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(६२) उत्तर-छह द्रव्य जाने, उनमें समान रूप से पाया जाने वाले
दस प्रकारों को जाना, उनमे से मेरी आत्मा को छोड़कर मेरा किसी भी दूसरे जीवों से तथा बाकी पाँच द्रव्यों के द्रव्य गुण पर्यायो के साथ किसी भी प्रकार का कोई सम्बंध नही है, मात्र मेरा तो अपने अनन्त गुणों के अभेद पिण्ड ज्ञायक भगवान के गुण पर्यायों के साथ ही प्रयोजन है, और से नहीं ऐसा जानकर अपने में लीन होना यह दस
प्रकारों को जानने का लाभ है। प्रश्न (१६६)-मेरी आत्मा का तो अपने गुण पर्यायों के साथ
प्रयोजन है और से नहीं इससे क्या लाभ है ? उत्तर-मैं (जीव) सदैव अरुपी होने से मेरे अवयव भी सदैव
अरूपी ही हैं इसलिए किसी भी काल में निश्चय से या व्यवहार से हाथ पैर आदि को चलाना, स्थिर रखना प्रादि परद्रव्य की कोई भी अवस्था मै (जीव) नहीं कर सकता ऐसा निर्णय होना यह अपने गुण पर्यायों को जानने
का लाभ है। प्रश्न (२००)-छहढाला में जीव का स्वरूप (अर्थात् मेरा स्वरूप)
क्या बताया है और क्या नही, उसे स्पष्ट समझायो ? उत्तर-“चेतन को है उपयोम रूप, बिनमूरत चिन्मूरत अनूप ।
पद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनते न्यारी है जीव चाल" अर्थ :--मेरा काम ज्ञाता द्रष्टा है, आंख नाक कान शरीर हाथ पांव जैसी मेरी मूरत नहीं है; चैतन्य अरूपी मेरा प्राकार है, सर्वज्ञ स्वभावी ज्ञान पदार्थ होने से मेरी प्रात्मा अनुपम है, मेरे अलावा अनन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश एकेक और लोक प्रमाण