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उत्तर -- जो स्वयं गतिपूर्वक स्थितिरुप परिणमित जीव प्रौर पुद्गलों को स्थिर होने में निमित्त हो उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं । जैसे पथिक को स्थिर रहने में वृक्ष की छाया ।
प्रश्न ६१ ) -- प्रधमं द्रव्य को कब माना ?
उत्तर - प्रत्येक जीव श्रौर पुद्गल अपनी अपनी क्रियावती शक्ति से ही ठहरता है प्रधर्म द्रव्य से नहीं ठहरता है। मैं ( आत्मा ) शरीर को ठहराता हूँ, शरीर जीव को ठहराता है ऐसा नही है परन्तु जीव पुद्गल स्वयं चल कर स्थिर होते है तब अधर्म द्रव्य निमित्त है ऐसा ज्ञान हो तब धर्मद्रव्य को माना ।
प्रश्न (६२) - मैं सामायिक करने के लिए स्थिर होता हूं प्रज्ञानी कहता है कि शरीर अपनी क्रियावती शक्ति के कारण स्थिर हुम्रा, मैं स्थिर होने में निमित्त तो हूँ ना, क्या यह बात ठीक है ?
- बिल्कुल गलत है। अज्ञानी मिथ्यात्व के कारण, श्रधर्म द्रव्य स्वयं चलकर स्थिर हुए जीव पुद्गलों को निमित्त होता है ऐसा न मानकर स्वयं श्रधर्मेंद्र व्य बन गया । अपने अभिप्राय में अधर्मद्रव्य का नाश माना, इसका फल निगोद है ।
उत्तर
प्रश्न (६३) -- अधर्मद्रव्य कितने हैं और कहाँ कहाँ रहते हैं ? उत्तर - अधर्मद्रव्य एक ही है औौर सम्पूर्ण लोकाकाश में फैला हुभा है।