यादा नहीं हैं । प्रश्न (२३) -- एक द्रव्य में कितने गुण हैं ? उत्तर- अनन्त गुण है । प्रश्न (२४)-- प्रत्येक द्रव्य में अनन्त गुण हैं उन अनन्त गुणों का कोई माप है ? उत्तर - (१) जीव अनन्त हैं । (२) जीव से अनन्त गुणा अधिक पुद्गल द्रव्य हैं । (३) पुद्गल द्रव्य से अनन्त गुणा अधिक तीन काल के समय हैं । (४) तीन काल के समयों से अनन्तगुणा अधिक आकाश के प्रदेश हैं । (५) आकाश के प्रदेशों से अनन्तगुणा अधिक एक द्रव्य में गुण हैं । प्रश्न (२५) - सिद्ध भगवान में प्रोर हमारे में किस अपेक्षा अन्तर नही है ? उत्तर - गुणों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । प्रश्न ( २६ ) - जब सिद्ध भगवान में और हमारे में गुणों की अपेक्षा अन्तर नहीं है तो अन्तर किसमें है ? Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) उत्तर-पर्याय में अन्तर है। प्रश्न (२७)-सिद्ध बनने के लिए पर्याय के अन्तर को कैसे दूर करें? उत्तर - जैसा सिद्ध भगवान ने किया, वैसा करे तो पर्याय का अन्तर दूर होवे। प्रश्न (२८)-सिद्ध बनने से पूर्व, सिद्ध प्रात्मा ने पर्याय में विकार को दूर करने के लिए क्या किया ? उत्तर-अपने अनन्त गणों के अभेद पिण्ड भूतार्थ स्वभाव का श्रद्धानादि किया तो पर्याय में से विकार का प्रभाव हुआ। प्रश्न (२६)-हम पर्याय के अन्तर को दूर करने के लिए क्या करे ? उत्तर-हम अपने अनन्त गुणों के अभेद पिण्ड भूतार्थ स्वभाव का श्रद्धानादि करे तो पर्याय का अन्तर दूर होकर हम भी पर्याय में सिद्ध जैसे हो जावें। प्रश्न (३०)--गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं जरा दृष्टान्त देकर समझाईये ? उत्तर-जैसे हमारे घर में छह आदमी हैं प्रत्येक के पास अटूट धन है किसी के पास किसी भी प्रकार धन की कमी या अधिकता नहीं है, समान ही है, उसी प्रकार जाति अपेक्षा छह द्रव्य है प्रत्येक के पास अनन्तानन्त गुणों का पिण्ड है, किसी के पास किसी भी प्रकार गुण कम या ज्यादा नहीं हैं समान ही है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) प्रश्न (३१) -- प्रत्येक द्रव्य के पास अनन्तानन्त गुण हैं इसको जानने से हमें क्या लाभ है ? उत्तर - जब सबके पास अनन्तानन्त गुण हैं किसी पर भी कम या ज्यादा नहीं हैं तो पर की ओर देखना नहीं रहा, मात्र अपने अनन्तगुणों के अभेद पिण्ड की ही प्रोर देखना रहा । प्रश्न (३२) अपने अनन्तगुणों के प्रभेद पिण्ड की ओर देखने से क्या होता है ? उत्तर - (१) मिथ्यात्व श्रविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पांच संसार के कारणों का अभाव हो जाता है । ( २ ) पंच परावर्तन का प्रभाव हो जाता है । ( ३ ) चार गति का प्रभाव होकर पंचम गति मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है । (४) पंचम पारिणामिक भाव का महत्त्व प्रा जाता है और दयिक भाव का महत्त्व छूट जाता है, पर्याय में क्षायिक भावों की प्रगटता हो जाती है। (५) पंच परमेष्ठियों में उसकी गिनती होने लगती है । ( ६ ) आठों कर्मों का अभाव हो जाता है । (७) मात्र ज्ञाता द्रष्टापना प्रगट हो जाता है । (८) कर्ता-भोक्ता की खोटी बुद्धि का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति हो जाती है । प्रश्न ( ३३ ) -- गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं इसको स्पष्ट करने के लिए सुदृष्टि तरंगणी में क्या द्रष्टान्त दिया है ? उत्तर - जैसे एक गुफा में छह मुनि बैठे हैं, एक ध्यान में लीन हैं, एक आहार के निमित्त जा रहा है, एक को शेर खा रहा है, एक सामायिक कर रहा है ; उसी प्रकार Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) लोकाकाश रूपी गुफा में जाति अपेक्षा छह द्रव्य है वह सब अपने अपने कार्य में लीन हैं तब पर की ओर देखना नहीं रहा, मात्र अपनी ओर देखना रहा । प्रश्न (३४)-जब सब द्रव्यों के पास अनन्त २ गण हैं और स्वयं भगवान है तब अज्ञानी जीव पर की ओर क्यों देखता है ? उत्तर- (१) अज्ञानी ना देखेगा तो क्या ज्ञानी देखेगा ? अरे भाई अज्ञानी का स्वभाव ही ऐसा होता है। (२) अज्ञानी को जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का पता न होने से पर की ओर देखता है। प्रश्न (३५)--जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा क्या है ? उत्तर- "अनादिनिधन वस्तु जुदी जुदी अपनी अपनी मर्यादा लिए परिणमें है, कोई किसी का परिणमाया, परिणमता नहीं, यह जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा है ? प्रश्न (३६)-तत्त्वार्थ सूत्र जी में भगवान की क्या प्राज्ञा है ? उत्तर-सत् द्रव्य लक्षणम् ।। उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त सत् ।। प्रश्न (३७)-जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा पालने के लिए क्या करे, तो धर्म की शुरुआत हो ? उत्तर-मैं अनन्तगुणो का अभेद भूतार्थ स्वभावी भगवान हूँ ऐसा जानकर उसका आश्रय, ज्ञान, आचरण करे तो धर्म की शुरुग्रात हो। प्रश्न (३८)-चारों गतियों का प्रभाव करने के लिए क्या करे तो पंचमगति की प्राप्ति हो? Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) उत्तर-मैं अनन्त गुणों का अभेद भूतार्थ स्वभावी भगवान हूँ ऐसा जानकर परिपूर्ण लीनता करे तो पंचमगति की प्राप्ति हो। प्रश्न (३६)-द्रव्यलिंगी मुनि को धर्म की प्राप्ति क्यों नहीं उत्तर-द्रव्यलिंगी मुनि ने अपने को अनन्त गुणों का अभेद भूतार्थ स्वभावी भगवान न मानकर, पर पदार्थो का पिण्ड माना, इसलिए धर्म की प्राप्ति नहीं हुई। प्रश्न (४०) अज्ञानी ने अनादि से एक एक समय करके अपने को किस किस का पिण्ड माना, जिससे उसे धर्म की प्राप्ति नहीं हुई : उत्तर-(१) अत्यन्त भिन्न पदार्थों का पिण्ड माना। (२) आँख, नाक, औदारिक शरीर का पिण्ड माना। (३) आठ कर्मों का पिण्ड माना। (४) भाषा और मन का पिण्ड माना। १५) विकारी भावो का पिण्ड माना (६) अपूर्ण पूर्ण शुद्ध पर्याय का पिण्ड माना, इसलिए धर्म की प्राप्ति नहीं हुई। प्रश्न (४१)--प्रज्ञानी किसका अभेद पिण्ड माने तो मिथ्यात्व का अभाव होकर सम्यक्त्त्व की प्राप्ति हो ? उत्तर - अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड भूतार्थ भगवान माने तो मिथ्यात्व का अभाव होकर सम्यक्त्व की प्राप्ति हो। प्रश्न (४२)-भूतकाल में जो मोक्ष गये हैं वह किस उपाय से? उत्तर-मैं अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड भूतार्थ स्वभावी Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) भगवान आत्मा' का श्रद्धानादि करने से ही भूतकाल में मोक्ष को प्राप्त हुये हैं । प्रश्न (४३) -- विदेह क्षेत्र से जो प्राजकल मोक्ष जा रहे हैं वे किस उपाय से ? उत्तर - मैं, अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड भूतार्थ स्वभावी भगवान आत्मा' का श्रद्धानादि करने से ही विदेह क्षेत्र से आजकल मोक्ष जा रहे हैं । प्रश्न ( ४४ ) -- भविष्य में जो जीव मोक्ष जावेगे वह किस उपाय से ? उत्तर - मैं अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड भूतार्थ स्वभावी भगवान श्रात्मा का श्रद्धानादि करने से ही भविष्य में मोक्ष जावेगे । प्रश्न ( ४५ ) -- क्या तीन काल तीन लोक में मोक्ष का एक ही उपाय है ? उत्तर - हाँ भाई, तीन काल तीन लोक में मोक्ष का एक ही उपाय है क्योंकि तीन काल तीन लोक में परमार्थ का एक ही पन्थ है दूसरा नही । प्रश्न ( ४६ ) - तीन काल तीन लोक में मोक्ष का एक ही उपाय है ऐसा कही शास्त्रों में आया है ? उत्तर - चारों अनुयोगों के सब शास्त्रों में आया है । (१) सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्ष मार्गः " ( तत्त्वार्थ सूत्र पहला अध्याय प्रथम सूत्र ) (२) प्रवचनसार गा. ८२-१९६ - २४२ में लिखा है कि "निर्वाण का अन्य कोई मार्ग नही है " Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ( ३ ) नियमसार गा० आया है । ( ५६ ) २, ३, ६०, तथा कलश १२१ में ( ४ ) समयसार गा० १५६ । (५) रत्नकरण्ड श्रावकाचार गा० २-३ में प्राया है 1 (६) छ ढाला तीसरी ढाल । प्रश्न (४७) - कैसा करने से ही मुक्त होगा ? उत्तर- 'मैं अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड भूतार्थ स्वभावी भगवान आत्मा हूँ' ऐसा श्रद्धानादि करने से ही मुक्त होगा । प्रश्न (४८) -- कैसा करने से कभी भी मुक्त ना होगा ? उत्तर- नौ प्रकार के पक्षों मे पड़ने से कभी भी मुक्त ना होगा । · प्रश्न ( ४१ ) -- क्या जिनवर के कहे हुए व्रत, समिति को पालने से मुक्ति नही होगी । उत्तर - कभी भी नहीं होगी, क्योंकि समयसार गा० २७३ में लिखा है कि "जिनवर कथित व्रत, समिति को पालन करता हुआ मिथ्यादृष्टि पापी है तथा १५४ में नपुंसक कहा है । प्रश्न (५०) - ११ अंग ६ पूर्व के अभ्यास से क्या मुक्ति नहीं होगी ? उत्तर - कभी भी नहीं होगी क्योंकि कुन्दकुन्द भगवान ने समयसार गा० २७४ में लिखा मे है श्रात्म अनुभव हुए बिना शास्त्र पढ़ना गुणकारी नहीं है । तथा समयसार गा० ३१७ में जैसे सांप को दूध पिलावे तो जहर बढ़ता है; उसी प्रकार मिध्यादृष्टि के विशेष ज्ञान की चतुराई निगोद का कारण है । · Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) प्रश्न (५१) - सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए किसका आश्रय करें ? उत्तर - अनन्त गुणो के अभेद पिण्ड अपने द्रव्य का । प्रश्न (५२) - सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए किसका आश्रय करे तो कभी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति ना हो ? उत्तर- (१) दर्शन मोहनीय के क्षयादिक का आश्रय करें तो कभी भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति ना हो। (२) देव, गुरु, शास्त्र का आश्रय कर तो कभी भी सम्यम्दर्शन की प्राप्ति ना हो । प्रश्न ( ५३ ) - जो जीव सम्यग्दर्शन के लिए मात्र देव, गुरु, शास्त्र का ही आश्रय मानते हैं उसका फल क्या होगा ? उत्तर - क्रम से चारों गतियों मे घूमते हुए निगोद में चले जावेगे | प्रश्न (५४) - क्या देव, गुरु, शास्त्र का आश्रय कार्यकारी नही है ? उत्तर - संसार परिभ्रमण के लिए कार्यकारी है । प्रश्न (५५) - सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसका आश्रय करें तो सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हो ? उत्तर - एक मात्र अनन्त गुणों के प्रभेद पिण्ड अपने ज्ञायक द्रव्य का आश्रय करने से ही सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है। प्रश्न ( ५६ ) - सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु और शास्त्र की भोर देखें तो क्या सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी ? Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) उत्तर - सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति देव, गुरु, शास्त्र की ओर देखने से कभी भी नहीं होगी क्योकि जिसमें जो चीज हो उसी में से वह आती है । प्रश्न (५७ ) -- सम्यग्ज्ञान के लिए ११ अंग नौ पूर्व का अभ्यास करे तो क्या सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नही होगी ? उत्तर - कभी भी नहीं होगी क्योकि समयसार गा० २७४ में कहा है कि. "मोक्ष की श्रद्धा विहीन, अभव्य जीव शास्त्रो पढ़ें। पर ज्ञान की श्रद्धा रहित को, पठन ये नहि गुण करें ।। २७४ | तथा गा० ३१७ में लिखा है कि “सद्रीत पढकर शास्त्र, भी प्रकृति अभव्य नही तजे । ज्यो दूध गुड़ पीता हुआ भी, सर्प नहि निर्विष बने” ।३१७ | जब तक जीव को आत्म ज्ञान नहीं है सब शास्त्रों का पठन मिथ्या ज्ञान है ज़रा भी कार्यकारी नहीं है । प्रश्न (५८) - सम्यक् चारित्र के लिए किसका श्राश्रय करें तो सम्यक् चारित्र की प्राप्ति हो ? उत्तर - अनन्त गुणों के प्रभेद पिण्ड अपने ज्ञायक भगवान का आश्रय करने से ही सम्यक् चारित्र की प्राप्ति होती है । प्रश्न (५६) - क्या बाहरी क्रिया से सम्यक् चारित्र की प्राप्ति नहीं होती ? उत्तर - बाहरी क्रिया मैं करता हूं इस मान्यता से तो मिथ्यात्व का महान पाप होता है, सम्यक् चारित्र की तो बात ही नहीं है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) प्रश्न (६०)--जिनेन्द्र भगवान के कहे हुए समिति, गप्ति के शुभ भावों से तो चारित्र की प्राप्ति होती है ना ? उत्तर-बिल्कुल नहीं, क्योंकि भगवान जिनेन्द्र ने समिति ___ गुप्ति के भावों को तो पुण्यबंध का कारण कहा है चारित्र की प्राप्ति नही कही है। प्रश्न (६१)-जो जीव शुभभावो से चारित्र मानता है उसे भगवान ने क्या कहा है ? उत्तर- श्री कुन्दकुन्द भगवान ने गा० २७३ में कहा है कि "जिनवर प्ररुपित व्रत, समिति, गुप्ति अरु तप शील को। करता हुआ भी अभव्य जीव, अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है ॥२७३॥ तथा गा० १४५ में लिखा है कि"है कर्म अशुभ कुशील अरु जानो सुशील शुभ कर्म को। किस रीत होय सुशील, जो संसार में दाखिल करे ॥१४५।। तथा १५४ में लिखा है कि "परमार्थ बाहिर जीवगण, जाने न हेतू मोक्ष का। अज्ञान से वे पुण्य इच्छे, हेतु जो संसार का ।।१५४॥ जैसे लहसुन खाने से कस्तूरी की डकार नहीं आती; उसीप्रकार शुभभावों से कभी धर्म की प्राप्ति नहीं होती है। एकमात्र अपने द्रव्य स्वभाव के आश्रय से ही चारित्र की प्राप्ति होती है। प्रश्न (६२)-मिथ्यात्व के प्रभाव के लिए क्या करें तो मिथ्यात्व का अभाव हो ? Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) उत्तर-एक मात्र अपने गुणो के अभेद पिण्ड ज्ञायक भगवान द्रव्य का आश्रय लें तो मिथ्यात्व का प्रभाव हो । प्रश्न (६३)-मिथ्यात्व का अभाव करने लिए प्रात्मा का तो आश्रय ना लें परन्तु व्रत करे. बहुत शास्त्र पढ़े, तपश्चरण करे तो क्या होगा ? उत्तर-कभी भी मिथ्यात्व का प्रभाव ना होगा बल्कि मिथ्यात्व दृढ़ होकर निगोद चला जावेगा । क्योंकि प्राचार्यकल्प टोडर मल जी ने कहा है कि "तत्त्व विचार रहित (अर्थात् प्रात्मा का आश्रय लिये बिना) देवादि की प्रतीति करे, बहुत शास्त्रों का अभ्यास करे. व्रतादि वाले, तपश्चरणादि करे उसको तो सम्यक्त्व होने का अधिकार नहीं है, (अर्थात् मिथ्यात्व के अभाव होने का अवकाश नही है । और तत्व विचार वाला (अर्थात् प्रात्मा का पाश्रय लेने वाले को) व्रतादि के बिना भी सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । प्रश्न (६४)-श्रेणी मांडने के लिए किस का पाश्रय करे ? उत्तर-एक मात्र अनन्त गुणो के अभेद ज्ञायक द्रव्य के आश्रय से श्रेणी की प्राप्ति होती है किसी द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्म तथा परलक्षी ज्ञान से कभी भी श्रेणी की प्राप्ति नहीं होती है। प्रश्न (६५)-अरहंत भगवान को किसका आश्रय है ? उत्तर-एकमात्र अनन्त गुणों के प्रभेद पिण्ड ज्ञायक भगवान रूप अपने द्रव्य का ही पाश्रय परहंत भगवान को है। प्रश्न (६६)-पात्र जीव सामायिक के लिए किसका प्राश्रय करता है ? Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) उत्तर--एक मात्र अनन्त गुणों के प्रभेद पिण्ड अपने ज्ञायक द्रव्य का सामायिक के लिए पात्र जीव ग्राश्रय करता है । प्रश्न (६७) --प्रपात्र जीव सामायिक के लिए किसका आश्रय करता है ? और उसका फल क्या है ? उत्तर - शरीर की क्रिया का और पाठ बोलने आदि का आश्रय करता है और उसका फल अनन्त संसार है । छः ढाला में कहा है कि 'मुनिव्रत धार ग्रनन्तवार ग्रीवक उपजायो । निज प्रातम ज्ञान बिना, सुख लेश न पायो ॥ प्रश्न ( ६८ ) - शान्ति प्राप्त करने के लिए किसका आश्रय करे तो शान्ति की प्राप्ति हो ? उत्तर - एक मात्र अनन्त गुणों के प्रभेद ज्ञायक द्रव्य का ही श्रय करने से शान्ति की प्राप्ति होती है । प्रश्न ( ६९ -- ज्ञानी शान्ति के लिए किस किस का आश्रय मानता है ? और उसका फल क्या है ? उत्तर- नौ प्रकार के पक्षों से शान्ति मानता है और उसका फल चारों गतियों का भ्रमण है । प्रश्न ( ७० ) -- सिद्ध भगवान को किसका आश्रय है ? उत्तर - एक मात्र अनन्त गुणों के अभेद पिण्ड भूतार्थ स्वभावी अपने भगवान का ही आश्रय वर्तता है । प्रश्न ( ७१ ) -- जबकि 'अनन्त गुणों का अभेद ज्ञायक पिण्ड भगवान प्रात्मा के श्राश्रय से ही सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र, श्रेणी, अरहत और सिद्धदशा की प्राप्ति है Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) विकार के आश्रय से नहीं तो फिर (१) भगवान की पूजा करो, (२) दर्शन करो, (३) पूजा करो (४) यात्रा करो, १५) अणुव्रत पालो (६) महाव्रत पालो प्रादि का उपदेश क्यों दिया है ? उत्तर–पात्र भव्य जीव ने अपने अनन्त गणों के अभेद पिण्ड ज्ञायक भगवान आत्मा का परिपूर्ण आश्रय लेने का प्रयत्न किया, परन्तु परिपूर्ण आश्रय ना ले सका अर्थात् मोक्ष नहीं हुमा, परन्तु मोक्षमार्ग की प्राप्ति हुई, तो मोक्षमार्ग में चारित्र गुण की एक समय की पर्याय में दो अंश पड़ जाते हैं उसमें जो शुद्धि अंश है वह सच्चा मोक्ष मार्ग है और जो भूमिकानुसार राग है वह ज्ञानियो को हेय बुद्धि से होता है उसका ज्ञान कराने के लिए भगवान की पूजा करो, यात्रा करो आदि का उपदेश है। प्रश्न (७२)-चौथे गुणस्थान मे सम्यग्दृष्टि की दृष्टि कहाँ रहती है और अनन्तानुबंधी क्रोधादि के अभावरूप स्वरुपाचरण चारित्र के साथ कैसा राग होता है, कैसा नहीं होता है ? उत्तर--चौथे गुणस्थानी की दृष्टि एक मात्र अपने अनन्त गुणों के अभेद पिण्ड पर रहती है और जैसे महावीर स्वामी के जीव को सिंह पर्याय में सम्यग्दर्शन हुना तो मांस उसका भोजन होने पर मांस का विकल्प भी नहीं पाया; उसी प्रकार जिस को प्रत्यक्ष मद्य, मांस मधु कहते हैं उनके खाने का विकल्प भी नहीं होता है गरदन कटती हो तो कटे परन्तु कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र को नमने आदि का विकल्प नहीं प्रावेगा । सच्चे देव गुरु शास्त्र को ही नमने का विकल्प हेय बुद्धि से होता है। याद रहे करता नहीं, परन्तु होता है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न (७३)-सच्ची श्रावकदशा होने पर कैसा राग होता है ? उत्तर-दो चौकड़ी अभावरूप देश चारित्र दशा होने पर बारह अणुव्रतादि का विकल्प हेय बुद्धि से होता है, अन्य प्रकार का विकल्प नहीं होता है। प्रश्न (७४)-मुनि दशा होने पर कैसा राग होता है ? उत्तर - तीन चौकड़ी प्रभावरूप शुद्धि तो निरन्तर वर्तती है परन्तु छठे गुणस्थान में २८ मूलगुण का विकल्प हेय बुद्धि से होता है अन्य नहीं, उसका ज्ञान कराया है। प्रश्न (७५)-ज्ञानी को जो भूमिकानुसार राग होता है क्या ज्ञानी उसे अपना मानता है ? उत्तर-बिल्कुल नहीं; वह तो ज्ञान का ज्ञेय है, हेय है। प्रश्न (७६)-सच्चे देव गुरु शास्त्र का निमित्त मिला ऐसे समय ___में भी भूतार्थ स्वभाव का प्राश्रय ना ले तो क्या होगा ? उत्तर-मोक्षमार्ग प्रकाशक में लिखा है कि "मनुष्यभव होने पर मोक्षमार्ग में प्रवर्तन ना करे तो किचित् विशुद्धता पाकर फिर तीव्र उदय पाने पर निगोदादि पर्याय को प्राप्त करेगा। कहा है कि "जो विमानवासी हूँ थाय, सम्यग्दर्शन बिन दुःख पाय । तह तें चय थावर तन धरै, यों परिवर्तन पूरे करे॥ प्रश्न (७७)--प्राप कहते हो कि अनन्त गुणों के अभेद पिण्ड शायक की एकाग्रता से ही धर्म की शुरुमात, वृद्धि और पूर्णता होती है तो क्या हम पूजा पाठ व्रत नियम आदि ना करें? Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) उत्तर-पहले गुणस्थान में जिज्ञासु जीवों को शास्त्राभ्यास, अध्ययन- मनन, ज्ञानी पुरुषों का धर्मोपदेश-श्रवण, निरन्तर उनका समागम, देवदर्शन, पूजा, भक्ति, दान आदि शुभभाव होते हैं किन्तु सच्चे व्रत तप आदि नहीं होते हैं क्योंकि सच्चे व्रतादि तो सम्यग्दर्शन के बाद पांचवें गुणस्थान में शुभभाव रुप से होते है। प्रश्न (७८)-व्रत, दान, अणुव्रतादि से धर्म नही होता है ऐसा कथन सुनने या पढ़ने से लोगों को अत्यन्त हानि होना सम्भव है। इस समय लोग कुछ व्रत, प्रत्याख्यानादिक क्रियाएं करते है उन्हें छोड़ देगें, क्या उनका कहना ठीक है ? उत्तर-(१) बिल्कुल गलत है क्योंकि सत्य से कभी भी क्या किसी जीव को हानि हो सकती है ? आप कहेगें, कभी नहीं। इसलिए सत् का श्रवण या अध्ययन करने से जीवों को कभी हानि नहीं हो सकती है। (२) व्रत करने वाले ज्ञानी हैं या अज्ञानी यह जानना आवश्यक है। यदि अज्ञानी हैं तो उन्हें सच्चे व्रतादि होते ही नहीं इसलिए उन्हे छोड़ने का प्रश्न उपस्थित ही नहीं होता है। यदि व्रत करने वाले ज्ञानी हैं तो वह व्रत छोड़कर अशुभ में जावेंगे यह बात असम्भव है, परन्तु ऐसा होता है कि ज्ञानी शुभभावों को क्रमश: दूरकर शुद्धभाव की वृद्धि करें वह लाभ का कारण है, हानि का नहीं। इसलिए सत्य कथन से किसी को भी हानि हो ही नहीं सकती है। प्रश्न (७६)-मैं अनन्त गुणों का अभद ज्ञायक पिण्ड भगवान Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रात्मा हूँ जब तक ऐसा अनुभव ना हो तब तक तो व्रत दानादि करना चाहिए ना ? उत्तर-जैसे किसी ने अमेरिका जाना है और किसी कारण से अमेरिका न जाना बने तो, क्या अमेरिका के बदले रूस जाया जावे ? आप कहेंगे नहीं, बल्कि अमेरिका के जाने का प्रयत्न करना; उसी प्रकार जब तक अपने ज्ञायक स्वभाव का अनुभव न हो, तो क्या व्रतादि में लग जाना चाहिए? आप कहेगे नहीं, बल्कि आत्मा के अनन्त गुणों के अभेद पिण्ड के अनुभव का अभ्यास करना । अात्मा अनुभव के अभ्यास को छोड़कर व्रतादि में लग जाना यह तो अमेरिका के बदले रूस जाने के समान है। इसलिए पात्र जीवो को प्रथम अनन्त गुणो के अभेद पिण्ड अपने भगवान का अनुभव करना ही कार्यकारी है। प्रश्न (८०)--मैं अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड हूँ ऐसा अनुभव हुवे बिना देव गुरु, शास्त्र की भक्ति कुछ कार्यकारी है या नहीं ? उत्तर-संसार भ्रमण के लिए कार्यकारी है मोक्ष के लिए कार्यकारी नही है। प्रश्न (८१)-मैं अनन्त गुणों का प्रभेद ज्ञायक भगवान आत्मा हूँ ऐसा अनुभव हुए बिना बारह अणुव्रतादि कार्यकारी या है; नहीं.? उत्तर-चारो गतियों में घूमकर निगोद में जाने के लिए कार्य कारी हैं, श्रावकपने के लिए कार्यकारी नहीं हैं। प्रश्न (८२) मैं गुणों का अभेद पिण्ड भगवान प्रात्मा हूँ ऐसा Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) अनुभव हुए बिना २८ मूलगुण का पालनादि मुनिपने के लिए कार्यकारी है, या नहीं ? उत्तर - कार्यकारी नहीं बल्कि अनर्थकारी है, क्योंकि 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' में महाव्रतादि पालते हुए, प्रभव्य, मिध्यादृष्टि, पापी कहा है । प्रश्न ( ८३ ) -- अपना अनुभव हुए बिना अणुव्रत महाव्रतादि कार्यकारी नही ऐसा कहीं समयसार, प्रवचनसार में कहा है ? उत्तर- (१) प्रवचनसार में द्रव्यलिंगी मुनि को गा० २७१ 'संसार तत्त्व' कहा है । ( २ ) समयसार में अपने श्रापका अनुभव हुऐ बिना नपुसंक कुशील, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, पापी कहा है । प्रश्न ( ८४ ) - अपनी श्रात्मा के आश्रय लिये बिना, शुभभाव कार्यकारी नहीं है ऐसा कहीं समयसार कलशटीका में लिखा है ? उत्तर - कलश १४२ में लिखा है कि “ • विशुद्ध शुभो - पयोगरुप परिणाम, जैनोक्त सूत्र का अध्ययन, जीवादि द्रव्यो के स्वरुप का बारम्बार स्मरण, पंच परमेष्ठी की भक्ति इत्यादि हैं जो अनेक क्रियाभेद उनके द्वारा बहुत घटा टोप करते हैं, तो करो तथापि शुद्ध स्वरुप की प्राप्ति होगी सो तो शुद्ध ज्ञान द्वारा होगी ........ अज्ञानी को परम्परा- आगे मोक्ष का कारण होगी ऐसा भ्रम उत्पन्न होता है सो झूठा है। अहिंसादि महाव्रत का पालन, महापरीषहों का सहना बहुत काल पर्यन्त मरके चूरा होते Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०) हुए बहुत कष्ट करते है तो करो तथापि ऐसा करते हुए कर्मक्षय तो नहीं होता" तथा - १४३ में कहा है कि "शुभ शुभ रूप है जितनी क्रिया उनका ममत्व छोड़कर एक शुद्ध स्वरुप अनुभव कारण है। प्रश्न (८५) - सम्यग्दर्शन रहित शुभरागरुप व्यवहार किया है। उसको पण्डित बुधजन जी ने क्या कहा है ? उत्तर- "सम्यक् सहज स्वभाव प्रापका अनुभव करना, या बिन जप-तप व्यर्थ कष्ट के माँहीं पड़ना । कोटि बात की बात अरे । बुधजन उर धरना, मन वच तन शुचि होय ग्रहो जिन वृक्ष का शरना ||" अर्थात् सम्यक्दर्शनादि रहित व्यवहार श्रद्धा जीव ने अनन्तबार की है वह सब मिथ्या है। मिथ्यात्वपूर्वक जो जीव भाव करता है वे सब दुःखदायक ही हैं । करोड़ों बात का यही सार है कि आत्मा के सहज स्वभाव का अनुभव करना; उसके बिना सब (दया, दान, पूजा अणुव्रत महाव्रतादि) व्यर्थ हैं। जैसे एक के बिना बिन्दियों की कीमत नहीं होती है उसी प्रकार सम्यक्दर्शन के बिना व्रतादि की शुभ क्रियानों पर उपचार भी सम्भव नहीं है । प्रश्न ( ८६ ) -- अपना अनुभव हुये बिना महाव्रतादि कार्यकारी नहीं है ऐसा कहीं 'छढाला' जो कि छोटे बच्चों के लिए है कहीं लिखा है ? उत्तर- सब जगह लिखा है: (१) पहली ढाल में “जो विमानवासी हूँ थाय, सम्यग् - Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) दर्शन बिन दुःख पाय । तहंतें चय थावर तन घरं, यों परिवर्तन पूरे करे" ।। यह जीव वैमानिक देवों में भी उत्पन्न हुआ किन्तु वहां उसने सम्यग्दर्शन के बिना दुःख उठाये और वहां से भी मरकर पृथ्वीकायिक श्रादि स्थावरों के शरीर धारण किये । (२) तीसरी ढाल में लिखा है कि सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना चाहे जितना ज्ञान का उघाड़ हो वह मिथ्याज्ञान है और सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना कितने ही व्रत तपादि हो वह सब मिथ्याचारित्र हैं । (३) चौथी ढाल में "मुनिव्रत धार अनन्तबार ग्रीवक उपजायो । पैनिज भातम ज्ञान बिना सुख लेश न पायी ॥ यह जीव मुनि के महाव्रतों को धारण करके उनके प्रभाव से नववें ग्रैवेयक तक के विमानों में अनन्त बार उत्पन्न हुआ, परन्तु आत्मा के भेद विज्ञान बिना लेश मात्र सुख प्राप्त नहीं हुआ । (४) लाख बात की बात यही निश्चय उर लामो । तोरि सकल जग दंद फंद, नित प्रतम ध्यान ॥ प्रश्न ( ८७ ) - श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार जो कि श्रावकों के लिए है क्या उसमें भी अपना अनुभव हुए बिना श्रणुव्रत, महाव्रत, दयादान, पूजादि कार्यकारी नहीं हैं, ऐसा कहीं लिखा है ? उत्तर - ( १ ) सब जगह लिखा है परन्तु शुरु करते ही दूसरे श्लोक के भावार्थ में लिखा है कि संसार में "धर्म" ऐसा तो सब लोग कहते हैं, किन्तु धर्म शब्द का अर्थ तो ऐसा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) है जो नारक, तिर्यचादि गतियों में परिभ्रमण रुप दुःखों से श्रात्मा को छुटाकर उत्तम आत्मिक अविनाशी प्रतीन्द्रिय मोक्ष सुख में धारण करे । ऐसा धर्म बिकता नहीं जो धन देकर या दानसन्मान आदि से प्राप्त किया जाय । तथा किसी से दिया जाता नहीं जो किसी की उपासना से प्रसन्न करके ले सके; तथा मन्दिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थादि में धर्म को रख दिया नहीं है कि वहां जाकर ले आवे, उपवास व्रत कायक्लेशादि तप में शरीरादि कृष करने से भी मिलता नही । ऐसा भी नहीं है, जो देवाधिदेव तीर्थकर के मन्दिरों से तथा उनमें उपकरण दान, मंडल विधान पूजा श्रादि से भी आत्मा का धर्म मिल सके। कारण कि धर्म तो श्रात्मा का स्वभाव है । अतः पर में आत्मबुद्धि को छोड़कर अपने ज्ञाता -- दृष्टा स्वभाव द्वारा ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तन रूप जो प्राचरण वह "धर्म" है । यदि श्रात्मा उत्तम क्षमादि वीतरागरुप- सम्यम्दर्शन रुप न हुआ तो कहीं भी किंचित् धर्म नहीं होता । (२) श्लोक ३३ में लिखा है कि जिसके ऐसा व्रत सम्यग्दष्टि मोक्षमार्गी है मिथ्यात्व है मुनि के व्रतधारी साधु होने कर भवनत्रिकादिक में उपजि संसार ही में परिभ्रमण करेगा | मिथ्यात्व नहीं और जिसके पर भी मर प्रश्न ( ८८ ) - मज्ञानी को विश्व में कितने द्रव्य दिखते हैं ? Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) उत्तर - अज्ञानी को विश्व में एक भी द्रव्य नहीं दिखता क्योंकि अपना अनुभव हुए बिना एक द्रव्य की भी जानकारी सच्ची नहीं है। । प्रश्न (८६-अज्ञानी को अपना अनुभव हुये बिना एक द्रव्य की भी जानकारी सच्ची नहीं है-यह कहाँ लिखा है ? उत्तर–समयसार कलश टीका कलश नं० १ तथा समयसार गा० २०१ में लिखा है। प्रश्न (९०)-अज्ञानी को सात तत्त्वों में से कितने तत्त्वों का ज्ञान है ? उत्तर-एक का भी नहीं, क्योंकि अपना अनुभव हुये बिना एक तत्त्व की जानकारी भी सच्ची नहीं है। प्रश्न (९१)-अज्ञानी का सात तत्त्वो का जानना कार्यकारी व सच्चा नहीं है तथा मिथ्यात्व है-यह कहाँ लिखा है ? उत्तर-समयसार कलश टीका कलश नं० ६ में लिखा है। प्रश्न (६२)-भगवान ने द्रव्य का स्वरुप पहले क्यों बताया ? उत्तर - अज्ञानी को अनादिकाल से एक एक समय करके मैं अनादिअनन्त अनन्तगुणो का अभेद पिण्ड द्रव्य हूँ-इसके सम्बंध में भूल होने के कारण भगवान ने पहले द्रव्य का स्वरुप बताया है। प्रश्न (६३)-अज्ञानी लोग द्रव्य किसे कहते हैं ? उत्तर- रुपया, सोना, चान्दी आदि को द्रव्य कहते हैं। प्रश्न (६४)--भगवान ने द्रव्य किसे कहा है ? Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४ ) उत्तर-गुणो के समूह को द्रव्य कहा है। प्रश्न (६५)-पाप कहते हो भगवान ने द्रव्य का लक्षण "गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं" परन्तु अन्य शास्त्रों में द्रव्य की परिभाषा दूसरे प्रकार से क्यो बताई है ? -जैसे तत्त्वार्थ सूत्र में “गुण पर्यायवत् द्रव्यम्" बताई है, पचाध्याय मे “गुणपर्यय समुदायो द्रव्य' तथा "गुण समुदायो द्रव्यम्' बताई है, ऐसा क्यों ? । उत्तर-इनमें से किसी एक को जब मुख्य करके कहा जाता है तव शेष लक्षण भी उसमें गभित रुप से आ जाते हैं इसलिए प्राचार्यों ने दूसरे प्रकार से द्रव्य का लक्षण स्पष्ट ध्यान में आने की अपेक्षा कथन किया है। और भाव सबका एक ही है, विरोध नहीं है, ऐसा जानना चाहिए। प्रश्न (६६)--भगवान ने द्रव्य की महिमा किससे बताई है ? उत्तर-प्रत्येक द्रव्य के उस उसके गुणो से ही द्रव्य की महिमा बताई है। प्रश्न (६७)--मिथ्यादृष्टि लोग अपनी अपनी महिमा किस किस से मानते है और किससे नहीं मानते है ? उत्तर-(१) मै पुत्र वाला हूँ, इससे महिमा मानते हैं । (२) मैं स्त्री वाला हूँ इससे महिमा मानते हैं। (३) मैं रुपये पैसे वाला हूँ इससे अपनी महिमा मानते हैं । (४) मैं सुन्दर रूप वाला हूं इससे अपनी महिमा मानते हैं। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) मैं क्षमा वाला है इससे अपनी महिमा मानते हैं। (६) मैं अणुव्रत वाला हूँ इससे अपनी महिमा मानते हैं। (७) मैं महाव्रत वाला हूं इससे अपनी महिमा मानते हैं । (८) मैंने स्त्री पुत्रादि का त्याग किया है इससे अपनी महिमा मानते हैं। (8) मैं ऐलक, क्षुल्लक हूँ इससे अपनी महिमा मानते हैं। (१०) मैं मुनि आचार्य हूं इससे अपनी महिमा मानते हैं। (११) मैं महीनों उपवास करने वाला हूँ इससे अपनी महिमा मानते है। (१२) मैं परीषह सहने वाला हूं इससे अपनी महिमा मानते हैं। आदि अप्रयोजनभूत बातों से अपनी महिमा मानते हैं, और मैं अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड ज्ञायक भगवान हूं इससे अपनी महिमा नही मानते हैं । प्रश्न (१८)-रुपया पैसा प्रादि से अपनी महिमा मानने का क्या फल है ? उत्तर-चारों गतियों में घूमकर निगोद इसका फल हैं। प्रश्न (६६)-नौ प्रकार के पक्षों से अपनी महिमा मानने वाले कौन हैं ? उत्तर--संसार के भक्त हैं अर्थात् चारों गतियों में घूमते हुए निगोद के पात्र हैं। प्रश्न (१००)-भगवान ने गुणों के अभेद पिण्ड को अनुभव करने से ही आत्मा की महिमा क्यों बताई ? Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) उत्तर-गुणों का अभेद पिण्ड मैं हूं ऐसा अनुभव करते ही सम्पूर्ण दु.ख का अभाव होकर सम्पूर्ण सुख की प्राप्ति हो जाती है इसलिए भगवान ने अनन्त गुणों के अभेद पिण्ड को अनुभव करने से प्रात्मा की महिमा बताई है। अनुभव करते ही “स हि मुक्त एव" ऐसा समयसार कलश १९८ में बताया है। प्रश्न (१०१)-जो जीव अणुव्रत है; महाव्रतादि की महिमा करता उसी में मग्न है उसका फल क्या है ? उत्तर- अनन्त संसार उसका फल है। प्रश्न (१०२)-आपने, गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं-यह __ बताया परन्तु द्रव्य में गुण किस प्रकार है ? उत्तर-(१) जैसे चीनी में मिठास है वैसे ही द्रव्य में गुण हैं। (२) जैसे अग्नि में उष्णता है वैसे ही द्रव्य में गुण हैं। (३) जैसे सोने में पीलापना है वैसे ही द्रव्य में गुण हैं। (४) जैसे पुद्गल मे स्पर्शादि है वैसे ही द्रव्य में गुण हैं। (५) जैसे नमक मे खारापना है वैसे ही द्रव्य में गुण हैं। (६) जैसे कोयले में कालापना है वैसे ही द्रव्य में गुण हैं प्रश्न (१०३)--द्रव्य के साथ गुणों का कैसा सम्बन्ध है ? उत्तर-नित्यतादात्म्य सिद्ध सम्बन्ध है अर्थात् कभी भी तीन काल तीन लोक में अलग न होने वाला सम्बन्ध है। प्रश्न (१०४)-क्या जैसे घड़े में बेर हैं उसी प्रकार द्रव्य मे गुण है ? Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७ ) उत्तर-बिल्कुल नही ! क्योंकि : (१) घड़े में बेर गेरे गये है और निकाले जा सकते हैं, जबकि द्रव्य मे गुण गेरे और निकाले नही जा सकते हैं। (२) बेर घड़े के सम्पूर्ण भागों मे नहीं हैं जबकि गुण द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में हैं। (३) बेर घड़े की सम्पूर्ण अवस्थानों में नहीं है जबकि गुण द्रव्य की सम्पूर्ण अवस्थाओं में है। (४) घडा फूट जावे तो घड़े मे से बेर निकल सकते हैं जबकि गुण द्रव्य से कभी निकल नही सकते हैं। प्रश्न (१०५)-क्या जैसे एक थैली मे सौ रुपयों के पैसे भरे हैं उसी प्रकार द्रव्य मे गुण हैं ? उत्तर-बिल्कुल नहीं। क्योंकि (१, २, ३, ४-उत्तर १०४ के अनुसार) प्रश्न (१०६)-क्या जैसे एक बोरी में नमक, मिच, हल्दी आदि भरकर मुह बद कर दिया ; उसी प्रकार द्रव्य में __गुण हैं ? उत्तर-बिल्कुल नहीं; क्योंकि-(उत्तर १०४ के अनुसार) प्रश्न (१०७)-क्या जैसे एक बोरी में गेहूं भर कर मुह बंद कर दिया, उसी प्रकार द्रव्य में गुण हैं ? उत्तर-बिल्कुल नहीं; क्योंकि (उत्तर १०४ के अनुसार) प्रश्न (१०८)-क्या जैसे पुद्गल में स्पर्शादि गुण हैं ; उसी प्रकार द्रव्य में गुण है ? उत्तर-हाँ ऐसे ही हैं क्योंकि Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) (१) जैसे पुद्गल में स्पर्श रसादि गुण अनादि से हैं; उमी प्रकार द्रव्य में गुण अनादि से हैं। (२) जैसे पुद्गल में स्पर्श रसादि सम्पूर्ण भागों में हैं: उसी प्रकार द्रव्य में गुण सम्पूर्ण भागों में हैं। (३) जैसे पुद्गल में स्पर्श, रसादि सम्पूर्ण अवस्थाओं में हैं; उसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य में गुण सम्पूर्ण अवस्थाओं में हैं। (४) जैसे पुद्गल में से स्पर्शरसादि गुण कभी निकल कर बिखर नही जाते क्योकि उनका द्रव्यक्षेत्र काल एक ही है; उसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य में गुण कभी निकलकर बिखर नहीं जाते क्योंकि प्रत्येक गुण का द्रव्यक्षेत्र काल एक ही है। प्रश्न (१०६)--क्या जैसे एक थैली में चावल भर दिये उसी प्रकार द्रव्य में गुण है ? उत्तर- बिल्कुल नहीं. क्योंकि (उत्तर १०४ के अनुसार) प्रश्न (११०)--क्या जैसे जीव में ज्ञानदर्शनादि हैं; उसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य मे गुण हैं ? उत्तर- हाँ ऐसे ही हैं ; क्योंकि (उत्तर १०८ के अनुसार) प्रश्न (१११)-क्या जैसे एक किताब में ५०० पन्ने हैं वैसे ही द्रव्य मे गुण हैं ? उत्तर-बिल्कुल नहीं , क्योंकि (उत्तर १०४ के अनुसार) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) प्रश्न (११२)-क्या जैसे इस कुर्सी में अनन्त परमाणु हैं ; उसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य में गुण हैं ? उत्तर-बिल्कुल नहीं, क्योकि (उत्तर १०४ के अनुसार) प्रश्न (११३)-क्या जैसे काल द्रव्य में परिणमन हेतुत्व गुण हैं ; उसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य में गुण हैं ? उत्तर-हाँ ऐसे ही है ; क्योंकि (उत्तर १०८ के अनुसार) प्रश्न (११४)-क्या जैसे इस कमोज में अनन्त परमाणु हैं ; उसी प्रकार द्रव्य में गुण है ? उत्तर-बिल्कुल नहीं, क्योकि (उत्तर १०४ के अनुसार) प्रश्न (११५)-क्या जैसे प्रात्मा के साथ शरीर का सम्बन्ध है उसी प्रकार द्रव्य में गुण हैं ? उत्तर-बिल्कुल नही-क्योकि (उत्तर १०४ के अनुसार) प्रश्न (११६)-क्या जैसे आत्मा के साथ पाठ कर्मों का सम्बंध है उसी प्रकार द्रव्य मे गुण है ? उत्तर-बिल्कुल नही क्योंकि (उत्तर १०४ के अनुसार) प्रश्न (११७)--क्या जैसे कमरे मे सरसों भरदी ; उसी प्रकार द्रव्य में गुण हैं ? उत्तर-बिल्कुल नही क्योकि (उत्तर १०४ के अनुसार) प्रश्न (११८)--क्या जैसे रसगुल्ले में अनन्त परमाणु हैं ; उसी प्रकार द्रव्य में गुण हैं ? उत्तर-बिल्कुल नहीं क्योंकि (उत्तर १०४ के अनुसार Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (50) प्रश्न (११९ ) -- क्या जैसे आकाश में अवगाहनत्व गुण है वैसे ही द्रव्य में गुण हैं ? उत्तर- हां ऐसे ही है क्योकि (उत्तर १०८ के अनुसार ) प्रश्न ( १२० ) -- क्या जैसे जीव पुद्गल मे क्रियावती शक्ति और वैभाविक शक्ति है; उसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य मे गुण है ? उत्तर - हाँ ऐसे ही है क्योंकि ( उत्तर १०८ के अनुसार ) प्रश्न (१२१) -- क्या जैसे एक छत्ते में हजारो मक्खियाँ है, उसी प्रकार द्रव्य मे गुण है ? उत्तर - बिल्कुल नही क्योंकि ( उत्तर १०४ के अनुसार ) प्रश्न (१२२) -- ज्ञान दर्शन चारित्र आदि गुणो के साथ ग्रात्मा का कैसा सम्बध है ? उत्तर - नित्यतादात्म्य सम्बध है । प्रश्न ( १२३ ) - नित्यतादात्म्य सम्बध को कर्ता-कर्म अधिकार में किस नाम से कहा है ? उत्तर - तादात्म्यसिद्ध सम्बंध के नाम से कहा है । प्रश्न ( १२४ ) -- तादात्म्यसिद्ध सम्बंध मानने जानने का क्या फल हैं ? उत्तर - सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र की प्राप्ति उसका फल है । प्रश्न (१२५) - शुभाशुभ विकारी भावों के सम्बंध का क्या नाम ह ? उत्तर - अनित्यतादात्म्य सम्बंध | Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( -१ ) प्रश्न ( १२६ ) -- अनत्य तादात्म्य सम्बंध को कर्ता-कर्म अधिकार में किस नाम से कहा है ? उत्तर -- संयोगसिद्ध सम्बंध के नाम से कहा है । प्रश्न (१२७ ) -- संयोगसिद्ध सम्बंध को तादात्म्यसिद्ध सम्बंध माने तो क्या होगा ? उत्तर - मिथ्यादर्शनादि दृढ़, होकर निगोद चला जावेगा । प्रश्न ( १२८ ) - सयोगसिद्ध सम्बंध अलग और निज कारण परमात्मा अलग ऐसा अनुभव करे तो क्या होगा ? उत्तर - (१) श्राश्रवों का अभाव हो जावेगा । (२) कर्मों का बध नहीं होगा । (३) सच्चे सुख की प्राप्ति हो जावेगी । (४) क्रम से निर्वाण की प्राप्ति होगी । प्रश्न ( १२६ ) - विकारी भावों के साथ अज्ञानी कैसा सम्बंध मानता है और उसका फल क्या है ? उत्तर - कर्ता - कर्म सम्बंध मानता है और उसका फल परम्परा निगोद है । प्रश्न (१३० ) - ऐसे द्रव्यों के नाम बताश्रो, जिसमें गुण ना हों ? उत्तर- ऐसा कोई भी द्रव्य नहीं है क्योंकि गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं । प्रश्न (१३१)-- गुणों को कौन नही मानता है ? उत्तर - श्वेताम्बर नही मानता है । प्रश्न (१३२ ) -- द्रव्य गुण भेद रुप हैं या अभेद रुप है ? Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२ ) उत्तर-दोनों रुप हैं। प्रश्न (१३३)--द्रध्य और गुण भेद रुप कैसे हैं ? उत्तर-संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन की अपेक्षा भेद है। प्रश्न (१३४)--द्रव्य और गुण अभेद रुप कैसे है ? उत्तर-(१) प्रदेशों की अपेक्षा द्रव्य गुण अभेद रुप है। (२) क्षेत्र की अपेक्षा द्रव्य गुण अभेद रुप है। (३) काल की अपेक्षा द्रव्य गुण अभेद रुप है। प्रश्न (१३५)--द्रव्य और गुण “संज्ञा" अपेक्षा भेद रुप कैसे है ? उत्तर-एक का नाम द्रव्य है दूसरे का नाम गुण है यह संज्ञा अपेक्षा भेद है। प्रश्न १३६)--द्रव्य और गुण सख्या अपेक्षा भेद रुप कैसे हैं ? उत्तर- द्रध्य एक है गुण अनेक हैं अत: यह संख्या अपेक्षा भेद है। प्रश्न (१३७)-द्रव्य और गुण लक्षण की अपेक्षा भेदरुप कैसे है ? उत्तर-(१) द्रव्य का लक्षण =गुणा का समूह है। (२) गुण का लक्षण-द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में और सम्पूर्ण अवस्थानो में रहता है उसे गुण कहते हैं यह लक्षण अपेक्षा भेद है। प्रश्न (१३८)-छह द्रव्यों को पहली तरह से दो तरह बांटो ? उत्तर-जीव और अजीव प्रश्न (१३६)-जीव कौन है और अजीव कौन है ? Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) उत्तर- ज्ञान दर्शनवाला एक जीव है बाकी पाँच द्रव्य अजीव हैं । प्रश्न ( १४० ) - छह द्रव्यों को दूसरी तरह से दो भेद रुप बाँटो ? उत्तर - रुपी और श्ररुपी प्रश्न ( १४१ ) - रुपी कौन है ? उत्तर - स्पर्श रस गंध वर्णवाला पुद्गल रुपी है । प्रश्न (१४२ ) प्ररुपी कौन है ? उत्तर - जीव, धर्म, अधर्म, प्रकाश और काल प्ररुपी हैं । प्रश्न (१४३) छह द्रव्यों को तीसरी तरह से, दो भेद रुप बांटों ? उत्तर - क्रियावतीशक्ति सहित और क्रियावती शक्ति रहित । प्रश्न (१४४) - क्रियावतीशक्ति वाले कौन २ द्रव्य हैं ? उत्तर - जीव और पुद्गल द्रव्य क्रियावती शक्ति सहित हैं । प्रश्न ( १४५ ) - क्रियावतीशक्ति रहित कौन कौन द्रव्य हैं ? उत्तर- धर्म, धर्म, श्राकाश और काल यह चार द्रय क्रियातीशक्ति रहित हैं । प्रश्न (१४६ ) - छः द्रव्यों को चौथी तरह से दो भेद रुप बाँटो ? उत्तर - वैभाविकशक्ति सहित और वैभाविक शक्ति रहित । प्रश्न ( १४७ ) - वैभाविकशक्ति सहित वाले कौन कौन द्रव्य हैं ? उत्तर - जीव मोर पुद्गल वैभाविक शक्ति वाले द्रव्य हैं । प्रश्न ( १४८ ) - वैभाविक शक्ति रहित वाले कौन कौन द्रव्य हैं ? Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) उत्तर-धर्म, अधर्म, आकाश और काल वभाविक शक्ति से रहित द्रव्य है। प्रश्न (१४६)-छ: द्रव्यों को पांचवी तरह से दो भेद रुप बाँटो ? उत्तर-बहुप्रदेशी और एक प्रदेशी। प्रश्न (१५०)-बहु प्रदेशी द्रव्य कौन कौन हैं ? उत्तर--जीव, धर्म, अधर्म, और प्राकाश बहु प्रदेशी हैं। प्रश्न (१५१)-एक प्रदेशी द्रव्य कौन कौन हैं ? उत्तर-पुद्गल परमाणु और काल द्रव्य यह दो एक प्रदेशी हैं । प्रश्न (१५२)-छ द्रव्यों को छठी तरह से दो भेद रुप बाँटो ? उत्तर-एक और अनेक प्रश्न (१५३)-एक एक कौन कौन एक द्रव्य हैं ? उत्तर- धर्म, अधर्म, और आकाश एकेक द्रव्य हैं। प्रश्न (१५४ -अनेक द्रव्य कौन कौन हैं ? उत्तर-जीव, पुद्गल और काल द्रव्य अनेक हैं। प्रश्न (१५५)-छः द्रव्यों को सातवीं तरह से दो भेद रुप बाँटो? उत्तर- जड़ और चेतन । प्रश्न (१५६)-जड़ द्रव्य कौन कौन हैं ? उत्तर-पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्राकाश और काल जड़ द्रव्य हैं। प्रश्न (१५७).-चेतन कौन कौन द्रव्य हैं ? Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) उत्तर-एक मात्र जीव द्रव्य चेतन है। प्रश्न (१५८ }- जीव को दो भेद रुप बांटो ? उत्तर-(१) संसारी और सिद्ध । (२) ज्ञानी और अज्ञानी । (३) केवलज्ञानी और (अल्पज्ञानी) प्रश्न (१५६।--ससारी कौन कौन हैं ? उत्तर-१४वें गुणस्थान तक ससारी हैं। प्रश्न (१६०)--सिद्ध कौन कौन हैं ? उत्तर-१४वें गुणस्थान से पार सब जीव सिद्ध कहलाते हैं । प्रश्न (१६१)-ज्ञानी कौन २ हैं ? उत्तर- 'सम्यग्दृष्टि सो ज्ञानी', इस अपेक्षा चौथे गुणस्थान से सिद्ध दशा तक सब ज्ञानी है। प्रश्न (१६२)--अज्ञानी कौन कौन हैं ? उत्तर-निगोद से लगाकर तीसरे गुण स्थान तक चारों गति के जीव अज्ञानी हैं क्योंकि मिथ्यादृष्टि सो अज्ञानी' । प्रश्न (१६३)-केवल ज्ञानी सो ज्ञानी कौन कौन जीव हैं ? उत्तर-१३, १४३, सिद्ध दशा वाले केवलज्ञानीजीव हैं ? प्रश्न (१६४)-प्रज्ञानी (अल्पज्ञानी) कौन कौन हैं ? उत्तर- 'अल्प ज्ञानी सो अज्ञानी' और केवलज्ञानी सो ज्ञानी इस अपेक्षा निगोद से लगाकर १२वे गुणस्थान तक गणधरादि सब अज्ञानी (अल्पज्ञानी) हैं। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न (१६५)-जीवों में भव्य प्रभव्य का व्यवहार कहां तक है ? उत्तर-१४वें गुणरथान तक है। सिद्ध भगवान में भव्य प्रभव्य का भेद नही है अर्थात् वह भव्य-अभव्य से रहित है। प्रश्न (१६६)-संसारी के दो भेद कौन २ से है ? उत्तर-भव्य और प्रभव्य हैं ? प्रश्न (१६७ --भव्य का कोई भेद हैं ? उत्तर---एक दूरानदूर भव्य, एक निकट भव्य । प्रश्न (१६८)--अभव्य का कोई भेद है। उत्तर- जो कभी सुलटेगें ही नही (निगोद से कभी निकलेगे ही नहीं) वह अभव्य है। निगोद से निकलकर सुलटने की शक्ति होने पर भी कभी ना सुलटेगे वह अभव्य हैं। प्रश्न (१६६)-छदमस्थ का क्या अर्थ है ? उत्तर- ज्ञानदर्शन का प्रावरण रहे तबतक छदमस्थ है। प्रश्न (१७०)--छमदस्थ के कितने भेद हैं ? उत्तर-साधक और बाधक प्रश्न (१७१)--साधक कौन २ है उत्तर-चौथे गुणस्थान से १२वें गुणस्थान तक साधक है। प्रश्न (१७२ --बाधक कौन २ हैं ? उत्तर-निगोद से लगाकर चारों गति के जीव जवतक सम्यक्त्व की प्राप्ति ना हो तब तक बाधक है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ) प्रश्न (१७३!-.पुद्गल द्रव्य के कितने भेद हैं ? उत्तर-परमाणु और स्कंध । प्रश्न (१७४)--स्कंध के कितने भेद हैं ? उत्तर-छह है; (१) अतिस्थूल, (२) स्थूल, (३) स्थूल सूक्ष्म (४) सूक्ष्मस्थूल, (५) सूक्ष्म (६) अतिसूक्ष्म (सूक्ष्मसूक्ष्म) प्रश्न (१७५)--प्रति स्थूल स्थूल स्कंध किसे कहते हैं ? उत्तर-काष्ठ-पाषाणदिक जो स्कंध छेदन किये जाने पर पर स्वयमेव जुड़ नही सकते हैं वे स्कंघ प्रतिस्थूलस्थूल स्कध हैं। प्रश्न (१७६)-स्थूल स्कंध किसे कहते हैं ? उत्तर - दूध, जल आदि जो स्कंध छेदन किये जाने पर पुनः स्वयमेव जुड जाते है वे स्कध स्थूल हैं। प्रश्न । १७७)--स्थूलसूक्ष्म किसे कहते हैं ? उत्तर-धूप. छाया, चान्दनी, अधकार इत्यादि जो स्कध स्थूल ज्ञात होने पर भी भेदे नहीं जा सकते या हस्तादिक से ग्रहण नहीं किये जा सकते वे स्कष स्थूल सूक्ष्म है। प्रश्न (१७८)--सूक्ष्म स्थूल स्कंध किसे कहते हैं ? उत्तर-मांख से न दिखने वाले ऐसे जो चार इन्द्रियों के विषयभूत स्कंध सूक्ष्म होने पर भी स्थूल ज्ञात होते हैं। स्पर्शन-इन्द्रिय से स्पर्श किये जा सकते है, जीभ से प्रास्वादन किये जा सकते है नाक से सूघे जा सकते हैं. कान से सुने जा सकते हैं Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (55) वे स्कंध, सूक्ष्मस्थूल है । प्रदन (१७९ ) --सूक्ष्म स्कंध किसे कहते हैं ? उत्तर- इन्द्रिय ज्ञान को अगोचर ऐसे जो कर्मवगणारूप स्कंध वे है वह स्कंध सूक्ष्म है । प्रश्न (१८० ) -- प्रतिसूक्ष्म स्कध किसे कहते हैं ? उत्तर - कर्मवर्गणा से प्रतीत जो प्रत्यन्त सूक्ष्म द्वि-प्रणुकपर्यन्त स्कंध वे स्कध प्रति सूक्ष्म है । प्रश्न (१८१) - पुदगल परमाणु और स्कंधों के यह भेद जानने से क्या लाभ है ? ' उत्तर - अनादि से अज्ञानी है उसे कहते हैं कि भाई आत्मा चैतन्य मूर्ति है उसका पुद्गल परमाणु श्रौर स्कधों के भेदों से तो किसी भी प्रकार का ( निश्चय व्यवहार से सम्बंध नही है परन्तु स्कध के निमित्त से जो भाव होते है वह भी पुद्गल है ऐसा जानकर अपने अनन्त गुणों के प्रभेद पिण्ड ज्ञायक भगवान का आश्रय ले तो धर्म की शुरुआत होकर, वृद्धि होकर, पूर्ण शान्ति का पथिक बनना यह पुद्गलो को जानने का लाभ है । प्रश्न (१८२) - आकाश के कितने भेद हैं ? उत्तर - लोकाकाश और अलोकाकाश प्रश्न (१९८३) - काल द्रव्य को दो भेद में बाटों । उत्तर - निश्चयकाल - व्यवहारकाल । प्रश्न ( १८४ ) - संख्या की अपेक्षा सबसे ज्यादा कौन द्रव्य है ? Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) उत्तर- पुद्गल परमाणु द्रव्यों की संख्या बड़ी हैं और अनन्त जीव राशि से अनन्तानन्त गुनी अधिक है। प्रश्न (१८५)-क्षेत्र की अपेक्षा सबसे अधिक कौन है ? उत्तर-क्षेत्र अपेक्षा से त्रिकालवर्ती समयों की संख्या से अनन्त गुनी संख्या प्राकाश द्रव्य के प्रदेशों की है। इसलिए क्षेत्र अपेक्षा से प्राकाश द्रव्य सबसे बड़ा है। प्रश्न (१८६)--काल की अपेक्षा संख्या ज्यादा किसकी है ? उत्तर-(१) काल अपेक्षा से प्रत्येक द्रव्य के स्वकाल रुप अनादिअनन्त पर्यायें पुद्गल द्रव्य की संख्या से अनन्त गुनी हैं वे पर्यायकाल अपेक्षा से अनन्त हैं। (२) भूतकाल के अनन्त समयों की अपेक्षा भविष्य काल के समयों की संख्या अनन्तगुनी अधिक है। प्रश्न (१८७)--भाव अपेक्षा अनन्तरुप से किसकी सख्या अधिक है? उत्तर-भाव अपेक्षा से जीव द्रव्य के ज्ञान गुण के एक समय के केवलज्ञान पर्याय के अविभाग प्रतिच्छेदों की संख्या सबसे अनन्तगुना अधिक है। वह भाव अपेक्षा से अनन्त है। प्रश्न (१८८)-छह द्रव्यों में समान रुप से पाया जावे ऐसा पहला प्रकार क्या है ? उत्तर-सत्पना (सद्व्यलक्षणम्) प्रश्न (१८६)-छह द्रव्यों में समान रुप से पाया जावे ऐसा दूसरा प्रकार क्या है। उत्तर-उत्पादव्यय ध्रौध्ययुक्त सत् अर्थात् त्रिकाल कायम रहकर प्रत्येक समय मे पुरानी अवस्था का व्यय और नई अवस्था का उत्पाद होता हुआ यह छह द्रव्यों में समान रुप से पाया जाने वाला दूसरा प्रकार है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) प्रश्न (१९०)-छह द्रव्यों मे समानरुप से पाया जावे ऐसा तीसरा प्रकार क्या है ? उत्तर-प्रत्येक द्रव्य अपने अपने गुणों और पर्यायों का मालिक होता है । दूसरे द्रव्यों के गुणों और पर्यायों का मालिक नहीं होता है । यह छह द्रव्यों मे समान रुप से पाया जानेवाला तीसरा प्रकार है। प्रश्न (१९१)--छहो द्रव्यों में समानरुप से पाया जावे ऐसा चौथा प्रकार क्या है ? उत्तर- गुण द्रव्य के आश्रित रहते हैं, गण गण के आश्रित नहीं होते यह छहो द्रव्यों में समान रुप से पाये जाने वाला चौथा प्रकार है। प्रश्न (१९२)छहो द्रव्यों में समान रुप से पाया जावे ऐसा पाँचवाँ प्रकार क्या है ? उत्तर --नित्य-अनित्यपना छहों द्रव्यों में समान रुप से पाया जाने वाला पाँचवा प्रकार है। प्रश्न (१९३)-छहो द्रव्यों में समान रुप से पाया जानेवाला ऐसा छठा प्रकार क्या है ? उत्तर- सामान्य और विशेषपना यह छहों द्रव्यों में समान रुप से पाया जाने वाला छठा प्रकार है, प्रश्न-(१६४)-छहो द्रव्यों में समान रूप से पाया जानेवाला सातवाँ प्रकार क्या है ? उत्तर--स्याद्वाद अनेकान्तपना यह छह द्रव्यों में समान रुप से पाया जाने वाला सातवाँ प्रकार है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) प्रश्न (१९५)-छहों द्रव्यों में समान रुप से पाया जाने वाला ऐसा पाठवाँ प्रकार क्या है ? उत्तर-अपने द्रव्य में अर्तमग्न रहने वाले अपने अनन्त धर्मों के चक्र को (समूह को) चुम्बन करते हैं, स्पर्श करते हैं, वे परस्पर एक दूसरे का स्पर्श नहीं करते, यह छह द्रव्यों में समान रुप से पाया जाने वाला आठवाँ प्रकार है। प्रश्न (१९६)-छहो द्रव्यों में समान रुप से पाया जाने वाला ऐसा नौवां प्रकार मोक्षमार्ग प्रकाशक में क्या बताया है ? उत्तर-अनादि निधन वस्तु जुदी जुदी अपनी अपनी मर्यादा लिए परिणामें हैं कोई किसी का परिणमाया परिणमत्ता नाही यह छह द्रव्यों में समान रुप से पाया जाने वाला नौवाँ प्रकार है। प्रश्न (१९७)-छहों द्रव्यों में समान रूप से पाया जाने वाला ऐसा दसवां प्रकार क्या है ? उत्तर-एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी नहीं कर सकता; उसे परिणमित नहीं कर सकता, प्रेरणा नहीं कर सकता, लाभ हानि नहीं कर सकता, उस पर प्रभाव नहीं डाल सकता. कोई किसी की सहायता या उपकार या अपकार नहीं कर सकता, ऐसी प्रत्येक द्रव्य गुण पर्याय की सम्पूर्ण स्वतंत्रता अनन्त ज्ञानियों ने अर्थात् - (जिन-जिनवर जिनवरवृषभों ने) पुकार पुकार कर कही है यह छहों द्रव्यों में समान रुप से पाया जाने वाला दसवां प्रकार है। प्रश्न (१९८)-यह छः द्रव्यों में समान रुप से पाया जाने वाला .. दस प्रकारों के जानने का क्या लाभ है ? . . . Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) उत्तर-छह द्रव्य जाने, उनमें समान रूप से पाया जाने वाले दस प्रकारों को जाना, उनमे से मेरी आत्मा को छोड़कर मेरा किसी भी दूसरे जीवों से तथा बाकी पाँच द्रव्यों के द्रव्य गुण पर्यायो के साथ किसी भी प्रकार का कोई सम्बंध नही है, मात्र मेरा तो अपने अनन्त गुणों के अभेद पिण्ड ज्ञायक भगवान के गुण पर्यायों के साथ ही प्रयोजन है, और से नहीं ऐसा जानकर अपने में लीन होना यह दस प्रकारों को जानने का लाभ है। प्रश्न (१६६)-मेरी आत्मा का तो अपने गुण पर्यायों के साथ प्रयोजन है और से नहीं इससे क्या लाभ है ? उत्तर-मैं (जीव) सदैव अरुपी होने से मेरे अवयव भी सदैव अरूपी ही हैं इसलिए किसी भी काल में निश्चय से या व्यवहार से हाथ पैर आदि को चलाना, स्थिर रखना प्रादि परद्रव्य की कोई भी अवस्था मै (जीव) नहीं कर सकता ऐसा निर्णय होना यह अपने गुण पर्यायों को जानने का लाभ है। प्रश्न (२००)-छहढाला में जीव का स्वरूप (अर्थात् मेरा स्वरूप) क्या बताया है और क्या नही, उसे स्पष्ट समझायो ? उत्तर-“चेतन को है उपयोम रूप, बिनमूरत चिन्मूरत अनूप । पद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनते न्यारी है जीव चाल" अर्थ :--मेरा काम ज्ञाता द्रष्टा है, आंख नाक कान शरीर हाथ पांव जैसी मेरी मूरत नहीं है; चैतन्य अरूपी मेरा प्राकार है, सर्वज्ञ स्वभावी ज्ञान पदार्थ होने से मेरी प्रात्मा अनुपम है, मेरे अलावा अनन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश एकेक और लोक प्रमाण Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) असंख्यात कालद्रब्यों से मेरा किसी भी प्रकार का सम्बंध नही हैं ऐसा मैं भगवान प्रात्मा हूं। परन्तु अज्ञानी मानता है कि मैं सुबह उठता हूँ, मैं नहाता हूं. मैं शरीर का काम. पर के काम करता हूँ, आँख नाक, शरीर, हाथ, पाँव, मेरी मूर्ति है, शरीर के प्राकार को अपना आकार मानता है, पर वस्तु को अनुपम मानता है, मैं दूसरे जीवो का भला बुरा कर सकता हूँ, मै पद्गलों का. दाल, भात, पाच इन्डियों के भोग भोगता हूँ, मैं हल्का हूँ, मैं भारी हूं, मुझे मीठा अच्छा लगता है; मुझे खुशबू अच्छी लगती है. बदबू अच्छी नहीं लगती; मै आँखो से देखता हूँ, कानो से सुनता हूँ, धर्म द्रव्य मुझे चलाता है, अधर्म द्रव्य मुझे ठहराता है, आकाश मुझे जगह देता है, काल मुझे परिणमन कराता है आदि अज्ञानी मानता है। प्रश्न (२०१)-आप कहते हो एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से सम्बध नही है तो शास्त्रों मे क्यो लिखा है, कि-- (१) कम चक्कर कटाता है। (२) जीव पुद्गल का और पुद्गल जीव का उपकार करता है (३) धर्म द्रव्य जीव पुद्गल को चलाता आदि व्यवहार के कथन शास्त्रो में भरे पड़े है क्या यह बातें झूठी लिखी हैं ? उत्तर-असल बात कहने में नहीं आती है इसलिए जैसे किताबों की अलमारी बोलने में आता है वास्तव में तो अलमारी लकडी की है परन्तु उसमें किताब रखते हैं तो अलमारी किताबों की बोलने में प्राती हैं; उसी प्रकार Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) कर्म चक्कर कटाता है आदि व्यवहार कथन है । प्रश्न ( २०२ ) - व्यवहार कथन को जैसा का तैसा अर्थात् साचा कथन माने तो क्या होगा ? उत्तर- (१) पुरषार्थसिद्ध उपाय में "तस्य देशना नास्ति" कहा है । (२) समयसार कलश ५५ में "यह अज्ञान अधकार है उसका सुलटना दुनिवार है" (३) प्रवचनसार में " पद पद पर धोखा खाता है" (४) उसके सर्व धर्म के अंग अन्यथा रूप होकर मिथ्या भाव को प्राप्त होते है । प्रश्न (२०३ ) - व्यवहार के कथन को सच्चा मानने वाले को " तस्य देशना नास्ति" आदि क्यों कहा ? उत्तर- "व्यवहारनय स्व- द्रव्य श्रौर पर द्रव्य को, स्वद्रव्य के भावों को और पर द्रव्यों के भावो को तथा कारण कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरुपण करता है। श्रतः व्यवहार के कथन का वैसा का वैसा श्रद्धान करने से मिथ्यात्व दृढ़ होता है इसलिए उस श्रद्धान का त्याग करना । और निश्चयनय स्वद्रव्य और पर द्रव्य को, स्व द्रव्य के भावों को और पर द्रव्यो के भावों को तथा कारण कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरुपण नहीं करता है उसके श्रद्धान से सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होती है | इसलिए व्यवहार के कथन को सच्चा मानने वाले को 'तस्यदेशनानास्ति' प्रादि शब्दों से प्राचार्यो ने सम्बोधन किया है । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) प्रश्न (२०४) जहां व्यवहार कथन हो वहां क्या अर्थ करना चाहिये ? उत्तर जहां व्यवहार से कथन हो उसका अर्थ · ऐसा है नहीं किन्तु निमित्तादि की अपेक्षा कथन किया है" ऐसा जानना चाहिए। (२) निमित्त की मुख्यता से कथन होता है किन्तु निमित्त की मुख्यता से कार्य नहीं होता है ऐसा न्यवहार कथन का अभिप्राय समझना चाहिए। प्रश्न (२०५ --सर्वज्ञ देव का वीतरागी भेद विज्ञान क्या है ? उत्तर-जगत में छहों द्रव्य एक ही क्षेत्र में विद्यमान होने पर भी कोई द्रव्य दूसरे द्रव्य के स्वभाव को स्पर्श नहीं करता; । प्रत्येक द्रव्य अपने अपने उत्पाद-व्यय ध्रौव्य रुप त्रिस्वभाव में ही वर्तता है, इसलिए प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव को ही स्पर्श करता है-यह है सर्वज्ञ देव कथित वीतरागी भेद विज्ञान ! प्रश्न (२०६)-सर्वज्ञ देव कथित वीतरागी भेद विज्ञान को मानने से क्या लाभ होता है ? । उत्तर - (१) निमित्त उपादान का सही स्पष्टीकरण इसमें आ जाता है उपादान और निमित्त यह दोनों पदार्थ एक साथ प्रवर्तमान होने पर भी, उपादान रुप पदार्थ अपने उत्पाद-व्यय ध्र वतारूप स्वभाव को ही स्पर्श करता है निमित्त को किंचित् मात्र भी स्पर्श नहीं करता (२) निमित्त भूत पदार्थ भी उसके अपने उत्पाद-व्यय ध्रुवता रूप स्वभाव का ही स्पर्श करता है उपादान को वह किचित् मात्र भी स्पर्श नहीं करता। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) निमित्ता, उपादान दोनों पृथक पृथक अपने अपने स्वभाव में ही प्रर्वतते हैं, परिणमन करते हैं। प्रश्न (२०७)--निमित्त, उपादान पृथक पृयक कार्य करते है एक दूसरे का कोई सम्बंध नहीं है इसको जानने से क्या लाभ रहा ? उत्तर -- पूज्य गुरुदेव कहते हैं अहो ! पदार्थो का यह स्वभाव भली भाँति पहिचान ले तो भेदज्ञान होकर स्व द्रव्य के ग्राश्रय से निर्मल पर्याय का उत्पाद और मलिनता का व्यय हो उसका नाम धर्म है । यही सर्वज्ञ के सर्व उपदेश का तात्पर्य है। प्रश्न (२०८) शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से द्रव्य का लक्षण पंचाध्यायी मे क्या बताया है ? उत्तर--(१) जो सत् वरुप, (२) स्वत.सिद्ध, (३) अनादि अनात, । ४) स्वसहाय, (५) निर्विकल्प अर्थात् अखण्डित वह द्रव्य है। ऐसा बताया है। प्रश्न (२०६)--पंचाध्यायी में पर्यायार्थ कनय से द्रव्य का लक्षण क्या बताया है ? उत्तर-(१) गुण पर्यायवद् द्रव्यम्, (२) गुणपर्यय समुदायो द्रव्यम्. (३) गुण समुदायों द्रव्यम् (४) समगुण पर्यायों द्रव्यम् (५) उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त सत्-यह सब पर्यायाथिक नयसे द्रव्य के लक्षण हैं । प्रश्न (२१०)--पंचाध्यायी में प्रमाण से द्रव्य का लक्षण क्या बताया है ? Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) उत्तर - जो द्रव्य गुण पर्याय वाला है वही द्रव्य उत्पादव्यव्ययुक्त है। तथा वही द्रव्य प्रखण्ड सत् अनिर्वचनीय है । प्रश्न (२११) स्वत: सिद्ध किसे कहते हैं ? , उत्तर - वस्तु पर से सिद्ध नहीं है इश्वरादि की बनाई हुई नहीं है स्वतः स्वभाव से स्वयंसिद्ध है । यह तात्पर्य स्वतः सिद्धसे है 1 प्रश्न ( २१२ ) -- अनादि अनन्त किसे कहते हैं ? उत्तर - वस्तु क्षणिक नहीं है । सत् की उत्पत्ति नहीं है । न सत् का नाश होता है वह अनादि से है और अनन्त काल रहेगा यह तात्पर्य अनादिश्रनन्त से है । प्रश्न ( २१३ ) -- स्वसहाय किसे कहते हैं ? उत्तर- (१) पदार्थ अन्य पदार्थों से नहीं है । निमित्त या अन्य पदार्थों से न टिकता है और न परिणमन करता है । (२) अनादिअनन्त स्वभाव या विभाव, या शुद्धरूप स्वयं अपने परिणमन के कारण परिणमता है । (३) कभी किसी पदार्थ का अंश न स्वयं अपने में लेता हैं और न अपना कोई प्रश दूसरे को देता हैयह तात्पर्य स्वसहाय से है । प्रश्न (२१४) -- अनादिअनन्त भौर स्वसहाय में क्या अन्तर है ? उत्तर - अनादिअनन्त में उत्पत्ति और नाश से रहित बताना है और स्वसहाय में उसकी स्वतन्त्र स्थिति तथा रवतंत्र Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) परिणमन बताना है इतना अन्तर है। प्रश्न (२१५)--निर्विकल्प (अखण्डित) किसे कहते हैं ? उत्तर-जिसके द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से. और भाव से किसी प्रकार सर्वथा खण्ड न हो सकते हों उसे निर्विकल्प (अखण्डित) कहते हैं। प्रश्न (२१६)--महासत्ता किसे कहते हैं ? उत्तर-सामान्य को, अखण्ड को, अभेद को, महासत्ता कहते प्रश्न (२१७)--अवान्तर सत्ता किसे कहते हैं ? उत्तर-विशेष को, खण्ड को, भेद को अवान्तर सत्ता कहते हैं प्रश्न (२१८)-क्या महासत्ता और अवान्तर--सत्ता के प्रदेश भिन्न भिन्न हैं ? उत्तर- नहीं, प्रदेश एक ही है मात्र अपेक्षाकृत भेद हैं क्योकि वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। प्रश्न (२१६)-प्रत्येक द्रव्य का स्वचतुष्टय क्या है ? उत्तर-(१) द्रव्य-वह द्रव्य है (२) उसका क्षेत्र - वह क्षेत्र है १३) उसका काल-वह काल है (४) उसका भाव-वह भाव है। प्रश्न (२२०)-प्रत्येक द्रव्य का चतुष्टय उस उस द्रव्य के अन्दर है या बाहर है ? उत्तर -- उसके अन्दर ही है बाहर नहीं है। प्रश्न (२२१)-कोई सामान्य को न माने तो क्या नुकसान है ? Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 66 ) उत्तर - मोक्ष का पुरुषार्थ नहीं हो सकेगा। प्रश्न (२२२)-कोई विशेष को न माने तो क्या नुकसान है ? उत्तर-संसार और मोक्ष ही नहीं रहेगा। प्रश्न (२२३)-सामान्य विशेष से क्या जानना चाहिए? उत्तर - अपने सामान्य और विशेष दोनों को जानकर अपने सामान्य की ओर दृष्टि करने से पर्याय में से विकार का प्रभाव और धर्म का उत्पाद होता है। फिर जैसे जैसे अपने सामान्य में एकाग्रता करता जाता है क्रम से वृद्धि करके परिपूर्ण मोक्ष की प्राप्ति होती है। __ अनादि से अनन्त काल तक जिन, जिनवर और जिनवरवृषभों ने द्रव्य का स्वरुप बतलाया है और बतायेंगे उन सब के चरणों में अगणित नमस्कार । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 8 गुण प्रश्न (१) गुण किसे कहते हैं ? उत्तर - जो द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में और उसकी सम्पूर्ण अवस्थाओं में रहता है उसे गुण कहते हैं । प्रश्न :२)-गुण के पर्यायवाची शब्द क्या क्या हैं ? उत्तर-शक्ति कहो, लक्षण कहो, विशेष कहो, धर्म कहो, ध्र व कहो, अर्थ कहो, अन्वयी कहो, सहभू कहो, नित्य कहो, अवस्थित कहो या गुण कहो एक ही बात है यह गुण के पर्यायवाची शब्द हैं। प्रश्न (३)--गण की व्याख्या में "द्रव्यवाचक" शब्द क्या हैं ? उत्तर-द्रव्य के प्रश्न (४)--गुण की व्याख्या में "क्षेत्रवाचक" शब्द क्या हैं ? उत्तर- सम्पूर्ण भागों में प्रश्न (५)--गुण की व्याख्या में "कालवाचक' शब्द क्या हैं ? उत्तर-सम्पूर्ण अवस्थाओं में प्रश्न (६)--गुण की व्याख्या में "भाववाचक' शब्द क्या हैं ? उत्तर-गुण कहते हैं। प्रश्न (७)-गुण की व्याख्या में “सम्पूर्ण भागो में" क्या क्या सूचित करता है ? Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर-(१) गुण द्रव्य के पूरे हिस्से में होता है, कम ज्यादा में नहीं होता है। (२) जितना बड़ा द्रव्य का क्षेत्र है उतना ही बड़ा गुण का क्षेत्र है। प्रश्न । ८)-- गुण की व्याख्या में “सम्पूर्ण अवस्थानों में" क्या क्या सूचित करता है ? उत्तर-(१) गुण द्रव्य से कभी भी, किसी भी हालत में पृथक नहीं होता है। (२) द्रव्य अनादिअनन्त है तो उसके गुण भी अनादि अनन्त हैं। प्रश्न (8)--द्रव्य पहले या गुण पहले ? उत्तर- द्रव्य और गुण दोनों अनादिअनन्त हैं पहले और बाद का प्रश्न खोटा है। प्रश्न (१०)-द्रव्य में गुण किस प्रकार है दृष्टान्त देकर बताओ? उत्तर-(१) जैसे गुड़ में मिठास है वैसे ही द्रव्य में गुण हैं। (२) जैसे अग्नि में उष्णपना है, वैसे ही द्रव्य में गुण हैं। (३) जैसे पानी में ठंडापना है वैसे ही द्रव्य में गुण हैं। (४) जैसे सोने में पीलापना है वैसे ही द्रव्य में गण हैं प्रश्न (११)- द्रव्य के पूरे हिस्से में रहने वाले कौन हैं ? उत्तर-गुण हैं। प्रश्न (१२)--द्रध्य की सब हालतों में रहने वाले कौन हैं ? उत्तर-गुण हैं। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) प्रश्न (१३) -- एक गुण द्रव्य के कितने भाग में है ? उत्तर - सम्पूर्ण भाग में हैं क्योंकि गुण द्रव्य के सम्पूर्ण भाग में होता है । प्रश्न (१४) -- एक गुण द्रव्य के कितने प्रदेशों में है ? उत्तर -- सम्पूर्ण प्रदेशों में है । प्रश्न (१५) - द्रव्य के एक प्रदेश में कितने गुण हैं ? उत्तर - सम्पूर्ण गुण है । प्रश्न (१६) -- गुण कितने प्रकार के हैं ? उत्तर- दो प्रकार के हैं - सामान्य और विशेष । प्रश्न ( १७ ) - सामान्य गुण किसे कहते हैं ? उत्तर - जो सर्व द्रव्यों में हो उसे सामान्य गुण कहते हैं । प्रश्न (१८) - विशेष ग ुण किसे कहते है ? उत्तर - जो सर्व द्रव्य में ना हो, किन्तु अपने अपने द्रव्य में हों, उसे विशेष गुण कहते है । प्रश्न (१६) - सामान्य गुणों का क्षेत्र बड़ा है या विशेष गुणो का ? उत्तर - प्रत्येक द्रव्य में सामान्य गुणों का और विशेष गुणों का क्षेत्र एक ही होता है क्योकि गुण द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में रहता है । प्रश्न ( २० ) - प्रत्येक द्रव्य में रहने वाले गुणो को भिन्न भिन्न किस आधार से करोगे ? उत्तर - प्रत्येक गुण के भिन्न भिन्न लक्षणों से पृथक करेंगे प्रश्न ( २१ ) - किस अपेक्षा से द्रव्य से गुण पृथक हैं ? • Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) उत्तर-द्रव्य से गुण किसी भी अपेक्षा से पृथक नहीं हैं क्योंकि गुणों और द्रव्यों का क्षेत्र और काल एक ही है। प्रश्न (२२)-ऐसे द्रव्य के नाम बतायो जिसमें सामान्य गुण तो हों और विशेष गुण ना हों ? उत्तर-ऐसा कोई भी द्रव्य नहीं है क्योंकि सामान्य और विशेष गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं ? प्रश्न (२३)-द्रव्य में सामान्य गुण ना हों तो क्या दोष आता उत्तर-यदि द्रव्य में सामान्य गुण ना हो तो द्रव्यपना ही ना रहे। प्रश्न (२४)-द्रव्य में विशेष गुण ना हो तो क्या दोष आता है? उत्तर-द्रव्य में विशेष गुण ना हो तो एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से पृथक मालूम ना हो अर्थात् विशेष गुण ना हों तो किसी द्रव्य को दूसरे द्रव्य से भिन्न नहीं किया जा सकता है। प्रश्न (२५)-द्रव्य और गुण में संख्या भेद है या नहीं ? उत्तर- है; द्रव्य एक है गुण अनेक हैं यह सख्या भेद है। प्रश्न (२६)-द्रव्य और गुणों में द्रव्य क्षेत्र काल भाव की तुलना करो ? उत्तर- द्रव्य और गुण का द्रव्य क्षेत्र काल एक ही है किन्तु __ भावों में अन्तर है। प्रश्न (२७)-प्रत्येक गुण के कार्य क्षेत्र में मर्यादा क्या है ? Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) उत्तर-प्रत्येक गण अपने स्वद्रव्य के क्षेत्र में निरन्तर अपना ही कार्य करता है; कभी पर का या पर गुण का कार्य नहीं करता—ऐसी प्रत्येक गण के कार्य क्षेत्र की मर्यादा है। प्रश्न (२८)-ज्ञान गण को गुण की परिभाषा में लगायो ? उत्तर-ज्ञान गण जीव द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में और सम्पूर्ण अवस्थानो मे त्रिकाल रहता है। प्रश्न (२६)-क्या रस ग ण जीव द्रव्य के सम्पूर्ण भागों मे और सम्पूर्ण अवस्थाओं मे त्रिकाल रहता है ? उत्तर-बिल्कुल नहीं, क्योकि रस गण पुद्गल का है जीव का नही, इसलिए रस ग ण पुद्गल द्रव्य के सम्पूर्ण भागों मे और सम्पूर्ण अवस्थाप्रो में त्रिकाल रहता है जीव मे नहीं। प्रश्न (३०)-चारित्र गुण को गुण की परिभाषा में लगायो ? उत्तर-चारित्र गण जीव द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में तथा उसकी सम्पूर्ण अवस्थाओं मे रहता है। प्रश्न (३१)-गतिहेतुत्व गुण को गुण की परिभाषा में लगायो । उत्तर-गतिहेतुत्व गुण धर्म द्रव्य के सम्पूर्ण भाग तथा उसकी सम्पूर्ण अवस्थाप्रो में रहता है। प्रश्न (३२)--परिणमनहेतुत्व गुण को गण की परिभाषा में लगायो ? उत्तर-परिणमनहेतुत्व गुण काल द्रव्य के सम्पूर्ण भाग तथा Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) उसकी सम्पूर्ण अवस्थाओं में रहता है । प्रश्न ( ३३ ) -- गंध गुण को गुण की परिभाषा में लगाम्रो ? उत्तर - गंध गुण पुद्गल द्रव्य के सम्पूर्ण भागों तथा उसकी सम्पूर्ण अवस्थानों में रहता है। प्रश्न (३४) - वैभाविक शक्ति को गुण की परिभाषा में लगानी ? उत्तर - वैभाविक शक्ति जीव तथा पुद्गल के सम्पूर्ण भागो उसकी सम्पूर्ण अवस्थाओं में रहती है । प्रश्न (३५) -- अस्पर्श गुण को गुण की परिभाषा में लगाओ ? उत्तर - अस्पर्श गुण जीव द्रव्य के सम्पूर्ण भाग तथा उसकी तथा सम्पूर्ण अवस्थानों में रहता है । प्रश्न ( ३६ ) -- क्या श्रद्धा गुण सम्पूर्ण दव्यों के सम्पूर्ण भागों में और सम्पूर्ण अवस्थाओं में त्रिकाल रहता है ? उत्तर - नहीं भाई ! श्रद्धा गुण मात्र जीव द्रव्य में पाया जाता है सब द्रव्यों में नहीं पाया जाता है इसलिए तुम्हारा कहना गलत है इसलिए श्रद्धा गुण जीव द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में और सम्पूर्ण अवस्थाओं में त्रिकाल रहता है बाकी द्रव्य में नहीं रहता ऐसा जानना चाहिए । प्रश्न ( ३७ ) -- क्या क्रियावती शक्ति गुण धर्म द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में भौर सम्पूर्ण अवस्थाओं में त्रिकाल रहता है ? उत्तर - नहीं । क्रियावती शक्ति जीव तथा पुद्गल के सम्पूर्ण भाग तथा उसकी सम्पूर्ण अवस्थानों में रहता है । प्रश्न (३८) - क्या गति हेतुत्व गुण धर्म द्रव्य के सम्पूर्ण भागों Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) और सम्पूर्ण अवस्थानो मे त्रिकाल रहता है ? उत्तर-हाँ, बिल्कुल ठीक है। प्रश्न (३६)-आनंद गुण को गुण की परिभाषा मे लगायो ? उत्तर- पानंद गुण जीव द्रव्य के सम्पूर्ण भागों तथा उसकी सम्पूर्ण अवस्थामो मे रहता है। प्रश्न (४०)- वर्ण गण को ग ण की परिभाषा में लगाओ ? उत्तर - वर्ण गुण पुद्गल द्रव्य के सम्पूर्ण भाग तथा उसकी सम्पूर्ण अवस्थानों मे रहता है। प्रश्न (४१)--अवगाहन हेतुत्व गुण को गण की परिभाषा मे लगायो ? उत्तर-अवगाहन हेतुत्व गुण अाकाश द्रव्य के सम्पूर्ण भागो तथा सम्पूर्ण अवस्थाप्रो मे रहता है । प्रश्न (४२)--अगध गुण को गुण की परिभाषा में लगायो ? उत्तर- अगंध गुण जीव द्रव्य के सम्पूर्ण भागों तथा उसकी सम्पूर्ण अवस्थामो मो रहता है। प्रश्न (४३)-दर्शन गुण को गुण की परिभाषा मे लगायो ? उत्तर- दर्शन गुण जीव द्रव्य के सम्पूर्ण भागों तथा उसकी सम्पूर्ण अवस्थानों में रहता है। प्रश्न (४४)--वस्तुत्व गुण को गुण की परिभाषा में लगायो ? उत्तर-वस्तुत्वगुण द्रव्य के सम्पूर्ण भागों तथा उसकी सम्पूर्ण अवस्थानो में रहता है। प्रश्न (४५)-प्रदेशत्व गुण को गुण की परिभाषा में लगानो ? Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) उत्तर-प्रदेशत्व गुण द्रव्य के सम्पूर्ण भागों तथा उसकी सम्पूर्ण अवस्थाओं में रहता है। प्रश्न (४६)-अगुरुलघुत्व गुण को गुण की परिभाषा में लगायो ? उत्तर----अगुरुलघुत्व गुण द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में तथा उसकी ___ सम्पूर्ण अवस्थानो में रहता है। प्रश्न (४७)-भोक्त त्व अभोक्त त्व गुण को गुण की परिभाषा में लगायो ? उत्तर--भोक्त त्व और अभोक्त त्व गण प्रत्येक द्रव्य के सम्पूर्ण भागों तथा सम्पूर्ण अवस्थाओं में रहता है। प्रश्न (४८)-कर्तत्व और अकर्तृत्व गुण को गुण की परिभाषा मे लगायो? उत्तर-कतत्व और अकर्त,त्व गुण प्रत्येक द्रव्य के सम्पूर्ण भागों तथा सम्पूर्ण अवस्थानों में रहता है। प्रश्न (४६) गुण की विशेषता क्या है ? उत्तर-(१) गुण द्रव्य के प्राश्रय से रहते है। (२) गुण द्रव्य के विशेष हैं। (३) गुण स्वयं निविशेष हैं। (४) सर्वगुण द्रव्य के प्रदेशों में इकठ्ठ रहते हैं। (५) गुण कंथचित् परिणमनशील हैं। (६) गुण कथंचित् परिणमनशील नहीं है। प्रश्न ५०)--गुणों के जानने से क्या क्या लाभ है ? उत्तर-गुणों के द्वारा प्रत्येक वस्तु, भिन्न भिन्न हाथ पर रक्खी हुई की पावले तरह दृष्टि में आ जाती है। जिससे भेद Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) विज्ञान की प्राप्ति हो जाती है और अनादि से एक एक समय करके पर मे कर्तापने और भोक्तापने की बुद्धि का प्रभाव होकर धर्म की प्राप्ति हो जाती है। प्रश्न (५१)--एक द्रव्य में कितने गुण हैं ? उत्तर-प्रत्येक द्रव्य मे अनन्त अनन्त गुण हैं । प्रश्न (५२)-प्रत्येक द्रव्य में अनन्त अनन्त गुण हैं उसका कोई माप है ? उत्तर-(१) जीव द्रव्य अनन्त हैं। (२) जीव से अनन्तानन्त गुण अधिक पुद्गल द्रव्य हैं। (३) पुद्गल द्रव्य से अनन्तानन्त गुणा अधिक तीन काल के समय हैं। (४) तीन काल के समयों से अनन्त गुणा अधिक आकाश द्रव्य के प्रदेश है। (५) आकाश द्रव्य के प्रदेशों से अनन्त गुणा अधिक एक द्रव्य में गुण हैं। प्रश्न (५३)-गुणों को 'सहभू" क्यों कहते हैं ? उत्तर-गुण सब मिलकर साथ साथ रहते हैं। पर्यायों की तरह क्रम से नहीं होते हैं इसलिए भगवान ने गणों को "सहभू" कहा है। प्रश्न (५४)-भगवान उमास्वामी ने तत्वार्थ सूत्र में गुण का लक्षण क्या बताया है ? उत्तर-तत्त्वार्थ सूत्र के पांचवे अध्याय के ४१वें सूत्र में "द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः' अर्थात् जो द्रव्य के प्राश्रय Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६ ) से हो, और स्वय दूसरे गुणों से रहित हों, वह गण है ऐसा बताया है। प्रश्न (५५)-पर्याय भी द्रव्य के आश्रित रहती है और पर्याय में भी गण का लक्षण घटने से अतिव्याप्ति दोष आता है ? उत्तर-बिल्कुल नहीं पाता क्योंकि "द्रव्याश्रया" पद होने से अर्थात् जो नित्य द्रव्य के प्राश्रित रहता है उस गण की बात है पर्याय की नहीं। इसलिए 'द्रव्याश्रया' पद से पर्याय इसमें नही पाती क्योंकि पर्याय एक समयवती ही होती है इसलिये गुण के लक्षण में प्रतिव्यात्ति दोष नहीं आता। प्रश्न (५६)-गुण को समझने से क्या लाभ रहा ? उत्तर-(१) प्रत्येक गुण अपने अपने द्रव्य के आश्रित रहता है, (१) एक द्रव्य का गुण दूसरे द्रव्य का या गुण का कुछ नहीं कर सकता; (३) एक द्रव्य का गण दूसरे द्रव्य को या गुण को प्रेरणा, असर, मदद नहीं कर सकता है; (४) एक द्रव्य का गुण उसी द्रव्य के दूसरे गुण में भी कुछ नहीं कर सकता क्योंकि भाव अलग २ हैं। प्रश्न (५७)-ऐसा गुणों का स्वरुप समझने से क्या लाभ है ? उत्तर-मैं जीव द्रव्य हूं, और अपने अनन्तगुणों से भरपूर हैं। तीनों काल श्रीमंत हूँ, रंक नही हूँ, ऐसा जानकर अपने गुणों के पिण्ड भगवान में लीन होना यह गुणों का स्वरुप समझने से लाभ है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) प्रश्न (५८)-गुण को अन्वयी क्यों कहा ? उत्तर - (१) सब गुणों का अन्वय द्रव्य एक है सब मिलकर इकट्ठ रहते है। (२। सब अनेक होकर भी अपने को एक रुप से प्रगट कर देते है इसलिए गुण को अन्वयी कहा है। प्रश्न (५६)-गुण को 'अर्थ' क्यों कहा? उत्तर -- (१) गुण स्वतः मिद्ध परिणामी है। (२) उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त है, इसलिए गुण को 'अर्थ' कहा है। प्रश्न (६०-छह द्रव्यो में पाया जाता है उसे क्या कहते हैं ? उत्तर-- सामान्त गुण कहते है। प्रश्न (६१)-सामान्य गुण कितने है ? उत्तर--अनेक है परन्तु उनमे मुख्य छह है । प्रश्न (६२)--जबकि सामान्य गण अनेक है तो उनमें से छह को मुख्य क्यो कहा है ? उत्तर-यहाँ पर हमने मोक्षमार्ग की सिद्धि करनी है इसलिए जिनके जानने से मोक्षमार्ग की सिद्धि हो और जिनको जाने बिना मोक्षमार्ग की सिद्धि ना हो उन्हीं को यहाँ मुख्य किया है। प्रश्न (६३)--मुख्य छः सामान्त गुण कौन कौन से हैं ? उत्तर--(१) अस्तित्व गुण, (२) वस्तुत्वगुण, (३) द्रव्यत्व गुण (४) प्रमेयत्वगण, (५) अगुरुलघुत्व गुण (६) प्रदेशत्व गुण। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१११) प्रश्न । ६४)--अस्तित्व गुण किसे कहते हैं ? उत्तर जिस शक्ति के कारण द्रव्य का कभी नाश न होवे और कभो उत्पन्न भी ना हो उसे अस्तित्व गुण कहते है। प्रम्न (६५)-अस्तित्वगुण के थोड़े में क्या २ लाभ है ? उत्तर-(१) सव द्रव्य अनादिअनन्त हैं । (२) सब द्रव्य अजर अमर है। (३) सात प्रकार के भयों का अभाव हो जाता है। (४) ईश्वर उत्पन्न करता है ऐसी खोटी बुद्धि का अभाव हो जाता है। (५) ईश्वर रक्षा करता है-ऐसी खोटी बुद्धि का अभाव हो जाता है। (६) ईश्वर नाश करता है-ऐसी खोटी बुद्धि का अभाव हो जाता है। (७) कर्म उत्पन्न करता है - ऐसी खोटी बुद्धि का ___ अभाव हो जाता है। (८) कर्म रक्षा करता है -ऐसी खोटी बुद्धि का अभाव हो जाता है। (६) कर्म नाश करता है-ऐसी खोटी बुद्धि का अभाव हो जाता है। (१०) मैं दूसरो को अथवा दूसरे मुझे उत्पन्न करते हैं - ऐसी खोटी बुद्धि का अभाव हो जाता है । (११ मैं दूसरो की अथवा दूसरे मेरी रक्षा करते हैं ऐसी खोटी बुद्धि का अभाव हो जाता है। (१२) मैं दूसरों का अथवा दूसरे मेरा नाश करते हैं ऐसी खोटी बुद्धि का अभाव हो जाता है। (१३) उत्पाद व्यय ध्रौव्य की सिद्ध हो जाती है। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) (१४) नौ प्रकार के अस्तित्व से दृष्टि हटकर अपने अस्तित्व पर दृष्टि आ जाती है। यह लाभ अस्तित्व गुण को जानने से है विशेष खुलासा जैन सिद्धांत प्रवेश रत्नमाला प्रथम भाग से देखो। प्रश्न (६६)-वस्तुत्व गुण किसे कहते है ? उत्तर--जिस शक्ति के कारण से द्रव्य में अर्थ-क्रिया-कारित्व हो उसे वस्तुत्व गण कहते है। जैसे कि घड़े की अर्थ क्रिया जल धारण करना, आत्मा की अर्थ क्रिया जानना देखना आदि। प्रश्न (६७)-वस्तुत्व गुण के थोड़े में क्या क्या लाभ हैं ? उत्तर-(१) प्रत्येक द्रव्य अपना अपना प्रयोजनभूत कार्य करता ही रहता है। (२) प्रत्येक द्रव्य का गण अपना अपना प्रयोजनभूत कार्य करता ही रहता है कोई गुण निकम्मा नहीं है। (३) प्रत्येक द्रव्य, अपने अपने गुण पर्यायों में ही बसते हैं; (४) प्रत्येक द्रव्य सामान्य विशेष रुप प्रवर्तता है ; (५) पर में कर्ता-भोक्ता की खोटी बुद्धि का प्रभाव हो जाता है; (६) क्रमबद्ध पर्याय की सिद्धि हो जाती है ; (७) निमित्त से उपादान में कुछ होता है ऐसी खोटी बुद्धि का नाश हो जाता है; स्वतन्त्रता का पता चल जाता है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३) (८) मिथ्यात्व का अभाव होकर सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। (E) केवली के समान ज्ञाता-दृष्टापना प्रगट हो जाता है। (१०) सामान्य विशेष वस्तु है ऐसा जानकर अपने सामा न्य की प्रोर दृष्टि करे तो वस्तु में निर्मल पर्याय की प्राप्ति होकर क्रम से निर्वाण की प्राप्ति होती है । (११) दूसरे के सामान्य विशेष पर दृष्टि करे तो चारों गतियों में घूमकर निगोद की प्राप्ति होती है ; (१२) सामान्य-विशेष के १० प्रकार हैं ६ प्रकार के सामान्य विशेष से दृष्टि हटाकर अपने दसवें प्रकार के सामान्य विशेष स्वभाव पर दृष्टि देवे तो सम्पूर्ण दुख का प्रभाव हो जाता है यह लाभ वस्तुत्व गुण के जानने से हैं । वस्तुत्व गुण का विस्तार जैन सिद्धांत प्रवेश रत्नमाला प्रथम भाग में देखो। प्रश्न (६८)-द्रव्यत्व गुण किसको कहते हैं ? उत्तर-जिस शक्ति के कारण द्रव्य की अवस्था निरन्तर बदलती रहती है उसे द्रव्यत्व गुण कहते हैं। प्रश्न (६६)-द्रव्यत्व गुण के थोड़े में क्या क्या लाभ है ? उत्तर-(१) सब द्रव्यों की अवस्था का निरन्तर परिणमन उसका उसी में होता है दूसरे से नहीं होता है; (२) प्रत्येक द्रव्य में अनन्तगुण हैं । मुणों में भी निरन्तर परिणमन उस गुण की योग्यता के कारण ही . होता है; (३) मेरी कोई पर्याय किसी दूसरे जीवों से या मजीवों Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४) से हो जावे ऐसा नहीं है ; (४) दूसरे जीवों की या अजीवों की कोई भी पर्याय मेरे से हो जावे ऐसा नहीं है ; (५) पर्याय में जो विकास या न्यूनता होती है वह उसी __ के निरन्तर परिणमन के कारण है दूसरे का ज़रा , भी हस्तक्षेप नही है; (६) पर्याय हमेशा वह की वह, कभी भी, किसी की भी, नही होती है ; (७) ससार एक समय का है; (८) मोक्ष भी एक समय का है; (६) निमित्त-नैमित्तिक सम्बंध एक समय का है ; (१०) उपादान और निमित्त का सम्बंध भी एक समय __ का है। (११) द्रव्य को सर्वथा कूटस्थ मानने वाले झूठे है ; (१२) निरन्तर परिणमन' सदैव नवीन नवीन पर्याय को बतलाता है। द्रव्यत्व गुण का विस्तार जैन सिद्धांत प्रवेश रत्नमाला प्रथम मे देखो। प्रश्न (७०)--प्रमेयत्व गुण किसे कहते है ? उत्तर-जिस शक्ति के कारण से द्रन्य किसी न किसी ज्ञान का विषय हो उसे प्रमेयत्व गुण कहते हैं। प्रश्न (७१)-प्रमेयत्वगुण को जानने से थोड़े में क्या क्या लाभ हैं?' उत्तर-(१) पर पदार्थो में. शुभाशुभभावों में कर्ता-कर्म, भोक्ता भोग्य की खोटी बुद्धि का अभाव हो जाता है । (२) पर पदार्थो में, शुभाशुभभावों में ज्ञेय-ज्ञायक सम्बंध स्थापित हो जाता है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) संसार के जितने पदार्थ हैं वह मात्र ज्ञेय हैं और मेरी प्रात्मा ज्ञायक है ऐसा पता चल जाता है। (४) पर पदार्थो और शुभाशुभ भाव जो ज्ञेय हैं वह व्यवहार से हैं, वास्तव में तो आत्मा ज्ञायक और ज्ञानपर्याय ज्ञेय है। (५) प्रमेयत्व गुण को मानने से लौकिक में भी सब पापों और सप्तव्यसनों से छूट जाता है; (६) प्रमेयत्वगुण का रहस्य जानते ही चौथे गुणस्थान से लेकर सिद्ध दशा तक क्या करते हैं सब पता चल जाता है; (७) निगोद से लगाकर द्रव्यलिंगी मुनितक संसार में क्यो पागल है यह भी प्रेमयत्व गुण का रहस्य जानने से पता चल जाता है । (८) पर पदार्थो में, शुभाशुभ भावों में स्व-स्वामी ___ सम्बध का अभाव जाता है। ' (६) शरीर में रोग हो जावे, अधा हो जावे, हाथ कट जावे, चला ना जावे तो भी.प्रमेयत्व गण का रहस्य जानने से शान्ति की प्राप्ति होती है। (१०) धन चोरी हो जावें, मिल फेल हो जावे, देश पर बम पड़ने लगे, कोई गाली दे, लड़का भाग जावे, स्त्री प्राज्ञा में ना चले, स्त्री मर जावे, लड़का मर जावे तो भी प्रमेयत्व गुण का रहस्य जानने से आकुलता का अभाव हो जाता है; (१०) प्रमेयत्व गुण का रहस्य जानते ही चौथे गुण Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६ ) स्थान वाले का सिद्ध के साथ सम्बंध हो जाता है। (१२) तू ज्ञायक, तू ज्ञायक, तू ज्ञायक है यह पता चल जाता है। प्रमेयत्व गुण का विस्तार जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला प्रथम भाग में देखो। प्रश्न (७२)-अगुरुलघुत्व गुण किसे कहते हैं ? उत्तर-जिस शक्ति के कारण से द्रव्य में द्रव्यपना कायम रहता है अर्थात् (१) एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रुप नहीं होता है, (२) एक गुण दूसरे गुण रुप नहीं होता है; (३) द्रव्य में विद्यमान अनन्त गुण बिखर कर अलग नहीं हो जाते हैं- उस शक्ति को अगुरुलघुत्व गुण कहते हैं। प्रश्न (७३) अगुरुलघुत्व गुण को जानने के थोड़े में क्या २ लाभ हैं ? उत्तर-(१) एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से किसी भी प्रकार का सम्बंध नहीं है क्योंकि प्रत्येक द्रव्य का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव पृथक पृथक है; (२) एक द्रव्य में अनन्त गुण हैं एक गुण का दूसरे गुण के साथ सम्बंध नहीं है क्योंकि प्रत्येक गुण का "भाव” पृथक पृथक है; (३) प्रत्येक द्रव्य में अनन्त गुण हैं वह बिखरकर अलग अलग नहीं होते हैं क्योंकि द्रव्य और गुण का द्रव्य, क्षेत्र काल एक ही है; Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७) (४) प्रत्येक द्रव्य में गुण संख्या अपेक्षा समान हैं ; यह पता चल जाता है; (५) एक गुण की पर्याय का दूसरे गुण की पर्याय से सम्बंध नहीं है क्योंकि प्रत्येक गुण की पर्याय का कार्य पृथक पृथक है। (६) एक गुण की पर्याय का उसी गुण की भूत भविष्य पर्याय से सम्बध नहीं है क्योंकि भूत की पर्याय में वर्तमान पर्याय का प्रागभाव है और वर्तमान पर्याय का भविष्य की पर्याय में प्रध्वंसाभाव है। प्रश्न (७४)-अगुरुलघुत्व गुण का रहस्य जानने के लिए पांच बोल क्या क्या हैं ? उत्तर-(१) अनादिकाल से आज तक किसी भी पर द्रव्य ने मेरा भला बुरा किया ही नहीं। (२) अनादि काल से आजतक मैंने भी किसी पर द्रव्य का भला बुरा किया ही नहीं। अनादिकाल से प्राजतक नुकसानी का ही धंधा किया है यदि नुकसानी ना की होती तो आज संसार परिभ्रमण मिट गया होता, सो हुमा नहीं। (४) वह नुकसानी मात्र एक समय की पर्याय में ही है द्रव्य गुण में नहीं। (५) पर्याय की नुकसानी मिटानी हो और पर्याय में शान्तिलानी हो तो एक मात्र अपने गुणों के अभेद पिण्ड ज्ञायक भाव का प्राश्रय कर।। मगुरुलघुत्व गुण का विस्तार जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला प्रथम भाग में देखो। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११८) प्रश्न (७५) - प्रदेशत्व गुण किसे कहते है ? उत्तर - जिस शक्ति के कारण द्रव्य का कोई न कोई आकार अवश्य हो उसे प्रदेशत्व गुण कहते हैं । प्रश्न ( ७६ ) - प्रदेशत्व गुण को जानने से थोड़े में क्या क्या लाभ है ? उत्तर- (१) कोई भी वस्तु आकार के बिना नहीं होती है । (२) छोटा बडा प्रकार सुख दुख का कारण नही हैं। (३) निमित्त उपादान में नहीं घुस सकता क्योंकि दोनों का आकार पृथक पृथक है । (४) एक वस्तु का आकार दूसरी वस्तु मे नहीं घुस सकता है क्योंकि दोनों का स्वचतुष्टय भिन्न भिन्न है । (५) सिद्ध भगवान साकार निराकार दोनों हैं, उसी प्रकार प्रत्येक आत्मा साकार निराकार है ऐसा प्रदेशत्व गुण से पता चल जाता है । (६) दस प्रकार का आकार है उसमें से 8 प्रकार के आकार का आश्रय ले तो चारों गतियों में घूमकर निगोद में चला जाता है । अपने आकार का श्राश्रय ले तो धर्म की शुरुआत होकर क्रम से निर्वाण की प्राप्ति होती है । प्रदेशत्व गुण का विस्तार जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्न माला प्रथम भाग में देखो । प्रश्न ( ७७ ) - जीव द्रव्य के विशेष गुण कितने हैं ? उत्तर - जीव के विशेष गुण भी अनेक हैं परन्तु मुख्य ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख, क्रियावती शक्ति, वैभाविक शकि इत्यादि है । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११९) प्रश्न (७८) पुद्गल के विशेष गुण कितने हैं और कौन कौन उत्तर- पुद्गल के विशेष गुण भी अनेक हैं । परन्तु मुख्य स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, क्रियावती शक्ति, वैभाविक शक्ति इत्यादि हैं । प्रश्न (७६)-धर्म द्रव्य के विशेष गण कितने हैं, और कौन कौन उत्तर-धर्म द्रव्य के विशेष गुण भी अनेक हैं परन्तु मुख्य गति हेतुत्व इत्यादि हैं। प्रश्न (८०)-अधर्म द्रव्य के विशेष गुण कितने हैं और कौन कौन से हैं ? उत्तर-अधर्म द्रव्य के विशेष गुण भी अनेक हैं परन्तु मुख्य स्थितिहेतुत्व इत्यादि है। प्रश्न (८१)-पाकाश द्रव्य के विशेष गुण कितने हैं और कौन कौन से हैं ? उत्तर-आकाश द्रव्य के विशेष गुण भी अनेक हैं पर मुख्य अवगाहनहेतुत्व इत्यादि हैं ? प्रश्न (८२)--काल द्रव्य के विशेष गुण कितने हैं और कोन कौन से है ? उत्तर-काल द्रव्य के विशेष गुण भी अनेक हैं परन्तु मुख्य परिणमनहेतुत्व इत्यादि हैं। प्रश्न (८३)-विशेष गुणों में “इत्यादि" शब्द क्या सूचित करता है ? Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) उत्तर- "इत्यादि" शब्द और भी अनेक विशेष गुण हैं यह बताता है ? प्रश्न (८४)-प्रत्येक गुण के कार्य क्षेत्र की मर्यादा उसी के अन्दर है, उससे बाहर नहीं है इसे जरा खोलकर समझाइये? उत्तर-(१) ज्ञान गुण का कार्य ज्ञान गुण में ही होगा श्रद्धा चारित्र आदि में नहीं होगा; (२) श्रद्धागुण का कार्य श्रद्धा गुण में ही होगा ज्ञान चारित्रादि में नहीं होगा; (३) चारित्र गुण का कार्य चारित्र गण में ही होगा ज्ञान श्रद्धादि में नहीं होगा; पुद्गल में स्पर्श, रस गंध, स्पर्शादिक है परन्तु :(४) स्पर्श गुण का कार्य स्पर्शगुण में ही होगा रस गंधादि में नहीं। (५) रस गुण का कार्य रस गुण में ही होगा स्पर्श वर्णादि में नहीं होगा। (६) गतिहेतुत्व गुण का कार्य गतिहेतुत्व में ही होगा बाकी गुणों में नहीं । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक गुण का कार्य उससे बाहर नहीं होता है। प्रश्न (८५)-एक गुण का दूसरे गुण के कार्य से सम्बंध क्यों नहीं है ? उत्तर-प्रत्येक गुण का कार्य अलग अलग है अर्थात् भाव में अन्तर होने से सम्बंध नहीं है। प्रश्न (८६)-जब एक गुण की पर्याय का उसी गुण की भूत भविष्य की पर्याय से सम्बंध नहीं है तो एक द्रव्य का Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) दूसरे से सम्बंध का प्रश्न ही नहीं है तब लोग एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य का सम्बध क्यों मानते हैं ? उत्तर - चारों गतियों में घूमकर निगोद में जाना अच्छा लगता है इसलिए लोग एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य का सम्बंध मानते हैं । प्रश्न (८७) - एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य का कोई संबन्ध नहीं है क्या जिनेन्द्र भगवान ने कहीं कहा है ? उत्तर - समयसार गा० ८५ तथा ८६ में वह सर्वज्ञ के मत से बाहर है और द्विक्रियावादी कहा है । गुणों के जानने का फल प्रश्न ८८-छह द्रव्य और उनके क्या है । उत्तर - ( १ ) स्व पर का भेद विज्ञान इसका फल है । (२) कर्ता भोक्ता की बुद्धि का प्रभाव होकर धर्म की प्राप्ति इसका फल है । प्रश्न ( ८ ) - द्रव्य के सामान्य और विशेष गुणों पर से द्रव्य की परिभाषा बताओ ? उत्तर - सामान्य और विशेष गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं । प्रश्न ( ६० ) - मैं गुण स्वरूप हूँ, नौ पक्ष स्वरूप नहीं हूँ इसका फल क्या होगा ? उत्तर - मैं गुण स्वरुप हूँ ऐसा अनुभव ज्ञान श्राचरण क्रम से मोक्ष का कारण है और मौ पक्ष रुप मानने वाला क्रम से निगोद की प्राप्ति करता है । अनादि से अनन्त काल तक जिन जिनवर, और जिनवर वृषभों ने गुण का स्वरुप बताया है और बतायेंगे उन सबके चरणों में नमस्कार । , Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५ पर्याय प्रश्न (१)-पर्याय किसे कहते हैं ? उत्तर- गुणों के कार्य को (परिणमन को) पर्याय कहते हैं । प्रश्न (२)-दर्शनमोहनीय कर्म क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व हरा, इसमें गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं' कब माना और कब नहीं माना ? उत्तर-(१) श्रद्धा गुण में से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का अभाव होकर क्षायिक सम्यक्त्व हुआ, 'तो गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं; माना (२) दर्शनमोहनीय के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व हुआ. तो “गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं" नही माना। प्रश्न (३) क्षायिक सम्यक्त्व हुआ होने से दर्शन मोहनीय का क्षय हुआ इसमे “गुणों के कार्य को पर्याय कहते है" कब __ माना, और कब नही माना? उत्तर--(१) कार्माण वर्गणा में से दर्शनमोहनीय का क्षय हुआ, तो "गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं" माना। (२) क्षायिक सम्यक्त्व हुअा होने से दर्शन मोहनीय का क्षय हुआ, तो “गुणों के कार्य को पर्याय कहते है" नहीं माना। प्रश्न [४]-केवलज्ञानावर्णी कर्म के अभाव से केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, इसमें "गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं, कब माना, और कब नहीं माना ? Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३ ) उत्तर- (१) श्रात्मा के ज्ञान गुण में से भाव श्रुतज्ञान का अभाव करके केबलज्ञान की प्राप्ति हुई, तो "गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं" माना । (२) कवलज्ञानावर्णी कर्म के प्रभाव से केवलज्ञान हुआ तो, 'गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं " नहीं माना प्रश्न ( ५ ) - केवलज्ञान की प्राप्ति होने से केवलज्ञानावर्णी कर्म प्रभाव हुआ, इसमें 'गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं" कव माना, और कब नहीं माना ? का उत्तर- ( १ ) कार्माण वर्गणा में से केवलज्ञानावर्णी द्रव्यकर्म के क्षयोपशम का प्रभाव करके केवल ज्ञानावर्णी कर्म का प्रभाव हुआ, तो गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं" माना । (२) केवलज्ञान की प्राप्ति होने से केवल ज्ञानावर्णी कर्म का अभाव हुआ, तो "गुणों के कार्य को पर्याय कहते है" नही माना ! प्रश्न ( ६ ) - 'प्रांख से ज्ञान होता है' इसमें गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं ' कब माना ? और कब नहीं माना ? उत्तर - श्रात्मा के ज्ञान गुण में से ज्ञान आया, तो पर्याय को माना और आँख से ज्ञान हुआ, तो पर्याय को नहीं माना । प्रश्न ( ७ ) गुरु से ज्ञान होता है' 'इसमें गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं" कब माना, और कब नहीं माना ? उत्तर - (१) ज्ञान प्रात्मा के ज्ञान गुण में से प्राया तो पर्याय को माना और गुरु से ज्ञान हुआ तो पर्याय को नहीं माना Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) प्रश्न (८)-केवलज्ञान के कारण दिव्यध्वनि होती है' तो गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं; कब माना, और कब नहीं माना? उत्तर-भाषावर्गणा से दिव्यध्वनि होती है तो पर्याय को माना और केवल ज्ञान के कारण दिव्यध्वनि होती है तो पर्याय को नही माना। प्रश्न (8)-दिव्यध्वनि होने से केवल ज्ञान होता है इसमें गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं, कब माना, और कब नही माना? उत्तर--केवल ज्ञान आत्मा के ज्ञान गुण में से होता है तो पर्याय को माना और दिव्यध्वनि होने से केवल ज्ञान होता है तो पर्याय को नहीं माना। प्रश्न (१०) चारित्र मोहनीय द्रव्यकर्म के क्षय से यथाख्यात चारित्र होता है, इसमें ‘गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं', कब माना, और कग नहीं माना ? उत्तर-यथाख्यातचारित्र आत्मा के चारित्र गुण में से आता है तो पर्याय को माना और चारित्र मोहनीय द्रव्यकर्म के क्षय से यथाख्यातचारित्र होता है, तो पर्याय को नहीं माना। प्रश्न (१.)-यथाख्यात चारित्र होने के कारण चारित्रमोहनीय द्रव्यकर्म का क्षय हुआ, इसमें "गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं ? कब माना, और कब नहीं माना ? उत्तर-कार्माण वर्गणा में से चारित्र मोहनीय द्रव्यकर्म का क्षय हुआ तो पर्याय को माना और Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) यथाख्यात चारित्र होने के कारण चारित्र मोह नीय द्रव्यकर्म का क्षय हुआ तो पर्याय को नहीं माना प्रश्न (१२)-बाल बच्चों से सुख मिलता है, "गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं" कब माना, और कब नहीं माना ? उत्तर (१)सुख प्रात्मा के प्रानन्द गुण में से आता है तो पर्याय को माना । (२) बाल बच्चों से सुख मिलता है तो पर्याय को नही माना। प्रश्न (१३,-केवली श्रुत केवली के निकट होने से क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, इसमें गुणों के कार्य पर्याय कहते हैं, कब माना और कब नही माना ? उत्तर – (१) क्षायिक सम्यक्त्व प्रात्मा के श्रद्धा गुण में से प्राता है तो पर्याय को माना। (२) केवली, श्रुतके वली के निकट होने से क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, तो पर्याय को नहीं माना। प्रश्न (१४)-कुम्हार ने घड़ा बनाया, इसमे 'गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं, कब माना, और कब नहीं माना ? उत्तर-घड़ा मिट्टी से बना, तो पर्याय को माना और कुम्हार ने घड़ा बनाया, तो पर्याय को नहीं माना। प्रश्न (१५)-घड़ा बनने के कारण कुम्हार को राग माया, Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) इसमें 'गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं, कब माना और कब नहीं माना? उत्तर- राग चारित्र गुण मे से आया, तो पर्याय को माना और घड़ा बनने के कारण राग आया, तो पर्याय को __ नहीं माना। प्रश्न (१६।-बाई ने रोटी बनाई, 'इसमें गुणों के कार्य को पर्याय कहते है' कब माना, और कब नही माना ? उत्तर-(१) रोटी आटे से बनी तो पर्याय को माना। (२) बाई ने रोटी बनाई तो पर्याय को नहीं माना। प्रश्न (१७)-रोटी बनी तो बाई को राग पाया इममें गुणों के कार्य को पर्याय कहते है; कब माना और कब नहीं माना ? उत्तर - (१' राग चारित्र गुण में से प्राया तो पर्याय को माना। (२) रोटी बनी तो बाई कोराग आया, तो पर्याय को नहीं माना। प्रश्न (१८}-श्री कुन्द कुन्द भगवान ने समयसार बनाया, इसमें ‘गुणों के कार्य को पर्याय कहते है' कब माना, और कब नहीं माना। उत्तर-(१) समयसार शास्त्र आहारवर्गणा से बना, तो पर्याय को माना । (२) श्री कुन्दकुन्द भगवान ने समयसार बनाया, तो पर्याय को नहीं माना। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) प्रश्न (१६)-सीमधर भगवान से कुन्दकुन्द भगवान को विशेष ज्ञान की प्राप्ति हुई, इसमें पर्याय को कब माना, और कब महीं माना? उत्तर (१) कुन्दकुन्द भगवान को अपने ज्ञान में विशेष ज्ञान की प्राप्ति हुई तो पर्याय को माना। (२) सीमंधर भगवान से कुन्दकुन्द भगवान को विशेष ज्ञान की प्राप्ति हुई, तो पर्याय को नहीं माना। प्रश्न (२०)-सिनेमा देखकर ज्ञान हुआ, इसमें ‘गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं' कब माना, और कब नहीं माना ? उत्तर- ज्ञान गुण में से ज्ञान आया तो पर्याय को माना और सिनेमा में से ज्ञान प्राया, तो पर्याय को नहीं माना प्रश्न (२१)-घड़ी देखकर ज्ञान हुआ, इसमें 'गुणो के विशेष कार्य को पर्याय कहते हैं, कब माना और कब नहीं माना। उत्तर-ज्ञान गुण में से ज्ञान आया, तो पर्याय माना और घड़ी देखकर ज्ञान हुआ, तो पर्याय को नहीं माना।। प्रश्न (२२)-मैंने रुपया कमाया, इसमें ‘गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं', कब माना ? और कब नहीं माना ? उत्तर-(१) रुपया तिजोरी में प्राहार वर्गणा की क्रियावती शक्ति से आया तो पर्याय को माना। (२) मेरे कमाने से प्राया, तो पर्याय को नहीं माना। प्रश्न (२३)-मैंने मकान बनाया, 'इसमें गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं, कब माना और कब नहीं माना ? Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) उत्तर--(१) आहारवर्गणा से मकान बना. तो पर्याय को माना। मैंने मकान बनाया, तो पर्याय को नहीं माना। प्रश्न (२४)-मैं जोर शोर से बोलता हूँ इसमें 'गुणों के कार्य को पर्याय कहते है', कब माना और कब नहीं माना ? उत्तर-भाषा वर्गणा से शब्द आया, तो पर्याय को माना और ___ मेरे से शब्द आया, तो पर्याय को नहीं माना। प्रश्न (२५)-मैंने बन्दूक में से गोली चलाई, इसमें 'गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं, कब माना, और कब नहीं माना ? उत्तर-बन्दूक की गोली प्रहारवर्गणा की क्रियावती शक्ति से गई, तो पर्याय को माना और मैंने गोली बन्दूक से चलाई, तो पर्याय को नहीं माना । प्रश्न (२६)-मैंने रोटी खोई, इसमें 'गुणों के कार्य को पर्याय __ कहते हैं' कब माना, और कब नहीं माना ? उत्तर-१) रोटी खाई यह पाहोर वर्गणा का कार्य है तो पर्याय को माना। (२) मैंने रोटी खाई, तो पर्याय को नहीं माना। प्रश्न (२७)-मैंने बिस्तरा बिछाया, इसमें गुणों के कार्य को पर्याय कहते हैं. कब माना और कब नहीं माना ? । उत्तर- बिस्तरा आहारवर्गणा की क्रियावती शक्ति से Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) बिछा तो पर्याय को माना। (२) मैंने बिछाया तो पर्याय को नहीं माना। प्रश्न (२८)-६ से लेकर २७ तक वाक्यों में त्रिकाली से कार्य हुआ, पर से नहीं, ऐसा जानने से क्या लाभ हुना ? उत्तर - अज्ञानी जीव अनादि से एक एक समय करके पर से व निमित्त से कार्य हमा-ऐसी मान्यता से निमित्त मिलाने में पागल हो रहा था। जब उसे पता चला, त्रिकाली में से कार्य होता है तो पर में से कर्ता-भोक्ता बुद्धि का अभाव होकर धर्म की प्राप्ति हो जाती है। प्रश्न (२६)-पर्याय का सच्चा ज्ञान किसे होता है, और किसको नहीं ? उत्तर-पर्याय का सच्चा ज्ञान चौथे गुणस्थान से लेकर सिद्ध दशा तक वाले जीवों को ही होता है, मिथ्यादृष्टियों को पर्याय का सच्चा ज्ञान नहीं होता है। प्रश्न (३०)-द्रव्यलिंगी मुनि ने ११ अंग : पूर्व का ज्ञान किया तो क्या द्रव्यलिंगी मुनि को पर्याय का सच्चा ज्ञान महीं था? उत्तर-द्रव्यलिंगी का ११ प्रग ६ पूर्व का ज्ञान जो है वह मिथ्या ज्ञान है वह ज्ञान नहीं है। इसलिए द्रव्यलिंगी मुनि को पर्याय का सच्चा ज्ञान नहीं है क्योंकि सम्यग्दर्शन हुआ बिना पर्याय का सच्चा ज्ञान नहीं हो सकता है। प्रश्न (३१)-अपना ज्ञान हुवे बिना शास्त्र का ज्ञान मिथ्याज्ञान है, कार्यकारी नहीं है, ऐसा कहीं योगसार में पाया है ? Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) उत्तर-योगसार गा. ५३, में पाया है कि "शास्त्र पाठी भी मूर्ख है, जो निजतत्व अजान । यह कारण जीव ये पावे नहि निर्वाण ॥५३॥ यही बात समयसार गा० २७४ तथा ३१७ में बताई है। प्रश्न (३२)-पर्याय के कितने भेद है ? उत्तर-दो हैं-(१) व्यंजन पर्याय ( २) अर्थ पर्याय। प्रश्न (३३।-व्यंजन पर्याय किसे कहते हैं ? उत्तर-द्रव्य के प्रदेशत्व गुण के कार्य को व्यंजन पर्याय कहते हैं। प्रश्न (३४)-अर्थपर्याय किसे कहते हैं ? उत्तर-प्रदेशत्व गुण के अतिरिक्त शेष सम्पूर्ण गुणों के विशेष __ कार्यों को अर्थ पर्याय कहते है। प्रश्न (३५)- व्यंजन पर्याय के कितने भेद है ? उत्तर-दो हैं (१) स्वभावव्यंजन पर्याय, (२) विभाव व्यंजन पर्याय प्रश्न (३६)-- स्वभावव्यांजन पर्याय किसे कहते हैं ? उत्तर --पर निमित्त के सम्बंध रहित द्रव्य का जो साकार हो उसे स्वभावव्यंजन पर्याय कहते हैं। जैसे सिद्ध पर्याय का प्राकार। प्रश्न (३७) विभावव्यंजन पर्याय किसे कहते हैं ? उत्तर-पर निमित्त के सम्बंध से द्रव्य का जो भाकार हो Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१) उसे विभावव्यंजन पर्याय कहते हैं। जैसे जीव की नर नारकादि पर्यायें। प्रश्न (३८)-अर्थपर्याय के कितने भेद हैं ? उत्तर-दो हैं १) स्वभावमर्थपर्याय (२) विभावअर्थ पर्याय ! प्रश्न (३६)-स्वभावअर्थ पर्याय किसे कहते हैं ? उत्तर-पर निमित्त के सम्बंध रहित, प्रदेशत्व गुण को छोड़ कर बाकी गुणों की जो पर्यायें होती है, उसे स्वभावअर्थपर्याय कहते हैं। जैसे जीव के ज्ञान गुण की केवलज्ञान पर्याय । प्रश्न (४०)-विभावअर्थपर्याय किसे कहते हैं ? उत्तर-पर निमित्त के सम्बंध वाली प्रदेशत्व गुण को छोड़कर बाकी गुणों की जो पर्यायें होती हैं, उसे विभावअर्थ पर्याय कहते है । जैसे जीव के चारित्रगुण की रागद्वेषादि । प्रश्न (४१)-जीव और पुद्गल में कौन कौन सी पर्याय हो __सकती हैं ? उत्तर--चारों प्रकार की पर्यायें जीव और पुद्गल में हो सकती है । (१) स्वभावअर्थ पर्याय, (२) विभाव अर्थ पर्याय, (३) स्वभावव्यजन पर्याय, (४) विभाव व्यंजन पर्याय। प्रश्न (४२)-धर्म, अधर्म, प्राकाश और काल द्रव्यों में कोन कौन सी पर्यायें होती है ? उत्तर-इन चार द्रव्यों में मात्र स्वभावअर्थ पर्याय और Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२) स्वभावव्यंजन पर्यायें ही होती हैं, विभाव पर्यायें कभीभी नही होती है । प्रश्न (४३) - निगोद से लगाकर चारों गतियों के मिथ्यादृष्टि जीवो में कौन कौन सी पर्यायें होती है ? उत्तर - विभावर्थ पर्याय और विभावव्यंजन पर्यायें ही होती हैं स्वभाव पर्याय नहीं होती हैं । प्रश्न (४४) - सिद्ध भगवान में कौन कौन सी पर्यायें होतीं है ? उत्तर - स्वभावव्य ंजन पर्याय और स्वभाव अर्थ पर्यायें ही होती हैं विभाव पर्याय नही होती है। I प्रश्न ( ४५ ) - चोथे गुणस्थान से लेकर १४वें गुणस्थान तक कौन कौन सी पर्यायें होती है ? उत्तर- ( १ ) विभावव्यंजन पर्याय ( २ ) स्वभावअर्थ पर्याये (३) विभावर्थ पर्यायें - इस प्रकार तीन प्रकार की पर्यायें होती हैं । प्रश्न ( ४६ ) - चौथे गुण स्थान से लेकर १४वें गुणस्थान तक तीनों पर्याय एक सी होती है या कुछ अन्तर है । उत्तर - चौथे गुणस्थान से लेकर १४वे गुणस्थान तक प्रदेशत्व गुण का विभाव रुप परिणमन है ही । परन्तु बाकी गुणों में जितनी २ शुद्धि है वह स्वभाव अर्थ पर्यायें हैं जितनी उसमें प्रशुद्धि हैं वह विभावअर्थ पर्यायें हैं । प्रश्न ( ४७ ) - संसार दशा में चौथे गुणस्थान से १४ वें तक विभावव्यंजन पर्याय ही है परन्तु प्रर्थपर्याय की शुद्धि और शुद्धि को स्पष्ट समाम्रो ? Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) उत्तर-(१) चौथे गुणस्थान में श्रद्धा गुण की स्वभावअर्थ पर्याय पूर्ण प्रगट हो जाती है तथा बाकी गुणों में जितनी जितनी शुद्धि है वह स्वभावअर्थ पर्याय है जितनी जितनी अशुद्धि है वह विभावप्रर्थ पर्यायें हैं। (२)-बारहवें गुण स्थान में चारित्र गुण की पूर्ण स्वभाव अर्थ पर्याय प्रगट हो जाती है । ज्ञान, दर्शन, वीर्यआदि गुणों मे जितनी कमी है, वह विभाव अर्थ पर्याय है और जितनी शुद्धि हैं वह स्वभावअर्थ पर्यायें हैं। (३) १३ वें गुणस्थान में ज्ञान दर्शन वीर्य की पूर्ण स्व भावप्रर्थ पर्याय प्रगट हो जाती है योग गुण आदि मे विभाव अर्थ पर्यायें हैं। (२) १४ वें गुणस्थान में योग गुण की स्वभावअर्थपर्याय पूर्ण प्रगट हो जाती है अभी वैभाविक गुण क्रियावती शक्ति, अव्याबाध, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व, सूक्ष्म त्व आदि गुणों की विभावअर्थ पर्यायें होती हैं । (५) १४ वें गुणस्थान के अन्त में वैभाविक गुण, क्रिया वती शक्ति, अव्याबाध, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व, सूक्ष्मत्व आदि गुणों की परिपूर्ण स्वभावअर्थ पर्यायें प्रगट हो जाती हैं। प्रश्न (४८)-शास्त्रों में माता है कि मिथ्यादृष्टि के भी अस्ति त्वादि गुणों की शुद्ध पर्यायें होती है तब आपने मिथ्यादृष्टि को स्वभाव पर्यायें क्यों नही बतलाई, ऐसा क्यों ? उत्तर-जैसे किसी के घर में खजाना दबा पड़ा है, परन्तु Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) उसे मालूम नहीं है तो कहा जाता है उसके पास खजाना नहीं है; उसी प्रकार मिध्यादृष्टि की अस्तित्वादि गुणों की शुद्ध पर्यायें होने पर भी उसे अपने आप का पता ना होने से स्वभावार्थ पर्यायें नही कही जाती हैं । प्रश्न ( ४६ ) - परमाणु में कौन कौन सी पर्यायें होती हैं ? - परमाणु स्वभाव उत्तर - में मात्र स्वभावव्यंजन पर्याय और पर्यायें ही होती है विभाव नही होती है । प्रश्न ( ५० ) - स्कंध में कौन कौन सी पर्यायें होती हैं ? उत्तर - विभावव्यंजन पर्याय और विभावअर्थ पर्यायें ही होती हैं। प्रश्न ( ५१ ) - जैसे आत्मा में चौथे गुणस्थान से १४ वे गुणस्थान तक स्वभावप्रर्थ पर्यायें और विभावप्रर्थ पर्यायें होती है; उसी प्रकार स्कंध में इस प्रकार होता है या नहीं ? उत्तर - नहीं होता है, स्कधों में चाहे, दो परमाणु का स्कंध हो या करोड़ों परमाणु का स्कंध हो उसमें दोनों विभाव पर्याय ही होती है स्वभाव पर्याय नहीं होती है । प्रश्न (५२) - द्रयलिंगी मुनि की कौन कौन सी पर्यायें होती हैं ? उत्तर- विभावव्यंजन पर्याय और विभावर्थ पर्यायें ही होती है । प्रश्न (५३)-- प्रत्येक द्रव्य में व्यंजन पर्याय कितनी होती हैं ? उत्तर - एक द्रव्थ में एक ही व्यंजन पर्याय होती है क्योंकि प्रत्येक द्रव्य में एक एक ही प्रदेशत्व गुण होता है और प्रदेशत्व गुण के परिणमन को व्यंजन पर्याय कहते हैं । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५) प्रश्न (५४)--प्रत्येक द्रव्य में अर्थपर्यायें कितनी होती हैं। उत्तर--प्रत्येक द्रव्य में अर्थ पर्यायें अनन्त होती हैं क्योंकि प्रदेशत्व गुण को छोड़कर वाकी गुणों के परिणमन को अर्थपर्याय कहते हैं। प्रश्न (५५)--एक प्रात्मा में व्यंजनपर्याय कितनी हैं ? उत्तर-एक ही है क्योंकि एक आत्मा में एक प्रदेशत्व गुण हैं और प्रदेशत्वगुण के परिणमन को व्यांजन पर्याय कहते हैं। प्रश्न (५६,--एक प्रात्मा में अर्थपर्यायें कितनी होती हैं ? उत्तर- एक प्रात्मा में अनन्त गुण हैं उनमें एक प्रदेशत्व गुण को छोड़कर बाकी जितने गुण हैं उतनी अर्थ पर्यायें एक आत्मा में होती है क्योंकि प्रदेशत्व गुण को छोड़कर बाकी गुणों के परिणमन को अर्थपर्यायें कहते हैं। प्रश्न (५७)-एक क्षेत्रावगाही प्रौदारिक शरीर में व्यंजनपर्यायें कितनी हैं। उत्तर-जितने परमाणु हैं, उतनी ही व्यंजनपर्यायें है, क्योंकि एक परमाणु में एक व्यंजन पर्याय होती है। प्रश्न (५८)--जीव द्रव्य में विभावव्यंजन पर्याय कहाँ तक होती उत्तर-पहले गुणस्थान से लेकर १४ वें गुणस्थान तक विभाव व्यजन पर्याय होती हैं अर्थात् मात्र सिद्ध भगवान को Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) छोड़कर सब जीवों में विभावव्यंजन पर्यायें होती है स्वभावव्यंजन पर्याय नहीं होती है। प्रश्न (५६ }--सादिअनन्त स्वभावव्यंजन पर्याय किसमें होती है ? उत्तर - सिद्ध भगवान में ही होती है औरो में नहीं होती है। प्रश्न (६०)-सादिसान्त स्वभावव्यंजन पर्याय किसमें होसकती है ? उत्तर-पुद्गल परमाणु में हो सकती है। प्रश्न (६१ --अनादिअनन्त स्वभावव्यजन पर्याय किसमें होती है ? उत्तर-धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य में होती है । प्रश्न (६२)--स्वभावव्यंजन पर्याय में अन्तर हो और स्वभाव अर्थ पर्याय में समानता हो, क्या किसी द्रव्य में ऐसा होता है ? उत्तर-सिद्ध दशा में स्वभावव्यंजन पर्याय में अन्तर है और सब स्वभावअर्थ पर्यायों में समानता है। प्रश्न (६३)- सभी सिद्धों में स्वभावव्यंजन पर्याय में अन्तर क्यों है ? उत्तर-किसी आत्मा का आकार सात हाथ का, किसी का ५०० धनुष का होता है इसलिए सभी सिद्धों में स्वभाव व्यांजन पर्याय में अन्तर है। प्रश्न (६४)-स्वभावव्यंजन पर्याय में समानता हो और स्वभाव अर्थ पर्यायों में अन्तर हो, क्या ऐसा किसी द्रव्य में Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७) होता है ? उत्तर-परमाणुषों में स्वभावव्यंजन पर्याय में समानता होती है और स्वभावअर्थ पर्यायों में अन्तर होता है। प्रश्न (६५)--सब अर्थपर्याय शुद्ध हो फिर व्यंजन पर्याय शुद्ध हो, ऐसा किन-किन द्रव्यों में होता है ? उत्तर - मात्र जीव द्रव्य में होता है औरों में नहीं होता है। प्रश्न (६६)--सादिसाँत स्वभावव्यंजन पर्याय और स्वभाव अर्थ पर्याय किस द्रव्य में एक साथ होती है ? उत्तर-पुद्गल परमाणु में ही होती है। प्रश्न (६७)--अनादिअनन्त स्वभावव्यंजन पर्याय और स्वभाव अर्थ पर्याय एक साथ किस किस द्रव्य में होती है ? उत्तर- धर्म, अधर्म, आकाश और काल में अनादिमनन्त दोनों स्वभाव पर्याये ही होती है। प्रश्न (६८)-केवल ज्ञान क्या है ? उत्तर - जीव द्रव्य के ज्ञान गुण की स्वभाव अर्थ पर्याय है। प्रश्न (६९)--मिथ्यात्व क्या है ? उत्तर-जीव द्रव्य के श्रद्धा गुण की विभावअर्थ पर्याय है। प्रश्न (७०)--यथाख्यात चारित्र क्या है ? उत्तर-जीव द्रव्य के चारित्र गुण की स्वभावअर्थ पर्याय है। प्रश्न (७१)--कम्पन क्या है ? उत्तर-जीव द्रव्य के योग गुण की विभावमर्थ पर्याय है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३८ ) प्रश्न ( ७२ ) - - मन:पर्यय ज्ञान क्या है ? उत्तर - जीव पर्याय है । द्रव्य के ज्ञान गुण की एकदेश स्वभावप्रथ प्रश्न (७३) - चीनी क्या है ? उत्तर - पुद्गल द्रव्य के रस गुण की विभाव अर्थ पर्याय है । ? प्रश्न ( ७४ ] -- भगवान की प्रतिमा क्या है उत्तर - आहार वर्गणा के प्रदेशत्व गुण की विभावव्यंजन पर्याय है । प्रश्न (७५) गोल नींबू क्या है ? उत्तर - श्राहारवर्गणा के प्रदेशत्व गुण की विभावव्यजन पर्याय है । प्रश्न [ ७६ ] - खट्टा नींबू क्या है ? उत्तर - प्रहारवर्गणा के रस गुण की विभावश्रथ पर्याय है । प्रश्न (199) - अधेरा क्या है ? उत्तर - - आहारवर्गणा के वर्ण गुण की विभावर्थ पर्याय है । प्रश्न ( ७८ ) -- उजाला क्या है ? उत्तर आहारवर्गणा के वर्ण गुण की विभावअर्थ पर्याय है । प्रश्न ( ७६ ) - बरफ क्या है ? उत्तर-ग्रहारवर्गणा के स्पर्श गुण की विभावमर्थ पर्याय है । प्रश्न (५०) -- बादलों का रंग बदलना क्या है ? उत्तर -- प्रहार वर्गणा के वर्ण गुण की विभावधर्थ पर्याय है । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६) प्रश्न (८१)--सम्यग्ज्ञान क्या है ? उत्तर--प्रात्मा के ज्ञान गुण की स्वभावअर्थ पर्याय है। प्रश्न (८२)--ौपशमिक सम्यक्त्व क्या है ? उत्तर-प्रात्मा के श्रद्धा गुण की स्वभावप्रथं पर्याय है। प्रश्न (८३)--सिद्ध दशा क्या है ? उत्तर-प्रात्मा के सम्पूर्ण गुणों की स्वभावअर्थ पर्याय और स्वभावव्यजन पर्याय है। प्रश्न (८४)-पूजा का भाव क्या है ? उत्तर- प्रात्मा के चारित्र गुण की विभावअर्थ पर्याय है। प्रश्न (८५)-पूजा की क्रिया क्या है ? उत्तर--प्राहार वर्गणा के क्रियावती शक्ति की विभावअर्थ पर्याय है। प्रश्न (८६)-लोटा क्या है ? उत्तर- प्राहारवर्गणा के प्रदेशत्व गुण की विभावव्यंजन पर्याय है प्रश्न (८७)-केवलदर्शन क्या है ? उत्तर-जीव द्रव्य के दर्शन गुण की स्वभावअर्थ पर्याय है। प्रश्न (८८)--बदबू क्या है ? उत्तर-पुद्गल द्रव्य के गंध गुण की विभावप्रथं पर्याय है। प्रश्न (८६)-खूशबू क्या है ? उत्तर-पुद्गल द्रव्य के गंध गुण की विभावप्रर्थ पर्याय है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) प्रश्न ( ६० ) - गोल रसगुल्ला क्या है ? उत्तर--प्राहार वर्गणा के प्रदेशत्व गुण की विभावव्यंजन पर्याय है प्रश्न ( ६१ ) - मीठा रसगुल्ला क्या है ? उत्तर - श्राहार वर्गणा के रस गुण की विभावअर्थ पर्याय है । प्रश्न ( १२ ) - भावश्रुतज्ञान क्या है ? उत्तर - जीव द्रव्य के ज्ञान गुण की स्वभाव अर्थ पर्याय है । प्रश्न ( ६३ ) - बुखार क्या है ? उत्तर - प्रहारवर्गणा के स्पर्श गुण की विभावर्थ पर्याय है । प्रश्न ( ६४ ) - भारी क्या है ? उत्तर - - श्राहारवर्गणा के स्पर्श गुण की विभावर्थ पर्याय है । प्रश्न ( ५ ) - यथाख्यात चारित्र क्या है ? उत्तर - जीव के चारित्र गुण की स्वभावप्रर्थ पर्याय है । प्रश्न ( ६ ) - सकल चारित्र क्या है ? उत्तर - जीव द्रव्य के चारित्र गुण की स्वभावअर्थ पर्याय है । प्रश्न ( ६७ ) - देश चारित्र क्या है ? उत्तर - जीव द्रव्य के चारित्र गुण की एकदेश स्वभाव अर्थ पर्याय है । प्रश्न ( ६८ ) - अनन्तानुबंधी के प्रभाव रुप स्वरुपाचरण चारित्र क्या है ? उत्तर - जीव द्रव्य के चारित्र गुण की एकदेश स्वभाव अर्थ पर्याय है । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) प्रश्न (ER)-रोटी क्या है ? उत्तर आहारवर्गणा के प्रदेशत्वगुण की विभावव्यंजन पर्याय है। प्रश्न (१००)-बेलन क्या है ? उत्तर प्राहार वर्गणा के प्रदेशत्वगुण की विभावव्यंजन पर्याय है। प्रश्न (१०१)-कड़ वा क्या है ? उत्तर-पुद्गल द्रव्य के रसगुण की विभाव अर्थ पर्याय है। प्रश्न (१०२)-स्वाटर क्या है ? उत्तर–पाहार वर्गणा के प्रदेशत्व गुण की विभाव व्यंजन पर्याय है। प्रश्न (१०३)-बकसा क्या है ? उत्तर-आहार वर्गणा के प्रदेशत्व गुण की विभावव्यंजन पर्याय है प्रश्न (१०४)-घड़ा क्या है ? उत्तर-माहार वर्गणा के प्रदेशत्व गुण की विभावव्यंजन पर्याय है। प्रश्न (१०५)-चश्मा क्या है ? उत्तर - आहार वर्गणा के प्रदेशत्व गुण की विभावव्यंजन पर्याय है। प्रश्न (१.६)-पर्याय की दूसरी परिभाषा क्या है ? उत्तर-परि=समस्त प्रकार से। आय-लाभ, अर्थात् अपने में ही Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) समस्त प्रकार से लाभ मानना, यह पर्याय की दूसरी परिभाषा है प्रश्न ( १०७ ) - पर्यय' किसे कहते हैं ? उत्तर - परि= समस्त प्रकार से । ऐय = परिणमन, अर्थात् समस्त प्रकार से अपने में परिणमन, इसे 'पर्याय' कहते है । प्रश्न ( १०८ ) -- परिणमन किसे कहते हैं ? उत्तर—परि=समस्त प्रकार से । णमन = भुक जाना अर्थात् समस्त प्रकार से अपने में झुक जाना, इसे परिणमन कहते है । प्रश्न ! १०६ ) - 'अवस्था' किसे कहते हैं ? उत्तर - प्रव= निश्चय । स्था = स्थिति करना, अर्थात् अपने में ही निश्चय से स्थिति करना, ठहरना, उसे 'अवस्था' कहते हैं । प्रश्न ( ११० ) -- प्रखण्ड द्रव्य में अंश कल्पना करने को क्या कहते हैं ? उत्तर - पर्याय कहते हैं । प्रश्न (१११) --पर्याय के पर्यायवाची शब्द क्या क्या हैं ? उत्तर - प्रश कहो, भाग कहो, प्रकार कहो, भेद कहो, छेद कहो, उत्पाद व्यय कहो, क्रमवर्ती कहो, व्यतिरेकी कहो, नित्य कहो, विशेष कहो, अनवस्थित कहो प्रादि पर्याय के नामान्तर हैं । प्रश्न ( ११२ ) -- व्यतिरेकी' किसे कहते हैं ? उत्तर - भिन्न भिन्न को व्यतिरेकी कहते हैं । प्रश्न ( ११३ ) - व्यतिरेक कितने प्रकार का है ? Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३) उत्तर-चार प्रकार का है। (१) देश व्यतिरेक, (२) क्षेत्र व्यतिरेक, (३) काल व्यति रेक, (४) भाव व्यतिरेक । प्रश्न (११४)--देश व्यतिरेक किसे कहते हैं ? उत्तर-गुण पर्याय के पिण्ड के भेद को, ‘देश व्यतिरेक' कहते हैं। प्रश्न (११५)--क्षेत्र व्यतिरेक किसे कहते हैं ? उत्तर-एक एक प्रदेश क्षेत्र का भिन्नपने के भेद को 'क्षेत्र __ व्यतिरेक' कहते हैं। प्रश्न (११६)--काल व्यतिरेक किसे कहते हैं ? उत्तर-पर्याय के भिन्नत्व के भेद को 'काल 'व्यतिरेक' कहते हैं प्रश्न (११७)--भाव व्यतिरेक किसे कहते हैं ? उत्तर-गुण के भिन्नत्व के भेद को, ‘भाव व्यतिरेक कहते हैं। प्रश्न (११८)-'क्रमवर्ती' किसे कहते हैं ? उत्तर एक, फिर दूसरी, फिर तीसरी. फिर चौथी, फिर पाँचवी इस प्रकार प्रवाह क्रम से जो वर्तन करे उसे क्रमवती कहते हैं। प्रश्न (११६)-पर्याय को 'उत्पाद-व्यय' क्यों कहते हैं ? उत्तर-पर्याय, सदा उत्पन्न होती है और विनष्ट होती है इसलिए पर्याय को उत्पाद-व्यय कहा है। कोई भी पर्याय गुण की भांति सदैव नहीं रहती है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) प्रश्न (१२०)-उत्पाद किसे कहते हैं ? उत्तर-द्रव्य में नवीन पर्याय की उत्पत्ति को उत्पाद कहते हैं। प्रश्न (१२१)-व्यय किसे कहते हैं ? उत्तर-- पूर्व पर्याय के नाश को व्यय कहते हैं । प्रश्न (१२२)-ध्रौव्य किसे कहते हैं ? उत्तर-उत्पाद और व्यय में द्रव्य की सद्रशता रुप स्थायी रहने को ध्रौव्य कहते हैं। प्रश्न (१२३)-पर्याय किसमें से उत्पन्न होती है ? उत्तर-द्रव्य तथा गुणों से पर्याय उत्पन्न होती है। प्रश्न (१२४)-पर्याय तो अनित्य है। पर्याय सत् है या असत् ? उत्तर- पर्याय एक समय पर्यन्त का सत् है और द्रव्य गुण त्रिकाल सत् है इसलिए द्रव्य गुण और पर्याय तीनों सत् हैं। प्रश्न (१२५;-गुण अंश है या अशी? उत्तर - (१) द्रव्य की अपेक्षा से गुण उस द्रव्य का अंश है। (२) पर्याय की अपेक्षा से गुण अशी है। प्रश्न (१२६)-पर्याय किसका अंश है ? उत्तर--(१) पर्याय गुण का एक समय पर्यन्त का अंश है। (२) पर्याय द्रव्य का भी एक समय पर्यन्त का अंश है। प्रश्न (१२७)-अंश अंशी को थोड़े में समझाइये? उत्तर-(१) जब द्रव्य को अंशी कहा, तो गुण को अंश कहा Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४५) (२) जब गुण को अशी कहा तो, पर्याम को मंश कहा। प्रश्न (१२८)--पांच अजीव द्रव्य हैं वह जानते नहीं है,तो वे (अजीव) किसी के आधार के बिना कैसे व्यवस्थित रह सकते हैं ? उत्तर-(१) पांचों अजीव द्रव्य अस्तित्वादि सामान्यगुण मौर अपने अपने विशेषगुण सहित हैं। (२) पांचों अजीव द्रव्यों में सत्पना लक्षण होने से उत्पाद व्ययध्रौव्ययुक्त हैं। उन्हें किसी आधार की आवश्यकता नहीं है क्योंकि अनादिनिधन वस्तु जुदी जुदी अपनी मर्यादा लिए स्वयं परिणमती है किसी की परिणमाई परिणमती नहीं हैं क्योंकि स्वयं कायम रहकर बदलना प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है। प्रश्न (१२६)-पर्यायें किससे होती हैं ? उत्तर-द्रव्य और गुणों से होती हैं । प्रश्न (१३.)-द्रव्य और गुणों से पर्याय होती हैं तो इस अपेक्षा पर्याय के कितने भेद हैं ? उत्तर-दो हैं (१) द्रव्य पर्याय, (२) गुणपर्याय । प्रश्न (१३१ -द्रव्य पर्याय किसे कहते हैं ? उत्तर-अनेक द्रव्यों में एकपने का ज्ञान वह द्रव्य पर्याय है। प्रश्न (१३२ -गुण पर्याय किसे कहते हैं ? • उत्तर-गुण द्वारा पर्याय में अनेकपने की प्रतिपत्ति बह गुण पर्याय है। प्रश्न (१३३) --द्रव्य पर्याय के कितने भेद हैं ? .. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर-दो भेद हैं-(१) समानजातीय द्रव्य पर्याय (२) अस मानजातीय द्रव्य पर्याय । प्रश्न (१३४)-गुण पर्याय के कितने भेद हैं ? उत्तर-(१) स्वभावपर्याय (२) विभावपर्याय यह दो भेद हैं प्रश्न (१३५)--समानजातीम द्रव्य पर्याय किसे कहते हैं ? उत्तर-एक जाति के अनेक द्रव्यों में एकपने का ज्ञान वह समान जातीय द्रव्य पर्याय है, जैसे द्विअणुक, त्रिअणुक प्रादि स्कंध । प्रश्न (१३६)--असमानजातीय द्रव्य पर्याय किसे कहते हैं ? उत्तर-अनेक जाति के द्रव्यों में एकपने का ज्ञान वह असमान जातीय द्रव्य पर्याय है जैसे मनुष्य, देव आदि । प्रश्न (१३७)--स्वभावपर्याय किसे कहते है ? उत्तर-गुण की जो शुद्ध पर्याय होती है उसे स्वभावपर्याय कहते हैं जैसे केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व आदि। प्रश्न (१३८)-विभावपर्याय किसे कहते हैं ? उत्तर-गुण द्वारा जिस पर्याय में स्वपर हेतु हो वह विभाव पर्याय है जैसे मतिज्ञान प्रादि पर्याय । प्रश्न (१३६)-समान जातीय द्रव्य पर्याय के कुछ नाम बतायो ? उत्तर-(१) बिस्तरा (२) कम्बल (३) रोटी (४) हलवा (५) मेज, (६) किताब (७) कुसी (८) कमीज (६) टोपी (१०) तसवीर (११) थाली (१२) लोटा प्रादि समानजातीय द्रव्य पर्यायें कही जाती हैं, क्योंकि पुद्गल Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) द्रव्यों से बनी हुई हैं। प्रश्न (१४०)--असमानजातीय द्रव्य पर्याय के कुछ नाम बतायो ? उत्तर -(१) अरहंत भगवान (२) देव (३। मनुष्य (४) तिर्यच (५) नारकी, (६) कुत्ता (७) चूहा (८) चिटी, (६) पृथ्वी कायिक (१०) जल कायिक (११) स्त्री (१२) लड़का उन्हें असमाम जातीय द्रव्यपर्याय कहते हैं, क्योकि अनेक जाति के द्रव्यों मे एकपने का ज्ञान होता है इसलिए इसे असमानजातीय द्रव्य पर्याय कहते हैं। प्रश्न (१४१)-समानजातीय द्रव्य पर्याय का सच्चा ज्ञान किसको होता है, और किसको महीं ? उत्तर - ज्ञानियों को ही होता है प्रज्ञानियो को नही। प्रश्न (१४२)-समान जातीय द्रव्य पर्याय और असमान जातीय द्रव्य पर्याय का सच्चा ज्ञान ज्ञानियों को क्यों होता है ? उत्तर-(१) समानजातीय द्रव्यपर्याय में ज्ञानी जानते है कि एक एक परमाणु अपनी अपनी एक व्यंजन पर्याय और बाकी गुणों की प्रर्थ पर्याय सहित बिराज रहा है। एक परमाणु का दूसरे परमाणु से सम्बंध नहीं है, परन्तु लोक व्यवहार में 'विस्तरा आदि' बोलने में आता है। (२) असमानजातीय द्रव्यपर्याय में ज्ञानी जानता है कि प्रात्मा एक, औदारिक, तेजस और कार्माण शरीर प्रादि में जितने परमाणु हैं वह सब प्रत्येक अलग २ एक व्यंजन पर्याय और अनन्त अर्थ पर्याय सहित बिराज रहा है । वह प्रत्येक द्रध्य को अलग अलंग जानता Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) है तथापि लोक व्यवहार मे 'मनुष्य, देव' बोला जाता है । इसलिए ज्ञानियों को ही द्रव्यपर्याय का सच्चा ज्ञान होता है । प्रश्न ( १४३ ) - समानजातीय द्रव्यपर्याय और असमानजातीय द्रव्यपर्याय का सच्चा ज्ञान अज्ञानियों को क्यों नहीं होता है ? उत्तर - वह (अज्ञानी) (१) पृथक पृथक द्रव्यों को एक मानते हैं ( २ ! दोनों के मिलने से हुई हैं ऐसा मानते हैं । (३) एक एक द्रव्य का सच्चा ज्ञान ना होने अर्थात् अपना ज्ञान ना होने से द्रव्यलिंगी आदि सब मिथ्यादृष्टियों का समानजातीय और असमानजातीय द्रव्यपर्याय का सब ज्ञान झूठा है । प्रश्न (१४४) - शास्त्र के अनुसार द्रव्यलिंगी कहे कि एक २ द्रव्य अलग २ है और एक एक द्रव्य एक व्यंजन पर्याय और अनन्त अर्थ पर्याय सहित बिराज रहा है तो क्या उसका ज्ञान सच्चा होगा या नहीं ? उत्तर - अपनी आत्मा का ज्ञान ना होने से मिथ्यादृष्टियों का, शास्त्र के 'अनुसार कहने पर भी, सब ज्ञान मिथ्याज्ञान श्रीर सब चारित्र, मिथ्या चारित्र है । प्रश्न (१४५ ) -- अपना ज्ञान हुवे बिना मिथ्याहृष्टि का सब ज्ञान झूठा है ऐसा कहां पाया है ? उत्तर-- भगवान उमास्वामी जी ने तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के ३२ वे सूत्र में कहा है कि "सद सतोर विशेपाचच्छोपलब्धेरन्मन्तवत्" Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४९ ) अर्थ १] सत्=विद्यमान वस्तु। (२) असत् अविद्यमान वस्तु (३) अविशेषात् = इन दोनों का यथार्थ विवेकना होने से यहच्छ (विपर्यय) उपलब्धेः = अपनी मनमानी इच्छा अनुसार कल्पनाएं करने से वह ज्ञान मिथ्या ज्ञान है [४] उन्मत्तवत्' शराब पिये हुए के समान मिथ्यादृष्टि को कारणविपरीतता, स्वरूपविपरीतता और भेदाभेद विपरीतता तीनो वर्तती है इसलिए मिथ्या दृष्टि का सब ज्ञान झूठा है। प्रश्न । १०६) मिथ्यादष्टि का सर्व ज्ञान झूठा है तब उसे सच्चा करने के लिए क्या करना चाहिए? उत्तर - सच्चे धर्म की यह परिपाटी है कि पहले जीव सम्य क्त्व प्रगट करता है, पश्चात् व्रतरुप शूभभाव होते हैं। और सम्यक्त्व स्व-पर का श्रद्धान, होने पर होता है तथा स्व-पर का श्रद्धान द्रव्यानुयोग का अभ्यास करने से होता है। इसलिए पहले जीव को द्रव्यानुयोग अनुसार श्रद्धा करके सम्यग्दृष्टि होना चाहिए, तब मिथ्यादृष्टि का सर्व ज्ञान जो मिथ्यात्व अवस्था में झूठा था, तब सम्यक्त्व होने पर उसका सारा ज्ञान सच्चा हो जाता है।। प्रश्न (१४७)-बिस्तरा' क्या है ? उत्तर-(१) समानजातीय द्रव्य पर्याय है। (२) प्राकार की अपेक्षा विचार किया जावे तो विभाव व्यंजन पर्याय है (३) रंग की अपेक्षा विचार किया जावे तो विभाव अर्थ पर्याय है। प्रश्न (१४८)-'बिस्तरा' सामानजातीय द्रव्य पर्याय कब कहा जा सकता है ? Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) उत्तर-'बिस्तर' में आहार वर्गणा के जितने परमाणु हैं वह सब परमाणु एक एक ब्यंजन पर्याय और अनन्त अर्थ पर्याय सहित बिराज रहे हैं। इससे मेरा किसी भी प्रकार का सम्बंध नहीं है। मैं तो ज्ञायक भगवान हूँ, ऐसा जिसको अपना ज्ञान हो वह जीव बिस्तरा' को समानजातीय द्रव्यपर्याय कह सकता है क्योंकि उसे भेद विज्ञान है। प्रश्न १४६)--मनुष्य क्या हैं ? उत्तर-असमानजातीय द्रव्यपर्याय है। प्रश्न (१५०)-मनुष्य असमानजातीय द्रव्यपर्याय कब कहा जा सकता है, और कौन कह सकता है ? उत्तर -(१) 'मनुष्य' प्रात्मा ज्ञायक स्वभावी है । पर्याय मैं मूर्खता है और मूर्खता एक समय की है। यह अपने ज्ञायक स्वभावी आत्मा का प्राश्रय ले, तो मूर्खता उसी समय दूर हो जाती है। (२) औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्माण शरीर भाषा और मन में एक एक परमाणु अपनी एक व्यंजन पर्याय और अनन्त अर्थपर्याय सहित विराज रहा है। मात्मा से इन सबका निश्चय-व्यवहार से कोई सम्बंध नहीं है। (३) जो ऐसा जानता हो और अपनी आत्मा का अनुभव हो तो उसका कथन "मनुष्य" असमामजातीय द्रव्य पर्याय है- कहा जावेगा। प्रश्न (१५१)-'नींबू का पेड़' किस किस अपेक्षा, कौन कौन सी पर्याय कही जा सकती है, और कब ? Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) उत्तर-(१) 'नींबू का पेड़' प्रसमानजातीय द्रव्य पर्याय । (२) पेड़ से तोड़ने पर नींबू, समामजातीय द्रव्यपर्याय । (३) 'गोल नींबू' विभावव्यंजन पर्याय । (४) 'खट्टा नींबू' विभाव अर्थ पर्याय। नींबू के पेड़ में जो प्रात्मा है उसका पुद्गलों से सम्बंध नहीं है वह प्रात्मा अपने स्वरुप को भूलकर पागल है। ऐसा जामने वाला ज्ञानी ही नीम्बू के पेड़ आदि को असमानजातीय द्रव्य पर्याय आदि कह सकता है। अज्ञानी नहीं कह सकता है। प्रश्न (१५२) "दाल का पेड़" पर किस किस अपेक्षा, कौन कौन सी पर्याय घट सकती है, और कब ? उत्तर-प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न (१५३. महावीर भगवान मन्दिर में विराज रहे हैं किस किस अपेक्षा, कौन कौन सी पर्याय घट सकती है, और कब ? उत्तर-प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न (१५४) "किताब' किस अपेक्षा, कौन कौन सी पर्याय - घट सकती है और कब ? उत्तर - प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न । १५५) 'शब्द' किस किस अपेक्षा, कौन कौन सी पर्याय घट सकती है और कब ? उत्तर- प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न (१५६) 'मकाम' किस किस अपेक्षा कौन कौन सी पर्या। घट सकती है और कब ? Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) - नर--प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। :::न (१५७)-'समयसार' किस किस अपेक्षा, कौन कौन सी पर्याय घट सकती है, और कब ? -र-प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। • इन (१५८) 'कुन्दकुन्द भगवान का फोटो किस किस अपेक्षा अपेक्षा कौन कौन सी पर्याय घट सकती है और कब ? उत्तर-प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न (१५६)-'केवल ज्ञान' किस किस अपेक्षा से कौन कौन सी पर्याय घट सकती है, और कब ? उत्तर- प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न (१६०) - 'ग्रौपशमिक सम्यक्त्व किस किस अपेक्षा से, कौन कौन सी पर्याय घट सकती है, और कब ? उत्तर - प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न (१६१)-,दर्श नमोहनीय का क्षय' किस किस अपेक्षा से, कौन कौन सी पर्याय घट सकती है, और कब ? उत्तर - प्रश्न ,५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न : १६२)-'लोटा' किस किस अपेक्षा से कौन कौन सी पर्याय घट सकती है, और कब ? उत्तर-- प्रश्न १:५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न (१६३)-'कुसी किस किस अपेक्षा से कौन कौन सी पर्याय घट सकती है. और कब ? उत्तर-प्रन १५१ के अनुसार उत्तर दो। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३) प्रश्न (१६४)-'अमरुद का पेड़' किस किस अपेक्षा से कौन कौन सी पर्याय घट सकती है, मोर कब ? उत्तर--प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न (१६५)-श्री नियमसार जी शास्त्र किस किस अपेक्षा से कौन कौन सी पर्याय घट सकती है, और कब ? उत्तर --प्रश्न १५१ क अनुसार उत्तर दो। प्रश्न , १६६)-'मन' किस किस अपेक्षा से कौन कौन सी पर्याय घट सकती है, और कब ? उत्तर-प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न (१६७ -'गति हेतुत्व का परिणमन' किस किस अपेक्षा से कौन कौन सी पर्याय घट सकती है, और कब ? उत्तर- प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न १६८--धोती' किस किस अपेक्षा से कौन कौन सी पर्याय घट सकती है और कब ? उत्तर–प्रश्न १५१ के अनुमार उत्तर दो। प्रश्न (१६६) 'पाल' किस किस अपेक्षा से कौन कौन सी पर्याय घट मकती है, और कब ? । उत्तर-प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो।। प्रश्न (१७०।–'मिथ्यात्व' किम किस किस अपेक्षा से कौन कौन सी पर्याय घट सकती है, और कब ? उत्तर - प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न (१७१) 'कुमतिज्ञान किस किस अपेक्षा से कौन कौन सी पर्याय घट सकती है और कब ? उत्तर-प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न (१७२,-'पूजा का भाव' किस किस प्रपेक्षा से कौन कौन Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) सी पर्याय घट सकती है, और कब ? उत्तर-प्रश्न १५१ के उत्तर दो। प्रश्न (१७३)- क्रोध का भाव' किस किस अपेक्षा से कौन कौन सी पर्याय घट सकती है, और कब ? उत्तर - प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न (१७४,-'मोक्ष' किस किस अपेक्षा से कौन कौन सी पर्याय घट सकती है, और कब ? उत्तर- प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न ( १७५)--'नारकी' किस किस अपेक्षा से कौन कौन मी पर्याय घट सकती है ? उत्तर-प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न (१७६)- घड़ी' किस किस अपेक्षा से कौन कौन सी पर्याय घट सकती है, और कब ? उत्तर-प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न (१७७,-'अवधिज्ञान' किस किस अपेक्षा से, कौन कौन सी पर्याय घट सकती है, और कब? उत्तर- प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न (१०८)-'सौधर्म इन्द्र' किस किस अपेक्षा से कौन कौन सी पर्याय घट सकती है, और कब ? उत्तर-प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न (१७६--'मूग का पेड़' किस किस अपेक्षा में, कौन कौन मी पर्याय घट सकती है और कब ? उत्तर - प्रश्न १५१ के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न (१८०).-स्कंध किसे कहते हैं ? Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) उत्तर - दो अथवा दो से अधिक परमाणुओं के बंध को स्कंध __ कहते हैं। प्रश्न (१८१). स्कंध किसकी पर्याय है ? उत्तर --वह अनन्त पुदगल द्रव्यों की विभावअर्थ पर्यायों और विभावव्यंजन पर्यायों का पिन्ड है। प्रश्न (१८२)--बंध किसे कहते है ? उत्तर-जिस सम्बंधविशेष से अनेक वस्तुओं में एकपने का ज्ञान होता है उस सम्बंधविशेष को बंध कहते हैं। प्रश्न (१८३)--शरीर कितने हैं ? उत्तर-शरीर पाँच हैं (१) प्रौदारिक, (२) वैक्रियिक, (३) प्राहारक, (४) तेजस, (५) कार्माण । प्रश्न (१८४)--औदारिक शरीर किसे कहते हैं ? उत्तर मनुष्य और तिर्यंच के स्थूल शरीर को औदारिक शरीर प्रश्न (१८५)--वैक्रियिक शरीर किसे कहते हैं ? उत्तर-जो छोटे-बड़े, पृथक-पृथक आदि अनेक क्रियाओं को करे ऐसे देव और नारकियों के शरीर को वैक्रियक शरीर कहते हैं। प्रश्न (१८६)-प्राहारक शरीर किसे कहते है ? उत्तर-माहारक ऋद्धिधारी छठे गुणस्थानवर्ती मुनि को तत्त्वों में कोई शंका होने पर, अथवा जिनालय मादि की बंदना करने के लिए, मस्तक से एक हाथ प्रमाण स्वच्छ और सफेद, सप्तधातु रहित, पुरषाकार जो पुतला निकलता है उसको आहारक शरीर कहते हैं। प्रश्न (१८७)-तैजस शरीर किसे कहते हैं ? ... : Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) उत्तर---ौदारिक, वैक्रियक और आहारक-इन तीन शरीरों में कान्ति उत्पन्न करने वाले शरीर को तैजस शरीर कहते हैं। प्रश्न (१८८ --कामणि शरीर किसे कहने हैं ? उत्तर-ज्ञानावरणादि पाठ कर्मों के समूह को कार्माण शरीर कहते हैं। प्रश्न (१८६)-एक जीव को एक साथ कितने शरीरों का संयोग हो सकता है ? उत्तर-एक साथ कम से कम दो और अधिक से अधिक चार शरीरों का संयोग होता है ? खुलासा इस प्रकार है -- (१) विग्रह गति में तेजस, कार्माण शरीरों का संयोग होता है । (२) मनुष्य और तिर्यचों के प्रौदारिक, तेजस और कार्माण इन शरीरों का संयोग होता है। (३) आहारक-ऋद्धिधारीक मुनि को प्रौदारिक, आहारक तैजस और कार्माण-ऐसे चार शरीरों का संयोग होता है। (४) देव और नारकियों को वैक्रियिक, तेजस और कार्माण-इन शरीरों का संयोग होता है। प्रश्न (१९०)-स्कंध के कितने भेद हैं ? उत्तर-आहारवर्गणा, तैजसवर्गणा. भाषावर्गणा, मनोवर्गणा, ____ कार्माण वर्गणा इत्यादि २२ भेद हैं। प्रश्न (१६१)-पाहारवर्गणा किसे कहते हैं ? उत्तर-जो पुद्गल स्कंध प्रौदारिक, वैक्रियिक, और आहारक इन शरीर रुप से परिणमन करता है उसको माहार वर्गणा कहते हैं। प्रश्न (१९२)-क्या माहारवर्गणा इन तीन शरीर रुप ही Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७ ) परिणमन करता है या और किसी प्रकार भी परिणमन करता है ? उत्तर - आहारवर्गणा मात्र श्रदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर रुप ही परिणमन करता है और किसी प्रकार से परिणमन नहीं करता है । प्रश्न ( १९३ ) - तंज सवर्गणा किसे कहते हैं ? उत्तर- जिस वर्गणा से तंजस शरीर बनता है उसे तेजसवर्गणा कहते हैं। प्रश्न ( १६४ ) - भाषावर्गणा किसे कहते हैं ? उत्तर जो पुद्गल स्कंध शब्दरूप परिणमित होता है उसे भाषावर्गणा कहते हैं । प्रश्न ( १६५ - ) मनोवर्गणा किसको कहते हैं ? उत्तर- जिसे पुद्गल स्कंध से अष्टदल कमल के आकार द्रव्यमन की रचना होती है। उसे मनोवर्गणा कहते हैं । प्रश्न १९६ ) - कार्याणवर्गणा किसे कहते हैं ? उत्तर - जिसे पुद्गल स्कंध से कार्माण शरीर बनता है उसको उसको कामणवर्गणा कहते हैं । प्रश्न ( १९७ ) - कुछ श्रदारिक शरीर के नाम बताओ ? उत्तर- ( १ ) भगवान की प्रतिमा ( २ ) रोटी, (३) परात, (३) किताब, (५) मकान, (६) सोना, (७) चान्दी, (८) रुपया, (६) नोट, (१०) कपड़ा. (११) फोटो, (१२) मेज आदि सब जो मोटेरूप से देखने में वह सब प्रदारिक शरीर हैं। धाता है Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) प्रश्न ( १६८ ) - प्रतिमा आदि प्रदारिक शरीर कैसे है ? उत्तर - मनुष्य और तिर्यचों के शरीर को प्रदारिक शरीर कहते हैं सो प्रतिमा आदि एकेन्द्रिय जीव का शरीर है । प्रश्न १६६) - मनुष्य और तिर्यत्रो के औदारिक शरीर कर्ता कौन है, और कौन नहीं ? उत्तर - आहारवर्गणा है जीव और अन्य वर्गणा नहीं है । प्रश्न ( २०० ) -- देवनारकीयों के वैक्रियिक शरीर कर्ता कौन है, श्रौर कौन नहीं है ? उत्तर - आहारवर्गणा है देवनारकी की प्रात्मा और अन्य वर्गणा नही है । प्रश्न (२०१ ) -- ऋद्धिधारी महामुनि के आहारक शरीर का कर्ता कौन है, और कौन नहीं है ? उतर - आहारवर्गणा है मुनि की आत्मा और अन्य वर्गणा नहीं है । प्रश्न ( २०२ ) -- निगोद से लेकर १४ वें गुणस्थान तक सब ससारी जीवों को जो तेजस शरीर का संबन्ध होता है उसका कर्ता कौन है, और कौन नहीं है ? उत्तर - तेजस वर्गणा है कोई भी जीव और दूसरी वर्गणा तेजस शरीर का कर्ता नहीं है । प्रश्न (२०३ ) - ज्ञानावर्णी प्रादि प्राठ कर्मों का तथा १४८ उत्तर प्रकृतियो का कर्ता कौन है, और कौन नहीं है ? उत्तर - कार्माणवर्गणा है, कोई जीव और अन्य वर्गणा नही है। प्रश्न ( २०४ ) - - दिव्यध्वनि और शब्द का कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) उत्तर- भाषावर्गणा है, कोई जीव और अन्य वर्गणा शब्द काकर्ता नहीं है । प्रश्न ( २०५) - मन का कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? उत्तर- मनोवगंगा है जीव और अन्य वर्गगा नहीं है । प्रश्न (२०६ ) -- ' दाल बनाई' इसका कर्ता कौन है और कौन नहीं ? उत्तर- आहार वर्गणा है, बाई और अन्य वर्गणा नहीं है । प्रश्न ( २०७ ) -- समयसार शास्त्र का कर्ता कौन है, औौर कौन नही है ? } उतर - आहार वर्गणा है, कुन्द कुन्द भगवान, अमृतचन्द्राचार्य और अन्य वर्गणा नही है । प्रश्न २०८ -रोटी का कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? उत्तर -- प्राहारवर्गणा है बाई, चकला वेलन तवा तथा अन्य वर्गणा नही है । प्रश्न (२०६ ) - दिव्यध्वनि का कर्ता कौन है, और कौन नही है ? उत्तर - भाषा वर्गणा है, भगवान और अन्य वर्गणा नही है । प्रश्न ( २१० ) - क्या संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मन का कर्त्ता है ? -- बिल्कुल नही। मन का कर्त्ता मनोर्गणा है जीव और अन्य वर्गणा नहीं है । उत्तर- i. प्रश्न ( २११ ) - ज्ञानावर्णी कर्म के उदय का कर्ता कौन है और कौन नही है ? उत्तर - कार्माण वर्गणा हैं. जीव और अन्य वर्गणा नहीं हैं । प्रश्न ( २१२ ) - मकान का कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) उत्तर श्राहारवर्गणा है सेठ, पैसा, मिस्त्री और औजार और अन्य वर्गणा नहीं है । प्रश्न (२१३ ) - ' हलवा बना' उसका कर्त्ता कौन है, औरकौन नहीं है उत्तर - आहारवर्गणा है, कोई जीव और अन्य वर्गणा नहीं है । प्रश्न ( २१४ ) - बर्फ का कर्त्ता कौन है और कौन नहीं उत्तर - श्राहारवर्गणा है, कोई जीव, मशीन, और अन्य वर्गणा नही है । प्रश्न ( २१५ ) - कमीज का कर्त्ता कौन है और कौन नहीं है ? उत्तर - प्रहारवर्गणा है, दर्जी या और कोई अन्य वर्गणा नहीं है । उत्तर- प्रश्न . २१६ ) - कपड़े के थानों का कर्त्ता कौन है, कौन नही है ? - श्राहारवर्गणा है, सेठ, कारखाना और अन्य वर्गणा नहीं है। प्रश्न (२१७ ) - अलमारी का कर्त्ता कौन है, और कौन नहीं है ? उत्तर - आहारवर्गणा है, लढ़ई तथा अन्य वर्गणा नही है । प्रश्न (२१८) - पांच इन्द्रियों का कर्त्ता कौन है, और कौन नहीं है ? उत्तर - श्राहारवर्गणा है, कोई जीव या और अन्य वर्गणा कर्ता नहीं है । प्रश्न ( २१६ - पैन का कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? - आहारवर्गणा है, जीव, मशीन या और कोई वर्गणा नहीं है । उत्तर - प्रश्न ( २२० ) - झाडू दी, इसका कर्ता कौन है और कौन नही है ? उत्तर - आहारवर्गणा है, जीव और प्रन्य वर्गणा, नहीं । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न (२२१)-किताब उठाई' इसका कर्ता कौन है, और कौन नहीं है ? . उत्तर-प्राहारवर्गणा है कोई जीव या और कोई वर्गणा नहीं है प्रश्न २२२)-'पानी खेंचा' उसका कर्ता कौन हैं और कौन नहीं है ? उत्तर-ग्राहारवर्गणा की क्रियावती शक्ति है, जीव, डोल, ___ रस्मी और अन्य वर्गणा नहीं है। प्रश्न (२२३ -लालटेन बाली, उसका कर्ता कौन है और कौन नहीं है? उत्तर - आहारवर्गणा का रग गुण है बाई, माचीस और __ अन्य वर्गणा का नही है। प्रश्न (२२४)-चश्मे का कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? उत्तर प्राहारवगंणा है. जीव और दूसरी वर्गणा नहीं है। प्रश्न (२२५)-पेड़े का कर्ता कौन है. और कौन नहीं है ? उत्तर -आहारवर्गणा है, हलवाई और दूसरी वर्गणा नहीं है। प्रश्न २२६१-मोटर का कर्ता कौन है. और कौन नहीं है ? उत्तर-प्राहारवर्गणा है, मशीन, कारीगर, सेठ और दूसरी वर्गणा नहीं है। प्रश्न (२२७)- रेल का कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? उत्तर-आहारवर्गणा है, कारखाना, सेठ और दूसरी वर्गणा नहीं है। प्रश्न (२२८)-अणुबम्ब का कर्ता कौन है और कौन नही है ? उत्तर-माहारवर्गणा है. कोई जीव या दूसरी वर्गणा नहीं प्रश्न (२२६)-जहाज का कर्ता कौन है, और कौन नहीं है ? Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६२ ) उत्तर--पाहारवर्गगा है, कारखाना, जीव तथा दूसरी वर्गणा नहीं है प्रश्न (२३०)-गेंहू का कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? उत्तर-प्राहारवर्गणा है. किसान तथा दूसरी वर्गणा नहीं है। प्रश्न (२३१)-चावल का कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? उत्तर-ग्राहारवर्गणा है किसान तथा दूसरी वर्गगा नही है। प्रश्न (२३२)-लोहे की अलमारी का कर्ता कौन है. और कौन नहीं है ? उत्तर-माहारवर्गणा है, जीव तथा दुमरी वर्गणा नही है। प्रश्न (२३३,-चाबी ताला का कर्ता कौन है, और कौन नहीं है ? उत्तर - माहारवर्गणा है, जीव तथा दूसरी वर्गणा नहीं है। प्रश्न (२३४)- फोडा ठीक हुअा उसका कर्ता कौन है, और कौन नही है? उत्तर--प्राहारवर्गणा है डाक्टर तथा दूसरी वगणा नहीं है। प्रश्न (२३५)-दरी का कर्ता कौन है, और कौन नही है ? उत्तर -प्राहारवर्गणा है, कारीगर तथा दूसरी वगणा नहीं प्रश्न (२३६)-पालकी का कर्ता कौन है, और कौन नही है ? उत्तर--प्राहारवर्गणा है, कारीगर तवा दूसरी वर्गणा नहीं प्रश्न (२३७;-दीवार पर फोटो बनाई उसका कर्ता कौन हं, और कौन नही है? उत्तर आहार वर्गणा हे मिस्त्री तथा दूसरी वर्गणा नहीं है । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) प्रश्न (२३८)-रोटी खाई का कर्ता कौन है, और कौन नहीं है? उत्तर- प्राहारवर्गणा है, जीव तथा दूसरी वर्गणा नहीं है। प्रश्न (२३९ -दर्शन मोहनीय का क्षय हुआ इसका कर्ता कौन कौन है और कौन नहीं है ? उत्तर कार्माणवर्गणा है. जीव तथा दूसरी वर्गणा नहीं है । प्रश्न (२४०)-अन्तराय कर्म के क्षयोपशम का कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? उत्तर-काणिवर्गणा है जीव तथा दूसरी वर्गणा नहीं है। प्रश्न (२४१)-वेदनीय के उदय का कर्ता कौन है, और कौन नहीं हैं ? । खत्तर कार्माणवर्गणा हैं जीव तथा दूसरी वर्गणा नहीं है। प्रश्न (२४२) अधाति कर्म का कर्ता कौन है और कौन नहीं है? उत्तर-कार्माण वर्गणा है, अरहंत भगवान या दूसरी वर्गणा नहीं है। प्रश्न (२४३) नामकर्म प्रकृति का कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? उत्तर-कार्माणवर्गणा है, दूसरी वर्गणा और जीव नहीं है। प्रश्न (२४४)--उपदेश का कर्ता कौन है, और कौन नहीं है ? उत्तर-भाषा वर्गणा है कोई जीव तथा दूसरी वर्गणा नहीं है। प्रश्न (२४५)-सोने का हार का कर्ता कौन है कौन नहीं है ? उत्तर-आहारवर्गणा है, सुनार तथा पहनने वाली तथा दूसरी वर्गणा नहीं है। प्रश्न (२४६'-धड़ी का कर्ता कौन है, और कौन नहीं है ? Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) उत्तर-माहारवर्गणा है, कारखाना, जीव तथा दूसरी वर्गणा नही है। " प्रश्न (२४७) -दर्शनावर्गी के क्षय का कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? : उत्तर- कार्माणवर्गणा है, केवलदर्शन तथा दूसरी वर्गणा नहीं है। प्रश्न (२४८)-शरीर फूल गया इसका कर्ता कौन है और __ कौन नहीं है ? उत्तर-प्राहारवर्गणा है, जीव तथा दूसरी वर्गणा नहीं है । प्रश्न (२०६)-फूल का कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? उत्तर-माहारवर्गणा है, जीव तथा दूसरी वर्गणा नहीं है। प्रश्न (२५०)-प्रौपशमिकसम्यक्त्व, यह क्या है ? इसका कर्ता कौन है और इसका कर्ता कौन नहीं है ? उत्तर-(१) प्रौपशमिक सम्यक्त्व जीव द्रव्य के श्रद्धा गुण की स्वभाव अर्थ पर्याय है। (२) इसका कर्ता जीव का श्रद्धा गुण है। (३) दर्शनमोहनीय का उपशम ईसका कर्ता नही है । प्रश्न (२५१) सम्यग्ज्ञान हुआ, यह क्या है इसका कर्ता कौन है, और इसका कर्ता कीन नहीं है ?? - उत्तर (१)सम्यग्ज्ञान स्वभाव अर्थ पर्याय है। (२) इसका कर्ता प्रात्मा का ज्ञान मुंणे ह (ई) ज्ञानावर्णी का क्षयोपशम तथा शास्त्र, गुरं इसका कर्ता नहीं है। E ATTE प्रश्न (२५२)--सम्यक्चारित्र क्या है इसका कर्ता कौन है Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और इसका कर्ता कौन नहीं है. ? उत्तर-(२) सम्यकचारित्र स्वभावप्रथं पर्याय है। (२) इसका कर्ता जीव का चारित्र गुण है । (३) इसका कर्ता चारित्रमोहनीय का क्षयोपशमादि तथा शुभ भाव नहीं है। प्रश्न (२५३)-तेजसशरीर क्या है, इसका कर्ता कौन है, और कौन नही है ? उत्तर-(१) तेजस शरीर समानजातीय द्रव्य पर्याय है। (२ इसका कर्ता तैजसवर्गणा है। (३। जीव तथा दूसरी वर्गणा इसकी कर्ता नहीं है। प्रश्न (२५४)-सिद्ध दशा क्या है, इसका कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? उत्तर-(१) सिद्धदशा स्वभावअर्थ पर्याय और स्वभाव व्यंजन पर्याय है । (२) इसका कर्ता आत्मा है । (३) इसका कर्ता द्रव्य कर्म का प्रभाव नहीं है। प्रश्न २५३) कम्पन का प्रभाव क्या है, इसका कर्ता कौन है, और इसका कर्ता कौन नहीं है ? उत्तर-(१) विभाव अर्थ पर्याय है । (२) इसका कर्ता जीव का योग गुण है। (३) इसका कर्ता नामकर्म और मनः बचन काय नहीं है। प्रश्न (२५६)--वीर्य की पूर्णता, यह क्या है, इसका कर्ता कौन है, और इसका कर्ता कौन नही हैं? उत्तर-(१) स्वभावअर्थ पर्याय है । (२) इसका कर्ता जीव Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का वीर्य गुण है । (३) इसका कर्ता अन्तराय कर्म नहीं है। प्रश्न (२५७)-यथाख्यात चारित्र क्या है, इसका कर्ता कौन है, और इसका कर्ता कौन नहीं है ? उत्तर - (१) स्वभावअर्थ पर्याय है । (२। इसका कर्ता जीव का चारित्र गुण है । (३) चारित्र मोहनीय का क्षयादि इसका कर्ता नहीं है। प्रश्न (२५८)-पांच इन्द्रियों के भोग का भाव क्या है, इसका कर्ता कौन है. और इसका कर्ता कौन नही है ? उत्तर - (१) विभाव अर्थ पर्याय हैं । (२। जीव के चारित्र गुण इसका कर्ता हैं । (३) पांच इन्द्रियों का संयोग इनका कर्ता नही है। प्रश्न (२५६)-फूल में सुगंध क्या है, इसका कर्ता कौन है, और इसका कर्ता कौन नहीं है ? उत्तर-(१)विभाव अर्थ पर्याय है। (२)इसका कर्ता पाहारवगंणा का गंध गुण है । (३) जीव तथा दूसरी वर्गणा इसका कर्ता नहीं है। प्रश्न (२६०)-बुखार क्या है, इसका कर्ता कौन है, और कौन नहीं है ? उत्तर (१)विभाव अर्थ पर्याय है, (२) इसका कर्ता प्रहार वर्गणा का स्पर्श गुण है । (३)जीव तथा दूसरी वर्गणा इसका कर्ता नही है। प्रश्न (२६१)-खाँसी की आवाज क्या है, इसका कर्ता कौन है और कौन नहीं है ? उत्तर-(१) सामानजातीय द्रव्य पर्याय है (२) इसका कर्ता Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) भाषा वर्गणा है। (३, इसका कर्ता जीव और दूसरी वर्गणा नहीं है। प्रश्न ( ०६२)-परिणमन हेतुत्व का परिणमन क्या है, इसका कर्ता कौन है, और कौन नही है ? उत्तर-(१) स्वभावअर्थ पर्याय है। (२) इसका कर्ता काल द्रव्य का परिणमन हेतुत्व गुण है (३। इसका कर्ता जीव तथा अन्य द्रव्य नहीं है। प्रश्न (२६३,-पाठों कर्मों का जो उदय, क्या है, उसका कर्ता कौन है, और कौन नही है ? उत्तर (१: समानजातीय द्रव्य पर्याय है (२) इसका कर्ता कार्माणवर्गणा है। (३) इसका कर्ता जीव तथा दूसरी वर्गणा नहीं है। प्रश्न (२६४)-पाठो कर्मो का अभाव, क्या है, उसका कर्ता कौन है ? और कौन नहीं है ? उत्तर-(1) समानजातीय द्रव्य पर्याय है । (२) इसका कर्ता कार्माणवर्गणा है। (३) इसका कर्ता जीव तथा दूसरी वगंणा नही है। प्रश्न (२६५)-घाती कर्मों का क्षयोपशम क्या है, उसका कर्ता कौन है, और कौन नहीं है ? उतर- (१) समानजातीय द्रव्य पर्याय है। इसका कर्ता कार्माण वर्गणा है। (३) जीव तथा दूसरी वर्गणा प्रश्न २६६)-मोहनीय कर्म का उपशम क्या है, (२) उसका कर्ता कर्ता कौन है, और कौन नहीं है ? उत्तर : (१) समान जाति द्रव्य पर्याय है (२) इसका कर्ता कार्माणवर्गणा है । ३। इसका कर्ता जीव तथा दूसरी गंणा नहीं है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) का परिणमन क्या है, इसका प्रश्न (२६७) स्थितिहेतुत्व कर्ता कौन है, और कौन नहीं ? उत्तर – (१) स्वभावं पर्याय का स्थितिहेतुत्व गुण नहीं है । हैं । ( २ ) इसका कर्ता अधर्म द्रव्य ( ३ ) दूसरा द्रव्य इसका कर्ता है प्रश्न ( २६८ ) - द्रव्यसंग्रह में पुद्गल की पर्यायें किसे किसे कहा है ? उत्तर - द्रव्य संग्रह गा० १३ में ( १ ) शब्द, (२ बध, (३) सूक्ष्म (४) स्थूल, (५) संस्थान (श्राकार) (६) भेद खंड ) (७) तम अंधकार ), ( 5 ) छाया. ह) उद्योत, (१०) प्रातप आदि को पुद्गल पर्याये कहा है । और यह सब समानजातीय द्रव्य पर्याय हैं। इसका कर्ता कौन है, प्रश्न ( २६६ ) - मतिज्ञान क्या है, और कौन नहीं है ? उत्तर - ( १ ) एकदेश स्वभावप्रर्थ पर्याय है । ( २ ) इसका तो जीव का ज्ञान गुण है । ( ३ ) इसका कर्ता मतिज्ञानवरण का क्षयोपशम आदि नहीं है । 1 प्रश्न २७ - ममोशरण क्या है, उसका कर्त्ता कौन है और उसका कर्ता कौन नही है ? उत्तर- (१) विभावव्यंजन पर्याय है । ( २ ) इसका कर्ता आहारवणा का प्रदेशत्व गुण है । ( ३ ) इन्द्र आदि इसके कर्ता नहीं हैं । प्रश्न । २७१ - मेघगर्जना क्या है, उसका कर्ता कौन नहीं है ? उसका कर्ता कौन है, उत्तर -- समानजातीय द्रव्य पर्याय है । ( ६ ) इसका कर्ता भाषा Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) वर्गणा है। जीव तथा दूसरी वर्गणा इसका कर्ता नहीं है। प्रश्न (२७२)-ज्ञान गुण की पर्यायों के नाम बतामो? उत्तर-माठ हैं : मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मम: पर्ययज्ञान, केवलज्ञान यह सम्यक् पर्याय है । कुमति कुश्रुत, कुप्रवधि मिथ्या पर्यायें है। प्रश्न (२७३)-इन ज्ञान गुण की ८ पर्यायों के जानने से ज्ञानी अज्ञानी को क्या क्या लाभ, नुकसान हैं ? उत्तर-(१) त्रिकाल जिसमे ज्ञान गुण है उस प्रभेद मात्मा का प्राश्रय लेकर मिथ्या पर्यायो का अभाव करके सम्यक पर्यायों को उत्पन्न करना यह प्रथम इनको जानने का लाभ पात्र जीव को होता है। १२) ज्ञानी अपने ज्ञान स्वरूप अभेद का माश्रय बढ़ाकर केवलज्ञान प्राप्त करता है। (३) मिथ्यादृष्टि आठ ज्ञान की पर्यायों को जानकर शास्त्र अभिनिवेश करता है। जो अनन्त संसार का कारण है। प्रश्न .२७४)-दर्शन गुण की पर्याय कितनी है, और कौन कौन सी हैं ? उत्तर-चार है : चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवल दर्शन । प्रश्न (२७५)-इन चार पर्यायों को जानकर पात्र जीव क्या करता है, ज्ञानी क्या करता है, और अज्ञानी क्या करता उत्तर-(१)चार पर्यायों से लक्ष हटाकर अपने दर्शन रूप Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) प्रभेद स्वभाव की दृष्टि कर सच्चा क्षयोपशम प्राप्त करता है। (२) ज्ञानी अभेद दर्शन स्वभाव का प्राश्रय लेकर पर्याय में केवलदर्शन की प्राप्ति करता है। (३) अज्ञानी इन चार पर्यायों को जानकर शास्त्र अभिनिवेश में पागल बना रहता है। प्रश्न (२७६)-चारित्र गुण का परिणमन कितने प्रकार का है? उत्तर-शुद्ध और प्रशुद्ध तथा अशुद्ध के शुभ और अशुभ दो प्रकार हैं। प्रश्न (२७७)-चारित्र गुण के परिणमन को जानने से क्या लाभ है ? उत्तर- (१) पर्याय में अशुद्ध परिणमन है । (२) स्वभाव मे शुद्ध और अशुद्ध का भेद नही है ऐसा जानकर अभेद स्वभाव का प्राश्रय लेकर अशुद्ध परिणमन का प्रभाव और शुद्ध परिणमन की प्राप्ति इसको जानने का लाभ है। प्रश्न (२७८)-स्पर्श क्या है ? उत्तर--पुद्गल द्रव्य का विशेष गुण है। प्रश्न (२७६)-स्पर्श गुण की की कितनी पर्याये है ? उत्तर- हल्का-भारी, दडा-गरम, रूखा-चिकना, कड़ा-गरम पाठ पर्याय है। प्रश्न (८०) स्पर्श गुण की पाठ पर्यायो के जानने से क्या लाभ है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१) उत्तर-यह पाठ पर्याय पुद्गल की है अनादि से मैं हल्का भारी, मुझे गर्मी ठंडी का बुखार प्रादि खोटी मान्यता से पागल हो रहा था, तब सत्गुरु ने कहा 'तू तो अस्पर्श स्वभावी भगवान प्रात्मा है, हल्का भारी आदि पुद्गल के स्पर्श गुण की पर्यायें हैं; ऐमा जानकर अस्पर्श स्वभावी भगवान आत्मा का आश्रय ले तो स्पर्श की पाठ पर्यायों से संबन्ध नहीं है यह अनुभव होना यह ज्ञान की पाठ पर्यायों को जानने का लाभ है। प्रश्न (२८१)-ग्स क्या है ? उत्तर-पुद्गल द्रव्य का विशेष गुण है। प्रश्न (२८२) रस गुण की कितनी पर्याय है ? उत्तर-पांच है, खट्टा, मीठा, कड़ का, कषायला और चरपरा। प्रश्न (२८३ -रस गुण की पांच पर्यायों को जानने से क्या लाभ है ? उत्तर--अज्ञानी जीव अनादि से खट्टे मीठे को अपना स्वाद मान रहा था तो सत्गुरु ने कहा तू तो अरस स्वभावी भगवान प्रात्मा है और खट्टा मीठा प्रादि पुद्गल के रस गुण प्रादि की पर्याय है तेरा इनसे सर्वथा संबन्ध नहीं है ऐसा सुनकर अरस स्वभावी भगवान आत्मा की और दृष्टि दे तो रस की पांच पयायों को जाना कहा जावेगा। प्रश्न (२८४-गंब क्या है? उत्तर-पुद्गल द्रव्य का विशेष गुण है। प्रश्न (२५) गंव गुण की कितनी पर्याय है? Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) उत्तर- दो हैं : सुगंध और दुर्गध । प्रश्न ( २८६ ) - सुगंध दुर्गंध को जानने का क्या लाभ है ? उत्तर - मैं अगंध स्वभावी भगवान हूँ सुगंध दुर्गध पुद्गल के गंध गुण की पर्याय है ऐसा जानकर अगंध स्वभावी भगवान का आश्रय ले तो धर्म की शुरुआत होकर फिर कम से वृद्धि होकर, निर्वाण का पात्र बने । प्रश्न ( २८७ ) - वर्ण क्या है ? उत्तर - पुद्गल द्रव्य का विशेष गुण है। ? प्रश्न ( २८८ ) - वर्ण गुण की कितनी पर्याय हैं ? उत्तर - पाँच है । काला, पीला, नीला, लाल, सफेद । प्रश्न ( २८९ ) - वर्ण गुण की पाँच पर्यायों के जानने से क्या लाभ है ? उत्तर - मैं अवर्ण स्वभावी भगवान श्रात्मा हूँ काला पीला आदि पुद्गल के वर्ण गुण की पर्यायें हैं इससे मेरा सर्वथा सम्बंध नहीं है ऐसा जानकर अपने प्रवर्ण स्वभाव का श्राश्रय तो वर्ण गुण की पर्यायों से भेद ज्ञान हुआ कहा जावेगा । प्रश्न ( २० ) - शब्द क्या हैं ? उत्तर - भाषा वर्गणा का कार्य है और समानजातीय द्रव्य पर्याय हैं और जीव के साथ की अपेक्षा विचारा जावे तो असमानजातीय द्रव्य पर्याय है । प्रदन (२१) --शब्द कितने प्रकार का है ? उत्तर - सात प्रकार का है: षडज, ऋषम, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत, और निषाद । प्रश्न ( २६२ ) - सात प्रकार के शब्द के जानने का क्या लाभ है? .3 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) उत्तर-सात प्रकार के शब्दों से मेग कोई सम्बंध नहीं हैं मैं अशब्द स्वभावी भगवान प्रात्मा हूँ ऐसा जानकर अपना आश्रय ले तो शान्ति प्राप्त हो और कर्ण इन्द्रियों के विषयों की एकत्व बुद्धि का अभाव हो। प्रश्न (२६३.-ममयसार की ४६ में गाथा में क्या कहाँ है ? उत्तर-'जीव चेतना गुण, शब्द-रस-रुप-गध-व्यक्ति विहीन है । निर्दिष्ट नही संस्थान उसका, ग्रहण है नहि लिंग से ॥ ४६ ।। अथं :- हे भव्य तू जीव को रसरहित, रुपरहित, गंधरहित, इन्द्रियगोचर नहीं, शब्द रहित है ऐसा जान. वह चेतना गुण द्वारा दृष्टि में आता है किसी पर चिन्हों से, किसी के प्राकार से दृष्टि में नहीं आ सकता है ऐसा कहा है। प्रश्न (२६४)-गा. ४६ में स्पर्शादि से रहित क्यों कहा है ? उत्तर -- स्पर्शरसादि की २७ पर्यायों में जीव पागल है उससे दृष्टि हटाकर अपने पर दृष्टि देवे इसलिए कहा है । प्रश्न (२६५ -गाथा ४६ की टीका में स्पर्श रस आदि के कितने कितने बोल लिये हैं और उनमें क्या क्या __समझाया है ? उत्तर-रस, रुप, गंध, स्पर्श और शब्द के प्रत्येक के छह छह बोलो से इनका निषेध करके आत्मा को अरस अरुप, अगंध, अस्पर्श. अशब्द बताया है क्योंकि अज्ञानी २७ पर्यायों में पागल है उसका पागल पन मिटे और शान्ति प्राप्त हो यह समझाया है। प्रश्न (२६६ गा. ४६ की टीका में छह छह बोलों से अलग Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) किया है उसका एक का नमूना बतायो ताकि सब समझ में आ सके ? उत्तर-(१ पुदगल द्रव्य से अलग किया है (२) पुद्गल द्रव्य के गुण से अलग किया है (३) पुद्गल द्रव्य की पर्याय द्रव्येन्द्रिय के पालम्बन से अलग किया है (४ क्षयोपशम रुप ज्ञान से अलग किया हैं (५। अखंडपने सबको सर्वथा जानने वाला स्वभाव होने पर मात्र रस को जाने इससे अलग किया है । (६) रस सम्बधी ज्ञान होने पर भी रसरूप नहीं होता है। इस प्रकार प्रात्मा को इन सब से पृथक बताकार चेतना गुण के द्वारा ही अनुभव में आता है ऐमा बताया है। इसलिए हे आत्मा तू "एक टन्कोत्कीर्ण परमार्थ स्वरूप का आश्रय ले तो शान्ति प्रगटे । प्रश्न (२६७)-क्रियावनी शक्ति क्या है ? उत्तर-जीव और पुद्गल द्रव्य का विशेष गुण है। प्रश्न (२६८)-क्रियावती शक्ति का परिणमन कितने प्रकार का है ? उत्तर- दो प्रकार का है । गमन रुप और स्थिर रुप । प्रश्न (२६६)-क्रियावती शक्ति को जानने का क्या लाभ है ? उत्तर--(१) जीव अनादि से यह मानता था कि मैं शरीर को चलाता हूं और शरीर मुझे चलाता है। (२) गुरुगम के बिना शास्त्र पढ़ा तो कहने लगा धर्मद्रव्य जीव पुद्गल को चलाता है और अधर्मद्रव्य ठहराता है (३) सच्चे सतगुरु का समागम हुआ तो जाना कि आत्मा में और प्रत्येक परमाणु में क्रियावती शक्ति गुण है यह दोनों अपनी अपनी योग्क्ता से चलते है और ठहरते हैं Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) धर्म अधर्म तो निमित्त मात्र है ऐसा जानकर अपनी ओर दृष्टि दे तो क्रियावती शक्ति को जाना। प्रश्न (३००,वभाविक शक्ति किसे कहते है ? उत्तर -यह एक विशेष भाव वाला गुण है जिस गुण के कारण पर द्रव्य के सम्बंध पूर्वक स्वयं अपनी योग्यता से अशुद्ध पर्याय होती है। प्रश्न (३०१)-वैभाविक गुण कितने द्रव्यों में है ? उत्तर - जीव और पुद्गल दो द्रव्यों में ही है। बाकी चार में नहीं है। प्रश्न , ३०२)-वैभाविक शक्ति गुण को शुद्ध पर्याय कब प्रगट होती है। उत्तर सिद्धदशा में इस गुण की शुद्ध स्वभाविक दशा प्रगट होती है। प्रश्न १३०३)-प्रत्येक द्रव्य की पर्याय कितनी बड़ी होती है ? उत्तर -जितना बड़ा जो द्रव्य है उतनी ही बड़ी उस द्रव्य की पर्याय होती है क्यों क प्रत्येक पर्याय द्रव्य के सम्पूर्ण भाग में एक समय रुप होती है। प्रश्न (३०४, प्रत्येक पर्याय की स्थिति कितनी देर की होती है? उत्तर- कोई भी पर्याय हो सबकी स्थिति एक एक समय मात्र ही होती है। प्रश्न (३०५)-प्रत्येक गुण में कितनी पर्यायें होती है ? उत्तर-तीन काल के जितने समय हैं, उतनी उतनी ही पर्याय प्रत्येक गुण में हैं। प्रश्न (३०६-एक गुण में, एक पर्याय का उत्पाद, एक पर्याय Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) का व्यय और स्वयं कायम, इन तीनों में कितना समय लगता है ? उत्तर - मिथ्यात्व का प्रभाव, सम्यक्त्त्व की उत्पत्ति और श्रद्धा गुण कायम यह एक समय में ही होता है ऐसा ही प्रत्येक गुण मे अनादिअनन्त होता है। ऐसा वस्तु स्वभाव है। प्रश्न (३०७)-उत्पाद व्यय ध्रौव्य का एक ही समय है या भिन्न भिन्न समय है ? उत्तर-तीनों एक ही समय में एक साथ ही बर्तते है। प्रश्न ३०८)-प्रज्ञान दूर होकर सच्चा ज्ञान होने में कितना काल लगता है ? उत्तर एक समय ही लगता है मिथ्याज्ञान का अभाव, सम्यग्ज्ञान का उत्पाद और ज्ञान गुण कायम । प्रश्न ३०६)-अनादिअनन्त कौन है ? उत्तर-प्रत्येक द्रव्य और उनके गुण अनादि अनन्त होते है। प्रश्न (३१०।-प्रत्येक द्रव्य और गुण अना दिग्रनन्त हे इसको जानने से क्या नुकमान और लाभ है ? उत्तर-१) पर द्रव्य और उनके गुण अनादिअनन्त है उनका प्राश्रय माने तो चारो गतियों में घूमकर निगोद की प्राप्ति होती है। (२) अपना द्रव्य और गुण अनादिअनन्त है उसका आश्रय ले तो मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्रश्न (३११)-सादिअनन्त कौन है ? उत्तर-सायिक पर्याय सादि अनन्त है। प्रश्न ३१२ -पर्याय तो कोई भी हो एक समय मात्र की होती है। आपने क्षायिक पर्याय को "सादिअनन्त' क्यो कहा? Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७७ ) उतर - वह बदलने पर भी 'जैसी की तैसी' रहती है, वह की वह नहीं । 'जैसी की तैसी' अर्थात् शुद्ध, शुद्ध रहने से सादिश्रनन्त कहा है। प्रश्न ( ३१३ ) - क्षायिक पर्याय सादिअनन्त है इसको जानने से क्या लाभ है ? उत्तर - अपने द्रव्य गुण प्रभेद ग्रनादिग्रनन्त स्वभाव का श्रय लेकर क्षायिक पर्याय प्रगट करने योग्य है ऐसा जानकर क्षायिक पर्याय प्रगट करे, यह लाभ है । प्रश्न ( ३१४ ) - अनादिसांत क्या है ? उत्तर -- जो जीव अनादिश्रनन्त अपने स्वभाव का आश्रय लेता है उस जीव का ससार जो अनादि से है उसको सांत कर देता है इसलिए संसार पर्याय को अनादि सांत कहा है । प्रश्न ( ३१५ - सादीसात क्या है ? उत्तर - मोक्षमार्ग. अर्थात् साधक दशा । प्रश्न (३१६ ) - मोक्षमार्ग सादिसांत है इसको जानने से क्या लाभ है । उत्तर - ( १ ) ज्ञानी जीव साधक दशा का प्रभाव करके साध्य दशा जो सादिश्रनन्त है उसको प्रगट करते है । ( २ ) अज्ञानी जीव अपने स्वभाव का आश्रय लेकर सादिसांत मोक्षमार्ग प्रगट करे, यह जानने का लाभ ह प्रश्न ( ३१७) -- उत्पाद व्ययं ध्रोव्य जानने के लिए प्रवचनसार की किस किस गाथा का विशेष रूप से रहस्य जानना चाहिए ? उत्तर- प्रवचनसार गा० ६६, १०० तथा १०१ का रहस्य जानना चाहिए । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) प्रश्न (३१८) --प्रवचनसार की ६६ बी 'गाथा का क्या रहस्य थोड़े में बताइये ? उत्तर - सब द्रव्य सत् है । उत्पाद व्यय ध्रुव सहित परिणाम प्रत्येक द्रश्य का स्वभाव है । ऐसे स्वभाव मे निरन्तर वर्तता हुआ होने से, द्रव्य भी उत्पाद व्यय ध्रौव्य वाला है ऐसा गाथा में सिद्ध किया है । टीका में पांच बाते की है। (१) द्रव्य मे प्रभेद रूप से, अनादि अनन्त प्रवाह की एकता बताई और प्रवाह क्रम के सूक्ष्म अश वह परिणाम है यह बताया है । ( २ ) प्रवाह क्रम मे प्रवर्तता परिणाम परस्पर व्यतिरेक बताया । ( ३ ) सम्पूर्ण रूप से द्रव्य के त्रिकाली परिणामों को उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप सिद्ध किया द्रष्टान्त में द्रव्य के सब प्रदेशों को क्षेत्र अपेक्षा उत्पाद व्यय ध्रौव्य बताया । ( ४ ) एक ही परिणाम मे उत्पाद व्यय घ्रौव्यपना बताया हे द्रष्टान्त में एक एक प्रदेश में क्षेत्र अपेक्षा उत्पाद व्यय ध्रौव्य पना बताया है । ( ५ ) उत्पाद व्यय ध्रौव्य परिणाम के प्रवाह मे द्रव्य सदावर्तता है यह वस्तु स्वभाव है । यह सिद्ध किया है । प्रश्न (३१६) --प्रवचनसार की १०० वी गाथा मे क्या बनाया है ? उत्तर- उत्पाद व्यय ध्रौव्य एक दूसरे विना होता नही है परन्तु एक ही साथ तीनों होते है । जैसे आत्मा में सम्यक्त्व का उत्पाद, मिथ्यात्व के व्यय बिना होता नही है । मिथ्यात्व का नाश सम्यक्त्व के उत्पाद बिना होता नहीं। और सम्यक्त्व का उत्पाद तथा मिथ्यात्व का व्यय यह दोनो आत्मा की ध्रुवता विना होता नहीं है । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु में और उसके गुणों में उत्पाद व्यय धौव्य तीनो एक ही Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) साथ होते हैं यह बताया है। प्रश्न (३२०)-प्रवचनसार गा० १०१ में क्या बताया है ? उत्तर-(१) उत्पाद व्यय ध्रौव्य किसके हैं ? उत्तर--पर्याय के हैं। (२) पर्याय किसमें होती है ? उत्तर--ब्रम में होती है इस प्रकार सबको एक द्रव्य में ही बताया है, बाहर नहीं। प्रश्न (३२१)--बाई ने रोटी बनाई ? इसमें उत्पाद व्यय प्रोग्य लगाओ, और इससे क्या लाभ रहा ? उत्तर रोटी का उत्पाद, लोई का व्यय, आहारवर्गणा ध्रौव्य है, तो बाई ने रोटी बनाई यह बुद्धि उड गई। तथा प्रत्येक कार्य ऐसे ही होता है, होता रहा है, और होता रहेगा, ऐसा मानते ही दृष्टि स्वभाव पर जावे तो धम की प्राप्ति होना इसको जानने का लाभ है। प्रश्न (३२२)-कुम्हार ने घड़ा बनाया, इसमें उत्पाद व्यय और ध्रौव्य लगायो, तथा क्या लाभ रहा यह बतायो ? उत्तर-घड़े का उत्पाद, पिण्ड का व्यय, आहारवर्गणा के स्कध मिट्टी ध्रोव्य है । कुम्हार चाक कीली डन्डे से दृष्टि हट गई । प्रश्न (२२३)-ज्ञानावर्णी के प्रभाव से केवलज्ञान हुमा; इनमें उत्पाद्रव्य धोब्य बगामो, और क्या लाभ रहा ? उत्तर केबलज्ञान का उत्पाद भावश्रुतज्ञान का व्यय, प्रात्मा का ज्ञान गुण ध्रौव्य है। केवलज्ञानावर्णी के प्रभाव से हुधा यह दृष्टि हट गई। प्रश्न (३२४ -मैंने बिस्तरा विछाया, इसमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य लनामो, और क्या लाभ रहा ? Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८० ) उत्तर - विस्तरा विछा उत्पाद, तह किये हुये का व्यय, आहार वर्गणा रूप विस्तरा ध्रौव्य हैं । जीब ने या अन्य किसी वर्गणा ने बिछाया यह बुद्धि उड़ गई । प्रश्न (३२५) - मुझे आंख से ज्ञान हुआ, इसमें उत्पाद व्यय धौम्य लगाओ और क्या लाभ रहा ? उत्तर - ज्ञान पर्याय का उत्पाद, पहली ज्ञान पर्याय का व्यय, आत्मा का ज्ञान गुण धौभ्य है, आँख से ज्ञान हुआ ऐसी बुद्धि उड़ गई । प्रश्न ( ३२६ ) - दर्शनमोहनीय के उदय से मिथ्यात्व होता है, इसमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य लगाओ और क्या लाभ रहा ? उत्तर - मिथ्यात्व का उत्पाद, मिध्यात्व रूप पहली पर्याय का व्यय, आत्मा का श्रद्धा गुण ध्रौव्य है । दर्शन मोहनीय के उदय से हुम्रा यह बुद्धि उड़ गई । प्रश्न (३२७)-कर्म चक्कर कटाता है, उसमें उत्पाद व्यय धौव्य लगाओ, और क्या लाभ रहा ? उत्तर - चक्कर काटने का उत्पाद, पहली चक्कर काटने की पर्याय का व्यय, ग्रात्मा का चारित्र गुण कायम है । कर्म चक्कर कटाता है ऐसी बुद्धि उड़ गई । प्रश्न ( ३२८ ) - मैंने हाथ जोड़े, इसमें उत्पाद व्यय प्रीव्य लगानी और क्या लाभ रहा ? उत्तर - हाथ जोड़े का उत्पाद, पहली स्थिरता रुप पर्याय का व्यय आहारवर्गणा की क्रियावती शक्ति गुण प्रोव्य है । जीव ने हाथ जोड़े यह बुद्धि उड़ गई । प्रश्न ( ३२९ ) - घड़ी देखकर ज्ञान हुआ, इसमें उत्पाद व्यय Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८१ ) ध्रौव्य लगानो, और क्या लाभ रहा ? उत्तर-ज्ञान का उत्पाद, ज्ञान की पूर्व पर्याय का व्यय, आत्मा का ज्ञान गुण ध्रौव्य है। घड़ी से ज्ञान हुआ यह बुद्धि उड़ गई। प्रश्न (३३०;-भगवान की बाणी सुनकर सम्यक्त्व हुमा इसमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य लगाओ, और क्या लाभ रहा ? उत्तर-सम्यक्त्व का उत्पाद, मिथ्यात्व का व्यय, प्रात्मा का श्रद्धा गुण ध्रौव्य है । भगवान की वाणी सुनकर हुआ यह बुद्धि उड़ गई। प्रश्न (३३१)-मैंने रोटी खाई, इसमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य लगाओ, और क्या लाभ रहा? उत्तर-रोटी खाई का उत्पाद, पहली पर्याय का व्यय, प्राहार वर्गणा के स्कंध ध्रौव्य है , जीव ने रोटी खाई ऐसी बुद्धि उड़ गई। प्रश्न (३३२)-धर्म द्रव्य ने मुझे चलाया, इसमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य लगाओ, और क्या लाभ रहा ? उत्तर - मेरे चलने का उत्पाद, स्थिर रूप पर्याय का व्यय, प्रात्मा का क्रियावती शक्ति गुण ध्रौव्य है। धर्म द्रव्य ने तथा शरीर ने मुझे चलाया यह बुद्धि उड़ गई। प्रश्न (३३३)-निमित्त नैमित्तिक सुनकर सम्यग्ज्ञान हुआ, इसमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य लगाओ, और क्या लाभ रहा ? उत्तर-सम्यग्ज्ञान का उत्पाद, मिथ्याज्ञान का व्यय,मात्मा का ज्ञान गुण ध्रौव्य है। सुनकर ज्ञान हुमा यह बुद्धि उड़ गई। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) प्रश्न (३३४)-मैंने पानी गरम किया, इस में उत्पाद व्यय ध्रौव्य लगायो और क्या लाभ रहा ? उत्तर- गरम का उत्पाद, ठन्डे का व्यय, आहार वर्गणा रूप पानी ध्रौव्य है। जीव और आग ने पानी गरम किया ऐसी बुद्धि उड़ गई। प्रश्न (३३५,-श्री कुन्द कुन्द भगवान ने समयसार शास्त्र बनाया, __ इसमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य लगाग्रो और क्या लाभ रहा ? उत्तर - समयसार शास्त्र बना उत्पाद, पहली पर्याय का व्यय, आहारवर्गणा रूप पत्र ध्रौव्य है । श्री कुन्द कुन्द भगवान ने बनाया ऐसी बुद्धि उड़ गई। प्रश्न (३३६)-मैंने पुस्तक उठाई. इसमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य लगाया। और क्या लाभ रहा ? उत्तर -पुस्तक उठने का उत्पाद, स्थिर रूप पर्याय का व्यय, आहारवर्गणा रूप कागज की क्रियाशक्ति गुण धोव्य है। जीव ने उठाई ऐसी बुद्धि उड़ गई। प्रश्न (३३७)-अधर्म द्रव्य ने मुझे ठहराया, इसमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य लगायो, और लाभ बतायो ? उत्तर- मेरे ठहरने का उत्पाद, चलने की पर्याय का व्यय, जीव की क्रियावती शक्ति ध्रौव्य है। अधर्म द्रव्य और शरीर ने मुझे ठहराया ऐसी बुद्धि उड़ गई। प्रश्न (३३८)-बढई ने रथ बनाया, इसमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य लगाओ, और लाभ बताओ? उत्तर-रथ बने का उत्पाद, पहली पर्याय का व्यय, आहारवर्गणा रूप लकड़ी ध्रौव्य है । बढई ने बनाया यह बुद्धि उड़ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३ ) गई । व्यय प्रश्न ( ३३६ ) - अन्तरायकर्म के क्षयोपशम से वीर्य में क्षयोपशम उत्पन्न हुआ इसमें उत्पाद और धौव्य लगाओ, और लाभ बताओ ? उत्तर क्षयोपशम का उत्पाद पहली पर्याय का व्यय, का वीर्य गुण ध्रौव्य है । अन्तरायकर्म के क्षयोपशम से द्रष्टि से उड़ गई । ग्रात्मा प्रश्न ( ३४० ) - जिस जीव ने अपना कल्याण करना हो उसे क्या क्या जानना जरूरी है ? उत्तर- जिस जीव को मिथ्यात्व का अभाव करके सम्यग्दशन प्राप्त करना हो और सम्यग्दर्शन प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करना हो उसे सच्चे कारण कार्य का ज्ञान करने के लिए आठ बातों का निर्णय करना चाहिए । प्रश्न ( ३०१ - जिससे सम्यग्दर्शन हो, फिर मोक्ष हो ऐसे सच्चे कारण कार्य का ज्ञान करने के लिए आठ बाते कौन कौन सी हैं ? उत्तर- (१) बंध किसे कहते है ? (२) जीव और पुद्गल के निश्चय और व्यवहार के बंध का ज्ञान, (३) इन्द्रिय ज्ञान की मर्यादा क्या है, (४) विकारी और अविकारी पर्यायों की स्वतंत्रता का ज्ञान, (५ विकारी पर्याय को पराश्रित क्यों कहा, इसका ज्ञान, (६) जब विकारी पर्याय स्वतंत्र है तो शास्त्रों में स्व-पर प्रत्ययों को क्यों कहा जाता है, (७) प्रत्येक स्कध में हर एक परमाणु अपना अपना स्वतंत्र कार्य करता है । उसकी स्वतंत्रता का ज्ञान, (५) अर्थ पर्याय व्यंजन पर्याय के और Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) विषयों में मिथ्यामान्यता क्या क्या है, सच्चे कारण कार्यादिक का ज्ञान होने से मिथ्यात्व का प्रभाव और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होकर साथ ही केवल ज्ञान में जैसा वस्तु का स्वभाव है वैसा ही दृष्टि में आ जाता है। प्रश्न (३४२ -जिरासे सम्यग्दर्शन हो और फिर क्रम से मोक्ष हो ऐसी पाठ बातों में से बंध किसे कहते हैं ? उत्तर-जिस सम्बध विशेष से अनेक वस्तुओं में एकपने का ___ का ज्ञान होता है उस सम्बध विशेष को बध कहते है । प्रश्न (३४३)-बध की परिभाषा स्पष्ट समझ में नही आई ? उत्तर-(१) अनेक चीजें होनी चाहिए (२। अनेक चीजो में एकपने का ज्ञान होना चाहिए (३) परन्तु ज्ञान मे प्रत्येक वस्तु की स्वतंत्रता आनी चाहिये । जैससे हल्वा कहा तो १) हल्वे में अनेक परमाणु हैं तो यह अनेक चोजे हुई । (२)ज्ञान मे पाया कि यह हल्वा है तो यह एकपने का ज्ञान है । (३) हल्वे में जितने परमाणु हैं वह अलग अलग है एक का दूसरे से सम्बध नहीं है यह प्रत्येक वस्तु की स्वतंत्रता ज्ञान में पानी चाहिये। तभी बंध का सच्चा ज्ञान कहा जा सकता है । प्रश्न (३४४,-दूध और कंकडका सम्बंध विशेष बंध है या नहीं ? उत्तर ---(१) दूध और कंकडका को सम्बंध विशेष बंध नहीं कह सकते क्योंकि दोनों अलग अलग ज्ञान में प्राते है। (२) दूध और पानी को सम्बन्ध विशेष बंध कहेंगे क्योकि दूध और पानी अनेक चीजों में एक पने का ज्ञान कराता है इसलिए इसे सम्बध विशेष बध कहेंगे। प्रश्न (३४५)-दूध और पानी के बध को सम्बध विशेष बंध कब Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८५) कहा जा सकेगा? उत्तर-जिसको दूध और पानी में प्रत्येक परमाणु अपने अपने गुण पर्याय सहित वर्त रहा है, एक का दूसरे में प्रभाव है । तथा एक परमाणु की पर्याय का दूसरे परमाणुओं की पर्यायों मे अन्योन्याभाव है ऐसा जिसको ज्ञान वर्तता हो वही दूध और पानी के बंध को सम्बंधविशेष बंध कह सकता है। दूसरा नहीं ! प्रश्न (३४६)-छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं, यह संबंधविशेष बंध है या नहीं ? उत्तर-बिल्कुल नहीं, क्योकि छह द्रव्य अनेक चीजे तो हैं परन्तु एकपने का ज्ञान नहीं होता है इसलिये छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं इसमें सम्बंधविशेष बंध नही है। प्रश्न (३४७)-सम्बंधविशेष बंध जिन्हें कहा जा सकता है उनके कुछ नाम गिनायो ? उत्तर-रोटी, मेज, दरी, फोटो, डब्बा, लालटेन, किताब, घड़ी आदि अनेक चीजे हैं परन्तु कहनं में एक प्राती है पौर ज्ञानी जानते है प्रत्येक रोटी आदि में परमाणुमों का स्वरुप अलग अलग है इसलिये यह संबध विशेषबंध के नाम से कहे जाते हैं। प्रश्न । ३४८)-इस बंध का ज्ञान किसको होता है और किसको नहीं? उत्तर--एक मात्र ज्ञानियों को होता है द्रव्यलिंगी मुनि आदि प्रज्ञानियों को नहीं होता है। प्रश्न (३४६)-जिससे सम्यग्दर्शन हो फिर क्रम से मोक्ष हो ऐसे पाठ बोलों में से-दूसरे बोल का क्या नाम है? Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८६) उत्तर-“जीव और पुद्गल के निश्चय व्यवहार के बंध का ज्ञान" यह दूसरे बोल का नाम है। प्रश्न (३५०)-जीव में निश्चय बंध क्या है ? उत्तर- प्रात्मा में रागद्वेषादि का बध होना यह जीव का निश्चय बंध है। प्रश्न ( ३५१/-प्रात्मा और रागद्वेषादि में बंध की परिभाषा कैसे घटेगी ? उत्तर-एक आत्मा है, दूसरा रागद्वेष है । यह दो चीजें हुई। प्रात्मा और रागद्वेष मे एक पने का ज्ञान होता है तथा ज्ञानी दोनों का स्वरुप पृथक पृथक जानते है क्योकि रागद्वेषादि का स्वरुप बधस्वरुप और आत्मा का स्वरुप अबधस्वरुप चैतन्य स्वभावी जानते है। इसलिए प्रात्मा और रागद्वषादि मे बधा की परिभाषा घटित होती है। प्रश्न (३५२)-जीव के निश्चय बध को जानने से ज्ञानीयो को __ क्या लाभ है ? उत्तर- ज्ञानी तो चौथे गुणस्थान से दोनों को पृथक २ जानते है और अपने चैतन्य स्वभावी में स्थिरता करके मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। प्रश्न (३५३)-जीव के निश्चय बध को जानने से अज्ञानी पात्र जीवों को क्या लाभ है ? उत्तर---अज्ञानी अनादि से एक एक समय करके राग हुषादि रुप ही अपने को जानता था जब उसने गुरु मे सुना रागद्वेषादि बंध स्वरुप पृथक है. भगवान प्रात्मा अवध स्वभात्री पृथक है तो अपनी प्रशारुपी छनी को अपनी ओर सन्मुख करके धर्म की प्राप्ति कर लेता है। और फिर वह भी ज्ञानी की तरह मोक्ष को प्राप्त कर लेता है Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८७) यह जीव के निश्चय बंघ को जानने का लाभ है । प्रश्न ( ३५४ ) - जीव का व्यवहार बंध क्या है ? उत्तर - जीव और द्रव्यकर्म नोकर्म के सम्बंध को जीव का व्यवहार बंध कहा जाता है। प्रश्न ( ३५५ ) - जीव और द्रव्यकर्म नोकर्म में बंध की परिभाषा कैसे घटती है ? उत्तर - जीव एक पदार्थ है - द्रव्यकर्म नोकर्म दूसरे पदार्थ हैं मोटे रुप से एक कहने में आते हैं । परन्तु ज्ञानी पृथक पृथक जानते है इसलिए बंध की परिभाषा घटती है । प्रश्न ( ३५६ ) - जीव से द्रव्यकर्म, नोकर्म, तो बिल्कुल पृथक है आपने इसे सम्बंध विशेष बंध की परिभाषा में कैसे लगा दिया ? उत्तर--मोटे रुप से श्रात्मा श्रौर द्रव्यकर्म, नोकर्म रूप शरीर अलग देखने में नही आते हैं, एक दिखते हैं इसलिये बंघ की परिभाषा घटती है । प्रश्न ( ३५७ ) - जीव के व्यवहार बंध को जानने से क्या लाभ रहा ? उत्तर - जीव रागद्वेषादि करता है इसमें द्रव्यकर्म नोकर्म निमित्त होता है भगवान प्रबंधस्वभावी उसमें निमित्त नहीं है इसलिए पात्र जीव प्रबंधस्वभावी की दृष्टि करके लीनता करके सिद्ध दशा प्राप्त कर लेता है जिससे द्रयकर्म, नोकर्म का सम्बंध कभी भी नहीं होता है यह व्यवहार बंध को जानने से लाभ है । प्रश्न ( ३५८ ) - जीव और द्रव्यकर्म के व्यवहार बंध को जरा स्पष्ट समझाइये ? उत्तर - शास्त्रों में योग के कम्पन से प्रकृति और प्रदेश का, Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८) तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग का बंध कहा जाता है। प्रश्न ( ३५९ ) -- योग के कम्पन से प्रकृति और प्रदेश का बंध होता है इसमें क्या जानना चाहिए ? उत्तर -- जीव में योग रुप कम्पन हुआ, वह अपने उपादान स हुआ और प्रकृति प्रदेश अपने उपादान से आया । योगगुण का कम्पन निमित्त है तो प्रकृति प्रदेश नैमित्तिक है, और योग गुण का कम्पन नैमित्तिक है तो प्रदेश, प्रकृति निमित्त है ऐसा सहज ही निमित्त नैमित्तिक सम्बंध है, एक दूसरे के कारण कोई नहीं है । प्रश्न (३६० ) -- पात्र जीव क्या जानता है ? उत्तर- (अ) योग गुण में कम्पन हुआ, इसलिए प्रदेश 'प्रकृति आया, ऐसा नहीं है । (प्रा) प्रकृति, प्रदेश हुआ, तो जीव कम्पन हुआ, ऐसा नहीं है क्योंकि दोनों स्वतंत्र है । प्रश्न ( ३६१ ) -- प्रज्ञानी मानता है ? उत्तर - योग गुण 'में कम्पन होने से प्रकृति प्रदेश प्राता है और प्रकृति, प्रदेश होने से कम्पन होता है प्रज्ञानी ऐसा मानता है यह बुद्धि निगोद का कारण है । प्रश्न ( ३६२ | - मिथ्यात्व रागद्वेषादि से स्थिति और अनुभाग होता है इसमें क्या जानना चाहिये ? उत्तर - (अ) जीव में मिथ्यात्व रागद्व बादिभाव जीव की विभावमर्थ पर्याय है यह जीव के प्रशुद्ध उपादान से है । और कर्म का स्थिति भोर अनुभाग अपने उपादान से है । (आ) जीव के श्रद्धा गुण में विभाव रूप परिणमन अपने उपादान से हैं और दर्शनमोहनीय का उदय अपने उपादान से है । (इ) जीव के चारित्र गुण में विभाव रुप परि Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८६) णमन जीव के अशुद्ध उपादान से है और चारित्र मोहनीय का उदय अपने उपादान से है । । ई) श्रद्धा गुण के विभाव परिणमन में और दर्शनमोहनीय के उदय में निमित्त नैमित्तिक सम्बध है एक दूसरे के कारण नहीं है। (उ) चारित्र गुण के विभाव रुप परिणमन में और चारित्र मोहनीय का उदय में निमित्त-नैमित्तिक सम्बध है एक दूसरे के कारण नही है प्रश्न (३६३)-कैसी बुद्धि छोड़नी है ? उत्तर--जीव के कषायभावों से, अनुभाग. स्थिति हुई औरजीव के योगगुण कम्पन से प्रकृति, प्रदेश आया, यह अनादि की खोटा मान्यता छोड़नी है । और दोनों स्वतत्र अपने २ कारण से हे यह जानकर अपने अबंधस्वभावी भगवान का पाश्रय लेना पात्र जीव का कर्तव्य है। प्रश्न (६६४)-अनुभाग और स्थिति बंध क्या बताता है। उत्तर जीवने कषायभाव किया, यह बताता है कराता नहीं है। प्रश्न (३६५:-प्रकृति और प्रदेश बंध क्या बताता है ? उत्तर-योग गुण में कम्पन है, यह बताता है. कराता नहीं है। प्रश्न (३६६)--द्रव्यकम और नोकर्म क्या बताता है ? उत्तर जीव में मूर्खता है, कराता नहीं है । जैसे हमारी गर्दन टेड़ी हो तो शीशा यह बताता है कि गर्दन टेडी है परन्तु शीशा कराता नहीं है; उसी प्रकार द्रव्यकर्म, नोकर्म यह बताता है कि अभी सिद्ध दशा नहीं है, संसार दशा है, परन्तु द्रव्यकर्म, नोकर्म कराता नहीं है। प्रश्न (३६७)-पुद्गल का निश्चय बंध क्या है। उत्तर-एक परमाणु में विशिष्ट प्रकार की पर्याय होती है वह पुद्गल का निश्चय बंध है। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) प्रश्न (३६८)--पुद्गल परमाणु का निश्चयबंध समझ में नहीं पाया ? उत्तर पुद्गल के स्पर्श गुण की स्निग्ध या रुक्ष पर्याय में दो प्रश है, चार अश है, छह अंश हैं, वह स्पर्श गुण की स्निग्ध, रुक्ष पर्याय में दो अधिक का होना यह परमाणु का निश्चयगंध है। प्रश्न (३६६ )-पुद्गल का व्यवहारबंध क्या है ? उत्तर--(१) प्रौदरिक शरीर, (२) कार्माण शरीर, (३) तेजस शरीर यह सब पुद्गल का व्यवहार बंध है । प्रश्न (३७०)-परमाणु के निश्चयबंध में बंध की परिभाषा कैसे घटी ? उत्तर--परमाणु एक-स्निग्ध और रुक्ष में दो अंश. चार अंश, यह दूसरी चीज हैं। कहने में एक आता है। ज्ञानी अलग अलग जानते है। इसप्रकार बँध की परिभाषा घट जाती है। चार अश प्रादि को भी चीज़ करने में प्राता है। प्रश्न (३७१)-ौदारिक, कार्माण, तेजसशरीर में बंध की परिभाषा कैसे घटी ? उत्तर-औदारिक प्रादि शरीर अनेक पुद्गलों का स्कंध हैं यह अनेक है । कहने में एक आता है। ज्ञानी प्रत्येक परमाणु को पृथक पृथक जानते हैं इसलिए बंध की परिभाषा घट गई। प्रश्न (३७२)-प्रात्मा. बंध और मोक्ष में अकेला है ऐसा कोई शास्त्र का दृष्टान्त है ? उत्तर श्री प्रवचनसार के परिशिष्ट में ४५ वें नय में बताया है कि निश्चयनय से प्रात्मा अकेला ही बद्ध मोर मुक्त होता है। जैसे बंध मोर मोक्ष के योग्य स्निगा या Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६१) रुक्षत्व परिणमित होता हुआ अकेला परमाणु ही बद्ध और मुक्त होता है उसी प्रकार" विचारो: इसमे बताया है कि प्रात्मा अपने आप बंधता है और अपने आप मुक्त होता है यह निश्चयनय का कथन है। परमाणु भी अपनी स्पर्श गुण की स्निग्ध और रुक्षत्व के कारण दो से ज्यादा होने पर बधता है और दो से कमी होने पर छुटता है। प्रश्न (३७३) --जीव और पुद्गल के व्यवहारनय के विषय में कोई शास्त्र का प्राधार बताइये? उत्तर - श्री प्रवचनसार परिशिष्ट में ४४ वें नय में बताया है कि व्यवहारनय से आत्मा, अँध और मोक्ष में पुद्गल के साथ द्वैत को प्राप्त होता है । जैसे परमाणु के बंध में वह परमाणु अन्य परमाणु के साथ संयोग के पाने रुप द्वैत को प्राप्त होता है और परमाणु के मोक्ष में वह परमाणु अन्य परमाणु से पृथक होने पर द्वैत को पाता है उसी प्रकार" ऐसा व्यवहारनय से जीव और पुद्गल के लिए कथन किया है। प्रश्न (३७४)--जीवबध, पुद्गलबंध और उभयबध के विषय में कहीं और कुछ स्पष्ट कहा ह तो बताओ? उत्तर- प्रवचनसार गा० ५७७ में तथा टीका में लिखा है कि "(१) कर्मों का जो स्निग्धता रुक्षता रुप स्पर्श विशेषों के साथ एकत्व परिणाम है सो केवल पुद्गलबंध है। (२) जीव का औपाधिक मोह राग दृष रुप पर्यायो के साथ जो एकत्व परिणाम है सो केवल जीवबंध है। (३) जीव तथा कर्म पुद्गलों के परस्पर परिणाम के निमित्त मात्र से जो विशिष्टितर परस्पर अवगाह है सो Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६२) उभय बंध है [ अर्थात् जीव और कर्म पुद्गल एक दूसरे के परिणाम में निमित्त मात्र होवें. ऐमा जो (विशिष्ट प्रकार का-खास प्रकार का) उनका एक क्षेत्रावगाह सम्बाँध है सो वह पुद्गल जीवात्मक बंध है ] प्रश्न (७५)-जब एक परमाणु का दूसरे परमाणु से निश्चय बाँध नहीं है तब जीव के साथ पुद्गल का सबन्ध कैसे हो सकता है ? उत्तर- कभी नहीं हो सकता है क्योंकि पुद्गल एक जाति के होते हुए उनमे निश्चय बध नही है । तो फिर जीव का पुद्गलो के साथ बधा कैसे हो सकता है ? कभी भी नहीं हो सकता है। प्रश्न (३७६)-जीव और पुद्गल के बंधा के विषय में क्या याद रखना चाहिए? उत्तर (१) जीव और पुद्गल के बंध को व्यवहारबंध कहा है वह दोनों स्वतत्र रुप से अपने अपने उपादान से हैं एक दूसरे के कारण नहीं है । (२) आत्मा और कर्म के साथ बंध होता है यह ज्ञान कराने के लिए सच्ची बात है (३) आत्मा कर्म से बंधता है है यह श्रद्धा छोड़नी है, (४) मेरे में जो रागद्वेष होता है यह निश्चय बंध है। जब तक जीव अपने प्रबंधस्वभावी भगवान प्रात्मा का और रागद्वेष मेरे में मेरी मूर्खता से एक समय का है ऐसा नहीं जानेगा तब तक दूसरे के दोष निकालता रहेगा और ससार परिभ्रमण मिटेगा नहीं। प्रश्न (३७७)-क्या करना? उत्तर-मैं अनादिअनन्त चैतन्य स्वभावी भगवान हूँ मेरी एक समय की पर्याय में मूर्खता मेरे अपराध से है ऐसा जान Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३) कर अपनी ज्ञान की पर्याय को अपनी मोर सन्मुख करे, तो मिथ्यात्व का अभाव होकर सम्यक्त्वादि की प्राप्ति होकर क्रम से मोक्ष का पथिक बने । यह दूसरे बोल का सार है। प्रश्न (३७८)-जिससे सम्यग्दर्शन हो और फिर क्रम से मोक्ष हो, ऐसे पाठ बोलो में से-तीसरा बोल क्या है ? उत्तर- 'इन्द्रिय ज्ञान की मर्यादा क्या है' यह नाम है। प्रश्न (३७६)-क्या इन्द्रियों से ज्ञान नहीं होता है ? उत्तर-कभी भी नही होता है, क्योंकि ज्ञान तो ज्ञान गुण में से प्राता है, इन्द्रियो से नहीं। प्रश्न (३८०)-क्या इन्द्रिय ज्ञान से तात्त्विक निर्णय नहीं होता है ? उत्तर-कभी नहीं होता है, इसलिए इन्द्रिय सुख की तरह इन्द्रिय ज्ञान भी तुच्छ है । प्रतिन्द्रिय सुख और प्रतिन्द्रिय ज्ञान ही उपादेय है । अत: प्रतिन्द्रिय ज्ञान से ही तात्त्विक निर्णय होता है। प्रश्न (३८१)-तात्त्विक निर्णय में इन्द्रियां निमित्त नही है, तो कौन निमित्त है ? उत्तर-प्रागम निमित्त है, अत. अपने प्रात्मा का आश्रय लेकर • अपना निर्णय करे तो उपचार से प्रागम को निमित्त कहा जाता है इन्द्रियो को नही। प्रश्न (३८२)-इन्द्रिय ज्ञान दुःखरुप और हेय है ऐसा कहां लिखा है ? उत्तर--प्रवचनसार गा० ५५ टीका में लिखा है कि "प्रात्मा पदार्थ को, स्वयं जानने के लिए असमर्थ होने से उपात्त (इन्द्रिय मन इत्यादि उपात्त पर पदार्थ हैं) और अनुपात (प्रकाश इत्यादि अनुपात्त पर पदार्थ है) पर पदार्थ रुप Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४) सामग्री को ढूँडने की व्यग्रता से अत्यन्त चंचल-तरलअस्थिर वर्तता हुना, अनन्त शक्ति से च्युत होने से अत्यन्त विकल्व वर्तता हुआ ( घबराया हुआ ) महा मोहमल्ल के जीवित होने से, पर परिणति का (परको परिणमित करने का ) अभिप्राय करने पर भी पद-पद पर ( पर्याय, पर्याय में ) ठगाता हुआ, परमार्थतः अज्ञान में गिने जाने योग्य है; इसलिए वह हेय है । प्रश्न ( ३८३ ) - जिससे सम्यग्दर्शन हो और फिर क्रम से मोक्ष हो, ऐसे आठ बोलों में से चौथा बोल क्या है ? उत्तर-विकारी और अविकारी पर्यायों की स्वतंत्रता का ज्ञान' यह चौथा बोल है । प्रश्न ( ३८४ ) - विकारी, अविकारी पर्यायों की स्वतंत्रता के ज्ञान से क्या तात्पर्य है ? उत्तर - विकारी पर्याय और अविकारी पर्याय, चाहे जीव की हो या प्रजीव की हो, वह ग्रपने में स्वतंत्र रूप से होती है उनका कर्ता द्रव्य स्वयं ही है दूसरा कोई अन्य करता नही है । प्रश्न ( ३८५ ) - क्या विकारी पर्याय जीव, पुद्गल की स्वतंत्र है ? उत्तर - हाँ, दोनों की स्वतंत्र है । यदि जीव यह जाने कि विकार मेरी गल्ती से ही है, तो गल्तीरहित स्वभाव का आश्रय लेकर गल्ती का अभाव कर सकता है और यह जाने गल्ती पर ने कराई है तो कभी भी दूर नहीं कर सकता है इसलिए जीव विकार करने में भी स्वतंत्र है और मिटाने में भी स्वतंत्र है । प्रश्न (३८६ ) - विकारी, अविकारी पर्याय स्वतंत्र हैं ऐसा समयसार में कही आया है ? Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६५) उत्तर-श्री समयसार जयसेनाचार्य कृत सूरत से प्रकाशित गा. १०२, पृष्ट ६८ में लिखा है कि : ...."जो शुभ और अशुभभाव करता है उस भाव का स्वतंत्र रुप से स्पष्टपने कर्ता होता है। और उस मात्मा का वह शुभ व अशुभ परिणाम भावकर्म होता है क्योंकि वह भाव प्रात्मा द्वारा किया गया है।" प्रश्न (३८७)-विकारी, अविकारी पर्याय स्वतंत्र है ऐसा कहीं श्री प्रवचनसार में भी लिखा है या नहीं? उत्तर --- श्री प्रवचनसार ज्ञेय अधिकार जयसेनाचार्यकृत गा० १२२ मे लिखा है कि "जो क्रिया जीव ने स्वाधीनता से शुद्ध या अशुद्ध उपादान कारण रुप से प्राप्त की है वह क्रिया जीव का कर्म है यह सम्मत है। यहां कर्म शब्द से जीव से अभिन्न चैतन्य कर्म को लेना चाहिए। इसी को भावकर्म या निश्चयकर्म भी कहते हैं ... " इसी प्रकार पुद्गल भी जीव के समान निश्चय से अपने परिणामों का ही कर्ता है।', प्रश्न (३८८)-कैसी श्रद्धा करनी चाहिए ? उत्तर-प्रत्येक जीव और पुद्गल की पर्याय विकारी हो या भविकारी हो वह स्वतन्त्र रुप से होती है ऐसी श्रद्धा करनी चाहिए। प्रश्न (३८६)-कैसी श्रद्धा छोड़नी चाहिए? उत्तर-जीव और पुद्गल की पर्याय एक दूसरे स होती है ऐसी खोटी श्रद्धा छोड़नी चाहिए। प्रश्न (३६.)-जीव में विकारी पर्याय स्वतन्त्र होती है इसको जानने से क्या लाभ है ? उत्तर-(१) विकारी पर्याय प्रशुद्ध निश्चयनय का विषय है, तो Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध निश्चनय का माश्रय लेकर प्रभाव कर सकता है । (२) विकारी पर्याय पर्यायाथिकनय का विषय है, तो द्रव्याथिकनय का आश्रय लेकर अभाव कर सकता है (३) विकारी पर्याय पराश्रितो व्यवहार है, तो स्वाश्रितो निश्चय का आश्रय लेकर अभाव कर सकता हैं (४) विकारी पर्याय प्रौदयिकभाव है, तो पारिणामिक भाव का आश्रय लेकर प्रभाव कर सकता है (५) विकारी पर्याय अशुद्ध पारिणामिक भाव है तो परम शुद्ध पारिणामिक भाव का आश्रय लेकर उसका अभाव कर सकता है। इसलिए विकारी भविकारी पर्यायें स्वतंत्र है। प्रश्न (३६१)-जिससे सम्यग्दर्शन हो और फिर क्रम से मोक्ष हो, _ऐसे आठ बोलों में से पांचवा बोल क्या है ? उत्तर-"विकारी पर्याय को पराश्रित क्यों कहा है" यह पांचवा नाम है। प्रश्न (३६२)-विकारी पर्याय स्वतंत्र है तो शास्त्रों में _ विकारी पर्यायों को पराश्रित क्यों कहा है ? उत्तर-विकारी पर्याय स्वतंत्र होते हुए भी विकार में पर का निमित्त होता है इसलिए पर्याय को पराश्रित कहा है । पराश्रित कहने से 'पर से हमा है। ऐसा अर्थ मिथ्या है। प्रश्न (३६३)-विकारी पर्याय को पराश्रित कहा है यह किस शास्त्र में कहा है। उत्तर-परमात्म प्रकाश १७४ वें श्लोक पृष्ट ३१७ में लिखा है कि “यह प्रत्यक्ष भूत स्वसम्वेदन ज्ञानकर प्रत्यक्ष जो आत्मा, वही शुद्ध निश्चय कर अनन्त चतुष्टय स्वरुप, क्षुधादि १८ दोष रहित निर्दोष परमात्मा है तथा वह व्यवहारनय कर अनादि कर्म बंध के विशेष से पराधीन Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९७) हुआ दूसरे का जाप करता है" प्रश्न (३६४)-विकारी पर्याय पराश्रित है इस विषय में श्री समय. सारजी में कहीं कुछ कहा है ? उत्तर-"इससे करो नहि राग वा, संसर्ग, उभय कुशील का । इस कुशील के संसर्ग से है, नाश तुझ स्वातंत्र का ॥१४॥ अर्थ- इसलिए इन दोनों कुशीलों के साथ रागमत करो, अथवा ससर्ग भी मत करो, क्योंकि कुशील के साथ संसर्ग और राग करने से स्वाधीनता का नाश होता है। प्रश्न (३६५)-क्या श्रद्धा करनी और क्या श्रद्धा छोड़नी चाहिए? उत्तर-(१) पर के आश्रय से स्वाधीनता नष्ट होती है। इसने अपना प्राश्रय छोड़ा है, तो पर के साथ सम्बंध जोड़ा है, यह कहने में आता है। वास्तव में ऐसा है नही, ऐसी श्रद्धा करनी । (२) पर के आश्रय से कुछ भी होता है ऐसी खोटी मान्यता छोडनी है क्योकि जिनेन्दभग वान इससे सहमत नहीं है प्रश्न (३९६ --जिनेन्द्र भगवान किससे सहमत नहीं है ? उत्तर-दो द्रव्य की क्रियायों को एक द्रव्य करता है, इससे सहमत नहीं है। प्रश्न (३६७)-जिससे सम्यग्दर्शन हो, फिर क्रम से मोक्ष हो । ऐसे आठ बोलों में से-छटा बोल क्या है ? उत्तर --"जब विकारी पर्याय स्वतंत्र है तो शास्त्रों में स्व-पर प्रत्ययों को क्यों कहा है" यह छटा नाम है। प्रश्न (३९८ :-विकारी पर्याय स्वतंत्र है तो स्व-पर प्रत्यय क्यों कहे गये हैं ? उत्तर-उपादान और निमित्त का ज्ञान कराने के लिए स्व-पर प्रत्यय कहे गये हैं। क्योंकि जहां उपादान होता है वहाँ निमित्त होता ही है, ऐसा वस्तु स्वभाव है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९८) प्रश्न (३६६)-स्व-पर प्रत्यय से क्या तात्पर्य है ? उत्तर-जहां पर दो कारण बताने में आवे तब स्व-पर प्रत्यय कहा जाता है। जैसे जीव पुद्गल चले. तो धर्म-द्रव्य को निमित्त कहा जाता है। तो जीव पुद्गल में क्रियावती शक्ति का गमन रुप परिणमन स्व और धर्म द्रव्य के गतिहेतुत्व का परिणमन पर, इस प्रकार स्व-पर प्रत्यय कहे जाते है। प्रश्न (४००)-स्व-पर प्रत्यय के लिए कोई शास्त्राधार दीजिए? उत्तर-श्री प्रवचनसार जय सेनाचार्य की गा० ६ की टोका में लिखा है कि "जैसे स्फ टेक मणि विशेष निर्मल ह परन्तु जपा पुष्पादि लाल काले श्वेत उपाधिवश से लाल श्वेत वर्ण रुप होता है।" इसमें बताया है स्फटिक निर्मल होने पर भी लाल काला स्वतंत्र परिणमन से हुआ है पर से नहीं। लेकिन पर निमित्त होता है; उसी प्रकार प्रात्मा स्वभाव से शुद्ध होने पर भी उसकी पर्याय मे विकार है कर्म निमित्त है परन्तु विकार कर्म के कारण नहीं है। इसके लिए विशेष तौर से प्रवचनसार गा० १२६ की टीका सहित देखो। प्रश्न (४०१)-व्यवहार में पर की बात क्यों कहने में पाई ? उत्तर-पर का आश्रय कहने में आता है यह व्यवहार कथन है। पर कराता है, ऐसी अनादि की खोटी मान्यता छोड़कर अपना आश्रय लेकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर क्रम से निर्वाण होना, यहजानने का लाभ है। प्रश्न (४०२)-श्री पंचास्तिकाय गा० ६२ में क्या बताया है ? उत्तर- "सर्व द्रव्यों की प्रत्येक पर्याय में छह कारक एक साथ वर्तते हैं, इसलिए प्रात्मा और पुद्गल शुद्ध दशा म या Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९६) अशुद्ध दशा म स्वयं छहों कारक रुप परिणमन करते हैं दूसरे निमित्त कारणों की अपेक्षा नहीं रखते है। प्रश्न (४०३)-यह छटा विभाग क्यों किया ? उत्तर--अज्ञानी अनादि से एक एक समय करके पर के साथ का सच्चा सम्बध मानता है। उस झूठी मान्यता को तुड़ाने के लिए और रागका भी आश्रय छोडकर अपने त्रिकाली आत्मा का प्राश्रय लेकर धर्म की प्राप्ति करे इसलिए छटा विभाग क्रिया है। प्रश्न (४०४}-जिससे सम्यग्दर्शन हो और फिर क्रम से निर्वाण हो ऐसे आठ बोलों में से-सातवें बोल का क्या नाम है ? उत्तर-'प्रत्येक स्कंध में हर एक परमाणु अपना अपना स्वतत्र कार्य करता है। उसका ज्ञान कराने के लिए सातवाँ वोल है। प्रश्न :०५)-पुद्गल के कितने भेद हैं ? उत्तर-परमाणु और स्कंध यह दो भद हैं। प्रश्न (४०६) स्कंध, कितने परमाणु को कहते ह ? उत्तर-दो से लेकर अनन्तानन्त परमाणु तक, सब स्कंध कहलाते है। प्रश्न (४०७)-क्या स्कंध स्वतंत्र द्रव्य नहीं है ? उत्तर-नहीं हैं । परमाणु ही स्वतंत्र द्रव्य है। प्रश्न (४.८ -स्कंध स्वतंत्र द्रव्य नहीं है परमाणु ही स्वतंत्र द्रव्या है इसके लिए कोई शास्त्राधार है ? । उत्तर --(१) नियमसार गाथा २० में लिखा है कि "परमाणु वह पुद्गल स्वभाव है और स्कंध वह विभाव पुद्गल है (२) यह नियमसार गा० २१ से २४ तक में लिखा है कि यह विभाव' पुद्गल के स्वरुप का कथन है । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००) ( ३ ) नियमसार गा० २६ की टीका में लिखा है कि • " शुद्ध निश्चयनय से स्वभाव शुद्ध पर्यायात्मक परमाणु को ही “पुद्गल द्रव्य " ऐसा नाम होता है । अन्य स्कंध पुद्गलों को व्यवहारनय से विभाव पर्यायात्मक पुद्गल पना उपचार द्वारा सिद्ध होता है । इन सब में परमाणु को निश्चय द्रव्य कहा है और स्कंध को व्यवहार से पुद्गल कहा है । प्रश्न (४०६)–स्क ंध स्वतन्त्र द्रव्य नही है परमाणु ही स्वत त्र द्रव्य है इसके लिए श्री पंचास्तिकाय मे कही बताया है ? उत्तर- ( १ ) पचास्तिकाय गा० ७६ में "बादर और सूक्ष्म रुप से परिणत स्कंधों को 'पुद्गल' ऐसा व्यवहार है" ( २ ) पंचास्तिकाय गा० ८१ में लिखा है कि "सर्वत्र परमाणु मे रस-वर्ण-गध स्पर्श सहभावी गुण होते है, और वे गुण उसमे क्रमवर्ती निज पर्यायों सहित वर्तते हैं । .....और स्निग्ध रुक्षत्व के कारण बध होने से अनेक परमाणुओ की एकत्व परिणति रुप, स्कंघ के भीतर रहा हो, तथापि स्वभाव को न छोड़ता हुआ, सख्या को प्राप्त होने से (अर्थात् परिपूर्ण एक की भांति पृथक गिनती मे आने से ) अकेला ही द्रव्य है ।" इसमे बताया है कि स्कध मे भी प्रत्येक परमाणु स्वयं परिपूर्ण है, स्वतंत्र है । पर की सहायता से रहित और अपने से ही अपने गुण पर्यार्यो में स्थित है । प्रश्न (४१०) -स्कध स्वतंत्र द्रव्य नही है, परमाणु ही स्वतंत्र द्रव्य है इसके लिए श्री कहीं कुछ बताया है ? समयसार में उत्तर - श्री समयसार गा० २७ में लिखा है कि "जैसे इस Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०१) लोक में सोने और चांदी को गलाकर एक कर देने से एक पिण्ड का व्यवहार होता है; उसी प्रकार आत्मा और शरीर की परस्पर एक क्षेत्र में रहने की अवस्था होने से एक पने का व्यवहार होता है । यो व्यवहार मात्र से ही आत्मा और शरीर का एकपना है परन्तु निश्चय से देखा जावे तो जसे पीलापन आदि, और सफेदी आदि जिसका स्वभाव है ऐसे सोने, और चांदी में अत्यन्त भिन्नता होने से उनमें एक पदार्थपने की प्रसिद्धि है। इसलिए अनेकत्व ही है" । व्यवहारनय जीव और शरीर को एक कहता है किन्तु निश्चयनय से एक पदार्थपना नहीं है। प्रश्न (४११)-क्या प्रत्येक स्कंध में प्रत्येक परमाणु अलग अलग है ? उत्तर-स्कंध में जितने परमाणु है उसमें प्रत्येक परमाणु पूर्ण रुप से अपना ही कार्य करता है दूसरे का बिल्कुल नही करता, ऐसा ही केवली के ज्ञान में पाया है और ऐसा ही ज्ञानी जानते है। प्रश्न (४१२)-जिससे सम्यग्दर्शन हो और फिर क्रम मोक्ष हो ऐसे पाठ बोलो में से पाठवां बोल क्या है ? उत्तर-अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय के विषय में मिथ्या मान्यता क्या है, यह आठवां बोल है। प्रश्न (४१३)-पर्याय कितने समय की है ? • उत्तर-व्यंजन पर्याय हो, या,अर्थपर्याय हो, चाहे वह स्वभाव रुप हो. या विभाव रुप हो सब एक एक समय की ही होती है ज्यादा समय की कोई भी पर्याय नहीं होती है। प्रश्न (४१४)-श्री पंचास्तिकाय जयसेनाचार्य गा. १६ में लिखा है कि 'अर्थपर्याय अत्यन्त सूक्ष्म, क्षण क्षण में Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०२) होकर नष्ट होने वाली है जो वचन के गोचर नहीं है । व्यंजनपर्याय जो देर तक रहे और स्थूल होती है, अल्पज्ञानी को भी दृष्टिगोचर होती हैं वह व्यंजनपर्याय है । फिर व्यंजनपर्याय एक समय की ही होती है यह बात झूठी साबित हुई ? उत्तर - अरे भाई, व्यंजनपर्याय भी एक ही समय की होती है । परन्तु समय समय की होकर, वैसी की वैसी होने से, देर तक रहे, स्थूल होती है अल्पज्ञानी को भी दृष्टिगोचर होती है यह कहा जाता है, वास्तव में ऐसा ही नहीं । प्रश्न ( ४१५ ) - शास्त्रों में दर्शमोहनीय कर्म की सत्तर कोडाकोडी स्थिति बतलाई, वहाँ एक एक समय की पर्याय कहां रही ? उत्तर - शास्त्रों में जो दर्शन मोहनीय की सत्तर कोडा कोडी की स्थिति बताई है उसका मतलब यह है कि वह स्कंध कब तक रहेगा अर्थात् एक एक समय बदलकर सत्तर कोडाकोडी तक रहेगा, यह तात्पर्य है । प्रश्न (४१६ ) - एक एक समय का एकेक भव रहा, ऐसा शास्त्रों में कहां बताया है ? उत्तर- भाव पाहुड गाथा ३२ की टीका में लिखा हैं कि जो आयु का उदय समय समय करि घट है सो समय समय मरण है ये प्रविचिका मरण है" $............ 1 इसमें बताया है कि जीव समय समय में मरता है, क्योंकि पर्याय एक एक समय की होती है । वास्तव में एक एक समय का एक एक भव है, क्योंकि सूक्ष्मऋजुसूत्र नय की अपेक्षा गति कितनी देर तक चलेगी यह बात . भावपाहुड़ में बताई है। इसलिए "जैसी मति, वैसी गति" Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०३) होती है। और 'जैसी गति, वैसी मति' होती है। प्रश्न (४१७)-'जैसीमति, वैसीगति' से क्या तात्पर्य है ? उत्तर- जीव जिस समय जैसा भाव करता है वह उस समय वह ही है, यह तात्पर्य है । जैसे-मनुष्य भव होने पर घर पर ज्यादा प्रादमी हैं वहां अांख लाल पीली नाकरें और जरा फूफाँ नाकरें तो लोग बिगड़ जाबे, ऐसा जान कर जो जीव फूफाँ करता है वह उस समय साँप ही हैं। प्रश्न (४१८)-'जैसी गति, वेसी मति' से क्या तात्पर्य है ? उत्तर- जैसे-कोई जीव सांप बन गया तो वहां वह एक एक समय करके फूफां ही करता रहेगा अर्थात् वैसा का वैसा करता रहने की अपेक्षा 'जैसी गति, वैसी मति' कहा जाता है। परन्तु सब जगह पर्याय एक ही समय की होती है ऐसा जानना। प्रश्न (४१६)-शब्द तो स्कंधों की पर्याय है, उसमें एक समय की बात किस प्रकार है ? उत्तर- जब तक परमाणु रहता है तब तक उसका शब्द रुप परिणमन नहीं हैं। स्कंध रुप पर्याय में अपनी योग्यता से शब्द रूप पर्याय है। शब्दरुप स्कंध में एक एक परमाणु अलग अलग रुप से स्वतन्त्र परिणमन कर रहा है। स्कंध संयोग रुप होकर विभाव रुप परिणमन होता है उसमें एक एक परमाणु पृथक पृथक हैं, वह अपनी अपनी एक एक समय की पर्याय सहित वर्त रहा है।। प्रश्न (४२०)-जीव के विकारी भावों के विषय में और द्रव्य कर्म के उदय प्रादि के विषय में क्या जानना चाहिए? उत्तर-जीव में एक एक समय में जो विकारी भाव होता है, वैसा वैसा अपनी योग्यता से पुद्गलों में भी समय समय परिणमन होता है। जैसे-जीब में क्षयोपशम भाव हुमा तो द्रष्य कर्म में Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०४) भी क्षयोपशम भाव एक समय पर्यन्त स्वतत्र होता है। प्रश्न (४२१)-जब जीव में भावकर्म हुआ तब द्रव्यकर्म होता है ऐसा कही लिखा है ? उत्तर-(१) प्रात्मावलोकन में लिखा है कि "भाववेदनी, भावप्राय, भावनाम, भावगोत्र उसके सामने द्रव्यवेदनी, द्रव्यप्रायु, द्रव्यनाम, द्रव्यगोत्र होता है। (२) प्रवचनसार गा० १६ की टीका के अन्त में लिखा है कि "द्रव्य तथा भाव घातिकर्मों को नष्ट करके स्वयमेव आविर्भूत हुआ। प्रश्न (४२२)-जब जीव में भावकर्म होता है तब द्रव्यकर्म स्वय __ मेव अपनी योग्यता से होता है इससे हमें क्या लाभ है ? उत्तर -११) एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से किसी भी प्रकार का सम्बंध नहीं है। (२) प्रत्येक द्रव्य में अनन्त अनन्त गुण है, प्रत्येक गुण में हर समय एक पर्याय का व्यय और दूसरी पर्याय की उत्पत्ति,गुण वैसा का वैसा रहता है । ऐसा प्रत्येक द्रव्य के प्रत्येक गुण में अनादि से हुआ है, वर्तमान में हो रहा है और भविष्य में ऐसा ही होता रहेगा। ऐसा सब द्रव्यों में द्रव्यगुण पर्यायस्वरुप पारमेश्वरी व्यवस्था है; इसे तीर्थकर देव आदि कोई भी हेर फेर नहीं कर सकते हैं ऐसा जानकर, अपने त्रिकाली भगवान की दृष्टि करके सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति करके क्रम से मोक्ष का पथिक बनना प्रत्येक पात्र जीव का परम कर्तव्य है। अनादि से अनन्त काल तक जिन, जिनवर और जिनवर वृषभों ने पर्याय का ऐमा स्वरूप बताया है बता रहे है, और बतायेंगे उन सबके चरणों में अगणित नमस्कार ॥ ॥ जय गुरुदेव ॥ Page #211 --------------------------------------------------------------------------