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उत्तर-सात प्रकार के शब्दों से मेग कोई सम्बंध नहीं हैं
मैं अशब्द स्वभावी भगवान प्रात्मा हूँ ऐसा जानकर अपना आश्रय ले तो शान्ति प्राप्त हो और कर्ण इन्द्रियों
के विषयों की एकत्व बुद्धि का अभाव हो। प्रश्न (२६३.-ममयसार की ४६ में गाथा में क्या कहाँ है ? उत्तर-'जीव चेतना गुण, शब्द-रस-रुप-गध-व्यक्ति विहीन है ।
निर्दिष्ट नही संस्थान उसका, ग्रहण है नहि लिंग से ॥ ४६ ।। अथं :- हे भव्य तू जीव को रसरहित, रुपरहित, गंधरहित, इन्द्रियगोचर नहीं, शब्द रहित है ऐसा जान. वह चेतना गुण द्वारा दृष्टि में आता है किसी पर चिन्हों से, किसी के प्राकार से दृष्टि में नहीं आ सकता
है ऐसा कहा है। प्रश्न (२६४)-गा. ४६ में स्पर्शादि से रहित क्यों कहा है ? उत्तर -- स्पर्शरसादि की २७ पर्यायों में जीव पागल है उससे
दृष्टि हटाकर अपने पर दृष्टि देवे इसलिए कहा है । प्रश्न (२६५ -गाथा ४६ की टीका में स्पर्श रस आदि के
कितने कितने बोल लिये हैं और उनमें क्या क्या __समझाया है ? उत्तर-रस, रुप, गंध, स्पर्श और शब्द के प्रत्येक के छह छह
बोलो से इनका निषेध करके आत्मा को अरस अरुप, अगंध, अस्पर्श. अशब्द बताया है क्योंकि अज्ञानी २७ पर्यायों में पागल है उसका पागल पन मिटे और शान्ति
प्राप्त हो यह समझाया है। प्रश्न (२६६ गा. ४६ की टीका में छह छह बोलों से अलग