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( ६५ ) विकार के आश्रय से नहीं तो फिर (१) भगवान की पूजा करो, (२) दर्शन करो, (३) पूजा करो (४) यात्रा करो, १५) अणुव्रत पालो (६) महाव्रत पालो प्रादि का उपदेश
क्यों दिया है ? उत्तर–पात्र भव्य जीव ने अपने अनन्त गणों के अभेद पिण्ड
ज्ञायक भगवान आत्मा का परिपूर्ण आश्रय लेने का प्रयत्न किया, परन्तु परिपूर्ण आश्रय ना ले सका अर्थात् मोक्ष नहीं हुमा, परन्तु मोक्षमार्ग की प्राप्ति हुई, तो मोक्षमार्ग में चारित्र गुण की एक समय की पर्याय में दो अंश पड़ जाते हैं उसमें जो शुद्धि अंश है वह सच्चा मोक्ष मार्ग है और जो भूमिकानुसार राग है वह ज्ञानियो को हेय बुद्धि से होता है उसका ज्ञान कराने के लिए भगवान की पूजा
करो, यात्रा करो आदि का उपदेश है। प्रश्न (७२)-चौथे गुणस्थान मे सम्यग्दृष्टि की दृष्टि कहाँ रहती है
और अनन्तानुबंधी क्रोधादि के अभावरूप स्वरुपाचरण
चारित्र के साथ कैसा राग होता है, कैसा नहीं होता है ? उत्तर--चौथे गुणस्थानी की दृष्टि एक मात्र अपने अनन्त
गुणों के अभेद पिण्ड पर रहती है और जैसे महावीर स्वामी के जीव को सिंह पर्याय में सम्यग्दर्शन हुना तो मांस उसका भोजन होने पर मांस का विकल्प भी नहीं पाया; उसी प्रकार जिस को प्रत्यक्ष मद्य, मांस मधु कहते हैं उनके खाने का विकल्प भी नहीं होता है गरदन कटती हो तो कटे परन्तु कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र को नमने आदि का विकल्प नहीं प्रावेगा । सच्चे देव गुरु शास्त्र को ही नमने का विकल्प हेय बुद्धि से होता है। याद रहे करता नहीं, परन्तु होता है।