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(२१) नहीं माना और अपने अभिप्राय में अपने प्रात्मा का
प्रभाव माना। प्रश्न (३८)-मैं पर का कर सकता हूँ ऐसी मान्यता वाले ने
अभिप्राय में प्रात्मा का नाश माना यह बात
कहाँ आई है ? उत्तर-समयसार गा० १०० के चार बोल हैं उसके प्रथम
बोल में आया है कि “यदि प्रात्माव्याप्य-व्यापक भाव से पर द्रव्य का कर्ता बने तो अभिप्राय में प्रात्मा
के नाश का प्रसंग उपस्थित होवेगा।" प्रश्न (३६)-पुद्गलास्तिकाय का संधि अर्थ क्या है ?
पुजुड़ना-मिलना गल=बिखरना अस्ति होना
काय इकट्ठा होना (समूह) प्रश्न (४०)-पुद्, अर्थात्, जुड़ना, मिलना है इससे क्या तात्पर्य है? उत्तर-किताब के पन्ने विखरे पड़े थे, वह 'पुद्' से जुड़े हैं।
रुपया बिखरा पड़ा था वह 'पुद्' से इकट्ठा हुआ है। चावल के दाने बिखरे पड़े थे वह 'पुद्' से इकट्ठा हुए हैं । कमरे में सामान इकट्ठा हुमा यह 'पुद्' से हुआ
अर्थात् पुद्गल का कार्य है जीव का नहीं,यह तात्पर्य है। प्रश्न (४१)-'पु' को समझने से पात्र जीव को क्या लाभ
हमा?