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दर्शन बिन दुःख पाय । तहंतें चय थावर तन घरं, यों परिवर्तन पूरे करे" ।। यह जीव वैमानिक देवों में भी उत्पन्न हुआ किन्तु वहां उसने सम्यग्दर्शन के बिना दुःख उठाये और वहां से भी मरकर पृथ्वीकायिक श्रादि स्थावरों के शरीर धारण किये ।
(२) तीसरी ढाल में लिखा है कि सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना चाहे जितना ज्ञान का उघाड़ हो वह मिथ्याज्ञान है और सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना कितने ही व्रत तपादि हो वह सब मिथ्याचारित्र हैं ।
(३) चौथी ढाल में "मुनिव्रत धार अनन्तबार ग्रीवक उपजायो । पैनिज भातम ज्ञान बिना सुख लेश न पायी ॥ यह जीव मुनि के महाव्रतों को धारण करके उनके प्रभाव से नववें ग्रैवेयक तक के विमानों में अनन्त बार उत्पन्न हुआ, परन्तु आत्मा के भेद विज्ञान बिना लेश मात्र सुख प्राप्त नहीं हुआ ।
(४) लाख बात की बात यही निश्चय उर लामो । तोरि सकल जग दंद फंद, नित प्रतम ध्यान ॥
प्रश्न ( ८७ ) - श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार जो कि श्रावकों के लिए है क्या उसमें भी अपना अनुभव हुए बिना श्रणुव्रत, महाव्रत, दयादान, पूजादि कार्यकारी नहीं हैं, ऐसा कहीं लिखा है ?
उत्तर - ( १ ) सब जगह लिखा है परन्तु शुरु करते ही दूसरे श्लोक के भावार्थ में लिखा है कि संसार में "धर्म" ऐसा तो सब लोग कहते हैं, किन्तु धर्म शब्द का अर्थ तो ऐसा