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(१०६ ) से हो, और स्वय दूसरे गुणों से रहित हों, वह गण है
ऐसा बताया है। प्रश्न (५५)-पर्याय भी द्रव्य के आश्रित रहती है और पर्याय
में भी गण का लक्षण घटने से अतिव्याप्ति दोष
आता है ? उत्तर-बिल्कुल नहीं पाता क्योंकि "द्रव्याश्रया" पद होने से
अर्थात् जो नित्य द्रव्य के प्राश्रित रहता है उस गण की बात है पर्याय की नहीं। इसलिए 'द्रव्याश्रया' पद से पर्याय इसमें नही पाती क्योंकि पर्याय एक समयवती ही होती है इसलिये गुण के लक्षण में प्रतिव्यात्ति दोष
नहीं आता। प्रश्न (५६)-गुण को समझने से क्या लाभ रहा ? उत्तर-(१) प्रत्येक गुण अपने अपने द्रव्य के आश्रित
रहता है, (१) एक द्रव्य का गुण दूसरे द्रव्य का या गुण का
कुछ नहीं कर सकता; (३) एक द्रव्य का गण दूसरे द्रव्य को या गुण को
प्रेरणा, असर, मदद नहीं कर सकता है; (४) एक द्रव्य का गुण उसी द्रव्य के दूसरे गुण में भी
कुछ नहीं कर सकता क्योंकि भाव अलग २ हैं। प्रश्न (५७)-ऐसा गुणों का स्वरुप समझने से क्या लाभ है ? उत्तर-मैं जीव द्रव्य हूं, और अपने अनन्तगुणों से भरपूर हैं।
तीनों काल श्रीमंत हूँ, रंक नही हूँ, ऐसा जानकर अपने गुणों के पिण्ड भगवान में लीन होना यह गुणों का स्वरुप समझने से लाभ है।