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“અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૧૩૯
જૈન સાહિત્ય સંશોધક વર્ષ-૦૨ - અંક-૧, ૨
: દ્રવ્ય સહાયક :
કચ્છવાગડ દેશોદ્ધારક અધ્યાત્મયોગી પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી વિજય કલાપૂર્ણસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના શિષ્યરત્ન ગચ્છનાયક પ.પૂ. આચાર્ય શ્રીમદ્વિજય કલાપ્રભસૂરિશ્વરજી મ.સા.ના
આજ્ઞાવર્તિની પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી સૂર્યયશાશ્રીજી તથા સાધ્વીજી શ્રી સિદ્ધપ્રભાશ્રીજી મ.સા. ની પ્રેરણાથી રૂક્ષ્મણીબેન ઉપાશ્રય, સાબરમતી, અમદાવાદના આરાધક શ્રાવિકાઓની જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-380005
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૬૮ ઈ.સ. ૨૦૧૨
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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર - સંવત ૨૦૬૫ (ઈ. ૨૦૦૯) – સેટ નં-૧
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. या पुस्तको वेबसाइट परथी पए। डाउनलोड झरी शडाशे.
પુસ્તકનું નામ
કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક
ક્રમાંક
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
સંયોજક – શાહ બાબુલાલ સરેમલ
શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीराउन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमहावाह - 04.
(मो.) ९४२५५८५८०४ (ख) २२१३२५४3 ( भेल) ahoshrut.bs@gmail.com
020
021
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023
024
025
श्री नंदीसूत्र अवचूरी
| श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
001
002
003
004
005
006
007
008
शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम् शिल्परत्नम् भाग-१
009
010
शिल्परत्नम् भाग-२
प्रासादतिलक
011
012 काश्यशिल्पम्
013
प्रासादमञ्जरी
014
राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
015
शिल्पदीपक
016
017
018
019
श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता
श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
अपराजित पृच्छा
वास्तुसार
दीपार्णव उत्तरार्ध
જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
जैन ग्रंथावली
હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
न्यायप्रवेशः भाग - १
| दीपार्णव पूर्वार्ध
अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
पू. मेघविजयजी गणि म.सा.
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा.
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा.
पू. मानतुंगविजयजी म. सा.
श्री बी. भट्टाचार्य
| श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
| श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री विनायक गणेश आपटे
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नारायण भारती गोंसाई
श्री गंगाधरजी प्रणीत
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स
શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની
| श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा.
श्री एच. आर. कापडीआ
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
પૃષ્ઠ
238
286
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18
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810
850
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054
तत्त्पोपप्लवसिंहः
शक्तिवादादर्शः
क्षीरार्णव
वेधवास्तु प्रभाकर
शिल्परत्नाकर
प्रासाद मंडन
श्री सिद्धम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय- १ श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
(?)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
(૩)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय - ५ વાસ્તુનિઘંટુ
તિલકમન્નરી ભાગ-૧
તિલકમન્નરી ભાગ-૨
તિલકમન્નરી ભાગ-૩
સપ્તસન્માન મહાકાવ્યમ્
સપ્તભઙીમિમાંસા
ન્યાયાવતાર
વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક
સામાન્યનિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સપ્તભઙીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
નયોપદેશ ભાગ-૧ તરઙિણીતરણી
નયોપદેશ ભાગ-૨ તરઙિણીતરણી
ન્યાયસમુચ્ચય
સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
જ્યોતિર્મહોદય
श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री
पं. भगवानदास जैन
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
પૂ. ભાવખ્યસૂરિનીમ.સા.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
પૂ. ભાવખ્યસૂરિનીમ.સા.
પૂ. ભાવયસૂરિની મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા)
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
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શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
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સંયોજક – શાહ બાબુલાલ સરેમલ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनार, साबरमती, महावा६-०५. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४3 (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com मही श्रुतज्ञानम् jथ द्धार - संवत २०५६ (. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्ता वेबसाईट ५२थी up SIGनती री शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ભાષા त्त-21511२-संपES પૃષ્ઠ | 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहद्न्यास अध्याय-६ सं पू. लावण्यसूरिजी म.सा. 296 056 | विविध तीर्थ कल्प
पू. जिनविजयजी म.सा. 057 लारतीय श्रम संस्कृति सनेमन
४. पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसरि
202 059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि
48 0608न संगीत रागमाला
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी
306 | 061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
श्री रसिकलाल एच. कापडीआ
322 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
पु. मेघविजयजी गणि
516 064 | विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 ઉપદેશમાલા દોઘટ્ટી ટીકા ગુર્જરીનુવાદ | गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 मोहराजापराजयम्
| सं पू. चतुरविजयजी म.सा.
192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य 072 जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 073 | मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 0748 सामुदिनां यथो
४४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी |
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254 260.
75 જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 076 જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 077 સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 78 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 079 શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 08 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ 082 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083 આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ 084 | કલ્યાણ કારક 085 | વિવાનો વન વોશ 086]
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 | કથા રત્ન કોશ ભાગ-2
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| ગુજ. | શ્રી સારામાં નવા ગુજ. | શ્રી સરામારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિયા સારામારૂં નવાવ | ગુજ. | શ્રી સારામારૂં નવાવ ગુજ. | શ્રી મનસુલતાન મુરમન, ગુજ. | શ્રી નાગન્નાથ મંવારમાં ગુજ. | શ્રી નવીન્નાથ મંગારામ ગુજ.
| श्री जगन्नाथ अंबाराम ગુજ. . 3ન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શાસ્ત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરન તોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નીવરીન
प. मेघविजयजीगणि | पू.यशोविजयजी, पू.
पुण्यविजयजी મારા શ્રી વિનયર્શનસૂરિની
114
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336
230
088 | હસ્તસગ્નીવનમ
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089/
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
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090 |
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
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हिन्दी | मुन्शाराम
316 224
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार-संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची।यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/ टीकाकार भाषा | संपादक / प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना | 92 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना 95 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी सं. वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
गौरीशंकर ओझा
मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी
सं./गु
| हेमचंद्राचार्य जैन सभा
| 104 | लघु प्रबंध संग्रह
जयंत पी. ठाकर
ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी
आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
| सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४,५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी | 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि | पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा
| अरविन्द धामणिया | 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा | 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा सं./हि | नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118| प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा | 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री
| फार्बस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा | 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल | 123 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल | 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
जिनविजयजी
जैन सत्य संशोधक
612 307 250 514 454 354 337
354 372 142 336
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
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100 136 266 244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार-संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची।यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/ संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब
गुज. | साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब
| साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज
गुज.
| हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
| कुंवरजी आणंदजी | गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. ब्रज. बी. दास बनारस 133 | करण प्रकाश
ब्रह्मदेव
सं./अं. सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी
गुज. यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास | गुज.. गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास | गुज. गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१, २
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140| जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज.
| शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भास्वति
| शतानंद मारछता सं./हि एच.बी. गप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
| भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी । जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर
हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
| विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी । सं. ब्रीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
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संरक्षक-श्रीयुत सेठ हरगोविंददास रामजी शाह-मुंबई.
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खंड २१ जैन ? साहित्य संशोधक
(जैन इतिहास, साहित्य, तत्त्वज्ञान आदि विषयक सचिन पत्र )
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संपादकमुनि श्रीजिनविजयजी (एम्. आर. ए. एस्.)
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लेख सूचि १ योग दर्शन-ले० श्रीयुत पं. सुखलालजी २. कुंरपाल सोणपाल प्रशस्ति-ले० प्रो. बनारसी दासजी जैन एम्. ए. २६ ३. सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत-ले. श्रीयुत पं. नाथूरामजी प्रेमी... ३६ ४. कीरग्रामनो जैन शिलालेख-संपादकीय ... ५. महाकवि पुष्पदंत और उनका सहापुराण-ले० श्रीयुत पं. नाथूरामजी प्रेमी ५७ ६. प्रो० ल्युमन अने आवश्यकसूत्र-ले० मुनि जि० वि० वकील के प्रे० मोदी ८१ ७. स्वाध्याय-समालोचन ... ...
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प्रकाशक
जैन साहित्य संशोधक कार्यालय.
1.00000051
टि. भारत जैन विद्यालय-पूना शहर. ज्येष्ठ, विक्रम सं. १९७९] महावीर नि. सं. २४४९ [जुलाई १९२३.
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ग्राहक वर्गने निवेदन पहेला खंडनो छेल्लो अंक बहार पड्यां पछी आजे लगभग दोढ वर्ष करतांए वधारे संशय पछी आ अंक ग्राहकोना हाथमां गुकतां अमारे ग्राहक वर्गने शुं निवेदन करवू ते काई सूझतुं नथी. आ अंक छपाववानी शरुआत संवत् १९७८ ना आखा त्रजिना दिवसे थई हती पण तेनी समाप्ति सं० १९७९ ना जेठमां थाय छे. आटला बधा विलंबनां कारणो आपी देवाथी पण असने के प्राहकवर्गने सन्तोष थाय तेप लागतुं नथी तेथी असे ए संबन्धमा 'मौनं सर्वार्थसाधकं' नी नीतिन अनुसरी भूतकालने भूली जवानी भलामण करिए छीए; अने भविष्य साटे आशा आपीए छीए के, हवे पछी जेल बनशे तेत वेळासर ज प्राहकोना हाथसां अंक पहुंची जाय तेवी दरेक कोशीश करवामां आवशे.
-मुनि जिनविजय.
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जैन साहित्य संशोधकना द्वितीय खण्डमां केवा केवा विषयो आवशे ते जाणवू होय
तो आ नाचेनी नोंध ध्यानपूर्वक वांचो बीजा खण्डमां, जैन धर्मना प्राचीन गौरव उपर अपूर्व प्रकाश पाडनारा अनेक प्राचीन शिलालेखो अने ताम्रपत्रो प्रकट थशे.
बीजा खण्डमां, जैन संधना संरक्षक जुदा जुदा गच्छोनी पट्टावलियो प्रसिद्ध थशे. बीजा खण्डसां, जैन साहित्यना आभूषणभूत प्रन्थोना परिचयो अने तेनी प्रशस्तिओ प्रसिद्ध थशे. बीजा खण्डमां, जैन अने बौद्ध साहित्यनी तुलना करनारा प्रौढ अने गंभीर लेखो आवशे. बीजा खण्डमां, भगवान महावीर देवना निर्वाण समय संबंधी जुदा जुदा विद्वानोए लखेला लेखोना भाषान्तरो तथा स्वतंत्र लेख आवशे.
बीजा खण्डमां, प्रो० वेबरनो लखली जन आगमानी विस्तृत समालोचना आपवामां आवशे. बीजा खण्डमां, जैन साहित्यमा उल्लिखित प्राचीन स्थळोनां वर्णनो आवशे. बीजा खण्डमां, बौद्ध साहित्यमा जैनधर्मविषये शा शा विचारो लखाएला छे तेना विचित्र अने अज्ञातपूर्व उल्लेखो आवशे. बीजा खण्डमां, जैन संघमा आजपर्यंत थई गएला प्रसिद्ध पुरुषोना परिचयो आपवामां आवशे.
आ सिवाय बीजा पण अनेक नाना मोटा अपूर्व अपूर्व लेखो प्रकट करवामां आवशे अने साथे तेवां ज सुन्दर, मनहर, दर्शनीय अने संग्रहणीय अनेक चित्रो पण यथायोग्य आपवालां आवशे. वळी, आ खण्डमां कटेलाक ऐतिहासिक प्राचीन प्रबन्धो, अने पट्टावलिओ पण पूळ रूपे आपवामां आवनार छे. उदाहरण तरीके सेरुतुंगाचार्य विरचित विचारणि; उपकेशगच्छ, तपागच्छ, खरतरगच्छ, बृहत्पोशालिक गच्छ आदिनी पट्टावली; जुना रासा; चैत्य परिपाटि; तीर्थ आळा, अने विज्ञप्ति इत्यादि. इत्यादि.
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जैन साहित्य संशोधक २८
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浮浮浮浮浮浮浮 长长长长长长长长长长长 येनूर ( दक्षिण कर्णाटक ) स्थान स्थित मनुष्याकार दिगम्बर जैन प्रतिमा
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॥ ॐ अहम् ॥ ॥ नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते महावीराय ॥
जैन सा हि त्य संशोधक
'पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि । सच्चस्साणाए उवट्ठिए मेहावी मारं तरइ ।'
ने एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एग जाणइ ।' 'दिलु, सुयं, मयं, विण्णायं जं एत्य परिकहिज्जइ ।'
-निम्रन्थप्रवचन-आचारांगसूत्र ।
-
%
खंड २ ]
हिंदी लेख विभाग.
[ अंक १
योग दर्शन
(लेखकः-पं. सुखलालजी न्यायाचार्य)
प्रत्येक मनुष्य व्याक्त अपरिमित शक्तियोंके तेजका पुञ्ज है, जैसा कि सूर्य । अत एव राष्ट्र तो भानों अनेक सूर्योका मण्डल है। फिर भी जब कोई व्यक्ति या राष्ट्र असफलता या नैराश्य के भँवर में पडता है तब यह प्रश्न होना सहज है कि इसका कारण क्या है ? । बहुत विचार कर देखनेसे मालूम पडता है कि असफलता व नैराश्यका कारण योगका ( स्थिरताका) अभाव है, क्यों कि योग न होनेसे बुद्धि संदेहशील बनी रहती है, और इससे प्रयत्नकी गति अनिश्चित हो जानेके कारण शाक्तियां इधर उधर टकरा कर आदीको बरबाद कर देती हैं। इस कारण सब शक्तियोंको एक केन्द्रगामी बनाने तथा साध्यतक पहुंचानके लिये अनिवार्यरूपसे सभीको योगकी जरूरत है। यही कारण है कि प्रस्तुत व्याख्यानमाला में योगका विषय रक्खा गया है।
*जरात पुरातत्त्व मंदिरकी ओरसे होनेवाली आर्यविद्याव्याख्यानमालामें यह व्याख्यान पढ़ा गया था।
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२
1
जन साहित्य संशोधक
।
खंड २
इस विषयकी शास्त्रीय मीमांसा करनेका उद्देश यह है कि हमें अपने पूर्वजोंकी तथा अपनी सभ्यताकी प्रकृति ठीक मालूम हो, और तद्द्वारा आर्यसंस्कृतिके एक अंशका थोडा, पर निश्चित रहस्य विदित हो ।
योगदर्शन यह सामासिक शब्द है । इसमें योग और दर्शन ये दो शब्द मौलिक हैं ।
योग शद्धका अर्थ--योग शब्द युज् धातु और घञ् प्रत्ययसे सिद्ध हुवा है । युज् धातु दो हैं । एकका अर्थ है जोडनाl और दूसरेका अर्थ है समाधि2-मनःस्थिरता । सामान्य रीतिसे योगका अर्थ संबन्ध करना तथा मानसिक स्थिरता करना इतना ही है. परंतु प्रसंग व प्रकरणके अनुसार उसके अनेक अर्थ हो जानेसे वह बहरूपी बन जाता है। इसी बहरूपिताके कारण लोकमान्यको अपने गीतारहस्यमें गीताका तय दिलानेके लिये योगशब्दार्थनिर्णयकी विस्तृत भूमिका रचनी पडी है। परंतु योगदर्शनमें योग शब्दको अर्थ क्या है यह बतलानेके लिये उतनी गहराईमें उतरनेकी कोई आवश्यकता नहीं है; क्यों कि
दर्शनविषयक सभी ग्रन्थों में जहां कहीं योग शब्द आया है वहां उसका एक ही अर्थ है, और उस अर्थका स्पष्टीकरण उस उस ग्रन्थमें ग्रन्थकारने स्वयं ही कर दिया है। भगवान पतंजलिने अपने योगसूत्रमें4 चित्तवृति निरोधको ही योग कहा है, और उस ग्रन्थमें सर्वत्र योग शब्दका वही एक मात्र अर्थ विवक्षित है । श्रीमान् हरिभद्र सूरिने अपने योग विषयक सभी ग्रन्थोंमें मोक्ष प्राप्त कराने वाले धर्मव्यापारको ही योग कहा है; और उनके उक्त सभी ग्रन्थों में योग शब्दका वही एक मात्र अर्थ विवक्षित है । चित्तवृत्तिनिरोध और मोक्षप्रापक धर्मव्यापार इन दो वाक्योंके अर्थमें स्थूल दृष्टिसे देखने पर बडी भिन्नता मालूम होती हैं, पर सूक्ष्म दृष्टिसे देखने पर उनके अर्थकी अभिन्नता स्पष्ट मालम हो जाती है । क्यों कि 'चित्तवृत्तिनिरोध' इस शब्दसे वही क्रिया या व्यापार विवक्षित है जो मोक्षके लिये अनु
और जिससे चित्तकी संसाराभिमख वृत्तियां रुक जाती हों।' मोक्षप्रापक धर्मव्यापार ' इस शब्दसे भी वही क्रिया विवक्षित है । अत एव प्रस्तुत विषयमें योग शब्दका अर्थ स्वाभाविक समस्त आत्मशक्तियोंका पूर्ण विकास करानेवाली क्रिया अर्थात् आत्मोन्मुख चेष्टा इतना ही समजना चाहिये । योगविषयक वैदिक, जैन और बौद्ध ग्रन्थों में योग, ध्यान, समाधि ये शब्द बहुधा समानार्थक देखे जाले हैं।
दर्श न शब्द का अर्थ-नेत्रजन्यज्ञान,7 निर्विकल्प (निराकार) बोध,8 श्रद्धा, मत10 आदि अनेक अर्थ दर्शन शब्दके देखे जाते हैं । पर प्रस्तुत विषयमें दर्शन शब्दका अर्थ मत यशी एक विवक्षित है ।
योगके आविष्कारका श्रेय—जितने देश और जितनी जातियोंक आध्यात्मिक महान् पुरुषोंकी जीवनकथा तथा उनका साहित्य उपलब्ध है उसको देखनेवाला कोई भी यह नहीं कह सकता है कि आध्यात्मिक विकास अमुक देश और अमुक जातिकी ही बपौती है, क्यों कि सभी देश और सभी जातियों में न्यूनाधिक रूपसे आध्यात्मिक विकासवाले महात्माओंके पाये जानेके प्रमाण मिलते हैं11 । योगका संबन्ध आध्यात्मिक विकाससे है । अत एव यह स्पष्ट है कि
१ युनूंपी योगे,-७ गण हेमचंद्र धातुपाठ. २ युजिंच समाधौ,-४ गण हेमचंद्र धातुपाठ, ३ देखो पृष्ठ ५५ से ६० । ४ पा, १ सू. २-योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । ५ योगबिन्दु श्लोक ३१-- अध्यात्म भावनाऽऽध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षेण योजनाद्योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।। योगावशिका गाथा ॥१॥
६ लोर्ड एवेबरीने जो शिक्षाकी पूर्ण व्याख्या की है वह इसी प्रकारकी है:- “ Education is the harmonious developement of all our faculties." ७ दृशं प्रेक्षणे-१ गण हेमचन्द्र धातुपाल. ८ तत्त्वार्थ अध्याय २ सूत्र ६-श्लोक वार्तिक. ९ तत्त्वार्थ अध्याय १ सूत्र २. १. पदर्शन समुच्चय-श्लोक २-"दर्शनानि षडेवात्र" इत्यादि. ११ उदाहरणार्थ जरथोस्त, इसु, महम्मद आदि.
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अंक १]
योगद नि
योगका अस्तित्व सभी देश और सभी जातियोंमें रहा है । तथापि कोइ भी विचारशील मनुष्य इस बातका इनकार नहीं कर सकता है कि योगके आविष्कारका या योगको पराकाष्ठा तक पहुंचानेका श्रेय भारतवर्ष और आर्यजातिको ही है । इसके सबूतमें मुख्यतया तीन बातें पेश की जा सकती हैं । १ योगी, ज्ञानी, तपस्वी आदि आध्यात्मिक महापुरुषोंकी बहुलता; २ साहित्यके आदर्शकी एकरूपता; और ३ लोकरुचि ।
१. योगी, ज्ञानी, तपस्वी आदि आध्यात्मिक महापुरुषोंकी संख्या भारतवर्ष में पहिलेसे आज तक इतनी बड़ी रही है कि उसके सामने अन्य सब देश और जातियों के आध्यात्मिक व्यक्तियोंकी कुल संख्या इतनी अल्प जान पडती है जितनी कि गंगाके सामने एक छोटीसी नदी ।
[
२. साहित्यके आदर्शकी एकरूपता - तत्त्वज्ञान, आचार, इतिहास, काव्य, नाटक आदि साहित्यका कोई भी भाग लीजिये उसका अन्तिम आदर्श बहुधा मोक्ष ही होगा । प्राकृतिक दृश्य और कर्मकाण्डके वर्ण - नने वेदका बहुत बडा भाग रोका है सही, पर इसमें संदेह नहीं कि वह वर्णन वेदका शरीर मात्र है; उसकी आत्मा कुछ ओर ही है-और वह है परमात्मचिंतन या आध्यात्मिक भावोंका आविष्करण । उपनिषदोंका प्रासाद तो ब्रह्मचिन्तनकी बुनियाद पर ही खडा है । प्रमाणविषयक, प्रमेयविषयक कोई भी तत्त्वज्ञान संबन्धी सूत्रग्रन्थ हो ; उसमें भी तत्वज्ञानके साध्यरूपसे मोक्षका ही वर्णन मिलेगा 1 | आचारविषयक सूत्र स्मृति आदि सभी ग्रन्थोंमें आचारपालनका मुख्य उद्देश मोक्ष ही माना गया 2 है । रामायण, महाभारत आदिके मुख्य पात्रोंकी महिमा सिर्फ इस लिये नहीं कि वे एक बडे राज्य के स्वामी थे, पर वह इस लिये है कि अंतमें वे संन्यास या तपस्याके द्वारा मोक्षके अनुष्ठान में ही लग जाते हैं । रामचन्द्रजी प्रथम ही अवस्थामें वशिष्ठसे योग और मोक्षकी शिक्षा पा लेते हैं। युधिष्ठिर भी युद्ध रस लेकर बाण शय्यापर सोये हुए भीष्मपितामह से शान्तिका ही पाठ पढते 4 हैं । गीता तो रणांगण में भी मोक्षके एकतम साधन योगका ही उपदेश देती है । कालिदास जैसे शृंगार प्रिय कहलानेवाले कवि भी अपने मुख्य पात्रोंकी महत्ता मोक्षकी और झुकनेमें ही देखते हैं । जैन आगम और बौद्ध पिटक तो निवृत्तिप्रधान होनेसे मुख्यतया मोक्षके सिवाय अन्य विषयों का वर्णन करनेमें बहुत ही संकुचाते हैं । शब्दशास्त्र में
---1 वैशेषिकदर्शन, अ० १ सू० ४ धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां ' साधर्म्यवैधम्यभ्यिां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम् । - न्यायदर्शन अ० १ सू० १ प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवर कीनर्णयवाद जल्पवितण्डाहेत्वाभासहल जातिनिग्रह स्थानानां तत्वज्ञानान्निःश्रेयसम् ॥ सांख्यदर्शन, अ. १ अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः ॥ - वेदान्तदर्शन अ०४, पा० ४, सू० २२ अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात् ॥ - जैनदर्शन तच्चार्थ अ० १ सू० १ सम्यग्दर्शनशान चारित्राणि मोक्षमार्गः || 2 याज्ञवल्क्यस्मृति अ. ३ यतिधर्मानिरूपणम् ; मनुस्मृति अ. १२ श्लोक ८३. 3 देखो योगवाशिष्ठ 4 देखो महाभारत - शान्तिपर्व 5 कुमारसंभव - सर्ग ३ तथा ५ तपस्या वर्णनम् शाकुन्तल नाटक अंक ४ कण्वोक्ति.
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भूत्वा चिराय चतुरन्तमही सपत्नी, दौष्यन्तिमप्रतिरथं तनयं निवेश्य ।
भर्त्रा तदर्पितकुटुम्बभरेण सार्थ, शान्ते करण्यास पदं पुनराश्रमेऽस्मिन् ॥
शैशवेऽभ्यस्तविद्यानाम् यौवने विषयैषिणाम् । वार्द्धके मुनिवृत्तीनाम् योगेनान्ते तनुत्यजाम् ||८|| सर्ग १ अथ स विषयव्यावृत्तात्मा यथाविधि सूनवे नृपतिककुदं दत्त्वा यूने सितातपवारणम् ।
मुनिवनतरुच्छायां देव्या तया सह शिश्रिये, गलितवयसामिचाणामिदं हि कुलतम् ॥ ७० ॥ रघुवंश, ३
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४]
जैन साहित्य संशोधक
खंड २
भी शब्दशुद्धिको तत्त्वज्ञानका द्वार मान कर उसका अन्तिम ध्येय परम श्रेय ही माना है । विशेष क्या ? कामशास्त्र तकका भी आखिरी उद्देश मोक्ष है । इस प्रकार भारतवर्षीय साहित्यका कोई भी स्रोत देखिये उसकी गति समुद्र जैसे अपरिमेय एक चतुर्थ पुरुषार्थकी ओर ही होगी।
. ३ लोकाच-आध्यात्मिक विषयकी चर्चावाला और खासकर योगविषयक कोई भी ग्रन्थ किसीने भी लिखा कि लोगोंने उसे अपनाया । कंगाल और दीन हीन अवस्थामें भी भारतवर्षीय लोगोंकी उक्त आभसाच यह सूचित करती है कि योगका सम्बन्ध उनके देश व उनकी जातिमें पहलेसे ही चला आता है। इसी कारणसे भारतवर्षकी सभ्यता अरण्यमें उत्पन्न हुई कही जाती है 1। इस पैत्रिक स्वभावके कारण जब कभी भारतीय लोग तर्थियात्रा या सफरके लिये पहाडों, जंगलों और अन्य तीर्थस्थानों में जाते हैं तब वे डेरा तंबू डालनेसे पहले ही योगियोंको, उनके मठोंको और उनके चिन्ह तकको भी ढूंढा करते हैं । योगकी श्रद्धाका उद्रेक यहां तक देखा जाता है कि किसी नंगे बावेको गांजेकी चिलम फूंकते या जटा बढाते देखा कि उसके मुंहके धुंएमें या उसकी जटा व भस्मलेपमें योगका गन्ध आने लगता है । भारतवर्षके पहाड, जंगल और तीर्थस्थान भी बिलकुल योगिशून्य मिलना दुःसंभव है । ऐसी स्थिति अन्य देश और अन्य जातिमें दुर्लभ है। इससे यह अनुमान करना सहज है कि योगको आविष्कृत करनेका तथा पराकाष्ठा तक पहुंचानेका श्रेय बहुधा भारतवर्षको और आर्यजातिको ही है । इस बातकी पुष्टि मेक्षमूलर जैसे विदेशीय और भिन्न संस्कारी विद्वान्के कथनसे भी अच्छी तरह होती है।2
आर्यसंस्कृतिकी जड और आर्यजातिका लक्षण---ऊपरके कथनसे आर्यसंस्कृतिका मूल आधार क्या है, यह स्पष्ट मालूम हो जाता है । शाश्वत जीवनकी उपादेयता ही आर्यसंस्कृतिकी भित्ति है । इसी पर आर्यसंस्कृ. तिके चित्रोंका चित्रण किया गया है । वर्णविभाग जैसा सामाजिक संगठन और आश्रमव्यवस्था जैसा वैयक्तिक जीवनविभाग उस चित्रणका अनुपम उदाहरण है । विद्या, रक्षण, विनिमय और सेवा ये चार जो वर्णविभागके उद्देश्य हैं, उनके प्रवाह गार्हस्थ्य जीवनरूप मैदानमें अलग अलग बह कर भी वानप्रस्थके मुहानेमें मिलकर अंतमें संन्यासाश्रमके अपरिमेय समुद्रमें एकरूप हो जाते हैं | सारांश यह है कि सामाजिक, राजनै
क, धार्मिक आदि सभी संस्कृतियोंका निर्माण, स्थूलजीवनकी परिणामविरसता और आध्यात्मिक-जीवनकी परिणामसुन्दरता ऊपर ही किया गया है। अत एव जो विदेशीय विद्वान् आर्यजातिका लक्षण स्थूलशरीर, उसके डीलडोल, व्यापार-व्यवसाय, भाषा, आदिमें देखते हैं वे एकदेशीय मात्र हैं। खेतीबारी, जहाजखेना, पशुओंको चराना आदि जो जो अर्थ आर्यशन्दसे निकाले गये हैं वे आर्यजातिके असाधारण लक्षण नहीं है। आर्यजातिका असाधारण लक्षण तो परलोकमात्रकी कल्पना भी नहीं है, क्यों कि उसकी दृष्टिमै वह लोक भी त्याज्य है । उसका सच्चा और अन्तरंग लक्षण स्थूल जगत्के उसपार वर्तमान परमात्मतत्त्वकी एकाग्रबुद्धिसे उपासना करना यही है। इस सर्वव्यापक उद्देश्यके कारण आर्यजाति अपनेको अन्य सब जातियोंसे श्रेष्ठ समझती आई है।
१ द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् । शब्दब्रह्माण निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।। व्याकरणात्पदसिद्धः पदसिद्धरनिर्णयो भवति । अर्थात्तत्त्वज्ञानं तत्त्वज्ञानात्परं श्रेयः ॥
श्रीहेमशब्दानुशासनम् अ.१ पा. १सू. २ लघुन्यास, २" स्थाविरे धर्म मोक्षं च" कामसूत्र अ. २ पृ. ११ Bombay Edition.
1 देखो कविवर टागोर कृत " साधना" पृष्ठ ४. " Thus in India it was in the forests that our civilization had its birth......ete"
2 This concentrtion of thought (एकाग्रता) or one-pointedness as the Hindus called it, Is something to us almost unknown.
इत्यादि देखो. पृ. २३-वोल्युम १-सेक्रेड बुक्स ओफ धि ईस्ट, मेक्षमूलर-प्रस्तावना.
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अंक १]
पोदगर्शन
[५
शान और योगका संबन्ध तथा योगका दरजा--व्यवहार हो या परमार्थ, किसी भी विषयका सान तभी परिपक्क समझा जा सकता है जब कि ज्ञानानुसार आचरण किया जाय । असलमें यह आचरण ही योग है । अत एव ज्ञान योगका कारण है । परन्तु योगके पूर्ववर्ति जो शान होता है वह अस्पष्ट होता है। और योगके बाद होनेवाला अनुभवात्मक ज्ञान स्पष्ट तथा परिपक्क होता है। इसीसे यह समझ लेना चाहिये कि स्पष्ट तथा परिपक्क शानकी एक मात्र कुंजी योग ही है। आधिभौतिक या आध्यात्मिक कोई भी योग हो, पर वह जिस देश या जिस जातिमें जितने प्रमाणमें पुष्ट पाया जाता है उस देश या उस जातिका विकास उतना ही अधिक प्रमाणमें होता है । सच्चा ज्ञानी वही है जो योगी है। जिसमें योग या एकाग्रता न योगवाशिष्ठकी परिभाषामें ज्ञानबन्धु है। योगके सिवाय किसी भी मनुष्यकी उत्क्रान्ति हो ही नहीं सकती, क्यों कि मानसिक चंचलताके कारण उसकी सब शक्तियां एक ओर न बह कर भिन्न भिन्न विषयोंमें टकराती हैं, और क्षीण हो कर यों ही नष्ट हो जाती हैं । इसलिये क्या किसान, क्या कारीगर, क्या लेखक, क्या शोधक, क्या त्यागी सभीको अपनी नाना शक्तियोंको केन्द्रस्थ करेनेके लिये योग ही परम साधन है।
व्यावहारिक और पारमार्थिक योग--योगका कलेवर एकाग्रता है, उसकी आत्मा अहत्व ममत्वका त्याग है । जिसमें सिर्फ एकाग्रताका ही संबन्ध हो वह व्यावहारिक योग, और जिसमें एकाग्रताके साथ साथ अहंत्व ममत्वके त्यागका भी संबन्ध हो वह पारमार्थिक योग है । यदि योगका उक्त आत्मा किसी भी प्रवृत्तिमें-चाहे वह दुनियाकी दृष्टि में बाह्य ही क्यों न समझी जाती हो-वर्तमान हो तो पारमार्थिक योग ही समझना चाहिये । इसके विपरीत स्थूलदृष्टिवाले जिस प्रवृत्तिको आध्यात्मिक समझते हों, उसमें भी यदि योगका उक्त आत्मा न हो तो उसे व्यवहारिक योग ही कहना चाहिये । यही बात गीताके साम्यगर्भित कर्मयोगमें कही गई है।
यो ग की दो धा रा ये-व्यवहारमें किसी भी वस्तुको परिपूर्ण स्वरूपमें तैयार करनेके लिये पहले दो बातोंकी आवश्यकता होती है । जिनमें एक शान और दूसरी क्रिया है । चितेरेको चित्र तैयार करनेसे पहले उसके स्वरूपका. उसके साधनोंका और साधनोंके उपयोगका ज्ञान होता है, और फिर वह ज्ञान के अनुसार क्रिया भी करता है। तभी वह चित्र तैयार कर पाता है। वैसे ही आध्यात्मिक क्षेत्रमें भी मोक्षके जिज्ञासके लिये बन्धमोक्ष, आत्मा और बन्धमोक्षके कारणोंका, तथा उनके परिहार, उपादानका ज्ञान होना जरूरी है। एवं ज्ञानानुसार प्रवृत्ति भी आवश्यक है। इसी से संक्षेपमें यह कहा गया है कि "शानक्रियाभ्यां मोक्षः"। योग क्रियामार्गका नाम है । इस मार्गमें प्रवृत्त होनेसे पहले अधिकारी, आत्मा आदि आध्यात्मिक विषयोंका आरंभिक ज्ञान शास्त्रसे, सत्संगसे, या स्वयं प्रतिभा द्वारा कर लेता है । यह तत्त्वविषयक प्राथमिक ज्ञान प्रवर्तक ज्ञान कहलाता है। प्रर्वतक ज्ञान प्राथमिक दशाका शान होनेसे सबको एकाकार और एकसा नहीं हो सकता । इसीसे योगमार्गमें तथा उसके परिणामस्वरूप मोक्षस्वरूपमें तात्त्विक भिन्नता न होने पर भी योगमा
1 इसी अभिप्रायसे गीता योगिको शानीसे अधिक कहती है । गीता अ. ६ श्लोक ४६तपस्विभ्योऽधिको योगी शानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद् योगी भवार्जुन ! ॥ , गीता अ. ५ श्लोक ५--- यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ 3 योगवाशिष्ठ निर्वाण प्रकरण, उत्तरार्ध, सर्ग २१व्याचष्टे यः पठति च शास्त्रं भोगाय शिल्पिवत् । यतते न त्वनुभने शानबन्धुः स उच्यते ।। आत्मज्ञानमनासाद्य सानान्तरलवेन ये । सन्तुष्टाः कष्टं चेष्टते ते स्मृता शानबन्धवः ॥ इत्यादि । 4 अ. २ श्लोक ४योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय! सिदसिद्धयोः सम्मे भल्या समत्वं योग उच्यते ॥
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जैन साहित्य संशोधक
६]
के प्रवर्तक प्राथमिक ज्ञानमें कुछ भिन्नता अनिवार्य है । इस प्रवर्तक ज्ञानका मुख्य विषय आत्माका अस्तित्व है । आत्माका स्वतंत्र अस्तित्व माननेवालोंमें भी मुख्य दो मत हैं- पहला एकात्मवादी और दूसरा नानात्मबादी । नानात्मवादमें भी आत्माकी व्यापकता, अव्यापकता, परिणामिता, अपरिणामिता माननेवाले अनेक पक्ष हैं। पर इन वादोंको एकतरफ रख कर मुख्य जो आत्माकी एकता और अनेकताके दो वाद हैं उनके आधार पर योगमार्गकी दो धारायें हो गई हैं। अत एव योगविषयक साहित्य भी दो मार्गों में विभक्त हो जाता है । _कुछ उपनिषदें, 1 योगवाशिष्ठ, हठयोगप्रदीपिका आदि ग्रन्थ एकात्मवादको लक्ष्यमें रख कर रचे गये हैं । महाभारतगत योग प्रकरण, योगसूत्र तथा जैन और बौद्ध योगग्रन्थ नानात्मवादके आधार पर रचे गये हैं ।
योग और उसके साहित्य के विकास का दिग्दर्शन-आर्यसाहित्यका भाण्डार मुख्यतया तीन भागों में विभक्त है - वैदिक, जैन और बौद्ध । वैदिक साहित्यका प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद है । उसमें आधिभौतिक और आधिदैविक वर्णन ही मुख्य है । तथापि उसमें आध्यात्मिक भाव अर्थात् परमात्मचिन्तनका अभाव नहीं है 2 | परमात्मचिंतनका भाग उसमें थोडा है सही, पर वह इतना अधिक स्पष्ट, सुन्दर और भावपूर्ण है कि उसको ध्यानपूर्वक देखनेसे यह साफ मालूम पड जाता है कि तत्कालीन लोगोंकी दृष्टी केवल बाह्य न थी
ध्यानबिन्दु, तेजोबिन्दु, शिखा,
1 ब्रह्मविद्या, क्षुरिका, चूलिका, नादबिन्दु, ब्रह्मबिन्दु, अमृतबिन्दु, योगतत्त्व, हंस, इत्यादि । -
2 देखो " भागवताचा उपसंहार "
पृष्ठ २५२.
3 उदाहरणार्थ कुछ सूक्त दिये जाते हैं। ऋग्वेद मं. १ सू. १६४-४६
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् । एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ॥ भाषांतर:- लोग उसे इन्द्र, मित्र, वरुण, या अनि कहते हैं । वह सुंदर पांखवाला दिव्य पक्षी है । एक । ही सत्का विद्वान् लोग अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं। कोई उसे अभि, यम या वायु भी कहते हैं ।
ऋग्वेद मण्ड. ६ सू. ९
विमे कर्णो पतयतो वि चक्षुर्वीदं ज्योतिर्हृदय आहितं यत् ।
वि मे मनश्वरति दूर आधीः किंस्विद् वक्ष्यामि किमु नु मानिष्ये ॥ ६ ॥
[ खंड २
विश्वे देवा अनमस्यन् भियानास्त्वाम ! तमसि तस्थिवांसम् । वैश्वानरोऽवतूतये नोऽमर्त्योऽवतूतये नः ॥ ७ ॥ भाषांतरः -- मेरे कान विविध प्रकारकी प्रवृत्ति करते हैं । मेरे नेत्र, मेरे हृदयमें स्थित ज्योति और मेरा दूरवर्ती मन [भी] विविध प्रवृत्ति कर रहा है । मैं क्या कहुं और क्या विचार करूं ? । ६ । अंधकार-स्थित हे अनि ! तुजको अंधकार से भय पानेवाले देव नमस्कार करते हैं । वैश्वानर हमारा रक्षण करे । अमर्त्य हमारा रक्षण करे । ७ ।
ऋग्वेदः -- पुरुषसूक्त, मण्डल १० सू० ९०
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १ ॥ पुरुष एवेदं सर्वे यद्भूतं यच्च भव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ २ ॥
एतावानस्य महिमाSतो ज्यायांश्च पूरुषः । पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३ ॥
भाषांतरः -- ( जो ) इजार सिरवाला, हजार आंखवाला, हजार पाँववाला पुरुष ( है ) वह भूमिको चारों ओर से घेर कर ( फिर भी ) दस अंगुल बढ कर रहा है । १ । पुरुष ही यह सब कुछ है जो भूत और जो भाबि । ( वह ) अमृतत्वका ईश अन्नसे बढ़ता है । २ । इतनी इसकी महिमा - इससे भी वह पुरुष अधिकतर है । सारे भूत उसके एक पाद मात्र है - इसके अमर तीन पाद स्वर्ग में है । ३
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अंक १ ]
योगदर्शन
इसके सिवा उसमें ज्ञान 1, श्रद्धा 2, उदारता 3, ब्रह्मचर्य 4, आदि आध्यत्मिक उच्च मानसिक भावोंके चित्र भी बड़ी खूबीवाले मिलते हैं। इससे यह अनुमान करना सहज है कि उस जमानेके लोगोंका झुकाव अध्यात्मिक अवश्य था । यद्यपि ऋग्वेद में योगशब्द अनेक स्थानोंमें आया है 5, पर सर्वत्र उसका अर्थ प्रायः जोडना इतना ही है, ध्यान या समाधि अर्थ नहीं है । इतना ही नहीं बल्कि पिछले योग विषयक साहित्यमें ध्यान, वैराग्य, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि जो योगप्रक्रिया - प्रसिद्ध शब्द पाये जाते हैं वे ऋग्वेदमें बिलकूल नहीं हैं। ऐसा होनेका कारण जो कुछ हो, पर यह निश्चित है कि तत्कालीन लोगोंमें ध्यानकी भी रुचि थी । ऋग्वेदका ब्रह्मस्फुरण जैसे जैसे विकसित होता गया और उपनिषद के जमाने में उसने जैसे ही विस्तृत रूप धारण किया वैसे वैसे ध्यानमार्ग भी अधिक पुष्ट और साङ्गोपाङ्ग होता चला । यही कारण है कि प्राचीन उपनिषदोंमें भी समाधि अर्थ में योग भ्यान आदि शब्द पाये जाते हैं । श्वेताश्वतर उपनिषद में तो स्पष्ट रूपसे योग तथा योगोचित स्थान, प्रत्याहार, धारणा आदि योगाङ्गोंका वर्णन है 7 । मध्यकालीन और अर्वाचीन अनेक उपनिषदें तो सिर्फ योगविषयक ही ऋग्वेदःपु० सूक्त मं. १९ सू. १२१
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥
१ ॥
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः । यस्य च्छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ २ ॥
भाषांतर :-- पहले हिरण्यगर्भ था । वही एत भूत मात्रका पति बना था। उसने पृथ्वी और इस आकाशको धारण किया। किस देवको हम इविसे पूजें १ । १ । जो आत्मा और बलको देनेवाला है । जिसका विश्व है। जिसके शासनकी देव उपासना करते हैं। अमृत और मृत्यु जिसकी छाया है। किस देवको हम हविसे पूजें ? । २ ।
ऋग्वेद मं. १०-१२९-६ तथा ७–
को अद्धा वेद क इह प्रवोचन् कुत आ जाता कुत इयं विसृष्टिः । अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आ बभूव ॥ इयं विसृष्टिर्यत आ बभूव यदि वा दधे यदि वा न । यो अस्याध्यक्ष परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥
भाषांतर:- कौन जानता है-कौन कह सकता है कि यह विविध सृष्टि कहाँसे उत्पन्न हुई ? | देव इसके विविध सर्जन के बाद ( हुवे ) हैं । कोन जान सकता है कि यह कहांसे आई ? यह विविध सृष्टि कहांसे आई और स्थिति में है या नहीं ? यह बात परम व्योममें जो इसका अध्यक्ष है वही जाने - कदाचित् वह भी न जानता हो ।
1 मं. १० सू. ७१ । 2 मं. १० सू. १५१ । ३ मं. ११ सू. ११७ । 4 मं. १४ सू. १० 5 मंडल १ सूक्त ३४ मंत्र ९ । मं. १० सू. १६६ मं. ५ । मं. १ सू. १८ मं. ७ । मं. १ सू. ५ मं. ३ । मं. २ सू. ८ मं. १ । मं. ९ सू. ५८ मं. ३ ।
6 ( क ) तौत्तरिय २-४ । कठ २-६-११। श्वेताश्वतर २ – ११, ६- ३ | ( ख ) छान्दोग्य ७–६–१, ७–६–२, ७–७–१, ७–२६ - १ | श्वेताश्वतर १-१४ । कोशतिकि ३ -२, ३-३, ३४, ३-६॥ 7 श्वेताश्वतरोपनिषद् अध्याय २
त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिरुध्य । झोपेन प्रतरेत विद्वान्सोतांसि सर्वाणि भयावहानि ॥ ८ ॥ प्राणान्प्रपङियेह सयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोसीत । दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं विद्वान्मनो धारयेताप्रमत्तः ॥ ९ ॥ समे शुचौ शर्करावन्हिवालुकाविवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः । मनोनुकूले न तु चक्षुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत् ॥ १० ॥ इत्यादि.
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जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
हैं, जिनमें योगशास्त्रकी तरह सांगोपांग योगप्रक्रियाका वर्णन है8 । अथवा यह कहना चाहिये कि ऋग्वेदमें जो परमात्मचिन्तन अंकुरायमाण था वही उपनिषदोंमें पल्लवित-पुष्पित हो कर नाना शाखा-प्रशाखाओंके साथ फल अवस्थाको प्राप्त हवा । इससे उपनिषदकालमें योगमार्गका पुष्टरूपमें पाया जाना स्वाभाविक ही है।
उपनिषदोंमें जगत, जीव और परमात्मसम्बन्धी जो तात्त्विक विचार है, उसको भिन्न भिन्न ऋषियोंने अपनी दृष्टिसे सूत्रोंमें अथित किया, और इस तरह उस विचारको दर्शनका रूप मिला । सभी दर्शनकारोंका आखिरी उद्देश मोक्ष ही रहा है, इससे उन्होंने अपनी अपनी दृष्टिसे तत्त्वविचार करनेके बाद भी संसारसे छुट कर मोक्ष पानेके माधनोंका निर्देश किया है । तत्त्वविचारणामें मतभेद हो सकता है, पर आचरण यानी चारित्र एक ऐसी वस्तु है जिसमें सभी विचारशील एकमत हो जाते हैं । विना चात्रिका तत्त्वज्ञान कोरी बातें हैं। चारित्र यह योगका किंवा योगांगौंका संक्षिप्त नाम है । अत एव सभी दर्शनकारोंने अपने अपने सूत्रग्रंथों में साधन रूपसे योगकी उपयोगिता अवश्य बतलाई है । यहां तक कि-न्यायदर्शन, जिसमें प्रमाण पद्धतिका ही विचार मुख्य है,उसमें भी महर्षि गौतमने योगको स्थान दिया है।। महर्षि कणादने तो अपने वैशेषिक दर्शनमें यम, नियम, शौच आदि योगांगांका भी महत्त्व गाया है2। सांख्यसूत्रमें योगप्रक्रियाके वर्णनवाले कई सूत्र हैं। ब्रह्मसूत्र में महर्षि बादरायणने तो तीसरे अध्यायका नाम ही साधन अध्याय रक्खा है, और उसमें आसन ध्यान आदि योगांगोंका वर्णन किया है4। योगदर्शन तो मुख्यतया योगविचारका ही ग्रन्थ ठहरा, अत एव उसमें सांगोपांग योगप्रक्रियाकी मीमांसाका पाया जाना सहज ही है। योगके स्वरूपके सम्बन्धमें मतभेद न होनेके कारण और उसके प्रतिपादनका उत्तरदायित्व खासकर योगदर्शनके उपर होनेके कारण अन्य दर्शनकारोंने अपने अपने सूत्र ग्रन्थोंमें थोडासा योगविचार करके विशेष जानकारीके लिये जिशासुओंको योगदर्शन देखनेकी सूचना दे दी है। पूर्वमीमांसामें महर्षि जैमिनिने योगका निर्देश तक नहीं किया है सो ठीक ही है, क्यों कि उसमें सकाम कर्मकाण्ड अर्थात् धूम-मार्गकी ही मीमांसा है । कर्मकाण्डकी पहुंच
8 ब्रह्मविद्योपनिषद्, क्षुरिकोपनिषद्, चूलिकोपनिषद्, नादबिन्दु, ब्रह्मबिन्दु, अमृतबिन्दु, ध्यानबिन्दु, तेजोबिन्दु, योगशिखा, योगतत्त्व, हंस इत्यादि । देखो द्युसेनकृत-Philosphy of the Upanishads
. *-प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः । गौ० सू० १, १, १॥-धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधाभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम् ॥ वै. सू. १, १,४॥-अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्त पुरुषार्थः। सां० ० १,१॥-पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चि यो० स० ४,३३॥-अनावृत्तिः शब्दादनावत्तिः शब्दात ।ब. स. ४.४.२२-सम्यग्दर्शन मोक्षमार्गः । तत्वार्थ सू० १-१ जैन० द० ।-बौद्ध दर्शनका तीसरा निरोध नामक आर्यसत्य ही मोक्ष है।
1 समाधिविशेषाभ्यासात् ४-२-३८ । अरण्यगुहापुलिनादिषु योगाभ्यासोपदेशः ४-२-४२ । तदर्थ यमनियमाभ्यासात्मसंस्कारो योगाचाध्यात्मविध्युपायैः ४-२-४६ ॥
2 अभिषेचनोपवासब्रह्मचर्यगुरुकुलवासवानप्रस्थयशदानप्रोक्षणदिइनक्षत्रमन्त्रकालनियमाश्चादृष्टाय । ६-२ -२ । अयतस्य शुचिभोजनादभ्युदयो न विद्यते, नियमाभावाद्, विद्यते वाऽर्थान्तरत्वाद् यमस्य । ६-२-८ ।
3 रागोपहतिर्ध्यानम् ३-३० । वृत्तिनिरोधात् तसिद्धिः ३-३१ । धारणासनस्वकर्मणा तसिद्धिः ३-३२ । निरोधश्छर्दिविधारणाभ्याम् ३-३३ । स्थिरसुखमासनम् ३-३४।।
4 आसीनः संभवात् ४-१-७ । ध्यानाच ४-१-८ । अचलत्वं चापेक्ष्य ४-१-९ । स्मरन्ति च ४-१-१०। यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् ४-१-११।
.. 5 योगशास्त्राचाध्यात्मविधिः प्रतिपत्तव्यः । न्यायदर्शन ४-२-४६ भाष्य ।
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अंक १]
योगदर्शन
वर्गतक ही है, मोक्ष उसका साध्य नहीं । और योगका उपयोग तो मोक्षके लिये ही होता है। - जो योग उपनिषदोंमें सूचित और सूत्रोंमें सूत्रित हैं, उसीकी महिमा गीतामें अनेक रूपसे गाई गई हैं। उसमें योगकी तान कभी कमके साथ, कभी भक्तिके साथ और कभी शानके साथ सुनाई देती है।। उसके छठे
और तेरहवें अध्यायमें तो योगके मौलिक सब सिद्धान्त और योगकी सारी प्रक्रिया आ जाती है2 । कृष्णके द्वारा अर्जुनको गतिाके रूपमें योगशिक्षा दिला कर ही महाभारत सन्तुष्ट नहीं हुआ। उसके अथक स्करको देखते हुए कहना पडता है कि ऐसा होना संभव भी न था। अत एव शान्तिपर्व और अनुशासनपर्वमें योगविषयक अनेक सर्ग वर्तमान हैं, जिनमें योगकी अथेति प्रक्रियाका वर्णन घुनरुक्तिकी परवा न करके किया गया है। उसमें बाणशय्यापर लेटे हुए भीष्मसे बार बार पूछनेमें न तो युधिष्ठिरको ही कंटाला आता है, और न उस सुपात्र धार्मिक राजाको शिक्षा देनेमें भीष्मको ही थकावट मालूम होती है।
योगवाशिष्ठका विस्तृत महल तो योगकी ही भूमिकापर खडा किया गया है। उसके छह 4 प्रकरण मानों उसके सुदीर्घ कमरे हैं, जिनमें योगसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी विषय रोचकतापूर्वक वर्णन किये गये हैं। योगकी जो जो बातें योगदर्शनमें संक्षेपमें कही गई हैं, उन्हींका विविधरूपमें विस्तार करके ग्रन्थकारने योगवाशिष्ठका कलेवर बहुत बढा दिया है, जिससे यही कहना पडता है कि योगवाशिष्ठ योगका ग्रन्थराज है।
पुराणमें सिर्फ पुराणशिरोमणि भागवतको ही देखिये, उसमें योगका सुमधुर पद्योंमे पूरा वर्णन है । योगविषयक विविध साहित्यसे लोगोंकी रुचिं इतनी परिमार्जित हो गई थी कितान्त्रिक संप्रदायवालोंने भी
में योगको जगह दी, यहां तक कि योग तन्त्रका एक खासा अंग बन गया। अनेक तान्त्रिक ग्रन्थोंमें योगकी चर्चा है, पर उन सबमें महानिर्वाणतन्त्र, षट्रचक्रनिरूपण आदि मुख्य हैं ।
1 गीताके अठारह अध्यायोंमें पहले छह अध्याय कर्मयोग प्रधान, बीचके छह अभ्याय भक्तियोग प्रधान और अंतिम छह अध्याय ज्ञानयोग प्रधान हैं।
2 योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः। एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥१०॥
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥ ११ ॥ तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः । उपविश्यासने युञ्ज्याद् योगमात्मविशुद्धये ॥ १२॥ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥ १३ ॥ प्रशान्तात्मा विगतभीब्रह्मचारिव्रते स्थितः । मनः संयम्य मश्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥१४॥ अ०६
3 शान्तिपर्व १९३, २१७, २४६, २५४, इत्यादि । अनुशासनपर्व ३६, २४६ इत्यादि । 4 वैराग्य, मुमुक्षुव्यवहार, उत्पत्ति, स्थिति, उपशम और निर्वाण । 5 स्कन्ध ३ अध्याय २८: स्कन्ध ११अ० १५, १९, २० आदि। 6 देखो महानिर्वाणतन्त्र ३ अध्याय । देखो षट्चक्रनिरूपणऐक्यं जीवात्मनोराहुर्योगं योगविशारदाः। शिवात्मनोरभेदेन प्रतिपत्तिं परे विदुः ॥ पृष्ट ८२
Tantrik Texts में छपा हुआ । समत्वभावनां नित्यं जीवात्मपरमात्मनोः । समाधिमाहुर्मुनयः प्रोक्तमष्टाङ्गलक्षणम् ॥ पृ. ९१ ,, यदत्र नात्र निर्भासः स्तिमितोदधिवत् स्मृतम् । स्वरूपशून्यं यदू ध्यानं तत्समाधिर्विधीयते ॥ पृ. ९० ,, त्रिकोणं तस्यान्तः स्फूरति च सततं विद्युदाकाररूपं । तदन्तः शून्यं तत् सकलसुरगणैः सेवितं चातिगुप्तम् ॥ पृ. ६० ,,
"आहारनिर्हारविहारयोगाः सुसंवता धर्मविदा तु कार्याः । पृ. ६१,, ध्यै चिन्तायाम् स्मृतो धातुश्चिन्ता तत्त्वेन निश्चला। एतद् ध्यानमिह प्रोक्तं सगुणं निर्गणं द्विधा । सगुणं वर्णभेदेन निर्गुणं केवलं तथा ॥ पृ० १३४,,
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१०]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
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जब नदीमें बाढ आती है तब वह चारों ओरसे बहने लगती है। योगका यही हाल हुवा, और वह आसन, मुद्रा, प्राणायाम आदि बाह्य अंगोंमें प्रवाहित होने लगा । बाह्य अंगोंका भेद प्रभेद पूर्वक इतना अधिक वर्णन किया गया और उसपर इतना अधिक जोर दिया गया कि जिससे यह योगकी एक शाखा ही अलग बन गई, जो हठयोगके नामसे प्रसिद्ध है।
हठयोगके अनेक ग्रंथों में हठयोगप्रदीपिका, शिवसंहिता, घेरंडसंहिता,गोरक्षपद्धति, गोरक्षशतक आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध है, जिनमें आसन, बन्ध, मुद्रा, षट्कर्म, कुंभक, रेचक, पूरक आदि बाह्य योगांगोंका पेट भर भरके वर्णन किया है; ओर घेरण्डने तो चौरासी आसनको चौरासी लाख तक पहुंचा दिया है।
उक्त हठयोगप्रधान ग्रन्थों में हठयोगप्रदीपिका ही मुख्य है, क्यों कि उसीका विषय अन्य ग्रन्थों में विस्तार रूपसे वर्णन किया गया है। योगविषयक साहित्यके जिज्ञासुओंको योगतारावली, बिन्दुयोग, योगबीज और योगकल्पदुमका नाम भी भूलना न चाहिये। विक्रमकी सत्रहवी शताब्दीमें मैथिल पण्डित भवदेवद्वारा रचित योगनिबन्ध नामक हस्तलिखित ग्रन्थ भी देखनेमें आया है, जिसमें विष्णुपुराण आदि अनेक ग्रन्योंके हवाले देकर योगसम्बन्धी प्रत्येक विषय पर विस्तृत चर्चा की गई है।
संस्कृत भाषामें योगका वर्णन होनेसे सर्व साधारणकी जिज्ञासाको शान्त न देखकर लोकभाषाके योगियोंने भी अपनी जबानमें योगका आलाप करना शुरु कर दिया।
महाराष्ट्रीय भाषामें गीताकी ज्ञानदेवकृत ज्ञानेश्वरी टीका प्रसिद्ध है, जिसके छठे अध्यायका भाग बडा ही उदयहारी है। निःसन्देह ज्ञानेश्वरी द्वारा शानदेवने अपने अनुभव और वाणीको अवन्ध्य कर दिया है। सुहीरोवा अंबिये रचित नाथसम्प्रदायानुसारी सिद्धान्तसंहिता भी योगके जिशागुओंके लिये देखनेकी वस्तु है।
कबीरका बीजक ग्रन्थ योगसम्बन्धी भाषासाहित्यका एक सुन्दर मणका है।
अन्य योगी सन्तोंने भी भाषामें अपने अपने योगानुभवकी प्रसादी लोगोंको चखाई है, जिससे जनताका बहुत बडा भाग योगके नाम मात्रसे मुग्ध बन जाता है।
अत एव हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि प्रसिद्ध प्रत्येक प्रान्तीय भाषामें पातञ्जल योगशास्त्रका अनुवाद तथा विवेचन आदि अनेक छोटे बडे ग्रन्थ बन गये हैं। अंग्रेजी आदि विदेशीय भाषामें भी योगशास्त्रका अनुवाद आदि बहुत कुछ बन गया है, जिसमें वूडका भाष्यटीका सहित मूल पातञ्जल योगशास्त्रका अनुवाद विशेष उल्लेख योग्य है।
जैन सम्प्रदाय निवृत्ति-प्रधान है। उसके प्रवर्तक भगवान महावीरने बारह सालसे आधिक समय तक मौन धारण करके सिर्फ आत्मचिन्तनद्वारा योगाभ्यासमें ही मुख्यतया जीवन बिताया। उनके हजारों शिष्य2 तो ऐसे थे जिन्होंने घरबार छोड कर योगाभ्यासद्वारा साधुजीवन बिताना ही पसंद किया था।
जैन सम्प्रदायके मौलिक ग्रन्थ आगम कहलाते हैं। उनमें साधुचर्याका जो वर्णन है, उसको देखनेसे यह स्पष्ट जान पडता है कि पांच यम; तप, स्वाध्याय आदि नियम; इन्द्रिय-जय-रूप प्रत्याहार इत्यादि जो योगके खास अङ्ग हैं, उन्हींको साधुजीवनका एक मात्र प्राण माना है।
1 प्रो. राजेन्द्रलाल मित्र, स्वामी विवेकानंद, श्रीयुत रामप्रसाद आदि कृत। 2 " चउद्दसहिं समणसाहस्सीहिं छत्तीसाहिं अजिआसाहस्सीहिं" उववाइसूत्र । 3 देखो आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, मूलाचार, आदि ।
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अंक १]
योगदर्शन
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जैनशास्त्रमें योगपर यहां तक भार दिया गया है कि पहले तो वह मुमुक्षुओंको आत्मचिंतनके सिवाय दूसरे कार्योंमें प्रवृत्ति करनेकी संमति ही नहीं देता, और अनिवार्य रूपसे प्रवृत्ति करनी आवश्यक हो तो वह निवृत्तिमय प्रवृत्ति करनेको कहता है । इसी निवृत्तिमय प्रवृत्तिका नाम उसमें अष्टप्रवचनमाता1 है। साधुजीवनकी दैनिक और रात्रिक चर्या में तीसरे प्रहरके सिवाय अन्य तीनों प्रहरों में मुख्यतया स्वाध्याय और ध्यान करनेको ही कहा गया है21
यह बात भूलनी न चाहिये कि जैन आगमोंमें योगअर्थमें प्रधानतया ध्यानशब्द प्रयुक्त है। ध्यानके लक्षण, भेद प्रभेद, आलम्बन आदिका विस्तृत वर्णन अनेक जैन आगमों में है। आगमके बाद नियुक्तिका नंबर है। उसमें भी आगमगत ध्यानका ही स्पष्टीकरण है । वाचक उमास्वाति कृत तत्त्वार्थसूत्रमें 5 भी ध्यानका वर्णन है, पर उसमें आगम और नियुक्तिकी अपेक्षा कोई अधिक बात नहीं है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणका ध्यानशतक6 आगमादि उक्त अन्यों में वर्णित ध्यानका स्पष्टीकरण मात्र है। यहां तकके योगविषयक जैन विचारोंमें आगमोक्त वर्णनकी शैली ही प्रधान रही है । पर इस शैलीको श्रीमान् हरिभद्रसूरिने एकदम बदलकर तत्कालिन परिस्थिति व लोकरुचीके अनुसार नवीन परिभाषा दे कर और वर्णनशैली अपूर्वसी बनाकर जैन योग-साहित्यमें नया युग उपस्थित किया । इसके सबूतमें उनके बनाये हुए योगबिन्दु, योगदृष्टीसमुच्चय, योगविंशिका, योगशतक7, षोडशक ये ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इन ग्रन्थों में उन्होंने सिर्फ जैन-मार्गनुसार योगका वर्णन करके ही संतोष नहीं माना है, किन्तु पातंजल योगसूत्रमें वर्णित योगप्रक्रिया और उसकी खास परिभाषाओंके साथ जैन संकेतोंका मिलान भी किया है8 । योगदृष्टिसमुच्चयमें योगकी आठ दृष्टियोंका9 जो वर्णन है, वह सारे योगसाहित्यमें एक नवीन दिशा है।
___श्रीमान हरिभद्रसूरिके योगविषयक ग्रन्थ उनकी योगाभिरुचि और योगविषयक व्यापक बुद्धिके खासे नमुने हैं।
इसके बाद श्रीमार हेमचन्द्रसूरिकृत योगशास्त्रका नंबर आता है । उसमें पातञ्जल-योगशास्त्र निर्दिष्ट आठ योगांगोंके क्रमसे साधु और गृहस्थ जीवनकी आचार-प्रक्रियाका जैन शैलीके अनुसार वर्णन है, जिसमें आसन तथा
पराजाय।
__ 1 देखो उत्तराध्ययन अ. २४ । 2 दिवसस्स चउरो भाए, कुजा भिक्खु विअक्खणो । तओ उत्तरगुणे कुजा, दिणभागेसु चउसु वि ॥१२॥ पढमं पोरिसि सज्झायं, बिअं झाणं झिआयइ । तइआए गोअरकालं, पुणो चउत्थिए सज्झायं ॥१२॥ रतिं पि चउरो भाए, भिक्खु कुजा विअक्खणो । तओ उत्तरगुणे कुजा, राईभागेसु चउसु वि ॥१७॥
पढम पोरिसि सज्झायं, बिइअं झाणं झिआयइ ।
तइआए निद्दमोक्खं तु, चउत्थिए भुजो वि सज्झायं ॥ १८ ॥-उत्तराध्ययन अ० २६ । 3 देखो स्थानाङ्ग अ०४ उद्देश १ । समवायाङ्ग स. ४ । भगवती शतक २५-उद्देश ७ उत्तराध्ययन अ० ३०, गा० ३५। 4 देखो आवश्यकनियुक्ति कायोत्सर्ग अध्ययन गा. १४६२-१४८६ ।
5 देखो अ० ९ सू० २७ से आगे। 6 देखो हारिभद्रीय आवश्यक वृत्ति प्रतिक्रमणाध्ययन पृ० ५८१ 7 यह ग्रन्थ जैन ग्रन्थावलिमें उल्लिखित है ,पृ० ११३ ।
8 समाधिरेष एवान्यैः संप्रज्ञातोऽभिधीयते । सम्यक्प्रकर्शरूपेण वृत्यर्थज्ञानतस्तथा ॥ ४१८ ॥ असंप्रशात एषोऽपि समाधिर्गीयते परैः । निरुद्धाशेषवृत्त्यादितत्स्वरूपानुवेधतः ॥ ४२० ।। इत्यादि, योगबिन्दु ।
9 मित्रा तारा बला दिप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा । नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ॥ १३ ॥
इन आठ दृष्टियोंका स्वरूप, दृष्टान्त आदि विषय, योगजिज्ञासुओंके लिये देखने योग्य है। इसी विषयपर यशोविजयजीने २१, २२, २३, २४ ये चार द्वात्रिंशिकायें लिखी हैं। साथ ही उन्होंने संस्कृत न जाननेवालोंके हितार्थ आठ दृष्टियोंकी सज्झाय भी गुजराती भाषामें बनाई है।
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१२]
जैन साहित्य संधिक
[ खंड
प्राणायामसे संबन्ध रखनेवाली अनेक बातोंका विस्तृत स्वरूप है; जिसको देखनेसे यह जान पडता है कि तत्कालीन लोगोंमें हठयोग-प्रक्रियाका कितना अधिक प्रचार था । हेमचन्द्राचार्यने अपने योगशास्त्रमें हरिमद्रसूरिके योगविषयक अन्योंकी नवीन परिभाषा और रोचक शैलीका कहीं भी उल्लेख नहीं किया है, पर शुभचन्द्रचार्यके शानार्णवगत पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ, और रूपातीत ध्यानका विस्तृत व स्पष्ट वर्णन किया है1 । अन्तमें उन्होंने स्वानुभवसे विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन ऐसे मनके चार भेदोंका वर्णन करके नवीनता लानेका भी खास कौशल दिखाया है2 । निस्सन्देह उनका योगशास्त्र जैन तत्त्वज्ञान और जैन आचारका एक पाठ्य ग्रन्थ है।
इसके बाद उपाध्याय-श्रीयशोविजयकृत योगग्रन्थोंपर नजर ठहरती है । उपाध्यायजीका शास्त्रज्ञान, तर्ककौशल और योगानुभव बहुत गम्भीर था । इससे उन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद तथा सटीक बत्तीस बत्तीसीयाँ योग संबन्धी विषयोंपर लिखी हैं, जिनमें जैन मन्तव्योंकी सूक्ष्म और रोचक मीमांसा करनेके उपरांत अन्य दर्शन और जैनदर्शनका मिलान भी किया है। इसके सिवा उन्होंने हरिभद्रसूरिकृत योगविंशिका तथा षोडशकपर टीका लिख कर प्राचीन गूढ तत्त्वोंका स्पष्ट उद्घाटन भी किया है। इतना ही करके वे सन्तुष्ट नहीं हुए, उन्होंने महर्षि पतञ्जलिकृत योगसूत्रोंके उपर एक छोटीसी वृत्ति भी लिखी है । यह वृत्ति जैन प्रक्रियाके अनुसार लिखी हुई है, इसलिये उसमें यथासंभव योगदर्शनकी भित्ति-स्वरूप सांख्य-प्रक्रियाका जैनप्रक्रियाके साथ मिलान भी किया है, और अनेक स्थलोंमें उसका सयुक्तिक प्रतिवाद भी किया है । उपाध्यायजीने अपनी विवेचनामें जो मध्यस्थता, गुणग्राहकता, सूक्ष्म समन्वयशक्ति और स्पष्टभाषिता दिखाई है4 ऐसी दूसरे आचार्यों में बहुत कम नजर आती है।
एक योगसार नामक प्रन्थ भी श्वेताम्बर साहित्यमें है । कर्ताका उल्लेख उसमें नहीं है, पर उसके दृष्टान्त आदि वर्णनसे जान पडता है कि हेमचन्द्राचार्यके योगशास्त्रके आधारपर किसी श्वेताम्बर आचार्यके द्वारा वह रचा गया है । दिगम्बर साहित्यमें ज्ञानार्णव तो प्रसिद्ध ही है, पर ध्यानसार और योगप्रदीप ये दो हस्तलिखित ग्रन्थ भी हमारे देखनेमें आये हैं, जो पद्यबन्ध और प्रमाणमें छोटे हैं। इसके सिवाय श्वेताम्बर दिगम्बर संप्रदायके योगविषयक ग्रन्थोंका कुछ विशेष परिचय जैन ग्रन्थावाल पृ. १०६ से भी मिल सकता है । बस यहां तकहीमें जैन योगसाहित्य समाप्त हो जाता है ।
बौद्ध सम्प्रदाय भी जैन सम्प्रदायकी तरह निवृत्तिप्रधान है । भगवान् गौतम बुद्धने बुद्धत्व प्राप्त होनेसे पहले छह वर्षतक मुख्यतया ध्यानद्वारा योगाभ्यास ही किया। उनके हजारों शिष्य भी उसी मार्ग पर चले । मौलिक बौद्धग्रन्थों में जैन आगमोंके समान योग अर्थमें बहुधा ध्यान शब्द ही मिलता है, और उनमें ध्यानके
1 देखो प्रकाश ७-१० तक । 2 १२ वाँ प्रकाश श्लोक २-३-४ । 3 अध्यात्मसारके योगाधिकार और ध्यानाधिकारमें प्रधानतया भगवद्गीता तथा पातञ्जलसूत्रका उपयोग करके अनेक जैनप्रक्रियाप्रसिद्ध ध्यान
उक्त दाना ग्रन्थोके साथ समन्वय किया है, जो बहुत ध्यानपूर्वक देखने योग्य है । अध्यात्मोपनिषद्के शास्त्र, ज्ञान, क्रिया और साम्य इन चारों योगोंमें प्रधानतया योगवाशिष्ठ तथा तैत्तिरीय उपनिषदके वाक्योंका अवतरण दे कर तात्त्विक ऐक्य बतलाया है। यागावतार बत्तीसीमें खास कर पातञ्जल योगके पदार्थोंका जैन प्रक्रियाके अनुसार स्पष्टीकरण किया है।
4 इसके लिये उनका ज्ञानसार ग्रन्थ जो उन्होंने अंतिम जीवनमें लिखा मालुम होता है वह ध्यानपूर्वक देखना चाहिए । शास्त्रवार्तासमुच्चयकी उनकी टीका (पृ. १०) भी देखनी आवश्यक है।
5 इसके लिए उनके शास्त्रवार्तासमुच्चयादि ग्रन्थ ध्यानपूर्वक देखने चाहिए, और खास कर उनकी पाताल सूलवृत्ति मननपूर्वक देखनेसे हमारा कथन अक्षरशः विश्वसनीय मालूम पडेगा ।
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बैंक
1
[ १३
चार भेद नजर आते हैं । उक्त चार मैदके नाम तथा भाव प्रायः वही हैं, जो जैनदर्शन तथा योगदर्शनकी प्रक्रियामें हैं1 । बौद्ध संप्रदायमें समाधि राज नामक ग्रन्थ भी है । वैदिक, जैन और बौद्ध संप्रदायके योगविषयक साहित्यका हमने बहुत संक्षपमें अत्यावश्यक परिचय कराया है, पर इसके विशेष परिचयके लिये कॅटलोग कॅट्लागॉरम् 2, वो० १ पृ. ४७७ से ४८१ पर जो योगविषयक अन्योंकी नामावलि है वह देखने योग्य है।
यहां एक बात खास ध्यान देनेके योग्य है, वह यह कि यद्यपि वैदिक साहित्यमें अनेक जगह हठयोगकी प्रथाको अग्राह्य कहा है3, तथापि उसमें हठयोगकी प्रधानतावाले अनेक ग्रन्थोंका और मार्गोका निर्माण हुआ है । इसके विपरीत जैन और बौद्ध साहित्यमें हठयोगने स्थान नहीं पाया है, इतना ही नहीं, बल्कि उसमें हठयोगका स्पष्ट निषेध भी किया है।
1. सो खो अहं ब्राह्मण विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलहिं धम्महि सवितकं सविचारं विवेकजं पीतिसु खं पढमज्झानं उपसंपज्ज विहासि; वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं संपसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितकं अविचारं समाधिज पीतिसुखं दुतियज्झानं उपसंपज्ज विहार्सि; पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहार्सि; सतो. चे संपजानो सुखं च कायेन पार्टसंवेदोर्सि, यं तं अरिया आचिक्खन्ति-उपेक्खको सतिमा सुखविहारीऽति ततियज्झानं उपसंपज विहासि; सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बऽव सोमनस्स दोमनस्सानं अत्थंगमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासति पारिसुद्धिं चतुत्थज्झानं उपसंषज मज्झिमनिकाये भयभेखसुत्तं विहासि ।
इन्हीं चार ध्यानोंका वर्णन दीघनिकाय सामञकफलसुत्तमें है। देखो प्रो. सि. वि. राजवाडे कृत मराठी अनुवाद पृ. ७२ ।
यही विचार प्रो. धर्मानंद कौशाम्बी लिखित बुद्धलीलासारसंग्रहमें है । देखो पृ १२८ ।
जैनसूत्रमें शुक्लध्यानके भेदोंका विचार है, उसमें उक्त सवितर्क आदि चार ध्यान जैसा ही वर्णन है। देखो तत्त्वार्थ अ० ९ सू० ४१-४४ ।।
___ योगशास्त्रमें संप्रशात समाधि तथा समापत्तिओंका वर्णन है। उसमें भी उक्त सवितर्क निर्वितर्क आदि ध्यान जैसा ही विचार है । पा. सू. पा. १-१७, ४२, ४३, ४४ । ।
2 थिआडोर आउफ्रेटकृत, लिप्झिगमें प्रकाशित १८९१ की आवृत्ति । 3 उदाहरणार्थःसतीषु युक्तिध्वेतासु हठान्नियमयन्ति ये । चेतस्ते दीपमुत्सृज्य विनिम्नन्ति तमोऽअनैः ॥ ३७॥
विमूढाः कर्तुमुद्युक्ता ये हठाच्चेतसो जयम् । ते निबध्नन्ति नागेन्द्रमुन्मत्तं बिसतन्ततुभिः ॥ ३८ ॥ चित्तं चित्तस्य वाऽरं सस्थितं स्वशरीरकम् । साधयान्त समुत्सृज्य युक्ति ये तान्हतान् विदुः ॥ ३९ ॥
योगवाशिष्ठ-उपशम प्र. सर्ग ९२. 4 इसके उदाहरणमें बौद्ध धर्ममें बुद्ध भगवान्ने तो शुरुमें कष्टप्रधान तपस्याका आरंभ करके अंतमें मध्यमप्रतिपदा मार्गका स्वीकार किया है-देखो बुद्धलीलासारसंग्रह.
जैनशास्त्रमें श्रीभद्रबाहुस्वामिने आवश्यकनियुक्तिमें “ ऊसासं ण णिरंभइ" १५२० इत्यादि उक्तिले हठयोगका ही निराकरण किया है । श्रीहेमचन्द्राचार्यने भी अपने योगशास्त्रमें
" तन्नाप्नोति मनःस्वास्थ्यं प्राणायामैः कदार्थतं । प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यात् चित्तविप्लवः ॥" इत्यादि उक्तिसे उसी बातको दोहराया है । श्रीयशोविजयजीने भी पातञ्जलयोगसूत्रकी अपनी वृत्तिमें (१-३४) प्राणायामको योगका आनिश्चित साधन कह कर हठयोगका ही निरसनं किया है ।
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१४ ]
जैन साहित्य संशोधक
[ खंड २
योगशास्त्र-ऊपरके वर्णनसे मालूम हो जाता है कि-योगप्रक्रियाका वर्णन करनेवाले छोटे बडे अनेक ग्रन्थ हैं । इन सब उपलब्ध ग्रन्थों में महर्षि पतञ्जलिकृत योगशास्त्रका आसन ऊंचा है । इसके तीन कारण है -१ ग्रन्थकी संक्षिप्तता तथा सरलता, २ विषयकी स्पष्टता तथा पूर्णता, ३ और मध्यस्थभाव तथा अनुभवसिद्धता यही कारण है कि योगदर्शन यह नाम सुनते ही सहसा पातञ्जल योगसूत्रका स्मरण हो आता है । श्रीशंकरा
बह्मसूत्रभाष्यमें योगदर्शनका प्रतिवाद करते हए जो " अथ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः" ऐसा उल्लेख किया है, उससे इस बातमें कोई संदेह नहीं रहता कि उनके सामने पातञ्जल योगशास्त्रसे भिन्न दूसरा कोई योगशास्त्र रहा है। क्यों कि पातञ्जल योगशास्त्रका आरम्भ " अथ योगानुशासनम्” इस सूत्रसे होता है, और उक्त भाष्योल्लिखित वाक्यमें भी ग्रन्थारम्भसूचक अथ शब्द है, यद्यपि उक्त भाष्यमें अन्यत्र और भी योगसम्बन्धी दो उल्लेख हैं2 जिनमें एक तो पातञ्जल योगशास्त्रका संपूर्ण सूत्र ही है 3 और दूसरा उसका अविकल सूत्र नहीं, किन्तु उसके सूत्रसे मिलता जुलता है4 । तथापि " अथ सम्यग्दर्श नाभ्युपायो योगः ” इस उल्लेखकी शदरचना और स्वतन्त्रताकी और ध्यान देनसे यही कहना पडता है कि पिछले दो उल्लेख भी उसी भिन्न योगशास्त्रके होने चाहिये, जिसका अंश " अथ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः " यह वाक्य माना जाय । अस्तु, जो कुछ हो, आज हमारे सामने तो पतञ्जालका ही योगशास्त्र उपस्थित है, और वह सर्वप्रिय है; इसलिये बहुत संक्षेपमें भी उसका बाह्य तथा आन्तरिक परिचय कराना अनुपयुक्त न होगा।
इस योगशास्त्रके चार पद और कुल १९५ सूत्र हैं । पहले पादका नाम समाधि, दूसरेका साधन, तीसरेका विभूति, और चोथेका कैवल्यपाद है । प्रथमपादमें मुख्यतया योगका स्वरूप, उसके उपाय और चित्त. स्थिरताके उपायोंका वर्णन है । दूसरे पादमें क्रियायोग, आठ योगाङ्ग, उनके फल तथा चतुर्दूहका मुख्य वर्णन है ॥
___ तीसरे पादमें योगजन्य विभूतियोंके वर्णनकी प्रधानता है। और चौथे पादमें परिणामवादके स्थापन, विज्ञानवादके निराकरण तथा कैवल्य अवस्थाके स्वरूपका वर्णन मुख्य है । महर्षि पतञ्जालने अपने योगशास्त्रकी नीव सांख्यसिद्धान्तपर डाली है। इसलिये उसके प्रत्येक पादके अन्तमें " योगशास्त्रे सांख्यप्रवचने" इत्यादि उल्लेख मिलता है । " सांख्यप्रवचने " इस विशेषणसे यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि सांख्यके सिवाय अन्यदर्शनके सिद्धांतोंके आधारपर भी रचे हुए योगशास्त्र उस समय
1 ब्रह्मसूत्र २-१-३ भाष्यगत ।
2 " स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोगः " ब्रह्मसूत्र १-३-३३ भाष्यगत । योगशास्त्रप्रसिद्धाः मनसः पश्च वृत्तयः परिगृह्यन्ते, " प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रासमृतयः नाम" २-४-१२ भाष्यगत ।
पं. वासुदेव शास्त्री अभ्यंकरने अपने ब्रह्मसूत्रके मराठी अनुवादके परिशिष्टमें उक्त दो उल्लेखोंका योगसूत्ररूपसे निर्देश किया है, पर " अथ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः " इस उल्लेखके संबंधमें कहीं भी ऊहापोह नहीं किया है।
3 मिलाओ पा. २ सू. ४४ । 4 मिलाओ पा. १ सू. ६ । 5 हेय, हेयहेतु, हान, हानोपाय ये चतु!ह कहलाते हैं। इनका वणर्न सूत्र १६-२६ तकमें है।
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अंक १]
योगदर्शन
[ १५
मौजुद थे या रचे जाते थे। इस योगशास्त्रके ऊपर अनेक छोटे बडे टीका ग्रन्थ1 हैं, पर व्यासकृत भाष्य और वाचस्पतिकृत टीकासे उसकी उपादेयता बहुत बढ गई है।
सब दर्शनोंके अन्तिम साध्यके सम्बन्धमें विचार किया जाय तो उसके दो पक्ष दृष्टिगोचर होते हैं प्रथम पक्षका अन्तिम साध्य शाश्वत सुख नहीं है । उसका मानना है कि मुक्ति में शाश्वत सुख नामक कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, उसमें जो कुछ है वह दुःखकी आत्यान्तक निवृत्ति ही। दूसरा पक्ष शाश्वतिक सुखलाभको ही मोक्ष कहता है। ऐसा मोक्ष हो जानेपर दुःखकी आत्यान्तिक निवृत्ति आप ही आप हो जाती है। वैशेषिक नैयायिक 2, सांख्य3, योग4, और बौद्धदर्शन: प्रथम पक्षके अनुगामी हैं । वेदान्त और जैनदर्शना, दूसरे पक्षके अनुगामी हैं।
योगशास्त्रका विषय-विभाग उसके अन्तिमसाध्यानुसार ही है। उसमें गौण मुख्य रूपसे अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित हैं, पर उन सबका संक्षेपमें वर्गीकरण किया जाय तो उसके चार विभाग हो जाते हैं । १ हेय, २ हेय-हेतु, ३ हान, ४ हानोपाय । यह वर्गीकरण स्वयं सूत्रकारने किया है; और इससे भाष्यकारने योगशास्त्रको चतुर्दूहात्मक कहा है8। सांख्यसूत्रमें भी यही वर्गीकरण है । बुद्ध भगवान्ने इसी चतुर्दूहको आर्य-सत्य नामसे प्रसिद्ध किया है; और योगशास्त्रके आठ योगाङ्गोंकी तरह उन्होंने चौथे आर्य-सत्यके साधनरूपसे आर्य अष्टाङ्गमार्गका उपदेश किया है।
दुःख हेय है10, आविद्या हेयका कारण है11, दुःखका आत्यन्तिक नाश हान है12, और विवेक ख्याति हानका उपाय है131
उक्त वर्गीकरणकी अपेक्षा दूसरी रातिसे भी योगशास्त्रका विषय-विभाग किया जा सकता है । जिससे कि उसके मन्तव्योंका ज्ञान विशेष स्पष्ट हो। यह विभाग इस प्रकार है-१ हाता, २ ईश्वर, ३ जगत् , ४ संसारमोक्षका स्वरूप, और उसके कारण ।।
१. हाता दुःखसे छुटकारा पानेवाले द्रष्टा अर्थात् चेतनका नाम है । योग-शास्त्रमें सांख्य14
1 व्यास कृत भाष्य, वाचस्पतिकृत तत्त्ववैशारदी टीका, भोजदेवकृत राजमार्तड, नागोजीभट्ट कृत वृत्ति, विज्ञानाभिक्षु कृत वार्तिक, योगचन्द्रिका, मणिप्रभा, भावागणेशीय वृत्ति, बालरामोदासीन कृत टिप्पण आदि।
2" तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः " न्यायदर्शन १-१-२२ । 3 ईश्वरकृष्णकारिका १। 4 उसमें हानतत्त्व मान कर दुःखके आत्यन्तिक नाशको ही हान कहा है। 5 बुद्ध भगवानके तीसरे निरोध नामक आर्यसत्यका मतलब दुःख नाशसे है। 6 वेदान्त दर्शनमें ब्रह्मको सच्चिदानंदस्वरूप माना है, इसीलिये उसमें नित्यसुखकी अभिव्याक्तिका नाम हि मोक्ष है। 7 जैन दर्शनमें भी आत्माको सुखस्वरूप माना है, इसलिये मोक्षमें स्वाभविक सुखकी अभिव्यक्ति ही उस दर्शनको मान्य है।
8 यथा चिकित्साशास्रं चतुव्यूहम्-रोगो रोगहेतुरारोग्यं भैषज्यमिति, एवमिदमपि शास्रं चतुर्म्यहमेव । तद्यथा-संसारः संसारहेतुर्मोक्षो मोक्षोपाय इति । तत्र दुःखबहुल: संसारो हेयः । प्रधानपुरुषयोः संयोगो हेयहेतुः । संयोगस्यात्यन्तिकी निवृत्तिर्हानम् । हानोपायः सम्यग्दर्शनम् । पा० २ सू० १५ भाष्य ।
9 सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाचा, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि । बुद्धलीलासार संग्रह, पृ. १६० । 10 " दुःखं हेयमानागतम् ” २-१६ यो. सू। 11 " द्रष्टुदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः २-१७ । “ तस्य हेतुरविद्या" २-२४ यो. सू. ।
___12 " तदभावात् संयोगाभावो हानं तद् दृशः कैवल्यम् " २०-२६ यो. सू । 13 " विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः" २-२६. यो. सू। 14 "पुरुषबहुत्वं सिद्धं" ईश्वरकृष्णकारिका- १८ ।
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१६]
जैन साहित्य संशोधक
वैशेषिक 1-नैयायिक, बौद्ध, जैन2 और पूर्णप्रश ( मध्व ) दर्शनके समान द्वैतवाद अर्थात् अनेक चेतन माने गये हैं।
योगशास्त्र चेतनको जैन दर्शनकी तरह। देहप्रमाण अर्थात् मध्यमपरिमाणवाला नहीं मानता, और मध्वसम्प्रदायकी तरह अणुप्रमाण भी नहीं मानता किन्तु सांख्या वैशेषिक8, नैयायिक और शांकरखेदान्तकी9 तरह वह उसको व्यापक मानता है10।
इसी प्रकार वह चेतनको जैनदर्शनकी तरह11 परिणामि-नित्य नहीं मानता, और न बौद्ध दर्शनकी तरह उसको क्षणिक-अनित्य ही मानता है, किन्तु सांख्य आदि उक्त शेष दर्शनोंकी तरह 12 वह उसे कूटस्थ-नित्य मानता13 है।
२. ईश्वरके सम्बन्धमें योगशास्त्रका मत सांख्य दर्शमसे भिन्न है । सांख्य दर्शन नाना चेतनाके अतिरिक्त ईश्वरको नहीं मानता14, पर योगशास्त्र-सम्मत्त ईश्वरका स्वरूप नैयायिक-वैशेषिक आदि दर्शनोंमें माने गये ईश्वरस्वरूपसे कुछ भिन्न है। योगशास्त्रने ईश्वरको एक अलग व्यक्ति तथा शास्त्रोपदेशक माना है सही, पर उसने नैयायिक आदिकी तरह ईश्वरमें नित्यशान, नित्यईच्छा और नित्यकृतिका सम्बन्धन मान कर इसके स्थानमें
1 "व्यवस्थातो नाना" ३-२-२०. वैशेषिकदर्शन । 2 "पुद्गलजीवास्त्वनेकद्रव्याणि" ५-५. तत्त्वार्थसूत्र-भाष्य। ..
3 जीवेश्वरभिदा चैव जडेश्वरभिदा तथा । जीवभेदो मिथश्चैव जडजविभिदा तथा ॥ मिथश्च जडभेदी यः प्रपञ्चो भेदपञ्चकः । सोऽयं सत्योऽप्यनादिश्व सादिश्चेन्नाशमाप्नुयात् ।।
-सर्वदर्शनसंग्रह पूर्णप्रशदर्शन । ___4 " कृतार्थ प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात् " २-२२ यो. सू. । 5 असंख्येयभागादिषु जीवानाम् " । १५ । " प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत् ” १६-तत्त्वार्थसूत्र अ० ५।
6 देखो " उत्क्रान्तिगत्यागतीनाम् " । ब्रह्मसूत्र २-३-१८ पूर्णप्रश भाष्य । तथा मिलान करो अभ्यंकरशास्त्री कृत मराठी शांकरमाष्य अनुवाद भा. ४ पृ. १५३ टिप्पण ४६ ।
7" निष्क्रियस्य तदसम्भवात् " सां. सू. १-४९, निष्क्रियस्य-विभोः पुरुषस्य गत्यसम्भवात्--भाष्य विज्ञानभिक्षु ।
8 विभवान्महानाकाशस्तथा चात्मा । " ७-१-२२-वै. द.। 9 देखो ब्र. सू , २-३-२९. भाष्य । 10 इसलिये कि योगशास्त्र आत्मस्वरूपके विषयमें सांख्यसिद्धान्तानुसारी है ।
11 "नित्यावस्थितान्यरूपाणि" ३ । " उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" । २९ । “ तद्भावाव्ययं नित्यम् ३० । तत्त्वार्थसूत्र अ० ५ भाष्य सहित.
- 12 देखो ई० कृ० कारिका ६३ सांख्यतत्त्वकौमुदी । देखो न्यायदर्शन ४-१-१० । देखो बह्मसूत्र २-१-१४ । २-१-२७; शांकरभाष्य सहित ।
___ 13 देखो योगसूत्र. " सदाशाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्य अपरिणामित्वात् ” ४-१८ । " चितेरप्रतिसंक्रमायास्तदाऽकारापत्तौ स्वबुद्धिसंवेदनम् ” ४-२२ । तथा " द्वयी चेयं नित्यता, कूटस्थनित्यता, परिणा• मिनित्यता च । तत्र कूटस्थनित्यता पुरुषस्य, परिणामिनित्यता गुणानाम् " इत्यादि ४-३३ भाष्य ।
14 देखो सांख्यसूत्र १-९२ आदि ।
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अकं १]
योगदर्शन
सत्त्वगुणका परमप्रकर्ष मान कर तद्वारा जगत्उद्धारादिकी सब व्यवस्था घटाl दी है।
३ योगशास्त्र दृश्य जगत्को न तो जैन, वैशेषिक, नैयायिक दर्शनोंकी तरह परमाणुका परिणाम मानता है, न शांकरवेदान्त दर्शनकी तरह ब्रह्मका विवर्त या ब्रह्मका परिणाम ही मानता है, और न बौद्धदर्शनकी तरह शून्य या विज्ञान्यत्मक ही मानता है। किन्तु सांख्य दर्शनकी तरह बह उसको प्रकृतिका परिणाम तथा अनादि -अनन्त-प्रवाहस्वरूप मानता है।
४ योगशास्त्रमें वासना क्लेश और कर्मका नाम ही संसार है, तथा वासनादिका अभाव अर्थात् चेतनके स्वरूपावस्थानका नाम मोक्ष2 है। उसमें संसारका मूल कारण अविद्या और मोक्षका मुख्य हेतु सम्यग्दर्शन अर्थात् योगजन्य विवेकख्याति माना गया है।
__ महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टिविशालता-यह पहले कहा जा चुका है कि सांख्य सिद्धान्त और उसकी प्रक्रियाको ले कर पतञ्जलिने अपना योगशास्त्र रचा है, तथापि उनमें एक ऐसी विशेषता अर्थात् दृष्टिविशालता नजर आती है जो अन्य दार्शनिक विद्वानोंमें बहुत कम पाई जाती है । इसी विशेषताके कारण उनका योगशास्त्र मानों सर्वदर्शनसमन्वय बन गया है । उदाहरणार्थ सांख्यका निरीश्वरवाद जब वैशेषिक, नैयायिक आदि दर्शनोंके द्वारा अच्छी तरह निरस्त हो गया और साधारण लोक-स्वभावका झुकाव भी ईश्वरोपासनाकी ओर विशेष मालूम पड़ा, तब अधिकारिभेद तथा रूचिविचित्रताका विचार करके पतञ्जलिने अपने योगमार्गमें ईश्वरोपासनाको भी स्थान दिया, अ र ईश्वरके स्वरूपका उन्होंने निष्पक्ष भावसे ऐसा निरूपण4 किया है जो सबको मान्य हो सके।
पतअलिने सोचा कि उपासना करनेवाले सभी लोगोंका साध्य एक ही है, फिर भी वे उपासनाकी भिन्नता और उपासनामें उपयोगी होनेवाली प्रतीकोंकी भिन्नताके व्यामोहमें अज्ञानवश आपस आपसमें लड मरते हैं, और इस धार्मिक कलहमें अपने साध्यको लोक भूल जाते हैं। लोगोंको इस अज्ञान पथपर लानेके लिये उन्होंने कह दिया कि तुम्हारा मन जिसमें लगे उसीका ध्यान करो। जैसी प्रतीक तुम्हें पसंद आवे वैसी प्रतीककी5 ही उपासना करो, पर किसी भी तरह अपना मन एकाग्र व स्थिर करो, और तद्वारा परमात्म-चिन्तनके सच्चे पात्र बनों। इस उदारताकी मूर्तिस्वरूप मतभेदसहिष्णु आदेशके द्वारा पतञ्जलिने सभी उपासकोंको योग-मार्गमें स्थान दिया, और ऐसा करके धर्मके नामसे होनेवाले कलहको कम कर
1 यद्यपि यह व्यवस्था मूल योगसूत्रमें नहीं है, परन्तु भाष्यकार तथा टीकाकारने इसका उपपादन किया है। देखो पातञ्जल यो. पा. १ सू, २४ भाष्य तथा टीका ।
2 तदा द्रष्टुः स्वरूपावस्थानम् । १-३ योगसूत्र । 3 " ईश्वरप्रणिधानाद्वा” १-३३ ।
4 " क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः " " तत्र निरशितयं सर्वशबीजम्"। " पूर्वेषामपि गुरुः कालेनाऽनवच्छेदात् ” । (१-२४, २५, २६)
5 " यथाऽभिमतध्यानाद्वा" १-३९ इसी भावकी सूचक महाभारतमेंध्यानमुत्पादयत्यत्र, संहिताबलसंश्रयात् । यथाभिमतमन्त्रण, प्रणवाद्यं जपेत्कृती ।। ( शान्तिपर्व प्र. १९४ श्लो. २०) यह उक्ति है । और योगवाशिष्ठमेंययाभिवाञ्छितध्यानाच्चिरमेकतयोदितात् । एकतत्त्वघुनाभ्यासात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।
(उपशम प्रकरण सर्ग ७८ श्लो. १६ । ) यह उक्ति है ।
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१८ ]
जैन साहित्य संशोधक
[ खंड २
नेका उन्होंने सच्चा मार्ग लोगोंको बतलाया । उनकी इस दृष्टिविशालताका असर अन्य गुण-ग्राही आचार्योपर भी पडाl, और वे उस मतभेदसहिष्णुताके तत्त्वका मर्म समझ गये।
वैशेषिक, नैयायिक आदिकी ईश्वरविषयक मान्यताका तथा साधारण लोगोंकी ईश्वरविषयक श्रद्धाका योगमार्गमें उपयोग करके ही पतञ्जलि चुप न रहे, पर उन्होंने वैदिकेतर दर्शनोंके सिद्धान्त तथा प्रक्रिया जो योगमार्गके लिये सर्वथा उपयोगी जान पडी उसका भी अपने योगशास्त्रमें बडी उदारतासे संग्रह किया । यद्यपि बौद्ध विद्वान् नागार्जुनके विज्ञानवाद तथा आत्मपरिणामित्ववादको युक्तिहीन समझ कर या योगमार्गमें अनुपयोगी समझ कर उसका निरसन चोथें पादमें किया 2 है, तथापि उन्होंने बुद्धभगवानकें परमप्रिय चार आर्यसत्योंका हेय, हेयहेतु, हान और हानोपाय रूपसे स्वीकार निःसंकोच भावसे अपने योगशास्त्रमें किया है।
1 पुष्पैश्च बलिना चैव वौः स्तोत्रैश्च शोभनैः । देवानां पूजनं ज्ञेयं शौचश्रद्धासमन्वितम् ।। अविशेषेण सर्वेषामधिमुक्तिवशेन वा । गृहिणां माननीया यत्सर्वे देवा महात्मनाम् ।। सर्वान्देवान्नमस्यन्ति नैकं देवं समाश्रिताः । जितेन्द्रिया जितक्रोधा दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ चारिसंजीवनीचारन्याय एष सतां मतः । नान्यथाढेष्टसिद्धिः स्याद्विशेषेणादिकर्मणाम् ॥ गणाधिक्यपरिज्ञानाविशेषेऽप्येतदिष्यते । अद्वेषेण तदन्येषां वृत्ताधिक्ये तथात्मनः ।।
योगबिन्दु श्लो. १६-२० जो विशेषदर्शी होते हैं, वे तो कीसी प्रतीक विशेष या उपासना विशेषको स्वीकार करते हुए भी अन्य प्रकारकी प्रतीक माननेवालों या अन्य प्रकारकी उपासना करनेवालोंसे द्वेष नहीं रखते, पर जो धर्माभिमानी प्रथमाधिकारी होते हैं वे प्रतीकभेद या उपासनाभेदके व्यामोहसे ही आपसमें लड मरते हैं। इस अनिष्ट तत्त्वको दूर करनेके लिये ही श्रीमान् हारिभद्रसरिने उक्त पद्योंमें प्रथमाधिकारीके लिये सब देवोंकी उपासनाको लाभदायक बतलानेका उदार प्रयत्न किया है। इस प्रयत्नका अनुकरण श्रीयशोविजयजीने भी अपनी "पूर्व सेवाद्वात्रिंशिका" "आठदृष्टियोंकी सज्झाय" आदि ग्रन्थोंमें किया है । एकदेशीय सम्प्रदायाभिनिवेशी लोगोंको समजानेके लिये 'चारिसंजीवनीचार ' न्यायका उपयोग उक्त दोनों आचार्योंने किया है। यह न्याय बडा मनोरञ्जक और शिक्षाप्रद है।
इस समभावसूचक दृष्टान्तका उपनय श्रीज्ञानविमलने आठदृष्टिकी सज्झाय पर किये हए अपने पूजराती टबमें बहत अच्छी तरह घटाया है, जो देखने योग्य है । इसका भाव संक्षेपमें इस प्रकार है। कीसी स्त्रीने अपनी सखीसे कहा कि मेरा पति मेरे अधीन न होनेसे मुझे बडा कष्ट है। यह सुन कर उस आगन्तुक मखीने कोई जडी खिला कर उस पुरुषको बैल बना दिया, और वह अपने स्थानको चली गई। पतिके बैल बन जानेसे उसकी पत्नी दुःखित हुई, पर फिर वह पुरुषरूप बनानेका उपाय न जाननेके कारण उस बैलरूप पतिको चराया करती थी. और उसकी सेवा किया करती थी। कीसी समय अचानक एक विद्याधरके मुखसे ऐसा मना कि अगर बैलरूप पुरुषको संजीवनी नामक जडी चराई जाय तो वह फिर असली रूप धारण कर सकता है। विद्याधरसे यह भी सुना कि वह जडी अमुक वृक्षके नीचे है। पर उस वृक्षके नीचे अनेक प्रकारकी वनस्पति होने के कारण वह स्त्री संजीवनीको पहचानने में असमर्थ थी। इससे उस दुःखित स्त्रीने अपने बैलरूप. धारि पतिको सब वनस्पतियाँ चरा दी । जिनमें संजीवनीको भी वह बैल चर गया । जैसे विशेष परीक्षा न सकारण उस स्त्रीने सब वनस्पतियों के साथ संजीवनी खिला कर अपने पतिका कृत्रिम बैलरूप छुडाया, और असली मनष्यत्वको प्राप्त कराया, वैसे ही विशेष परीक्षाविकल प्रथमाधिकारी भी सब देवोंकी समभावसे उपासना करते करते योगमार्गमें विकास करके दृष्ट लाभ कर मना।
2 देखो सू० १५, १८। दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग ।
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अंक १ ]
जैन दर्शनके साथ योगशास्त्रका सादृश्य तो अन्य सब दर्शनोंकी अपेक्षा अधिक ही देखनेमें आता है यह बात स्पष्ट होनेपर भी बहुतों को विदित ही नहीं है। इसका सबब यह हैं कि जैनदर्शनके खास अभ्यासी ऐसे बहुत कम हैं जो उदारता पूर्वक योगशास्त्रका अवलोकन करनेवाले हों, और योगशास्त्रके खास अभ्यानी भी ऐसे बहुत कम हैं जिन्होंने जैनदर्शनका बारीकीसे ठीक ठीक अवलोकन किया हो। इसलिये इस विषयका विशेष खुलासा करना यहाँ अप्रासङ्गिक न होगा ।
योगशास्त्र और जैनदर्शनका सादृश्य मुख्यतया तीन प्रकारका 1 १ शब्दका, २ विषयका और ३ प्रक्रियाका ।
१ मूल योगसूत्रमें ही नहीं किन्तु उसके भाष्यतकमें ऐसे अनेक शब्द हैं जो जैनेतर दर्शनामें प्रसिद्ध नहीं हैं, या बहुत कम प्रसिद्ध हैं, किन्तु जैन शास्त्रमें खास प्रसिद्ध है । जैसे- भवप्रत्यय, 1 सवितर्क- सविचारनिर्विचार 2, महाव्रत, कृत- कारित अनुमोदित 4, प्रकाशावरण, सोपक्रम - निरूपक्रम 6, वज्रसंहनन 7, केवल 8, कुशल 9, ज्ञानावरणीयकर्म 10, सम्यग्ज्ञान, 11 सम्यग्दर्शन, 12 सर्वश, 13 क्षीणक्लेश, 15 चरमदेह 16 आदि ।
1" भवप्रत्ययो विदेद्दप्रकृतिलयानाम् अ. १-२२ ।
८८
योगसू. १--१९ । भवप्रत्ययो नारकदेवानाम्
तत्त्वार्थ
64
""
""
2 ध्यानविशेषरूप अर्थमें ही जैनशास्त्रमें ये शब्द इस प्रकार हैं। " एकाश्रये सक्तिर्के पूर्वे " ( तत्त्वार्थ अ. ९-४३ ) तत्र सविचारं प्रथमम् भाष्य अविचारं द्वितीयम् ” तत्त्वा० अ० ९-४४ | योगसूत्रमें ये शब्द इस प्रकार आये हैं- " तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः " स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्माता निर्वितर्का " एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता
66
99 १-४२,
४३, ४४ ।
3 जैनशास्त्र में मुनिसम्बन्धी पाँच यमोंके लिये यह शब्द बहुत ही प्रसिद्ध है । छाव्रतमिति तत्त्वार्थ ” अ० ७ -२ भाष्य । यही शब्द उसी अर्थ में योगसूत्र २ - ३१ में है ।
4 ये शब्द जिस भाव के लिये योगसूत्र २-३१ में प्रयुक्त हैं, उसी भावमें जैनशास्त्र में भी आते हैं, अन्तर सिर्फ इतना है कि जैनग्रन्थोंमें अनुमोदितके स्थान में बहुधा अनुमतशब्द प्रयुक्त होता है । देखोतत्त्वार्थ, अ. ६–९ ।
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योगदर्शन
""
9 देखो योगसूत्र २ -- २७ भाष्य, तथा दशवैकालिकानिर्युक्ति गाथा १८६ |
10 देखो योगसूत्र २ - १६ भाष्य, तथा आवश्यकनियुक्ति गाथा ८९३ ।
11 योगसूत्र २ - २८ भाष्य, तत्त्वार्थ अ० १-१ ।
12 योगसूत्र ४ - १५ भाष्य, तत्त्वार्थ अ० १-२ ।
13 योगसूत्र ३ - ४९ भाष्य, तत्त्वार्थ ३-४९ ।
14 योगसूत्र १ - ४ भाष्य । जैन शास्त्रमें बहुधा ' क्षीणमोह '' क्षीणकषाय ' तत्त्वार्थ अ० ९-३८ ।
15 योगसूत्र २-४ भाष्य, तत्त्वार्थ अ० २-५२
""
5 यह शब्द योगसूत्र २-५२ तथा ३-४३ में है। इसके स्थान में जैनशास्त्र में : प्रसिद्ध है । देखो तत्त्वार्थ. ६-११ आदि ।
6 ये शब्द योगसूत्र ३ - २२ में हैं । जैन कर्मविषयक साहित्यमें ये शब्द बहुत प्रसिद्ध हैं । तत्त्वार्थमें भी इनका प्रयोग हुआ है, देखो – अ. २-५२ भाष्य ।
7 यह शब्द योगसूत्र ३ - ४६ में प्रयुक्त है । इसके स्थान में जैन ग्रन्थोंमें 'वज्रऋषभनाराच संहनन' ऐसा शब्द मिलता है । देखो तत्त्वार्थ अ० ८-१२ भाष्य ।
8 योगसूत्र २ -- २७ भाष्य, तत्त्वार्थ अ० ६-१४ ।
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[ १९
" सर्वतो विरतिर्म -
" जानावरण शब्द
शब्द मिलते हैं। देखो
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२० ]
जैन साहित्य संशोधक
२ प्रसुप्त, तनु आदिक्लेशावस्था 1, पाँच यम, 2 योगजन्य विभूति, 3 सोपक्रम निरुपमक्रम 4 कर्मका स्वरूप, तथा उसके दृष्टान्त, अनेक कार्योंका 5 निर्माण आदि ।
[ खंड २
1 प्रसुन, तनु, विछिन्न और उदार इन चार अवस्थाओंका योगसूत्र २-४ में वर्णन है । जैन - शास्त्रमें वहीं भाव मोहनीयकर्मकी सत्ता, उपशमक्षयोपशम, विरोधिप्रकृतिके उदयादिकृत व्यवधान और उदयावस्था वर्णनरूपसे वर्तमान है । देखो योगसूत्र २-४ की यशोविजयकृत वृत्ति ।
2 पाँच यमोंका वर्णन महाभारत आदि ग्रन्थों में है सही, पर उसकी परिपूर्णता जातिदेशकालसमयाऽनवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् " योगसूत्र २ - ३१ में तथा दशवैकालिक अध्ययन ४ आदि जैनशास्त्र पतिपादित महाव्रतों में देखने में आती है ।
(4
3 योगसूत्रके तीसरे पाद में विभूतियोंका वर्णन है, वे विभूतियाँ दो प्रकारकी हैं । १ वैज्ञानिक २ शारीरिक । अतीताऽनागतज्ञान, सर्वभूतरुतज्ञान, पूर्वजातिज्ञान, परचित्तज्ञान, भुवनज्ञान, ताराव्यूहज्ञान, आदि ज्ञानविभूतियाँ हैं । अन्तर्धान, हस्तिबल, परकायप्रवेश, अणिमादि ऐश्वर्य तथा रूपलावण्यादि कायसंपत्, इत्यादि शारीरिक विभूतियाँ हैं । जैनशास्त्र में भी अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान, जातिस्मरणज्ञान, पूर्वज्ञान आदि ज्ञानलधियाँ हैं, और आमौषाध, विप्रुडौषधि, श्लेष्माषधि, सर्वौषधि, जंघाचारण-विद्याचारण, वैक्रिय, आहारक आदि शारीरिक लब्धियाँ हैं | देखो गा० ६९, ७० आवश्यकनिर्युक्ति लब्धि यह विभूतिका नामान्तर 1
4 योगभाष्य और जैनग्रन्थों में सोपक्रम निरुपक्रम आयुष्कर्मका स्वरूप बिल्कुल एकसा है, इतना ही नहीं बाल्क उस स्वरूपको दिखाते हुए भाष्यकारने यो. सू. ३- २२ के भाष्य में आर्द्र वस्त्र और तृणराशिके जो दो दृष्टान्त लिखे हैं, वे आवश्यकनिर्युक्ति ( गाथा - ९५६ ) तथा विशेषावश्यक भाष्य ( गाथा - ३० ६१ ) आदि जैनशास्त्र में सर्वत्र प्रसिद्ध हैं, पर तत्त्वार्थ ( अ० - २५२ ) के भाष्यमें उक्त दो दृष्टान्तोंके उपरान्त एक तीसरा गणितविषयक दृष्टान्त भी लिखा है । इस विषय में उक्त व्यासभाष्य और तत्त्वार्थभाष्यका शाब्दिक सादृश्य भी बहुत अधिक और अर्थसूचक है ।
* यथाऽऽर्द्रवस्त्रं वितानितं लघीयसा कालेन शुष्येत् तथा सोपक्रमम् । यथा च तदेव सपिण्डितं चिरेण मनुष्येद् एवं निरुपक्रमम् । यथा चाभिः शुष्के कक्षे मुक्तो वातेन वा समन्ततो युक्तः क्षेपीयसा कालेन दहेतु तथा स्त्रोपक्रमम् । यथा वा स एवाऽभिस्तृणराशौ क्रमशोऽवयवेषु न्यस्तश्विरेण दहेत् तथा निरुषक्रमम् ” योग ३–२२ भाष्य । यथाहि संहतस्य शुष्कस्यापि तृणराशेरवयवशः क्रमेण दह्यमानस्य चिरेण दाहो भवति, तस्यैव शिथिलप्रकीर्णोपचितस्य सर्वतो युगपदादीपितस्य पवनोपक्रमाभिहतस्याशु दाहो भवति, तद्वत् । यथा वा संख्यानाचार्यः करणलाघवार्थे गुणकारभागहाराभ्यां राशि छेदादेवापवर्तयति न च संख्येयस्यार्थस्याभावो भवति, तद्वदुपक्रमाभिहतो मरणसमुद्घातदुःखार्त्तः कर्मप्रत्ययमनाभोगयोगपूर्वकं करणविशेषमुत्पाद्य फलोपभोगलाघवार्थं कर्मापत्रर्तयति न चास्य फलाभाव इति । किं चान्यत् । यथा वा धौतपटो जलार्द्र एव संहतश्विरेण शोषमुपयाति । स एव च वितानितः सूर्यरश्मिवाय्वभिहतः क्षिप्रं शोषमुपयाति । तत्त्वा० अ० २-५२ भाष्य ।
"3
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5 योगबल से योगी जो अनेक शरीरोंका निर्माण करता है, उसका वर्णन योगसूत्र ४-४ में है, यही विषय वैक्रिय - आहारक - लब्धिरूपसे जैनग्रन्थोंमें वर्णित है ।
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अकं१1
योगदर्शन
[२१
... ३ परिणामि-नित्यता अर्थात् उत्पाद, व्यय, प्रौव्यरूपसे निरूप वस्तु मान कर तदनुसार धर्मधर्मीका विवेचना इत्यादि।
इसी विचारसमताके कारण श्रीमान् हरिभद्र जैसे जैनाचार्योंने महर्षि पतञ्जलिके प्रति अपना हार्दिक आदर प्रकट करके अपने योगविषयक ग्रन्थोंमें गुणग्राहकताका निभीक परिचय पूरे तोरसे दिया है2, और जगह जगह पतञ्जलिके योगशास्त्रगत खास साङ्केतिक शब्दोंका जैन सङ्केतोंके साथ मिलान करके सङ्कीर्णदृष्टिवालोंके लिये एकताका मार्ग खोल दिया है 3 । जैन विद्वार यशोविजयवाचकने हरिभद्रसूरिसचित एकताके मार्गको विशेष विशाल बनाकर पतञ्जलिके योगसूत्रको जैन प्रक्रियाके अनुसार समाझनेका थोडा किन्तु मार्मिक प्रयास किया है। इतना ही नहीं बल्कि अपनी बत्तीसियोंमें उन्होंने पतञ्जलिके-योगसूत्रगत कुछ विषयोपर खास बत्तीसियाँ भी रची हैं। इन सब बातोंको संक्षेपमें बतलानेका उद्देश्य यही है कि महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टिविशालता इतनी अधिक थी कि सभी दार्शनिक व साम्प्रदायिक विद्वान् योगशास्त्रके पास आते ही अपना साम्प्रदायिक अभिनिवेश भूल गये और एकरूपताका अनुभव करने लगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टि-विशालता उनके विशिष्ट योगानुभवका ही फल है, क्योंकि जब कोई भी मनुष्य शब्द शानकी प्राथमिक भूमिकासे आगे बढ़ता है तब वह शब्दकी पूंछ न खींचकर चिन्ताज्ञान तथा भावनाज्ञानके6 उत्तरोत्तर अधिकाधिक एकतावाले प्रदेशमें अभेद आनंदका अनुभव करता है।
___ आचार्य हरिभद्रकी योगमार्गमें नवीन दिशा-श्रीहरिभद्र प्रसिद्ध जैनाचार्यों में एक हुए । उनकी बहुश्रुतता, सर्वतोमुखी प्रतिभा, मध्यस्थता और समन्वयशक्तिका पूरा पारिचय करानेका यहाँ प्रसंग नहीं है। इसके लिए
__1 जैनशास्त्रमें वस्तुको द्रव्यपर्यायस्वरूप माना है । इसीलिये उसका लक्षण तत्त्वार्थ ( अ० ५-२९) में " उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्” ऐसा किया है । योगसूत्र ( ३-१३, १४ ) में जो धर्मधर्मीका विचार है वह उक्त द्रव्यपर्यायउभयरूपता किंवा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इस त्रिरूपताका ही चित्रण है। भिन्नता सिर्फ दोनोंमें इतनी ही है कि-योगसूत्र सांख्यसिद्धान्तानुसारी होनेसे " ऋते चितिशक्तः परिणामिनो भावाः " यह सिद्धान्त मानकर परिणामवादका अर्थात् धर्मलक्षणावस्था परिणामका उपयोग सिर्फ जडभागमें अर्थात् प्रकृतिमें करता है, चेतनमें नहीं। और जैनदर्शन तो " सर्वे भावाः परिणामिनः "ऐसा सिद्धान्त मानकर परिणामवाद अर्थात् उत्पादव्ययरूप पर्यायका उपयोग जड चेतन दोनोंमें करता है। इतनी भिन्नता होनेपर भी परिणामवादकी प्रक्रिया दोनोंमें एक सी है।
2 उक्तं च योगमार्गजैस्तपोनिधूतकल्मषैः । भावियोगहितायोचैर्मोहदीपसमं वचः ॥
(योगबिं. श्लो. ६६) टीका 'उक्तं च निरूपितं पुनः योगमार्गओरध्यात्मविद्भिः पतञ्जलिप्रभृतिभिः ।। "एतत्प्रधानः सश्छ्राद्धः शीलवार योगतत्परः । जानात्यतीन्द्रियानस्तिथा चाह महामतिः" ॥ (योगदृष्टिसमुच्चय श्लो. १००) टीका ' तथा चाह महामतिः पतञ्जलिः' । ऐसा ही भाव गुणग्राही श्रीयशोविजयजीने अपनी योगावतारद्वात्रिंशिकामें प्रकाशित किया है । देखो-श्लो० २० टीका ।
3 देखो योगबिन्दु श्लोक ४१८, ४२० । 4 देखो उनकी बनाई हुई पातञ्जलसूत्रवृत्ति ।
5 देखो पातञ्जलयोगलक्षणविचार, ईशानुग्रहविचार, योगावतार, क्लेशहानोपाय और योगमाहात्म्य द्वात्रिंशिका।
6 शब्द, चिन्ता तथा भावनाशानका स्वरूप श्रीयशोविजयजीने अध्यात्मोपनिषदमें लिखा है, जो आध्यात्मिक लोगोंको देखने योग्य है। अध्यात्मोपनिषदू लो. ६५, ७४ ।
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२२ ]
जैन साहित्य संशोधक
[ खंड
जिज्ञासु महाशय उनकी कृतियोंको देख लेवें । हरिभद्रसूरिकी शतमुखी प्रतिभाके स्रोत उनके बनाये हुए चार अनुयोगविषयका ग्राथोंमें ही नहीं बल्कि जैन न्याय तथा भातवर्षीय तत्कालीन समग्र दार्शनिक सि. चर्चावाले2 ग्रन्थोंमें भी बहे हुए हैं। इतना करके ही उनकी प्रतिभा मौन न हुई; उसने योगमार्गमें एक ऐसी दिशा दिखाई जो केवल जैन योगसाहित्यमें ही नहीं बल्कि आर्यजातीय संपूर्ण योगविषयक साहित्यमें एक नई वस्तु है। जैनशास्त्रमें आध्यात्मिक विकासके क्रमका प्राचीन वर्णन चौदह गुणस्थानरूपसे, चार ध्यान रूपसे
और बहिरात्म आदि तीन अवस्थाओंके रूपसे मिलता है। हरिभद्रसूरिने उसी आध्यात्मिक विकासके क्रमका योगरूपसे वर्णन किया है। पर उसमें उन्होंने जो शैली रक्खी है वह अभीतक उपलब्ध योगविषयक साहित्यमेंसे किसी भी ग्रंथमें कमसे कम हमारे दखनेमें तो नहीं आई है। हरिभद्रसूरि अपने ग्रन्थोंमें अनेक योगयोका नामनिर्देश करते हैं3, एवं योगविषयक4 ग्रन्थोंका उल्लेख करते हैं जो अभी प्राप्त भी नहीं हैं। संभव है उन अप्राप्य ग्रन्थों में उनके वर्णनकीसी शैली रही हो, पर हमारे लिये तो यह वर्णनशैली और योग विषयक वस्तु बिल्कुल अपूर्व है। इस समय हरिभद्रसूरिके योगविषयक चार ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं जो हमारे देखनेमें आये हैं । उनमेंसे षोडशक और योगविंशिकाके योगवर्णनकी शैली और योगवस्तु एक ही है । योगबिंदुकी विचारसरणी और वस्तु योगविशिकासे जुदा है। योगदृष्टिसमुच्चयकी विचारधारा और वस्तु योगबिंदुसे भी जुदा है। इस प्रकार देखनेसे यह कहना पडता है कि हरिभद्रसूरिने एक ही आध्यात्मिक विकासके क्रमका चित्र भिन्न भिन्न ग्रन्थोंमें भिन्न भिन्न वस्तुका उपयोग करके तीन प्रकारसे खींचा है।
कालकी अपरिमित लंबी नदीमें वासनारूप संसारका गहरा प्रवाह बहता है, जिसका पहला छोर [ मूल] तो अनादि है, पर दूसरा [ उत्तर ] छोर सान्त है । इसलिये मुमुक्षुओंके वास्ते सबसे पहले यह प्रश्न बडे महत्त्वका है कि उक्त अनादि प्रवाहमें आध्यात्मिक विकासका आरंभ कबसे होता है ? और उस आरंभके समय आत्माके लक्षण कैसे हो जाते हैं ? जिनसे कि आरंभिक आध्यात्मिक विकास जाना जा सके। इस प्रश्नका उत्तर आचार्यने योगबिंदुमें दिया है । वे कहते हैं कि-" जब आत्माके ऊपर मोहका प्रभाव घटनेका आरंभ होता है तभीसे आध्यात्मिक विकासका सूत्रपात हो जाता है। इस सूत्रपातका पूर्ववर्ती समय जो आध्यात्मिकविकासरहित होता है, वह जैनशास्त्रमें अचरमपुद्गलपरावर्तके नामसे प्रसिद्ध है। और उत्तरवर्ती समय जो आध्यात्मिक विकासके क्रमवाला होता है, वह चरमपुद्गलपरावर्तके नामसे प्रसिद्ध है। अचरमपुद्गलपरावर्तन और चरमपुद्गलपरावर्तनकालके परिमाणके बीच सिंधु और बिंदुका सा अंतर होता है । जिस आत्माका संसारप्रवाह चरमपुद्गलपरावर्त्तपरिमाण शेष रहता है, उसको जैन परिभाषामें ' अपुनर्बधक' और सांख्यपरिभाषामें 'निवृत्ताधिकार प्रकृति ' कहते हैं6 । अपुनर्बन्धक या निवृत्ताधिकारप्रकृति आत्माका आंतरिक परिचय इतना ही है कि उसके ऊपर मोहका दबाव कम होकर उलटे मोहके ऊपर उस आत्माका दबाव शुरू होता है। यही आध्यात्मिक विका
1 द्रव्यानुयोगविषयक-धर्मसंग्रहणी आदि १, गणितानुयोगविषयक क्षेत्रसमास टीका आदि २, चरणकरणानुयोगविषयक-पञ्चवस्तु, धर्मबिंदु आदि ३, धर्मकथानुयोगविषयक-समराइञ्चकहा आदि ४ ग्रन्थ मुख्य हैं।
2 अनेकान्तजयपताका, षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि ।
3 गोपेन्द्र (योगबिन्दु श्लोक २००) कालातीत (योगविन्दु श्लोक ३०० )। पतञ्जलि, भदन्तभास्करबन्धु, भगवदन्त (त्त ) वादी ( योगदृष्टि० श्लोक १६ टीका )।
4 योग-निर्णय आदि ( योगदृष्टि० श्लोक १ टीका ) 5 देखो मुक्त्यद्वेषद्वात्रिंशिका २८ । 6 देखो योगबिंदु १७८, २०१।
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अंक १ ]
सका बीजारोपण है । यहींसे योगमार्गका आरंभ हो जानेके कारण उस आत्माकी प्रत्येक प्रवृत्तिमें सरलता, नम्रता, उदारता, परोपकारपरायणता आदि सदाचार वास्तविक रूपमें दिखाई देते हैं; जो उस विकासोन्मुख आत्माका बाह्य परिचय है " । इतना उत्तर देकर आचार्यने योगके आरंभसे लेकर योगकी पराकाष्ठा तकके आध्यात्मिक विकासकी क्रमिक वृद्धिको स्पष्ट समझाने के लिये उसको पाँच भूमिकाओं में विभक्त करके हर एक भूमिका लक्षण बहुत स्पष्ट दिखाये हैं 1, और जगह जगह जैन परिभाषा के साथ बौद्ध तथा योगदर्शनकी परिभाषाका मिलान करके 2 परिभाषाभेदकी दिवारको तोडकर उसकी ओट में छिपी हुई योगवस्तुकी भिन्नभिन्नदर्शनसम्मत एकरूपताका स्फुट प्रदर्शन कराया है । अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंशय ये योगमार्गकी पाँच भूमिकायें हैं । इनमें से पहली चारको पतंजलि संप्रज्ञात, और अन्तिम भूमिकाको असंप्रज्ञात कहते हैं । यही संक्षेपमें योगबिन्दुकी वस्तु है ।
यागदर्शन
योगदृष्टिसयुच्चयमें आध्यात्मिक विकासके क्रमका वर्णन योगन्विदुकी अपेक्षा दूसरे ढंगसे है । उसमें आध्यात्मिक विकासके प्रारंभ के पहलेकी स्थितिको अर्थात् अचरमपुद्गलपरावर्त्तपरिमाण संसारकालीन आत्माकी स्थितिको दृष्टि कहकर उसके तरतम भावको अनेक दृष्टांत द्वारा समझाया है4, और पीछे आध्यात्मिक विकासके आरंभसे लेकर उसके अंततकमें पाई जानेवाली योगावस्थाको योगदृष्टि कहा है । इस योगावस्थाकी क्रमिक वृद्धिको समझानेके लिये संक्षेपमें उसे आठ भूमिकाओं में बाँट दिया है । वे आठ भूमिकायें उस ग्रन्थर्मे आठ योगदृष्टिके नामसे प्रसिद्ध हैं । इन आठ दृष्टियों का विभाग पातंजलयोगदर्शन- प्रसिद्ध यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि आठ योगांगों के आधार पर किया गया है, अर्थात् एक एक दृष्टिमें एक एक योगांगका सम्बन्ध मुख्यतया बतलाया है । पहली चार दृष्टियां योगकी प्रारम्भिक अवस्थारूप होनेसे उनमें अविद्याका अल्प अंश रहता है । जिसको प्रस्तुत ग्रंथ में अवेद्यसंवेद्यपद कहा है 6 | अगली चार दृष्टियों में अविद्याका अंश बिल्कुल नहीं रहता । इस भावको आचार्यने वेद्यसंवेद्यपद शब्दसे जनाया 7 है । इसके सिवाय प्रस्तुत ग्रंथमें पिछली चार दृष्टियोंके समय पाये जानेवाले विशिष्ट आध्यात्मिक विकासको इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग ऐसी तीन योग भूमिकाओं में विभाजित करके उक्त तीनों योगभूमिकाओंका बहुत रोचक वर्णन किया है 8 ।
[ २३
आचार्यने अन्तमें चार प्रकारके योगियोंका वर्णन करके योगशास्त्र के अधिकारी कौन हो सकते हैं, यह. भी बतला दिया है । यही योगदृष्टिसमुच्चयकी बहुत संक्षिप्त वस्तु है ।
योगविंशिकामें आध्यात्मिक विकासकी प्रारंभिक अवस्थाका वर्णन नहीं है, किन्तु उसकी पुष्ट अवस्थाओंका ही वर्णन है । इसीसे उसमें मुख्यतया योगके अधिकारी त्यागी ही माने गये हैं ! प्रस्तुत ग्रन्थमें त्यागी गृहस्थ और साधुकी आवश्यक - क्रियाको ही योगरूप बतलाकर उसके द्वारा आध्यात्मिक विकासकी क्रमिक वृद्धिका वर्णन किया है। और उस आवश्यक क्रियाके द्वारा योगको पाँच भूमिकाओं में विभाजित किया है । ये पांच भूमिकायें उसमें स्थान, शब्द, अर्थ, सालंबन और निरालंबन नामसे प्रसिद्ध हैं । इन पाँच भूमिकाओंमें कर्मयोग और ज्ञानयोगकी घटना करते हुए आचार्यने पहली दो भूमिकाओंको कर्मयोग और पिछली तीन भूमिकाओंको ज्ञानयोग कहा है । इसके सिवाय प्रत्येक भूमिकामें इच्छा, प्रवृत्ति, स्थैर्य और सिद्धिरूपसे आध्यात्मिक विकासके तरतम भावका प्रदर्शन कराया है; और उस प्रत्येक भूमिका तथा
1
1 योगबिंदु, ३१, ३५७, ३५६, ३६१, ३६३, ३९६ ।
2 “यत्सम्यग्दर्शनं बोधिस्तत्प्रधानो महोदयः । सत्त्वोऽस्तु बोधिसत्त्वस्तद्धन्तैषोऽन्वर्थतोऽपि हि ।। २७३॥ बरबोधिसमेतो वा तीर्थकुद्यो भविष्यति । तथाभव्यत्वतोऽसौ वा बोधिसत्त्वः सतां मतः ॥ २७४ ॥ योगबिन्दु ।
3 देखो योगबिंदु ४१८, ४२० ।
4 देखो, योगदृष्टिसमुच्चय १४ । 5 १३ ।
6 ७५ ।
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7 ७३ । 8 २-१२ ।
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२४ ]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
इच्छा, प्रवृत्ति आदि अवान्तर स्थितिका लक्षण बहुत स्पष्टतया वर्णन किया है। इस प्रकार उक्त पाँच भमिकाओंकी अन्तर्गत निन्न भिन्न स्थितियोंका वर्णन करके योगके अस्सी भेद किये हैं, और उन सबके लक्षण बतलाये हैं,जिनको ध्यानपूर्वक देखनेवाला यह जान सकता है कि मैं विकासकी किस सीढीपर खडा हूँ । यही योगविंशिकाकी संक्षिप्त वस्तु है।
उपसंहार-विषयकी गहराई और अपनी अपूर्णताका खयाल होते हुए भी यह प्रयास इस लिये किया गया है कि अबतकका अवलोकन और 'स्मरण संक्षेपमें भी लिपिबद्ध हो जाय, जिससे भविष्यत्में विशेष प्रगति करना हो तो इस विषयका प्रथम सोपान तैयार रहे। इस प्रवृत्तिमें कई मित्र मेरे सहायक हुए हैं जिनके नामोल्लेख मात्रसे मैं कृतज्ञता प्रकाशित करना नहीं चाहता। उनकी आदरणीय स्मृति मेरे हृदयमें अखंड रहेगी।
पीठकोंके प्रति एक मेरी सूचना है। वह यह कि इस निबंधमें अनेक शास्त्रीय पारिभाषिक शब्द आये हैं। खासकर अन्तिम भागमें जैन-पारिभाषिक शब्द अधिक हैं, जो बहुतोंको कम विदित होंगे; उनका मैंने विशेष . खुलासा नहीं किया है, पर खुलासावाले उस उस ग्रन्थके उपयोगी स्थलोंका निर्देश कर दिया है जिससे विशेष जिज्ञासु मूलग्रन्थद्वारा ही ऐसे कठिन शब्दोंका खुलासा कर सकेंगे। अगर यह संक्षिप्त निबंध न हो कर खास पुस्तक होती तो इसमें विशेष खुलासोंका भी अवकाश रहता ।
इस प्रवृत्तिके लिये मुझको उत्साहित करनेवाले गुजरात पुरातत्त्व संशोधन मंदिरके मंत्री परीख रसिकलाल छोटालाल हैं जिनके विद्याप्रेमको मैं नहीं भूल सकता ।
।
संवत् १९७८ पौष
वदि ५ भावनगर.
लेखकसुखलाल संघजी.
1 योगविंशिका गा०५, ६।
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कुंरपाल सोणपाल प्रशस्ति
(लेखक-बनारसी दास जैन, एम० ए०, ओरियंटल कालेज, लाहोर.)
१. सन १९२० में एस० एस० जैन कानफ्रेन्स की तरफ से इन्दौर वासी सेठ केसरी चन्द भण्डारी ने मुझे लिखा कि उक्त कान्फ्रेन्स का जो प्राकृत कोश बन रहा है आप उसे देखकर उस के विषय में अपनी तथा अन्य प्राकृत विद्वानों की सम्मति लेकर लिखें । इस सम्बन्ध में मुझे उस साल कई नगरों में जाना पड़ा । जब मैं आगरे में था तो मेरा समागम पं० सुखलालजी से हुआ, उन्हों ने मुझे बतलाया कि यहां के मन्दिर में एक नया शिला लेख निकला है 1 जिसको अभी किसी ने नहीं देखा। मैं मुनि प्रतापविजयजी को साथ लेकर उसे देखने गया । परन्तु उस समय छाप उतारने की सामग्री विद्यमान न थी इस लिये उस समय मैं वहां अधिक ठहरा भी नहीं क्योंकि लेख को देखने के दो तीन घंटे पीछे मैं वहां से चल पड़ा था।
२. फिर अप्रैल सन १९२१ में मैं पंजाब यूनिवर्सिटी के एम. ए. तथा बी. ए. क्लासों के संस्कृत विद्यार्थियों को लेकर कलकत्ता, पटना, लखनऊ आदि बड़े बड़े नगरों के अजायब घर (Museums) देखने जा रहा था, तब आगरे में भी ठहरा और उपरोक्त शिलालेख की छाप तय्यार की, परन्तु अब वहां न तो पं. सुखलालजी थे न ही मुनि प्रतापविजयजी थे। बाबू दयालचन्दजी भी कारण वश बाहिर गए हुए थे। इन के अतिरिक्त और कोई श्रावक मुझ से परिचित न थे इसलिये उस वक्त वह छाप मुझ को न मिल सकी । अब कलकत्ता निवासी श्रीयुत बाबू पूरणचन्द नाहर द्वारा मैं ने वह छाप प्राप्त की है और उसी के आधारपर पाठकों को इस शिलालेख का परिचय दे रहा हूं।
३. यह लेख लाल पत्थर की शिला पर खुदा हुआ है जो लग भग दो फुट लम्बी और दो फुट चौड़ी है। लेख खोदने से पहिले शिला के चारों और दो दो इंच का हाशिया ( margin ) छोड कर रेखा डाल दी गई है। रेखा के बाहिर ऊपर की तरफ " पातसाहि श्री जहांगीर " उभरे हुए अक्षरों में खुदा हुआहै । बाकी का सारा लेख गहिरे अक्षरों में खुदा हुआ है। रेखाओं के अन्दर लेख की ३३ पंक्तियां हैं मगर उन में लेख समाप्त न हो सका इस लिये रेखाओं के बाहिर नीचे दो पंक्तयां (नं ३४ और ३८ ) दाई ओर - क पंक्ति ( नं. ३५)
और बाई ओर दो पंक्तियां [ नं० ३६-३७ ] और खोदी गई हैं। शिला के दाई ओर नीचे का कुछ भाग टूट गया है जिस से लेख की पंक्ति २८-३४ और ३८ के अन्त के आठ नौ अक्षर
और पंक्ति ३५ के आदि के १४, १५ अक्षर टूट गए हैं । इस से कुँवरपाल सोनपाल के उस समय वर्तमान परिवार के प्रायः सब नाम नष्ट हो गए हैं। पंक्ति ३६-३७ के भी कुछ अक्षर ढ़े नहीं गए।
1 मन्दिर की एक कोठडी में बहुत से पत्थर पडे थे । जब अप्रैल मई सन् १९२० में उन पत्थरों को निकालने लगे तो उन में से यह लेख भी निकला । अब यह शिला लेख मन्दिर में ही पडा है।
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२६ ]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
४. लेख के अक्षर शुद्ध जैन लिपि के हैं जो कि हस्त लिखित पुस्तकों ( Mss. ) में पाए जाते हैं । पुस्तकों की भांति लेख की आदि में द०' यह चिन्ह है जो शायद · ओम् ' शब्द का द्योतक है, क्योंकि प्राचीन शिलालेख तथा ताम्रशासनों में ओम् ' के लिये कुछ ऐसा ही चिन्ह हुआ करता था । 'च' और 'व' की आकृति बहुत कुछ मिलती जुलती है। पक्ति ६ और ८ में मार्ग और वर्ग शब्दों में 'ग' के लिये · ग्र' 1 चिन्ह आया है जो जैन लिपि का खास
५. वर्णविन्यास ( Spelling) में विशेषता यह है कि " परसवर्ण" कहीं नहीं किया गया अर्थात् स्पर्शीय अक्षरों के पूर्व नासिक्य के स्थान में सर्वदा अनुस्वार लिखा गया है जैसे पंक्ति २ में पङ्कज, बिम्ब, चन्द्र के स्थान में पंकज, बिंब, चंद्र लिखे हैं। इसी प्रकार श्लोकाध वा श्लोक के अन्त में म् के स्थान में अनुस्वार ही लिखा है जैसे पंक्ति १६ में अठारहवें अर्धश्लोक के अन्त में · श्रुत्वा कल्याणदेशनां ।' पंक्ति २० अर्धश्लोक २१ : वित्तबीजमनुतरं । ' पंक्ति २२ श्लोकान्त २३ · चित्तरंजकं ।' पंक्ति २६ श्लोकान्त २८ कारितं ।' इत्यादि । पंक्ति ५ में षट्त्रिंशत के स्थान में षट्त्रिंशत् लिखा है। विराम का चिन्ह ।' श्लोकपादों के अन्त में भी लगाया है, कहीं कहीं पंक्ति के अन्त में अक्षर के लिये पूरा स्थान न होने से विराम लिख दिया है जैसे पंक्ति ७, ९, १२, १५ आदि में।
६. पट्टावलि को छोड़ कर बाकी तमाम लेख श्लोकबद्ध है। इसकी भाषा शुद्ध संस्कृत है परन्तु पंक्ति १५ में पति शब्द का सप्तमी एक वचन ' पतौ' लिखा है जो व्याकरण की रीति से 'पत्यौ ' होना चाहिये था । यद्यपि पंक्ति १६ में 'कारिता' और पंक्ति २६ मे ‘कारितं' शब्द आए हैं तथापि पंक्ति ३२ में कारिता के लिये कारापिता ' लिखा है। यह शब्द जैन लेखकों के संस्कृत ग्रन्थों में बहुधा पाया जाता है और प्राकृत से संस्कृत प्रयोग बना है। पंक्ति १७ में प्राकृत शैली से आनन्द श्रावक का नाम ' आणंद' लिखा है और पंक्ति ११ में 'उत्सुकौ' के स्थान में : उच्छुकौ ' शब्द प्रतीत होता है।
७. यह प्रशस्ति जहांगीर बादशाह के समय की है। विक्रम सं० १६७१ में आगरा निवासी कुंरपाल सोनपाल नाम के दो भाइयों ने वहां श्री श्रेयांस नाथ जी का मन्दिर बनवाया था जिस की प्रतिष्ठा अंचल गच्छ के आचार्य श्री कल्याणसागर जी ने कराई थी। उस समय यह प्रशस्ति लिखी गई। मन्दिर की प्रतिष्ठा के साथ ४५० अन्य प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा भी हुई थी जिन में से ६, ७ प्रतिमाओं के लेख बाबू पूर्णचन्द नाहर ने अपने " जैन लेख संग्रह " में दिये हैं। (देखिये उक्त पुस्तक, लेख नं० ३०७-३१२, ४३३ )। इन लेखों से कुंरपाल सोनपाल के पूर्वजों का कुछ हाल मालूम नहीं होता लेकिन प्रशस्ति में उन की वंशावलि इस प्रकार दी है।
1 डाक्टर वेबर ( Weber. ) इसको प्र ( ग्र) पढते हैं जैसा कि बर्लिन नगर के जैन घुस्तकों की सूचि के पृष्ट ५७६ पर आए pograla. शब्द से स्पष्ट प्रतीत होता हैं, वास्तव में यह शब्द पोग्गल ( Poggla.) हैं । इसी प्रकार पृष्ठ ५२५ पर मियग्गाम को miyagrams. (मियग्राम ) लिखा
Weber's datalogue of Crakrit Mss in the Royal Lidrary at Berlin.
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अंक १]
कुंरपाल सोणपाल प्रशस्ति
[ २७
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श्रीश्रंग
वेसराज
श्रीरंग
राजपाल
जीणासीह
मल्लसीह
ऋषभदास (अपर नाम रेषा, भार्या रेषश्री) प्रेमन (वा पेमा)
कुंरपाल
सोनपाल
?
तसी
नेतसी
(पुत्री) जादो कुंरपाल सोनपाल ओसवाल जाति के लोढा गोत्रीय थे । इन को जहांगीर बादशाह का अमात्य ( मंत्री ) करके लिखा है। जहांगीर के राज्य सम्बन्धी एक दो फारसी किताबें देखी परन्तु उन में इन का नाम उपलब्ध नहीं हुआ।
८. मूर्तियों के लेखों से मालूम होता है कि कुंरपाल सोनपाल के वंश को गाणी वंश कहते थे और इन लेखों से उन के परिवार के कुछ नामों का भी पता चलता है जो प्रशस्ति में पढ़े नहीं जाते जैसे कि:- ऋषभदास के कुंरपाल सोनपाल के सिवाय रूपचंद, चतुर्भुज, धनपाल, दुनीचंद आदि और भी पुत्र थे ।
प्रेमन की भार्या का नाम शक्ता देवी था ।
षेतसी की भार्या का नाम भक्ता देवी था उन का पुत्र० सांग था। ९. इस के अतिरिक्त “ जैनसाहित्य संशोधक" खण्ड १ अंक ४ में जो सं.१६६७ का “ आगरा संघनो सचित्र वसरिक पत्र " प्रकाशित हुआ है, उस में कुछ नाम प्रशस्ति के नामों से मिलते हैं परन्तु यहात निश्चयपूर्वक नहीं कही जा सक्ती कि दोनों लेखों में एक ही व्यक्ति का उल्लेख है या भिन्न २ काः
1 येह लेख पैरेग्राफ १३ मे उध्दत किये गए हैं।
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२८ ]
सांवत्सरिक
""
३०
पेमन, सं: नेतसी
३३
पेतसी
३४
नेतसी, सं: रीषभदास रीषभदास सोनी
३५
१०. प्रशस्ति के समय के संबंध में यह बात बडी ध्यान देने योग्य है कि प्रशस्ति में तो साफ तौर पर वैशाख शुदि ३, विक्रम सं० १६७१ गुरुवासर ( बृहस्पतिवार) लिखा है परंतु मूर्तियों के लेखों में वैशाख शुदि ३ विक्रम सं. १६७१ शनि ( सनीचर वार ) लिखा है 1 यह ऐसा विरोध है कि इस के लिये कोई हेतु नहीं दिया जा सक्ता; क्योंकि एक ही स्थान पर एक ही तिथि में वारभेद कैसे हो सक्ती है । यदि तृतीया वृद्धि तिथि होती तो भी कह सक्ते कि वृहस्पतिवार की रात्रि के पिछले पहर में और शनि को दिन के पहिले पहर में तृतीया थी । मगर तृतीया वृद्धि तिथि न थी जैसा कि इंडियन कैलेंडर 2 में दी हुई सारिणी (Tables ) के अनुसार गणित करने पर गत संवत् ( Expired ) १६७१ वैशाख सुदि ३ शनिवार २ अप्रैल सन् १६१४ ( Old Style ) को आती है और उस दिन वह तिथि १७ घडी के अनुमान बाकी थी । रोहिणी नक्षत्र सूर्योदय से १३ घडी पीछे लगा । वैशाख वदि १३ ( अमान्त मास से चैत्र वदि १३ ) वृद्धि तिथि आती है ।
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""
पत्र
19
99
99
पंक्ति
17
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जैन साहित्य संशोधक
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साः
साः
साः
""
4 Epigraphia Indica p.39
5 भांडारकर - उक्त पुस्तक पृष्ठ ३२१
[ खंड २
११. प्रशस्ति में दी हुई अंचल गच्छ की पट्टावलि से ज्ञात होता है कि उस गच्छ के प्रवर्तक आचार्य, श्री आर्यरक्षित सूरि, भगवान महावीर स्वामी से ४८ वें पट्ट पर बैठे थे और श्री कल्याण सागर सूरि गच्छ के १८ वें आचार्य थे। अंचल गच्छ की पट्टावलि डा. भांडारकर और डा. ब्यूलर ने भी छापी है । इन में डा. भांडारकर तो पांचवें आचार्य श्री सिंहप्रभ सूरि का नाम छोड़ गए हैं और डा. ब्यूलर छठे आचार्य श्री अजितसिंहसूरि अपरनाम श्री जिनसिंह सूरि का नाम छोड़ गए हैं । हालां कि जिन आधारों परसे उन्हों ने यह पट्टावलि छापी है उन में साफ़ तौर पर उक्त दोनों आचार्यों के नाम यथास्थान दिये हुए हैं । 5
1 जैन लेख संग्रह, लेख नं. ३०८-११ “ श्री मत्संवत १६७१ वर्षे वैशाष सुदि ३ शनौ ” 2 The Indian Calendar dy Sewel and Balkrishna Dikshit, 1896.
3 Report on the Search for Sanskrit manuscripts for the year 1883-84 Bomday 1887 p. 130
४८ श्री आर्यरक्षितसूरिः चंद्रगच्छे श्रीअंचलगच्छस्थापना शुद्धविधिप्रकाशनात् सं. ११५९
४९ श्रीविजयसिंह सूरिः
५० श्रीधर्मघोष सूरिः
५१ श्रीमहेंद्रसिंह सूरिः
५२ श्रीसिंहप्रभ सूरिः
५३ श्री अजितसिंहसूरिः पारके चित्रावालगच्छतो निर्गता सं. १२८५ तपगच्छमतं वस्तुपालतः
गच्छस्थापना
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अक १]
कुंरपाल लोणपाल प्रशस्ति
[२९
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. १२. अंत में मैं यह निवेदन करना चाहता हूं कि इस प्रशस्ति के संबंध में दो बातों की अधिक खोज आवश्यक है एक तो यह कि मुगल बादशाहो के इतिहास में कुं[ व ]रपाल और सोनपाल या उन के पिता का नाम ढूंडना चाहिये, और दूसरी यह कि बैसाख सुदि ३ को बहस्पति और शनि क्योंकर हो सक्ते हैं; इस का समाधान करना चाहिये ॥ -१३. मूर्तियों के लेख: जैन लेख संग्रहः पृष्ठ ७८, ७९, १०५
नं० ३०७. सम्बत १६७१ आगरावास्तव्य ओसवाल ज्ञातीय लोढा गोत्रे गाणी वंसे सं० ऋषभदास भार्या सुः रेष श्री तत्पुत्र संघराज सं० रूपचन्द चतुर्भुज सं० धनपालादि युते श्री मदंचलगच्छे पूज्य श्री ५ धर्ममूर्ति सूरि तत् पट्टे पूज्य श्री कल्याणसागर सूरीणामुपदेशेन विद्यमान श्री विसाल जिनबिंब प्रति....
नं० ३०८. संवत १६७१ वर्षे ओसवाल ज्ञातीय लोढा गोत्रे गाणी वंसे साह Qरपाल1 सं० सोनपाल प्रति० अंचलगच्छे श्री कल्याणसागर सूरीणामुपदेशेन वासुपूज्यबिंब प्रतिष्ठापितं ।
नं० ३०९. ॥ श्रीमत्संवत १६७१ वर्षे वैशाष सुदि ३ शनौ आगरा वास्तव्योसवाल ज्ञातीय लोढा गोत्रे गावंसे संघपति ऋषभदास भा० रेषश्री पुत्र सं० कुंरपाल सं० सोनपाल प्रवरौ स्वपितृ ऋषभदास पुन्याथै श्रीमदंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री पदमप्रभु जिनविंबं प्रतिष्ठापितं सं० चागाकृतं ॥
नं० ३१०. श्रीमत्संवत १६७१ वर्षे वैशाष सुदि ३ शनौ श्री आगरावास्तव्य उपकेस ज्ञातीय लोढा गोत्र सा० प्रेमन भार्या सादे पुत्र सा० षेतसी लघुभ्राता सा० नेतसी सुतेन श्रीमदंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री वासपूज्यबिंब प्रतिष्ठापितं सं० कुंरपाल सं० सोनपाल प्रतिष्ठितं ।
लर-उक्त ( Epig. Ind. ) Jaina inscriptions from Satrunjaya, Nos. XXI, XXVII, और CV. XXI यह लेख स. १६७५ का है
श्रीसिंहप्रभसूरीशाः सूरयोऽजितसिंहकाः । श्रीमद्देवेन्द्रसूरीशाः श्रीधर्मप्रभसूरयः ॥ ८॥ __ श्रीसिंहतिलकाव्हाश्च श्रीमहेन्द्रप्रभाभिधाः । श्रीमन्तो मेरुतुङ्गाख्या बभूवुः सूरयस्ततः ॥ ९॥ XXVII यह लेख सं० १६८३ का है
तेभ्यः क्रमण गुरवो जिनसिंहगोत्राः बभूवुरथ पूज्यतमा गणेशाः॥ देवेन्द्रसिंहगुरवोऽखिललोकमान्याः धर्मप्रभा मुनिवरा विधिपक्षनाथाः॥९॥ पूज्याश्च सिंहतिलकास्तदनु प्रभूत-भाग्या महेन्द्रविभवा गुरवो बभूवुः ॥
चक्रेश्वरी भगवती विहितप्रसादाः श्रीमेरुतुङ्गसूरो नरदेववन्द्याः ॥ १० ॥ CV यह लेख सं १९२१ का है। इस में आचार्य कल्याणसागर तक लेख नं XXVII के ही श्लोक उध्दृत किये हैं । इन लेखों की भाषा जैन संस्कृत है।
1 सिवाय लेख ४३३ के और सब जगह कुंर को कुंर या क्रुर पढा है। 2 प्रशस्ति में तथा मूर्ति के अन्य लेखों मे नेतसी ।
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[ खंड २
नं० ३११. श्रीमत्संवत् १६७१ वैशाष सुदि ३ शनौ श्री आगरानगरे ओसवाल ज्ञाती लोढा गोले - गावंसे सा० पेमन भार्या श्री शक्तादे पुत्र सा० घेतसी भा० भक्तादे पुत्र सा०० - सांगश्रा अंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री विमलनाथ बिंबं प्रतिष्ठापितं सा० क्रुरपाल.... ।
३० |
जैन साहित्य संशोधक
नं० ३१२. [ सं० १६७१ ] ॥ संघपति श्री कुंरपाल सं० सोनपालैः स्वमातृपुन्यार्थ श्री अचलगच्छे पूज्य श्री ५ श्री धर्ममूर्तिसूरि पट्टाम्बुजहंस श्री ५ श्री कल्याणसागर सरीणामुपदेशेन श्री पार्श्वनाथबिंबं प्रतिष्ठापितं पूज्यमानं चिरं नंदतु ॥
नं० ४३३. श्रीमत्संवत १६७१ वर्षे वैशाष सुदि ३ शनौ श्री आगरावास्त-योसवाल ज्ञातीय लोढा गोत्रे गावं-त्रा स० ऋषभदास भार्या रेषश्री तत्पुत्र श्री कुंरपाल सोनपाल संघाधिपे स्वानुजवर दुनीचंदस्य पुण्यार्थी उपकाराय श्री अंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री आदिनाथबिंबं प्रतिष्ठापितं ॥ ]
प्रशस्ति की नकल
(नोट: - [ ] इन चिन्हों में दिये अक्षर टूट गए हैं या साफ नहीं पढे जाते ) ॥ पातसाहि श्री जहांगी[र] ॥
१. ॥ ॐ ॥ श्री सिद्धेभ्यो नमः ॥ स्वस्ति श्री ष्णुपुत्रो निखिलगुणयुतः पारगो वी - रागः । पायाद् वः क्षीणकर्मा सुरशिखरिसमः के [रूप] -
२. तीर्थप्रदाने ॥ श्री श्रेयान् धर्म्ममूर्तिर्भविकजनमनः पंकजे बिम्ब भानुः । कल्याणाम्भोधिचन्द्रः सुरनरनिकरैः सेव्य [ मा ]
३. नः कृपालुः ॥ १ ॥ ऋषभप्रमुखाः सार्वा 2 । गौतमाद्या मुनीश्वराः । पापकर्म्मविनिर्मुक्ताः क्षेमं कुर्वन्तु सर्वदा ॥ २ ॥ कुंर
४. पालस्वर्णपाल । धर्मकृत्यपरायणौ । स्ववंशकुजमार्त्तण्डौ । प्रशस्तिर्लिख्यते तयोः ॥ ३ ॥ श्रीमति हायने रम्ये चन्द्रर्षिरस -
५.
भूमिते १६७१ । षड्ेत्रिंशत्तिथिशाके १५३६ विक्रमादित्यभूपतेः ॥ ४ ॥ राधमासे वसन्त शुक्लायां तृतीयातिथौ । युक्ते तु
६. रोहिणीमेन निर्दोषे गुरुवासरे ॥ ९ ॥ श्री मदञ्च गच्छाख्ये । सर्वगच्छावतंसके । सिद्धान्ताख्यातमार्गेण । राजिते विश्वविस्तृते । ६ । उग्रसे
.
1 लेख में विंव
2 विसर्ग खोदकर काटी गई है जिस से विराम सा प्रतीत होता है ।
3 षट्० चाहिये ।
4
<< ल " खोदने से रह गया था । पीछे च ग के नीचे खोदा गया है ।
5 ग्ग के लिये ग्र चिन्ह लिखा गया है ।
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अंक १]
७. नपुरे रम्ये निरातङ्करसाश्रये । प्रासादमन्दिराकीर्णे । सद्ज्ञातौ ह्युपकेशवे । ७ । लोढा गोत्रे विवस्वास्त्रिजगति सुयशा ब्रह्मच
८. र्यादियुक्तः । श्रीश्रङ्गख्यातनामा गुरुवचनयुतः कामदेवादितुल्यः । जीवाजीवादितत्वे पररुचिरमतिर्लोकवर्गेषु याव । ज्जीया
९. श्चन्द्रार्कबिम्बं परिकरभृतकैः सेवितस्त्वं मुदा हि । ८ । लोढा सन्तानविज्ञातो । धनराजे गुणान्वितः । द्वादशत्रतधारी च । शुभ
१०. कर्म्मणि तत्परः । ९ । तत्पुत्रो वेसराजश्च । दयावान् सुजनप्रियः । तूर्यव्रतधरः श्रीमान् चातुर्यादिगुणैर्युतः । १० । तत्पुत्रौ द्वा
कुंरपाल सोणपाल प्रशस्ति
११. वभूतां च । सुरागावर्धितौ सदा । जेठू श्रीरङ्गगोत्रौ च । जिनाज्ञापालानोच्छुकौ 1 । ११ । तो जाणासीहमल्लाख्यौ जेठ्वात्मजौ बभूवतु
१२. : । धर्म्मविदौ च दक्षौ च । महापूज्यौ यशोधनौ । १२ । आसीच्छ्री रङ्गजो नूनं जिनपादार्चने रतः । मनीषी सुमना भव्यो राजपा
१३. ल उदारधीः । १३ । आर्या । धनदौ वर्ष भदास । पेमाख्यौ विविधसौख्यधनयुक्तौ । आस्तां प्राज्ञौ दौ च तत्त्वज्ञौ तौ तु तत्पु
१४. त्रौ । १४ । रेषामिधस्तयोर्ज्येष्ठः । कल्पद्धरिव सर्वदः । राजमान्यः कुलाधारो । दयालुर्धर्म्मकर्म्मठः | १५ | रेषश्रीस्तत्प्रिया
१५. भव्या । शीलालङ्कारधारिणी । पतिव्रता पतौ रक्ता । सुलशारेवतीनिमा । १६ । श्री पद्मप्रभम्बस्य नवीनस्य जिनाल
[ ३१
१६. ये । प्रतिष्ठा कारिता येन सत् श्राद्धगुणशालिना 4 । १७ । ललौ तूर्यव्रतं यस्तु । श्रुत्वा कल्याणदेशनां । राजश्रीनन्दनः
१७. श्रेष्ठ । आनन्द श्रावकोपमः । १८ । तत्सूनुः कुंरपालः । किल विमलमतिः स्वर्णपालो द्वितीय- । चातुर्यौदार्यधैर्यप्रमु
I
१८. खगुणनिधिर्भाग्यसौभाग्यशाली । तौ द्वौ रूपाभिरामौ । विविधजिनवृषध्यानकृत्यैकनिष्ठौ । त्यागैः कर्णावतारौ निज
१९. कुलतिलकौ वस्तुपालोपमा पुण्यकर्तारौ । विख्यातौ भ्रा
1
1 च्छ के लिये जैन लिपि का चिन्ह |
2 लेख में आसीछ्रीरंग ० लिखा है ।
3 पत्यौ होना चाहिये था ।
। १९ । श्री जहांगीरभूपालामात्यैौ धर्म्मधुरन्धरौ । धनिनौ
२०. तरौ भुवि । २० । याभ्यामुप्तं नवक्षेत्रे । वित्तबीजमनुत्तरम् । तौ धन्यौ कामदौं लोके ।
लोढागोत्रावतंसकौ । २१ । अवा
4 सच् श्राद्ध ० या सच्छ्राद्ध होना चाहिये था ।
5 लेख में आनंद • लिखा
1
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जैन साहित्य संशोधक
३२ ]
[ खंड २
२१. प्य शासनं चारु । जहांगीरपतेर्ननु । कारयामासतुर्धर्म्म । क्रियासवै सहोदरौ । २२ । शाला पोषधपूर्वा वै यकाभ्यां सा 1 २२. विनिर्मिता । "अधित्यकात्रिकं यत्र राजते चित्तरञ्जकम् | २३ | समेतशिखरे भव्ये शत्रुञ्जयेर्बुदाचले । अन्येष्वपि च तीर्थेषु गि
२३. रिनारिगिरौ तथा । २४ । सङ्घाधिपत्यमासाद्य । ताभ्यां यात्रा कृता मुदा । महद सर्वसामग्र्या । शुद्धसम्यक्त्त्वहेतवे । २५ । तुरङ्गा
1
1
२४. णां शतं कान्तं । पञ्चविंशतिपूर्वकम् । दतं तु तीर्थयात्रायै । गजानां पञ्चविंशतिः । २६ । अन्यदपि धनं वित्तं । प्रत्तं संख्यातिगं खलु
२५. अर्जयामासतुः कीर्ति । मित्थं तौ वसुधातले । २७ । उत्तुङ्गं गगनालम्बि । सचि सध्वजं परम् । नेत्रासेचनकं ताभ्यां । युग्मं चैत्य
I
२६. स्य ं कारितम् । २८ । अथ गद्यम् । श्री अञ्चलगच्छे । श्री वीरादष्टचत्वारिंशत्तमे पट्टे । श्रीपाaaगिरौ श्रीसीमन्धरजिनवचसा श्रीचक्रे [ श्वरीद ]२७. तवराः । सिद्धान्तोक्तमार्गप्ररूपकाः ।
श्रीविधिपक्षगच्छसंस्थापकाः । श्री आर्यरक्षित
सूरय - १ । स्तत्पदे श्रीजयसिंहसूरि [ २ श्री धर्म घो]
२८. सूरि ३ श्रीमहेन्द्रसूरि ४ श्रीसिंहप्रभसूरि ५ श्री जिनसिंहसूरि ६ श्रीदेवेन्द्रसिंहसूर ७ श्रीधर्मप्रभसूरि ८ श्री [ सिंहतिलकसू ] -
२९.
९ श्रीमहेन्द्रप्रभसूरि १० श्रीमेरुतुङ्गसूरि ११ श्रीजयकीर्तिसूरि १२ । श्रीजयकेशरिसूरि १३ श्रीसिद्धान्तसागर [ सूरि १४ श्री भावसा ]
३०. गरसूरि १५ श्रीगुणनिधानसूरि १६ श्रीधर्म्ममूर्तिसूरय १७ स्तत्पट्टे सम्प्रति विराजमानाः । श्रीभट्टारक पुरवराः [
14
३१. णयः श्रीयुगप्रधानाः । पूज्य भट्टारक श्री ५ श्री कल्याणसागर सूरय १८ स्तेषामुपदेशेन श्री श्रेयांसजिनबिम्बा [ दीना -
15
३२. कुंरपालसोनपालाभ्यां प्रतिष्ठा कारापिता । पुनः श्लोकाः । श्रीश्रेयांसजिनेशस्य बिम्बं
स्थापितमुत्तमं प्रति[
]
३३. णामुपदेशतः । २९ । चत्वारि शतमानानि । सार्धान्युपरि तत्क्षणे । प्रतिष्ठित बिम्बानि जिनानां सौख्यकारि [ णाम् । ३० ।
-]
1 सा शब्द का I चिन्ह २२ वीं पंक्ति में हैं ।
2 गिरिनार ० चाहिये था क्यों कि यह शब्द गिरिनगर का अपभ्रंश है ।
3 चैत्ययोः चाहिये था ।
4 यहां से सात आठ अक्षर टूट गए हैं।
5 यहां से पांच अक्षर टूट गए हैं। 6 सार्द्रा • लिखा है ।
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अक १]
कुंरपाल सोनपाल प्रशस्ति ३४. तु लेभाते । प्राज्यपुण्यप्रभावतः देवगुव्वोंः सदा भक्तौ । शश्वत्तौ नन्दतां चिरम् । ३१ ।
मथ तयोः परिवारः । सङ्घराज [ ----1--1 ३५. - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - । ३२ । सूनवः
स्वर्णपाल - । - - - - [ चतुर्भुज ] - - - - - - - - [ पुत्री ] युगलमुत्तमम्
। ४३ । प्रेमनस्य त्रयः पु[त्राः - - -] ३६. घेतसी तथा । नेतसी विद्यमानस्तु सच्छोलेन सुदर्शनः। ३४ । धीमतः सङ्घराजस्य ।
तेजस्विनो यशस्विनः । चत्वारस्सनुजन्मान ------ मताः ३५कुंसालस्य स३७.द्भार्या । - - - - - - - - । - - - - - - - - । - - - - पातप्रिया
। ३६ । तदङ्गजास्ति गम्भीरा जादो नाम्नी [स]- - - । - - - - - - - -
ज्येष्ठमल्लो गुणाश्रयः । ३७ । ३८. सङ्घश्रीसुलसश्रीर्दा । दुर्गाश्रीप्रमुखैनिजैः । वधूजनैयुतौ भाता । रेषश्री नन्दनी सदा
। ३८ । भूमण्डलसमारङ्ग । सिन्ध्वर्कयुक्त [- - - । - - - - - - - - - - - - - - - - - । ३८] 2 .
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लेख का सारांश (लेख की भाषा सरल होने के कारण पूरा अनुवाद नहीं दिया ) पंक्ति १-३ मंगलाचरण । ४-५ प्रशस्ति का रचना काल । विक्रम संवत् चन्द्र ऋषि रस भू अर्थात् १६७१,शक
खंवत् १५३६, राध ( वैशाख) मास, वसंत ऋतु, शुक्ल पक्ष, तृतीया तिथी, __ गुरुवार रोहिणी नक्षत्र । ६ अंचल गच्छ की प्रशंसा ।
७ उप्रसेनपुर ( आगरा नगर ) की शोभा का वर्णन । ८-९ उपकेश (ओसवाल ) ज्ञातीय, लोढा गोत्रीय, श्रीअंग की स्तुति । १. उस के पुत्र वेसराज के गुणों का वर्णन ।
११ वेसराज के पुत्र जेठू और श्रीरंग का वर्णन | ११-१२ जेठू के पुत्र जीणाीह और मल्ल[सीह ] का वर्णन। ..
१२ श्रीरंग का पुत्र राजपाल, तिस का वर्णन । १३ राजपाल की राज दरबार में बड़ी प्रतिष्ठा था, और उस के ऋषभदास और
पेमन दो पुत्र थे। १४ उन में ऋषभदास ( अपरनाम रेषा) बडा था। इस की भार्या रेषश्री । १५-१६ ऋषभदास ने मंदिर में श्रीपञ्चप्रभ के नये बिंब की प्रतिष्ठा कराई थी। और यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सका कि पंक्ति ३४ के अंत और पंक्ति ३५ के आदि में कितने अक्षर
१ प्रतीत होता है कि प्रशस्ति यहा समाप्त हो गई।
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३४ ]
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जैन साहित्य संशोधक
[ खण्ड २
किसी प्राचार्य की कल्याणकारी देशनो को सुनकर राजश्री के पुलने ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया ।
१७-१८ ऋषभदास के पुत्र कुंरपाल स्वर्णपाल ( सोनपाल ) । तिन के गुणों का वर्णन | दान देने में उन की कर्ण से उपमा ।
१९-२० ये जहांगीर बादशहा के अमात्य (मंत्री) थे; बडे धनवान थे; सदा शुभकाम करते और पुण्य क्षेत्रों में धन लगाते थे ।
२१ जहांगीर की आज्ञा से दोनों भाई धर्म का काम करते थे ।
२२--२३ उन्हों ने तीन भवन वाली एक पौषधशाला बनवाई ! संघाधिपति बनकर समेत शिखर, शत्रुंजय, आबू, गिरनार तथा अन्य तीर्थों की यात्रा की ।
२४ १२५ घोडे, २५ हाथी यात्रा के लिये जुदा कर छोडे थे ।
२५ उन्हों ने दो चैत्य बनवाए जो बहुत ही ऊंचे, चित्रों और झंडों से सजे हुये थे ।
२६ अंचल गच्छ की उत्पत्ति | भगवान महावीर से ४८ वें पट्ट पर श्री आर्य रक्षित सूरि हुए । उन्हों ने श्री सीमंधर स्वामी की आज्ञा पूर्वक चक्रेश्वरी देवी से वर प्राप्त करके विधिपक्ष अर्थात् अंचलगच्छ चलाये ।
२७-३० पट्टावलि |
३१-३२ कुंरपाल सोनपालने श्री कल्याणसागरके उपदेश से श्रेयांस नाथजी का मंदिर बनवाया ।
३३- ३४ और उसी समय ४५० अन्य प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हुई । इस से उन की बडी हुई।
३५ संघराजे ... बेटे सोनपाल... चतुर्भुज... दो बेटियां । प्रेमन के तीन पुत्र... ३६ पेतखी और नेतसी जो शीलपालने से मानो सुदर्शन ही विद्यमान था । बुद्धिमान, तेजस्वी और यशस्वी संघराज के चार बेटे थे ।
३७ कुंरपाल की भार्या...
..उथ की पुत्री का नाम जादो था । जेष्ठमल्ल गुणों
का धाम
३८ रेषश्री के दोनो पुत्र ( कुंरपाल सोनपाल ) अपनी पुत्रवधुओं संघश्री सुळसभी, दुर्ग श्री आदि के गुणों से शोभा पाते रहें । आशीर्वाद ( जिस के बहुत से अक्षर टूट गए हैं ) |
१ कल्याणदेशना से शायद श्रीकल्याणसागर जी के उपदेश का आशय हो ।
२ शायद ऋषभदास की माता का नाम राजश्री था ।
३ महाविदेह क्षेत्र में वर्तमान तीर्थकर ।
४ इन प्रतिमाओं का पता लगाना चाहिये । ५ यहां से लेख का सम्बंध ठीक नहीं बैठता ।
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अक १]
कुंरपाल सोनपाल प्रशस्ति [टिप्पणी-कुंवरपाल सेनपालकी प्रशंसामें किसीएक कविने हिन्दी भाषामें एक कविता लिखी है जो पाटनके किसीएक भंडारमें हमारे देखने में आई थी और जिसकी नकल हमने अपनी नोटबुकमे कर ली थी। उसका संबंध इस लेखके साथ होनेसे हम यहां उसे प्रकट किये देते हैं ।-संपादक । ]
कोरपाल सोनपाल लोढा गुणप्रशंसा
कवित्त । सगर भरथ जगि, जगडु जावड भये । पामराय सारंग, सुजश नाम धरणी ।। १ सेजे संघ चलायो, सुधन सुखेत बायो । संघपतिपद पायो, कवि कोटि किर्ति बरणी ।। २ लाहनि कडाहि ठांम, ठाम द्रग भांन कहि । आनंद मंगल परि परि गावे घरणी ।।३ बस्तपाल तेजपाल, हुये रेखचंद नंद । कोरपाल सोनपाल, कीनी भली करणी ।। ४ कहि लखमण लोढा, दूनीकुं दिखाइ देख । लछिको प्रमान जोपे, एसो लाह लीजिये । ५ आन संघपति कोउ, संघ जोपे कीयो चाहे । कोरपाल सोनपाल,-को सो संघ कीजिये ।। ६ सबल राय बिभार, निबल थापना चार । बाधा गइ बंदि छोर, अरि उर साजको ।। . अडेराय अवठभ, खितीपती रायखंभ | मंत्रीराय आरंभ, प्रगट सुभ साजको ।। ८ .. कबि कहि रूप भूप, राइन मुकटमनि । त्यागी राई तिलक, बिरद गज बाजको ।। ९ . हय गय हेमदान, मांन नंदकी समान | हिंदु सुरताण, सोनपाल रेखराजको ॥ १० । सैन बर आसनके, पैजपर पासनके । निजदल रंजन, भंजन पर दलको ॥ ११ मदमतवारे, विकरारे,अति भारे भारे । कारे कारे वादरसे, बासब सुजलके ।। १२ कवि कहि रूप, नृप भुपतिनिके सिंगार | अति वडवार ऐरापति समबलके ।। १३ रेखराजनंदकोर पाल सोनपालचंद । हेतवनि देत ऐसे हाथिानक हलके ।। १४
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सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत ।
(प्रन्थ परि च य)
[लेखक-श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी.] [श्रीयुत पं. नाथूरामजी प्रेपीकी देखरेखमें बम्बईसे जो माणिकचन्द्र-दिगम्बर- जैनप्रन्थमाला प्रकट होती है, उसमें अभी हाल ही सोपदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत नापका एक अमूल्य ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है । इस प्रन्थके कर्ता और विषय आदिका विस्तृत परिचय करानेके लिए प्रेपीजीने प्रन्थके प्रारंभमें एक पाण्डित्यपूर्ण और अनेक ज्ञातव्य बातोंस भरपूर सुन्दर प्रस्तावना लिखी है जो प्रत्येक साहित्य और इतिहास प्रेमीके लिए अवश्य पठनीय और पननीय है । इस लिए हम लेखक महाशयकी अनुमति लेकर, जनसाहित्यसंशोधकके पाठकोंके ज्ञानार्थ, उस प्रस्तावनाको अविकलतया यहाँ पर प्रकट करते हैं-संपादक । ]
श्रीमत्सोमदेवसूरिका यह ' नीतिवाक्यामृत' संस्कृत साहित्य-सागरका एक अमूल्य और अनुपम रत्न है। इसका प्रधान विषय राजनीति है । राजा और उसके राज्यशासनसे सम्बन्ध रखनेवाली प्रायः सभी आवश्यक बातोंका इसमें विवेचन किया गया है। यह सारा प्रन्थ गद्यमें है और सूत्रपद्धतिसे लिखा गया है । इसकी प्रतिपादनशैली बहुत ही सुन्दर, प्रभावशालिनी और गंभीरतापूर्ण है । बहुत बड़ी बातको एक छोटेसे वाक्यमें कह देनेकी कलामें इसके का सिद्धहस्त हैं । जैसा कि प्रन्थके नामसे ही प्रकट होता है, इसमें विशाल नीतिसमुद्रका मन्थन करके सारभूत अमृत संग्रह किया गया है और इसका प्रत्येक वाक्य इस बातकी साक्षी देता है। नीतिशास्त्रके विद्यार्थी इस अमृतका पान करके अवश्य ही सन्तृप्त होंगे। यह प्रन्य ३२ समुद्देशोंमें x विभक्त है और प्रत्येक समुद्देशमें उसके नामके अनुसार विषय प्रतिपादित है।
प्राचीन राजनीतिक साहित्य ।। राजनीति, चार पुरुषार्थोमसे दूसरे अर्थपुरुषार्यके अन्तर्गत है। जो लोग यह समझते हैं कि प्राचीन भारतवासियोंने 'धर्म' और ' मोक्ष' को छोड़कर अन्य पुरुषार्थोंकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया, वे इस देशके प्राचीन साहित्यसे अपरिचित हैं। यह सच है कि पिछले समयमें इन विषयोंकी ओरसे लोग उदासीन होते गये, इनका पठन पाठन बन्द होता गया और इस कारण इनके सम्बन्धका जो साहित्य था वह धीरे धीरे नष्टप्राय होता गया । फिर भी इस बातके प्रमाण मिलते हैं कि राजनीति आदि विद्याओंकी भी यहाँ खूब उन्नति हई थी और इनपर अनेकानेक प्रन्थ लिखे गये थे।
वात्स्यायनके कामसूत्रमें लिखा है कि प्रजापतिने प्रजाके स्थितिप्रबन्धके लिए त्रिवर्गशासन-(धर्म-अर्थ-काम विषयक महाशास्त्र ) बनाया जिसमें एक लाख अध्याय थे। उसमेंके एक एक भागको लेकर मनुने धर्माधिकार, बृहरूपतिने अर्थाधिकार, और नन्दीने कामसूत्र, इस प्रकार तीन अधिकार बनाये * । इसके बाद इन तीनों विषयोंपर उत्तरोत्तर
x “समुहशश्च संक्षेपाभिधानम् "-कामसूत्रटीका, अ० ३।
" प्रजापतिर्हि प्रजाः सृष्टा तासां स्थितिनिबन्धनं त्रिवंगस्य साधनमध्यायानां शतसहस्रणाने प्रोवाच । तस्यैकदेशिकं मनुः स्वायंभुवो धर्माधिकारकं पृथक् चकार । बृहस्पीतरीधकारम् । नन्दी सहलेणाध्यामानां पृथक्कामसूत्र चकार । "कामसूत्र अ.१।
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अक १]
सोमदेवसारकृत नातिवाक्यामृत संक्षिप्त ग्रन्थोंका निर्माण हुआ। पुराणोंमें भी लिखा है कि प्रजापतिके उक्त एक लाख अध्यायवाले त्रिवर्ग-शासनके नारद, इन्द्र, बृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज, विशालाक्ष, भीष्म, पराशर, मनु, अन्यान्य महर्षि और विष्णुगुप्त (चाणक्य) ने संक्षिप्त करके पृथक् पृथक् ग्रन्थोंकी रचना की + । परन्तु इस समय उक्त सब साहित्य प्रायः नष्ट हो गया है। कामपुरुषार्थ पर वात्स्यायनका कामसूत्र, अर्थपुरुषार्थ पर विष्णुगुप्त या चाणक्यका अर्थशास्त्र और धर्मपुरुषार्थ पर मनुके धर्म-शास्त्रका संक्षिप्तसार 'मानव धर्मशास्त्र'--जो कि भृगु नामक आचार्यका संग्रह किया हुआ है और मनुस्मृतिके नामसे प्रसिद्ध है--उपलब्ध है।
उक्त ग्रन्थों से राजनीतिका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' अभी १३-१४ वर्ष पहले ही उपलब्ध हुआ है और उसे मैसूरकी यूनीवर्सिटीने प्रकाशित किया है । यह अबसे लगभग २२०० वर्ष पहले लिखा गया था । सुप्रसिद्ध मौर्यवंशीय सम्राट चन्द्रगुप्तके लिए - जो कि हमारे कमान्योंके भनुसार जैनधर्मके उपासक थे और जिन्होंने अन्तमें जिनदक्षिा धारण की भी *---आर्य चाणक्यने इस प्रन्यको निर्माण किया था x। नन्दवंशका समूल उच्छेद करके उसके सिंहासन पर चन्द्रगुप्तको आसीन करानेवाले चाणक्य कितने बड़े राजनीतिज्ञ होंगे, यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है। उनकी राजनीतिज्ञताका सबसे अधिक उज्ज्वल प्रमाण यह अर्थशास्त्र है। यह बड़ा ही अद्धत ग्रन्थ है और उस समयकी शासनव्यवस्था पर ऐसा प्रकाश डालता है जिसकी पहले किसीने कल्पना भी न की थी। इसे पढ़नेसे मालूम होता है कि उस प्राचीन कालमें भी इस देशने राजनीतिमें आश्चर्यजनक उन्नति कर ली थी। इस ग्रन्थमें मनु, भारद्वाज, उशना (शुक्र), बृहस्पति. विशालाक्ष, पिशुन, पराशर, वातव्याधि, कौणपदन्त और बाहुदन्तीपुत्र नामक प्राचीन आचार्योंके राजनीतिसम्बन्धी मतोंका जगह जगह उल्लेख मिलता है। आर्य चाणक्य प्रारंभमें ही कहते हैं कि पृथिवीके लाभ और पालनके लिए पूर्वाचार्योने जितने अर्थशास्त्र प्रस्थापित किये हैं, प्रायः उन सबका संग्रह करके यह अर्थशास्त्र लिखा जाता है । इससे मालूम होता है कि चाणक्यसे भी पहले इस विषयके. अनेकानेक अन्य मौजूद थे और चाणक्यने उन सबका अध्ययन किया था। परन्तु इस समय उन ग्रन्थोंका कोई पता नहीं है।
चाणक्यके बादका एक और प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध है जिसका नाम 'नीतिसार' है और जिसे संभवतः चाणक्यके ही शिष्य कामन्दक नामक विद्वानने अर्थशास्त्रको संक्षिप्त करके लिखा है। अर्थशास्त्र प्रायः गद्यमें है। परन्तु नीतिसार श्लोकबद्ध है । यह भी अपने ढंगका अपूर्व और प्रामाणिक अन्य है और अर्थशास्त्रको समझनेमें इससे बहुत सहायता मिलती है । इसमें भी विशालाक्ष, पुलोमा, यम आदि प्राचीन नीतिग्रन्यकर्तामोंके मतोंका उल्लेख है।
+ ब्रह्माध्यायसहस्राणां शतं चक्रे स्वबुद्धिजम् । तन्नारदेन शक्रेण मुरुणा भार्गवेण च ॥ भारद्वाजविशालाक्षभीष्मपाराशरैस्तथा । संक्षिप्तं मनुना चैव तथा चान्यैर्महर्षिभिः॥ प्रजानामायुषो ह्रासं विशाय च महात्मना । संक्षिप्तं मनुना चैव तथा चान्यैर्महर्षिभिः । प्रजानामायषो हासं विज्ञाय च महात्मना। संक्षिप्तं विष्णगतेन नपाणामर्थसिद्धये।
ये श्लोक हमने गुजरातीटीकासहित कामन्दकीय नीतिसारकी भूमिका परसे उध्दृत किये हैं; परन्तु उससे यह नहीं मालूम हो सका कि ये किस पुराणके हैं। .
* सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ मि.विन्सेण्ट स्मिथ आदि विद्वान् भी इस बातको संभव समझते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य जैनधर्मके उपासक थे। 'त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति' नामक प्राकृत ग्रन्थमें-जो विक्रमकी पाँचवीं शताब्दिके बगभगका है--लिखा है कि मुकटधारी राजाओंमें सबसे अन्तिम राजा चन्द्रगुप्त था जिसने जिनदीक्षा की।-देखो जैनहितैषी वर्ष १३, अंक १२।।
४ सर्वशास्त्रानुपक्रम्य प्रयोगानुपलभ्य च । कौटिल्येन नरेन्द्राथें शासनस्य विधिः कृतः॥ येन शास्त्रं च शस्त्रं च नन्दराजगता च भूः। अमर्षेणोवृतान्याशुतेन शावमिदं कृतम् ॥ + पृथिव्या लाभे पालने च यावन्स्यर्थशास्त्राणि पूर्वाचार्यैः प्रस्थापितानि प्रायशस्तानि सहयैकमिदमर्यशानं कृतम् ।
देखो गुजराती प्रेस बम्बईके 'कामन्दकीय नीतिसार' की भूमिका ।
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३८ ]
जैन साहित्य संशोधक
[ खंड २
resh नीतिसारके बाद जहाँ तक हम जानते हैं, यह नीतिवाक्यामृत ग्रन्थ ही ऐसा बना है, जो उक्त दोनों प्रन्थोकी श्रेणी में रक्खा जा सकता है और जिसमें शुद्ध राजनीतिक चची की गई है। इसका अध्ययन भी कौटिलीय अर्थशास्त्र समझने में बड़ी भारी सहायता देता है।
नीतिवाक्यामृतके कतीने भी अपने द्वितीय ग्रन्थ ( यशस्तिलक ) में गुरु, शुक्र, विशालाक्ष, भारद्वाजके नीतिशास्त्रोका उल्लेख किया है । मनुके भी बीसों श्लोकोको उद्धृत किया है । नीतिवाक्यामृतमें विष्णुगुप्त या चाणक्यका और उनके अर्थशास्त्रका उलेख हूं । बृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज, आदिके अभिप्रायोको भी उन्होंने नीतिवाक्यामृतमें संग्रह किया है जिसका स्पष्टीकरण नीतीवाक्यामृतकी इस संस्कृत टीकासे होता है। स्मृतिकारोंसे भी वे अच्छी तरह परिचित मालूम होते हैं । इससे हम कह सकते हैं कि नीतीवाक्यामृतके कर्ता पूर्वोक्त राजनीतिके साहित्य से यथेष्ट परिचित थे । बहुत संभव है कि उनके समय में उक्त सबका सब साहित्य नहीं तो उसका अधिकांश उपलब्ध होगा । कमसे कम पूर्व आचायोंके प्रन्थोंके सार या संग्रह आदि अवश्य मिलते होंगे ।
इन सब बातोंसे और नोतिवाक्यामृतको अच्छी तरह पढ़ने से हम इस परिणाम पर पहुंचते है कि नीतिवाक्यामृत प्राचीन नीतिसाहित्यका सारभूत अमृत है । दूसरे शब्दों में यह उन सबके आधारसे और कविका विलक्षण प्रतिभासे प्रसूत हुआ संग्रह प्रन्थ है। जिस तरह कामन्दकने चाणक्य के अर्थशास्त्र के आधार से संक्षपम अपने नातिसारका निर्माण किया है, उसी प्रकार सोमदेवसूरिने उनके समयमे जितना नीतिसाहित्य प्राप्त था उसके आधारसे यह नीतिवाक्यामृत निर्माण किया है। दोनों में अन्तर यह है कि नांतिसार श्लोकबद्ध है और केवल अर्थशास्त्र के आधार से लिखा गया है, परन्तु नांतिवाक्यामृत गद्यमें है और अनेकानेक प्रन्थोंके आधारसे निर्माण हुआ है, यद्यपि अर्थशास्त्री भी इसमें यथेष्ट सहायता ली गई है।
कौटिलीय अर्थशास्त्र की भूमिकामें श्रीयुत शामशास्त्रांने लिखा है कि, " यश्च यशोधरमहाराजसमकालेन सोमदेवसूरिणा नीतिवाक्यामृतं नाम नीतिशास्त्रं विरचितं तदपि कामन्दकीयमेिव कौटिलीयाथशास्त्रादेव संक्षिप्य संगृहीतमिति तद्ग्रन्थपदवाक्यशैलीपरीक्षायां निस्संशयं ज्ञायते ।” अर्थात् यशोधर महाराजके समकालिक सोमदेवसूरिने जो ' नीतिवाक्यामृत' नामका प्रन्थ लिखा है उसके पद और वाक्योंकी शैलीकी परीक्षासे यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि वह भी कामन्दकके नीतिसारके समान कौटिलीय अर्थशास्त्र से ही संक्षिप्त करके लिखा गया है *" परन्तु हमारी समझमें न्यायादवसरमलभमानस्य चिरसेवकसमाजस्य विज्ञप्तय इव नर्मसचिवोक्तयः प्रतिपन्न कामचारव्यवहारेषु स्वैर विहारेषु मम गुरुशुकविशालाक्षपरीक्षितपराशर भीमभीष्म भारद्वाजादिप्रणीतनीतिशास्त्रश्रवणसनाथं श्रुतपथमभजन्त ।"-- यशस्तिलकचम्पू, आश्वास २, पृ० २३६ ।
+ " दूषितोऽपि चरेद्धर्म यत्र तत्राश्रमे रतः । समं सर्वेषु भूतेषु न लिङ्गं धर्मकारणम् ॥
इति कथमिदमाह वैवस्वतो मनुः । " - यशस्तिलक आ० ४, पृष्ठ १०० । यह श्लोक मनुस्मृति अ० ६ का ६६ व श्लोक है। इसके सिवाय यशस्तिलक आश्वास ४, पृ० ९० – ९१ – ११६ ( प्रोक्षितं भक्षयेत् ), ११७ ( क्रीत्वा स्वयं ), १२७ ( सभी श्लोक ), १४९ ( सभी श्लोक ), २८७ ( अधीत्य ) के श्लोक भी मनुस्मृति में ज्योंके त्यों मिलते हैं । यद्यपि वहाँ यह नहीं लिखा है कि ये मनुके हैं। ' उक्तं च ' रूपमें ही दिये हैं ।
x नीतिवाक्यामृत पृष्ठ • ३६ सूत्र ९, पृ० १०७ सूत्र ४, पृ० १७१ सूत्र १४ आदि ।
+ “विप्रकीतावूढापि पुनर्विवाहदीक्षामईतीति स्मृतिकारा: " नी०वा० पृ० ३७७, सू०२७; "श्रुतेः स्मृतेर्बाह्यबाह्यतरे; " यशस्तिलक आ० ४, पृ० १०५ " श्रुतिस्मृतीभ्यामतीव बाह्ये” – यशस्तिलक आ० ४, पृ० १११ ; “ तथा च स्मृतिः " पृ. ११६; और " इति स्मृतिकारकीर्तितमप्रमाणीकृत्य " पृ० २८७ ।
: यशस्तिलक भा० ४ पृ० १०० में नीतिकार भारद्वाजके षाड्गुण्य प्रस्ताव के दो श्लोक और विशालाक्ष के कुछ वाक्य दिये हैं। ये विशालाक्ष संभवतः वे ही नीतिकार हैं जिनका उल्लेख अर्थशास्त्र और नीतिसार में किया गया है। * शास्त्रीजीका यह बड़ा भारी भ्रम है, जो सोमदेवसूरिको वे यशोधर महाराज के समकालिक समझते हैं । यशोधर जैनोंके एक पुराणपुरुष हैं। इनका चरित्र सोमदेवसे भी पहले पुष्पदन्त, बच्छराय आदि कवियोंने लिखा है। पुष्पदन्तका समय शकसंवत् ६०६ के लगभग है । और बच्छराय पुष्पदन्त से भी पहले हुए हैं।
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अंक १ ]
सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत ।
[ ३९
शास्त्रीजीने उक्त परीक्षा बारीकीसे या अच्छी तरह विचार करके नहीं की । यह हम मानते हैं कि नीतिवाक्यामृतकी रचना में अर्थशास्त्रकी सहायता अवश्य ली गई है, जैसा कि आगे दिये हुए दोनोंके अवतरणोंसे मालूम होगा। पाठक देखेंगे कि दोनोंमें विलक्षण समता है, कहीं कहीं तो दोनों के पाठ बिल्कुल एकसे मिल गये हैं । परन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि नीतिवाक्यामृत अर्थशास्त्रका ही संक्षिप्त सार है । अर्थशास्त्रका अनुधावन करनेवाला होकर भी वह अनेक अंशों में बहुत कुछ स्वतंत्र है । अर्थशास्त्र के अतिरिक्त अन्यान्य नीतिशास्त्रोंके अभिप्राय भी उसमें अपने ढंगसे समावेशित किये गये हैं । इसके सिवाय ग्रन्थकर्ता ने अपने देश-काल पर दृष्टि रखते हुए बहुत सी पुरानी बातोंको— जिनकी उस समय जरूरत नहीं रही थी या जो उनकी समझमें अनुचित थीं--छोड़ दिया है या परिवर्तित कर दिया है। साथ ही बहुतसी समयोपयोगी बातें शामिल भी कर दी हैं ।
यहाँ हम अर्थशास्त्र और नीतिवाक्यामृतके ऐसे अवतरण देते हैं जिनसे दोनोंकी समानता प्रकट होती है :१ - दुष्प्रणीतः कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वानप्रस्थपरिव्राजकानपि कोपयति, किमङ्ग पुनर्गृहस्थान् । अप्रणीतो हि मात्स्यन्यायमुद्भावयति । बलीयानबलं ग्रसते दण्डधराभावे । - अर्थशास्त्र १०९ । दुष्प्रणीतो हि दण्डः कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वा सर्वजनविद्वेषं करोति । अप्रणीतो हि दण्डो मात्स्यन्यायमुद्भावयति । बलीयानबलं ग्रसते ( इति मात्स्यन्याय : ) । - नीतिवा० पृ० १०४-५ । -अर्थ० ० पृ० १० । -नी० १६७ ।
२- ब्रह्मचर्य चाषोडशाद्वर्षात् । अतो गोदानं दारकर्म च । ब्रह्मचर्यमाषोडशाद्वर्षात्ततो गोदानपूर्वकं दारकर्म चास्य । ३ - गुरोहितमुदितोदितकुलशीलं षडङ्गे वेदे दैवे निमित्ते दण्डनीत्यां च अभिविनीतमापदां देवमानुषीणां अथर्वभिरुपायैश्च प्रतिकर्त्तारं कुर्वीत । पुरोहितमुदितकुलशीलं षडंगवेदे दैवे निमित्ते दण्डनीत्यामभिविनीतमापदां दैवीनां मानुषीणां च प्रतिकर्त्तारं कुर्वीत । नीति० पृ० १५९ ।
अर्थ० पृ० १५-१६ ।
४ परमर्मज्ञः प्रगल्भः छात्रः कापटिकः । अर्थ पृ० १८ । परमर्मज्ञः प्रगल्भः छात्रः कापटिकः । - नी० पृ० १७३ ।
५ - श्रूयते हि शुकसारिकाभिः मन्त्रो भिन्नः श्वभिरन्यैश्च तिर्यग्योनिभिः । तस्मान्मन्त्रोद्देशमनायुक्तो नोपगच्छेत् । अर्थ० पृ० २६ ।
अनायुक्तो न मन्त्रकाले तिष्ठेत् । श्रूयते हि शुकशारिकाभ्यामन्यैश्च तिर्यग्भिर्मन्त्रभेदः ६ - द्वादशवर्षा स्त्री प्राप्तव्यवहारा भवति । षोडशवर्षः पुमान् । द्वादशवर्षा स्त्री षोडशवर्षः पुमान् प्राप्तव्यवहारौ भवतः ।
इस तरह के और भी अनेक अवतरण दिये जा सकते हैं ।
यहाँपर पाठकों को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि चाणक्यने भी तो अपने पूर्ववर्ती विशालाक्ष, भारद्वाज, बृहस्पति आदिके ग्रन्थोंका संग्रह करके अपना ग्रन्थ लिखा है । ऐसी दशा में यदि सोमदेवकी रचना अर्थशास्त्रसे मिलती जुलती हो, तो क्या आश्चर्य है। क्योंकि उन्होंने भी उन्हीं प्रन्थोका मन्थन करके अपना नीतिवाक्यामृत लिखा है । यह दूसरी बात है कि नीतिवाक्यामृतकी रचनाके समय प्रन्थकर्ताके सामने अर्थशास्त्र भी उपस्थित था।
*
7
कृतः । —नीति० पृ० ११८। -अर्थ० १५४ ।
- नीति० ३७३ ।
परन्तु पाठक इससे नीतिवाक्यामृतके महत्त्वको कम न समझ लें। ऐसे विषयोंके प्रन्थोंका अधिकांश भाग संग्रहरूप ही होता है । क्योंकि उसमे उन सब तत्वों का समावेश तो नितान्त आवश्यक ही होता है जो प्रन्थकर्ताके पूर्वलेखकों द्वारा उस शास्त्र के सम्बन्धमें निश्चित हो चुकने हैं। उनके सिवाय जो नये अनुभव और नये तस्थ उपलब्ध होते हैं उन्हें ही वह विशेषरूपसे अपने ग्रन्थ में लिपिबद्ध करता है । और हमारी समझमें नीतिवाक्यामृत ऐसी बातोसे खाली नहीं है । ग्रन्थकत्तीकी स्वतंत्र प्रतिभा और मौलिकता उसमें जगह जगह प्रस्फुटित हो रही है ।
देखो पृष्ठ ५ की टिप्पणी 'पृथिव्या लाभे' आदि ।
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४०] जैन साहित्य संशोधक
[खंड २ ग्रन्थकर्ताका परिचय ।
गुरुपरम्परा। जैसा कि पहले कहा जा चुका है नीतिवाक्यामृतके कर्ता श्रीसोमदेवसूरि हैं । वे देवसंघके आचार्य थे। दिगम्बरसम्प्रदायके सुप्रसिद्ध चार संघोंमसे यह एक है । मंगराज कविके कथनानुसार यह संघ सुप्रसिद्ध तार्किक भट्टाकलंकदेवके बाद स्थापित हुआ था । अकलंकदेवका समय विक्रमकी ९ वीं शताब्दिका प्रथम पाद है । * सोमदेवके गुरुका नाम नेमिदेव और दादागुरुका नाम यशोदेव था। यथाः
श्रीमानस्ति स देवसंघतिलको देवो यशःपूर्वकः,
शिष्यस्तस्य बभूव सद्गुणानीधिः श्रीनेमिदेवालयः । तस्याश्चयेतपः स्थितरित्रनवतेजेतुमहावादिना,
शिष्योऽभूदिह सोमदेव इति यस्तस्यैष कान्यक्रमः॥ --यशस्तिलकचम्पू ।। नीतिवाक्यामृतकी गद्यप्रशस्तिसे भी यह मालूम होता है कि वे नेमिदेवके शिष्य थे । साथ ही उसमें यह भी लिखा है कि वे महेन्द्रदेवे भट्टारकके अनुज थे । इन तीनों महात्माओं-यशोदेव, नमिदेव और महेन्द्रदेवके सम्बन्धमे हमें और कोई भी बात मालूम नहीं है । न तो इनकी कोई रचना ही उपलब्ध है और न अन्य किसी ग्रन्थादिमें इनका कोई उल्लेख ही मिला है। इनके पूर्व के आचार्यों के विषयमें भी कुछ ज्ञात नहीं है। सोमदेवसरिकी शिष्यपरम्परा भी अज्ञात है। यशस्तिल किवादिराज और वादीमसिंह, दोनों ही सोमदेवके शिष्य थे परन्तु इसके लिए उन्होंने जो प्रमाण दिया है वह किस अन्धका है, इसके जाननेका कोई साधन नहीं है । यशस्तिलककी रचना शकसंवत् ८८१ ( विक्रम १.१६ ) में समाप्त हुई है और बादिराजने अपना पार्श्वनाथचरित शकसंवत् ९४७ (वि.१०८२) में पूर्ण किया है। अर्थात् दोनोंके बीच ६६ वर्षका अन्तर है । ऐसी दशामें उनका गुरु शिष्यका नाता होना दुर्घट है । इसके सिवाय बादिराजके गुरुका नाम मतिसागर था और वे द्रविड संघके आचार्य थे । अब रहे वादीभसिंह, सो उनके गुरुका नाम पुष्पर्षण था और पुष्पषेण अकलंकदेवके गुरुभाई थे, इसालए उनका समय सोमदेवसे बहुत पहले जा पड़ता है। एसी अवस्थामें वादिराज और वादीभसिंहको सोमदेवका शिष्य नहीं माना जा सकता। ग्रन्थकर्ताके गुरु बड़े भारी ताकि थे। उन्होंने ९३ वादियोंको पराजित करके विजयकीर्ति प्राप्त की थी।
इसी तरह महेन्द्रदेव भट्टारक भी दिग्विजयी विद्वान् थे। उनका 'बादीन्द्रकालानल' उपपद ही इस बातकी घोषणा करता है।
तार्किक सोमदेव । श्रीसोमदेवसूरि भी अपने गुरु और अनुजके सदृश बड़े भारी तार्किक विद्वान् थे। वे इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें कहते हैं:मल्पेऽनुग्रहधीः समे सुजनता मान्ये महानादरः, सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्रचरिते श्रीसोमदेघे मयि । या स्पर्धेत तथापि दर्पदृढताप्रौढिप्रगाढाग्रह-स्तस्याखार्वितगर्वपर्वतपविर्मद्वाक्कृतान्तायते ॥
__ सारांश यह कि मैं छोटोंके साथ अनुग्रह, बराबरीवालोके साथ सुजनता और बड़ों के साथ महान् आदरका बर्ताव करता हूँ। इस विषयमें मेरा चरित्र बहुत ही उदार है । परन्तु जो मुझे ऐंठ दिखाता है, उसके लिए, गरूपी पर्वतको विध्वंस करनेवाले मेरे वज्र-वचन कालस्वरूप हो जाते हैं।
*देखो जनहितैषी भाग ११, अंक --८।
- "उक्तंचवादिराजेन महाकविना--...... ......स वादिराजोऽपि श्रीसोमदेवाचार्यस्य शिष्य:वादीभासिंहोऽपि मदीयाशिष्यः श्रीवादिराजोऽपि मदीयशिष्यः' इत्युक्तत्वाच ।”
यशस्तिलकटीका आ. २, पृ. २६५।। ___ + यशस्तिलकके ऊपर उद्धृत हुए श्लोकमें उन महावादियोंकी संख्या--जिनको श्रीनेमिदेवने पराजित किया थासिरानवे बतकाई है परन्तु नीतिवाक्यामृतकी गद्यप्रशस्तिमें पचपन है। मालम नहीं, इसका क्या कारण है।
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अंक १]
सोमदेवमूरिकृत नीतिवाक्यामृत ।
दर्पान्धबोधबुधसिन्धुरसिंहनादे, वादिद्विपोद्दलनदुर्धरवाग्विवादे ।
श्री सोमदेवमुनिपे वचनारसाले, वागीश्वरोऽपि पुरतोऽरित न वादकाले ॥ भाव यह कि अभिमानी पण्डित गजोंके लिए सिंहके समान ललकारनेवाले और वादिगजों को दलित करनेवाला दुर्धर विवाद करनेवाले श्री सोमदेव मुनिके सामने, बादके समय बागीश्वर या देवगुरु बृहस्पति भी नहीं रहर रुकते हैं । इसी तरह के और भी कई पद्य हैं जिनसे उनका प्रखर और प्रचण्ड तर्कपाण्डित्य प्रकट होता है । यशस्तिलक चम्पूकी उत्थानिकाने कहा है:--
[ ४१
आजन्मकृदभ्यासाच्छुष्कात्तर्कात्तृणादिव ममास्याः ।
_मतिसुरभेरभवदिदं सूक्तपयः सुकृतिनां पुण्यैः ॥ १७
अर्थात् मेरी जिस बुद्धिरूपी गौने जीवन भर तर्करूपी सूखा घास खाया, उसीसे अब यह काव्यरूपी दुग्ध उत्पन्न हो रहा है। इस उक्तिसे अच्छी तरह प्रकट होता है कि श्री सोमदेवसूरिने अपने जीवनका बहुत बड़ा भाग तर्कशास्त्र के अभ्यास में ही व्यतीत किया था । उनके स्याद्वादाचलसिंह, वादभिपंचानन और तार्किकचक्रवर्ती पद भी इसी बातके द्योतक हैं।
परन्तु वे केवल तार्किक ही नहीं थे- काव्य, व्याकरण, धर्मशास्त्र और राजनीति आदिके भी धुरंधर विद्वान् थे । महाकवि सोमदेव |
उनका यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य - जो निर्णगसागर की काव्यमाला में प्रकाशित हो चुका है-इस बातका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वे महाकवि थे और काव्यकला पर भी उनका असाधारण अधिकार था 16मूचे संस्कृत साहित्य में यशस्तिलक एक अद्भुत काव्य है और कवित्व के साथ उसमें ज्ञानका विशाल खजाना संगृहीत है । उसका गद्य भी कदम्बरी तिलक जरी आदिकी टक्करका है। सुभाषितों का तो उसे आकर ही कहना चाहिए । उसकी प्रशंसा में स्वयं ग्रन्थकर्ताने यत्रतत्र जो सुन्दर पद्य कहे हैं, वे सुनने योग्य हैं:---
असहायमनादर्श रत्न रत्नाकरादिव ।
मत्तः काव्यमिदं जातं सतां हृदयमण्डनम् ॥ १४ -- प्रथम आश्वास । समुद्र से निकले हुए असहाय, अनादर्श और सज्जनोंके हृदयकी शोभा बढ़ानेवाले रत्नकी तरह मुझसे भी यह असहाय ( मौलिक ), अनादर्श ( बेजोड़ और हृदयमण्डन काव्यरत्न उत्पन्न हुआ । कर्णाञ्जलिपुटैः पातुं चेतः सूक्तामृते यदि ।
}
श्रूयतां सोमदेवस्य नव्याः काव्योक्तियुक्तयः ॥ २४६ ॥ यदि आपका चित्त कानोंकी अँजुलीसे सूक्तामृतका पान करना चाहता है, तो सोमदेवकी
सुनिए ।
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- द्वितीय आ० । नई नई काव्योक्तियाँ
लोकवत् कवित्वे वा यदि चातुर्यचञ्चवः ।
सोमदेवकः सूक्ति समभ्यस्यन्तु साधवः ॥ ५१३ ॥ - तृतीय आ० । यदि सज्जनोंकी यह इच्छा हो कि वे लोकव्यवहार और कवित्वमें चातुर्य प्राप्त करें तो उन्हें सोमदेव कवि की सूक्तियोंका अभ्यास करना चाहिए ।
मया वागर्थसंभारे भुक्ते सारस्वते रसे । कवयोऽन्ये भविष्यन्ति नूनमुच्छिष्टभोजनाः ॥
चतुर्थ आ०, पृ० १६५ ।
मैं शब्द और अर्थपूर्ण सारे सारस्वत रस ( साहित्य रस ) का स्वाद ले चुका हूँ, अतएव अब जितने दूसरे कवि होंगे, वे निश्चयसे उच्छिष्टभोजी या जूठा खानेवाले होंगे वे कोई नई बात न कह सकेंगे । अलकालव्यालेन ये लीढा साम्प्रतं तु ते ।
शब्दाः श्री सोमदेवेन प्रोत्थाप्यन्ते किमद्भुतम् ॥ - पंचम आ०, पृ० २६६ । समरूपी विकट सर्पने जिन शब्दोंको निगल लिया था, अतएव जो मृत हो गये थे, यदि उन्हें श्रीसोमदेवने उठा दिया, जिला दिया- तो इसमें कोई आश्चर्य नही होना चाहिए। ( इसमें ' सोमदेव ' शब्द ष्ट है । सोम चन्द्रवाची है और चन्द्रकी अमृत-किरणोंसे विषमूच्छित जीव सचेत हो जाते हैं। )
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४२ ]
जैन साहित्य संशोधक
उद्धृत्य शास्त्रजलधेर्नितले निमग्नैः पर्यागतैरिव चिरादभिधानरत्नैः । सोमदेवविदुषा विहिता विभूषा
या
वाग्देवता वहतु सम्प्रति तामनर्घाम् ॥ पं० आ०, पृ० २६६ | चिरकालसे शास्त्रसमुद्रके बिल्कुल नीचे डूबे हुए शब्द - रत्नोंका उद्धार करके सोमदेव पण्डितने जो यह बहुमूल्य आभूषण ( काव्य ) बनाया है, उसे श्रीसरस्वती देवी धारण करें ।
इन उक्तियोंसे इस बातका आभास मिलता है कि आचार्य सोमदेव किस श्रेणी के कवि थे और उनका उक्त मद्दाकाव्य कितना महत्त्वपूर्ण है । पूर्वोक्त उक्तियों में अभिमानकी मात्रा विशेष रहने पर भी वे अनेक अंश में सत्य जान पड़ती हैं । सचमुच ही यशस्तिलक शब्दरत्नों का बड़ा भारी खजाना है और यदि माघकाव्यके समान कहा जाय कि इस काव्यको पढ़ लेने पर फिर कोई नया शब्द नहीं रह जाता, कुछ अत्युक्ति न होगी । इसी तरह इसके द्वारा सभी विषयोंकी व्युत्पत्ति हो सकती है । व्यवहारदक्षता बढ़ाने की तो इसमें ढेर सामग्री है।
महाकवि सोमदेव वाक्कल्लोलपयोनिधि, कविराजकुंजर और गद्यपद्याविद्याधरचक्रवर्ती विशेषण, उनके श्रेष्ठ कवि.. रके ही परिचायक हैं ।
[ खंड २
धर्माचार्य सोमदेव ।
यद्यपि अभीतक सोमदेवसूरिका कोई स्वतंत्र धार्मिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है; परन्तु यशस्तिलकके अन्तिम आश्वास - जिनमें उपासकाध्ययन या श्रावकों के आचारका निरूपण किया गया है-इस बातके साक्षी हैं कि वे धर्म के कैसे मर्मज्ञ विद्वान थे । स्वामी समन्तभद्र के रत्नकरण्डके बाद श्रावकोंका आचारशास्त्र ऐसी उत्तमता, स्वाधीनता और मार्मिकता के साथ इतने विस्तृतरूपमें आजतक किसी भी विद्वानकी कलम से नहीं लिखा गया है। जो लोग यह समझते हैं कि धर्मग्रन्थ तो परम्परासे चले आये हुए ग्रन्थों के अनुवादमात्र होते हैं--उनमें प्रन्थकर्ता विशेष क्या कहेगा, उन्हें यह उपासकाध्ययन अवश्य पढ़ना चाहिए और देखना चाहिए कि धर्मशास्त्रों में भी मौलिकता और प्रतिभाके लिए कितना विस्तृत क्षेत्र है । खेद है कि जैनसमाजमें इस महत्त्वपूर्ण प्रन्थके पठन पाठनका प्रचार बहुत ही कम है और अब तक इसका कोई हिन्दी अनुवाद भी नहीं हुआ है । नीतिवाक्यामृत की प्रशस्ति में लिखा है:
सकलसमयतर्के नाकलंकोऽसि वादिन् न भवसि समयोक्तौ हंससिद्धान्त देवः ।
न च वचनविलासे पूज्यपादोऽसि तत्त्वं वदसि कथमिदानीं सोमदेवेन सार्धम् ॥
अर्थात हे वादी, न तो तू समस्तदर्शन शास्त्रों पर तर्क करनेके लिए अकलंकदेवके तुल्य है, न जैनसिद्धान्तको कहने के लिए इंससिद्धान्तदेव है और न व्याकरणमें पूज्यपाद है, फिर इस समय सोमदेव के साथ किस बिरते पर बात करने चला
? *
इस उक्तिसे स्पष्ट है कि सोमदेवसूरि तर्क और सिद्धान्त के समान व्याकरणशास्त्र के भी पण्डित थे ।
राजनीतिज्ञ सोमदेव ।
सोमदेव के राजनीतिज्ञ होनेका प्रमाण यह नीतिवाक्यामृत तो है ही, इसके सिवाय उनके यशस्तिलक में भी यशोधर महाराजका चरित्र चित्रण करते समय राजनीतिको बहुत ही विशद और विस्तृत चर्चा की गई है । पाठकों कोचाहिए कि वे इसके लिए यशस्तिलकका तृतीय आश्वास अवश्य पढ़ें ।
यह आश्वास राजनीतिके तत्वोंसे भरा हुआ है । इस विषय में वह अद्वितीय है । वर्णन करने की शैली बड़ी हो सुन्दर है । कवित्वकी कमनीयता और सरसतासे राजनीतिकी नीरसता मालूम नहीं कहाँ चली गई है। नीतिवाक्यामृत के
* अकलंकदेव - अष्टशती, राजबार्तिक आदि ग्रन्थोंके रचियता । हंससिद्धान्तदेव - ये कोई सैद्धान्तिक आचार्य जान पड़ते हैं । इनका अब तक और कहीं कोई उल्लेख देखनेमें नहीं आया । पूज्यपाद - देवनान्दि, जैनेन्द्र areers कर्ता ।
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अंक १ ]
सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत ।
अनेक अंशोंका अभिप्राय उसमें किसी न किसी रूपमें अन्तर्निहित जान पड़ता है +।
जहाँ तक हम जानते हैं जैनविद्वानों और आचार्योंमें-- दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनोंमें-- एक सोमदेवने ही ' राजनीतिशास्त्र' पर कलम उठाई है। अतएव जैनसाहित्यमें उनका नीतिवाक्यामृत अद्वितीय है। कमसे कम अब तक तो इस विषयका कोई दूसरा जैनप्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ है।
ग्रन्थ-रचना ।
इस समय सोमदेवसूरिके केवल दो ही प्रन्थ उपलब्ध हैं - नीतिवाक्यामृत और यशस्तिलकचम्पू । इनके सिवाय —— जैसा कि नीतिवाक्यामृत की प्रशस्तिसे मालूम होता है- तीन ग्रन्थ और भी हैं - १ युक्तिचिन्तामणि, २ त्रिवर्गमहेन्द्रमातलिसंजल्प और ३ षण्णवतिप्रकरण । परन्तु अभीतक ये कहीं प्राप्त नहीं हुए हैं। उक्त ग्रन्थोंमेंसे युक्तिचिन्तामणि तो अपने नामसे ही तर्कप्रन्थ मालूम होता है और दूसरा शायद नीतििवषयक होगा । महन्द्र और उसके सारथी मातलिके संवादरूपमें उसमें त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और कामकी चर्चा की गई होगी। तीसरेके नामसे सिवाय इसके कि उसमें ९६ प्रकरण या अध्याय हैं, विषयका कुछ भी अनुमान नहीं हो सकता है ।
[ ४३
इन सब ग्रन्थों में नीतिवाक्यामृत ही सबसे पिछला ग्रन्थ है। यशोधर महाराजचरित या यशस्तिलक इसके पहलेका है । क्योंकि नीतिवाक्यामृतमें उसका उल्लेख है। बहुत संभव है कि नीतिवाक्यामृत के बाद भी उन्होंने ग्रन्थरचना की हो और उक्त तीन ग्रन्थोंके समान वे भी किसी जगह दीमक या चूहों के खाद्य बन रहे हों, या सर्वथा नष्ट ही हो चुके हों।
विशाल अध्ययन ।
यशस्तिलक और नीतिवाक्यामृतके पढ़नेसे मालूम होता है कि सोमदेवसूरिका अध्ययन बहुत ही विशाल था । ऐसा जान पड़ता है कि उनके समय में जितना साहित्य - न्याय, व्याकरण, काव्य, नीति, दर्शन आदि सम्बन्धी उपलब्ध था, उस सबसे उनका परिचय था । केवल जैन ही नहीं, जैनेतर साहित्यसे भी वे अच्छी तरह परिचित थे । यशतिलक के चौथे आश्वास में ( पृ० ११३ में ) उन्होंने लिखा है कि इन महाकवियोंके काव्यों में नम क्षपणक या दिगम्बर साधुओं का उल्लेख क्यों आता है ? उनकी इतनी अधिक प्रसिद्धि क्यों है ?- उर्व, भारवि, भवभूति, भर्तृहरे, भण्ड, कण्ठ, गुणाढ्य, व्यास, भास,* घोस, कालिदास, बाण +, मयूर, नारायण, कुमार, माघ और राजशेखर ।
इससे मालूम होता है कि वे पूर्वोक्त कवियोंके काव्यों से अवश्य परिचित होंगे । प्रथम आश्वासके ९० वे पृष्ठभ उन्होंने इन्द्र, चन्द्र, जैनेन्द्र, आपिशल आर पाणिनिके व्याकरणोंका जिकर किया है। पूज्यपाद
+ नीतिवाक्यामृत और यशस्तिलकके कुछ समानार्थक वचनोका मिलान कीजिए:
१ – बुभुक्षाकालो भोजनकाल : -- नी० वा०, पृ० २५३ ।
चारायणो निशि तिमिः पुनरस्तकाले, मध्ये दिनस्य धिषणश्चरकः प्रभाते ।
भुक्तिं जगाद नृपते मम चैष सर्गस्तस्याः स एव समयः क्षुधितो यदैव ॥ ३२८ ॥ - यशस्तिलक, आ० ३। ( पूर्वोक्त पद्यमें चारायण, तिमि, धिषण और चरक इन चार आचार्यों के मतोंका उल्लेख किया गया है। )
२ -- को फवद्दिवाकामः निशि भुञ्जीत । चकोरवन्नक्तं कामः दिवापक्वम् । नी० वा० पृ० २५७ ।
अन्ये त्विदमाहु:--
यः कोकवद्दिवाकामः स नक्तं भोक्तुमर्हति ।
स भोक्ता वासरे यश्च रात्रौ रन्ता चकोरवत् ॥ ३३० ॥ -- यशस्तिलक, आ०२
भास महाकविका 'पेया सुरा प्रियतमामुखमक्षणयं' आदि पद्य भी पाँचवें आश्वसमें ( पृ० २५० ) उद्धृत है । रघुवंशका भी एक जगह ( आश्वास ४, पृ० १९४ ) उल्लेख है । + बाण महाकविका एक जगह औ भी ( आ. ४, पृ० १०१ ) उल्लेख है और लिखा है कि उन्होंने शिकारकी निन्दा की है ।
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जैन साहित्य संशाधिक
[२
I
(जैनेन्द्र के कर्त्ता ) और पाणिनिका उल्लेख और भी एक दो जगह हुआ है । गुरु, शुक्र, विशालाक्ष, परीक्षित, पराशर, भीम, भीष्म, भारद्वाज आदि नीतिशास्त्रप्रणेताओं का भी वे कई जगह स्मरण करते हैं । कौटिलीय अर्थशास्त्र से तो वे अच्छी तरह परिचित हैं ही । हमारे एक पण्डित भित्रके कथनानुसार नीतिवाक्यामृत में सौ सवा सौ के लगभग ऐसे शब्द हैं जिनका अर्थ वर्तमान कोशोंमें नहीं मिलता । अर्थशास्त्रका अध्येता ही उन्हें सम्झ सकता है । अश्वविद्या, गजैविद्या, रत्नपरीक्षा, कामशास्त्र, वैद्यक आदि विद्याओंके आचार्योंका भी उन्होंने कई प्रसंगों ने जिकर किया है । प्रजापतिप्रोक्त चित्रकर्म, वराहमिहिरकृत प्रतिष्टांकाण्ड, आदित्यमेत, निमित्तोंध्याय, महाभारत, रत्नपरीक्षा, पतंजलिका योगशास्त्र और वररुचि, ध्यास, हरप्रबोध, कुमरिलकी उक्तियोंके उद्धरण दिये हैं । सैद्धान्तवैशेषिक, तार्किक वैशेषिक, पाशुपत, कुलाचार्य, सांख्य, दशबलशासन, जैमिनीय, बार्हस्पत्य, वेदान्तवादि, काणाद, ताथागत, कापिल, ब्रह्माद्वैतवादि, अवधूत आदि दर्शनोंके सिद्धान्तोंपर विचार किया है । इनके सिवाय मतङ्ग, भृगु, भर्ग, भरत, गौतम, गर्ग, पिंगल, पुलह, पुलोम, पुलस्ति, पराशर, मरीचि, विरोचन, धूमध्वज, नीलपट, ग्रहिल, आदि अनेक प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध आचाय का नामोलेख किया है । बहुत से ऐतिहासिक दृष्टान्तोंका भी उल्लेख किया गया है । जैसे यवनदेश ( यूनान ! ) में मणिकुण्डला रानीने अपने पुत्र के राज्य के लिए विषदूषित शराब के कुरलेसे अजराजाको, सूरसेन (मथुरा) में वसन्तमतिने विषमय आलतेसे रंगे हुए अधरोंसे सुरतविलास नामक राजाको, दशार्ण (मिलसा ) में वृकोदरीने विषलिप्त करधनी से मदनार्णव राजाको, मगध देशमें मदिराक्षीने तीखे दर्पणसे मन्मथविन दको, पाण्ड्य देशमें चण्डरसा रानीने
छुपी हुई छुरीसे मुण्डीर नामक राजाको मार डाला * । इत्यादि । पौराणिक आख्यान भी बहुत से आये हैं । जैसे प्रजापति ब्रह्माका चित्त अपनी लड़की पर चलायमान हो गया, वररुचि या कात्यायनने एक दासीपर रीझकर उसके कहनेते या घड़ा उठाया, आदि । इन सब बातों से पाठक जान सकेंगे कि आचार्य सोमदेवका ज्ञान कितना विस्तृत और व्यापक था । उदार विचारशीलता । यशस्तिल रुके प्रारंभ के २० वें श्ले करें सोमदेवसूरि कहते हैं:
-
लोको युक्तिः कलाच्छन्दोऽलंकाराः समयागमाः । सर्वसाधारणाः सद्भिस्तीर्थमार्ग इव स्मृताः ॥
अर्थात् सज्जनोंका कथन है कि व्याकरण, प्रमाणशास्त्र ( न्याय ), कलायें, छन्दः शास्त्र, अलंकारशास्त्र और ( आहा, जैमिनि, कपिल, चार्वाक, कणाद, बौद्धादिके ) दर्शनशास्त्र तीर्थमार्गके समन सर्वसाधारण हैं । अर्थात् जिस तरह गंगादिके मार्ग पर ब्राह्मण भी चल सकते हैं और चाण्डाल भी, उसी तरह इनपर भी सबका अधिकार है। +
"
१ - " पूपाद इव शब्देतियेषु... पणिपुत्र इव पदप्रयेोगेषु " यश० आ० २, पृ० २३६ । २ ३, ४, ५, ६ - " रोमपाद इव गजविद्यासु रैवत इव हयनयेषु शुकनाश इव रत्नपरीक्षासु, दत्तक इव कन्तुसिद्धान्तेषु ”—आ० ४, पृ० २३६-२३७ | 'दत्तक' कामशास्त्र के प्राचीन आचार्य हैं । वात्स्यायनने इनका उल्लेख किया है । ' चारायण' भी कामशास्त्र के आचार्य हैं । इनका मत यशतिलकके तीसरे आश्वासके ५०९ पृष्ठ में चरकके साथ प्रकट किया गया है । २, ३, ४, ५ – उक्त पांचा ग्रन्थोंके उद्धरण यश ० के चौथे आश्वासके पृ० ११२ - ३ और ११९ में उद्धत हैं । महानगरका नाम नहीं है, परन्तु- पुराणं मानवो धर्मः साङ्गो वेदश्चिकित्सितम् ' आदि लोक महाभारतसे ही उधृत किया गया है ।
६ - तदुक्तं रत्नपरीक्षायाम्- ' न केवलं ' आदि; आश्वास ५, पृ. २५६ ॥
७ - यशस्तिलक आ० ६, पृ० २७६-७७ । ८-०९-आ० ४, पृ० ९९ १०, ११ - आ० ५, पृ०२५१-५४ / १२-३ सत्र दर्शनांका विचार पाँचवें आश्वासके पृ० २६९ से २७७ तक किया गया है ।
१३ – देखो आश्वास ५, पृ० २५०-५५ और २९९ ।
* यलिक आ० ४, पृ० ५३ । इन्हीं आख्यानों का उल्लेख नीतिवाक्यामृत ( पृ० २३२ ) में भी किया गया
हे | आश्वास ३० ४३१ और ५५० में भी ऐसे ही कई ऐतिहासिक दृष्टान्त दिये गये हैं ।
X ० ० ४ पृ० १३८-३९ ।
..
+ " लोको व्याकरणशास्त्र युक्तिः प्राणशास्त्र, समयागमाः जिनजैमिनिकपिलकणचर चार्वाकशाक्याना सिद्धान्ताः । सर्वसाधारणाः कथिताः प्रतिपादिताः । क इव तीर्थ मार्ग इव । यथा तीर्थमार्गे ब्राह्मणाञ्चलन्ति, चाण्डाला अपि गच्छन्ति, नास्ति तत्र दोषः । " -- श्रुतसागरी टीका ।
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सोमदेवसारिकृत नीतिवाक्यामृत
इस उक्तिसे पाठक जान सकते हैं कि उनके विचार ज्ञानके सम्बन्धमें कितने उदार थे । उसे बे सर्वसाधारणकी चीज समझते थे और यही कारण है जो उन्होंने धर्माचार्य होकर भी अपने धर्मसे इतर धर्मके माननेवालोंके साहित्यका भी अच्छी तरहसे अध्ययन किया था, यही कारण है जो वे पूज्यपाद और भट्ट अकलंकदेवके साथ पाणिनि आदिका भी आदरके साथ उल्लेख करते हैं और यही कारण है जो उन्होंने अपना यह राजनीतिशास्त्र बीसों जैनेतर आचार्योंके विचारोंका सार खींचकर बनाया है। यह सच है कि उनका जैन सिद्धान्तों पर अचल विश्वास है और इसीलिए यशस्तिलकमें उन्होंने अन्य सिद्धान्तोका खण्डन करके जैनसिद्धान्तकी उपादेयता प्रतिपादन की है। परन्तु इसके साथ ही वे इस सिद्धान्तके पक्के अनुयायी हैं कि 'युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः।' उनकी यह नीति नहीं थी कि ज्ञानका मार्ग भी संकीर्ण कर दिया जाय और संसारके विशाल ज्ञान-भाण्डारका उपयोग करना छोड दिया जाय।
समय और स्थान ।। नीतिवाक्यामृतके अन्तकी प्रशस्तिमें इस बातका कोई जिकर नहीं है कि वह कब और किस स्थानमें रचा गया था; परन्तु यशस्तिलक चम्पूके अन्तमें इन दोनों बातोंका उल्लेख है:___ "शकनृपकालातीतसंवत्सरशतेष्वष्टस्वेकाशीत्यधिकेषु गतेषु अड्कतः (८८१) सिद्धार्थसंवत्सरान्तर्गतचैत्रमासमदनत्रयोदश्यां पाण्ड्य-सिंहल-चोल-चेरमप्रभृतीन्महीपतीन्प्रसाध्य मेलपाटीप्रवर्धमानराज्यप्रभावे श्रीकृष्णराजदेवे सति तत्पादपद्मोपोविनः समधिगतपञ्चमहाशब्दमहासामन्ताधिपतेश्चालुक्यकुलजन्मनः सामन्तचूडामणेः श्रीमदरिकेसरिणः प्रथमपुत्रस्य श्रीमद्वद्यगराजस्य लक्ष्मीप्रवर्धमानवसुधारायां गङ्गाधारायां विनिमापितमितं काव्यामिति ।"
अर्थात् चैत्र सुदी १३, शकसंवत् ८८, (विक्रम संवत् १०३६) को जिस समय श्रीकृष्णराजदेव पाण्ज्य सिंहल, चोल, चेर आदि राजाओं पर विजय प्राप्त करके मेलपाटी नामक राजधानीमें राज्य करते थे और उनके चरणकमलोपजीवी सामन्त बद्दिग--जो चालुक्यवंशीय अरिकेसरीके प्रथम पुत्र थे-गंगाधाराका शासन करते थे, यह काव्य समाप्त हुआ।
दक्षिणके इतिहाससे पता चलता है कि ये कृष्णराजदेव राष्ट्रकूट या राठौर वंशके महाराजा थे और इनका दूसरा नाम अकालवर्ष था। यह वही वंश है जिसमें भगवज्जिनसेनके परमभक्त महाराज अमोघवर्ष (प्रथम) उत्पन्न हुए थे। अमोघवर्षके पुत्र अकालवर्ष (द्वितीय कृष्ण ) और अकालवर्षके जगत्तुंग हुए * । इन जगत्तुंगके दो पुत्रोंइन्द्र या नित्यवर्ष और बद्दिग या अमोघवर्ष ( तृतीय ) मेसे--अमोघवर्ष तृतीयके पुत्र कृष्णराजदेव या तृतीय कृष्ण थे। इनके समयके शक संवत् ८६७, ८७३, ८७६, और ८८१ के चार शिलालेख मिले हैं, इससे इनका राज्यकाल कमसे कम ८६७ से ८८१ तक सुनिश्चित है। ये दक्षिणके सार्वभौमराजा थे और बड़े प्रतापी थे। इनके अधीन अनेक माण्डलिक या करद राज्य थे। कृष्णराजने-जैसा कि सोमदेवसूरिने लिखा है-सिंहल, चोल, पाण्ड्य और चेर राजाओको युद्ध में पराजित किया था। इनके समयमें कनड़ी भाषाका सुप्रसिद्ध कवि पोन्न हुआ है जो जैन था और जिसने
१ पाण्ड्य-वर्तमानमें मद्रासका ‘तिनेवली' सिंहल-सिलोन या लंका। चोल-मदरासका कारोमण्डल। चेर केरल, वर्तमान त्रावणकोर । २ मुद्रित प्रन्थमें ' मेल्याटी' पाठ है। ३ मुद्रित पुस्तकमे ' श्रीमद्वागराजप्रवर्धमान--' पाठ है। __* जगतुंग गद्दीपर नहीं बैठे । अकालवर्षके बाद जगत्तुंगके पुत्र तृतीय इन्द्रको गद्दी मिली। इन्द्र के दो पुत्र थे-अमोघवर्ष ( द्वितीय ) और गोविन्द (चतुर्थ)। इनमेंसे द्वितीय अमोघवर्ष पहले सिंहासनारूढ हुए; परन्तु कुछ; ही समयके बाद गोविन्द चतुर्थने उन्हें गद्दीसे उतार दिया और आप राजा बन बैठे। गोविन्दके बाद उनके काका अर्थात् जगत्तुंगके दूसरे पुत्र अमोघवर्ष (तृतीय) गद्दीपर बैठे। अमोघवर्षके बाद ही कृष्णराजदेव सिंहासनासीन हुए । इन सबके विषयमें विस्तारसे जानने के लिए डा० भाण्डरकरकृत 'हिस्ट्री आफ दी डेकन' या उसका मराठी अनुवाद पढिए।
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[ खंड २
शान्तिपुराण नामक श्रेष्ठ प्रन्थकी रचना की है। महाराज कृष्णराज देबके दरबारसे इसे ' उभयभाषाकविचक्रवर्ती ' की उपाधि मिली थी ।
निजाम राज्य में मलखेड़ नामका एक प्राम है जिसका प्राचीन नाम 'मान्यखेट ' है । यह मान्यखेट ही अमोघ - वर्ष आदि राष्ट्रकूट राजाओंकी राजधानी थी x और उस समय बहुत ही समृद्ध थी। संभव है कि सोमदेवने इसको मेलपाटी या मिल्याटी लिखा हो । 'हिस्टरी आफ कनारी लिटरेचर' के लेखकने लिखा है कि पोन afast उभयभाषाविचक्रवर्तीकी उपाधि देनेवाले राष्ट्रकूट राजा कृष्णराजने मान्यखेटमें सन् ९३९ से ९६८ तक राज्य किया है। इससे भी मालूम होता है कि मान्यखेटका ही नाम मेलपाटी होगा; परंतु यदि यह मेलपाटी कोई दूसरा स्थान है तो समझना होगा कि कृष्णराज देवके समयमें मान्यखेटसे राजधानी उठकर उक्त दूसरे स्थान में चली गई थी। इस बातका पता नहीं लगता कि मान्यखेटमें राष्ट्रकूटो की राजधानी कब तक रही ।
राष्ट्रकूटों के समय में दक्षिणका चालुक्यवंश ( सोलंकी ) हतप्रभ हो गया था। क्योंकि इस वंशका सार्वभौमत्व राष्ट्रकूटोंने ही छीन लिया था । अतएव जब तक राष्ट्रकूट सार्वभौम रहे तब तक चालुक्य उनके आज्ञाकारी सामन्त या माण्डलिक राजा बनकर ही रहे। जान पड़ता है कि अरिकेसारका पुत्र बहिग ऐसा ही एक सामन्तराजा था जिसकी गंगाधारा नामक राजधानी में यशस्तिलककी रचना समाप्त हुई है ।
चालुक्योंकी एक शाखा ' जोल' नामक प्रान्तपर राज्य करती थी जिसका एक भाग इस समय के धारवाड़ जिलेमें आता है और श्रीयुक्त आर. नरसिंहाचार्य के मतसे चालुक्य अरिकेसरीकी राजधानी 'पुलगेरी' में थी जो कि इस समय ' लक्ष्मेश्वर' के नामसे प्रसिद्ध है ।
इस अरकेसरी के ही समय में कनड़ी भाषाका सर्वश्रेष्ठ कवि चम्प हो गया है जिसकी रचना पर मुग्ध होकर अरिकेसरीने धर्मपुर नामका एक ग्राम पारितोषिक में दिया था। पम्प जैन था। उसके बनाये हुए दो ग्रन्थ इस समय उपलब्ध है— एक आदिपुराण चम्पू और दूसरा भारत या विक्रमार्जुनविजय । पिछले ग्रन्थमें उसने अरिकेसरीकी वंशावली इस प्रकार दी है- युद्धमल्ल - अरिकेसरी - नारसिंह- युद्धमल्ल - बहिण - युद्धमल्लनारसिंह और अरिकेसरी । उक्त ग्रन्थ शक संवत ८६३ ( वि० ९९८ में ) समाप्त हुआ है, अर्थात् वह यशस्तिलक से कोई १८ वर्ष पहले बन चुका था इसकी रचना के समय अरिकेसरी राज्य करता था, तब उसके १८ वर्षबाद -- यशस्तिलक की रचनाके समय -- उसका पुत्र राज्य करता होगा, यह सर्वथा ठीक जैचता है ।
काव्यमाला द्वारा प्रकाशित यशस्तिलक में अरिकेसरीके पुत्रका नाम ' श्रीमद्वागराज ' मुद्रित हुआ है; परन्तु हमारी समझ में वह अशुद्ध है। उसकी जगह ' श्रीमद्वद्दिगराज ' पाठ होना चाहिए । दानवीर सेठ माणिकचंदजीके सरस्वती भंडार की वि० सं० १४६४ की लिखी हुई प्रतिमें ' श्रीमद्वद्यगराजस्य पाठ है और इससे हमें अपने कल्पना किये हुए पाठकी शुद्धतामें और भी अधिक विश्वास होता है। ऊपर जो हमने पम्पकवि-लिखित अरिकेसरीकी वंशावली दी है, उस पर पाठकोंको जरा बारीकसे विचार करना चाहिए। उसमें युद्धमल्ल नामके तीन, अरिकेसरी नामके दो और नारसिंह नामके दो राजा है । अनेक राजवंशोंमें प्रायः यही परिपाटी देखी जाती है कि पितामह और पौत्र या प्रपितामह और प्रपौतके नाम एकसे रक्खे जाते थे, जैसा कि उक्त वंशावलीसे प्रकट होता है * । अतएव हमारा अनुमान है कि इस वंशावलीके अन्तिम राजा अरिकेसरी ( पम्पके आश्रयदाता ) के पुलका नाम atr x ही होगा जो कि लेखकोंके प्रमादसे 'वद्यग' या 'वाग' बन गया है ।
x महाराजा अमोघवर्ष ( प्रथम ) के पहले शायद राष्ट्रकूटोंकी राजधानी मयूरखण्डी थी जो इस समय नासिक जिलेमें मोरखण्ड के नामसे प्रसिद्ध है ।
<
* दक्षिणके राष्ट्रकूटाकी वंशावलीमें भी देखिए कि गोविन्द नामके चार, इन्द्र नामके तीन और कर्क नामके x श्रद्धेय पं० गौरीशंकर हीराचन्द ओझाने अपने सोमदेवसूरीने अरिकेसरीके प्रथम पुत्रका नाम नहीं दिया है; कारण समझ लिया है; वास्तवमे नाम दिया है और वह '
अमोघवर्ष नामके चार, कृष्ण या अकालवर्ष नामके तीन, तीन राजा लगभग २५० वर्ष के बीच में ही हुए हैं। सोलंकियों के इतिहास ' ( प्रथम भाग ) में लिखा है कि परन्तु ऐसा उन्होंने यशस्तिलककी प्रशस्तिके अशुद्ध पाठके वद्दिग' ही है ।
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अंक
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सोमदेवसरिकृत नीतिवाक्यामृत ।
'गंगाधारा' स्थान के विषयमें हम कुछ पता न लगा सके जो कि बद्दिगकी राजधानी थी और जहाँ यशस्तिलककी रचना समाप्त हुई है। संभवतः यह स्थान धारवाड़के ही आसपास कहीं होगा।
श्रीसोमदेवसरिने नातिवाक्यामृतकी रचना कब और कहाँ पर की थी, इस बातका विचार करते हुए हमारी दृष्टि उसकी संस्कृत टीकाके निम्नलिखित वाक्यों पर जाती है।
“अत्र तावदखिलभूपालमौलिलालितचरणयुगलेन रघुवंशावस्थाथिपराक्रमपालितकस्य ( कृरन) कर्णकुब्जेन महाराजश्रीमहेन्द्रदेवेन पूर्वाचार्यकृतार्थशास्त्रदुरवबोधग्रन्थगौरवखिन्नमानसेन सुबोधललितलधुनीतिवाक्यामृतरचनासु प्रवर्तितः सकलपारिषदत्वान्नतिग्रन्थस्थ नानादर्शनप्रतिबद्धश्रोतृणां तत्तदभीष्टश्रीकण्ठाच्युतविरंच्यर्हतां वाचनिकमनस्कृतिसूचनं तथा स्वगुरोः सोमदेवस्य च प्रणामपूर्वकं शास्त्रस्य तत्कर्तृत्वं ख्यापयितुं सकलसत्त्वकृताभयप्रदानं मुनिचन्द्राभिधानः क्षपणकव्रतधती नीतिवाक्यामृतकर्ता निर्विनसिद्धिकरं...श्लोकमेकं जगाद-" पृष्ठ २.
इसका अभिप्राय यह है कि कान्यकुब्जनरेश्वर महाराजा महेन्द्रदेवने पूर्वाचार्यकृत अर्थशास्त्र (कौटिलीय अर्थशास्त्र ? ) की दुबौधता और गुरुतासे खिन्न होकर प्रन्थकर्ताको इस सुबोध, सुन्दर और लघु नीतिवाक्यामृतकी रचना करनेमें प्रवृत्त किया। ___कन्नौजके राजा महेन्द्रपालदेवका समय वि० संवत् ९६० से ९६४ तक निश्चित हुआ है। कर्पूरमंजरी और काव्यमीमांसा आदिके कर्ता सुप्रसिद्ध कवि राजशेखर इन्हीं महेन्द्रपालदेवके उपाध्याय थे । परन्तु हम देखते हैं कि पशस्तिलक वि. संवत् १०१६ में समाप्त हुआ है और नीतिवाक्यामृत उससे भी पीछे बना है। क्योंकि नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिमे ग्रन्थकर्त्ताने अपनेको यशोधरमहाराजचरित या यशस्तिलक महाकाव्यका कर्ता प्रकट किया है और इससे प्रकट होता है कि उक्त प्रशस्ति लिखते समय वे यशस्तिलकको समाप्त कर चुके थे। ऐसी अवस्थामें महेंन्द्रपालदेवसे कमसे कम ५०-५१ वर्ष बाद नीतिवाक्यामृतका रचनाकाल ठहरता है । तब समझमें नहीं आता कि टीकाकारने सोमदेवको महेन्द्रपालदेवका सामायक कैसे ठहराया है। आश्चर्य नहीं जो उन्होंने किसी सुनी सुनाई किंवदन्तीके आधारसे पूर्वोक्त बात लिख दी हो। . नातिवाक्यामृतके टीकाकारका समय अज्ञात है; परंतु यह निश्चित है कि वे मूल ग्रन्थकर्तासे बहुत पीछे हुए हैं, क्योंकि और तो क्या वे उनके नामसे भी अच्छी तरह परिचित नहीं है। यदि ऐसा न होता तो मंगलाचरणके श्लोककी टीकामें जो ऊपर उद्धृत हो चुकी है, वे ग्रंथकर्ताका नाम 'मुनिचन्द्र ' और उनके गुरुका नाम 'सोमदेव' न लिखते। इससे भी मालूम होता है कि उन्होंने ग्रन्थकर्ता और महेन्द्रदेवका समकालिकत्व किंवदन्तकि आधारसेही लिखा है।
सोमदेवसूरिने यशस्तिलकमें एक जगह जो प्राचीन महाकवीयोंकी नामावली दी है, उसमें सबसे अन्तिम नाम राजशेखरका है ४। इससे मालूम होता है कि राजशेखरका नाम सोमदेवके समयमें प्रसिद्ध हो चुका था, अत एव राजशेखर उनसे अधिक नहीं तो ५० वर्ष पहले अवश्य हुए होंगे और महेन्द्रदेवके वे उपाध्याय थे। इससे भी नीतिवाक्यामृतका उनके समयमें या उनके कहनेसे बनना कम संभव जान पड़ता है।
और यदि कान्यकुब्जनरेशके कहनेसे सचमुच ही नीतिवाक्यामृत बनाया गया होता, तो इस बातका उल्लेख ग्रन्थकर्ता अवश्य करते; बल्कि महाराजा महेन्द्रपालदेव इसका उल्लेख करनेके लिए स्वयं उनसे आग्रह करते।
पहले बतलाया जा चुका है कि सोमदेवसूरि देवसंघके आचार्य थे और जहाँ तक हम जानते हैं यह संघ दक्षिणमें ही रहा है। अब भी उत्तरमें जो भट्टारकोंकी गद्दियों हैं, उनभेसे कोई भी देवसंघकी नहीं है । यशस्तिलक भी दक्षिणमें ही बना है और उसकी रचनासे भी अनुमान होता है कि उसके कर्ता दाक्षिणात्य हैं। ऐसी अवस्थामें उनका
* देखो नागरीप्रचारिणी पत्रिका (नवीन संस्करण), भाग २, अंक १ में स्वर्गीय पं० चन्द्रधर शर्मा गुलेरीका 'अवन्तिसुन्दरी' शीर्षक नोट ।
x" तथा--उर्व-भारवि-भवभूति-भर्तृहरि-भतृमेण्ठ-गुणाढ्य-व्यास-भास-वोस-कालिदास-बाण-मयुर-नारायण-कुमारमाघ-राजशेखरादिमहाकविकाव्येषु तत्र तन्नावसरे भरतप्रणीते काव्याध्याये सर्वजनप्रसिद्धेषु तेषु तेषूपाख्यानेषु च कथ तद्विषमा महती प्रसिद्धिः ।"
यशस्तिलक आ. ४, पृ०११३ ।
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[खंड २
निर्घन्य होकर भी कान्यकुब्जके राजाकी सभामें रहना और उसके कहनेसे नीतिवाक्यामृतकी रचना करना असंभव नहीं तो विलक्षण अवश्य जान पड़ता है।
मूलग्रन्थ और उसके कताके विषयमें जितनी बातें मालूम हो सकी उन्हें लिखकर अब हम टीका और टीकाकारका परिचय देनेकी ओर प्रवृत्त होते हैं:
टीकाकार। जिस एक प्रतिके आधारसे यह टीका मुद्रित हुई है, उसमे कहीं भी टीकाकारका नाम नहीं दिया है। संभव है कि टीकाकारकी भी कोई प्रशस्ति रही हो और वह लेखकोंके प्रमादसे छूट गई हो। परन्तु टीकाकारने ग्रन्थके आरंभमें जो मंगलाचरणका श्लोक लिखा है, उससे अनुमान होता है कि उनका नाम बहुत करके 'हरिबल' होगा।
हरि हरिबलं नत्वा हरिवर्ण हरिप्रभम् ।
हरीज्यं च ब्रुवे टीका नीतिवाक्यामृतोपरि ॥ यह श्लोक मूल नीतिवाक्यामृतके निम्नलिखित भंगलाचरणका बिल्कुल अनुकरण है:
सोमं सोमसमाकारं सोमाभं सोमसंभवम् ।
सोमदेवं मुनि नत्वा नीतिवाक्यामृतं ब्रुवे ॥ जब टीकाकारका मंगलाचरण मूलका अनुकरण है और मूलकारने अपने मंगलाचरणमें अपना नाम भी पर्यायान्तरसे व्यक्त किया है, तब बहुत संभव है कि टीकाकारने भी अपने भंगलाचरणमें अपना नाम व्यक्त करनेका प्रयत्न किया हो और ऐसा नाम उसमें हरिबल ही हो सकता है जिसके आगे मूलके सोमदेवके समान 'नत्वा' पद पड़ा हुआ है । यह भी संभव है कि हरिबल टीकाकारके गुरुका नाम हो और यह इसलिए कि सोमदेवको उन्होंने मूलग्रन्थ कर्ताके गुरुका नाम समझा है । यद्यपि यह केवल अनुमान ही है, परन्तु यदि उनका या उनके गुरुका नाम हरिबल हो, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
टीकाकारने मंगलाचरणमें हरि या वासुदेवको नमस्कार किया है। इससे मालम होता है कि वे वैष्णव धर्मके उपासक होंगे।
वे कहाँके रहनेवाले थे और किस समयमें उन्होंने यह टीका लिखी है, इसके जाननेका कोई साधन नहीं है। परन्तु यह बात निःसंशय होकर कही जा सकती है कि वे बहुश्रुत विद्वान् थे और एक राजनीतिके ग्रन्थपर टीका लिखनेकी उनमें यथेष्ट योग्यता थी । इस विषयके उपलब्ध साहित्यका उनके पास काफी संग्रह था और टीकामे उसका पूरा पूरा उपयोग किया गया है। नीतिवाक्यामृतके अधिकांश वाक्योंकी टीकामे उस वाक्यसे मिलते जुलते अभिप्रायवाले उद्धरण देकर उन्होंने मूल अभिप्रायको स्पष्ट करनेका भरसक प्रयत्न किया है। विद्वान् पाठक समझ सकते हैं कि यह काम कितना कठिन है और इनके लिए उन्हें कितने प्रन्थोंका अध्ययन करना पड़ा होगा; स्मरणशक्ति भी उनकी कितनी प्रखर होगी।
___ यह टीका पचासों ग्रन्थकारोंके उद्धरणोंसे भरी हुई है। इसमें किन किन कवियों, आचार्यों या ऋषियोंके श्लोक उद्धृत किये गये हैं, यह जानने के लिए ग्रन्थके अन्तमें उनके नामोंकी और उनके पद्योकी एक सूची वर्णानुक्रमसे लगा दी गई है, इसलिए यहाँ पर उन नामोंका पृथक उल्लेख करनेकी आवश्यकता नहीं है। पाठक देखेंगे कि उसमें अनेक नाम बिल्कुल अपरिचित हैं और अनेक ऐसे हैं जिनके नाम तो प्रसिद्ध हैं। परन्तु रचनायें इस समय अनुपलब्ध हैं । इस दृष्टिसे यह टीका और भी बड़े महत्त्वकी है कि इससे राजनीति या सामान्यनीतिसम्बन्धी प्राचीन ग्रन्थकारोंकी रचनाके सम्बन्धमें अनेक नई नई बातें मालूम होगी।
संशोधकके आक्षेप। इस ग्रन्थकी प्रेसकापी और प्रफ संशोधनका काम श्रीयुत पं. पन्नालालजी सोनीने किया है। आपने केवल अपने उत्तरदायित्व पर, मेरी अनुपस्थितिमें, कई टिप्पणियाँ ऐसी लगा दी हैं जिनसे टीकाकारके और उसकी टीकाके विष. यमें एक बड़ा भारी भ्रम फैल सकता है अतएव यहाँ पर यह आवश्यक प्रतीत होता है कि उन टिप्पणियों पर भी एक नजर डाल ली जाय । सोनीजीकी टिप्पणियोंके आक्षेप दो प्रकारके हैं:--
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अंक १]
सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत
[ ë
१ - टीकाकारने जो मनु, शुक्र और याज्ञवल्क्यके श्लोक उद्धृत किये हैं, वे मनुस्मृति, शुक्रनीति और याज्ञवल्क्यस्मृतिर्भे, नहीं है । यथा पृष्ठ १६५ की टिप्पणी -" श्लोकोऽयं मनुस्मृतौ तु नास्ति । टीकाकर्त्रा स्वदौष्टयेन प्रन्थकर्तृपराभवाभिप्रायेण बहवः श्लोकाः स्वयं विरचय्य तत्र तत्र स्थलेषु विनिवेशिताः ।' अर्थात् यह श्लोक मनुस्मृतिमें तो नहीं है, टीकाकारने अपनी दुष्टतावश मूलकर्ताको नीचा दिखाने के अभिप्रायसे स्वयं ही बहुतसे श्लोक बनाकर जगह जगह घुसेड़ दिये हैं ।
२ – इस टीकाकारने -जो कि निश्चयपूर्वक अजैन है- बहुतसे सूत्र अपने मत के अनुसार स्वयं बनाकर जोड़ दिये हैं। यथा पृष्ठ ४९ की टिप्पणी - " अस्य ग्रन्थस्य कर्त्ता कश्चिदजैनविद्वानस्तीति निश्चितं । अतस्तेन स्वमतानुसारेण बहूनि स्त्राणि विरचय्य संयोजितानि । तानि च तत्र तत्र निवेदयिष्यामः । "
पहले आक्षेपके सम्बन्धमें हमारा निवेदन है कि सोनीजी वैदिक धर्मके साहित्य और उसके इतिहास से सर्वथा अनभिज्ञ हैं; फिर भी उनके साहसकी प्रशंसा करनी चाहिए कि उन्होंने मनु या शुकके नामके किसी ग्रन्थके किसी एक संस्करणको देखकर ही अपनी अद्भुत राय दे डाली है । खेद है कि उन्हें एक प्राचीन विद्वान के विषय में केवल इतने कारण कि वह जैन नहीं है इतनी बड़ी एकतरफा डिक्री जारी कर देनेमें जरा भी झिझक नहीं हुई !
सोनीजीने सारी टीका मनुके नामके पाँच श्लोकों पर, याज्ञवल्क्यके एक श्लोकपर, और शुकके दो लोकोपर अपने नोट दिये हैं कि ये श्लोक उक्त आचार्योंके ग्रन्थोंमें नहीं हैं । सचमुच ही उपलब्ध मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति और शुक्रनीति उद्घृत श्लोकों का पता नहीं चलता । परन्तु जैसा कि सोनीजी समझते हैं, इसका कारण टीकाकार की दुष्टता या मूलकर्ताको नीचा दिखानेकी प्रवृत्ति नहीं है।
सोनीजीको जानना चाहिए कि हिन्दुओं के धर्मशास्त्रों में समय समय पर बहुत कुछ परिवर्तन होते रहे हैं । अपने निर्माणसमय में वे जिस रूपमें थे, इस समय उस रूपमें नहीं मिलते हैं । उनके संक्षिप्त संस्करण भी हुए हैं और प्राचीन 'प्रन्थों के नष्ट हो जानेसे उनके नामसे दूसरोंने भी उसी नामके ग्रन्थ बना दिये हैं । इसके सिवाय एक स्थानकी प्रतिके पाठों से दूसरे स्थानों की प्रतियों के पाठ नहीं मिलते। इस विषय में प्राचीन साहित्यके खोजियोंने बहुत कुछ छानबीन की है और इस विषय पर बहुत कुछ प्रकाश डाला है । कौटिलीय अर्थशास्त्रकी भूमिका में उसके सुप्रसिद्ध सम्पादक पं. आर. शामशास्त्री लिखते हैं:
" अतश्च चाणक्यकालिकं धर्मशास्त्रमधुनातनाद्याज्ञवल्क्यधर्मशास्त्रादन्यदेवासीदिति प्रतिभाति । एवमेव ये पुनर्मा नव-बार्हस्पत्यौशनसा भिन्नाभिप्रायास्तत्र तत्र कौटिल्येन परामृष्टाः न तेऽअधुनोपलभ्यमानेषु ततद्धर्मशास्त्रेषु दृश्यन्त इति कौटिल्यपरामृष्टानि तानि शास्त्राण्यन्यान्येवेति बाढ
सुवचम् ।
अर्थात् इससे मालूम होता है कि चाणक्य के समयका याज्ञवल्क्य धर्मशास्त्र वर्तमान याज्ञवल्क्य शास्त्र ( स्मृति ) से कोई जुदा ही था । इसी तरह कौटिल्यने अपने अर्थशास्त्रमें जगह जगह बार्हस्पत्य, औशनस आदिसे जो अपने भिन्न अभिप्राय प्रकट किये हैं वे अभिप्राय इस समय मिलनेवाले उन धर्मशास्त्रों में नहीं दिखलाई देते । अतएव यह अच्छी तरह सिद्ध होता है कि कौटिल्यने जिन शास्त्रोंका उल्लेख किया है, वे इनके सिवाय दूसरे ही थे ।
स्वर्गीय बाबू रमेशचन्द्र दत्तने अपने ' प्राचीन सभ्यताके इतिहास' में लिखा है कि प्राचीन धर्मसूत्रों को सुधार कर उत्तरकालमें स्मृतियाँ बनाई गई हैं— जैसे कि मनु और याज्ञवल्क्यकी स्मृतियाँ। जो धर्मसूत्र खोये गये हैं उनमें एक मनुका सूत्र भी है जिससे कि पीछे के समय में मनुस्मृति बनाई गई है । ऽ
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याज्ञवल्क्य स्मृतिके सुप्रसिद्ध टीकाकार विज्ञानेश्वर लिखते हैं:- -" याज्ञवल्क्यशिष्यः कश्चन प्रश्नोत्तररूपं याज्ञवल्क्यप्रणीतं धर्मशास्त्रं संक्षिप्य कथयामास, यथा मनुप्रोक्तं भृगुः ।' अर्थात् याज्ञवल्क्य के किसी शिष्यने याज्ञवल्क्यप्रणीत धर्मशास्त्रको संक्षिप्त करके कहा -जिस तरह कि भृगुने मनुप्रणीत धर्मशास्त्रको संक्षिप्त करके मनुस्मृति लिखी है। इससे मालूम होता है कि उक्त दोनों स्मृतियाँ, मनु और याज्ञवल्क्यके प्राचीन शास्त्रोंके उनके
S रमेशबाबूने अपने इतिहास के चौथे भाग में इस समय मिलनेवाली पृथक् पृथक् बीसों स्मृतियों पर अपने विचार प्रकट किये हैं और उसमें बतलाया है कि अधिकांश स्मृतियाँ बहुत पीछे की बनी हुई हैं और बहुतों - जो प्राचीन भी हैं- बहुत पीछे तक नई नई बातें शामिल की जाती रही हैं।
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4. जैन साहित्य संशोधक
[खंड २ शिष्यों या परम्पराशिष्यों द्वारा निर्मित किये हुए सार हैं और इस बातको तो सभी जानते हैं कि उपलब्ध मनुस्मृति भृगुप्रणीत हैं-स्वयं मनुप्रणीत नहीं।
बम्बईके गुजराती प्रेसके मालिकोने कुल्लूकभट्टकी टीकाके सहित मनुस्मृतिका एक सुन्दर संस्करण प्रकाशित किया है। उसके परिशिष्टमे ३५५ श्लोक ऐसे दिये हैं जो वर्तमान मनुस्मृतिमें तो नहीं मिलते हैं। परन्तु हेमाद्रि, मिताक्षरा, पराशरमाधवीय, स्मृतिरत्नाकर, निर्णयसिन्धु आदि ग्रन्थोंमे मन, वृद्धमनु और बृहन्मनुके नामसे 'उक्तंच' रूपमें उद्धृत किये हैं । इसके सिवाय सैकड़ों श्लोक क्षेपकरूपमें भी दिये हैं, जिनकी कुल्लूक भट्टने भी टीका नहीं की है।
हमारे जैनग्रन्थोभे भी मनुके नामसे अनेक श्लोक उद्धृत किये गये हैं जो इस मनुस्मृतिमें नहीं है । उदाहरणार्थ स्वनामधन्य पं० टोडरमल्लजीने अपने मोक्षमार्गप्रकाशके पाँचवें अधिकारमें मनुस्मृतिके तीन श्लोक दिये हैं, जो वर्तमान मनुस्मृतिमें नहीं हैं। इसी तरह 'द्विजवदनचपेट' नामक दिगम्बर जैनग्रन्थमें भी मनुके नामसे ७ श्लोक उद्धत हैं जिनमेंसे वर्तमान मनुस्मृतिम केवल २ मिलते हैं, शेष ५ नहीं हैं।*
शुक्रनीति जो इस समय मिलती है उसके विषयमें तो विद्वानोंकी यह राय है कि वह बहुत पीछेकी बनी हुई हैपाँच छः सौ वर्षसे पहलेकी तो वह किसी तरह हो ही नहीं सकती । शुक्रका प्राचीन प्रन्थ इससे कोई पृथक् ही था ।
औरिलीय अर्थशास्त्र लिखा है कि शुक्र मतसे दण्डनीति एक ही राजविद्या है, इसमें सब विद्यायें गर्मित है। परन्तु वर्तमान शुकनीतिका का चारो विद्याओंको राजविद्या मानता है-'विद्याश्चतस्र एवेताः' आदि (अ०१ लो.५१)। अतएव इस शुक्रनीतिको शुक्रकी मानना भ्रम है।
इन सब बातों पर विचार करनेसे हम टीकाकार पर यह दोष नहीं लगा सकते कि उसने स्वयं ही श्लोक गढकर मनु आदिके नाम पर मढ़ दिये हैं। हम यह नहीं कहते कि वर्तमान मनुस्मृति उक्त टीकाकारके बादकी है, इस लिए उस समय यह न उपलब्ध होगी। क्योंकि टीकाकारसे भी पहले भूलकर्ता श्रीसोमदेवसरिने भी मनुके बीस श्लोक उद्धत किये हैं और वे वर्तमान मनुस्मृतिमें मिलते हैं। अतएव टीकाकारके समयमें भी यह मनुस्मृति अवश्य होगी; परन्तु इसकी जो प्रति उन्हें उपलब्ध होगी, उसमें टीकोद्धत श्लोकोंका रहना असंभव नहीं माना जा सकता । यह भी संभव है कि किसी दूसरे ग्रन्थकर्त्ताने इन श्लोकोंको मनुके नामसे उद्धृत किया हो और उस ग्रन्थके आधारसे टीकाकारने भी उधृत कर लिया हो । जैसे कि अभी मोक्षमार्गप्रकाशके या द्विजवदनचपेटके आधारसे उनमें उद्धत किये हुए मनुस्मृतिक लोकोको, कोई नया लेखक अपने प्रन्थमें भी लिख दे।। ___याज्ञवल्क्यस्मृतिके श्लोकके विषयमें भी यही बात कही जा सकती है। अब रही शुक्रनीति, सो उसकी प्राचीनतामे तो बहुत ही संदेह है । वह तो इस टीकाकारसे भी पीछेकी रचना जान पड़ती है। इसके सिवाय शुक्रके नाम तो टीकाकारने दो चार नहीं १७० के लगभग श्लोक उद्धृत किये हैं । तो क्या टीकाकारने वे सबके सब ही मूलकर्ताको नीचा दिखानेकी गरजसे गढ़ लिये होंगे ? और मूलक तो इसमें अपनी कोई तौहीन ही नहीं समझते हैं। उन्होंने तो अपने यशस्तिलक न जाने कितने विद्वानोंके वाक्य और पद्य जगह जगह उद्धृत करके अपने विषयका प्रतिपादन, किया है।
सोनीजीका दूसरा आक्षेप यह है कि टीकाकारने स्वयं ही बहुतसे सूत्र (वाक्य) गढकर मूल शामिल कर दिये हैं। विद्यावृद्धसमुद्देशके, नीचे लाखे २१, २१ और २५वे सूत्रोंको आप टीकाकर्ताका बतलात हैं:
१-"वैवाहिकः शालीनो जायावरोऽघोरो गृहस्थाः॥" २१ २-बालाखिल्य औदुम्बरी वैश्वानराः सद्यःप्रक्षल्यकश्चेति वानप्रस्थाः" ॥ २३ ४ देखो मोक्षमार्गप्रकाशका बम्बईका संस्करण, पृष्ठ. २०१।
ॐ द्विजवदनचपेट ' संस्कृत ग्रन्थ है, कोल्हापुरके श्रीयुत पं० कल्लाप्पा भरमाप्पा निटवेने जैनबोधक' में और स्वतंत्र पुस्तकाकार भी, अबसे कोई १२-१४ वर्ष पहले, मराठी टीकासहित प्रकाशित किया था।
४ देखो गुजराती प्रेसकी शुक्रनीतिकी भूमिका ।
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सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत ।
[ ५१
३-"कुटीरकबहादक -हंस-परमहंसा यतयः" ॥ २५
इसका कारण आपने यह बतलाया है कि मुद्रित पुस्तकमें और हस्तालाखेत लिपुस्तकमें ये सूत्र नहीं है। परन्तु इस कारणमें कोई तथ्य नहीं दिखलाई देता । क्योंकि
१-जब तक दश पाँच हस्तलिखित प्रतियाँ प्रमाणमें पेश न की जासकें, तब तक यह नहीं माना जा सकता कि मुद्रित और मूलपुस्तकमें जो पाठ नहीं है वे मूलकत्ताके नहीं है-ऊपरसे जोड़ दिये गये हैं । इस तरहके होन अधिक पाठ जुदी जुदी प्रतियोंमें अकसर मिलते हैं।
२-मलकत्ताने पहले वोंके भेद बतलाकर फिर आश्रमोंके भेद बतलाये हैं-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति । फिर ब्रह्मचारियोंके उपकुवाण, नाष्टिक, और ऋतुप्रद ये तान भेद बतलाकर उनके लक्षण दिये हैं। इसके आगे गृहस्थ, वानप्रस्थ और यातयोके लक्षण क्रमसे दिये हैं; तब यह स्वाभाविक और क्रमप्राप्त है कि ब्रह्मचारियोंके समान गृहस्थों, वानप्रस्थों और यातयोंके भी भेद बतलाये जाय और वे हा उक्त तान सूत्रोंमें बतलाये गये है । तब यह निश्चय. पूर्वक कहा जा सकता है कि प्रकरणके अनुसार उक्त तानों सूत्र अवश्य रहने चाहिए और मूलकत्ताने हो उन्हें रचा होगा। जिन प्रतियोमे उक्त सूत्र नहीं है; उनमें उन्हें भूलसे ही छूटे हुए समझना चाहिए ।
-याद इस कारणसे ये मूलकत्ताक नहीं है कि इनमें बतलाये हुए भंद जैनमतसम्मत नहीं है, तो हमारा प्रश्न है कि उपकुर्वाण, कृतुप्रद आदि ब्रह्मचारियोके भेद भी किसी जनप्रन्थमें नहीं लिख है, तब उनके सम्बन्धक जितन सूत्र है, उन्हे भी मूलकत्ताक नहीं मानने चाहिए । यदि सूत्रोक मूलकाकृत हानेको यहाँ कसोटी सोनीजा ठहरा देवे, तब ता इस ग्रन्थका आधस भी आधक भाग टीकाकार कृत ठहर जायगा। क्योंकि इसमे सेकड़ो ही सूत्र एस है जिनका जनधमक साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है और कोई भी विद्वान उन्ह जनसम्मत सिद्ध नहीं कर सकता।
४--जिसतरह टीकापुस्तकमें अनेक सूत्र अधिक है और जिन्हें सोनाजा टीकाकताको गढन्त समझते हैं, उसी प्रकार मुद्रित और मूलपुस्तकमें भी कुछ सूत्र अधिक है ( जो टीकापुस्तकम नहीं है ), तब उन्हें किसकी गहन्त समझना चाहिए? विद्यावृद्धसमुद्देशके ५९ वे सूत्रके आगे निम्नलिखित पाठ छूटा हुआ है जो मुद्रित और मूलपुस्तकमें मोज़द है:___ "सांख्य योगा लोकायतं चान्वीक्षिकी । बौद्धाहताः श्रुतेः प्रतिपक्षत्वात् ( नान्वीक्षिकान्वं), प्रकृतिषुरुषज्ञा हि राजा सत्त्वमवलम्बते । रजः फलं चाफलं च परिहरात, तमाभिनाभिभूयंत।".
भला इन सूत्रोंको टीकाकारने क्यों छोड़ दिया ? इसमें कही हुई बातें तो उसके प्रतिकूल नहीं था.? और मुद्रित तथा मूलपुस्तक दोनों ही यदि जनोके लिए विशेष प्रामाणिक मानी जाव ता उनमें यह अधिक पाठ नहीं होना चाहिए था। क्योंकि इसमें वदविरोधी होनक कारण जैन और बोद्धदर्शनका आन्वीक्षिकास बाहर कर दिया है । और मुद्रित पुस्
स्तकमें ता मूलकताक मंगलाचरण तकका अभाव है। वास्तविक बात यह है कि न इसम टीकाकारका दोष है और न मुद्रित करानेवालका | जिस जैसी प्रति मिली है उसने उसीके अनुसार टीका लिखी है और पाठ छपाया है। एक प्रतिसे दूसरा और दूसरीसे तीसरी इस तरह प्रतिया होते होते लेखकोंके प्रमादसे अकसर पाठ छूट जाते हैं और टिप्पण आदि मूलमें शामिल हो जाते हैं।। ___हम समझते हैं कि इन बातोंसे पाठकोका यह भ्रम दूर हो जायगा कि टीकाकारने कुछ सूत्र स्वयं रचकर मूलमें जोड़ दिये हैं। यह केवल सोनोजाके मस्तकको उपज है और निस्सार है । खेद है कि हमें उनको भ्रमपूर्ण टिप्पणियोंके कारण भूमिकाका इतना अधिक स्थान रोकना पड़ा।
एक विचारणीय प्रश्न । इस आशासे अधिक बढ़ी हुई भूमिकाको समाप्त करनेके पहले हम अपने पाठकोका ध्यान इस और विशेषरूपसे आकर्षित करना चाहते हैं कि वे इस ग्रन्थका जरा गहराईके साथ अध्ययन करें और देखें कि इसका जैनधर्मके साथ क्या सम्बन्ध है। हमारी समझमें तो इसका जैनधर्मसे बहुत ही कम मेल खाता है। राजनीति यदि धर्मनिरपेक्ष है, अर्थात् वह किसी विशेष धर्मका पक्ष नहीं करती, तो फिर इसका जिस प्रकार जैनधर्मसे कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है
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जैन साहित्य संशोधक
[खंड उसी प्रकार और धर्मोंसे भी नहीं रहना चाहिए था । परंतु हम देखते हैं कि इसका वर्णाचार और आश्रमाचारकी ज्यवस्था के लिए वैदिक साहित्यकी ओर बहुत अधिक झुकाव है । इस ग्रन्थके विद्यापद्ध, आन्वीक्षिकी और त्रया समुद्देशोंको अच्छी तरह पढ़नेसे पाठक हमारे अभिप्रायको अच्छी तरह समझ जावेगे। जनधर्मके मर्मज्ञ विद्वानोको चाहिए कि वे इस प्रश्नका विचारपूर्वक समाधान करें कि एक जैनाचार्यकी कृतिमें आन्वीक्षिकी और प्रयीको इतनी अधिक प्रधानता क्यों दी गई है। यशास्तिलकके नीचे लिखे पद्योंको भी इस प्रश्नका उत्तर सोचते समय सामने रख लेना चाहिए:
द्वौ हि धर्मो गृहस्थान लौकिकः पारलौकिकः। लोकाश्रयो भवेदाद्यः परस्यादागमाश्रयः॥ जातयोऽनादयः सर्वास्तलियापि तथाविधा। श्रुतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र न क्षतिः॥ स्वजात्यैव विशुद्धानां वणांनामिह रत्नवत् । तक्रियाविनियोगाय जैनागमाविधिः परम् ॥ यद्भयभ्रान्तिनिमुक्तिहेतुधीस्तत्र दुर्लभा।
संसारव्यवहारे तु स्वतःसिद्धे वृथागमः॥ तथा च-- सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः।
यत्र सम्यक्त्वहानिन यत्र न व्रतदूषणम् ॥ कहीं श्रीसोमदेवसूरि वर्णाश्रमव्यवस्था और तत्सम्बन्धी वैदिक साहित्यको लौकिक धर्म तो नहीं समझते हैं ! और इसी लिए तो यह नहीं कहते है कि यदि इस विषय में श्रुति (वेद ) और शास्त्रान्तर (स्मृतियाँ ) प्रमाण माने जायें तो हमारी क्या हानि है ? राजनीति भी तो लोकिक शास्त्र ही है। हमको आशा है कि विद्वज्जन इस प्रश्नको ऐसा ही न पड़ा रहने देंगे।
मुद्रण-परिचय। - अबसे कोई २५ वर्ष पहले बम्बईकी मेसर्स गोपाल नारायण कम्पनीने इस प्रन्यको एक संक्षिप्त व्याख्याके साथ प्रकाशित किया था और लगभग उसी समय विद्याविलासी बड़ोदानरेशन इसके मराठी और गुजराती अनुवाद प्रकाशित कराये थे । उक्त तीनों संस्करणोंको देखकर-जिन दिनों में स्वाय स्याद्वादवारोधि पं० गोपालदासजीकी अधानतामें जैनमित्रका सम्पादन करता था-मेरी इच्छा इसका हिन्दी अनुवाद करनेका हुई और तदनुसार मैंने इसके कई समुद्देशोका अनुवाद जैनमित्रमें प्रकाशित भी किया; परन्तु इसके आन्वीक्षिकी और त्रयां आदि समुदंशोका जनधर्मके साथ कोई सामजस्य न कर सकनेके कारण मैं अनुवादकार्यको अधूरा ही छोड़ कर इसको संस्कृत टीकाको खोज करने लगा।
- तबसे, इतने दिनोंके बाद, यह टीका प्राप्त हुई और अब यह माणकचन्द्रप्रन्यमालाके द्वारा प्रकाशित की जा रही है। खेद है कि इसके मध्यके २५-२६ पत्र गायब हैं और वे खोज करनेपर भी नहीं मिल । इसके सिवाय इसकी कोई दूसरी प्रति भी न मिल सकी और इस कारण इसका संशोधन जैसा चाहिए वैसा न कराया जा सका। दृष्टिदोष और अनवधानतासे भी बहतसी अशद्धियों रह गई हैं। फिर भी हमें आशा है कि इस टीकासे काफी सहायता मिलेगी और इस दृष्टि से इस अपूर्ण और अशुद्धरूपमें भी इसका प्रकाशित करना सार्थक होगा।
हस्तलिखित प्रतिका इतिहास । पहले जैनसमाजमें शास्त्रदान करनेकी प्रथा विशेषतासे प्रचलित थी। अनेक धनी मानी गृहस्थ ग्रन्थ लिखा लिखाकर जैनसाधुओं और विद्वानोंकों दान किया करते थे और इस पुण्यकृत्यसे अपने ज्ञानावरणीय कर्मका निवारण करते थे। बहुतोंने तो इस कार्यके लिए लेखनशालायें ही खोल रक्खी थी जिनमें निरन्तर प्रारीन अवाचीन ग्रन्थोंकी प्रतियाँ होती रहती थीं। यही कारण है जो उस समय मुद्रणकला न रहने पर भी प्रन्योंका यथेष्ट प्रचार रहता था और ज्ञानका प्रकाश मन्द नहीं होने पाता था। स्त्रियोंका इस ओर और भी अधिक लक्ष्य था। हमने ऐसे पचासों हस्तलिखित ग्रन्थ देखे हैं जो धर्मप्राणा स्त्रियोंके द्वारा ही दान किये गये हैं।
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अंक १]
सोमदेवमूरिकृत नीतिवाक्यामृत ।
.. इस शानदान प्रथाको उत्तेजित करनेके लिए उस समयके विद्वान् प्रायः प्रत्येक दान किये हुए प्रन्यके अन्तमें दाताकी प्रशस्ति लिख दिया करते थे जिसमें उसका और उसके कुतुम्बका गुणकर्तिन रहा करता था । हमारे प्राचीन पुस्तक-भंडारोंके प्रन्थों से इस तरहको हजारों प्रशस्तियों संग्रह की जा सकता है जिनसे इतिहास-सम्पादनके कार्यमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है।
मातिवाक्यामृतटीकाकी वह प्रति भी जिसके आधारसे यह प्रन्थ मुद्रित हुआ है इसी प्रकार एक धनी गृहस्थकी धर्मप्राण स्त्रोके द्वारा दान की गई थी। प्रन्यके अन्तमे जो प्रशस्ति दी हुई है, उससे मालूम होता है कि कार्तिक सुदी ५ विक्रमसंवत् १५४१ को, हिसार नगरके चन्द्रप्रभचैत्यालयमें, सुलतान बहलोल (लोदी)के राज्यकालमें, यह प्रति दान की गई थी।
नागपुर या नागौरके रहनेवाले खण्डेलवालवंशीय क्षेत्रपालगोत्रीय संघपति कामाको भार्या साध्वी कमलभान हिसार निवासी पं० मेहा या माहाको इसे भक्तिभावपूर्वक भेट किया था।
कल्हू नामक मंघपतिको भायांका नाम राणी था। उसके चार पुत्र थे-वा, धारा, कामा और सुरपति । इनमेसें तीसरे पुत्र संघपति कामाको भाया उक्त साध्वी कमली थी जिसने अन्य दान किया था। कमलश्रीसे भीषा औषच्छूक नामके दो पुत्र थे। इनमेंसे भीवाकी भायां भिउंसिरिके मुरुदास नामक पुत्र था जिसकी गुणधी भायांके गर्भसे रणमल्ल और जट्ट नामके दो पुत्र थे । दुसरे बच्छूकका भार्या घडासरिक रावणदास पुत्र था जिसकी स्त्रीका नाम सरस्वती था। पाठक देखें कि यह परिवार कितना बड़ा और कितमा दीर्घजीवी था। कमलीके सामने उसके प्रपैत्र तक मौजूद थे।
पण्डित मेहा या माहाका दूसरा नाम पं० मेधावी था। ये वही मेधावी है जिन्होंने धर्मसंग्रहश्रावकाचार मामका प्रन्य बनाया है और जो मुद्रित हो चुका है। पं० माहा अपनी गुरुपरम्पराके विषयमें कहते हैं कि नन्दिसंघ, बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छके भधारक पद्यमन्दिके शिष्य भ• शुभचन्द्र और उनके शिष्य भ. जिमचन्द्र मेरे गुरु थे। जिनचन्द्र के दो शिष्य और थे-एक रत्ननन्दि और दूसरे विमलकीति।
यह पुस्तकदाताकी प्रशस्ति पं. मेधावांकी ही लिखी हुई मालूम होती है। उन्होंने प्रैलोक्यप्राप्ति, मूलाचारकी धसुनन्दिवृत्ति आदि प्रन्थोंमें और भी कई बड़ी बड़ी प्रशस्तियों लिखी हैं । वसुनन्दि वृत्तिकी प्रशस्ति वि० सं० १५१६ की और त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति की १५१९ की लिखी हुई है *। धर्मसंप्रहश्रावकाचार उन्होंने कार्तिक वदी १३० १५४१ को समाप्त किया है । नीतिवाक्यामृतटीकाकी यह प्रशस्ति धर्मसंग्रहके समाप्त होनेके कोई आठ दिन बाद ही लिखी गई है।
धर्मसंग्रहमें पं० मेधावीने अपने पिताका नाम उद्धरण, माताका भीषुही और पुत्रका जिनदास लिखा है। वे अग्रवाल जातिके थे और अपने समयके एक प्रसिद्ध विद्वान् थे। उन्होंने दक्षिणके पुस्तकगच्छके आचार्य श्रुतमुनिसे अन्य कई विद्वानोंके साथ अष्टसहस्री ( विद्यानन्दस्वामीकृत ) पढी यी । जान पड़ता है कि उस समय हिसारमें जैन विद्वानोंका अच्छा समूह था । भट्टारकोंकी गद्दी भी शायद वहाँ पर थी।
यह टीकापुस्तक हिसारसे आमेरके पुस्तक भंडारमें कब और कैसे पहुँची, इसका कोई पता नहीं है । आमेरके भंडारमेसे सं० १९६४ में भट्टारक महेन्द्रकीर्ति द्वारा यह बाहर निकाली गई और उसके बाद जयपुर निवासी पं. इन्द्रका लालजी शास्त्रीके प्रयत्नसे हमको इसकी प्राप्ति हुई। इसके लिए हम भट्टारकजी और शास्त्रीजी दोनोंके कृतज्ञ हैं।
इस प्रतिमें १३३ पत्र हैं और प्रत्येक पृष्ठम प्रायः २० पंक्तियाँ हैं । प्रत्येक पत्रकी लम्बाई ११॥ इंच और चौड़ाई ५॥ इंचसे कुछ कम है । ५१ से ७५ तकके पृष्ठ मौजुद नहीं हैं।
निवेदकपौषशुक्ला तृतीया १९७९ वि०।।
नाथूराम प्रेमी। * देखो जैनहितैषी भाग १५, अंक ३-४ ।
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जैन साहित्य संशोथक . [नोटः- भारतीय वाङ्मय' का जर्मन भाषामें विस्तृत और परिपूर्ण इतिहास लिखनेवाले प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ.विण्टरनित्स, जो वर्तमानमें बगीय साहित्य सम्राट कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर संस्थापित शांतिनिकेतमकी विश्वभारती संस्थाको अपने ज्ञानका दान कर रहे हैं। उनके पास नीतिवाक्यामृत' की । प्रति अभिप्रायार्थ भेट की गई थी। इस भेटके स्वीकाररूपमें डॉ. महाशयमे अम्पमालाके मंत्री और इस प्रस्तावनाके लेखक श्रीयुत प्रेमीजीके पास जो एक पत्र भेजा है वह यहाँपर मुद्रित किया जाता है। इससे, सोमदेवसूरिके नीतिवाक्यामृतके बारेमें डॉ. महाशयका कैसा अभिप्राय है वह थोडेमें ज्ञात हो जाता है। इस प्रन्धके बारेमें, जैसा कि डॉ. महाशयने अपने इस पत्रमें सूचित किया है. विशेष उल्लेख, उन्होंने अपने भारतीय वाध्ययके इतिहासके तीसरे भाग, (जो हालहीमें प्रकाशित हुआ है) पू० ५०२७-५३० में किया है। -संपादक ।
(Santiniketana, Birbhum, Bengal)
Srinagar ( Kashmir ) 26-4-23, To Nathurama Premi, Mantri, Manikachanda-Jaina Granthamala,
Bombay.
Dear Sir,
I beg to acknowledge the receipt of one copy of Nitivakyamritam Satikam, published in the Jaina Granthamala. As I have pointed out in the third volume of my 'History of Indian Literatura,' the work is of the greatest importance both on account of its contents and especially as the date of its author is well known. Though quoting largely from the Kautilya ArthaSastra, Somadeva is yet quite on original writer and treats his subject from a different point of view. The late Jainacharya Vijaya Dharma Suri had lent me a copy of the old edition of the book which is very rare. I often urged upon him the necessity of a new edition of this important work. I am very glad that the work is now accessible in such a handy and excelent edition, and I am very much obliged to you for sending me a copy.
It is a pity that the introduction is not in English or in Sanskrit, as few Europeans read the Vernacular.
Yours truly, M. WINTERNITZ. (शान्तिनिकेतन, बीरभूम बंगाल)
श्रीनगर ( काश्मीर ) ता. २५-४-२१ नाथूराम प्रेमी, मंत्री.
माणिकचन्द्र जैन ग्रंथमाला मुंबई. प्रिय महाशय,
आपकी जैन ग्रंथमाळामें प्रकाशितक सटीक नीतिवाक्यामृतकी पुस्तक मुझे मिली। जैसा कि मैंने अपन भार तीय वाध्ययका इतिहास' नामक ग्रन्थके तीसरे भागमें लिखा है, यह ग्रन्थ, अन्दरके विषय और इसके कर्ताके समयकी दृष्टिसे बहुत महत्वका है। यद्यपि कौटिल्यके ग्रन्थका इसमें अनुसरण किया गया है तथापि सोमदेवसरि स्वतंत्र लेखक हो कर विषय प्रतिपादनकी शैली उनकी निराली ही है । जैनाचार्य विजयधर्मसूरिने इस ग्रन्थकी अत्यंत दुर्लभ्य ऐसी एक प्रति मुझे दी थी और इस महत्त्वके ग्रन्थकी दूसरी आवृत्ति प्रकट करनी चाहिए ऐसा मैंने आग्रह भी उनसे किया था। अब इस प्रन्यकी सुन्दर आकारमें उत्तम रीतीसे प्रकट की हुई इस आवृत्तिको देख कर मुझे आनंद होता है और थापने जो इसकी एक प्रति मुझे भेजी इस लिए मैं आपका बहुत ही उपकृत हूं।
इसकी प्रस्तावना इंग्रेजी या संस्कृतमें नहीं लिखी गई इस लिए मुझे खेद होता है, क्यों कि देशभाषा जानने वाला युरपियन क्वचित् ही होता है।
आपका, एम्. विंटरनित्स्
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अंक १
कीरामनो जनै शिलालेख
कीर ग्रामनो जैन शिलालेख. [पंजाब प्रांतना कांगडा जिल्लामां कीरनाम करीने एक स्थान छे अने त्यां शिव-वैद्यनाथनुं प्राचीन अने प्रख्यात धाम छे. ए वैद्यनाथना मंदिरमां कोई जैन प्रतिमानुं पाषाणनुं सिंहासन क्यांएथी आवी गएल छेजेना उपर नीचे आपेलो लेख कोतरेलो छ. ए लेख एपिप्राफिआ इंडिकाना, १ ला भागना, ११८ पान उपर डॉ० जी. बुल्हरे संक्षिप्त विवेचन साथे प्रकट करेलो छे. ए विवेचन अने लेख आ प्रमाणे छे.-- संपादक ]
नीचे आपेलो लेख कांगडानों कीरग्राममां आवेला शिव-वैद्यनाथना देवालयमांथी मळी आवेलो छे. ए लेख जैन नागरी अक्षरोमां बे लीटिओमा लखेलो छ. आ लीटिओ महावीरनी प्रतिमानी बेठकनी त्रण बाजुए चार मोटा अने बे नाना भागमां हेंचाएली छे. लेख लगभग सारी स्थितिमा छे. एग दोल्हण अने आल्हण नामना बे व्यापारिओए आ प्रतिप्ता बनाव्या विषे तथा देवभद्रसूरिए एनी प्रतिष्ठा कर्या विषे उल्लेख करेलो छे. वळी कारप्राममां आ बंने भाईओए महावीरनुं एक मंदिर बंधाव्यानी नोंध पण एमां करेली छे. वर्तमानमां, कारप्रापमां कोई पण जना जैन मंदिरनी हयाती जणाती नथी तेथी एम लागे छे के ए मंदिर नष्ट थई गयु छ अने आ बेसणी कोईए त्यांथी उपाडी लावी शिवना देवालयमां मूकी दीधी छे. ए देवालयना अधिकारिओनी अजाणताने लांधे आ लेख सही सलामत रहेवा पाम्यो होय एम लागे छे.
मति अने मंदिर बनावनारा गुजराती होवा जोईए ; पंजाबी नहीं. प्रतिष्ठा करनार सरि पण गुजरातना हता. कारण के दोल्हण अने आल्हण ब्रह्मक्षत्र गोत्र अगर ज्ञातिना हता के जे ज्ञाति गुजरातमां वधारे छे. १८८१ ना सेन्सस रीपोर्ट प्रमाणे पंजाबमां ते ज्ञाति जणाती नथी. सरी देवभद्रनो गुजरात साथे संबंध तेमना गुरु अभयदेवना लाचे छे. आ अभयदेवने 'रुद्र पल्लीय ' कहेवामां आवे छे ; अने ते जिनवल्लभ सूरिनी . शिष्यसंततिमांना हता.. आ जिनवल्लभ ते खरतर गच्छनी पट्टावलीमां करेला जे ४३ मां पट्टधर अने युगप्रधान पदधारी छे ते ज छे. तेओ एक नवो संप्रदाय जेने अहीं ' संतान' ना विशेषणथी उल्लेखेलो छे ते चलाव्या पछी वि. सं. ११६७ मां स्वर्गस्थ थया हता. तेमना पछी थएला आचार्य जिनदत्तना वखतमा खरतर गच्छनी रुद्रपल्लीय शाखानी स्थापना जिनशेखराचार्य वि. सं. १२०४ मां करी हती. तेथी आ लेखमां जणावेला देवभद्रसूरि श्वेतांबर मतना खरतर गच्छनी एक शाखाना हता. जनी परंपरा प्रमाणे खरतर गच्छनी स्थापना गुजरातना अणहिलवाड पाटणमां थई हती. लेखनी मिति · संवत एटले वि. सं. १२९६ फालाण वदि ५, रविवार ' ते डॉक्टर स्क्रेप (Dr. Sohram) नी गणना प्रमाणे ई. स. १२४० नी १५ जान्यूआरी बराबर थाय छे. जनरल सर कनिंगहाल जेणे आ लेख प्रथम शोधी काढयो हतो तेमणे पोताना आर्किओलॉजिकल रीपोर्टस् (पु. ५ पान १८३) मां प लेखनी जे नकल आपी छे, ते अधरी छे. कारण के तेमा क्षेत्रगोत्रों थी 'पुत्राभ्यां' अने 'प्रति
अहीं आपेली लेखनी नकल पंजाब आर्कि आलोजिकल व्हसे तरफथी मळेली एक सारी छाप उपरथी पाडेकी छे. २ जुओ-क्लॅट (klata) ई. ए., पु. १, पा. २४८ अने २५४.
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जैन साहित्य संशोधक
[खंड २ ष्ठितं ' थी 'संतानीय' सूधीनी बे लीटिओ मूकी दीधेली छे. आने लीधे तेम ज केटलाक खोटापाठोने लीधे तेमनी नकल उपरथी भाषांतर करवू केवळ अशक्य छे'.
मूळ ले ख १. ओ० संवत् १२९६ वर्षे फाल्गुण वदि ५ रवी कीरप्रामे ब्रह्मक्षत्र गोत्रोत्पन्न व्यव० मानू पुत्राभ्यां व्य० दोल्हण आल्हणाभ्यां स्वकारित श्रीमन्महावीर देव चैत्ये।।
२. श्रीमहावीर जिन सूल बिंबं आत्मनेयो [ ] कारितं । प्रतिष्ठितं च श्रीजिनवल्लभ सूरिसंतानीय रुद्रपल्लीय श्रीमदभयदेवसूरि शिष्यैः श्रीदेवभद्र सूरिभिः ॥
भाषांतर ॐ. (लौकिक) वर्ष १२९६ ना फाल्गुण वदि पंचमीने [ दिवसे–करिणाममा ब्रह्मक्षत्र ज्ञातिना व्यापारी मानूना बे पुत्रौ व्यापारी दोल्हण अने आल्हणे पोते बंधावेला श्रीमन्महावीर देवना मन्दिरमा श्री महावीर जिननी मुख्य प्रतिमा, पोताना कल्याणमाटे करावी. तेनी प्रतिष्ठा श्रीजिनवल्लभ सूरिना · संतानीय' रुद्रपल्लीय श्रीमत्सूरि अभयदेवना शिष्य श्रीसूरि देवभद्रे करी.
१. जनरल कनिंगहाम करके शिववेद्यनाथना देवालयना इतिहास साथे भा लेखनो कोई संबंध नथी.
पंक्ति १ली-ओंबांचव कीरनामे नार तथा प्रजोडेला छे ते भल छे ब्रह्म वाचवं मनी उपर एक भलथी करेल मात्र काढी नाखेल छे; कदाच 'मातृपत्राभ्यां खरोपाठ होय. कारण के त तपा न ओळखाय तेवा नथी.
पण ते बराबर नथी; 'मान' शब्द ज बराबर छे. कारण के तेनी पहेलो व्य व्यवहारी शब्द पडेलो छ जे माताना. 'पाठमेत निरर्थक अने असंबद्ध थई जाय छे-संपादक.1
..क्ति १ जी-श्रेयोथै नो ध जतो रह्यो छे; संतानीय नो ता स्पष्ट नथी.
वर्षेनु भाषांतर लौकिक वर्षे कई, कारण के विक्रम संवत् पछी वर्षेने बदले घणीवार लौकिक वर्षे वापर वामां आवे छे. पबिम तथा उत्तर पश्चिम हिंदुस्थानमा विक्रम संवत्ना वर्षोंने लौकिक वर्षों कहे छे. अने शक संवत्ने शास्त्रीय वर्षों कहे छे. कारण के ते ज्योतिष विगेरे विषयोमा आवे .. लेखमा जे फागुण लख्युं छे ते अर्ध प्राकृत अने अर्ध संस्कृत रूप छे.
मक बिंब शब्दने भाषांतर कर्या शिवाय जहुँ रहेवा दऊं छ. तेनो खासमर्थ शो छे तेनी खबर मथी. हं पार के बीजी नानी मोटी प्रतिमाओथी तेने खास मोळखावा माटे तेनु नाम भावु पाब्यु हशे. एनो अर्थ कदाव मुख्य प्रतिमा' थई शके. [एज अर्थ थाय छे..]
१. प्रतिष्ठितं च ए पातना नियम प्रमाणे शुद्ध नथी. पण जैन पुस्तकोमा ए पो ठेकाणे जोवामा भावे छे. खरी रोते प्रतिपापित व मगर प्रतिहाता एपो पाठ जोईए.
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महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण |
[ अपभ्रंश भाषा का एक महाकवि और महान् ग्रन्थ । ]
( लेखक - श्रीयुत पं. नाथूरामजी प्रेमी । )
भारत में अनेक शताब्दियों तक जो श्रार्य भाषायें प्रचलित रही हैं, वे सब प्राकृत कहलाती हैं । प्राकृत शब्द का अर्थ है स्वाभाविक - कृत्रिमता के दोष से रहित और संस्कृत का अर्थ है संस्कार की हुई मार्जित भाषा । वैदिक सूक्त जिस सरल और प्रचलित भाषा में लिखे गये थे, उस भाषा को प्राकृत ही कहना चाहिए । इस श्रादि प्राकृत भाषा से जिन सब श्रार्य भाषाओं का विकास हुआ है, उनकी गणना दूसरी श्रेणी की प्राकृत में होती है । यह द्वितीय श्रेणी की प्राकृत अशोक के शिलालेखों में मिलती है । बौद्धशास्त्रों की प्रधान भाषा पाली भी इसी दूसरी श्रेणी की प्राकृतों में से है । इस समय प्राकृत कहने से पाली की अपेक्षा उन्नत भाषा का बोध होता है ।
अशोक के समय की श्रार्य भाषा की दो प्रधान शाखायें थीं, एक पश्चिमी प्राकृत और दूसरी पूर्वीय प्राकृत । पश्चिमी प्राकृत को सौरसेनी या सूरसेन (मथुरा) की भाषा कहते थे और पूर्वीय को मागधी या मगध की भाषा । इन दोनों पूर्वीय और पश्चिमी भाषाओं के बीचों बीच एक और भाषा बोली जाती थी जो अर्ध मागधी के नाम से प्रसिद्ध थी । कहा जाता है कि भगवान् महावीर ने इसी भाषा के द्वारा अपने सिद्धांतों का प्रचार किया था। प्राचीन जैन ग्रन्थ इसी भाषा में लिखे गये थे । प्राचीन मराठी के साथ इस भाषा का बहुत ही निकट सम्बन्ध है । प्राचीन प्राकृत काव्य इसी प्राचीन मराठी में लिखे गये हैं ।
उक्त दूसरी श्रेणी की प्राकृत भाषाओं के बाद की भाषा अपभ्रंश कहलाती है । जो दूसरी श्रेणी की प्राकृत का पिछला और विशेष विकसित रूप है । यों अपभ्रंश का साधारण अर्थ दुषित या विकृत होता है; परन्तु भाषा के सम्बन्ध में प्रयुक्त होने पर इस का अर्थ उन्नत या विकसित होता है । वर्तमान प्रचलित आर्य भाषायें जिन भाषाओं से निकली हैं, उनकी गणना अपभ्रंश में होती है । इन अपभ्रंश भाषाओं में भी एक समय अनेकानेक ग्रन्थ लिखे गये थे जिनमें से बहुत से इस समय भी मिलते हैं। जान पड़ता है, इन भाषाओं का साहित्य बहुत प्रौढ़ हो गया था और सर्वसाधारण में बहुत ही श्रादर की दृष्टि से देखा जाता था । इस साहित्य में हम उस समय की बोलचाल की भाषाओं की अस्पष्ट छाया पा सकते हैं । विक्रम की सातवीं शताब्दि तक के अपभ्रंश साहित्य का पता लगा है । इसके बाद जान पड़ता है कि इस भाषा का प्रचार नहीं रहा । अपभ्रंश के पहले की प्राकृत भाषाओं का प्रचार दसवीं शताब्दि के बाद नहीं रहा ।
उक्त अपभ्रंश भाषाओं की गणना दूसरी श्रेणी की ही प्राकृत में की जाती है । उनके बाद धुनिक भाषाओं का काल श्राता है जिन्हें हम तीसरी श्रेणी की प्राकृत में गिनते हैं । इन भाषाओं का निदर्शन हम तेरहवीं शताब्दि के लगभग पाते हैं। अतएव मौटे हिसाब से कहा जा सकता है कि दशवीं शताब्दि से आधुनिक आर्य भाषाओं का प्रचलन आरम्भ हुआ है और अपभ्रंश से ही इन सब का विकास हुआ है । संक्षेप में प्राकृत भाषाओं का यही इतिहास है ।
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[खण्ड २ इस लेख में हम जिस महाकवि का परिचय देना चाहते हैं, उसकी रचना इन्हीं अपभ्रंश भाषाओं में की एक भाषा में हुई है जिसे हम दाक्षिण महाराष्ट्र की अपभ्रंश कह सकते हैं। दक्षिण की होने पर भी पाठक देखेंगे कि इसकी प्रकृति हमारी हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी भाषाओं से कितनी मिलती जुलती हुई है।
हमें पुष्पदन्त से भी पहले के अपभ्रंश साहित्य के कुछ ग्रन्थ मिले हैं जिन का परिचय हम आगे के किसी अंक में देना चाहते हैं।
महाकवि पुष्पदन्त कहां के रहनेवाले थे, इसका पता नहीं लगता। उनके ग्रन्थों में जो कुछ लिखा है उसके अनुसार हम उन्हें सब से पहले मेलाड़ि नगर में जो संभवतः मान्यखेट का ही दुसरा नाम है, पाते हैं। वहां वे पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए आ पहुंचते हैं और वहीं से उनके कवि-जीवन का प्रारम्भ होता है।
वे काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम केशव और माता का मुग्धादेवी था । एक जगह उन्होंने अपने पिता का नाम कन्हड़ लिखा है* जो केशव के ही पर्यायवाची शब्द कृष्ण का अपभ्रंश रूप है । 'खण्ड ' यह शायद उनका प्रचलित नाम था जो उनके ग्रन्थों में जगह २ व्यवहृत हुआ है । अभिमानमेरु, काव्यरत्नाकर, कव्वीपसल्ल (कात्यपिशाच) या काव्यराक्षस, कविकुलतिलक, सरखतीनिलय आदि उनके उपनाम थे ।
वे शरीर से कृश थे, कृष्णवर्ण थे, कुरूप थे परन्तु सदा प्रसन्नमुख रहते थे। उन्होंने आपको स्त्रीपुत्र हीन लिखा है; परन्तु संभव है यह उस समय की ही अवस्था का द्योतक हो जब वे मान्यखेटपुर में थे और अपने ( उपलब्ध) ग्रन्थों की रचना कर रहे थे। इसके पहले जहां के वे रहनेवाले थे वहां शायद वे गृहस्थ रहें हों और विवाह आदि भी हुआ हो । यद्यपि अपने ग्रन्थों में उन्होंने अपना बहुत कुछ परिचय दिया है; परन्तु उससे यह नहीं मालूम होता है कि मान्य. खेट में आने के पहले उनकी क्या अवस्था थी और न यही स्पष्ट होता है कि वास्तव में उन्होंने अपनी जन्मभूमि क्यों छोड़ी थी। केवल यही मालूम होता है कि दुष्टों ने उनको अपमानित किया था और उन्हीं से संत्रस्त होकर वे भटकते भटकते बड़े ही दुर्गम और लम्बे रास्ते को तय करके मान्यखेट तक आये थे । उनके हृदय पर कोई बड़ी ही गहरी ठेस लगी थी और इस से उन्हें सारी पृथ्वी दुर्जनों से ही भरी हुई दिखलाई देती थी। लोगों की इस दुर्जनता का और संसार की नीरसता का उन्होंने अपने ग्रन्थों की उत्थानिकाओं में बार बार और बहुत अधिक वर्णन किया है। अपने समय को भी उन्होंने खूब ही कोसा है, उसे कलिमलमलिन, निर्दय, निर्गुण, दुर्नीतिपूर्ण और विपरीत विशेषण दिये हैं और कहा है कि "जो जो दीसई सो सो दुजणु, णिष्फलु नीरसु णं सुक्कड वणु ।' अर्थात् जो जो दिखते हैं वे सब दुर्जन हैं, सूखे हुए बन के समान निष्फल और नीरस हैं।
ऐसा जान पड़ता है कि वे किसी राजा के द्वारा सताये हुए थे और उसी के कारण उन्हें अपनी जन्मभूमि छोड़नी पड़ी थी। इसी कारण उन्होंने कई जगह राजाओं पर गहरे कटाक्ष किये हैं। उनके भ्रकुटित नेत्रों और प्रभुवचनों को देखने सुनने की अपेक्षा मर जाना अच्छा बतलाया है। वे भरत मंत्री से कहते हैं कि-"वह लक्ष्मी किस काम को जिसने दुरते हुए चँवरों की हवा से सारे गुणों को उड़ा दिया है, अभिषेक के जल से सुजनता को धो डाला है, और जो विद्वानों से विरक्त रहती है। x x इस समय लोग नीरस और निर्विशेष हो गये हैं, वे गुणीजनों से द्वेष करते हैं, इसी लिए मुझे इस वन को शरण लेनी पड़ी है।"
* गंधव्वेकण्डणं दणेण आयई भवाइं किय थिर मणण।-यशोधरचरित्र ।
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अंक 1]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण जिस राजासे संत्रस्त होकर पुष्पदन्तकवि मान्यखेट में आये यह शायद वीरराव था। आदिपुराण के प्रभाचन्द्रकृत टिप्पण में इस शब्द पर 'शूद्रक' और 'कावीपति ' टिप्पण दिया है और हमारी समझ में 'कांची ' की जगह कावी लिपिकर्ता के दोष से लिख गया है। इस से मालूम होता है कि वीरराव कांची (काओवरम् ) का राजा होगा और शूद्रक उसका नामान्तर होगा। यह संभवतः पल्लववंशका था। श्रादिपुराणको उत्थानिका के 'णिय सिरि विसेस'
और 'पइमराणा' आदि दो पद्यों का अभिप्राय अच्छी तरह स्पष्ट नहीं होता है, फिर भी ऐसा भास होता है कि षष्पदन्त का उक्त वीरराव से पहले सम्बन्ध था और उस के सम्बन्ध में उस ने कुछ काव्य रचना भी की थी। शायद इसी कारण भरतमंत्री ने पुष्पदन्त से कहा है कि वीरराव का वर्णन करने से जो मिथ्यात्व भाव उत्पन्न हुश्रा है, उस के प्रायश्चित्तस्वरूप यदि तुम आदिनाथ के चरित की रचना करो तो तुम्हारा परलोक सुधर जाय * । जान पड़ता है कि वारराव कोई दुष्ट और जैनधर्म का द्वेषो राजा था। __पुष्पदन्त भ्रमण करते करते मान्यखेट के बाहर किसी उद्यान में पड़े हुए थे। वहां अम्मइया और इन्द्रराज नामक दो पुरुषों ने आकर उनसे कहा कि आप इस निर्जन स्थान में क्यों पड़े हुए हैं, पास ही यह बड़ा नगर है वहां चलिए । वहां शुभतुंगराजा के महामात्य भरत बड़े विद्याप्रेमी और कवियों के लिए कामधेनु हैं । भरत की लाकोत्तर प्रशंसा सुन कर पुष्पदन्त नगर में गये । वहां भरतमंत्री ने उनका बहुत ही सत्कार किया और उन्हें अपने पास रक्खा। कुछ दिनों के बाद भरत ने उन से काव्यरचना करने के लिए कहा। इस पर कवि ने कहा कि यह समय बहुत बुरा है। संसार दुर्जनों से भरा हुआ है । जहां तहां छिद्रान्वेषी ही दिखलाई देते हैं। प्रवरसेन के सेतुबन्ध जैसे उत्कृष्ट काव्य की भी जब लोग निन्दा करते हैं, तब मुझे इस कार्य में कीर्ति कैसे मिलेगी? इस पर भरत ने कहा कि दुर्जनों का तो यह खभाव ही है, उल्लू को सूर्य भी अच्छा नहीं लगता। उनकी आप को परवा न करनी चाहिए । इस के उत्तर में कवि ने अपनी लघुता प्रकट की और कहा कि मैं दर्शन, व्याकरण, काव्य, छन्दशास्त्र आदि के ज्ञान से कोरा हूं, ऐसी दशा में मुझ से महापुराण की रचना कैसे होगी, यह तो समुद्र को एक कुंडे में भरने जैसा अशक्य कार्य है, फिर भी आप के आग्रह से और जिन भक्ति वश मैं इस की रचना में प्रवृत्त होता हूं, मधुकर जैसा क्षुद्र प्राणी भी विशाल आकाश में भ्रमण कर सकता है।
उक्त सब बातें आदिपुराण की उत्थानिका से ली गई हैं। इस के बाद उत्तरपुराण का प्रारंभ होता है। उस समय कविराज का चित्त उद्विग्न हो उठा। रचना से उन का जी उचट गया। तब एक दिन सरस्वतो देवी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिया और कहा कि अरिहंत भगवान् को नमस्कार करो। यह सुनते ही कविराज जाग उठे। उन्हों ने चारों और देखा; परन्तु कहीं कोई भी दिखलाई न दिया । बड़ा आश्चर्य हुआ। इस के बाद भरतमंत्री उन से मिले । उन्हों ने कहा कि, क्या आप सचमुच हो पागल हो गये हैं ? आप का मुख उतरा हुश्रा है, चित्त ठिकाने नहीं है । ग्रन्थरचना क्यों नहीं करते ? क्या मुझसे आप का कोई अपराध बन पड़ा? क्या बात है। मैं हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता हूँ। मैं आपका चाहा हुआ सब कुछ देने के लिए तैयार हूँ। यह जोवन अस्थिर और असार है। जब आप को सरस्वती कामधेनु सिद्ध है, तब आप उसका नवरसरूप दूध क्यों नहीं दोहते? इस पर कविराज ने फिर वही समय
* पुरानी लिपि में 'व' और 'च' लगभग एक से लिखे जाते हैं और इस कारण पीछे के लेखकों ने इन दोनों के भेद को अच्छी तरह न समझने के कारण अकसर'च' को 'व' लिखा है।
*पई मण्णिउं वण्णिउं वीर राउ, उप्पण्णउं जो मिच्छत भाउ। पच्छितु तासु जइ करहि अज्ज, ता घडई तुझ परलोयकज्जु ॥
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[खण्ड २
की और दुर्जनों की शिकायत की और कहा कि इस कारण मुझ से एक पद भी नहीं लिखा जाता है। अन्त में उन्हों ने कहा कि फिर भी मैं तुम्हारी प्रार्थना को नहीं टाल सकता । तुम मेरे मित्र हो और शालिवाहन तथा श्रीहर्ष से भी बढ़कर विद्वानों का आदर करनेवाले हो । तुमने मुझे सदा प्रसन्न रक्खा है। परन्तु जो यह कहा कि मैं सब कुछ देने के लिए तैयार हूँ, सो मैं तुम से अकृत्रिम धर्मानुराग के सिवाय और कुछ भी नहीं चाहता हूँ। धन को मैं तिनके के समान गिनता हूँ। मेरा कवित्व केवल जिनचरणों की भक्ति से ही प्रस्फुटित होता हैजीविका की मुझे जरा भी परवा नहीं है । ये सब बातें कविने उत्तरपुराणकी उत्थानिका में प्रकट की है।
पुष्पदन्त दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के अनुयायी थे; परन्तु वे अपने किसी गुरु का कहीं कोई उल्लेख नहीं करते हैं। इसका कारण यही हो सकता है कि वे गृहत्यागी साधु नहीं थे। यह भी संभव है कि पहले वे वेदानुयायी रहे हों और पीछे किसी कारण से जैनधर्म पर उनकी श्रद्धा हो गई हो, अथवा भरतमंत्री के संसर्गसे ही वे जैनधर्म के उपासक बन गये हों, किसी जैन साधु या मुनिसे उनका परिचय न हुआ हो। उन्होंने अपने को जगह जगह जिनपदभक्त, धर्मासक्त, व्रतसंयुक्त (व्रतीश्रावक ) और विगलितशंक (शंका हित सम्यग्दृष्टी) आदि विशेषण दिये हैं, इस लिए उनके दृढ़ जैन होने में कोई सन्देह नहीं हो सकता। अपने ग्रन्थों में जैनधर्म के तत्त्वों का भी उन्होंने बड़ी योग्यतासे प्रतिपादन किया है।
पुष्पदन्त का स्वभाव एक विचित्र ही प्रकार का मालूम होता है। उनका 'अभिमानमेरु' नाम उनके स्वभाव को और भी विशेषता से स्पष्ट करता है। 'मान' के सिवाय वे और किसी चीज के भूखे नहीं जान पड़ते । एक बड़े भारी राजा के वैभवशाली मन्त्री का श्राश्रय पाकर भी वे धन वैभव से अलिप्त ही रहे जान पड़ते हैं। महापुराण के अन्त में उन्होंने अपने लिये जो विशेषण दिये है, वे ध्यान देने योग्य है-शून्यभवन और देवकुलिकाओं में रहनेवाले. बिना घर-द्वार के, स्त्री-पुत्र रहित, नदी वापी और तालावों में स्नान करनेवाले, फटे कपड़े
और वल्कल पहिननेवाले, धूलिधूसरित, जमीन पर सोनेवाले तथा अपने हाथों को हो ओढ़ना बनानेवाले, और समाधि मरण की आकांक्षा रखनेवाले । ये विशेषण इस अकिश्चन महाकवि के चित्र को आँखों के सामने खड़ा कर देते हैं।
सचमच ही पुष्पदन्त अद्धत कवि थे। वे अपने हृदय के आवेगों को रोक नहीं सकते हैं। वे जिसे हृदय से चाहते हैं उसकी प्रशंसा के पुल बांध देते हैं और जिससे घृणा करते हैं उस की निन्दा करने में भी कुछ उठा नहीं रखते। अपनी प्रशंसा करने में भी उनकी कविता क. प्रवाह स्वछन्द गति से प्रवाहित हुश्रा है। इस प्रशंसा के औचित्य अनौचित्य का विचार भी उनका स्वेच्छाचारी कविहृदय नहीं कर सका है। जो खोलकर उन्होंने अपनी प्रशंसा की है। संभव है, इस समय की दृष्टि से वह ठीक मालूम न हो; परन्तु उन की सरस और सुन्दर रचना को देखते हुए तो उस में कोई अत्युक्ति नहीं जान पड़ती। ... पुष्पदन्तने अपना आदिपुराण सिद्धार्थसंवत्सर में लिखना शुरू किया था जिस समय तुहिगु नाम के राजा राज्य करते थे और उन्होंने किसी चोल राजा का मस्तक काटा था। इस 'तुडिगु' शब्द पर इस ग्रन्थ की प्रायः सभी प्रतियों में 'कृष्णराजः' टिप्पणी दी हुई है। इसी ग्रन्थ में उक्त राजा का एक जगह 'शुभतुंगदेव' और दूसरी जगह 'भैरवनरेन्द्र ' नाम से उल्लेख किया गया है और दोनों जगह उक्त नामों पर टिप्पणी दे कर कृष्णराजः' लिखा है। इसी तरह यशोधर चरित्र में 'वल्लभनरेन्द्र ' नाम से उल्लेख किया है और वहां भी टिप्पणी में 'कृष्णराजः' लिखा है। अर्थात् तुडिगु, शुभतुंगदेव, भैरवनरेन्द्र, वल्लभनरेन्द्र और कृष्णराज ये पाँचों एक ही
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अंक १]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण
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राजा के नाम हैं और इन्हीं के समय में पुष्पदम्तने अपने ग्रन्थों की रचना की है। एक जगह तुडिंग को 'भुवनैकराम' विशेषण दिया है, जो कि उसकी एक विरुद थी। इसके सिवाय उसे 'राजाधिराज' लिखा है । आदिपुराण के २७ वें परिच्छेद के प्रारंभ में भरतमन्त्री की प्रशंसा करते हुए उसे 'भारत' ( महाभारत ) की उपमा दी है: - " गुरु धर्मोद्भवपावनमभिनन्दितकृष्णार्जुनगुणोपेतं । भीमपराक्रमसारं भारतमिव भरत तव चरितम् ॥” इसका अभिनन्दित कृष्णार्जुन गुणोपेतम् ' विशेषण निश्चय से कृष्णराज को लक्ष्य करके ही लिखा गया है ।
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उत्तरपुराण के अन्त में ग्रन्थ के समाप्त होने का समय संवत् ६०६, श्रासाद सुदी १०, क्रोधनसंवत्सर लिखा है । क्रोधनसंवत्सर से ६ वर्ष पहले सिद्धार्थसंवत्सर श्राता है, अतः आदिपुराण की रचना का समय संवत् ६०० होना चाहिए। दक्षिण में शक संवत् का ही प्रचार अधिक रहा है, श्रतएव उक्त ६०० और ६०६ को शक संवत् ही मानना चाहिए।
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उत्तरपुराण की प्रशस्ति से मालूम होता है कि उक्त ग्रन्थ मान्यखेट नगर में बनाया गया था. जो इस समय मालखेड नाम से प्रसिद्ध है और निजाम के राज्य में है । उत्तरपुराण के ५० वें परिच्छेद के प्रारंभ में लिखा है :
दीनानाथधनं सदाबहुजनं प्रोत्फुल्लवल्लीवनम्, मान्याखेटपुरं पुरंदरपुरीलीलाहरं सुन्दरम् । धारानाथनरेन्द्र कोपशिखिना दग्धं विदग्धप्रियम्,
दानीं वसतिं करिष्यति पुनः श्री पुष्पदन्तः कविः ॥
इससे मालूम होता है, शक संवत् ६०० और ६०६ के बीच में किसी समय धारानगरी के किसी राजा ने इस बड़े भारी वैमवशाली नगर को बरबाद किया था ।
पुष्पदन्तने अपना महापुराण पूर्वोक्त शुभतुंग या कृष्णराज के महामात्य भरत के श्राग्रह से और यशोधर चरित भरतमंत्री के पुत्र रण या गणराज के लिए कर्णाभरणस्वरूप बनाया है । गण भी अपने पिता के सदृश वल्लभनंरेन्द्र या कृष्णराज का महामात्य हो गया था । भरत और गरण की पुष्पदन्तने बहुत ही प्रशंसा की है और उन के लोकोत्तर गुणों का वर्णन किया है। महापुराण के सब मिलाकर १०२ परिच्छेद हैं, जिन में से कोई ४० परिच्छेदों के प्रारंभ में पुष्पदन्त ने भरतमंत्री की प्रशंसा के सूचक सुन्दर संस्कृत पद्य दिये हैं जिन्हें हमने इस लेख के अन्त में उद्धृत कर दिया है। उन्हें पढ़ने से पाठकों को भरत की महिमा का बहुत कुछ परिचय हो जायगा । इसी तरह यशोधर चरित के चार परिच्छेदों में गणराज की प्रशंसा के जो पद्य हैं, वे भी उध्दृत कर दिये गये हैं ।
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उक्त प्रशस्ति-पद्यों के सिवाय पुष्पदन्तने आदि और उत्तरपुराण की उत्थानिकाओं में भरत . मंत्री को निःशेष कलाविज्ञानकुशल, प्राकृत कवि काव्यरसावलुब्ध, अमत्सर, सत्यप्रतिज्ञ, योद्धा परस्त्रीपराङ्मुख, त्यागभोगभावोद्गमशक्तियुक्त, कविकल्पवृक्ष आदि अनेक विशेषण दिये हैं ।
यशोधरचारत में भरत के पुत्र नन्न का गोत्र कौण्डिण्य बतलाया है । श्रतः संभवतः ये ब्राह्मण ही होंगे; परन्तु जैनधर्म के प्रगाढ़ भक्त थे । भरत के पिता का नाम ऐयण या अण्णय्या और माता का श्रीदेवी था । उन के सात पुत्र थे- १ देवल, २ भोगल, ३ णण्ण, ४ सोहण, ५ गुणवर्म, ६ दंगइया, और ७ संतइया । इन में तीसरा पुत्र गण्ण था, और भरत के बाद, इसी ने महामात्य या प्रधानमंत्री के पद को सुशोभित किया था । श्रादिपुराण के ३४ वॅ परिच्छेद के प्रारंभ में नीच लिखा हुआ एक संस्कृत पद्य दिया है:
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[खण्ड २ तीवापहिवसेषु बन्धुरहितेनैकेन तेजस्विना
सन्तानक्रमतो गतापि हि रमाऽऽकृष्टा प्रभोः सेवया । यस्याचारपदं वदन्ति कवयः सौजन्यसत्यास्पदं
सोऽयं श्रीभरतो जयत्यनुपमः काले कलौ साम्प्रतम् ॥ अर्थात् बड़ी ही विपत्ति के दिनों में जिस अकेले और बन्धुरहित तेजस्वी ने सन्तानक्रम से चली गई हुई भी लक्ष्मी को अपने प्रभु की सेवा से फिर आकृष्ट कर ली और कविगण जिस के चरित्र को सौजन्य और सत्य का स्थान बतलाते हैं, वह भरत इस कलिकाल में अपनी जोड़ नहीं रखता।
इससे जान पड़ता है कि भरत के पूर्वजों के हाथ से उक्त मंत्रीपद चला गया था और उसे भरत ने हो अपनी योग्यता से फिर से प्राप्त किया था। अपनी पूर्वावस्था में उन्होंने बड़ी विपत्ति भोगी थी और उस समय उन का कोई बन्धु या सहायक नहीं था।
यशोधरचरित की रचना महापुराण के कितने समय बाद हुई, इस के जानने का कोई साधन नहीं है। यशोधरचरित में समय सम्बन्धी कोई उल्लेख नहीं है, परन्तु यह निश्चय है कि उस समय राजसिंहासन को वल्लभनरन्द्र या कृष्णराज हो सुशोभित करते थे । हाँ, मंत्री का पद भरत के पुत्र गण को मिल गया था। रणरण के उस समय कई पुत्र भी मौजूद थे जिन को यशोधरचरित्र के दूसरे परिच्छेद के प्रारंभ में श्राशीर्वाद दिया गया है। मालूम नहीं उस समय भरत जीते थे या नहीं। महापुराण जिस समय बनाया गया है उस समय पुष्पदन्त-भरत के ही घर रहते थे-" देवीसुत्र सुदाणिहि तेण हउं णिलए तुहारए अच्छमि ।” ६७ वे परिच्छेद के प्रारंभ में कहा है:
इह पठितमुदारं वाचकैर्गीयमानं इह लिखितमजनं लेखकैश्चारुकाव्यम् ।
गतवति कविमित्रे मित्रतां पुष्पदन्ते भरत तव गृहेऽस्मिन्भाति विद्याविनोदः॥ इस से भी प्राभास मिलता है कि कविराज भरत के ही गृह में रहते थे और उन का काव्य वहीं पढ़ा, गाया और लिखा जाता था।
इस के बाद यशोधरचरित जब लिखा गया है, तब वे णण्ण के ही घर रहते थे-- " णण्णहु मंदिरणिवसंतु संतु, हिमाणमेरु कविपुष्फयंतु ।” परन्तु इसी ग्रन्थ के अन्त में लिखा है कि गन्धर्व (नगर? ) में कन्हड़ (केशव) के पुत्र ने पूर्वभवों का वर्णन स्थिर मन होकर किया-"गंधळ कण्हडणंदणेण" इत्यादि । तब क्या यह गन्धर्व नगर कोई दूसरा स्थान है ? संभव है, यह मान्यखेटका ही दूसरा नाम हो अथवा कोई दूसरा स्थान हो जहाँ कुछ समय टिककर कविने ग्रन्थ का उक्त अंश लिखा हो । यह भी संभव है कि णण्ण के महल का ही नाम गन्धर्व या गन्धर्वभवन हो।
यशोधरचरित जिस समय समाप्त हुआ है उस समय कोई बड़ा भारी दुर्भिक्ष पड़ा था जिस का वर्णन कविने इन शब्दों में किया है-'जगह जगह मनुष्यों की खोपड़ियां और ठठरियां पड़ी थीं, रंक ही रंक दिखलाई पड़ते थे। बड़ा भारी दुष्काल था। ऐसे समय में भी णगणने मुझे रहने को अच्छा स्थान, खाने को सरस अाहार, पहिमने को स्वच्छ वस्त्र देकर उपकृत किया ।" जान पड़ता है यह घटना उस समय की होगी जब धारानरेशने मान्यखेट को लूट कर बरबाद कर दिया था। ऐसी सैनिक लूटों के बाद अक्सर दुर्भिक्ष पड़ा करते हैं।
महापुराण में कविने नीचे लिखे ग्रन्थकारों और ग्रन्थों का उल्लेख किया है। कवि के समय निरूपण में इन नामों से बहुत सहायता मिल सकती है
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अंक १]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण १ अकलंक,२ कपिल, ३ कण र या कणाद, ४ द्विज (ब्राह्मण), ५ सुगत (बौद्ध), ६ पुरन्दर (चार्वाक), ७ दन्तिल, ८ विशाख, १ लुद्धाचार्य, १० भरत ( नाट्य शास्त्र कर्ता ), ११ पतंजलि ( व्याकरण भाष्यकार ), १२ इतिहासपुराण, १३ व्यास, १४ कालिदास, १५ चतुर्मुख स्वयंभू. १६ श्रीहर्ष, १७ द्रोण, १८ कवि ईशान वाण, १६ धवल जय धवल सिद्धान्त, २० रुद्रट, २१ न्यासकार, और २२ जसचिन्ह (प्राकृत लक्षण कर्ता), २३ जिनसेन, २४ वीरसेन।
___ यशोधर चरित के अन्त में केवल एक ही ग्रन्थकार कवि 'वच्छराय' (वत्सराज) का उल्लेख किया गया है जिस के कथासूत्र के आधार पर उक्त चरित की रचना की गई है"महु दोसु ण दिजर पुवे कइइ कस्वच्छराय तं सुत्तु लइइ ।" यह तो कहने की आवश्यकता नहीं कि ये वच्छराय कोई जैनकवि ही थे । क्योंकि यशोधर की कथा जैनसाहित्य की ही चीज है।
उत्तरपुराण के अन्त में महावीर भगवान् के निर्वाण के बाद की गुरुपरम्परा दी गई है। उसमें लोहाचार्य तक की परम्परा त्रिलोकप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, गुणभद्रकृत उत्तरपुराण, इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार के ही समान है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में जहां जसबाहु नाम है, वहां इसमें भद्रबाहु है। एक बडा भारी अन्तर यह है कि इसमें गोवर्धन के बाद भद्रबाहु का नाम ही नहीं है, साथ उसके बदले कोई दूसरा नाम भी नहीं दिया है । इतिहासकों के लिए यह बात खास ध्यान देने योग्य है। सब के बाद इसमें जिनसेन और वीरसेन का नाम दिया हुआ है, जो आचारांग के एकदेश के ज्ञाता थे। जान पड़ता है ये जिनसेन संस्कृत श्रादिपुराण के कर्ता से भिन्न हैं।
आदिपुराण (पुष्पदन्तकृत) के पांचवे परिच्छेद में नीचे लिखे देशों के नाम दिये हैं जिन्हें भगवान् ऋषभदेव ने बसाया था
. पल्लव, सैन्धव (सिन्ध), कोकण, कौशल, टक्क, आभीर, कीर, खस, केरल, अंग, कलिंग, बंग, जालंधर, वत्स, यवन, कुरु, गुर्जर, बर्बर, द्रविड, गौड, कर्णाट, वगडिव (वैराट ?), पारस, पारियात्र, पुनाट, सूर, सोरठ, विदेह, लाड, कोंग, वेगि, मालव, पांचाल, मगध, भट्ट, भोट (भूटान), नेपाल, श्रोण्द, पौण्ढू, हरि, कुरु, भंगाल।
पुष्पदन्त के बनाये हुए दो ग्रन्थ हमें प्राप्त हुए हैं, एक तिसहिमहापुरिसगुणालंकार जिस । दसरा नाम महापुराण है और जिसके आदिपुराण और उत्तरपुराण ये दो भाग हैं। इसकी श्लोकसंख्या १३ हजार के लगभग है और इसमें सब मिलाकर १०२ परिच्छेद हैं । आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर श्रादिनाथ का और उत्तरपुराण में शेष २३ तीर्थकरों का और अन्य शलाकापुरुषों का चरित्र है । उत्तरपुराण में पद्मपुराण और हरिवंशपुराण भी शामिल हैं और ये पृथक् रूप में भी अनेक पुस्तकभण्डारों में मिलते हैं। पुष्पदन्त का दुसरा ग्रन्थ यशोधर चरित है जिस के चार परिच्छेद हैं और छोटा है। इसमें यशोधर नामक राजा का चरित्र वर्णित है जो कोई पुराण पूरुष था।
उक्त दो ग्रन्थों के सिवाय नागकुमार चरित नाम का एक ग्रन्थ है जो कारंजा (बरार) के पुस्तकभण्डार में है और जिस के प्राप्त करने के लिए हम प्रयत्न कर रहे है।
१ यह एक जैन कवि है। इस के बनाये हुए दो ग्रन्थ हमें प्राप्त हुए हैं- पउमचरिय ' या रामायण जिसके पिछले कुछ सर्ग उस के पुत्र त्रिभुवन स्वयंभदेवने पूर्ण किए हैं और दूपरा हरिवंशपराण जिस का उद्धार विक्रम की १६ वीं शताब्दि के एक दूसरे विद्वान्ने किया है । शायद इसका आधिकांश नष्ट हो गया था। ये दोनों प्रन्थ अपभ्रंश भाषा में ही हैं। इनका विस्तृत परिचय शीघ्र ही दिया जायगा ।
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[ खण्ड ३ हमे सब से पहले बंबई के सुप्रसिद्ध सठे सुखानन्दजी की कृपा से पुष्पदन्त का आदिपुराण देखने को मिला और उसी को देखकर हमें इस कवि का परिचय लिखने का उत्साह हुश्रा । सेठजी इस ग्रन्थ को फतेहपुर (जयपुर) के सरखतीभण्डार से लाये थे । उक्त सरखतीभण्डार का यह ८६ वे नम्बर का ग्रन्थ है और बहुत ही शुद्ध है। उसमें कहीं कहीं टिप्पणी भी दी है, वि० संवत्१५२८ का लिखा हुआ है उसमे प्रति करानेवाले की एक विस्तृत प्रशस्ति दी हुई है जो उपयोगी समझ कर इस लेख के परिशिष्ट में दे दी गई है।
इस ग्रन्थ की दो प्रतियां हमें पूने के भाण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टिटयूट में मिलीं जिनमें से एक वि० सं० १९२५ की लिखी हुई है और दूसरी वि० सं० १८८३ की लिखी हुई है । इस ग्रन्थ का एक टिप्पण भी हमें उक्त संस्था में मिला जो प्रभाचन्द्र कृत है और जिसकी
या १६५० हे*। इसमें प्रति लिखने का और टिप्पणकार का समय अादि नहीं दिया है। इसके बाद उक्त इन्स्टि० में हमें उत्तरपुराण की भी एक शुद्धप्रति मिल गई जो बहुत ही शुद्ध है और सं० १६३० की लिखी हुई है। इस पर यत्र तत्र टिप्पणियां भी दी हुई हैं ।
यशोधर चरित की एक प्रति हमें बंबई के तेरहपन्थी मन्दिर के पुस्तकभण्डार से प्राप्त हुई जो बहुत ही पुरानी है अर्थात् १३६० की लिखी हुई है और प्रायः शुद्ध है, और दुसरी भाण्डारकर इन्स्टि० से, जो वि० संवत् १६१५ की लिखी हुई है।।
इस इन्स्टिटयूट में हरिवंशपुराण की भी एक बहुत ही शुद्ध, टिप्पणयुक्त, और प्राचीन प्रति है, मिलान करने से मालूम हुआ कि यह उत्तरपुराण का ही एक अंश है।
पुष्पदन्त के ग्रन्थ पूर्वकाल में बहुत प्रसिद्ध रहे हैं और इस कारण उनकी प्रतियां अनेक भण्डारी में मिलती हैं। उन पर टिप्पणपंजिकाये और टिप्पणग्रन्थ भी लिखे गये है करने से अब भी प्राप्त हो सकते हैं । जयपुर के पाटोदी के मन्दिर में उत्तरपुराण का एक टिप्पण ग्रन्थ है जिसके कर्ता श्रीचन्द्र (१) मुनि मालूम होते हैं और जो विक्रम संवत् १०८०में भोजदेव के राज्य में बनाया गया है । जयपुर के बाबा दुलीचन्दजी के भण्डार में पुष्पदन्त के प्रायः सभी ग्रन्थों की पंजिकायें हैं; श्रागरे के मोतीकटरे के मन्दिर में उत्तरपुराण की पंजिका है । प्रयत्न करने पर भी हम इन्हें प्राप्त नहीं कर सके।
इस समय हम पुष्पदन्त के नागकुमार चरित और उनके ग्रन्थों को पंजिकाओं को प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं । उनके मिल जाने पर आगामी अंक में पुष्पदन्त का समय निर्णय किया जायगा और उनके ग्रन्थों में जिन जिन व्यक्तियों का उल्लेख हुअा है उन सब के समय पर विचार करके निश्चित किया जायगा कि वास्तव में पुष्पदन्त के ग्रन्थ कब बने हैं।
आगामी अंक में पुष्पदन्त को भाषा और उनके कवित्व को भो आलोचना करने का विचार है।
परिशिष्ट में पुष्पदन्त के ग्रन्थों के वे सब अंश दे दिये गये हैं जो महत्वपूर्ण हैं और जिनके आधार से यह लेख लिखा गया है। अधिक प्रयोजनीय अंशों का अनुवाद भी टिप्पणी में दे दिया है।
इस लेख के तैयार करने में श्रीमान् मुनिमहोदय जिनावजयजो से बहुत अधिक सहायता मिली है। इसको बहुत कुछ सामग्री भी उन्हीं की कृपा से प्राप्त हुई है, अतएव मैं उनका बहुत ही कृतज्ञ हूं।
* नं. ११३९ आफ १८९१-९५ | ४ नं. १०५० आफ १८८७-९१ ।।
* नं. ५६३ आफ १८७५-७६ x नं ११०६ आफ १८८४-८७ ।। नं. ११६३ आफ १८९१-९५। ११३५ आफ १८८४-८७।०देखो जैनमित्र, गुरुवार, आश्विन सुदी ५ वीर सं. २४४७ में श्रीयुत पं. पन्नालालजी वाकलीवाल का "सं. वि. १०८० के प्रभाचन्द्र" शीर्षक लेख ।
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अक ]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण
परिशिष्ट नं. १ (आदिपुराण के प्रारंभ का कुछ अंश ।)
ओं नमो वीतरागाय । सिद्धिवडूमणरंजणु परमनिरंजणु भुश्रणकमलसरणेसरु । पणवेवि विग्धधिणासणु निरुवमसासणु रिसहगाहपरमेसरु॥ ध्रुधकम् ॥ तं कहमि पुराणु पसिद्धणामु, सिद्धत्यवरिसे भुषणाहिरामु । उवद्धज्जूड भूभंगभीसु, तोडेप्पिणु चोडहो तणउं सीसु ॥ १।। भुवणेकराम रायाहिराउ, जहिं अच्छइ तुडिगु महाणुभाउ । तं (बं?) दीण दिण्ण घणकणयपयरु, महिपरिभमंत मेवाडिणयरु ॥२॥ अवहेरिय खलयणु गुणमहंतु, दियदेहिं पराइउ पुष्फयंतु । दुग्गमदीहरपंथेगरीd, णव इंदु जेम देहेण खीणु ॥ ३ ॥ तरुकुसुमरेणुरंजियसमीर, मायंदगुंछ गुंदलियकीर । गंदणवणे किर वोसमइ जाम, तहिं विणि पुरिस संपत्त ताम ॥४॥ पणवेप्पिणु तेहिं पवुत्त एव, भो खण्डै गलिय पावावलव । परिभमिरभमररघगुमुगुमंत, किं किर णिवसहि णिज्जणवणंत ॥ ५ ॥ करिसरबहिरिय दिश्चक्केवाले, पइसरहिण किं पुरवरविसाले । तं सुणेवि भणई अहिमाणमेरु, परि खजउ गिरकंदरकसेरु ॥६॥ रणउ दुजणभउंहा वंकियांई, दसिंतु कलुसभाकियाई ।।
घत्ता । वरुणरवरु धवलच्छिह, होउ मकुच्छिह, मरउ सोणिमुहणिग्गमे । खलकुच्छियपहुधयणई, भिउडियणयण, मणिहालउ सूरुग्गमे ॥७॥
चमराणिलउडावियगुणाएं, अहिसेयधोयसुयणत्तणाएं । भावार्थ-इस प्रसिद्ध पुराणको मैं सिद्धार्थ संवस्तर में कहता हूं जब राजाधिराज भुवनैकराम तुडिगुने चोड राजा का सुन्दर जटायुक्त और भ्रकुट भंगिसे भीषण मस्तक काटा ॥ १ ॥ उन्हों ने दीन दुखियों को प्रचुर धन दिया। इसी समय पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए और खलजनों द्वारा अपमानित हुए पुष्पदन्त कवि मेवाडि या मेलाटी नगरी में आये । दुर्गम और लम्बा रास्ता तय करते करते उनका शरीर नवीन चन्द्रमा के समान क्षीण हो गया था। २-३॥ नन्दन वन नामक उद्यान में विश्राम ले रहे थे जहां का वायु पुष्पों के पराग से महक रहा था और आम्रवृक्षों पर शुकों के झुण्ड क्रीडा कर रहे थे। इतने में ही वहां दो पुरुष पहुंचे ॥ ४ ॥ उन्होंने प्रणाम करके कहा कि हे निष्पाप खंडकवि, आप इस निर्जन वन में जो भ्रमरों के गुंजार से गूंज रहा है क्यों ठहरे हैं ? हाथियों के शब्दों से दिशाओं को बधिर करनेवाले इस विशाल नगर में क्यों नहीं चलते? यह सुन कर आभिमानमेरु पुष्पदन्तने कहा कि गिरिकन्दराओं के जंगली फल खा लेना अच्छा, परन्तु दुर्जनों की कलुषित टेढी भोंहें देखना अच्छा नहीं ॥५-६ ॥ उज्ज्वल नेत्रोंवाली माता की कुंख से जन्म लेते ही मर जाना अच्छा परन्तु प्रभु के दुष्ट वचन और भ्रकुटित नयन सवेरे सवेरे देखना अच्छा नहीं ॥ ७ ॥
वह लक्ष्मी किस मतलब की जिसने दुरते हुए चवरों की हवा से सारे गुणों को उड़ा दिया हो, आभिषेक के जल
सिद्धार्थ संवत्सरे । २ विरुदः। ३ कृष्णराजः। ४ दुर्गमदीर्घतराकाशमार्गेणागतः । ५ मन्दतेजः। ६ मिलित -७ पुष्पदन्तः । ८ हस्तिशब्दात् । ९ दिक्चवक्रवलये।
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[खण्ड २ अविवेयएं दप्पुत्तालियाएं, मोहंधयाएं मारणसीलयाएं ॥८॥ सत्तंगरजभरभारियाएं, पिउपुत्तरमणरसयारियाएं । विससहजम्मएं जडरत्तियाएं, किं लच्छिए विउसविरत्तियाएं ॥६॥ संपइ जणु णीरसु णिव्विसेसु, गुणवंतउ जहिं सुरगुरुवि देसु । तहिं अम्हहं लइ काणणु जे सरणु, अहिमाणे सहुं वरि होउ मरणु ॥१०॥ अम्मइय इंदापहिं तेहिं, पायरिणय तं पहसिय मुहहिं । गुरुविणयपणयपणवियसिरहिं, पडिवयणु दिण्णु णायरणरोहिं ॥ ११ ॥
घत्ता । जणमणतिमिरोसारण, मयतरुवारण, णियकुलगयणदिवायर । भो भो केसवतणुरुह, णवसररुहमुह, कव्वरयणरयणायर ॥ १२॥ बंभंडमंडवारूढकित्ति, प्रणवरय रहय जिणणाहभत्ति । सुहतुंगदेवकमकमलभसलु, णीसेसकलाविएणाणकुसलु ॥ १३ ॥ पाययकइकत्व रसावलुध्दु, संपीय सरासइसुराहिदुधु । कमलच्छु अमच्छरु सञ्चसंधु, रणभरधुरधरणुग्घिटुखंधु ॥१४॥ सविलासविलासिणिहियय येणु, सुपसिद्ध महाकइकामधेणु । काणीणदीणपरिपूरियासु, जसपसरपसाहियदसदिसासु ॥१५॥ पररमणिपरम्मुह सुद्धसीलु, उण्णयमा सुयणुद्धरणलीलु। गुरुयणपयपणवियउत्तमंगु, सिरिदेविअंधगम्भुब्भवंगु ॥ १६ ॥ अण्णइयतण तणुरुहु पसत्थु, हत्थिवदाणोल्लियदीहहत्थु ।
महमत्तवं सधयवडु गहीरु, लक्खणलक्खकिय वरसरीरु ॥१७॥ से सुजनता को धो डाला हो, अविवेक से दर्प को बढ़ाया हो, जो मोहसे अन्धी हो, मारणशील हो, सप्तांग राज्य के भार से लदी हुई हो, पिता और पुत्र दोनों में रमण करनेवाली (घृणितव्याभचारिणी) हो, विषके साथ जिसका जन्म हुआ हो, जो जड़ ( या जल) में रक्त हो, और जो विद्वानों से विरक्त रहती हो ॥ ८-९॥
_इस समय लोग नीरस और विशेषतारहित हो गये हैं। अब तो गुणवन्त बृहस्पृति का भी द्वेष किया जाता है। इसी लिए मैंने इस वन का शरण लिया है। मैंने सोचा है कि इस तरह आभिमान के साथ मर जाना भी अच्छा है॥१०॥
कवि के ये वचन सुनकर उन दो आगत नागरिकोंने-अम्मइय (?) और इन्द्रराजने-प्रसन्न मुख से और बड़े विनय से मस्तक झुकाकर कहा-" हे मनुष्यों के हृदयान्धकार को दूर करनेवाले, नवीन कमलसदृश मुखवाले, मदरहित, अपने कुलरूपी आकाश के चन्द्रमा, काव्यरत्नरत्नाकर, और केशव के पुत्र पुष्पदन्तजी, क्या आपने भरत (मंत्री) का नाम नहीं सुना ? जिस की कीर्ति ब्रम्हाण्डरूपमण्डपपर आरूढ हो रही है, जो निरन्तर जिन भगवान की भक्ति में अनुरक्त रहता है, शुभतुंगदेव ( राजा और इस नाम का मन्दिर ) के चरणकमलों का भ्रमर है, सारी कला और विद्याओं में कुशल है, प्राकृत कवियों के काव्यरसपर लुब्ध रहता है और जिसने सरखतीरूप सुरभि का खूब दूध पिया है, लक्ष्मी जिसे चाहती है, जो मत्सर रहित है, सत्यप्रतिज्ञ है, युद्धों के बोझे को ढोते ढोते जिस के कन्धे घिस गये हैं, जो विलासवती सुन्दरियों के हृदय का चुरानेवाला है, बड़े बंड़ प्रसिद्ध महाकवियों के लिए कामधेनु है, दीन दुखियाओं की आशाओं को पूरा करनेवाला है, जिस के यश ने दशों दिशाओं को जीत लिया है, जो परास्त्रियों की ओर कभी नजर नहीं उठाता, शुद्ध शीलयुक्त है, जिस की मति उन्नत है, लीला मात्र से जो सुजनों का उद्धार कर देता है, गुरुजनों के चरणोंपर जिस का मस्तक सदैव झुका रहता है, जो श्रीदेवी माता और अण्णय पिता का पुत्र है, जिस के हाथ हाथी के समान दान ( या मदजल) से आर्द्र रहते हैं, जो महामात्यवंशका ध्वजपट है, गंभीर है, जिस का शरीर शुभ लक्षणों से युक्त है और जो दुर्व्यसनरूपी सिंहों के लिए जो अष्टापद के समान है ॥११-१७॥ आइए, उसके नेत्रों
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अंक 1
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण दुव्वसण सीहसंघायसरहु, णवि याणहि किं णामेण भरहु ।
घत्ता। आउ जाहुंतहो मंदिरु णयणाणंदिरु सुकरकइत्तणु जाणई। ... सो गुणगणतत्तिल्लउ तिहुप्रणिभन्नड णिच्छउ पई सम्माणइं॥ १८ ॥
जो विहिणा णिम्मिउं कव्वपिंडु, तं णिसुणेवि सो संचलिउ खंडु । आवंतु दिड भरहेण केम, वाईसरिसरिकल्लोलु जेम ॥ १६ ॥ पुणु तासु तेण विरइउ पहाणु, घरु प्रायहो अब्भागयविहाणु ।" संभासणु पियवयणेहिं रम्मु, हिम्मुक्कडंभु णं परमधम्मु ॥२०॥ तुहुं आयउ णं गुणमणि णिहाणु, तुहुं पायउ णं पंकयहो भाणु । पुणु एम भणेप्पिणु मणहराई, पहखीणरीणतणु सुहयराई ॥ २१ ॥ वर राहाणविलेवणभूसणाई, दिरणई देवंगइणिवसणाई। अञ्चंत रसालई भोयणाई, गलियाई जाम कावय दिणाई ॥ २२॥ देवासुरण कइ भाणउं ताम, भो पुप्फयंत ससिलिहियणाम । णियसिरिविसेसणिजियसुरिंदु, गिरिधारु वीरु भइरव गरिंदु ॥२३॥ पइ मरिणउं वरिणउं वीरराउ, उप्पण्णउं जो मिच्छत्तभाउ। पच्छित्तु तासु जइ करहि अज, ता घड तुझ परलोयकज्जु ॥२४॥ तुई देउ कोधि भव्वयणबंधु, पुरुषवचरियभारस्स खंधु। अब्भत्थिोसि देदेहि तेम, णिविग्चे लहु णित्वहह जेम ॥ २५ ॥
घत्ता । प्राइललियएं गंभीरपं सालंकारएं वायएं ता किं किजइ।
जइ कुसुमसरवियारउ अरुहु भडारउ सम्भावे ण थुणिंजइ ॥ २६ ॥ को आनन्द देनेवाले मन्दिर में चालिए । वह सुकवियों के कवित्वका मर्मज्ञ है, गुणगणों से तृप्त है और तीनों भुवनों के लिए भला है, वह निश्चय से आप का सम्मान करेगां॥ १८॥
यह सुन कर वह खण्ड कवि-जिस के शरीर को मानों विधाताने काव्य का मूर्तिमान पिण्ड ही बनाया हैउस ओर को चल दिया। उस समय भरत मंत्रीने उस को इस तरह आते देखा जिस तरह सरस्वतीरूपी सरिता की एक तरंग ही आ रही है ॥ १९ ॥ तब उस ने अभ्यागत विधान के अनुसार उस का सब प्रकार से अतिथिसत्कार किया और बहत ही प्रिय, दंभरहित धर्मवचनों से संभाषण किया ॥२०॥ कहा--हे गुणमणिनिधान, आप भले पधारे. कमल के लिए जैसे सूर्य प्रसन्नताका कारण है, उसी तरह आप मेरे लिए हैं । ऐसा कहकर उस के मार्ग श्रम से क्षीण हए शरीर को सुख देनेवाले मनोहर नान, विलेपन और आभूषणों से उस का सत्कार किया और देवों के निवास करने योग्य स्थान में ठहराया। इसके बाद अत्यन्त रसाल भोजन से उसे तृप्त किया । इस तरह कुछ दिन बीत गये ॥२१-२२॥ देवी सुत (भरत ) ने कहा-हे श्लाघनीय नामधारी पुष्पदन्त, भैरव नरेन्द्र ( कृष्णराज ) अपने वैभव से सुरेन्द्र को भी जीतनेवाले और पर्वत के समान धीर वीर हैं ॥ २३ ॥ तुमने कांची नरेश वीरराज शद्रक (?) का वर्णन किया है, और उसे माना है अतः इस से जो मिथ्यात्वभाव उत्पन्न हुआ है उस का यदि तुम आज प्रायश्चित्त कर डालो तो इस से तुम्हारा परलोक का कार्य बन जाय ॥ २४ ॥ भव्यजनों के लिए बन्धुतुल्य तुम्हें पसदेव । आदिनाथ) चरित्र की रचना करनी चाहिए। मैं तुम्हारी अभ्यर्थना करता हूं। इस काव्यरचना से तुम निर्विघ्नता पूर्वक निवृति प्राप्त करोगे ॥ २५॥ वह अतिशय ललित, गंभीर और अलंकारयुक्त रचना भी किस काम की जिस में कामबाणों को व्यर्थ करनेवाले अहेतु भटारक की सद्भावपूर्वक स्तुति न की गई हो? ॥२६॥
१ भइरव-कृष्णराजः।
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[खण्ड २
सियदंतपंतिधवलीकयासु, ता जंपइ वरवायाविलासु । भो देवीणंदण जयसिरह, किं किजइ कन्वु सुपुरिससीह ॥ २७॥ गोषजिएहिं णं घणदिणोहिं, सुरवरचाहिं वणिग्गुणोहिं । मइलियचित्तहिं णं जरघरेहिं, छिद्दण्णेसिहि णं विसहरोहिं ॥ २८ ॥ जडवाइपहिं णं गयरसेहिं, दोसायरेहिं णं रक्खसोहिं । आचक्खिय परपुठीपलेहिं, वर का णिदिज्जइ हयखलेहिं ॥ २६ ॥ जो वाल बुद्ध संतोसहेउ,रामाहिरामु लक्खणसमेउ।। जो सुम्मई कहवह विहियेसेउ, तासु वि दुजणु किं परे म होउ ॥ ३० ॥
घत्ता । णउ महु बुद्धिपरिग्गहु, णउ सुयसंगहु, णउ कासुधि केरउ बलु । भणु किह करमि कइत्तणु, ण लहमि कित्तणु, जगु जे पिसुणसयसंकुलु ॥ ३१ ॥ तं णिसणेवि भरहें वुत्सु ताव, भो काकुलतिलय विमुक्ताव । सिमिसिमिसिमंतकिमि भरियरंधु, मेल्लेवि कलेवरु कुणिमगंधु ॥ ३२॥ यवगयविवेउ मसिकसणकाउ, सुंदरपएसे किं रमई काउ । णिकारणु दारुणु बद्धरोस, दुज्जणु ससहावें लेइ दोसु॥ ३३ ॥ हयतिमिरणियरु वरकरणहाणु, ण मुहाइ उलूयहो उइउ भाणु । जइ ता किं सो मंडियसराई, उ रुश्च वियसियसिरिहराहं ॥ ३४॥ को गणई पिसुणु अधिसहियतेउ, भुक्कउ छणयंदहो सारमेउ। जिण चलणकमल भत्तिलपण, ता जंपिउ कव्वपिसलपण ॥ ३५ ॥
घत्ता । णउ हउं होमि घियक्खणु, ण मुणमि लक्खणु, छंदु देसि णवि याणमि । सब उस वाणी विलास कवि ने अपनी श्वेत दन्तावली से दिशाओं को उज्ज्वल करते कहा-हे देवीनन्दन (भरत ) हे सुपुरुषसिंह, मैं काव्य क्या करूं ? श्रेष्ठ कवियों की खलजन निन्दा करते हैं । वे मेघों से घिरे हुए दिन के समान गोवर्जित (प्रकाशरहित और वाणीरहित), इन्द्रधनुष के समान निर्गुण, जीर्ण गृह के समान मलिनचित्त (चित्र), सर्प के समान छिद्रान्वेषी, गत रस के समान जडवादी, राक्षसों के समान दोषायर (दोषाचर और दोषाकर) और पीठ पीछे निन्दा करनेवाले होते हैं। कविपति प्रवरसेन के सेतुबन्ध (काव्य) की भी जब इन दुर्जनों ने निन्दा की तब फिर ओरों की तो बातही क्या है ?॥ २९-३०॥
फिर न तो मुझ में बुद्धि है, न शास्त्रज्ञान है और न और किसी का बल है, तब बतलाइए कि मैं कैसे काव्यरचना करूं? मुझे इस कार्य में यश कैसे मिलेगा ? यह संसार दुर्जनों से भरा हुआ है॥ ३१॥
यह सुनकर भरत ने कहा-हे कविकुलतिलक और हे विमुक्तताप, जिस में कीड़े बिलबिला रहे हैं और बहुत ही घृणित दुर्गन्ध निकल रही है, ऐसी लाशको छोड़ कर विवेकरहित काले कौए क्या और किसी सुन्दर स्थान में क्रीड़ा कर सकते हैं। अकारण ही आतिशय रुष्ट रहनेवाले दुर्जन स्वभाव से ही दोषों को ग्रहण करते हैं ॥ ३२-३३ ॥ उल्लुओं को यदि अन्धकार का नाश करनेवाला और तेजस्वी किरणोंवाला ऊगा हुआ सूर्य नहीं सुहाता तो क्या सरोवरों की शोभा बढानेवाले विकसित कमलों को भी न सुहायेगा?॥ ३४ ॥ इन खलजनों की परवा कौन करता है? हाथी के पीछे कुत्ते भौंकते ही रहते हैं।
यह सुनकर जिन भगवान के चरणकमलों की भक्ति में लीन रहनेवाले काव्यराक्षस (पुष्पदन्त ) ने कहा ॥३५॥ आप का यह कथन ठीक है, परन्तु न तो मैं विचक्षण हूं और न व्याकरण, छन्द आदि जानता
१ परपुष्टिमासैः परोक्षवादैश्च । १ वाला अंगदादयः; वृद्धा जांबवदादयः अन्यत्र श्रुतहीनाः श्रुताव्याश्च । ३ हनुमान । ४ कृतसमुद्रवंधः अन्यत्र कृतसेतुबंध नाम काव्यं । ५ पद्माना । ६ काव्यराक्षसेन । ७ कुक्कुरः।
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अंक .]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण
६१
जा विरइय जयवंदाहिं आसिमुर्णिदहिं सा कह केम समाणमि ॥ ३६ ॥ अकलंक कविल कणंयर मयाई, दिय सुगय पुरंदर णय सयाई । दन्तिलविसाहि लुद्धारियाई, गउ णायई भरह वियारियाई॥ ३७॥ णउ पीयह पायजेलिजलाई, अइहोस पुराण णिम्मलाई। भावाहिउ भारह-मासि वासु, कोहलु कोमलगिरु कालिदासु ॥ ३८ ॥ चउमुहुँ सयंभु सिरिहरिसु दोणु, णालोइउ का ईसाणु वाणु । णउ धाउ ण लिंगु ण गुणसमासु, गउ कम्मु करणु किरिया विसेसु ॥ ३६ ॥ णउ संधि ण कारउ पयसमत्ति, उ जाणिय मां पक्कवि विहत्ति। णउ वुझिउ आयम सद्दधामु, सिद्धंतु धवल जयधवल णामु ॥ ४०॥ पडुरुद्दडु जड णिण्णासयारु, परियच्छिउ णालंकारसारु । पिंगल पत्थारु समुहे पडिउ,ण कयाइमहारह चित्ते चाडउ ॥४१॥ जैसधुसिंधु कल्लोलसित्तु, ण कलाकोसले हियवउ णिहित्तु । हउं वप्प निरक्खरु कुक्खिमुक्खु, परवेसें हिंडमि चम्मरुक्खु ॥ ४२ ॥ अइ दुग्गमु होइ महापुराणु, कुंडएण मवई को जलविहाणु । अमरासुरगुरुयणमणहरोहि, जं आसि कयउ मुणिगणहरोहं ॥४३॥ तं हां कहमि भत्तीभरण, किं णहे ण भमिज्जा महुअरेण । पड विणउ पयासिउ सज्जणाई, मुहे मसि कुच्चउ कउ दुज्जणाहं ॥४४॥
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हूं, ऐसी दशा में जिस चरित को बड़े बड़े जगद्वन्द्य मुनियों ने रचा है उसे मैं कैसे बना सकूँगा ? ॥ ३६ ॥ मैं अकलंक ( जैन दार्शनिक ), कपिल ( सांख्यकार ), कणचर ( कणाद) के मतों का ज्ञाता नहीं हूं, दिय (ब्राह्मण ), सुगत
बौद्ध), पुरन्दर ( चार्वाक), आदि सैकडों नयों को, दन्तिल, विशाख,लुब्ध (प्राकुलरक्षणकर्ता ) आदि को नहीं जानता । भरत के नाट्यशास्त्र से मैं परिचित नहीं ॥ ३७॥ पतंजलि ( भाष्यकार ) के और इतिहास पुराणों के निर्मल जल को मैंने पिया नहीं, भावों के अधिकारी भारतभाषी व्यास, कोमलवाणीवाले कालिदास, चतुर्मुख स्वयंभ कवि, श्रीहर्ष, द्रोण, कवीश्वर बाण का अवलोकन नहीं किया । धातु, लिंग, गुण, समास, कर्म, करण, क्रियाविशेषण, सन्धि, पदसमास, विभक्ति इन सब में से मैं कुछ भी नहीं जानता। आगम शब्दों के स्थानभूत धवल
और जयधवल सिद्धान्त भी मैनें नहीं पढ़े॥ ३८-४० ॥ चतुर रुद्रट का अलंकार शास्त्र भी मुझे परिज्ञात नहीं पिंगल प्रस्तार आदि भी कभी मेरे चित्तपर नहीं चढ़े ॥ ४१ ॥ यशः चिन्हकवि के काव्यसिन्धु की कल्लोलों से मैं कभी सिक्त नहीं हआ। कलाकौशल से भी मैं कोरा हूं। इस तरह मैं बेचारा निरक्षर मूर्ख हूं, मनुष्य के वेष में पशु के तुल्य घूमता फिरता हूं ॥ ४२ ॥ महापुराण बहुत ही दुर्गम है। समुद्र कहीं एक कूडे में भरा जा सकता है ? फिर भी जिसे सुर असुरों के मनको हरनेवाले मुनि गणधरों ने कहा था, उसे अब मैं भक्ति भाववश करता हूं। भौरा छोटा होनेपर भी
या विशाल आकाश में भ्रमण नहीं करता है ? अब मैं सज्जनों से यही विनती करता हूं कि आप दुर्जनों के मुंह पर स्याही की कूँची फेर दें ॥ ४४ ॥
८ सांख्यमते मूलकारः।९ वैशेषिकमते मूलकारः। १० चार्वाकमते प्रन्थकारः। ११ पाणिनिव्याकरणभाष्यं ( पतंजलि)। १२ एकपुरुषाश्रित कथा । १३ भारतभाषी व्यास । १४ श्रीहर्ष । १५ कवि ईशानः वाणः । १६ परिज्ञातः। १७ प्राकृत लक्षण कर्ता।
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जैन साहित्य संशोधक
परिशिष्ट नं० २
( उत्तर पुराण के मंगलाचरण के बाद का अंश । )
मणे जाएण किंपि श्रमणोज्जे, कइवयह दिन केण विकज्जै । गिव्विण्णउ हिड जाम महाका, ता सिवणंतरि पत्त सरासई ॥ १ ॥ भणई भडारी सुहयकैश्रहं, पणवह अरुहं सुहयरुमेदं । इय सिवि विद्धउ कइवरु, सयलकलाय गं छण ससहरु ॥ २ ॥ दिसउ सिंहाला किं पि ग पेच्छा, जा विंभियमा गियघरे अच्छा । ताम पराइ यवंतै, मउलिय, करयलेण पण वर्ते ॥ ३ ॥ दस दिस पसरिय जसतरुकेंदे, वरमहमत्तवंसण र्हेचंदें । छणससिमंडल सहि वयर्णे, राव कुवलयदलदीहरण्यर्णे ॥ ४ ॥ घत्ता ।
खल संकुले काले कुसलमइ विणड करेपिणु संवैरिय । वच्चंति विसुराण सुसुराणवहे जेणसरासह उद्धरिय ॥ ५ ॥ ईणु देवियहवत जाएं, जयदुंदुहिसरगहिरणिणाएं । जिणवर समयहेिलेणखंभे, दुत्थियमित्ते ववगयडंभे ॥ ६ ॥ परउवयरहारणिव्वहर्णे, विउसविर सयभय मिहरों । तेश्रोहामिय पवरक्खरेंदें, तेरा विगेटवे भवें भर ॥ ७ ॥ वोल्लाविउ कइ कव्वपिसल्लउ, किं तुहुं सचउ वप्पर्गेल्लिउ । किं दीसहि विच्छायउ दुम्मणु, गंथकरणे किं ण करहि शियमणु ॥ ८ ॥ किं कि काई विमई अवरोह, अवरु कोवि किं वि रेंसुम्माहउ ।
[ खण्ड २
कुछ दिनों के बाद मन में कुछ बुरा मालूम हुआ । जब महाकवि निर्विण्ण हो उठा तब सरस्वती देवी ने स्वप्न में दर्शन दिया ॥ १ ॥ भट्टरिका सरस्वती बोली कि पुण्यवृक्ष के लिए मेघतुल्य और जन्ममरणरूप रोगों के नाशक अरहंत भगवान को प्रणाम करो । यह सुनकर तत्काल ही सकलकलाओं के आकर कविवर जाग उठे और चारों ओर देखने लगे परन्तु कुछ भी दिखलाई नहीं दिया । उन्हें बडा विस्मय हुआ । वे अपने घर ही थे कि इतने में नयवन्त भरत मंत्री प्रणाम करते हुए वहां आये, जिन का यश दशों दिशाओं में फैल रहा है, जो श्रेष्ठ महामात्यवंशरूप आकाश के चन्द्रमा है, जिन का मुख चन्द्रमण्डल के समान और नेत्र नवीन कमलदलों के समान हैं, ॥ २-४ ॥ जिन्हों ने इस खलजन संकुल काल में विनय करके शून्यपथ में जाती हुई सरस्वती को रोक रक्खा और उस का उद्धार किया ॥ ५ ॥ जो ऐयण पिता और देवी माता के पुत्र हैं, जो जिनशासनरूप महल के खंभ हैं, दुस्थितों के मित्र हैं, दंभरहित हैं, परोपकार के भार को उठानेवाले हैं, विद्वानां को कष्ट पहुँचानेवाले सैकडों भयों को दूर करनेवाले हैं, तेज के धाम हैं, गर्वरहित हैं और भव्य हैं। ॥ ६-७ ॥ उन्हों ने काव्यराक्षस पुष्पदन्त से कहा कि भैया, क्या तुम सचमुच ही पागल हो गये हो ? तुम उन्मना और छायाहृनिसे क्यों दिखते हो ? प्रन्थरचना करने में तुम्हारा मन क्यों नहीं लगता ? ॥ ८ ॥ क्या मुझ से तुम्हारा
१ सरस्वती । ३ सुष्ठु हतो रुजां रोगाणामोघः संघातो येन स तं । ३ पुण्यतरुमेघं । ४ गतनिद्रो जागरितः । ५ आकार | ६ पश्यति । ७ भरतमंत्रिणेति सम्बन्धः श्रीपुष्पदन्तः आलापितः । ८ कन्दो मेघः । ९ महामात्र - महत्तर । १० चन्द्रेण ११ संवृता रक्षिताः सरस्वती । १२ एयण पिता देवी माता तयोः पुत्रेण भरतेन । १३ प्रासाद | १४ मयि पुष्पदन्ते उपकारभावनिर्वाहकेन । १५ निर्मथकेन । १६ रथेन विमानेन । १७ गर्व रहितेन । १८ कोमलालापे । १९ अपराधः । २० अन्यकाव्यकरणवांछः किं त्वं ।
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अंक १]
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महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण भणु भणु भणियउं सयलु पडिच्चैमि, हउ कयपंजलियरु श्रोहच्छमि ॥ १६ ॥
घता। अथिरेण असारे जीविएण, किं अप्पउ सम्माहाह। तुहु सिद्धहे वाणीघेणुअहे, णवरसखीरु ण दोहाहं ॥१०॥ तं णिसुणोप्पणु दर विहसते मित्तमुहारविंदु जोयते । कसणसरीरे सुद्धकुरूवे, मुखाएविगब्भि संभूवें ॥ ११ ॥ कासव गोत्ते केसव पुत्ते, कर कुलतिलपं सरसोणिलएं । उत्तमसत्ते, जिणापयभत्ते ॥१२॥ (?) पुप्फयंत करणा पडिउत्तउ, भो भो भरह णिसुणि णित्तक्खुत्त । कलिमलमलिणु कालु विवरेरउँ, णिग्घिणु णिगुणु दुण्णयगारउ ॥१३॥ जो जो दीसह सो सो दुज्जणु, णिप्फलु णीरसु णं सकउ वणु । राउ राउणं संझहे केरउ, अंत्थे फ्यदृइ मणु ण महार उ । उन्वेउ जे वित्थरइ णिरारिउ, एकु वि पैउ विरएवउ भारिउ ॥१४॥
। घत्ता । दोसेणे होउ तं उ भणमि चोज्ज अवरुमणे थक्कर। जगुएउ चडाविउ चौउजिह तिह गुणेण सहवंकउ ॥ जयवि तो विजिणगुणगणु वएणमि, कि हं पई अब्भत्थिउ अवगण्णमि।
कोई अपराध बन पडा है अथवा और किसी रस का उमाह हुआ है अर्थात् कोई दूसरा काव्य बनाने की इच्छा हुई है ? बोलो, बोलो, मैं हाथ जोड कर तुम्हारे सामने खडा हूँ, तुम जो कुछ कहोगे मैं सब कुछ देने के लिए तैयार हूं ॥ ९॥
इस अस्थिर और असार जीवन से तुम क्यों आप को सम्मोहित कर रहे हो ? तुम्हें वाणीरूप कामधेनु सिद्ध हो गई है, उस से तुम नवरसरूप दूध क्यों नहीं दोहते ? ॥ १० ॥
यह सुनकर मुसकराते हुए और अपने मित्र के मुखकमल की, ओर निहारते हुए कशशरीर, अतिशय कुरूप, मुग्धादेवी और केशव ब्राह्मण के पुत्र, काश्यपगोत्रीय, कविकुलतिलक, सरस्वतीनिलय, दृढव्रत और जिनपदभक्त पुष्पदन्त कवि ने प्रत्युत्तर दिया कि, हे भरत, यह निश्चय है कि इस कलिमलमलिन, निर्दय, निर्गुण और दुनौतिपूर्ण विपरीत काल में जो जो दिखते हैं सो सब दुर्जन हैं,सब सुखें हुए वन के समान निष्फल और नीरस हैं। राजा लोग सन्ध्याकाल की लालिमा के सदृश हैं। इस लिए मेरा मन अर्थ में अर्थात् काव्य रचना में प्रवृत्त नहीं होता है। इस समय मुझे जो उद्वेग हो गया है, उस से एक पद बनाना भी मेरे लिए भारी हो गया है ॥ ११-१४ ॥
यह जगत यदि दोष से वक्र होता तो मेरे मन में आश्चर्य नहीं होता किन्तु यह तो चढ़ाये हुए चाप (धनुष) सदृश गुण से भी वक्र होता है (धनुष की डोरी 'गुण' कहलाती है । धनुष गुण या डोरी चढ़ा ने से टेडा होता
यद्यपि जगत की यह दशा है तो भी मैं जिन गुणवर्णन करूंगा। तुम मेरी अभ्यर्थना करते हो. तब मैं तम्हारी अवगणना कैसे कर सकता हूं ? तुम त्याग भोग और भावोद्गम शक्ति से और निरन्तर की जानेवाली कविमैत्री से
२१ सर्वे प्रतीच्छामि । २२ एष तिष्ठामि । २३ तव सिद्धायाः ।
१ भरतस्य । २ सुष्ठ कुरूपेण । ३ मुग्धादेवी । ४ वाणीनिलयेन मन्दिरण। ५ सत्वेन दृढव्रतेन । ६ निश्चितं । ७ विपरीतः । ८ शुष्कवनमिव जनः । ९ राजा सन्ध्यारागसहशः । १. शब्दार्थे न प्रवर्तते । ११ एकमपि पदं रचितुं भारो महान् । १२ दोषेण सह जगत् चेत् वकं भवति तदाश्चर्य न, किन्तु गुणेनापि सह वक्रं तदाश्चर्यमाञ्चित्ते । १३ चापः।
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७२ जैन साहित्य संशोधक
[ खण्ड २ चार्य भोय भाउग्गमसत्तिए, पइं प्रणवरय रइय कइमित्तिए ॥ १६ ॥ राउ सालिवाहणु वि विससिउ, पई णियजसु भुवणयले पयासिउ । कालिदासु जे खैध णीयउ, तहो सिरिहरिसहो तुहुँ जगि बीयर्ड ॥ १७ ॥ तुहुं कइकामधेणु कइवच्छल, तुहुं करकप्परुक्खु ढोइयफलु । तुहु कइ सुरवरकोलागिरिवरू, तुहूं का रायहंसमाणससरु ॥ १८ ॥ मंदु मयालसु मयणुम्मत्तउ, लोउ असेसुवि तिठ्ठए भुत्तउ। केण वि कव्वपिलल्लउ मरिणो, केण वि थतु भणेवि अवगरिणउ ।। णिश्चमेव सम्भव पउंजिउं, पई पुणु विणउ करे वि हउं रंजिउं ॥ १६ ॥
घत्ता । धणु तणुसमु ममु ण तं गहणु णेहु णिकॉरिमु इच्छमि । देवीसुत्र सुदणिहि तेण हउं णिलए तुहारए अच्छमि ॥२०॥ महु समयागमे जायहे ललियहे, वोल्लइ कोइल अंबयकलियाँ । काणणे चंचरीउ रुणुरुंटह, कीरु किरण हरिसेण विसट्टइ ॥ २१ ॥ मज्मु कहत्तणु जिणपयभत्तिहे, पसरइ उ णियजीवियवित्तिहें । विमलगुणाहरणंकियदेहउ, एह भरह णिसुणइ पहं जेहउं ।। २२ ॥ कमलगंधु घिइ सारंगें, उ सालूरे णीसॉरंगें। गमणलील जा कयसारंग सा किं णासिज्जइ सारंगे ॥२३॥ वड्ढियसजण दूसणवसणे, सुका कित्ति किं हम्मैड पिसुणे ।
कहेमि कव्वु वम्मैहसंहारणु, अजियपुराणु भवएणवतारणु ॥ २४ ॥ शालिवाहन राजा से भी बढ़ गये हो और अपने यश को तुमने पृथ्वीतलपर प्रकाशित कर दिया है। इस समय जगत
म दूसरे श्रीहर्ष हो जिसने कविकालिदास को अपने कन्धे पर चढ़ा लिया था। ६-७॥ तुम कविकामधेनु, कविवत्सल, कविकल्पवृक्ष, कविनन्दनवन और कविराजहंस समान सरोवर हो ॥१८॥ ये सारे लोग मूर्ख, मदालस, और मदोन्मत्त बने रहें, ( इन से मुझे कुछ प्रयोजन नहीं )। किसी ने मुझे काव्यराक्षस कह कर माना और किसी ने ढूँठ कह कर मेरी अवमानना की । परन्तु तुमने सदा ही सद्भावों का प्रयोग करके और विनय करके मुझे प्रसन्न रक्खा है ॥ १९ ॥
मैं धन को तिन के के समान गिनता हूं और उसे नहीं चाहता हूं। हे देवीसुत श्रुतनिधि भरत, मैं अकारण प्रेम का भूखा हूं और इसी से तुम्हारे महल में रहता हूं॥२०॥
वसन्त का आगमन होनेपर जब आमो में सुन्दर मौर आते हैं तब कोयल बोलती है और बगीचों में भौरें गुंजारव करते हैं, ऐसे समय में क्या तोते भी हर्ष से नहीं बोलने लगते हैं ? ॥ २१॥ जिन भगवान के चरणों की भक्ति से ही मेरी कविता स्फुरायमान होती है अपने जीवित की वृत्ति से या जीविकानिर्वाह के खयाल से नहीं। हे विमलगुणाभरणाकित हे भरत, अब मेरी यह रचना सुन ।। २२ ॥ कमलों की सुगन्ध भ्रमरगण ग्रहण करते हैं, निःसार शरीर मेंढक
हाथी या हंस जिस चाल से चलते हैं, उस से क्या हरिण चल सकते हैं। इसी तरह से जिन्हें सज्जनों को दोष लगाने की आदत पड़ गई है, ऐसे दुर्जन क्या सुकवियों की कीर्ति को मिटा सकते हैं ? अब मैं मन्मथसंहारक और भवसमुद्रतारक आजितपुराण नामक काव्य को कहता हूं।
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१४ त्यागः । १५ स्कन्धे धृतो येन श्रीहर्षेण । १६ तेन सदृशो महान् त्वं । १७ मूर्यो लोकः । १८ सद्भाव । १९ अकृत्रिम धर्मानुराग ।
१ वसन्तसमागमे । २ जातायाः सहकारकलिकायाः। ३ आम्र कलिकानिमित्तं । ४ गृह्यते । ५ भ्रमरेण । ६ भेकेन । ७ निःसारांगण निकृष्ट शरीरेण । ८ हस्तिना हंसेन वा। ९ मृगेण । १० हन्यते । ११ कथयामि । १२ मन्मथ ।
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महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण
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परिशिष्ट नं. ३ ( उत्तरपुराण के अन्त का कुछ अंश ।) णिखुए वीरे गलियमयरायड इंदभूह गणि केवलि जायउ। सो विउलहरिहेगउणिव्याणहो कम्मविमक्कत्रो सासयठाणडो॥१॥ तहिं वासरे उप्पएणउ केवल मुणि हे सुधम्महो पक्वालियमलु। तं णिव्वाणए जंबू णामहो पंचमु दिवणाणु हयकामहो ॥२॥ गदि मुणंदिमित्तु अवरुवि मुणि, गोवद्धणु चउत्थु जलहरणि । ए पच्छए समत्य सुयपारय गिरसियमिच्छामयमवणीरय ॥३॥ पुण विविसह जह पोठिलु खत्तिउ जयणाउ वि सिद्धत्थुह यत्ति दिहिणंकउ विजउ बुद्धिलउ, गंगु धम्मसेणु विणीसल्लउ ॥४॥ पुण णक्खत्तउ पुणु जसवालउ, पंडु णामु धुवसेणु गुणालउ ।
घत्ता । अणु कंसउ अप्पर जिणे वि थिउ पुणु सुहद्दु जणसुहयरु । असभद्दु अखुदु अमंदमह णाणे णावा गणहरु ॥५॥ भरबाहु लोहंकु भडारउ आयारांगधारि जससारउ ।। एयहिं सव्व सत्यु मणे माणिउ, सेसाहि एक्कु देख परियाणिउं ॥ ६ ॥ जिणसेणेण वीरसेणेण वि जिणसासणु सेविउ मयगिरिपवि। पुव्वयाले णिसणिउं सई भरहे, राएं रितु-वहुदावियविरहें ॥ ७ ॥ एवं रायपरिवाडिए णिसुणिउं, धम्मु महामुणिणाहहिं पिसुणिउ । सेणियराउ धम्म सोयारहं. पच्छिलउ धज्जियभयभारहं ॥ ८ ॥ ताहमि पच्छए बहुरसणडिए, भरहे काराविउ पद्धडियए। पदेवि सुणेवि पायरणेवि हयकले, पयडिउ मम्माएं इय माहेयले ॥१॥ कम्मक्खयकारणु गणे दिउं, एम महापुराणु मई सिठ्ठउं । एत्यु जिणिंद मग्गे श्रोणाहिउ, बुद्धिविहीणे जं मई साहिउ ॥ १०॥ तं महो खमहो तिलोयही सारी, अरुहुम्गय सुअएवि भडारी । चवीस वि महुं कलुस खयंकर, दंतु समाहि बोहि तित्थंकर ॥ ११ ॥
पत्ता । दुई छिंदउ एंदउ भुयणयले णिरुवम करणरसायणु। आयएणउ मएणउ ताम जणु जाम चंदु तारायणु ॥१२॥ परिसउ मेहजालु वसुहारहि, महि पिचउ बहु धरणपयाहिं। वंदउ सासणु वीर जिणेसहो, सेणिउ णिग्गड गरयणिवासहो॥१३॥ लग्गउ ण्हवणारंभहो सुरवइ, रणदउ पय सुहं णंदउ गरवह।
णंदउ देस सुहिक्खु वियंभउ, जणु मिच्छसु दुचित्तु णिसुभउ ॥ १४॥ दु:खों का नाश हो और यह कर्णरसायन काव्य पृथ्वीतल पर विस्तार लाभ करे । जब तक चन्द्रमा और तारे हैं, तब तक लोग इसे सुनें और इसका आदर करें ॥ १२॥
पृथ्वी पर मेघ खूब बरसें और तरह तरह के धान्य पकें, वीरभगवान का शासन बढ़े, राजा श्रेणिक नरक निवास से बाहर निकले और ( तीर्थकर होने पर) इन्द्र उस का जन्माभिषेक करें । प्रजा का सुख बढे और राजा आनन्दित हो । देश में सुाभेक्ष (सुकाल) हो और लोगों का मिथ्यात्व भाव नष्ट हो ॥ १३-१४॥ अंकित
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जैन साहित्य संशोधक
[खण्ड २ पडिवएणए पडिपालण सूरहो, होउ संति भरहहो गिरिधीरहो। होउ संति बहु गुणगुणवंत, संतहं दयवंतहं भयवंतहं ॥ १५ ॥ होउ संति बहु गुणहि महलहो, सासु जे पुत्तहो सिरि देवलहो । एउं महापुराणु रयणुजले, जे पयडेवउ सयले धरायले ॥ १६ ॥ चउविह दाणुजय कयचित्तहो, भरह परमसम्भाव सुमित्सहो । भोगलहो जयजसविच्छरियहो, होउ संति णिरु णिरुवमचरियहो ॥ १७॥ होउ संति णण्णहो गुणवंतहो, कुलवच्छल सामत्थ महंतहो । णिश्चमेव पालियजिणधम्महं, होउ संति सोहण गुणवम्महं ॥१८॥ होउ संति सुश्रणहो दंगइयहो, होउ संति संतहो संतइयहो । जिणपयपणमण वियलियगव्वहं, होउ संति णीसेसहं भव्यहं ॥ १६ ॥
घत्ता । . इय दिव्यहो कव्वहो तणउं फलु लहुं जिणणाहु-पयच्छउ । सिरि भरहहो अरुहहो जहिं गमणु पुप्फयंतु तहिं गच्छउ ॥ २० ॥ सिद्धिविलासिणि मणहरदूएं, मुद्धाएवी तणुसंभूएं । णिद्धणसधणलोयसमचित्ते, सव्वजीवणिक्कारणमित्ते ॥ २१ ॥ सहसलिल परिवढियसोते, केसवपुत्ते कासवगुत्ते । विमल सरासइ जणियविलासे, सुण्णभवण-देवउलणिवासें ॥ २२ ॥ कलिमल पवल पडल परिचत्ते, णिग्घरेण निप्पत्तकलते। गइवावीतलाय सरण्हाणे, जर चीवरवक्कल परिहाणे ॥ २३ ॥ धीरे धूलीधूसरियंगे, दूरयरुझिय दुजणसंगें। माहि सयणयले करपंगुरणे, माग्गिय पंडियपंडियमरणे ॥२४॥ मएणखेडपुरघरे णिवसंते, मणे अरहंतु देउ झायंते। भरहमएणणिजे यणिलए, कव्वपवंधजणियजणपुलएं ॥२५॥ पुप्फयंतकयणा धुयपंके, जइ अहिमाणमरुणामके।
पालन में शूर और पर्वत के समान धीर भरत (मंत्री) को शान्ति प्राप्त हो। गुणवन्त, दयावन्त, ज्ञानवन्त सज्जनों को शान्ति प्राप्त हो ॥ १५॥ उस के ( भरत के ? ) पुत्र अतिशय गुणवन्त श्री देवल्ल को शान्ति मिले जिस ने कि इस महापुराण को रत्नोज्ज्वल धरातल पर फैलाया और जिस का चित्त चारों प्रकार के दान करने में उद्यत रहता है तथा जो भरत के लिए परम सद्भावयुक्त मित्र के तुल्य है । जिस का यश संसार में फैल रहा है और जिस का चरित्र उपमारहित है, उस भोगल्ल को शान्ति प्राप्त हो ॥ १६-१७ ॥ कुलवत्सल, समर्थ, गुणवन्त और महन्त णरण को शान्ति प्राप्त हो । निरन्तर जैन धर्म का पालन करनेवाले सोहण और गुणवर्म को शान्ति मिले ॥१८॥ सुजन दंगाय और सन्त संताय को शान्ति प्राप्त हो। जिनभगवान के चरणों में मस्तक झुकानेवाले और गर्वरहित अन्य सब भव्यजनों को भी शान्ति मिले ॥ १९ ॥
इस दिव्य काव्य की रचना का फल जिननाथ की कृपा से मैं यह चाहता हूं कि श्री भरत और अहंत का गमन जहां हो पुष्पदन्त भी वहीं जावे ॥२०॥ सिद्धिरूपी विलासिनी के मनोहर दूत, मुग्धादेवी के पुत्र, निर्धनों और सपनों को बराबर समझनेवाले, सर्वजीवों के निष्कारण मित्र, शब्द सलिल से बंढा है काव्य स्रोत जिन का, केशवक पुत्र, काश्यप गोत्रीय, विमल सरस्वती से उत्पन्न विलासोंवाले, शून्य भवन और देव कुलों में रहनेवाले, कलिकाल के मत के प्रबल पटलों से रहित, बिना घरद्वार के, पुत्रकलत्रहीन, नदी, वापिका और सरोवर में स्नान करनेवाले, फटे कपड़े ओर वल्कल पहननेवाले, धूलिधुसरित अंग, दुर्जनों के संग से दूर रहनेवाले, जमीन पर सोनेवाले, अपने हाथों को ही ओढनेवाले, पाण्डितपण्डितमरण की प्रतीक्षा करनेवाले, मान्यखेट पुर में निवास करनेवाले, मन में अरहन्त देवका ध्यान करनेवाले, भरतमंत्रीद्वारा सम्मानित, नीति के निलय, अपने काव्यरचनासे लोगों को पुलकित करनेवाले, पापरूप कीचड़ जिन क
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महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण कयउं कन्वु भत्तिए परमत्थे, छसय छुडोत्तर कयसामत्थे ॥ २६ ॥ कोहण संवच्छ्रे आसाढए, दहमए दियहे चंदरुहरूढए ।
पत्ता। सिरि अरुहहो भरहहो बहुगुणहो काकुलतिलए भासिउ ।
सुपहाणु पुराणु तिसहिहिमि पुरिसहं चरिउ समासिउ ॥ २७ ॥ इय महापुराणे तिसहिमहापुरिसगुणालंकारे महाभत्वभरहाणुमण्णिए महाकापुप्फयंत विरहए महाकव्वे दुइत्तरसइमो परिच्छेश्रो समस्तो ॥ १०२॥
(प्राचीन पत्र ) संवत् १६३० वर्षे भाद्रपदमासे शुक्लपक्षे पूर्णिमातिथौ कविधासरे उत्तरा भाद्रपद नक्षत्रे नेमिनाथचैत्यालये श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये भ० श्रीपद्मनंदिदेवास्तत्प? भ० श्रीशु [भचन्द्रदेवास्त] पट्टे भ० श्रीजिनचन्द्रदेवास्तत्पट्टे भ० श्रीप्रभाचन्द्रदेवास्तत्सिय मं० श्रीध...............स्तत्सिष्य मं० श्री ललितकीर्ति देवास्तशिष्य मं० श्री चंद्रकीर्ति देवास्तद............( खंडेल) वालान्वये सावडा गोत्रे सा० धेल्हा तद्भार्या घिल्हसरिस्तत्पुत्रौ द्वौ प्र०सा...............छायलदे तत्पुत्रः सा० वीरम तद्भार्या वीरमदे तत्पुत्रः सा० नाथू तद्भार्या...............तीय जिनपूजापुरंदर सा० श्री धणराज तद्भार्य द्वे प्र० सती सीताक...............
परिशिष्ट नं० ४ ( महापुराण के परिच्छेदों के प्रारंभिक पद्य ) १ आदित्योदयपर्वताद्गुरुतराञ्चन्द्रार्कचूडामणेराहेमाचलतः कुशेशनिलयादासेतुबन्धाद्दढात् । आपातालतलादहीन्द्रभवनादास्वर्गमार्ग गता कीर्तिर्यस्य न वेत्ति भद्र भरतस्याभाति खण्डस्य च ॥ ३ बलिजीमूतदधीचिषु सर्वेषु स्वर्गतामुपगतेषु ।
संप्रत्यनन्यगतिकस्त्यागगुणो भरतमावसति ।। ४ आश्रयवसेन भवति प्रायः सर्वस्य वस्तुनोऽतिशयः। .
भरताश्रयेण संप्रति पश्य गुणा मुख्यतां प्राप्ताः॥ ५ भूलीलां त्यज मुंच संगतकुचद्वंद्वादिगर्धाक्षमा,
मा त्वं दर्शय चारुमध्यलतिकां तन्वंगि कामाहता। मुग्धे श्रीमदनिंद्यखंडसुकवेधुर्गुणैरुन्नतः ।
वामप्येष परांगनां न भरतः शौचांबुधेवाछति ॥ ६ श्रीर्वाग्देव्यै कुप्यति वाग्देवी द्वेष्टि संततं लक्ष्म्यै ।
भरतमनुगम्य सांप्रतमनयोरात्यांतकं प्रेम ॥ ७ इंहो भद्र प्रचंडावनिपतिभवने त्यागसंख्यातकर्ता
कोयं श्यामप्रधानं प्रवरकारेकराकारबाहुः प्रसन्नः। धन्यः प्रालयापण्डोपमधवलयशो धौतधात्रीतलांतः
ख्यातो बन्धुः कवीनां भरत इति कथं पांथ जानासि नो त्वं ॥ धो गया है और अभिमानमेरु जिन का चिन्ह या उपनाम है, उन पुष्पदन्त कवि ने यह काव्य भक्ति के वश हो कर ६०६ के क्रोधन नामक संवत्सर में आसाठ के दशवें दिन सोमवार को बनाया ॥ २५.०६ ॥ कविकुलातलक ने पुराणप्रसिद्ध त्रेसष्ट पुरुषों का चरित संक्षेप से वर्णन किया ॥ २७ ॥
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जैन साहित्य संशोधक ८ मातर्वसुंधरि कुतूहलिनो ममैतदापृच्छतः कथय सत्यमपास्य सान्यं । त्यागी गुणी प्रियतमः सुभगोऽभिमानी किं वास्ति नास्ति सहशो भरतार्यतुल्यः॥ ९ एको दिव्यकथाषिचारचतुरः श्रोता बुधोऽन्यः प्रिय एकः काव्यपदार्थसंगतमतिश्चान्यः परार्थोद्यतः। एकः सत्कविरन्य एक महतामाधारभूतो बुधा
द्वावेतौ सखि पुष्पदन्त-भरतौ भद्रे भुवो भूषणौ ॥ १. जेगं हम्मं रम्मं दीवो चंदावं धरती पल्लंको दो वि हत्या सुवत्वं । पिया णिहा णिचं कव्वकीलाविणोश्रो अदीणतं वित्तं इसरो पुप्फवंतो। ११ सूर्यात्तेज गभीरिमा जलनिः स्थैर्य सुरातर्विधोः
सौम्यत्वं कुसुमायुधात्तु सुभगं त्यागं बलेः संभ्रमात् । एकीकृत्य विनिर्मितोऽतिचतुरो धात्रा सखे सांप्रतं
भरतार्यों गुणवान् सुलब्धयशसः खण्डः कषेल्लिमः ॥ १४ केलासुब्भासिकंदा धवलदिसिगोगण्णदंतांकुरोहा,
सेसाही बद्धमूला जलहिजलसमुन्भूयडिंडीरवत्ता। बंभंडे वित्यरंती अमयरसमयं चंदवि फलंती, फुजंती तारोहं जयइ णघलया तुज्झ भरहेसकित्ती ॥ १५ त्यागो यस्य करोति याचकमनस्तृष्णांकुरोच्छेदनं,
कीर्तिर्यस्य मनीषिणां वितनुते रोमांच वपुः । सौजन्यं सुजनेषु यस्य कुरुते प्रेमांतरां निर्वृति,
श्लाघ्योऽसौ भरतः प्रभुत भवेत्कार्मिग्गियं सूक्तिमिः॥ १६ प्रतिगृहमटति यथेष्टं वैदिजनैः स्वैरसंगमावसति ।
भरतस्य वल्लभाऽसौ कीर्तिस्तदपीह चित्रतरं ॥ १७ बेलिभंगकंपिततनु भरतयशः सकलपाण्डुरितकेशम् । - अत्यंतवृद्धिगतमपि भुवनं बंभ्रमति तचित्रम् ॥ १८ शशधरविम्बात्कान्तिस्तेजस्तपनाद्रभीरतामुदधेः।
इति गुणसमुच्चयेन प्रायो भरतः कृतो विधिना । १९ श्यामरुचिनयनसुभगं लावण्यप्रायमंगमादाय ।
भरतच्छुलेन संप्रति कामः कामाकृतिमुपेतः॥ २१ यस्य जनप्रसिद्धमत्सरभरमनवमपास्य चारुणि,
प्रतिहतपक्षपातदानश्रीरुरसि सदा विराजते। वसति सरस्वती च सानन्दमनाविलवदनपंकजे,.
स जयति जयतु जगति भरहेश्वर सुखमयममलमंगलः ॥ २२ मदकरदलितकुम्भमुक्ताफलकरभरभासुरानना,
मृगपतिनादरेण यस्योऽद्धृतमनघमनर्घमासनम् । निर्मलतरपवित्रभूषणगणभूषितवपुरदारुणा,
भारतमल सास्तु देवी तय बहुविधमविका मुदे ॥ २३ अंगुलिदलकलापमसमाति नखनिकरंबकर्णिकं
यह पद्य ९५३ परिच्छेद के प्रारंभ में भी।
यह
१ यही पच ५० परिच्छेद के प्रारंभ में भी दिया है। १०२ वें परिच्छेद में भी है। ४ यह ३९ वें परि. में भी है
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अंक १]
Herefa youदन्त और उनका महापुराण
सुरपति मुकुटकोटिमाणिक्यमधुवतचक्रचुंबितम् । विलसदणुप्रतापनिर्मलजलजन्मविलासकोमलं घटयतु मंगलानि भरतेश्वर तव जिनपादपंकजम् ॥ २४ हिमगिरिशिखरनिकरपरिपंडुरधवलियगगनमण्डलं पुलकमिवातनोति केतकतरुवरतरुकुसमसंकटे । विकसितपणिफणासु सुरसरितामणिरुचिगतमधःक्षितेरिदमतिचित्रकार भरतेश्वर जगतस्तावकं यशः ॥ २५ उन्नतातिमनुमात्रपात्रता भाति भद्र भरतस्य भूतले । काव्यकीर्तिघट | वो गृहे यस्य पुष्पदंतो दिशागजः ॥ २६ घनधवलताश्रयाणामचलस्थितिकराणां मुहुर्भ्रमताम् । गणनैव नास्ति लोके भरतगुणानामरीणां च ॥ गुरुधर्मोद्भवपाचनमभिनंदितकृष्णार्जुनगुणोपेतम् भीमपराक्रसारं भारतमिव भरत तव् चरितं ॥ २८ मुखमलिनोदरसद्मनि गुणहृतहृदये सदैव यद्वसति । चित्रमिदमत्र भरते शुक्लापि सरस्वती रक्ता ॥ २९ तंत्रीवाद्यैरनिधैर्वर कविरचितैर्गद्यपद्यैरनेकैः,
२७
।
कांतं कुंदावदातं दिशि दिशि च यशो यस्य गतिं सुरौधैः । काले तृष्णाकराल कलिमलकलितेप्यद्य विद्याविनोदो सायं संसारसारः प्रियसखि भरतो भाति भूमण्डलेऽस्मिन् ॥ ३ बंभंडाहंडलखोणिमंडलुच्छलियकित्तिपसरस्स । खंडस्स समं समसीलियाए कइयो ग लज्जति ॥ ३३ विनयांकुर सातवाहनादौ नृपचक्रे दिवमीयुषि क्रमेण ।
भरत तव योग्य सज्जनानामुपकारो भवति प्रसक्त एवं ॥ ३४ तीव्रापद्दिवसेषु बन्धुरहितेनैकेन तेजस्विना
सन्तानक्रमतो गतापि हि रमाकृष्टा प्रभोः सेवया । यस्याचारपदं वदंति कवयः सौजन्यसत्यास्पदं सोऽयं श्रीभरतो जयत्यनुपमः काले कलौ सांप्रतम् ॥ ३५ इति भरतस्य जिनेश्वर सामायिकशिरोमणेर्गुणान्वक्तुम् । मातुं च वार्द्धितोयं चुलुकैः कस्यास्ति सामर्थ्यम् ॥ ५६ श्रत्र प्राकृतलक्षणानि सकला नीतिः स्थितिभ्छन्दसामर्यालंकृतयो रसाश्च विविधास्तत्त्वार्थनिर्णीतयः । किंचान्यद्यदिहास्ति जैनचरिते नान्यत्र तद्विद्यते देवे तो भरतेश - पुष्पदसनौ सिद्धं ययोरीदृशम् ॥ ६३ बन्धुः सौजन्यवाद्धैः कविखलधिषणाध्वांतविध्वंसभानुः प्रौढालंकार सारा मलतनुविभवा भारती यस्य नित्यम् । वक्त्रांभोजानुरागक्रमनिहितपदा राजहंसीव भाति प्रोद्यगंभीरभावा स जयति भरते धार्मिके पुष्पदन्तः ॥ ६४ श्रीखंडोडुमरा रुचडमरुकं चंडीशमाश्रित्य यः कुर्वन्काममकांडतांडवविधिं डिंडीरपिंडच्छविः । हंसा उंबर मुंडमंडल लसद्भागीरथीनायकं
१ यही पद्य २७ वें परिच्छेद में भी दिया है । २ यही पद्य ८८ वें परिच्छेद में भी है । ३ यही पद्य ४० वें परिच्छद में भी है । ४ पूने की प्रति में यह पद्य तेरहवें परिच्छेद में भी लिखा है ।
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जैन साहित्य संशोधक वांछन्नित्थमहं कुतूहलपती खंडस्य कीर्तिः कृतेः। ६५ श्राजन्मं कवितारसैकधिषणासौभाग्यभाजो गिरा
दृश्यन्ते कवयो विशालसकलप्रन्थानुगा बोधतः । किंतु प्रौढनिरूढगुढमतिना श्रीपुष्पदंतेन मोः
साम्यं विम्रति नैव जातु कविना शीघ्रं त्वतः प्राकृतेः॥ ६६ यस्येह कुंदामलचन्द्रराचिः समानकीर्तिः ककुभां मुखानि ।
प्रसाधयंती ननु बंभ्रमीति जयत्वसौ श्रीभरतो नितान्तम् ॥ पीयषसतिकिरणा हरहासहारकंदप्रसनसरतीरिणशक्रनागाः।
क्षीरोदशेषबलसत्तमहंस चैव किं खंडकाव्यधवला भरतस्तु यूयम् ॥ ६७ इह पठितमुदारं वाचकैर्गीयमानं इह लिखितमजलं लेखकैश्चारुकाव्यम् । गतवति कविमित्र मित्रतां पुष्पदन्ते भरत तव गृहेस्मिन्भाति विद्याविनोदः ॥ ६८ चंचेश्चंद्रमरीचिचंचुरचुरोचातुर्यचक्रोचिंता
चंचंती विचटचमत्कृतिकविः प्रोहामकाव्यक्रियाम् । अर्चती त्रिजगत्सुकोमलतया बांधुर्यधुर्या रसैः
खण्डस्यैव महाकवेः सभरतान्नित्यं कृतिः शोभते ।। ८० लोके दुर्जनसंकुले हतकुले तृष्णाक्से नीरसे
सालंकारवचोविवारचतुरे लालित्यलीलाधरे । भद्रे देवि सरस्वति प्रियतमे काले कलौ सांप्रतं कं यास्यस्यभिमानरत्ननिलयं श्रीपुष्पदंतं विना ।।
परिशिष्ट न० ५ ( यशोधरचरित के कुछ अंश ।) तिहुयणसिरिकंतहो अइसयवंतहो अरहंतो धम्महहो । पणविवि परमेष्टिहिं पविमलदिष्टिहिं चरणजुयलु णयसयमहहो ॥ ध्रुवकम् । कुंडिल्लगुत्तणहदिणयरासु, वल्लहनरिंदघरमहयरासु । रणरणहु मंदिरणिवसंतु संतु, अहिमाणमेरु कह पुप्फयंतु ॥ चिंतह हो वण नारीकहाए, पजत्तउ कय दुक्खयपहाए । कय धम्मणिवद्धी कावि कहविं, कहियाई जाइ सिव सोक्खलहमि॥ अम्गइ कइराउ पुप्फयंत सरसइणिलो।
देवियहं सरूनो वण्णइ कइयणकुलतिलो ॥ स्य जसहरमहारायचरिए महामहल णण्णकण्णाहरणे महाकर पुप्फयंतविराए महाकव्वे जसहररायपटबंधो नाम पढमो परिच्छेप्रो सम्मत्तो ॥१॥
नित्यं यो हि पदारविन्दयुगलं भक्त्या नमत्यर्हतामर्थ चिंतयति त्रिवर्गाकुशलो जैनश्रुतानां भृशम् । साधुभ्यश्च चतुर्विधं चतुरधीनं ददाति त्रिधा स श्रीमानिह भूतले सह सुतैननाभिधो नंदतात् ॥
X
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१ शोभमान । २ चपल । ३ चौर्य । ४ समूह। ५ शोभमाना । ६ विद्युतत् चमत्कृत्या कवयो यया । . अच्छंती मनोहरता। ९ यह पद्य बम्बई की प्रति में नहीं है।
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अंक 1
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण नक्षत्राधीशरोचिप्रचयशुचिबरोदामकीर्त्या निकेतो, निर्णाताशेषशास्त्रानिदशपतिनुताशेषवित्पादभक्तः। भ्राता भन्यप्रजानां सततमिह भवाम्भोधिसंसारभीरुभीतिज्ञो निर्जिताक्षः प्रणयधिनयतानंदतान्नन्ननामा ॥'
x प्राधान्तदानपरितोषितवन्धवृन्दो दारिद्ररौद्रकरिकुंभविभेददक्षः। श्रीपुष्पदन्तकविकाव्यरसामितृप्तः श्रीमान्सदा जगति नंदतु नन्ननामा ॥
x गंधठवें कण्हडणंदणेण प्रायई भवाई किय थिरमणेण । महु दोसु ण दिजइ पुटवे कइउ कइवच्छराय तं सुत्त लहई ।।
x पावनिमुंभणि मुद्दाबंभाणि, उअरुप्पण्णि सामलवर्षिण । कासवगुक्ति कैसवपुत्ति, जिणपयभत्तिं धम्मासत्तिं ॥ वयसंजत्तं उत्तमसतं, वियलियसंकंत्राहिमाणेकं। पहसियतुंडं कयणा खंडं, रंजियबुहसह कयजसहरकह ॥ ओ श्रायराणहचंगउ मण्णइ, लिहा लिहावह पढइ पढावा। जो मणसावइ सो नर पावइ, विहुणियघणरय सासयसंपय ॥ जणवयनीरसि दुरियमलीमसि, कयनिंदायारे दूसहि दुहरि । पडियकवालए नरकंकालप, बहुरंकालए थइदुक्कालए॥ पवरागारि सरसाहारि, सन्हा चेला वरतंबोलइ । महु उवयारिउ पुषिणप्पेरिउ, गुणभत्तिलज एण्णमहल्लउ ॥ होउ चिराउसु वरिसउ पाउसु, तिप्पउ मेइणि धणकणदारणि । विलसउ गोविणि णबाउ कामिणि, घुम्मउ मद्दलु पसरउ मंगलु ॥ सत्ति वियंभउ दुक्ख निसुंभउ, धम्मुच्छाहि सहुनरनाहिं। सुह नंदउ पय जय परमप्पय, जय जय जिणवर जय भवभयहर। विमलु सुकेवलणाणसमुज्जलु, मह उप्पज्जउ इच्छिउ दिजउ ।
मइ अमुणंतह कव्वु कुर्णतह, जं हीणाहिउ काइवि साहिउ॥ पत्ता-तं माइ महासह देवि सरासह निहयसयलसंदेह दुह ।
__ महु खमहु भडारी तिहुयणसारी पुप्फयंत जिणवयणरुह ॥ २३ ॥ इयजसहरमहारायचरिए...............चउत्यो परिच्छेश्रो सम्मत्तो ॥ छ ॥ मंगलमस्तु । संवत् १३६० वर्षे आषाढ सुदि १३ शनौ अधेह श्रीमहाराजाधिराज श्रीसुरत्राण महमदराज्ये दुर्गमंडप पडिगनायागे वगडी नामनि प्राग्वाटवंशीय सा० भावडसंताने सा० मल्हौ पुत्र रामा भ्रार्तृ देल्हाकेन द्वाभ्यां जसोधरपुस्तिका लखिता। सा चिरं नंदतु ॥ छ । शुभमस्तु ।।
परिशिष्ट नं. ६ (आदिपुराण की प्रति लिखानेवाले की प्रशस्ति ।) पणविवि रिसहेसर विणियपणसरु लोयालोय पयासणु । वरमुत्तिरमणवरु जम्ममरणहरु कम्ममहारि विणासणु॥ मेयनयणवाणससहरमिएसुसंवच्छरेसुपच्छह गए। विक्कमरायहो सुइसेयपक्ख एवमी बुहवारे सचित्तरिक्ख ॥
गोवेगिरीणयरि णिउ डुंगरिंदै, हुउ पयपाडियसामंतर्विदु।। १ यह पद्य तीसरे पारच्छद के प्रारंभ में है। २ यह पद्य चौथे परिच्छेद के प्रारंभ का है, परन्तु बम्बई और पूने की दोनों प्रतियों में नहीं है। छपी हुई भाषावली प्रति में है । ३ यह पद्य बम्बई की प्रति में नहीं है।
४ मद-नयन-वाण-शशधर मितेसु, अर्थात् वि• संवत् १५२१ । ५ ग्वालियर-गोपाचल। ६ डूंगर सिंहराजा।
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[ खण्ड २
जैन साहित्य संशोधक तहो सुउ सकित्तिधवलियदियंतु सिकित्ति सिंह णिवलच्छिकंतु ॥ सिरिकसंगमंडणु मुर्णिदु, गुणकित्ति जईसरु जए अणिंदु । जसकित्ति कित्ति मंडिय तिलोउ तहो सीसु मलयकित्ति जिअसोउ ॥ गुणभन्दु भद्दु तहो पट्टि सूरि जे जिणवयणामिउ रसिउ भूरि। सिरि जइसवाल-कुलणह ससंकु, सिरि उल्हासाहु सया असंकु ॥ तहो जाया गयसिरि णामधेय, तहि सुत्र हंसराजु दया अमेय। उल्हा चउधरियहु णारि अराण, भावसिरि णाम णियगुणपसराण ॥ तहे पुत्त चयारि हयारिमल्ल, सिरि पउमसिंहु जिउ अतुल्ल ।
लच्छीहरुमाणिकु मणिसमाणु, धेना रायालयदीवमाणु ॥ पत्ता-सिरि हंसराय चउधरिय घरे विजसिरि भज्जा महिया।
तहे सुय गुणसायर सुहपउरेसर परिमियमयगणरहिया ॥ तहिं लल्ला रयणु सुबुद्धिधाम, मयणजि वीरू मंडेहिहाण । सिरि पउमर्सिह भज्जा सुपुज्ज, वीराणामे वरगुणसमुज्ज ॥ तहे सुउ सोनिग णामेण धीरु, सूआ घरिणि एसहु जणि अभीरु । वोई वल्लहलहंगवग्ग, वीधो हिहाण सयदलकरग्ग। अण्णजि घरिणी मीया अहिक्ख, सिरि पउमसिंह घरे लीलसिक्ख । तहें चारिपुत्त हियपियरचित्त सिरि चित्त वालू डालू विचित्त ॥ तीयउ कुलदीवउ सो पयच्छ, तह मयणवालुचउथउ पसत्यु । माणिक माणिणिणं कामभल्लि, लखणसिरिणाम णारी मतल्लि ॥ धेण। घरिणिउ णं कामअत्यु, संगहिउ जाहिं जिणधम्मवत्यु । मयणाभज्जो यति भाह भीय णामेण सया सीलेण सीय ।। लल्ला पिय मणसिरि पढम अरण, पट्टो मंगाभिक्खो सुवण्ण। सुत्र रामचंद्र कुलकमलनंदु, नंदउ चिरु इहणं वीयचंदु । नंदा पूना वे भज्जजुत्त, चिरु जीवउ वीरू कमलवत्त ॥ पयाई मझि सिरि पोमासिंह, जिण सासणणंदणवणससिंह। विज्जुलचंचलु लच्छी सहाउ, आलोइवि हुउ जिणधम्मभाउ ॥ जिण गंथु लिहाविउ लक्खु एक्कु, सावयलक्खाहारातिरिक्कु । मुणि भोयणु भुंजाविय सहासु, चउवीस जिणालउ किउ सुभासु ॥ धना चउधारय निमित्तु दव्वु, तेणज्जिउ लाइविजे अउब्व । पुरुएवजिणायदणु जि विचित्तु, ससिहरु सुपाडिहेरठ्ठजुत्तु ॥ णिम्मविउ भवबुहि जाणवतु, रयणत्तयजुयजुयपासजुत्त ।
कारिय पाठ जिणसमइ दिट्ठ, अवलोइवि सयल सचित्तिहि । पत्ता-णंदउ सिरिहंसराउ सुहउ, णंदउ पउमसिंहु ससुरु ।
णंदउ परिवारु लच्छिकलिउ, णंदउ लोउ गुणोह जुउ ॥ प्रायासस्स जिएस्स य जिह अंतं कावि लहान गुणस्स। सिरि पोमसिंह तिहते को पार गुणणिहाणस्स ॥१ सिरि पउमसिंह पउमं इह लोए जहण होतु ता पउमा । कीला कत्थ करंती सुदाणपूया विणोपाई ॥२॥
४ कीर्तिसिंह, डूंगरसिंह का पुत्र । ५ गुणकीर्ति यतीश्वर । ६ यशः कीर्ति । मलयकीर्ति-यशः कीर्ति के शिष्य । ८ जिनवचनामृतरासिक । ९ गयसिरि जाया-गजश्री नामकी भार्या । १० ज्येष्ठ-जेठा।
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प्रो. ल्युमन अने आवश्यक सूत्र
जर्मनीना प्रसिद्ध प्रोफेसर ल्युमन जैन आगमोना घणा ऊंडा अभ्यासी छे. लगभग अर्धा सैका जेटला लांबा समयथी तेओ जैन साहित्यनुं अवगाहन करता आव्या छे अने अनेक जैन सूत्रोप्रन्थोना सूळ, नियुक्ति, भाष्य, टीका,टिप्पणी आदिने अर्वाचीन शास्त्रीय पद्धतिए संशोधित-अनुवादित करीतेमणे प्रकाशमां आण्या छ.ए बधामां आवश्यकसूत्र अने तेने लगता साहित्य उपर जे तेमणे अथाग परिश्रम उठाव्यो छे अने ते विषयमा जे निबन्धो आदि लल्या छे ते तो खरेखर तेमनी जैन साहित्य विषयक सूक्ष्म-प्रवीणतानी आश्चर्य-कारक साक्षी आपे छे. - जर्मनीना लीप्झीक शहेरमाथी प्रकट थती ओरिएन्टल सोसायटीनी प्रन्थमाळा (Abhand. lungen fur die Kunde des Morgenlandes) मां आवश्यक-कथा (Die Avashyaka Erzahlungen) नामे एक प्रन्थ छपाववानी तेमणे सुरुआत करी हती,जेमा आवश्यक सूत्रनी चूर्णि अने टीकामां आवती बधी कथाओ मूळ रूपे आपी, जुदी जुदी प्रतोमा मळी आवतां तेमनां पाठान्तरो तथा बीजा बीजा प्रन्थोमां मळी आवतां रूपान्तरोनी घणी विस्तृत रूपरेखा आलेखवानी तेमनी इच्छा हती. परंतु, ते माटे जोइतां बधां साधनो-भाष्य, चूर्णि, टीका आदिनी जुदी जुदी प्रतो विगेरे-न मळी शकवाथी, पचासेक पानां छापी तेमने ए कार्य बन्ध करवु पडणुं हतुं. ते दरम्यान सने १८९४ मां जिनेवा (Geneve) मां भराएली इन्टर नेशनक ओरिएन्टल कोंग्रेसमा वाचवा माटे मावश्यकसूत्र साहित्य उपर जर्मन भाषामां एक विस्तृत निबंध तेमणे तैयार कयों हतो जेमां आवश्यक सूत्रने लगतुं जेटलुं साहित्य मळी आवे छे तेनुं अतिसूक्ष्मरीते विवेचन कयु हतुं.ए निबन्ध (Uebersicht uber die Avashyaka-Litteratur) ना नामे तेमणे स्वतंत्ररीते प्रकट को छ जेना डेमी साइझना आखा कागळ जेवडा ५० उपर पानां छे. एमां प्रथम श्वेतांवर अने दिगंबर बने जैन संप्रदायोमा आवश्यकने शु स्थान छे ते बताव्यु छ; अने पछी आवश्यक सूत्रनी भद्रबाहुकृत नियुक्तिमा आवता बधा विषयोनो बहु खूबी भरेलो सार आप्यो छे. ए सारमा साथे साथे नियुक्तिमां आवता विषयोने बीजां बीजां सूत्रो अने भाष्यो विगेरेमा आवता तेज विषयो साथे, कोष्टको करी करी गाथाओवार सरखाव्या छे. आवश्यकचूर्णि अने हरिभद्रकृत दीकामां परस्पर जे जे विशेष छे ते सधळा मूळ पाठो साथे समजाव्या छे. पछी जिनभद्र क्षमाश्रमणकृत विशेषावश्यक भाष्यन लंबाणथी विवेचन कयु छे. एमां पण पहेलां, विशेषावश्यक ए शुं छे, तेनी टीका विगेरे कोणे करेली छ, ए बताव्युं छ; अने त्यार बाद नियुक्तिनी गाथाओने भाष्यना विवरण साथे विषयवार समजावी छे. अने ए उपरांत पछी आखा भाष्यनो सार आप्यो छे. एटलुं करीने पण ए जर्मनदेशीय गीतार्थने संतोष न थयो तेथी ए निबन्धनी एक जूदी पूर्ति करी छे, जेमां विशेषावश्यक भाष्यनी शीलांकाचार्यकृत प्राचीन अने दुर्लभ्य टीकामा जे जे विशेष विशेष उल्लेखो छे ते बधा मूळरूपे गाथावार छपावी दीधा छ अने छेवटे ए टीकानी सोथी जूनी ताडपत्नी प्रति जे हालमां पूनाना भांडारकर
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८२ ]
जैन साहित्य संशोधक
[ खंड २
ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टीट्युटमां सुरक्षित छ, तेना अतिजीर्ण शीर्णथएलां केटलांए पानाना फोटोग्राफस् आप्या छे. '
प्रो० ल्युमनना अथाग परिश्रम भरेला ए आखा निबन्धनो अविकल गुजराती अनुवाद कराववानो अमारो विचार चाली रह्यो छे पण कमनसीबे हजी अमने ए निबन्धनी पूरी नकल मी नथी. पूनाना भांडारकर ओ० री० इन्स्टीटयूटमांना सर भांडारकरना पुस्तकसंग्रहमांथी फक्त एना कटेला प्रुफसीटस् ज अमने जोवा मळ्या छे, जे प्रो०ल्यूमने डॉ०भांडारकरने, ए निबन्ध छपाती लखते, पूनानी प्रतो साथ सरखावी जोवा माटे मोकल्या होय एस देखाय छे. ए संबन्धमां खुद प्रो० ल्युमनसाथै ज अमारो पत्रव्यवहार चाले छे जेनो सविस्तर खुलासो मळतां भाषांतरनी व्यवस्था करवामां आवशे. ते दरम्यान, जैन साहित्य संशोधकना वाचकोने ए अमूल्य निबन्धनो कांइक परिचय थाय तेटला माटे मजकुर प्रोफेसरे ए निबन्धमा आवश्यक निर्युक्ति अने विशेषावश्यक भाध्यमां आवता गणधरवाद नामे विषयना उपर जे एक प्रकरण लख्यूं छे तेनो अनुवाद आपए छीए. ए अनुवाद कार्यमां, मि. आर. डी. वाडेकर, बी. ए. नामना सज्जने जर्मन भाषा समजाववा माटे जे सहायता अपीछे तेनी आभार साथै अमारे अहीं खास नोंध लेवी जोईए.
विद्य वैशाख, संवत् १९७९ विशेषावश्यकभाष्य अने तेनी टीकामां मळी आवतां वैदिक अने दार्शनिक अवतरणो.
मुनि जिन विजय
- केशवलाल, मे. मोदी.
आवश्यक नियुक्तिना छठ्ठा भागनी १ थी ६४ मी सुधीनी गाथाओमां गणधरवाद नामे विषय आवेलो छे. एमां केवी रीते महावीरे ११ ब्राह्मणोना तत्त्वज्ञान विषयक संशय दूर करी, शिष्यो साथ तेमने पोताना शिष्यो बनाव्या एनं हूंं अने एक ज प्रकारनुं वर्णन आपेलुं छे. ए अग्यारे ब्राह्मणो महावीरना मुख्य शिष्य होई गणधरो कहेवाय छे. शरुआतमां २ थी ७ सुधी गाथामा संक्षेपमां गणधरोनो ड्रंक परिचय अने संशयात्मक विषयनी नोंध आपी छे अने पछी ८ थी ६४ सुधी गाथामां तेनो ज विस्तार आपेलो छे. गाथावार हकीकत आ प्रमाणे:
२. उन्नत अने विशालकुमां उत्पन्न थएला अभ्यारे ब्राह्मण पावानामक स्थानमां सोमिल ब्राह्मणे आरंभेला यज्ञपाटकमां आवेला हता.
३- ४. तेमनां नाम ----
१ इन्दभूइ २ अग्गिभूइ ३ वाउभूइ ४ वियत्त
६ मण्डिय ७ मोरियपुत्त
८ अकंपिय
९ अयलभाय १० मेयज्ज
११ पहास
५ सुहम्म
५. आ अग्यारेमांथी फक्त एक सुधर्म ( ५ मा गणधर ) नीज शिष्य परंपरा आगळ चाली. बाकीना कोईनो शिष्य समुदाय रह्यो नहीं.
१ ए आखा पुस्तकना अमे पण फोटोग्राफसू पडाव्या छे. खरेखर ए प्रति एक दर्शनीय प्रति छे भने एना ए फोटोग्राफसूनी नकल दरेक पुस्तक भंडारमा मुकवामां आवे एबी आमारी खास भळामण छे.
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४७.
अंक १]
प्रो. ल्युमन अने आवश्यकसूत्र ६ ठी गाथामां क्रमथी ए अग्यारेना मनमा जे जे बाबतनो संशय हतो तनी नोंध छे अने ते आ प्रमाणे छ ---
जीवे' कम्मे तज्जीव' भूय तारिसय५ बन्ध-मोक्खे य ।
देवा नेरइया वा पुण्णे परलोग' निव्वाणे' ॥ ६ (५९६) ७. पहेला पांचे गणधरोने ५००-५०० शिष्यो हता; ६-७ ने ३५०-३५० अने छेल्ला ४ ने ३००-३०० शिष्यो हता. . महावीर दरेकने नाम गोत्र पूर्वक बोलावे छे अने पछी तेना मनना संशयतुं नाम लई, 'तूं वेदना पदोनो अर्थ जाणतो नथी, तनो अर्थ आ प्रमाणे छ' एम एक ज प्रकारनो जवाब आपे छ. गाथावार गणधरोनो उल्लेख आ प्रमाणे
पहेलो गणधर, जीव विषयक संशय. २५. बीजो
में कर्म विषयक ३१. त्रीजो
तज्जीव तच्छरीर वि. ,, ३५. चोथो
पश्च भूत वि० पांचमी
सदृशोत्पत्ति वि० ४३. छठ्ठो
बन्ध मोक्ष वि० सातमा
देवसृष्टि वि० ५१. आठमो
नरकसृष्टि वि० नवमो
पुण्य विषयक ५९. दशमो
परलोक वि० ६३. अग्यारमो , निर्वाण वि० आ अग्यारे गणधरोना मनना संशयनो महावीरे जे खुलासो कयों हतो तेनो उल्लेख मूळ नियुक्तिमा करवामां आव्यो नथी. निन्हवीनी हकीकतनी पेठे ज ए हकीकत पण निर्णय वगर ज आपवामां आवली छ. चूर्णिमां फक्त पहेला गणधरना संशयनो खुलासो करवानो थोडोक प्रयत्न करवामां आव्यो छे. पण जिनभद्र आ बाबतनो घणो उत्तम विस्तार करे छे. ए विषय माटे तेमणे ४०० उपरांत गाथाओ लखी छे अने तेना विवरणमा घणी विशेष वातो आपी छे. हरिभद्रसूरि आ विवरणमाथी घणांक अवतरणो पोतानी टीकामां ले छे अने एज अवतरणो विशेषावश्यक भाष्यमांना गणधरवादनी टीकाओना आधारभूत बने छे. वळी हरिभद्रनी टीका उपरथी किश्चिद्गणधरवाद नामनो पण एक प्रन्थ लखायो छे, जेमा केटलोक वधारे विस्तार करवामां आवेलो होई वदनां घणां खरां अवतरणो उपरांत छट्ठी अने ते पछी आवती गाथामांनी हकीकतनुं पण निरूपण करेलुं छे. आनी श्लोक संख्या लगभग २५० जेटली छे अने पूनाना पुस्तकभंडारमा नं० १६, २९१ वाळी प्रतना २० थी:२३ मा सुधीना पानाओमां ए लखेलो छे.. दशवकालिकनी लधुवृत्तिमां पण संक्षेपथी आ विषय चर्चेलो छे. ___ आ विषयने लगता जे केटलांक वैदिक अने दार्शनिक अवतरणो जिनभद्र आपेछे अने तेमनो जे अर्थ जन मतानुसार करे छे ते जाणवां जेवां छे. आमांनां घणां खरां अवतरणो तो तेमणे फक्त
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जैन साहित्य संशोधक.
[ खंड २
पोतानी टीकामां ज आपला छ; पण ते स्वोपज्ञ टीका उपलब्ध नथी, तेथी हरिभद्र, शीलांक अने हेमचन्द्र के जमणे ए स्वोपज्ञ टीकानो पोतानी टीकाओमां उपयोग कर्यो छे-तेमणे ए अवतरणो लीलां होवाथी आपणे ए टीकाओमांथी ज ते लेवानां छे. भाष्यना मूळमां ज जे अवतरणो आपलां छे ते खास काळा अक्षरोमां आपवामां आव्यां छे. बाकीनां कया टीकाकारे कयां अवतरणो लांछे ते जुदी जुदी रीते बताववामां आव्यां छे. ए अवतरणो कया प्रन्थोमाथी लेवामां आवेलां छे तेनो कांई उल्लेख टीकाकारो करता नथी. तेथी जेकबना उपनिषद्वाक्यकोष अने बीजां तेवां वेद संबंधी पुस्तको उपरथी घणांकनां स्थळ खोळी काढवानो प्रयत्न कर्यो छे. ए तो चोकस छे के जे अवतरण जिनभद्रे लीधां छे ते घणां प्रमाणभूत छे अने तेमना वखतना ब्राह्मणो वादविवादमां ए वाक्यानी खूब चर्चा करता होवा जोईए. ब्राह्मणोनां दर्शनशास्त्र मां परस्पर विरुद्ध विचार दर्शावना ए वाक्यो उपरथी दरेक गणधरनो संशय उभो करवामां आव्यो छे. प्रसिद्ध उपनिषदोना मूळ पाठो साथै सरखावतां ए वाक्योमा जे केटलीक भूलो नजरे पडे छे तेनुं कारण बिनकाळजीपूर्वक एओनो उपयोग करवामां आवेलो होवु जोईए.
* (दाहुर्नास्तिकः) *
×२, ५ (१५५३). 193
एतावानेव पुरुषोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे, वृकपदं पश्य यद् वदन्ति बहुश्रुताः ।।
I fपब स्वाद व साधु शोभने यदतीतं बरगात्रि तन्न ते । न हि भीरु गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कडेवरम् ॥ ( भट्टोऽप्याह )
#
x आ अंक ते प्रो० ल्युमने पोताना मूळ निबन्धमा विशेषावश्यकभाष्यना जे ५ विभागो पाडवा छे तेना सूचक छे. एमा पहलो अंक प्रकरणने अने बीजो गाथानंबरने सूचवे छे. आ पछी जे कौंसमा अकडा आपल छे ते काशीनी यशोविजय जैनग्रन्थमाळामां प्रकट थएल सटीक विशेषावश्यकभाष्यमांनी चालू गाथासंख्या सूचवे छे. मुद्रित प्रथम १५४८ मी गाथा ज्यां पूरी थाय छे त्यां उक्त प्रो० ना वर्गीकरण प्रमाणे प्रथम विभाग पूरो थाय छे अने १५४९ मी गाथाथी बीजो विभाग शरू थाय छे ते २०२४ मी गाथाए पूरो थाय छे. ए विभागमां गणधरबाद नामने विषय आवे छे अने तेनी कुल ४७६ गाथा छे.
* - ( ) आवा गोळ कसम आपला पाठो आवश्यकसूत्रनी हारिभद्री टीकामा आपवामां आवेला नथी; तेज [] आवा चौखुणा कौंसमां आपेला पाठो विशेषावश्यक भाष्यनी शीलांकाचार्यकृत टीकामा आपेला नथी; एम समजवु.
+ आ अंको आवश्यकनी हारिभद्रो टीकामां दरेक गणधरना माटे जे शंका-समाधानात्मक अवतरणो आपवामा आवेला छे तेनो क्रमनिर्देश सूचवे छे. एमांनो मोटो अक्षर ए गणधरनी संख्या बतावे छे अने तेनी आगळ जे नानो अक्षर छे ते अवतरणनी संख्या जणावे छे.
I आ चिन्हवाळा अवतरणो फक्त आवश्यक चूर्णिमां ज मळी आवे छे.
*
आ बने श्लोको हरिभद्रकृत षड्दर्शनसमुच्चयना छेवटना लोकायत प्रकरणमां, श्लोक ८१-८२, ( मुद्रित पृ० ३०१, ३०४, कलकत्ता ) त्यां बीजा श्लोकनो प्रथम पाद ' पिब खाद च चारुलोचने ' आ प्रमाणे छे. २. शीलांकाचार्यनी टीकामां 'यथाहु:' पाठ छे. ३. शी. टी. 'एके.' ४. चूर्णिमां 'एके आहु:' एटलो ज पाठ छे. ५. विशेषावश्यकनी हेमचंद्रकृत टीकानी केटलकि प्रतोमां आना ठेकाणे ' लोकोऽयं ' पाठ छे. ६. चू० शी० ह. हे० नी केटलीक प्रतोमा ' वदन्त्यबहुश्रुताः ' पण पाठ छे.
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अंक १
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मो. ह्युमन अने अवश्यकसूत्र विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति, न प्रेत्य सज्ञास्ति।
- बृहदारण्यकोपनिषद् २, ४, १२.-आगळ गाथा ३९अने १३७, नी टीकामा, ( मुद्रित पृष्ठ ६८० तथा ७२० मां ) पण आ अवतरण आवे छे. तथा भाष्यना मूळमां, गाथा ४०२, ४१४, ४२१ (मु० पृ० ६८१) मा आ अवतरण अनुवादित छ. '
(सुगतस्त्वाह) न रूपं भिक्षवः पुद्गल इति [ आदि ] * अन्ये त्याहुः I वासासि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराण । तथा शरीराण्यपरापराण जहाति गृह्णाति च पार्थ जीवः ॥ [(तथा च वदः)] न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्त, अशरीरं वाव सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः।
-छान्दोग्योपनिषद् ८,१२,१.--आगळ (गाथा) ४३.१०३. २५६. ३१३ नी टीकामा (मुद्रित पृष्ठ ६८२. ७० ६. ७५९. ७७७ मा) पण आ अवतरण उहत छ. तथा भाष्य-मूळ गाथा. ३१३१ ४६७१ (मु. पृ. ७७७. ८३१) मा आ अबतरण अनुवादित छे.
([तथा] अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः) मैव्युपनिषद् ६,३६.-आगळ गाथा ४३.९५. २५२. ३३४. (मु. पृ. ६८२. ७०२.७५८. ७८४ ) नो टीकामा पुनः उहत. मूळ गाथा ९२ = १३६ = ३९९२ =४२२२, (मु. पृ. ७००. ७२०. ८०७.८१४) मा अनुवादित. गाथा ३३४. (मु. पृ. ७८४ ) मा सूचित । सरखावो-हरिभद्रनी आवश्यकवृत्तिमा चैत्यवग्दनवृत्ति आव०५.१% तथा शास्त्रवार्तासमुच्चय ६०५, वळी ए छल्ला प्रन्थना १५७ मा श्लोकमा आना जेवू ज एक अवतरण छ जे तैत्तिरीयसंहिताना २ जानी आदिमा छे.
([कपिलागमे तु प्रतिपाद्यत ] अस्ति पुरुषः) अकती निर्गुणो मोक्ता (चिद्रूपः)
१५
७. आना ठेकाणे ह० मा ' तथा ' पाठ छे. ८. भगवद्गीता २, २२ ( महाभारत ६, ९००) मां उत्तरार्द्ध आ प्रमाणे छे:
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ - चूर्णिमा एक बीजुं वधारे नीचे प्रमाणेनुं अवतरण छे:--
काया अनो मुत्तो निच्चो कत्ता तहेव भोत्ता य ।
तणुमेत्तो गुणवन्तो उड्ढ-गई वण्णिओ जीवो ॥ सरखावो-दशवकालिक नियुक्ति गाथा २२७ अने ते पछीनी. (मु. पृ० १२१)
९सत्रकृतांग १,१,१-१४ नी टीकामा शीलांकाचार्य तथा चोकं' करीने आ अवतरण नीचे प्रमाणे आपे छः
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८६ ]
२,१३ (१५८०).
जैन साहित्य संशोधक
[ नीलविज्ञानं मे उत्पन्नमासीत् ] सरखावो — सर्वदर्शनसंग्रह पृ.
१९,७-१०
( एक एव हि भूतात्मा भूते भूते प्रतिष्ठितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् || '
१०
- ब्रह्मबिन्दु उपनिषत् १२. यशस्तिलक चम्पू, आश्वास ६, कल्प १ ( पृ. २७३
निर्णयसागर )
यथाविशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः । सङ्कीर्णमिव मात्राभिर्भिन्नाभिरभिमन्यते ॥ तथेदममलं ब्रह्म निर्विकल्पमविद्यया । कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रकाशते ॥ “ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययस् । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥” - भगवद्गीता १५ - १ ( महाभारत ६-१३८३ . ) पुरुष एवेदं निं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यं । " उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥
- वाजसनेयी संहिता ३१, २. श्वेताश्वतरोपनिषद् ३-१५.
[ खंड २
अकर्ता निर्गुणो भोक्ता आत्मा सांख्यनिदर्शने ।
स्याद्वादमञ्जरी, श्लोक १५ मां मलिषेण आखो श्लोक आ प्रमाणे आपे छे:
अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः ।
अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म आत्मा कापिलदर्शने ॥ ( बनारस, यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, पृ. ११३ - षड्दर्शनसमुच्चयनी टीकामा गुणरत्न पण आ श्लोक उद्धृत करे छे. ( जुओ कलकत्ता आवृत्ति, पृ. १०५ ) बळी सरखावो -षड्दर्शनसमुच्चय, मूळ श्लोक ४१.
१० ब्रह्मबिन्दूपनिषद् ( आनन्दाश्रम मुद्रित, पृ. ३३८ ) मां बीजो पाद ' भूते भूते व्यवस्थितः ' आ प्रमाणे छे, अने यशस्तिलक चम्पू ( निर्णयसागर - मुद्रित, पृ. २७३ - उत्तर भाग ) मां बीजा अने त्रीजा पादनो पाठ - देहे देहे व्यवस्थितः । एकधानेकधा चापि –' आ प्रमाणे छे. वळी, शीलांकाचार्यनी आचारांगसूत्र टीका ( आगमोदय मिति मुद्रित, पृ. १८ ) अने सूत्रकृतांग सूत्र टीका ( आ. स. मु. पृ. १९ ) मां पण आ श्लाक उद्धृत छे.
११. उपनिषद्मां ' भव्यं ' पाठ उपलब्ध थाय छे.
+ प्रो. ल्यूमन आ शब्द उपर एक नीचे प्रमाणेनी खास नोंध करे छे: “ केटलाक प्रसिद्ध उपनिषदोमांथी जैन विद्वानो लीलां आ अवतरणो सैकाओ सुधी बहु ध्यान खेचाया वगर ज लखातां आवतां हृतां अने तेथी जैनोए करेली तेमनी नोधर्मा स्वभाविकरीते ज केटलीक भूलो थएली छे. उदाहरण तरीके२१ मानुं द्मि तथा ७२ नुं अवतरण. "आमांना प्रथम मिं शब्द ऊपरनी नोटमां ते लखे छे के -" वर्तमानमा वैदिक वाध्ययना हस्तलिखित ग्रन्थोमां अनुस्वार माढे जे चिन्ह वपराय छे, ते ८ मा सैका अगर तेनी पहेला
अक्षर जे देखा हशे अने तेथी वैदिक चिन्हथी अजाण एवा जैन ग्रन्थकारोए तेने एक खास शब्द मानी लीलो लागे छे. अने तेथी तेणे 'पुरुष एवेदं सर्व ' ए असल वाक्यमां मिं शब्द वधारी 'इद' ना 'द' उपर बीजो अनुस्वार चढावी दीघो होय एम जणाय छे. " प्रो. ल्युमननी आ नोंध अमने जरा विचारणीय लागे छे. लिपिभेदना ज्ञानना अभावे एवी भूलो थवी जो के घणी संभवित मात्र ज नथी पण सुज्ञात छे. दाखला तरीके जैन लिपिमां 'ग' अक्षर ने
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अंक १]
२,५० ( १५९८ ). १६
२,९५ ( १६४३ ).
प्रो. ल्युमन अने आवश्यक सूत्र
यजति यन्नैजति यद्दूरे यद्वान्तिके । यदन्तरस्य सर्वस्य यदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ॥ १२ - वाजसनेयी संहिता ४०, ५.
peo
[ तथा ] श्रुतौ [ अपि ] उक्तं
अस्तमिते आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते शान्तेऽनौ शान्तायां वाचि किंज्योतिरेवायं पुरुषः ? 'आत्मज्योतिः सम्राडि' ति होवाच ।
—बृ. आ. उप. ४, ३, ६, आमांना केंटलांक वाक्यो ए ज उपनिषद्ना ४, ३, २ मां पण आवे छे. भाष्यनी मूळ गाथा २, ५० मां पण आ अवतरण अनुवादित छे.
( स सर्वविद् यस्यैवा महिमा भुवि दिव्ये । ब्रह्मपुरे ह्येष व्योम्न्यात्मा सुप्रतिष्ठितः ॥ ' -मुण्डकोपनिषद्, २, २,५. पूर्वार्ध. तमक्षरं वेदयतेऽथ यस्तु स सर्वज्ञः सर्ववित् सर्वमेवाविवेश || - प्रश्नोपनिषद्, ४, ११. उत्तरार्ध. एकया पूर्णाहुत्या सर्वान् कामानवाप्नोति । - सरखावो, तै० ब्रा० ३, ८, १०, ५.
१४
१५
बदले घणा भागे जूना लहिआओ 'प्र' आंबा रूपमां लखता. ए रूपने बराबर न समजवाथी प्रो. वेबरे बर्लिन लाईब्रेरीना म्येनुस्क्रिप्टस् केटलॉगमां ' समुग्गय ' जेवी शब्दोनी रोमन जोडणी : ' Samugrya ' आवी खोटी करी घणो घोटाको उभो कयौं छे. एवी ज रीते बीजा विद्वानोना हाये पण भ्रम थई शके ते स्पष्ट छे. पण अमने अहिं बीजी रीते ए नोध विचारणीय लागे छे; अने ते ए छे के आवश्यकटीका कर्ता हरिभद्रसूरिने वैदिक साहित्य के तेना संकेतथी अपरिचित मानी शकाय तेम नथी. कारण के ते पोते जैन दीक्षा लीघा पहेला जातिए ब्राह्मण अने विद्याए सर्वशास्त्र निष्णात हता, ए सुविश्रुत छे भने जो ते वात बाजुए मूकिए तो पण तेमणे जुदा जुदा दर्शनो अने मतोना विषयमा जे अनेकानेक अपूर्व अने गहन प्रन्यो लख्या छे; तेम ज सांख्य, वेदांत, न्याय, मीमांसा आदि वैदिक संप्रदायोनी जे खूब सूक्ष्म रीते आलोचना - प्रत्यालोचना करी छे ते जोतां स्पष्ट जणाय छे के तेओ वेद, ब्राह्मण, सूत्र, स्मृति भने उपनिषदोना घणा फंडा अभ्यासी अने ज्ञाता हृता. तेथी तेमना जेवा विद्वान् आवा आंबाल-प्रसिद्ध अनुस्वारना चिन्हने न समजी शके अने तेने कांई बीजुं ज कल्पी ले, ए मानवुं बिल्कुल अशक्य छे. हरिभद्रसूरि आ शब्द ' निं' कहे छे अने एने वाक्यालंकार रूपे उक्त वाक्यमां वपराएलो लखे छे.- ( मिमिति वाक्या लंकारे - आवश्यकसूत्र, आ. स. पू. २४४ ) वर्तमान उपनिषदोमां पण पाठ-मेद अने पाठ-फेर क्या ओछ पलाछे जेथी आपणे जैन विद्वानोना आवा पाठान्तरोने एकदम भ्रमोत्पन्न कही शकिए.
१२. ईशावास्योपनिषद्मा पण आ श्रुति आवेली छे अने त्यां 'यद्' ना ठेकाणे सर्वत्र 'तद्' पाठ मळे छे.' १३. उपलब्ध उपनिषद्मा वर्तमान पाठ आ प्रमाणे छे:
यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्यैष महिमा भुवि । दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठितः ॥ १४. वर्तमान पाठ आ प्रमाणे
तदक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य स सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेशेति ।
-- हरिभद्रसूरिंए शास्त्रवार्तासमुच्चय, ६२४, मां पण आ अवतरणो सूचवेल छे ( मुद्रित पृ० ३८५ ). १५. हरिभद्रसूरिए पोतानी ललितविस्तरा नामे चैत्यवन्दनवृत्ति ५-११ ( मुद्रित पृ० १११ ) मां पण आ अवतरण उरेल छे, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३, ८, १०, ५, मां आने मळती हकीकतनो आ प्रमाणे उल्लेख आवेलो :
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८] जैन साहित्य संशोधक
[संड एष वः प्रथमो यज्ञो योऽमिष्टोमः, योऽनेनानिष्ट्वाऽन्येन यजते, स . गर्तमभ्यपतत् ।
- ताज्यमहाब्राह्मण १६, १, २. द्वादश मासाः संवत्सरो
-तै० सं० ५, २, ५.५. अमिरुष्योअग्निहिमस्य भेषजं-१७
- वा० स० सं० २३, १०-० सं०७,४,१८,२. २.१.१ (१६४९). ३२
सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष
ब्रह्मचर्येण नित्यस् । ज्योतिर्मयो हि शुद्धो
यं पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मानः ॥ -मुण्ड० उ० ३, १, ५. हेमचन्द्र वळी २, १३७ मी गाथानी टीकामां पण आ
अवतरण टांके छे. २, १२६ (१६७४).
(एक विज्ञानसन्ततयः सत्त्वाः । [ यत् सत् तत् सर्व क्षणिकम् ]).९ ।
([क्षणिकाः सर्वसंस्काराः ])२०-आ वाक्य अभयदेवरिए भगबती सूत्रनी टीका ३०, १ मां तथा मलयगिरिए मन्द्रिसूत्रनी टीकामां पण टोकेलं छे. वळी जुओ षड्दर्शनसमुच्चयनी गुणरत्नकृत टीका १.
स्वप्नोपमं वै सकलमित्येष ब्रह्मविधिरञ्जसा विज्ञेयः । २,१४१ (१६८९)..
यावा पृथिवी । पृथिवी देवता [ आपो देवता]--शीलांकाचार्य आ अवतरण आ
पछीनी गाथामा मापे छे.. २,२१४ (१७७२ ). ५' पुरुषो वै पुरुषत्वमथुते, पशवः पशुत्वर । -हेमचंद्र आ अवतरण
यो दीक्षामतिरेचयति । सप्ताह प्रचरन्ति । सप्त वैशीर्षण्याः प्राणाः । प्राणा दीक्षा । प्राणैरेव प्राणी , पूर्णाहुतिमुत्तमा जुहोति । सर्व वै पूर्णाहुतिः । सर्वमेवाप्नोति । अथो इयं वै पूर्णाहुतिः । अस्यामेव प्रतितिष्ठति।
१६. भाखं वाक्य मा प्रमाणे छे:-'द्वादश मासाः संवत्सरः संबस्सरेणैवास्या अन्नं पचति यदमिचित् ।' १७. पूरुं अवतरण आ प्रमाणे-'सूर्य एकाकी चरति चन्द्रमा जायते पुनः । अमिर्हिमस्य भेषजं भूमिरावपनं माता १७. उपनिषदमा उपलब्ध पाठाप्रमाणे छ
सत्येन लभ्यस्तपसा घेष आत्मा सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम ।
अन्तः शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः ।। १९. द्रष्टव्य-चन्द्रप्रभसारिकृत प्रमेयरत्नकोष ८, पृ. ३० ।-महापण्डित रत्नकीर्तिकृत क्षणभङ्गसिद्धिप्रकरण (बिब्लिओयिका इण्डिका) पृ० ५४, मा आ वाक्य 'यत् सत् तत् क्षाणकम् ' आप्रमाणे छ.बळी, जुओ रत्नप्रभात रत्नाकरावतारिका परिच्छेद ५.(यशोविजय जैनग्रन्थमाला मुद्रित, पृ. ७६) .. २०. ए भाखो श्लोक आ प्रमाणे -
क्षणिकाः सर्व संस्कारा अस्थितानां कुतः क्रिया । भूतिया क्रिया सैव कारकं सैव चोच्यते ॥
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૫ ૨
*क १]
प्रो. न्युमन अने आवश्यक सूत्र. २, २५२-बालू गाथा १८००-मां पण आपे छे. शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते ।
मा अवतरण वळी आगळ २, २५२-चालू गाथा १८००-.
नी टीकामा आवे छे) तथा मूळ भाष्य २, २५२ मा पण सूचित छे. २, २५२ ( १८०० ). [(अमिष्टोमेन यमराज्यमभिजयति।)]
--मैन्युपनि० ६, ३६. २, २५६ ( १८०४ ).६'
स एष विगुणो विभुर्न बद्धयते संसरति वा, न मुच्यते मोचयति वा । -सरसावो सांख्यकारिका ६२. न वा एष बाह्यमभ्यन्तरं वा वेद ।
-सरखावो, बृहदारण्यकोपनिषद् ४, ३, २१. २,३१८ (१८६६ )... . स एष यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्गलोकं गच्छति ।
-शतपथ ब्राह्मण १२, ५, २, ८. वळी शीलांकाचार्य आगळ २,४०३चालू गाथा१९५१-नी टीकामा पण आ अवतरण ले छे.
अपास सोमास् , अमृता अभूम, अगमन् ज्योतिः, अविदास देवान् । किं नूनमस्मान् तृणवदरातिः,
किमु धार्तरमृत मर्त्यस्य । ऋग्वेद संहिता ८, ४८, ३, तथा अथर्वशिरा उपनि० ३.२१
[को जानाति मायोपमान् गीर्वाणान् इन्द्र-यम-वरुण-कुबेरादीन् ?]बी २, ३३४-चाल गाथा १८८२-नी टीकामा पण आ
अवतरण छे. २, ३३५ (१८८३). (उक्थ-षोडाश-प्रभृति-ऋतुभिः यथाश्रुति यम-सोम-सूर्य-सुर
मुरुस्वाराज्यानि जयति ।।
-सरसावो, मैत्र्युपनिषद्, ६, ३६. महीं मूळ भाष्यमा आ अवतरण अनुवादित छे. २२
[(इन्द्र आगच्छ मेधातिथे मेषवृषण)] -तैत्तिरीय आरण्यक १, १२,३; शतपथ ब्राह्मण ३,३, ४, १८. (आलुं वाक्य
आ प्रमाणे-'इन्द्रागन्छ हरिव आगच्छ मेधातिथेः। मेष वषणस्य मेने।') २, ३३९ (१८८७). ८. [नारको वै एष जायते यः शूद्रानसश्नाति । २१. उपनिषदमा वर्तमान पाठ नीचे प्रमाणे छे
अपाम सोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान् ।
किमस्मान्कृणवदरातिः किमु घर्तिरमृतं मत्यै च ॥ --आनन्दाश्रम मुद्रित, पृ० १०) २२. उपनिषदमा मा बाबतना नीचे प्रमाणे उल्लेख मळे छे–'अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामो यमराज्यममिष्टोमेनाभियजति सोमराज्यमुक्थेन, सूर्यराज्यं षोडशिना, स्वाराज्यगतिरात्रेण, प्राजापत्यमासहरूसंवत्सरान्तकतुनेति ।'आनन्दाश्रम मुदित, पृ० ४५७.
१२
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९०]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
न ह वै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ति ।।] २, ३६० ( १९०८).
(केनाञ्जितानि नयनानि मृगाकानानां को वा करोति विविधाारुहान् मयूरान् । कश्चोत्पलेषु दलसन्निवयं करोति को वा दधाति विनयं कुलजेषु पुस्सु ॥)२ सरसावो, अश्वघोषकृत बुद्ध चरित, कॉवेलसंपादित पृ. ७७. पुण्यः पुण्येन [ ( ाणा) पापः पापेन कर्मणा]
-बृह • आ० उप०४, ४, ५.हेमचंद्रसूरि आ अवतरण २,९५-चाव
गाथा १६४३-नी टीकामा ले छे. २,४०३ ( १९५१). १२१०२ सवै अयमात्मा ज्ञानपयः । -बृ० मा० उ० ४, ४, ५. २, ४२६ ( १९७४ ) ११ जरामयं वा एतत्सर्वं यदग्निहोत्रम् ।।
तै. आ० १०,६४.महा. ना. उप० २५.वळी हेमचन्द्र गाथा २,४७५-चालू गा. २०२३-नी टीकामा पण आ अवतरण ले छे.
द्वे ब्रह्मणी [ वेदितव्ये ] परमपरं च [तत्र परं सत्यम्; ज्ञानानन्तरं ब्रह्म ] -सरखावो, मैत्र्युपनिषद् ६, २२; ब्रह्मबिन्दूपनिषद् १७.
( सैषा गुहा दुरवगाहा) २, ४२७ (१९७५). (यथाहुः[सौगतविशेषाः केचित् तद् यथा]
दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्ष ।
११२
२३. हेमचन्द्रसूरि,गाथा १६४३नी टीकामां, आ पद्यगत भावने जणावनारा नाचे प्रमाणेना त्रण श्लोको आपे छ
सर्वहेतुनिराशंसं भावानां जन्म वर्ण्यते । स्वभावादिभिस्ते हि नाहुः स्वमपि कारणम् ।। राजीवकण्टकादीनां वैचित्र्य कः करोति हि । मयूरचन्द्रिकादिर्वा विचित्रः केन निर्मितः ॥
कादाचित्कं यदत्रास्ति निःशेषं तदहेतुकम् । यथा कण्टकतैक्षश्यादि तथा चैते सुखादयः ॥ -सूत्रकृतामसूत्रनी टीकामां शीलोकाचार्य (मुद्रित पृ. २१ आ. स.) आवी ज मतलबवाळो एक अन्य श्लोक आपे छ
___कण्टकस्य च तीक्ष्णत्वं, मयूरस्य विचित्रता । वर्णाश्च ताम्रच्डाना, स्वभावेन भवन्ति हि ॥
२४. आचारागसूत्रनी टीकामां शीलांकाचार्य (आ. स. मु. पृ. १७) आ उपरना पचनी साथे अश्वघोषवाळू पद्य तथा एक त्रीजु पण अन्य पद्य भापे छे. यथा
'कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्षण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां च ।
स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः॥'-(बुद्धचरित. ९-५२) स्वभावतः प्रवृत्तानां निवृत्तानां स्वभावतः । नाहं कतैति भूतानां, यः पश्यति स पश्यति ॥
-शान्त्याचार्य उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २५ मानी टीकामां आ अने बाजा केटलांक अवतरणो ( उदाहरणार्थ भगवदूगीता १८,४२) उध्दत करेला छेतेम ज आवी ज जातनां बीजां पण केटलांक अवतरणो (उदाहरणार्थ-महानारायणोपनिषद १०,५: कैवल्य उ०२, अने वाजसनेयी संहिता ३१, १८-श्वेताश्वतरोपनिषद् ३,८) तेमणे अध्ययन १२, गाथा ११-१५ नी टीकामा आपेला छे.
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अंक १]
प्रो.ल्युमन अने आवश्यकसूत्र.
दिशं न काश्चिद् विदिशं न काञ्चिन् स्नेहक्षयात् केवलति शांतिः । जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युत्तो नैवावनिं गच्छति नान्तरिम । दिशं न काचिद् विदिशं न काश्चित् क्लेशयात् केवळसेति शांतिम् ॥
- यशस्तिलक चम्पू ६, १ मां पण आ श्लोको आपेला छे. पण त्या
चरणव्यतिक्रम थएलो नजरे पडे छे. एक अवतरण वळी आवेलुं छे जे ऊपरना १' वाळा अवतरण साथे संबन्ध धरावतुं होय तेम जणाय छे, अने हेमचन्द्रना लखवा उपरथी ते कोई उपनिषद्नी टीकापांनुं (उदा० बृहदारण्यक उपनिषद् ) होय तेम मालुस पडे छे. जिनभद्र गळां ते आ प्रमाणे नोंधे छे.
४०. गोयम, वेय-पयाणं इमाणमत्थं च तं न याणास।
जं विन्नाणघणो च्चिय भूएहितो समुत्थाय ॥ ४१. मन्नास मज्जंगेसु व मयभावो भूय-समुदय-भूओ।
वित्राणमत्तं आया भूएऽणु विणस्सइ स भूओ ॥ ४२. अस्थि न य पेच्चसन्ना जं पुव्वभवेऽभिहाणं 'असुगो' त्ति।
जं भणियं न भवाओ भवन्तरं जाइ जीवो त्ति॥ छेवटनी गाथासांना वाक्य उपर हेमचन्द्र आ प्रसाणे टीका करे छ-'क्रिमिह वाक्ये तात्पर्यवृत्त्या प्रोक्तं भवति-इत्याह-सर्वथात्मनः समुत्पद्य विनष्टत्वात् न भवान्तरं कोऽपि यातीत्युक्तं भवति ।' ज्यारे शीलांक पोतानी हमेशनी विरल-व्याख्यापद्धति प्रमाणे एटलं ज लखे छे के-' एवं न भवाद् भवान्तरमस्तीत्युक्तं भवति'
विशेषावश्यक २, २२६ मां वनस्पति अने प्राणी विद्या संबंधी अन्धविश्वास सूचवनारां एक -बे अवतरणो आवे छे, ते पण हुं आनी पूरवणी रूपे अहीं नोंधी लेवा इच्छु छु. ए अवतरणोनो विषय, सदृशमांथी सदृशनी ज उत्पत्ति थई शके, एवो कोई निया नथी; ए छे एना उपर टीकाकारे खूब विवेचना करी छे. ए अवतरण वाळी गाथाओ आ प्रमाणे छः
२२६. जाइ सरो संगाओ भूतणओ सासवाणुलित्तायो ।
संजायइ गोलोमाविलोम-संजोगओ दुव्वा ॥ २२७. इति रुक्खाउव्वेदे, जोणिविहाणे य विसरिसेहितो।
दीसह जम्हा जम्मं, सुधम्म, तं नायमेगन्तो। सरख वो, पंचतन्त्र श्लोक १, १०७. ए ठेकाणे कविसंप्रदायनी पद्धति बाद करतां ऊपरना अन्धविश्वासवाळा अवतरणमांनी त्रीजी हकीकतनो उल्लेख करेलो छे -जेाके 'दुर्वा पि गोलोमतः'। आ अवतरणमांनी पहेली हकीकत के 'शृंगपांथी शर उत्पन्न थाय छे' तेनो उल्ले व वार्ताना रूपमा एक प्रत्येकबुद्धनी कथामां आवे छे. त्यां जणाव्या प्रमाणे एक शबनी खोपरी, आंख अने मोढातांथी वांसना त्रण फणगा नीकळ्या हता. आ गाथामां जे योनिविधान शब्द आलो छ तेनो अर्थ टीकाकारे लख्या प्रमाणे ' योनिप्राभृत' छे अने ए नाप एक ग्रन्थन छ जे पूनाना केटलॉगपां नं० १६, २६६; तथा २१, १२४२ मां नोंघेलो छे.
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जैन साहित्य संशोधक.
[खंड २
स्वाध्याय-समालोचन ___ आगरे के श्रीआत्मानन्द पुस्तक प्रचारक मंडलने एक महत्त्वके प्रन्थका प्रकाशन किया है। इसका नाम है पातञ्जल योगदर्शन | यों तो पातञ्जल योग्दर्शन के अनेक संस्करण, अनेक स्थानोंसे, अनेक रीति और अनेक भाषाओंमें प्रकट हो चुके हैं लेकिन हम जो इस संस्करणको महत्त्वका कहते हैं उसका खास कारण यह है कि इस संस्करणमें जो व्याख्या प्रकट हुई है वह संस्कृतसाहित्यके ज्ञाताओके लिये एक विशेष वस्तु है । पातञ्जल योगदर्शन एक वैदिक संप्रदाय है । ब्राह्मण संप्रदायके जो छ दर्शन गिने जाते हैं उनमें इसका विशिष्ट स्थान है । सांख्य और योग ये दोनों दर्शन
युगलरूपसे व्यवहृत होते हैं और सब दर्शनोंमें प्राचीन हैं । असलमें सांख्य दर्शनका ही एक विशेषरूप योग दर्शन है । सांख्य दर्शनमें ईश्वर स्वरूप किसी व्यक्ति या तत्त्वका अस्तित्व नहीं माना जाता
और योगदर्शनमें उसको आश्रय दिया गया है-इतना ही इनमें मुख्य भेद है । जैन और बौद्ध दर्शनमें ऐसे अनेक तत्त्व और सिद्धान्त हैं जो सांख्य और योग दर्शनके तत्त्व और सिद्धान्तोंके साथ समता रखते हैं। इस लिये बहुत प्राचीन कालसे जैन और बौद्ध विद्वानोंको सांख्य और योग दर्शनके अध्ययन और मननका परिचय रहा है । इसी परिचयका उदाहरण स्वरूप यह प्रस्तुत प्रन्थ है । इस प्रन्थमें पातञ्जल योगदर्शनके सूत्रों पर जैन धर्मके एक अति प्रसिद्ध और महाविद्वान् पुरुषने व्याख्या लिखी है वह प्रकट की गई है । ब्याख्याकार है न्यायाचार्य महोपाध्याय श्रीयशोविजय गणी । इस व्याख्यामें महोपाध्यायजीने पातञ्जल योगसूत्रोंका जैन प्रक्रियाके अनुसार अर्थ किया है । व्यासकृत रूळ भाष्यके विचारोंके साथ जहां जहां अपना मतभेद मालूम दिया वहां उपाध्यायजीने बडी गंभीर भाषामें अपने विचारका समर्थन और भाष्यकारके विचारोंका निरसन किया है और यही इस व्याख्याकी खास विशिष्टता है।
इस प्रन्थका संपादन विद्वद्वर्य पं सुखलालजीने किया है । जहां तक हम जानते हैं, जैन साहित्यमें अभी तक कोई तात्विक ग्रंथ ऐसी उत्तम रीतिसे संपादित हो कर प्रकट नहीं हुआ। प्रन्थके महत्त्व और रहस्यको समझानेके लिये पंडितजीने परिचय, प्रस्तावना और सार इस प्रकारके तीन निबन्ध हिन्दी भाषामें लिखकर इसके साथ लगाये हैं जिनके पढनेसे, एक प्रन्थके पूर्ण अभ्यासके लिये जितने अंतरंग और बाह्य प्रश्नोत्तरोंकी आवश्यकता होती है, उन सबका ज्ञान पूरी तरहसे हो जाता है । परिचय नामक निबन्धमें, पंडितजीने योगसूत्र, योगवृत्ति, योगविंशिका आदिका परिचय कराया है और प्रस्तावनामें जैन और योगदशनकी तुलना तथा तद्विषयक साहित्यका विवेचन किया है । यह प्रस्तावना कैसी महत्त्वकी और कितने पांडित्यसे भरी हुई है इसका खयाल तो पाठकोंको इसके पढने ही सं आ सकता है और इसी लिये हमने इस सारी प्रस्तावनाको इसी अंककी आदिमें उध्दृत की है। _ इस पुस्तकमें योगदर्शनके सिवा एक योगविंशिका नामका प्रन्थ भी सम्मिलित है जो मूलहरिभद्रसूरिका बनाया हुआ है और उस पर टीका सइन्हीं यशोविजयजीने की है । जैन दर्शनमें 'योग' को क्या स्थान है और उसकी क्या प्रक्रिया है यह जानने के लिये यह योगविंशिका बहुत ही उपयोगी है।
पुस्तके अंतमें योगसूत्रवृत्ति और योग विंशिकावृत्ति का हिन्दी सार दिया है जिससे संस्कृत न जानने वाले भी इन प्रन्थगत पदार्थोंको सरलतासे समझ सकते हैं । इस पुस्तकका ऐसा उपयुक्त संस्करण निकालनेके लिये संपादक महाशय पं. सुखलालजी तथा मंडलके उत्साही संचालक श्रीयुत. बाबू दयालचंदजी-दोनों सज्जन विद्वानोंक विशेष धन्यवादके पात्र हैं।
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जैन साहित्य संशोधक ग्रंथमाळा
अध्यापक कॉवेल लिखित
प्राकृत व्याकरण-संक्षिप्त परिचय
संपादक मुनि जिनविजयजी
( आचार्य-गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर-अमदाबाद )
( जैन साहित्य संशोधक-खण्ड २, अंक १-परिशिष्ट )
प्रकाशक
जैन साहित्य संशोधक कार्यालय
भारत जैन विद्यालय-पूना शहर.
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निवेदन
આ પ્રાકૃત વ્યાકરણ સંક્ષિપ્ત-પરિચય, કેમ્બ્રીજ યુનિવર્સિટીના એક વખતના સસ્કૃતના અધ્યાપક અને એડીનમર્ગ યુનિવર્સિટીના નરરી એએલ. ડી. શ્રી ઈ. મી. કૉવેલે લખેલા
A SHORT INTRODUCTION TO THE ORDINARY PRAKARIT OF THE SANSKRIT DRAMAS નામના નિષધના અવિકલ ગુજરાતી અનુવાદ છે. જેમને સસ્કૃત ભાષાના સાધારણુ અભ્યાસ હોય અને જે પ્રાકૃત ભાષાના ટુક પરિચય કરવા માંગતા હોય તેમને આ નિમ'ધ ઘણા મદત કર્તા થઈ પડે એવા જણાયાથી, આ રૂપમાં પ્રકટ કરવામાં આવે છે. આ નિમ`ધ મૂળ સન્ ૧૮૫૪ માં મજકુર પ્રેસરે વરચિત પ્રાત પ્રારા ની જ્યારે પ્રથમ આવૃત્તિ મ્હાર પાડી હતી તેની પ્રસ્તાવના રૂપે લખ્યા હતા. અને પછી ૧૮૯૫ માં કેટલાક સુધારા-વધારા સાથે, લંડનની TRUBNER and Co. એ એક પુસ્તિકાના રૂપમાં અને જૂદો છૂપાવ્યેા હતા. એ પુસ્તિકા આજે દુલભ્ય હાઈ બ્રુકસેલરા તેની ૩-૪ રૂપિઆ જેટલી કિમત લે છે. તેથી ગુજરાતી ભાષાભિજ્ઞ વિદ્યાથીઓને આ નિબંધ સુલભ થઈ પડે તેવા હેતુથી આ પત્રના પરિશિષ્ટ રૂપે પ્રકટ કરવામાં આવે છે. આશા છે કે સશેાધકના વાંચનારાઓને તેમજ અન્ય તેવા અભ્યાસિઆને આ પ્રયાસ ઉપયાગી થઈ પડશે.
જ્યેષ્ઠ પૂર્ણિમા, ૧૯૭૯
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–સપાદક
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अध्यापक कॉवेल लिखित
प्राकृत व्याकरण - संक्षिप्त परिचय
ઈ. સ. પૂર્વેના સૈકાઓમાં, ભારતવષ'માં સ`સ્કૃત ભાષામાંથી અપભ્રષ્ટ થઈને કેટલીક ભાષા ( ખેલીઓ ) ઉત્પન્ન થઈ જેને સાધારણ રીતે પ્રાકૃત કહેવામાં આવે છે. આ ભાષાઓની શેાધ ખેાળના વિષય ભાષાશાસ્ત્રીને તેમજ ઇતિહાસ લખકને ઘણેા રસ આપી શકે તેમ છે. હાલની પ્રચલિત ભાષાઓ અને મહા સ`સ્કૃત વચ્ચે સ`ખ'ધ જોડી શુ'ખલાનું કામ અનાવનાર આ પ્રાકૃત ભાષાઓનું (અને ખાસકરીને ‘ પ્રાકૃત ’ નામક ભાષાનું) જ્ઞાન હાલમાં વપરાતાં કેટલાંક રૂપે સમજવાને ઉપયાગી છે એટલુ જ નહિ, પરંતુ તે ભાષાસંધની એક ઇંડા-યુરોપીઅન શાખાના ઇતિહાસમાં પ્રકાશ પાડે છે, તથા લૅટીનમાંથી ઉત્પન્ન થએલી આધુનિક ઈટાલીઅન અને ફ્રેંચ ભાષાઓ સરખાવતાં જે સ્વરમાધુય નું આપણને ભાન થાય છે તે માધુના નિયમાના અનુપમ દ્રષ્ટાંત પૂરાં પાડે છે. તદુપરાંત મજા ઘણા રસાત્પાદક ઐતિહાસિક પ્રશ્નને સાથે પ્રાકૃત ભાષાના નિકટના સબ`ધ છે. સલાનના આàાનાં તથા ભારતવના જૈનાનાં ધમ પુસ્તકોની ભાષા પ્રાકૃતનાં ભિન્ન ભિન્ન રૂપે છે; અને ખરેખર બ્રાહ્મણ્ણાની સસ્કૃતના વિરોધ દર્શાવીને જનસમાજના હૃદય ઉપર સચેાટ અસર કરવા માટે ઐાદ્ધ ગ્રંથામાં પાલિ ભાષાના ઉપયાગ કરવામાં આવ્યા છે. જ્યારે અલેકઝાન્ડરના આધિપત્ય તળે ગ્રીક લેાક ભારતવષ ના સબંધમાં આવ્યા ત્યારે પ્રાકૃત ભાષા જનસમાજમાં પ્રચલિત હશે. જેમાં ઈ. સ. પૂર્વે લગભગ ૨૫૦ વના ઍન્ટીઆકસ અને બીજા ગ્રીક રાજાઓનાં નામા આવ છે એવા અશેાક રાજાના શિલાલેખાની ભાષા પણ એક જાતની પ્રાકૃતજ છે; તે જ પ્રમાણે એન્ટ્રીયાના ગ્રીક રાજાના વૈભાષિક સિક્કા ઉપર પણ પ્રાકૃત ભાષા લખેલી જોવામાં આવે છે. જુના હિંદુ નાટકામાં પણ આ ભાષાઓના હિસ્સા આછા નથી કારણુ કે તેમાં મુખ્ય નાયકા સંસ્કૃતના ઉપયાગ કરે છે, પણ સ્ત્રીઓ અને સેવકા જુદી જુદી જાતની પ્રાકૃત ભાષા વાપરે છે, જેમાંના પરસ્પર ફેરફારા બાલનારની કક્ષાપ્રમાણે, સ્વરમાધુય ના નિયમનુ' અનુસરણ કરે છે.
વૈય્યાકરણા ‘ પ્રાકૃત ’ શબ્દને તેઃ મય દત્ત એમ જણાવી પ્રવૃતિ એટલે સ'સ્કૃત સાથે સબધ જોડે છે. આ વિષયમાં હેમચંદ્રે નીચેપ્રમાણે જણાવ્યું છે: પ્રવૃતિ સંત તત્ર સર્વ સત્ત આગત યા માતમ્। પણ મૂળ તેના અથ · સાધારણુ ' અગર ‘અસસ્કારી એવા હરશે, કારણુ કે મહાભારતમાં એક સ્થળે બ્રામ્હણાના ધિક્કાર કરવા નહિ એમ જણાવી લખ્યુ` છે કેઃ—
दुर्वेदा वा सुवेदा वा प्राकृताः संस्कृतास्तथा ॥
લભગલ આધુનિક વૈય્યાકરણા ‘ પ્રાકૃત ’ નામ તળે ઘણી ભાષાઓના સમાવેશ કરે છે, પરંતુ તેમાંની ઘણી ખરી પાછળથી થયેલાં ક્ષુલક રૂપાંતરા માત્ર છે. જેમ જુના વૈય્યાકરણ તેમ તેના ગ્રંથમાં ઘેાડી પ્રાકૃત ભાષા. તેજ પ્રમાણે ઘણા પુરાણા વૈય્યાકરણ વરરૂચિએ ફક્ત ચાર જ પ્રાકૃત ભાષાઓનું વિવેચન કર્યું છે, જેવી કે મહારાષ્ટ્રી, વૈશાચી, માગધી, અને શારસેની. આમાંથી પહેલી એટલે મહારાષ્ટ્રી ભાષાને તેણે વિશેષ મહત્ત્વની ગણી છે; તથા đસન સાહેબે પણ પાતાના
૧. પૈશાચી ભાષા ખાસ ઉપચેગી છે કારણકે વૃત્તથા તે ભાષામાં લખાયલી છે.
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૨] અધ્યાપક કોલ લિખિત
[ ખંડ ૨ ઈન્સ્ટીટ્યુશન્સ' નામના લેખમાં તેને જ મુખ્ય ગણી છે. વરરૂચિના પ્રાકૃત પ્રકાશમાં પ્રથમ નવ પ્રકરણમાં તેનું વ્યાકરણ આપવામાં આવ્યું છે, અને બાકીનાં ત્રણ પ્રકરણમાં બાકીની ત્રણ ભાષાએની વિશિષ્ટતા જણાવી છે.
મૃચ્છકટિક નાટકમાં પ્રાકૃત ભાષાઓનું એક વિચિત્ર મંડળ ભેગું કરવામાં આવેલું છે જેથી કરીને તે નાટક ઉપગી પ્રાકૃત રૂપની ખાણ બન્યું છે. વળી, વિક્રમોર્વશીના ચોથા અંકમાં પુરુરવા રાજાના આત્મપ્રલાપની ભાષા તદ્દન ભિન્ન જ છે, અને એક જાતની કાવ્યમાં વપરાતી અપભ્રંશ ભાષા છે, જેને આધુનિક વૈયાકરણે મળ પ્રાકૃતથી, ઘણુંજ જુદી ગણે છે. આ અપવાદ સિવાય સંસ્કૃત નાટકમાં–ગદ્યમાં શૈરસેની, અને પદ્યમાં મહારાષ્ટ્રી,- સાધારણ પ્રાકૃત જ વ૫રાય છે. આ બન્ને માટેના નિયમો સરખાજ છે, પરંતુ ગદ્યમાં વપરાતી ભાષા કેવળ વ્યંજન ઉડાડી દેવામાં થોડી છૂટ લે છે, તથા ધાતુ અને પ્રાતિપદિકનાં કેટલાંક રૂપ તેનાં પિતાનાં ખાસ હોય છે, જે નીચે જણાવવામાં આવશે. તે પણ નાટકની ભાષા, ખાસ કરીને ગદ્યમાં, વરરૂચિના નિયમથી ઘણું વાર વિરૂદ્ધ જાય છે.
આ લઘુ વ્યાકરણ નાટકમાં વપરાતી સાધારણ પ્રાકૃત માટે ખાસ કરીને બનાવવામાં આવ્યું છે. ખરેખર, અત્યાર સુધી પદ્યાત્મક પ્રાકૃતનાં ઘણું ઉદાહરણે જાણવામાં ન હતાં; ફક્ત નાટકમાં તથા અલંકારના ગ્રંથમાં આવેલાં પ્રાકૃત પદ્યનાં ચેડાંક નમુનાઓ જણાયા હતા પણ છે. વેબરે હાલકવિના સપ્તશતકનો કેટલોક ભાગ છપાવ્યું છે જેને લીધે મહારાષ્ટ્ર ભાષાનું મેટું ક્ષેત્ર ખુલ્લું થયું છે. તે કાવ્યમાં પ્રાકૃતના અભ્યાસને માટે ઘણી ઉપયોગી એવી આય એ છે પરંતુ મારા પ્રસ્તુત કાર્ય માટે તે બહુ ઉપયોગી નહિ હોવાથી મેં આ લેખમાં તેમને ઉપગ બહુજ થે કર્યો છે. તે પણ પરિશિષ્ટમાં હાલકવિની દશેક આયાઓ મેં આપી છે.
વિભાગ ૧ લભભગ સર્વથા સંસ્કૃત શબ્દમાં કેટલાક ફેરફાર કરીને અને કેટલાક અક્ષરો ઉડાડીને પ્રાકૃત રૂપે સિદ્ધ થયાં છે. સંસ્કૃતના અણીશુદ્ધ ઉચારને બદલે પ્રાકૃતમાં અસ્પષ્ટ અને અધઉચ્ચાર કરવામાં આવે છે, તથા સંસ્કૃત ભાષાના સ્વભાવની વિરૂદ્ધ જઈને વારંવાર વરસમુહને બાધ કરવામાં આવે છે. નીચેના પ્રકરણમાં, પ્રથમ તે શબ્દના અક્ષરોમાં થતા ફેરફાર વિષે અને, પછીથી, પ્રાતિપાદિક અને ધાતુઓનાં રૂપમાં થતા ફેરફાર વિષે વિવેચન કરીશું.
સ્વર પ્રકરણ પ્રાકૃતમાં , , , છે, સિવાયના બધા સ્તરે સંસ્કૃત પ્રમાણે છે.
કઈ શબ્દમાં પ્રથમ અક્ષર હોય તે તેને રિ થાય છે, જેમ કે ને બદલે ;િ કેટલીક વાર ની પહેલાં વ્યંજન હોય તે તે વ્યંજનને લેપ કરવામાં આવે છે, જેમ કે પારિવા. જે આની પહેલાં વ્યંજન આવ્યું હોય તે અનેક અથવા થાય છે, અને જે તે વ્યંજન ઓષ્ટસ્થાનીય હોય તે ને ૩ થાય છે, જેમ કે સુખ-સ, ત–જામ, –વિદિ, મા, પૃથવી-પુત્રી, પ્રવૃત્તિ-પત્તિ. પરંતુ આવા ફેરફાર શબ્દના પ્રથમાક્ષર માં ભાગ્યે જ થાય છે, તે પણ લિ ( ), (g), ૩૬ (7).
૧. શાન્સના ચોથા અંકમાં ધીવર માગધી ભાષાનો ઉપયોગ કરે છે, તેમજ મુઘલત માં કેટલાંક પાત્રે નિકૃષ્ટ ભાષા વાપરે છે.
. . પચ્ચેલે શિરસેનીવિષે કન્ડના બીટેજ ૩૦૮ માં વિવેચન કર્યું છે. પરંતુ તેમના કેટલાક નિયે અનિશ્ચિત છે.
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પ્રાકૃત વ્યાકરણ-સંક્ષિપ્ત પરિચય. પ્રાકૃત શબ્દમાં જ આવી શકતું નથી, તેથી હુ અન્તવાળા સંસ્કૃત શબ્દનું ષષ્ઠી બહુવચનનું રૂપ અકારાન્ત અથવા રૂકારાન્ત શબ્દો પ્રમાણે થાય છે. વસ નું સ્થિર થાય છે. છે નું શુ અગર = ( કવચિત્ અથવા ૬) થાય છે, જેમ કે રે (), (વૈ૯).
ગૌ નું જ અગર આ૩ (કવચિત્ ૩) થાય છે, જેમ કે શા ( મુવી), gr ( શૈ, હું (લ).
બાકી રહેલા સ્વરમાંથી અને જે સંધિયક્ષર હતા નથી, અને યથાનિયમાનુસાર હરવ યા દીર્ઘ હોઈ શકે.
પ્રાકૃતને એક મુખ્ય નિયમ નીચે પ્રમાણે છે –
મુળ શબ્દમાં જોડાક્ષરની પહેલાં દીઘા સ્વર આવ્યું હોય તે પ્રાકૃતમાં તે સ્વરસ્વ થાય છે, જેમ કે મા, ૬, ૭ નું અનુક્રમે બ, ૬, ૩ થાય છે, (અને એમ જ રહી શકે છે), જેમ કે સાd—અજ, તા-વિશ્વ,
p જ. તેમાં બે પેટા નિયમો નીચે પ્રમાણે છે: (મ) જે પ્રાકૃતમાં પણ દીઘા સ્વર રાખવામાં આવે તે જોડાક્ષરમાંથી એક વ્યંજનને લેપ થાય છે, જેમ કે શ્યા(ા અથવા તિર, વિચ્યા–રા અથવા વિરવતા () જોડાક્ષરની પહેલાં આવેલ સ્વ સ્વર દીઘ થાય છે અને એક વ્યંજનને લેપ થાય છે, જેમ કે વિના , કેઈકવાર જોડાક્ષરની પહેલાંના ને ને બદલે અને થાય છે, જેમ કે પિve–s, સુપ –તો. ઘણી વાર ૧ ની પહેલાંના ને બદલે 9 થાય છે, જેમ કે પર્યન્ત-વન, વિર્ય-, આશ્ચય-- કેટલાક શખમાં પહેલા અક્ષરમાં ૩ નું જ થાય છે, જેમ કે મુર-મક, પુરા અને માલ નું અનિયમિત રૂપ પુરત અને નેશ થાય છે.
આ નિયમિત ફેરફારો ઉપરાંત વ્યાકરણમાં અને પ્રાકૃત લેખમાં, તથા ખાસ કરીને સમશતકમાં કેટલાક સ્વરોના ફેરફારે અનિયમિત રીતે થાય છે જેમ કે સિદ્ધિ-સિકિ અથવા તારિ, કવાત–ઉત્તમ અથવા ઉલ્લાસ, દદ–દ, વિ. સામાસિક શબ્દ કે જેમાં વારંવાર સ્વરો હસ્વ દીર્ઘ થયા કરે છે તથા કેટલીક વાર આખા અક્ષરે લુપ્ત કરવામાં આવે છે તેમાં આવી અનિયમિતતા વારંવાર જોવામાં આવે છે, જેમ કે યમુનાતટ–નાગ અને ઉપઆ અમાર–ગુમાર અને સમાજ, રાજપુટ –ાગર અને કહ્યું, વિરે (સરખા-વા ૨૦ ૪, ૬; બર, સસરા પાત્ર ૩૨, ૩૩.).
૨. કેવી વ્યંજન પ્રકરણ (4). સામાન્ય પ્રાકૃતમાં ર અને જૂ નથી, અને તેમને બદલે જ વપરાય છે. – ની પછી દંત્યાક્ષર ન આવ્યું હોય તે સાધારણું રીતે તેને જૂ થાય છે. શબ્દના આરંભમાં આવેલા
ને થાય છે. સામાન્ય રીતે આટલા નિયમ અપવાદ રૂપે આવે છે [તે પણ, નાટકમાં કેટલીકવાર ૩ળ (પુનઃ ), અ (૪) થાય છે, પરંતુ આવા ફેરફારે વરરૂચિએ સ્વીકાર્યા નથી. વળી, ૩૨૦ ૨, ૩ર-૪૧ માં આવેલા શબ્દ, જે આ પુસ્તકને અંતે આપવામાં આવ્યા છે તે જુઓ].
, એવાં શબ્દ જ્યારે કેટલાક શબ્દના આરંભમાં લગાડવામાં આવે છે ત્યારે તેવા શબ્દોને પહેલી વ્યંજન લુપ્ત થાય છે, જેમ કે પુત્ર–
ગ , સુકુમા–સુરમા. (વ) છેવટના પૂ અને જે અનુસ્વારના રૂપમાં પરિણત થાય છે, તે સિવાયના ખેડા વ્યંજનેને લેપ થાય છે. ઘણી વાર છેવટના અનુસ્વારને લેપ થાય છે. કેટલાંક નામના અંત્ય વ્યંજનેને એ અગર આ લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે –ાસ, તત્તરમા.
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જપ ક
મન
અધ્યાપક કોવિલ લિખિત
[ ખંડ ૨ () વચમાં આવેલા ખેડા અક્ષરે –
, , , ૬, ૬, ૬, ૬, , ને વિકલ્પ લેપ થાય છે પરંતુ ? અને ને જ્યારે લેપ ન થાય ત્યારે તેમને બદલે ઘણી વાર દુ અને ” અગર છૂ થાય છે. આવી રીતે થતે લેપ ગદ્ય કરતાં પદ્યમાં વિશેષ જોવામાં આવે છે. તે ઉપરાગને બદલે પ્રાકૃતમાં લખવામાં આવે છે.
ને ઘણી વાર લેપ થાય છે, જેમ કે વાઘુવડ, નયન_var, જૂને થાય છે; અને ૨ ને થાય છે, અને કેટલીક વાર ને જૂ થાય છે.
, , , , મે એમ જ રહે છે, અગર તે તેમને શું થાય છે (જ્યારે શ ને ફ ન થાય. ત્યારે, અને ખાસ કરીને ગદ્યમાં, જ થાય છે.) જી, શ, અને સ્ માં ફેરફાર થતું નથી. હું હંમેશા ટૂ થાય છે; જ સાધારણ રીતે અવિકૃત રહે છે, અને કદાચ તેને પણ થાય. (ર) ૨, ૨૬, સરખા લેસન સાહેબનું વ્યાકરણ, પાન ૨૦૮.) .
રને બદલે ઘણી વાર સ્ થાય છે અને આ પ્રમાણે માગધી અને બીજી કેટલીક હળકી ભાષાએમાં નિયમિતપણે થાય છે. , , , , શું અવિકૃત રહે છે. ૨ અને ૫ ને બદલે જૂ થાય છે, પરંતુ ર અને તેના ઉપરથી થતા શબ્દોમાં તથા વિવેસ માં, ને હું થાય છે, જેમ કે પntકરા-શારદ, દિવસ–વિત્ર, તેમજ, રાપ
શબ્દની મધ્યમાંના ખેડા વ્યંજનેને કેટલીકવાર બેવડાવવામાં આવે છે, જેમ કે – અથવા ઇશ, રાગ-ર૦૦ અથવા શિવ (ઘર૦ ૩, ૫, ૫૮).
૩. જોડાક્ષર પ્રકરણ પ્રાકૃત ભાષાના ખાસ ફેરફાર જોડાક્ષરામાં થાય છે. જ્યારે વધારે સંસ્કૃત જોડાક્ષર મળી જઈને એકાદ પ્રાકૃત રૂપ સિદ્ધ થાય છે ત્યારે તે રૂપ એકાએક ઓળખી શકાતું નથી. પ્રાકૃતમાં જુદા જુદા વર્ગના બે વ્યંજનેનું જોડાણ રહી શકતું નથી, તેથી તે વ્યંજનેમાંથી એકને લેપ કરી, અને બીજાને બેવડાવી એક વર્ગના કરવા પડે છે. સામાન્ય નિયમ તરીકે, જોડાક્ષરેમાંના પહેલા વ્યંજનને લેપ થાય છે, પરંતુ , ૫, ૬ પહેલા ન હોય તે પણ તેમને લેપ થાય છે, અને ૬, , અને તેને સર્વત્ર લેપ થાય છે. આ ઉપરાંત કેટલાક અપવાદે પણ છે. એક . નિયમ ખાસ યાદ રાખવા જોઈએ કે-જ્યારે કોઈ જોડાક્ષરમાં ઊમાક્ષર આવ્યું હોય, ત્યારે તેને લેપ કરી તેને બદલે તેની સાથે જોડાયેલા વ્યંજન પછીને મહાપ્રાણ વ્યંજન મૂકવામાં આવે છે. જેમ કે , જી અથવા ને બદલે જ થાય, અગર તે, ઊમાક્ષરની સાથે જોડાયેલા વ્યંજનની પછી મહાપ્રાણ વ્યંજન ન હોય તે ઊષ્માક્ષરને બદલે સકવામાં આવે છે, જેમ કે અથવા ને બદલે vg પરંતુ જ્યારે આવી પરિસ્થિતિ સામાસિક શબ્દના પદમાં આવી હોય ત્યારે ઉપર્યુકત નિયમ જળવાતું નથી, જેમ કે
તિતિક્ષા. (તિરણ એમ ન થાય.) અને કદી પણ બેવડાતા નથી. જોડાક્ષરમાં ૪ આવ્યે હોયે તે છેવટે લખાય છે, જેમ કે ત્રાહ્મણ વિઠ્ઠ. જોડાક્ષરમાં આવ્યું હોય તેનું અનુસ્વાર થાય છે, આ નિયમ ન્ અને ઊષ્માક્ષરમાં પણ કેઈક વખતે લાગુ પડે છે, જેમ કે નફાન, વર-વૈયા, કશ્ય-સંત, ગટ્ટઅંકુ (જુઓ વર૦ ૪, ૧૫). કેટલીક વાર જોડાક્ષરની વચમાં એક ના સ્વર મૂકવામાં આવે છે;
૧. ૨ પ્રાકૃત અક્ષર હશે કે નહિ તે શંકાસ્પદ છે, કારણ કે પ્રતામાં હંમેશાં વ લખેલો હોય છે.
૨. સ્ અને વારંવાર એક બીજાને બદલે વપરાય છે, જેમકે વૈળી પા. ૧૯, ૧-૨, માં વરરિક્ષા ( વરિરામ ), તથા ૨૦, પા. ૨૬, ૧-૧૨, ( બેંથલીંગ ), મરમતણૂચિમા [ મમત-(સૂ) ]
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પ્રાકૃત વ્યાકરણ-સંક્ષિપ્ત પરિચય. महर्ष-हरिस (नुमा वर० ३, ५-१६), पा२ मां भावमा र नाथाय छ, भचौर्य-चोरिअ.
પ્રાકૃત જોડાક્ષરેની તાલિકા - નીચેની તાલિકામાં સંસ્કૃત જોડાક્ષરોનાં પ્રાકૃત રૂપે આપ્યાં છે, જેમાંના ફેરફાર શબ્દના મધ્યમાં થાય છે એમ સમજવું ૫ણ તે પ્રાકૃત જોડાક્ષરોમાંના પહેલા અક્ષરને લેપ કરવાથી તે રૂપે शहना सार सभा पशुपयोभी भाव भए यक्ष-जक्ख; ५ए क्षत-खदा ते प्रमाणे શબ્દની વચમાં હોય તે ક ને જ થાય છે, અને આરંભમાં હોય તે ક ને પ થાય છે.
कक, क्त (?), क्य, ऋ, के, ल्क, क्ल, कम उत्कण्ठा, मुक्त, चाणक्य, शक्र, अर्क, विक्लव, उल्का, पक्क, ने महम्मनुभै उत्कण्ठा, मुक्क, चाणक, सक, अक्क, उका, विकष, पिक થાય છે.
खत्ख, ख्य, क्ष, क्ष, (क्ष्य), क, स्क, (ख), स्ख, ख, भ, उत्खाण्डत, आख्या, यक्ष, उत्क्षिप्त, मुष्क, स्कन्ध, स्खलित, दुःख ने महले उक्खण्डित, अक्खा, जक्ख, उक्खित्त, मुषख, खन्द, खलिअ, दुक्ख थाय छे.
ग्ग-ड, द्र, न, ग्म, ग्य, प्र, गे, लग गेम खड़, मुद्ग, नग्न, युग्म, योग्य, समग्र, धर्ग, बल्गित नेमले खग्ग, मुग्ग, णग्ग, जुग्ग, जोग्ग, समग्ग, वग्ग, पग्गिद थाय छे.
ग्घ(इ), द्ध, धन, घ्र, घम उद्घाटित, विघ्न, शीघ्र, निघृण ने महले उग्घाडिद, विग्घ, सिग्ध, णिग्घिण थाय छे.
नभ सोम-सडोह (या सक्खोह?). चच्य, त्य, चं; अच्युत, नित्य, चर्चरिका ने महसे अच्छुद, णिचा, चचरिआ थाय छ..
च्छ = थ्य, छ, छ, क्ष, क्ष, क्ष्म, त्स, त्स्य, प्स, श्व; नभ, मिथ्या, सूच्छी, कृच्छाणक, अक्षि, उत्क्षिप्त, लक्ष्मी, वत्स, मत्स्य, लिप्सा, आश्चर्य ने महले मिच्छा, मुच्छा, कुच्छाणअ, अच्छि, उच्छित्त, लच्छी, वच्छ, मच्छ, लिच्छा, अच्छेर थाय छे.
ज्ज ज, क्ष ( मत )ज, ज, ज्व, ध; ये, य्य. (भाग्य); रेभ कुब्ज, सर्वज्ञ, वज, गर्जित, प्रज्वलित, विद्या, कार्य, शय्या ने खुज्ज, सव्वज्ज, धज्ज, गज्जिद, पज्जलिद, विज्जा, कज्ज, सेज्जा थाय छे.
ज्झ= ध्य, घरेम मध्य, वाह्यक, २ महले मज्म, घाम थाय छे. हत; म नर्तकी नुणट्टई थाय छे. ढ=ष्ट,
ष्ठाभ दृष्टि, गोष्ठी नुदिहि, गोही थाय छे. हत, (भाग्य); भगर्त, गर्दभ नुगड, गडुह थाय छे. १. क-क्त घji नाटोमा वामां आवेछ, शुमृच्छ०, ५.२८ १-२० ९५२ स्टे नी नोट.
२. मासरीने सभासमा क-क, स्क १५सय छ, म निकम्प-निष्कम्प माजी अन्य स्थणे क्स थाय छे. ते प्रमाणे चश्च मने प्प-स्प, म२ प.. ___3. ४५यित् श्च नेमले चनेवामां आवे छे, ५ मा शव निच्चअ (निश्चय) पाश होमin જેમાં નિદ્ ઉપસર્ગ ૧ થી શરૂથતા શબ્દ સાથે જોડાએલે છે.
४. अहि ( अस्थि-डा), तथा ठिअ ( स्थित ) माह से स्थ ने भारे १५राय छे,
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AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAnnan
અધ્યાપક કવેલ લિખિત - व्या रेभ आख्य नु अङ्क थाय छे. पण =ग्न (?), ज्ञ, म्न, न, ण्य, न्य, ण, ण्व, न्व, भ, रुग्ण, यज्ञ, प्रद्युम्न, प्रसन्न, पुण्य, अन्योन्य, वर्ण, कण्व. अन्वेषणा, २४ रुण्ण जण्ण, पज्जुण्ण, पसपण, पुण्ण, अण्णोण्ण, वण्ण, कण्ण, अण्णेसणा थाय छे. __ण्ह =ण. न. ष्ण, स्न, ण, हम तीक्ष्ण, प्रश्न, विष्णु, प्रस्नुत, पूर्वाण, यदि ने पहले तिण्ह, पण्ह, विण्डु, पण्हुद, पुव्वण्ह, वण्हि थाय छे.
त=क्त, प्त, स्न, त्म, त्र, त्व, ते; भई भक्त, सुप्त, पत्नी, आत्मा, शत्रु, सत्त्व, मुहूर्त २ मह भत्त, सुत्त, पत्ती, अत्ता, सतु, सत्त, मुहुत्त थाय छे. ___त्य-क्थ, त्र,' थे, स्त, स्थाभ सिक्थक, तत्र, पार्थ, हस्त, अवस्था न महसे सित्थअ, तत्थ, पत्थ, हत्थ, अवस्था थाय छे. _=ब्द, (भ? ), द्र, दे, छ; २म 3 शब्द, भद्र, शार्दूल, अद्वैत ने 5 सह, भह, सहूल, अहाअ थाय छे.
दुग्ध, ब्ध, ध, ध्व; म स्निग्ध, लब्ध, अर्ध, अध्वन् , ने पहले सिणिद्ध, लद्ध, अनु, श्रद्धा थाय छे. ___न्द=न्त (शारसेनीमा हाय थाय छे.) २म किन्तु, प्रभावान् 2 महसे किन्दु, पहाववन्दो थाय छ.२
प्प स्प, प्य, प्र, प. ल्प, प्ल, क्मा भई उत्पल, विज्ञप्य, अप्रिय, सपणीय, अल्प, विप्लव, रुक्म न महसे उप्पल, विण्णप्प, अप्पिअ, सप्पणीय, अप्प, विप्पव, रुप्प थाय छे.
प्फत्फ, एफ, (:फ), स्फ, प, स्पोम उत्फुल्ल, निष्फल, स्फुट, पुष्प, शरीरस्पर्श ने महले उप्फुल, णिप्फल्ल, फुड, पुष्फ, सरीरप्फंस थाय छे..
ब्ब= द, ब, ब्रम उद्वन्ध्य, अब्राह्मण्य ने महले उब्बन्धिय, अब्बम्हणम्.
भग्भ, द्भ, भ्य, भ्र, भे; भ प्राग्भार, सद्भाव, अभ्यर्थना, अभ्र, गर्भ ने पहले पब्भार, सम्भाव, अब्भत्थणा, अब्भ, गब्भ थाय छे. ___ मन, एम, न्म, म्य, मे, मा५ रेभ दिङ्मुख. षण्मुख, जन्म, सौम्य, वर्मन् , गुल्म ने दिम्मुह, छम्मुह, जम्म, सोम्म, धम्म, गुम्म थाय छे.
म्ह =प्म, क्षम, स्म, म; लेभ ग्रीष्म, पक्ष्मन् , विस्मय, ब्राह्मण ने महवे गिम्ह, पम्ह, विम्हअ, बम्हण थाय छे.
य्य = , ज, ( भागधी ); रेभ कार्य, दुर्जनः न महले कय्ये, दुय्यणे थाय छे. रि = दृ, ये (आय); म तादृश, चौर्य ने महले तारिस, चोरिअ थाय छे.
१. नेमले त्य माडेसा अव्ययोमा १५राय छ, म एस्थ ( अत्र ), तत्थ ( तत्र ). २. तुमो मायति मनु शाकुं०, ५.१५५ नोट
3. आत्मा नु प्राकृत अप्पा तथा अत्ता में छे. प्प-स्प, स्फ, त सभासभा, रभ चउप्पहो-चतुष्पथः
४. ब्भ-ब, म विन्भल-विह्वल. ५. मिल्लू , भॐ मिलाण=म्लान तुम बेसन, पा. २५८. 4जी, वद्ध, रेभ वारह द्धादश.
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અક૧]
પ્રાકૃત વ્યાકરણ-સંક્ષિપ્ત પરિચય. શું = ચર્સ (a), (ભાગ્યેજ), જેમ કે શાસ્ત્ર, નિર્જન, પળ ને બદલે સળિgs, પાઇ થાય છે.
=ટ્ટ જેમ કે દુર નું વાર થાય છે. શ્વ= ચ, (2), વે, જેમ કે વાક્ય, પૂર્વ ને બદલે , થાય છે.
રા , ઝ, , જેમ કે ના, મણ્ય, અશ્વ, મનસ્થિની ને બદલે લઇ, અંકુ, ચં, મલિ થાય છે.
a = , રમ, ૨, ૪, શ્વ, દમ, થ, ઘ, ચ, , ; જેમ કે , રિમ, શાળા , વિગ્રાન્સ, શ્ય, શુભ, પુષ્ય, વિજ્ઞાન, તરી, ત્રિ, તપસ્વિ ને બદલે રહ્યા, રવિ - સલામ, વિત, અન્ન, તોરણપુરણ, રિલ્સમામિ, તલ્સ, રસ, તવલ્લી થાય છે.
તા. ક–જે સંસ્કૃત શબ્દોમાં ત્રણ વ્યંજને જોડાયેલા હોય છે તેમાંના અર્ધસ્વરને પ્રાકૃત કરતી વખતે, લેપ કરવામાં આવે છે, અને ત્યાર પછી બાકી રહેલા વ્યંજને માટે ઉપયુકત
ર૪ = પરંતુ આવા (અર્ધવર વાળા) જેડાક્ષરની પહેલાં અનુનાસિક વ્યંજન આવ્યું હોય તે બાકી રહેલા જોડાક્ષરોની બાબતમાં સામાન્ય નિયમ લાગી શકે છે માત્ર અનુનાસિક પછી તેઓ બેવડાતા નથી, (વર૦ ૩, ૫૬) જેમ કે વિશ્વ =વિજ્ઞ. [૨ ને # (વર૦ ૩, ૨૮) પ્રમાણે થાય છે.]
ઉપર્યુક્ત નિયમે ઉપરાંત, હાલ કવિના સપ્તશતકની જેમ બીજા પદ્યમાં ઘણું અનિયમિતતા જેવામાં આવે છે, જેમ કે ગ્રહોનું પ્રાકૃતરૂ૫ વરરૂચિએ તેમ તથા તેછોક આપ્યું છે. તેજ પ્રમાણે રમત નું પ્રાકૃત રૂપ પામઢ (કામ), પા. ૧૦૫, તથા સસરા ૭૪), તથા ઇથ૪ (મશ્રિત, પા ૯૦), વિગેરે જેવામાં આવે છે.
વિભાગ ૨, પ્રાકૃત નામે પાંચ જાતના હોઈ શકે: ૧ અકારાંત તથા ગાકારાંત ૨ કારાંત તથા કારાંત, ૩ સકારાત તથા કારાંત, ૪. મૂળરૂપે સકારાંત, ૫ વ્યંજનાત.
છેલ્લા બે વિભાગમાં પડે એવાં નામે ઘણુ ડાં છે. સકારાંત પુલિંગ શબ્દને સર અથવા આ અતવાળા બનાવવામાં આવે છે, જેમ કે પિતા-પિગ ઉપગા-પિઅરે, મસ્ત-મસા, મર્યામા. પ્રથમ તથા દ્વિતીયા બહુવચનમાં, તુતીયા અને પછી એકવચનમાં, તેમજ સપ્તમી બહુવચનમાં, છેવટના ને બદલે ૩ મૂકવામાં આવે છે, અને પછી હકારાંત શની માફક તનાં રૂપે ચાલે છે, જેમ કે મળ-માળા, મર્તુ-મરાને. આવું રૂપ વપરાયેલું પણ જોવામાં આવે છે, જેમ કે મર્ય-મg૪. સંબન્ધદશક નામનું પ્રથમા એકવચન ના અંતવાળું પણ હોય છે, જેમ કે પિતા-વિમા મા-બાગ, અને ત્યાર પછી સકારાંત સ્ત્રીલિંગ નામની માફક તનાં રૂપે ચાલે છે. મર્જ નું સંધનરૂપ મ થાય છે અને તેનું સ્ત્રીલિંગરૂપ મલિની અથવા મહિના થાય છે.
વ્યંજનાં નામોની વિવિધ ગતિ થાય છે. (૧) તેમને અંત્ય વ્યંજન ઉડી જાય છે અને ત્યાર બાદ ઉપર બતાવેલી પહેલી ત્રણ રીતે તેમનાં રૂપ ચાલે છે (નપુંસકલિંગ નામ પુલિંગ બની જાય છે), જેમ કે સર (રા) નું પ્રથમાનું રૂપ છે, જેમ (જર્મન) નું કામ થાય છે અથવા (૨) મૂળ શબ્દને છે કે આ લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે શત્ નું નવો શારિર નું ગાલિતા. જે વિભકિતઓના પ્રત્યે વ્યંજનથી શરૂ થતા હોય તેમને માટે સાધારણ રીતે આ નિયમ લાગે છે. આ ઉપરથી જણાશે કે આ યુકિતઓ વાપરવાનું કારણ વ્યંજનથી શરૂ થતા
૧. 4=%, જેમકે શ્વેજ=કાતે ( વર૦ ૮૪૧), જેમાં સત્ ની પછી જ આવે છે.
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અધ્યાપક કંપેલ લિખિત
[ २ પ્રત્યયે વ્યંજનાત શબ્દ સાથે જોડાતાં જે નવા જોડાક્ષરે ઉત્પન્ન થાય તથા જે નવા ફેરફાર કરવા પડે તે દૂર કરવાનું હોવું જોઈએ. પરંતુ સ્વરથી શરૂ થતા વિભકિતના પ્રત્યો આગળ ઘણું ખરું સંસ્કૃત રૂપ જ રાખવામાં આવે છે; અલબત, તેમાં પ્રાકૃત નિયમ પ્રમાણે ફેરફાર થાય છે, જેમ કે भवदा (भवत् तृतीयानु३५), आउसा ( आयुषा, आयुस् नु तृतीयानु३५)...
પ્રાકૃતમાં દ્વિવચન નથી તેમજ ચતુથી વિભકિત નથી (ચતુથીને બદલે ષષ્ઠી વપરાય છે ); ५ यमी महुवयनना में प्रत्यक छ: हिंतो 'भांथी' न अ भा २४मा १५शय छ, भने सुंतो 'भाथी' ના અર્થમાં સાધારણ રીતે વપરાય છે. ખાસ ઉપગી એવાં પહેલા ત્રણ પ્રકારનાં રૂપે નીચેપ્રમાણે છે. સકારાંત શબ્દના રૂપ કારાંત પ્રમાણે ચાલતાં હેવાથી ખાસ અહીં આપવામાં भाव्या नथी.
નામનાં રૂપાખ્યાન. वच्छ-वृक्ष
(नपुंस० वण-वन) એક વચન.
બહુવચન. प्र० घच्छो (नपुं० वर्ण)
वच्छा (नपुं. वणाई,-इ, वणा;
वणानि गधमा राय छे). द्वि० वच्छं - ,
वच्छे; वच्छा (नपुं० प्रथमा०) तृ० वच्छेण,-ण
वच्छेहि,-हि पं० विच्छादो,-दु-१
विच्छेहि,-हि विच्छाहि, वच्छा
विच्छासुंतो, वच्छेसुंतो ष० वच्छस्स
वच्छाणं-ण स० वच्छे, वच्छम्मि
वच्छेसु-सुं सं० घच्छ, वच्छा (मपुं० घण)
वच्छा (नपुं० वणाई-). अग्गि-अग्नि (पुल्लिंग)
दहि-दधि (नपुंस०). वयन.
બહુવચન अग्गी (नपुं० दहिं)
अग्गीओ, अग्गिणो ( नपुं. दहीई,-) . द्वि० अग्गि - "
अग्गिणो अग्गी (?).- " १० अग्गिणा
अम्गीहिं,-हि अग्गीदो-दु-हि
अग्गीहितो,-सुंतो. ष० भग्गिणो, अग्गिस्स
अग्गीणं,-ण. अग्गिम्मि
अग्गीसु,-सं सं० अग्गि (नपुं. दहि)
अग्गीओ, अग्गिणो ( नपुं. दहीई,-२) ____ माला (स्त्रीलिंग)
मे बयन प्र० माला
मालाओ,-उ; माला द्वि० मालं पं. मालदो-दु-हि.
मालाहिंतो,-संतो. ૧૦ ગદ્યમાં સામાન્ય રીતે જે વાળું જ રૂપ વપરાય છે.
२. माला भाट शुभा पर० ५, २०, तथा शाकुंभा पा० १५ 6५२, दअमाणा श६५२ माघेसी બેથલીંગની ટીકા,
महुपयन.
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प्र०
॥
હૃ૦ )
આ
અંક ૧]
પ્રાકૃત વ્યાકરણ-સંક્ષિપ્ત પરિચય.
मालाहिं,-हि ૫૦ મહિાઉ-૬
मालाण,-ण ર૦)
मालासु,-सु सं० माले
मालाओ,-उ પ્રાકૃતમાં સ્ત્રીલીંગી કારાંત અને કારાંત તથા ક્કારાંત અને કારાંત નાનાં રૂપમાં ફેરફાર હેતે નથી.
ન નથી (ર્જિા) એક વચન.
બહુવચન.
ગો-૩ (તિયા ? જુઓ द्वि० गई
લેસન, પા. ૩૦૭, નેટ ૨.) पं० गईदो,-दु,-हि
णईहिंतो,-सुतो
णईहिं,-हि ष० इ -आ
બાળ
णईस,-सुं सं० ण
! જાઓ-૩ - તા તથા સ્વ છેડાવાળાં ભાવવાચક નામો પ્રાકૃતમાં વા અને વાળ છેડાવાળાં બની જાય છે, જેમ કે ખિલા, જળસ. મજૂ અને જૂ પ્રત્યાનાં પ્રાકૃતમાં જુદાં જુદાં રૂપ થાય છે, જેમ કે
, ૪, ૮, વૈત, દંત ( ગદ્યમાં ચંદ્ર, ૯), જેમ કે વિસાજી (વિવારવા). તાચ્છીલ્યાથે , પ્રત્યય વપરાય છે, જેમ કે તિ, સ્વાથે જ (અ) પ્રત્યય જોડવામાં આવે છે. જેમ કે શ્રમમમમ, રવી-દિ. (સૂ) પ્રત્યયને બદલે રંગ થાય છે, જેમ કે વિચિત્ર-૩માકુત્તમ. ગાયાર્લિી -માણાસત્તિા (સ્ત્રીલિંગ).
વિભાગ ૩.
સર્વનામ પ્રકરણ પ્રાકૃતમાં સર્વનામનાં રૂપે નામ પ્રમાણે ચાલે છે. અને તે ઉપરાંત કેટલાંક નવાં રૂપ પણ ઉમેરાય છે. નીચે આપેલાં ૪=નાં રૂપે ઉપરથી બીજા ખાસ ઉપગી રૂપે સમજાઈ જશે.
પ્રાકૃતમાં વ્યંજનાત શબ્દ રાખવામાં આવતા નથી, તેથી સંસ્કૃતનાં કેટલાંક સર્વનામને પ્રાકૃતમાં વિભકિતના પ્રત્યે લગાડતાં કેટલાક ફેરફાર કરવા પડે છે, જેમ કે જિગ્ન, ચ, ત ને બદલે , 7, ત થાય છે. પ્રતિજૂનું ઘર અને કઈકવાર ણ થાય છે (તેથી ઘા =પતમાન );
મનું મન થાય છે, અ નું જ થાય છે. શિ, ચ, તદ્ નું બીજું રૂપ વિ, કિ, તિ પણ થાય છે, જોકે આ પાછળના રૂપ સ્ત્રીલિંગમાં વપરાય છે તે પણ પુલિંગની અને નપુંસકલિંગની તૃતીયા અને ષષ્ઠીમાં તેમનાં કેટલાંક રૂપે આવે છે. વન નું પણ તૃતીયાનું નિના રૂપ થાય છે. ખરી રીતે પ્રાકૃતમાં સર્વનામનાં રૂપમાં બહુ નિયમિતતા જોવામાં આવતી નથી, તેથી રાત્રિ ખરી રીતે પુલિંગ સમીનું રૂપ હોવા છતાં ઘણી વાર સ્ત્રીલિંગમાં વપરાયું છે જેમ કે રાજા (મેનીયર વિલીયમ), પા. ૩૬, ૨, ૧૧૫, ૩.
- વરરૂચિએ ખાસ આપેલાં કેટલાંક રૂપે હું નીચે આપું છું. તમારૃ અને પતરા ને બદલે તો અને ઉત્ત.(૬, ૧૦, ૨૦) તા અને તા ને બદલે સે (૬, ૧૧), તેષાં અને તાત્તાં ને
વ્યા૦ ૨
L
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१०]
અધ્યાપક કોવેલ લિખિત
[५४२ ह सिं. अदस् प्रथमा यत्र विभा अह. १२३थिया न तो एनम् भने पनाम् ने न माज पराये नवामां आवे छ. कियत्, तावत् विशेरने म केहह, केसि, तेहह, तैत्तिा विगैरे आप छ (४, २५); तुम: केहह विक्षरे कीडश वि.ने भाटे डावांनो .
जन्य (yrang. वयन.
महुपयन. प्र० जो (जं नपुं० किं-किम् )
जे (जाई, नपुं०) द्वि० जं - तु० जेण, जिणा
जेहिं, जेहि पं० जत्तो,-तु, जदो,-दु
जाहिंतो, जासुंतो ष० जस्स, जास'
जाणं,-ण, जेसि स० जस्सि,-स्सि
जेसु, खं जम्मि,-म्मि जहि, जहि, जत्थ
श्रीलि. એક વચન.
मक्यन प्र० जा.
जाओ-उ, जीओ,-उ वि० पं० जादो,-दु, जीदो (१)
जाहिंतो, संतो, जीहितो,-संतो
जाहि, जीहिं जाए,-,
जासिं, जाणं,-ण, जीणं,-ण, जीसि, जस्सा जासे
(जासां, जेसि) जीमा,-अ
जासु,-सं, जीस,-सं. - વરરૂચિએ (૬, ૨૫-૫૩) માં પુરૂષ સર્વનામે આપ્યાં છે. જે રૂપે નાટકમાં કદી પણ આવતાં નથી તેમને મેં બકેટમાં મૂક્યા છે. બહુવચનનાં રૂપે તદ્દન જુદી જ રીતે થાય છે, જેમ કે तुज्म, तुम्ह, तुम्म, अम्ह, तथा मझ.
अस्मद् हु ४ वयन.
બહુવચન प्र० अहं (ई, अह, अहम्मि)
अम्हे (वयं घमा राय, घर०.२०, २५) द्वि० मे, मर्म (अहम्मि)
अम्हे, णो (णे) तु० मे, मए (मह, ममाइ)
अम्हहिं,-हि पं० मतो (मात्तो, ममादो,-दु ममाहि) अम्हाहितो,-सुतो प० मे, मम, मझ, मह
णो, अम्ह, अम्हाणं, अम्हे' (मज्झ?). स० मा (मए, ममम्मि)
अम्हेसु
जिस्सा, जीसे
Ares
जीए,-१,
स०
1. 4जी, नाभि नलिभा कीस शामा? 24 mभi राय पाय छे. २. gi ARभां ममं मन महं ३२. शयेय .
पसंत असश भi अम्ह, मम्म, मह, अम्दि, अम्हाण ३॥ १५iraru,
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До
शि०
४१.]
तृ०
पं०
प०
स०
तुमं, तुं ( )
(तं, तुं ) तुमं
तइ, तप, तुमप, तुमे, (तुमाह) ते, दे ततो (तहत्तो, तुमादो, -तु, तुमाहि ) (तुमो) तुह, तुज्झ, तुम्ह, तुम्म, तुव, तुअ ते, दे
तुमम्मि
तुज्झेसु, तुम्हेसु
तर, तुइ, तप, (तुमप, तुमे अथभनां त्रषु सौंभ्यावाथः शण्डानां प्रहृत३५ एअ अगर एक्क, दो ( प्रथ० भने द्विती० - दो, दुवे, दोणि षष्ठी - दोहं), ति ( प्रथ० - तिण्णि, षष्ठी - तिन्हं ) थाय छे षषू ने महले छ थाय छे.
विभाग ४.
પ્રાકૃત વ્યાકરણ–સ`ક્ષિપ્ત પરિચય.
युष्मद् 'तु'
એક વચન.
प्र० पु० हसामि, हसमि.
हसहि
द्वि० पु० हससि
१.
२.
३.
तुझे, तुम्हे
तुझे, तुम्हे, वो तुज्झेहिं, तुम्मेहिं, तुम्हेहिं तुम्हाहिंतो, सुंतो
वो, (भे) तुज्झाणं, तुम्हाणं
ક્રિયાપદ પ્રકરણ
ખરી રીતે જોતાં પ્રાકૃતમાં એકજ ગણુ (=સસ્કૃતના પહેલા અને છઠ્ઠા ) છે. સામાન્ય રીતે બધા ધાતુને આજ ગણમાં લાવવાના પ્રયત્ન કરવામાં આવે છે, તે પણ અન્યાન્ય ગણુનાં કેટલાંક રૂપે નાટકામાં જોવામાં આવે છે.
નામ પ્રક્રિયામાં જણાવ્યા પ્રમાણે ક્રિયાપદમાં પણ દ્વિવચનરૂપ થતાં નથી.
કતરિ પ્રયાગમાં ફક્ત વતમાનકાળ, સામાન્ય ભવિષ્યકાળ, તથા આજ્ઞાથે જોવામાં આવે છે. વર્તમાનકાળનાં રૂપા,
એક વચન
हसमु (वर० ७ १८ )
हससु, हस, हसाहि, इसस्स
हसदु', हसउ
મહુવચન. हसामो, मु, म, हसिमो, मु, म हसमो, मु, म, हसम्हो, म्ह हसह ( गद्यभां हसध, -धं ) हसित्था ( इसत्य ? )
तृ० पु०
सदि' हसइ
हंसन्ति
मध्यम प्रयोगमां त्राणे पु३षनां मेऽवयननां ३यो थाय छे, प्रेम है १. मणे, २. सहसे,
3 सहदे, अथवा सहए.
भाज्ञार्थ.
[
મહુવચન. हसामो, म हसमो, म, हसम्ह. हसह, हसध, -धं
हसन्तु.
૧. મા ગદ્યમાં વપરાતુ‘ રૂપ છે. તેજ પ્રમાણે હું વાળાં સામાન્યરૂપ, તથા રર વાળા ભૂત કૃદંત પશુ ગદ્યમાં વપરાતાં રૂપે છે.
२. अस् ' थ्वु ' नां ३थे। नीथे प्रभा छे. थे! वन्थन. १. मम्हि २. असि, ३. आत्थ, महुव० अम्हो, अम्ह, ३ सन्ति. ते प्रभा सीटीएम मे४ १० १ म्हि २सि ३ स्थि, डुब० १ म्हो, म्ह, २ त्थ. अनद्यतनभूतभां १० १. आर्सि, आसि, २. ३. आसि,
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૧૨ ]
અધ્યાપક કૉવેલ લિખિત
[ ખંડ ૨ કઈ પણ પુરૂષપ્રત્યયની પહેલાં અને બદલે ઇ વિકલ્પ કરી શકાય છે (ર૦૧, ૩૪), જેમ કે દુમિ, વિગેરે દહિ, દg, વિ. બીજા શબ્દોમાં કહીએ તે, અા નું ટુંકુ રૂપ હોવાથી એમ કહી શકાય કે પ્રાકૃતમાં ક્રિયાપદનાં રૂપે સંસ્કૃતના દસમા ગણના ક્રિયાપદે પ્રમાણે વિક થાય છે. કારાંત અને કારાંત પહેલા ગણના સંસ્કૃત ક્રિયાપદના અય અને અા ને બદલે ઇ અને શો સકવામાં આવે છે, જેમ કે યસ, મસિહોર અથવા તેને લેપ થાય છે, અને રૂને રાખવામાં આવે છે, જેમ કે જાદુ, હરિ. ગાકારાંત કિયાપમાં સર મુકવામાં આવે છે, જેમ કે દરિ , ત્રિ -મરફ ચેથા ગણના ધાતુઓમાં અંત્ય વ્યંજન બેવડાય છે, જેમ કે કુતિયુતિ, અથવા ૨ ને લેપ કરીને જુદું જ રૂપ કરવામાં આવે છે, જેમ કે પુષ્યાત્તિ-ગુજાર. સાતમા ગણના ધાતુઓમાં અનુનાસિક ઉમેરવામાં આવે છે, અને પછી બીજા ગણેની માફક તેમનાં રૂપ ચલાવવામાં આવે છે, જેમ કે સુદ્ધિ–રિ, સંખ્યા, રૂ. પાંચમા ગણના ધાતુઓમાં જ ઉમેરવામાં આવે છે, જેમ કે અમિ–જુir, vશ્વનું-સુખનું કેટલીક વાર સંસ્કૃત રૂપે પણ રાખવામાં આવે છે, જેમ કે વિમ; હુજુ તથા સુબાહ. નવમા ગણમાં ખા અને છ બેઉ વપરાય છે, જેમ કે નાપારિ અને કાર (નાનાતિ). તે ઉપરાંત શાહ અને કાળાદિ રૂપ પણ જોવામાં આવે છે.
વિધ્યર્થનાં માત્ર કેટલાંક ત્રુટિત રૂપે જ જોવામાં આવે છે, જેમ કે ૧. મ, , ૩ મવે, (પણ જુઓ.બરનું સતરા, પા. ૬૨.)
પ્રાકૃતમાં ભવિષ્યકાળનાં ઘણાં રૂપો છે. () ખાસ ઉપગમાં આવતાં રૂપના પ્રત્યે નીચે પ્રમાણે છે. . . એકવચન. ૧., સ્વામિ. ૨. સતિ. ૩. સરિ, રત. બહુવચન. ૧. સ્તનો. ૨. , . ૩. ક્ષત્તિ .
આ પ્રત્યે લગાડતાં પહેલાં લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે દર વિગેરે. મૂળ સંસ્કૃત પ્રત્યય થ નું આ સર તે પ્રાકૃત રૂપ છે.
() બીજા પ્રત્યમાં શરૂ ને બદલે છ વપરાય છે, જેમ કે તે છે (નું પ્રથમ પુરૂષી એકવચન). (જુઓ વર૦ ૭, ૧૬, ૧૭.).
() ત્રીજી જાતનાં પ્રત્યમાં નર ને બદલે દિ વપરાય છે, જેમ કે સિદિનિ વિગેરે. આ ઉપરાંત પહેલા પુરૂષ એકવચન અને બહુવચનનાં લrગ અને વિદામો એવાં રૂપ થાય છે. [ વળી, હું ( નું રૂપ), દં(ા નું રૂપ) પણ થાય છે; વર૦ ૭. ૨૬ વર્દિ રૂપ વેબરના સતરાપા. ૧૯૦ માં વપરાએલું છે.]
[ વળી, ઝ, અને કા પ્રત્યે લગાડતાં કેટલાંક વિરલ રૂપ બને છે, (ર૦ ૭, ૨૦-૨૨), જેમ કે હs, કા, નહિ, ઝદિર, વિગેરે. કેટલાંક ફુગ અને દમ અંતવાળા ભૂતાર્થ વચનનાં વિરલ રૂપિ પણ દેખાય છે, (૩૦૭, ૨૩-૨૪) જેમ કે દુવીમ, દોષ (સમર્)જુઓ હંસન્સ ઈસ્ટ, પા. ૩૫૩–૮. સારા માં ર અને ના છેડાવાળાં કેટલાંક વિધ્યર્થ રૂપે વપરાએલાં છે.] - પ્રાકૃતમાં કર્મણિ પ્રગમાં કર્તરિનાજ પ્રત્યે વપરાય છે, અને ૨ પ્રત્યયને બદલે જ અથવા પુત્ર પ્રત્યય લગાડે છે, જેમ કે પીબ, પરિ અથવા પHિ (પદ્ય). કેટલીક વાર જ રાખવામાં આવતાં પૂર્વના વ્યંજન પ્રમાણે તેનું રૂપાંતર થાય છે, જેમ કે અમે (અ ); दिस्सइ अगर दीसइ (दृश्यते)..
પ્રેરક ભેદના પણ બે રૂપ છે; એકમાં સંસ્કૃતના અને શુ કરવામાં આવે છે, જેમ કે જ ઉપરથી જાતિ થાય છે (ધાતુમાંના પહેલા અક્ષરના ને કા કરવામાં આવે છે, ઉ૦૭, ૨૫)
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પ્રાકૃત વ્યાકરણ સંક્ષિપ્ત પરિચય.
[ ૧૩ બીજામાં ( ?) લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે ફિ અથવા વેરિ (અહીં, પ્રથમના અને વિકલ્પ આ થયો છે, વર૦ ૭. ર૭). - જે ધાતુને અંત્યાક્ષર વ્યંજન હોય તે તુમુત્ત રૂપ કરતી વખતે સુન્ લગાડવામાં આવે છે, પણ અંત્યાક્ષર સ્વર હોય તે તુમ લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે વરૂ ઉપરથી ની ઉપરથી નેવું. ઘણીવાર વ્યંજનાત ધાતુને ૬ અથવા શુ લગાડીને ધાતુને સ્વરાંત બનાવવામાં આવે છે, અને ત્યાર પછી તેને સુક્ષ્મ પ્રત્યય લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે મદુ (સુ), કાવ્યમાં ઘણી વાર નો લેપ કરવામાં આવે છે, જેમકે દુરૂ ઉપરથી લેવું, દલિવું.
સંસ્કૃતના સ્વા અંતવાળા કૃદન્ત બનાવવાને પ્રાકૃતમાં તૂત અગર પ્રત્યય લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે - ઉપરથી લઇન, ઉપરથી જૂન. સંસ્કૃતના જ અંતવાળા કૃદંત બનાવ પ્રાકૃતમાં લાગી છે, અને ગદ્યમા ઘણો ખરો આના ૨૫ વપરાય છે, જેમ કે ત્રુ પ્રદુ નું છે . કેટલીક વાર ગદ્યમાં સ્થાને સ્થાને સુષ વપરાય છે, જેમ કે કુમ (સવા); કુબ (પત્ની), વિગેરે. (વર૦ ૧૨.૧૦).
કર્તરિ વર્તમાન કૃદંતને અંતે અંત પ્રત્યય (અથવા, થ૦ ૭. ૩૪ પ્રમાણે ઉત) લાગે છે, જેમ કે પર્વત, કુત. (વરરુચિ ૭. ૧૧) ના કહેવા પ્રમાણે સ્ત્રીલિંગનાં પ તેમજ પઢતી એમ બે રૂપ થાય છે. મધ્યમ પ્રગમાં વર્તમાન કૃદરતને પ્રત્યય મા છે (સ્ત્રીલિંગમાં માળા અથવા માતા પ્રત્યય લાગે છે).
કમણિપ્રયાગમાં જ અને માન પ્રત્યે લાગે છે, અને તેની પહેલાં શુષ પ્રત્યય લાગે છે, જેમ કે રિકતિ (વાર્યમાળ), તેમજ, કાન્ત (સામાન), વીગમાન (ચમી)ભૂતકુદતના રૂપો સંસ્કૃત પ્રમાણે થઈ તેમાં પ્રાકૃતના નિયમ પ્રમાણે ફેરફાર થાય છે, જેમ કે રુદ્ર અથવા પુનઃસ્થત રદ=સ્ટર કઈક વાર ફુ વચ્ચે ઉમેરવામાં આવે છે, જેમ કે સ્િ (બૃત), સુબિર (યુત). આ ઉપરાંત કેટલાંક અનિયમિત રૂપે થાય છે, જેમ કે સૂપ (વિત). વિધ્યર્થ કૃદંતના ૨ ને તેની પહેલાંના વ્યંજન પ્રમાણે ફેરફાર થાય છે, જેમ કે વિશ્વ (વિશs), am (ાર્ય); ગની પ્રત્યયને બદલે શfrગ, અથવા મન થાય છે, જેમ કે પૂનમ (પૂર્વીય), વાળs (કાળીય).
પ્રાકૃતમાં પક્ષભત કાળ નથી. તેને ઠેકાણે અકર્મક ધાતુના અર્થમાં ભૂતકાલવાચક ધાતુસાધિત વિશેષણ (કારિ વત્ત) ને ઉપગ કરવામાં આવે છે. અને સકર્મક ધાતુના અર્થમાં તેવાજ રૂપની ર્તની તૃતીયા અને સકમની પ્રથમ વિભક્તિ વડે કામ લેવામાં આવે છે.
અવ્યવિષે પ્રાકૃતમાં વિશેષ જાણવા જેવું કાંઈ નથી. ફક્ત એટલું જ જાણવું જોઈએ કે રતિ ને બદલેર મૂકવામાં આવે છે, જેની પહેલાં આ, અથવા અને હસ્વ બનાવવામાં આવે છે, અને અનુસ્વારની પછી આવે તે તિ થઈ જાય છે. હસ્વ સ્વર અગર ૫, ગૌ પછી હુ આવે તેને તે થાય છે, તથા દીર્ઘ સ્વરની. પછી (તથા અનુસ્વાર પછી પણ) રજુ થાય છે. તે જ પ્રમાણે પ ને બદલે નેહા અથવા તેવ, અને હવ તેમજ પુત્ર થાય છે. કુષ ને બદલે વિગ તથા થ સ્વર પછી આવે તે તેનું વિ અથવા વિ થાય છે, અને અનુસ્વાર પછી આવે તે જ થાય છે, તથા વાક્યના આરંભમાં વિ થાય છે.
આ સ્થળે માગધી ભાષાનું નામ જણાવવાની જરૂર ગણું છું. તેમાં પણ અગર ને બદલે
૧. કાવ્યમાં વરની પહેલાં આવેલું અનુસ્વાર પિતાની સાથેના અંત્યસ્વરને દીઘ બનાવે છે. પણ જે અનુસ્વારને ૬ તરીકે લખવામાં આવે છે તે સ્વર હસ્વ જ રહે છે, અને ત્યાર બાદ એ બેઉ શબ્દની સંધિ થાય છે જુઓ વેબર, સતરા પાત્ર ૪૭.
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१४] અધ્યાપક કોવેલ લિખિત
[मां थाय छ, तथा र नेमले ल् थाय छ ज २ महलेयतर यर्ज म य्य याय छ; अ संत नामना प्रथभावयनमा छेक्ट एस इ आवछे, रेभमाशे (माषः).
ઉપરના નિબંધમાં,ધરવા પ્રમાણે, સાધારણ વિદ્યાર્થીઓને કાળિદાસ અગર ભાવભુતિનાં નાટકેમાંનું પ્રાકૃત સમજવા માટે જોઈએ તેટલું જ્ઞાન આપવામાં આવ્યું છે. અલબત, મૃચ્છકટિક અગર વિકમેવશીયનું પ્રાકૃત સમજવાને કેટલાક વિશેષ જ્ઞાનની જરૂર છે.
१.२२. प्रातन क्यास:वधारवा डाय तेभोनयना अयानु uqels:४२:
1Lassen's Institutiones Linguae Pracritical,1837.2. Weber's ससशतक of हाल with his excellent introduction, 1870.3. वररुचि न प्राकृतप्रकाश, १८५४. 4. प्राकृत बालभाषा-मागधी)-व्याकरण of Hemchandra, Bombay, 1873; अथनी.विवेचनात्म આવૃત્તિ ડો. પીલે તૈયાર કરે છે. તે ગ્રંથ ખાસ કરીને જૈન પ્રાકૃત માટે ઉપયોગી છે.
परिशिष्टः-मन सारिकोट सोसायटरीना AREKगेन' ना पांयमा पुतभा पी. વેબરે પ્રકટ કરેલા હાલકવિના સપ્ત શતકમાંથી આયાવૃત્તની દસ ગાથાઓ નીચે આપી છે.
१. पाअपडिअस्स पइणो पुद्धिं पुत्ते समारहंतम्मि।
दढमण्णुदूमिआए वि हासो घरिणीए निकन्तो॥ (११.) २. अज मए तेण विणा अणुहूअसुहाइ संभरन्तीय।
अहिणवमेहाण रवो णिसामिओ बज्झपडहो व्व ॥ (२८) तुज्झ वसहति हिअ इमेहि दिछो तुम ति अच्छीई।
तुह विरहे किसिआइ ति तीए अंगाइ वि पिआई ॥ (४०) ४. कलं किर खरहिअओ पवसइ पिओ ति सुणीअइ जणम्मि।
तह वड्ढ भअवह णिसे जह से कल्लं विअ ण होइ ॥ (४५.) ५. अईसणेण पेम्म अवेइ अइदलणेण वि अवेद।
पिमुणजणजम्पिएण वि अपेई, एमे वि अवह ।। ( ८०.) ६. दक्खिण्णेण वि एम्तो सुहम सुहावेसि अंम्ह हिअमआई।
णिकइअवेण जाणं गओ सि, का णिव्वुदी ताण ॥ (८४.) ७. तइआ कअग्घ महुअर ण रमासि अपणासु पुप्फाई।
बद्धफलभारगरुई मालइमेण्हि परिषअसि ॥ (41) ८. उप्पण्णत्थे कजे अइचिन्तन्तो गुणागुणे तम्मि।
आसुइरसहपेच्छि-सणेण पुरिलो हरएकजं ॥ (२१८). ९. कलहंतरे वि अविणि-गाइ हिअम्मि अरमुवगई।
सुअणकआइ रहस्सा-इ डहा आउक्लप अग्गी। (३२८). १०. वोलीणोलच्छिअरू-अजीवणा पुत्ति किष्ण दूमेसि ।
विदठप्पणठ्ठपोरा-जणवा जम्मभूमि व्ध ॥ (३४२.)
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॥ ॐ अहम् ॥ - ॥ नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते श्रीमहावीराय ॥
॥ उपकेशगच्छीया पट्टावलिः॥
॥ श्रीमत्पार्श्वजिनेंद्राय नमः ॥ श्रीमत्केशीकुमारगणधरेभ्यो नमः ॥ श्रीमद्रत्नप्रभसूरिसद्गुरुभ्यो नमः ॥ ओकेशशद्वस्यार्थाः लिख्यते ॥ इशिक ऐश्वर्ये, ओकेषु गृहेषु इष्टे पूज्यमाना सती या सा ओकेशा सत्यिका नाम्नी गोत्रदेवता । अत्र ओक शहो अकारांतः तस्यां भवस्तस्या अयमिति वा ओकेशः। भवे इत्यण् प्रत्ययः, तस्येदमित्यनेन वा अणप्रत्ययः । सत्यिका देवी हि नवरात्रादिषु पर्वसु अस्मिन् गणे पूज्यते सा चास्य गणम्य अधिष्टाती अतएवास्य गच्छम्य ओकेश इति यथार्थ नाम प्रोद्यते सद्भिरिति प्रथमोऽर्थः ॥ १ ॥
ईशनमीशः ऐश्वर्य ओकैर्महर्द्धिक श्राद्धप्रमुखलोकानां गृहरीशो यस्यां सा ओकेशा ओसिका नयरी । तत्र भव ओकेशः । ओसिकानगर्या हि अस्य गणस्य ओकेश इति नाम श्रीरत्नप्रभसूरीश्वरसो विख्यातं जातमिति द्वितीयोऽर्थः ॥ २ ॥
___ अः कृष्णः उः शंकरः को ब्रह्मा । एषां द्वंद्वसमासे ओकास्ते ईशते पूज्यमानाः संतो देवत्वेन मन्यमानाः संतश्च येभ्यस्ते ओकेशाः। ओके कृष्णशंभुब्रह्मभिर्देवैरीशते येते वा ओकेशाः । परशासनजनाः क्षत्रियराज्यपुत्रादयः प्रतिबोधविधानात्तेषामयं ओकेशः । तस्येदमित्यणप्रत्ययः । श्रीरत्नप्रभसूरिभिस्तेषां पारतार्थिकधर्मनिष्ठातः सिद्धान्तोक्तविशुद्धजैनधर्मनिष्ठायां प्रतिबोधदानेन प्रवर्तना कृता । तथा च श्रूयते पूर्व हि श्रीरत्नप्रभसूरीणां गुरवः श्रीपार्थापत्यीयकेशीकुमारानगारसंतानयित्वेन विख्यातिमंतो जगति जज्ञिरे । ततः प्राप्तसूरिमंताः ससत्तंत्रा रमणीयाऽतिशयनिचयाः स्वकीयनिस्तुषशमुखीप्रागभारसंभारात् ज्ञातदिदशसूरयः श्रीमच्छीरत्नप्रभसूरयः कियति गते काले विहरंतः संतः श्रीओसिका. नगर्या समवसृताः । तस्यां च सर्वे लोकाः पारतीर्थिकधर्मधारिणो संति । न कोपि जैनधम्मर्धारी। ततः साध्वाचारं प्रतिपालयद्भिः सिद्धान्तोक्ततीर्थकरधर्मशुभकर्मप्ररूपणां कुर्वद्भिः सद्भिः श्रीरत्नप्रभसूरिभिः पारतीर्थकानेकच्छेकविवकिलाकाः प्रतिबोधितास्ततः एते ओकेशा इति विरूदो विख्यातो जातः । इति तृतीयो अर्थः ॥ ३ ॥
_ अः कृष्णः, आ: ब्रह्मा, उः शंकरः, एषां द्वंद्वे आवस्ततः ओभिः कृष्णब्रह्मशंकरदेवैः कायते स्तूयते देवाधिदेवत्वादिति ओकः प्रस्तावात् श्रीवर्धमानस्वामी क्वचिदिति ड प्रत्ययः, ओकश्चासौ ईशश्च ओकेशस्तम्याय ओकेशः वर्तमानतीर्थाधिपतिश्रीवर्धमानजिनपतितीर्थाश्रयणादिति चतुर्थोऽर्थः ॥ ४ ॥
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उपकेशगच्छीया पट्टावली अः अर्हन्,अः स्यादर्हति सिद्धे चेत्युक्तेः । प्रस्तावादिह अ इति शब्देन श्रीवर्धमानस्वामी प्रोच्यते । ततः अस्य ओको गृहं चैत्यमिति यावत् , ओकः श्रीवर्धमानस्वामिचैत्यमित्यर्थः । तस्मादीशः ऐश्वर्य यस्य स ओकेशः यतोयं गणः श्रीमहावीरतीर्थकरसान्निध्यतः स्फातिमवापेति पंचमोऽर्थः ॥ ५ ॥ एवमस्य पदस्यानेकेप्याः संबोभुवति परं किं बहुश्रमेणेति ॥
__ अथ उपकेशशब्दस्य कियंतोऽर्था लिख्यतेः । उप समीपे केशाः शिरोरूहाः सत्यस्येति उपकेशः । श्रीपार्थापत्यीयकेशिकुमारानगारः । एतदुत्पत्तिवृत्तांतस्तुः श्रीस्थानांगवृत्त्यादौ सप्रपंचः प्रतीत एवास्ति । तत एवावगंतव्यः। ततः उपकेशः श्रीकेशिकुमारानगारः पूर्वजो गुरुर्विद्यते यस्मिन् गणे स उपकेशः । अभ्रादित्वाद प्रत्ययः । अस्मिन्गछे हि श्री केशिकुमारानगारः प्राचीनो गुरुरासीत् । ततो यथार्थमुपकेश इति नाम जातमिति प्रथमोऽर्थः ॥ १ ॥
उपवर्जितास्त्यक्ताः केशा यत्र सः उपकेशः ओसिकानगरी तस्यां हि सत्यिका देव्याश्चैत्यमस्ति । तदने च घनर्जनैः प्रथमजातबालकानां सुदिने दिने मुंडनं कार्यते तत उपकेश इति यथार्थ नाम ओसिकानगर्याः प्रख्यातं जातं । तत्र भवो यो गच्छः स उपकेशः प्रोद्यते सद्भिविद्वद्भिः । अत्र हि भवे इत्यनेन सूत्रण अणि प्रत्यये संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाद्वद्धरभावः । श्रीरत्नप्रभसरितो अनेक श्रावक प्रतिबोधविधानानंतरं लोके गच्छस्य उपकेशेति नाम प्रसिद्धं जातमिति द्वितीयोऽर्थः ॥ २ ॥
को ब्रह्मा, अः कृष्णः, अः शंकरः, ततो द्वंद्वे काः । तैरीष्टे ऐश्वर्यमनुभवति यः सः केशकानां ईशः ऐश्वर्य यस्माद्वा केशः पारतीर्थिकधर्मः सः उपवजितस्त्यक्तो यस्मात्स उपकेशस्तीर्थकृदुक्तविशुद्धधर्मः स विद्यते यस्मिन् गच्छे स उपकेशः । अत्रापि अभ्रादित्वादप्रत्ययः । इति तृतीयोऽर्थः ॥ ३ ॥
कं च सुखं ई च लक्ष्मीः कयौ ते ईशे स्वायत्ते यत्र यस्माद्वा स केश:--अर्थात् जैनो धर्मः । स उपसमीपे अधिको वाऽस्माद्गच्छात्स उपकेशः इति चतुर्थोऽर्थः ॥ ४ ॥
कश्च अश्च ईशश्च केशा:-ब्रह्मविष्णुमहेशाः । तद्धर्मनिराकरणात्ते उपहता येन सः उपकेशः । प्रकरणादत्र श्रीरत्नप्रभसारः गुरुः तस्यायं उपकेशः । अत्रापि तस्येदमित्यणि प्रत्यये पूर्ववद्वृद्धेः अभावो न दोषपोषायेति पंचमोऽर्थः ॥ ५ ॥
इत्थमन्येऽप्यनेके अर्था ग्रन्थानुसारेण विधीयते, परमलं बहुश्रमेणेति । एवमुक्तव्यक्तयुक्तिव्याक्तिशक्त्या ओकेशोपलक्षणे उभे अपि नाम्नी यथार्थे घटां प्राचतः ॥इति ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी समाप्ता ॥
संवत् १६५५ वर्षे ॥ श्रीमद्विक्रमनगरे सकलवादिवृंदकंदकुद्दालश्रीकक्कुदाचार्यसंतानीयश्रीमछीसिद्धसूरीणां आग्रहतः श्रीमहत्खरतरगच्छीयवाचनाचार्यश्रीज्ञानविमलगणिशिष्यपंडितश्रीवल्लभगाणाविरचिता चेयम् । श्रीरस्तु ॥
ग्रीष्महेमंतिकान् मासान्, अष्टौ भिक्षुः प्रचक्रमे ।
रक्षार्थं सर्वजंतूनां वर्षास्वैकत्र संवसेत् ॥ १ ॥ - मनुष्याणां सर्वेषु पदार्थेषु सारो धर्म एव । मनुष्यत्वं धर्मेणैव वर्ण्यते ॥ स धम्मो वर्षासु मुनिपार्थात् श्रोतव्यः । यतयो वर्षास्वकत्र तिष्ठन्ति, किमर्थ सर्व जंतूनां रक्षार्थ । धर्मस्य सारं सर्व
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जैन साहित्य संशोधक जीवेषु दया । वर्षा पृथ्वी जीवाकुला भवति संयमो विराध्यते । अतो जीवरक्षार्थ चतुर्मासकल्प तिष्ठंति । शिवशासने पि जीवदयास्वरूपमेवं व्यावर्णितं --
पश्यन् परिहरन् जंतून मार्जन्या मृदुसूक्ष्मया । एकाहविचरेद्यस्तु चंद्रायणफलं भवेत् ॥ १ ॥ महाभारते कृष्णद्वीपायनेनाप्युक्तं
यो दद्यात्कांचनं मेरुः कृत्स्नां चापि वसुंधरां । एकस्य जीवितं दद्यात् न च तुल्य युधिष्ठिरः ॥२॥ परेप्येवं वदंति जैनवाक्यस्य किं वाच्यं । मुनयः क्षेत्रस्य त्रयोदश गुणान् वीक्ष्य तिष्ठति
चखिल १ पाण २ थंडिल ३ वसहि ४ गोरस ५ जणा ६ उले ७ विज्ने । ओसह ९ धन्ना १० हिवइ १० पासंडा ११ भिखु १२ सिज्झाय ॥ १३ ॥ एते त्रयोदश गुणाः । तत्र स्थिता दशधा समाचारी पालयतिइच्छा १ मिच्छा २ तहकारो ३ आवम्सिया ४ निसीहिया ५ आपुच्छणा य ६ पडिपुच्छ ७ छंदणा य ८ निमंतणा य ९ उपसंपयाकाले ॥ १० ॥ समाचारी भवे दसहा ॥१॥
पुनः धर्मशास्त्रण्युपदिशति । श्राद्धा वासनावामितचित्ताः शृण्वंति । परं चातुर्मासकात्पंचाशदिने व्यतिक्रांते कल्पावसरं ।
- वीसहि दिणेही कप्पो पंचगहाणीय कप्पठवणायं ।
नव (९) सय तेणू (९३) एहिं वुच्छिन्ना संघआणाए ॥ १ ॥ अधुना कल्पावसरे अन्यग्रन्थादरो न यथा दिव्यकौस्तुभाभरणं प्राप्य अन्यरत्नाभरणेषु निरादरत्वं जायते यथा च कुंडपातालामृतं प्राप्यांबुजलास्वादो न रोचते । भारतीभूषणकविजनवचनरचनामासाद्य सामान्यजनवचांसि न रोचते । चक्रवर्तिन अग्रे सामान्यराजानोऽपसरते देवानां नंदीश्रवणेनान्यशब्दा हीनतां व्रजति । गन्धहस्तिनो गंधे अन्यगजेंद्रा मदजलविकला भवंति । केवलज्ञानागमने अन्य ज्ञाना अपसरंति । कल्पवृक्षाग्रेऽन्ये तरवाः न राजते । सूर्योदये खद्योतस्य का प्रभाः। मुक्तिसौख्याने कानि सौख्यानि । सिंहध्वनेः पुरो यथा अन्ये शब्दा न राजते तथा कल्पावसरे अन्यानि शास्त्राणि आदरो न। स कल्पो अनेकविधः-श्रीशत्रुजयकल्पः गिरनारगिर कल्पः कदंब गिरिकल्पः अर्बुदाचलकल्पः अष्टापदकल्पः समेतगिरकल्पः हस्तिनापुरकल्पः मथुरानगरीकल्पः सत्यपुरकल्पः शंखेसरकल्पः स्तंभनतर्थि कल्पः यतीनां विहारकल्पः वस्त्रस्य कल्पसंज्ञा अनेन प्रकारेण अनेके कल्पसंज्ञाः । एके कल्पाः एवं विधा वर्त्तते । यस्य प्रमाणेन श्री पादलिप्ताचार्यों यावदायाति साधवो विहृत्य तावत् पंच तीर्थ नमस्कार विधायागच्छंति । एके कल्पास्ते उच्यते येषां प्रमाणेन अदृशीकरणं आकाशगमनं स्वर्णसिद्धिः लक्ष्मी प्राप्ति मित्र पुत्र बांधवस्वजन प्राप्ति प्रभृति लब्धयः संपद्यते । परमयं कल्पोऽमेय महिमा निधिः इह लोकाभीष्ट सौख्यकारणं । अयं कल्पो दशाश्रुतस्कंधम्याष्टममध्ययन । नवमपूर्वात् श्री भद्रबाहु स्वामिनोद्धृतः अमेयमहिमानिधानः सर्व पापक्षयं करः यथा श्रूयमानः द्रुमेषु कल्पद्रुः सर्वकामफलप्रदः यथौषधीषु पीयूषं सर्वरोग हरं परं रत्नेषु गुरुडोद्गार यथा । सर्वविषापहारः मंत्राधिराजो मंत्रेषु यथा सर्वार्थ साधकः । यथा पर्वसु दीपाली सर्वात्मा सुखावहा तथा कल्पः सद्धर्मे शास्त्रेषु सर्व पापहरस्तथा सर्व सिद्धान्त मध्ये
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उपकेशगच्छीया पट्टावलिः
श्रीकल्पो गुरुतरः यथा पर्वतानां मध्ये मेरुः ती माहि शत्रुंजयः दानमध्ये अभयदान अक्षरमध्ये ॐकार देवेष्विन्द्रः ज्योतिषीषु चंद्र गजेंन्द्रेप्वैरावण समुद्रेषु स्वयंभुरमणः तुरंगमेषु रेवत ऋतुषु वसंत मृतिकयां तूरी सुगंधीषु कस्तुरी धातुषु पीतं मोहनेषु गीतं काष्टेषु चंदनं इंद्रियेषु नेत्रं व्यवहार पर्वसु दीपालिका धर्मशास्त्रेषु कल्पः सर्व पापहरः सर्व दुखक्षयंकरः । यथा जनमेजय राजा अष्टादश पर्व श्रवणात् १८ विप्र हत्या त्यागः यवनिका श्यामत्वं जातं । यथा एकस्मिन् दिवसे जनमेजय राजाग्रे पुरोहितेन कथितं पूर्वे त्रेतायुगे पांडवैश्च कौरवः कृता अष्टादशाक्षोहिणिमृताः महाभारतो जातः । राजा प्रोक्तं को नाभवत् यत्तेषां निवारयति पुरोहितेन कथितं त्वां न निवारयामि । यतः अद्य दिवसात् षष्टे मासे त्वं आखेटके न गंतव्यं यदा गमिष्यति तदा सूकरमृगं तेषां केटके अभ्धो न क्षेपणयिं यदा अस्व क्षेपयति तदा सगर्भा मृगी तस्यां बाणं न मोचनीयं यदा मुंचति तदा तस्या उदरं मध्ये पुत्रिका भविष्यति सा न गृहीतव्या यदा ग्राहयति तदा तस्या पाणिग्रहणं न करणीयं यदा प्राणिग्रहणं करोति तदा तस्या पट्टराज्ञपिदं न दातव्यं तस्या कथितं न मान्यं । इत्यादि भविष्यति वचनानि मया तव कथिताः स्युः परं त्वं न तिष्ठसि । अथ षट् मासाः द्वित्रिदिवसोना गता तदा मालाकारेणागत्य राज्ञः कथितं भो राजन् तव वनो सूकरैः भग्नः । राज्ञा अवं सज्जीकृत्य तेषां पृष्ठे गतः । ते पूर्वोक्तानि वचनानि सर्वे कृता गढवालस्य पुत्रिका दत्ता एषा त्वं पालय तेन पालिता परं स्वरूपा । अन्यदा राज्ञा दृष्टा सा परिणीता पूर्ववचनानि सर्वे विस्मृताः राज्ञा पट्टराज्ञी कृता । अन्यदा राज्ञा यज्ञो मंडितः अष्टादशपुराणवेत्तारः अष्टादश ब्राह्मणा आकारिताः यज्ञं यजमानं कश्चिद्दूतेन देशान्तरादागतेन नृपोः आहूतः राज्ञा विप्राणां कथितं अहं उत्तिष्ठामि ते कथितं हि यज्ञस्य विघातो भवति परं तव शररिसमाना पट्टराज्ञी अस्ति राजा उत्थित ततः कटके किंचिच्छात्त्रस्य रहस्यो आगतः ते ब्राह्मणाः हसिताः राज्ञी ज्ञातं एते मम हसिता क्रुद्धा राज्ञः कथितं एते विनष्टा मां हसति ततः यदि एते मारयिष्यति तदा तव मम संबंधः । राज्ञा ते मारिता अष्ठादशधा कुष्टा जातं । ततः पूर्वपुरोहितेन कथितं वरं त्वया न कृतं राज्ञा कथितं अधुना कथय किं करोमि तेन ari अष्टादशपुराणानि निसंदेहानि शृणु । ते चामि आदि पर्व १ सभा पर्व २ विराट पर्व ३ आरण्यक पर्व ४ उद्यान पर्व५ भीष्म पर्व६ द्रोण पर्व ७ कर्ण पर्व ८ शल्य पर्व९ सौतिक पर्व १० गर्भपाल पर्व ११ शान्ति पर्व १२ शासन पर्व १३ आसुमास्य पर्व १४ मेषक पर्व १९ मूशल पर्व १६ यज्ञ पर्व १७ स्वर्गारोहण पर्व १८ ॥ एभिरष्टादशविप्रहत्याक्षयकृतायवनिकाश्यामत्वं जाताः । तथा अयमपि अधुना ये मुनयः उपवासत्रयेण वाचयंति चतुर्विधसंघो अष्टमेन शृणोति तदा तस्मिन्नेव भवे मोक्षः । यदि द्रव्यक्षेत्र कालसद्भावा भवंति । न चेत्तदा तृतीयभवे पंचमे भवे सप्तमे भवे अवश्य मोक्षः । पूर्व मुनयः पाक्षिकसूत्रवत् ऊर्ध्वस्थाः कथयति चतुर्विध संघ उद्धर्वसन्नेव श्रणोति परं श्रीवीरनिर्वाणात ९९३ वर्षे ते आनंदपुरे ध्रुवसेनराज्ञः सभायां पुत्रशोकापनोदाय देवार्द्धमुनिना सभासमक्षं वाचितः श्रावकाः तांबूलदानादिप्रभावना कृता । तद्दिनादाभ्य सा रीतिः । परं त्वस्य कालस्य वाचनैवोच्यते न तु व्याख्या । पूर्वे ये पादलिप्ताचार्य-सिद्धसेनदिवाकरप्रभृतयो अभूवन् तैरपि वाचनैवोक्ता अन्येषां का वार्ता । यतः सिद्धान् इत्युक्तमस्ति सव्वनईणं जइहु वालुआ इत्यादि । एवंविधस्य कल्पस्य यदहं वाचनामनोरथं करोमि स बाहुभ्यां समुद्रतरणमभिलषामि । यथा कुब्ज उच्चफलं लातुमिच्छति तथाऽहं यदिच्छामि वाचनां; कर्तुं तत् संघस्य सांनिध्यं पुनः गुरूणां प्रासादः । यद्वर्षाकाले मयूरो नृत्यं करोति तज्जलधरगर्जितप्रमाणं । दृषद्वपश्चंद्र
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जैन साहित्य संशोधक
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कांतमणिर्यदमृतं खूते तच्चंद्रस्य प्रमाणं । सूर्यसारथी रविः आरूणः पंगोपि यदाकाशमुल्लंघयति तत्सूर्यस्य प्रमाणं । पुत्तालिका नृत्यं करोति तद्विंदजालिकस्य प्रमाणं । तथाऽहं मंदबुद्धिः मूर्खशिरोमणिः प्रमाणे सप्रमाणता नास्ति, लक्षणे सल्लक्षणता न, अलंकारस्याऽलंकरणं नहि, साहित्ये साहित्यं नास्ति, छंदासे सुछंदता न; एवंविधो पि वाचनाय साहसं करोमि तत् सद्गुरूणां प्रसादः । पुरातनैर्व्याख्या कृता । ममापि युक्तिः । कथं जं देवो सायरो लहरिगज्जंतनीरपडिपुन्नो । ता किं गामतलाओ जलमरिओ लहरिगा देऊ ॥ १ ॥ जइ भरह भावछंदे नच्चइ नवरंग चंगमा तरूणी । ता किं गामगहिल्ली तालिछंदेन नच्चेइ ॥ २ ॥ जइ दुद्धधवलखीरी तडफडइ विविहभंगेहि । ता कुक्कसकणसहिया रव्वडिया मा तडव्वडह ॥ ३ ॥ अहं यद्वेद्मि तद्गुरूणां प्रसादः ।
टालो रोलो रुलंतो अहियं विन्नाण नाण परिहीणो । दिव्वुव वंदणिज्जो विहिओ गुरुसुत्तहारण ॥४॥ ते गुरवः श्रीपार्श्वनाथ संतानीयाः ।
१ श्रीपार्श्वनाथ शिष्यः प्रथमो गणधरः श्रीशुभदत्तः । २ तत्पट्टे श्रीहरिदत्तः । ३ तत्पट्टे श्री आर्यसमुद्रः । ४ तत्पट्टे श्रीकेशीगणधरः तेन परदेशीनृपः प्रतिबोधितः । राजप्रश्नीयउपांगे प्रसिद्धः ।
९ तत्पट्टेश्रीस्वयंप्रभसूरिः । ( स्वयंप्रभसूरिशिष्य बुद्धकीर्तिसुं बौधमत नकिल्यो, आचारांग का जाणनो ) अन्यदा स्वयंप्रभसूरि देशनां ददतां उपरि रत्नचूडविद्याधरो नंदस्वरे गच्छन् तत्र विमानः स्तंभितः । तेन चिंतितः मदीयो विमानः केन स्तंभितः । यावत् पश्यति तावदधो गुरुं देशनाददंतं पश्यति । स चिंतयते मयाऽविनयः कृतः यतः जंगमतीर्थस्य उल्लंघनं कृतं । स आगतः गुरुं वंदति धर्मे श्रुत्वा प्रतिबुद्धः । स गुरुं विज्ञपयति मम परंपरागता श्रीपार्श्वजिनस्य प्रतिमास्ति तस्या वंदने मम नियमोऽस्ति सा रावणलंकेश्वरस्य चैत्यालये अभवत् । यावत् रामेण लंका विध्वांसता तावद् मदीयपूर्वजेन चंद्रचूडनरनाथेन वैताढ्य आनीता । सा प्रतिमा मम पार्श्वेस्ति । तया सह अहं चारित्रं ग्रहीष्यामि । गुरुणा लाभं ज्ञात्वा तस्मै दीक्षा दत्ता । क्रमेण द्वादशांगी चतुर्दश पूर्वी बभूव गुरुणा स्वपदे स्थापितः । श्रीमद्वीरजिनेश्वरात् द्विपंचाशतवर्षे (५२) आचार्य पदे स्थापितः । पंचाशतसाधुभिसह घरां विचरति । श्रीलक्ष्मीमहास्थानं तस्याभिधानं १ पूर्व नाम गुजरातिमध्ये कृतयुगे रयणमाला २ त्रेतायुगे रयणमाला ३ द्वापरे श्रीवीरनयरी ४ कलियुगे भनिमाल ५ तत्र श्रीराजाभीमसेन तत्पुत्त्रश्रीपुंज तत्पुत्र उत्पलकुमार अपरनाम श्रीकुमार तस्य बांधव श्री सुरसुंदर युवराज राज्यभारधुरंधर। तयोरमात्य चांद्रवंशीय द्वौ भ्राता तत्र निवासी सा० ऊहड १ उद्धरण २ लघु भ्राता गृहे सुवर्ण संख्या आष्टादश कोट्यः संति । वृध्दभ्रातुर्गृहे ९९ नवनवति लक्षा संति । ये कोटीश्वरास्ते दुर्गमध्ये वसति ये लक्षश्वरास्ते वाह्ये वसंति । तत ऊहडेन एकलक्ष भ्रातुः पार्श्वे उच्छीर्ण याचितं । तो बांधवेन एवं कथितं भवते विना नगरं उध्वसमस्ति भवतां समागमे वासो भविष्यति । एवं ज्ञात्वा राजकुमार ऊहडेन आलोचितवान् नूतनं नगरं वसेयं ततो मम वचनं अग्रे आयातः । ढीलीपुरे राजा श्री साधु तस्य ऊहडेन ५५ तुरंगमा भेटिकृता उवएसा संतुष्टो ददौ । ततो भीनमालात् अष्टादश १८ सहस्र कुटुंब अगात् । द्वादश योजना नगरी जाताः । तत्र श्रीमद्रत्नप्रभसूरीपंचसयासीष्य समेत लुणद्रही समायाति । मासकल्प अरण्ये स्थिता । गोचर्यं मुनीश्वरा व्रजेति परं भिक्षा न लभते । लोका मिथ्यात्व वासिताः यादृशा गता तादृशा आगता मुनीश्वराः । पात्राणि प्रतिलेष्य मासं यावत् संतोषेण स्थिताः पश्चात् विहारः कृतः । पुनः कदाचित् तत्रायातः । शासनदेव्या कथितं भो आचार्य अत्र चतुर्मासकं कुरु ।
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६]
उपकेशशमच्छीका पट्टावलिः
1
तब महालामो भविष्यति । गुरुः पंच त्रिंशत् मुनिभिः सह स्थितः । मासी द्विमासी तृमासी चतुर्मासी उप्पोसित कारिका । अथ मंत्रश्विर ऊहड सुतं भुजंगेन दृष्टः । अनेक मंत्रवादिनः आहूताः परं न कोपि समर्थस्तैः कथितं अयं मृतः दाघो दयितां । तस्य स्त्री काष्टभक्षणे स्मशाने आयाता । श्रेष्टस्य महान् दुःखो जातः । वादित्रान् आकर्ण्य लघुशिष्यः तत्रागतः । झंपाणो दृष्ट्वा एवं कथापयति भो ! जीवितं कभ ज्वालयत तैः श्रेष्टिने कथितं एषः मुनीश्वरः एवं कथयति । श्रेष्टिना झपाणो वालितः क्षुल्लकः प्रनष्टः गुरुः पृष्ठे स्थितः । मृतकामानीय गुरु अग्रे मुंचति श्रेष्टि गुरु चरणे शिरं निवेश्य एवं कथयति भो दयालु मम देवो रुष्टः मम ग्रहो शून्यो भवति । तेन कारणेन मम पुत्रभिक्षां देहि । गुरुणा प्रासु जलमानीय चरणौ प्रक्षाल्य तस्य छंटितं। सहसात्कारण सज्जो बभूव हर्ष वादित्राणि बभूव । लोकैः कथितं श्रेष्ट सुतः नूतन नन्मो आगतः । श्रेष्टिना गुरूणां अग्रे अनेकमणि मुक्ताफल सुवर्ण वस्त्रादि आनीय भगवान् गृह्यतां । गुरुणा कथितं मम न कार्ये परं भवद्भिः जिन धम्र्म्मो गृह्यतां । सपाद लक्ष श्रावकानां प्रति बोधि कारक । पूर्व श्रेष्ठिना नारायण प्रासादं कारयितुमारब्धं । स दिवसे करोति रात्रौ पतति सर्वे दर्शनिनः पृष्टा न कोपि उपायो कथितं तेन रत्नप्रभाचार्यो प्रष्टः - भगवान् मम प्रासादो रात्रौ पतति । गुरुणा प्रोक्तं कस्य नामेन कारयतः । नारायण नामेन । एवं नहि महावीर नामेन कुरु मंगलं भविष्यति । प्रासादस्य विघ्नं न भविष्यति श्रेष्टिना तथैव प्रतिपन्नं । अथ शासनदेव्या गुरूणां कथितं हे भगवन् अस्य प्रासाद योग्यं मया देव गृहात् उत्तरस्यां दिशी लूणद्रहाभिधानं डुंगरिकायां श्री महावर बिंबं कारयितुमारब्धं । तत्र तेन श्रेष्टिना गोपाल वचनात् गोदुग्ध स्त्रावकारणं ज्ञात्वा सर्वेपि दर्शनः पृष्टाः तैः पृथक् पृथक् भाषया अन्यदन्यदुक्तं । ततः श्रेष्टिना स आचार्योऽभिवंद्य पृष्टः ततः शासन देव्या वाक्यात् आचार्यो ज्ञात्वा एवं कथयति तत्र त्वत्प्रासाद योग्य बिंबो भविष्यति परं षट् मासैः सार्द्ध सप्त दिनैः निष्कासनीयं । श्रेष्टि उच्छुक संजातः । किंचिदुनैर्दिनैः निष्कासितः निंबु फल प्रमाण हृदयस्थ ग्रन्थीद्वय सहितं । आचार्यैः प्रोक्तं अद्यापि किंचित् असंपूर्ण बिंबं विलंबस्व श्रेष्टिना प्रोक्तं गुरूणां कर प्रासादात् संपूर्ण भविष्यति । तेनावसरे कोरंटकस्य श्राद्धानां आव्हानं आगतं । भगवन् प्रतिष्ठार्थमागच्छ । गुरुणा कथितं मुहूर्त वेलायां आगच्छामि ।
सप्तत्या ७० वत्सराणां चरम- - जिनपतेर्मुक्तजातस्य वर्षे पंचपक्षे सुरगुरुदिवसे ब्रह्मणः सम्मूहुर्ते । रत्नाचार्यैः सकलगुणयुतैः सर्वसंधानुज्ञातैः
श्रीमद्वीरस्य बिंबे भवशतमथने निर्मितेयं प्रतिष्ठा ॥ १ ॥ उपवेशे व कोरंटे तुल्यं श्री बीरविजयोः
प्रतिष्ठा निर्मिता शक्त्या श्रीरत्नप्रभसूरिभिः ॥ २ ॥
निजरूपेण उपकेसे प्रतिष्टा कृता वैक्रिय रूपेण कोरंटके प्रतिष्टा कृता श्राद्ध द्रव्यव्ययः कृतः । ततस्तेन श्रेष्ठिना श्री औपकेश पुरस्थ श्रीमहावीर बिंब पूजा आरात्रिका स्नात्रकरण देव वंदनादिविधिः श्रीरत्नप्रभाचार्यात् शिक्षिता । तदनंतरं मिथ्यात्वाभावात् श्रावकत्वं केषांचित् श्रेष्टिसंबंधिनां संजातं । ततः आचार्येण ते सम्यक्त्वधारी कृता । एकदा प्रोक्तं भो यूयं श्राध्दा तेषां देवीनां निर्दयचित्ताया महिष बोत्कटादि
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जैन साहिला मशोषक जीवधास्थि मंगशब्द श्रवण कुतुहलाप्रियया अविरतायाः रक्तांकितभूमितले आर्द्रचर्मबद्धवंदनमाले निष्ठुरजनसेवितं धर्मध्यानविद्यापके महाबीभत्सरोद्रे श्री सच्चिकादेवि गृहे गंतुं न बुध्यते । इति आचार्यवचः श्रुत्वा ते प्रोचुः प्रमो युक्तमेतत् परं रौद्रा देवी यदि छलिस्याम तदा सा कुटुंबान् मारयति। पुनराचार्य: प्रोक्तं अहं रक्षां करिस्यामि । इत्याचार्यवाक्यं श्रुत्वा ते देवी गृहे गमनात् स्थिताः । आचार्याणां प्रत्यक्षीभूय देव्या सकोपमित्युक्तं आचार्य मम सेवकान् मम देवगृहे आगच्छमानान् निवारणाय त्वं न भविष्यति । इत्युक्त्वा गता देवी परं सातिशय कालमावात् महाप्रभावात् अनेकसुरकृतप्रातिहार्ये आचार्ये देवी न प्रभवति । एकदा छलं लब्ध्वा देव्या आचार्यस्य कालवेलायां किंचित् स्वाध्यायादि रहितस्य वामनेत्रभ्ररधिष्टिता । वेदाना जाता । आचार्यैः यावत् सावधानीभूय पीडायाः कारणं चिंतितं तावत् देवी प्रत्यक्षीभूय इत्ति प्रोक्तं मया पडिा कृता । अहं स्वशक्त्या त्वां स्फेटयिष्यामि इति सावष्टंभं आचार्योक्तं श्रुत्वा समयाकूतं सा विनयं प्रोक्तं भवाशानां ऋषीणां विग्रहं विवादो न युक्तः । यदि त्वं कडडमडडं ददासि सदाहं वेदनां अपहरामि । आचंद्राकै त्वकिंकरी भवामि इति श्रुत्वा आचार्यः प्रोक्तं कडडमडडं दापयिष्यामि । इत्युक्ता गता देवी। प्रभाते श्रावकानामाकार्य तैः पक्वान्न खज्जकादि सुंडकद्वयं कर्पूरकुंकुमादिमोगश्च आनीय श्रीसच्चिकादेवी देवगृहे श्रीरत्नप्रभाचार्यः श्रावकैः सार्धं गतः। ततः श्रावकैः पार्धात् पूजां कराप्य वामदाक्षिणहस्ताभ्यां पक्वान्नसुंडकादि चूर्णयद्भिः आचार्यैः प्रोक्तं देवी कडडमडडं दत्तमस्ति । अतः परं ममोपासिका त्वं इति वचनानंतरं एव समीपस्थ कुमारिका शरीरे आवेशः कृतः । ततः प्रोक्तं प्रभो मया अन्य कडडमडडं याचितं अन्यं दत्तं । आचार्यैः प्रोक्तं त्वया वधो याचितः स तुलातुं दातुं न बुध्यते इत्यादिसिद्धान्तवाक्यं कुमारी शरीरस्था श्रीसच्चिकादेवी सर्वलोक प्रत्यक्ष श्रीरत्नप्रभाचार्यः प्रतिबोधिता । श्रीउपकेशपुरस्था श्रीमहावीरभक्ता कृता सम्यक्त्वधारिणी संजाता । आस्तां मांसं कुसुममपि रक्तं नेच्छति । कुमारिका शरीरे अवतीर्णा सती इति वक्ति भो मम सेवका यत्र उपकेशपुरस्थं स्वंयभू महावीरबिंबं पूजयति श्रीरत्नप्रभाचार्य उपसेवति भगवन् शिष्यं प्रशिष्यं वा सेवति तस्याहं तोषं गच्छामि। तस्य दुरितं दलयामि यस्य पूजा चित्ते धारयामि। एतानि शरीरे अवतीर्णा सा कुमारी कथ्यतां । श्रीसधिकादेव्या वचनात् क्रमेण श्रुत्वा प्रचुरा जनाः श्रावकत्वं प्रतिपनाः । क्रमेण श्रीरत्नप्रभाचार्य ८४ वर्षे स्वर्ग गतः।
र तपट्टे यक्षदेवाचार्यः माणभद्र यक्ष प्रतिबोध कर्ता संघस्य विघ्नो निवारितः । ९ तत्पट्टे ककसूरि । १० तत्पटे देवगुठसार । ११ तत्पट्टे सिद्ध सूरि । १२ तत्पट्टे रत्नप्रभ सूरि । १३ तत्पट्टे यक्षदेव सरि ।
१४ तत्पट्टे कक्क सूरि। स्वयंभू श्रीमहावीर स्नात्र विधि काले, कोसौ विधिः कदा किमर्थं संजातः इस्युच्यते-तस्मिन्नेव देव गृहे अष्टान्हिकादिकमहोत्सवं कुर्वतास्तेषां मध्ये अपरिणतवयसा केषांचित् चित्ते इयं दुर्बुद्धिः संजाताः । यदुत भगवत् महावीरस्य हृदये ग्रन्थी द्वयं पूजां कुर्वतां कुशोभा करोति अतः मशकरोगवत् छेदयितां को दोषः। वृद्धैः कथितं अयं अघटितः टंकिना घातो न अर्हः। विशेषतो अस्मिन् स्वयंभू श्री महावीर विवे । वृद्धवाक्यमवगण्य प्रच्छन्नं सूत्रधारस्य द्रव्यं दत्वा ग्रन्थिद्वयं छेदितं तत्क्षणादेव सूत्रधारो मृतः। प्रन्पिच्छेदप्रदेशे तु रक्त धारा छुटिता । तत उपद्रवो जातः । तदा उपकेशगच्छाधिपति श्रीकक्क सूरिभिः पायम्दिः चतुर्विधसंघेनाहूता वृत्तातं कथितं । आचार्यैः चतुर्विधसंच स
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उपकशगच्छीया पट्टावलिः हितेन उपवास त्रयं कृतं । तृतीय उपवास प्रान्ते रात्रिसमये शासनदेवी प्रत्यक्षी भय आचार्याय प्रोक्तं हे प्रभो न युक्तं कृतं बालश्रावकैः मद् घटितं किंबं आशातितं । कलानीशकृतं अतोनंतरं उपकेशनगरं शनैः २ उपभ्रंसं भविष्यति । गच्छे विरोधो भविष्यति । श्रावकाणां कलहो भविष्यति ।गोष्ठिका नगरात् दिशोदिशं यास्यति । आचार्यैः प्रोक्तं परमेश्वरि भवितव्यं भवत्येव परं त्वं श्रवतुरुधिरं निवारय । देव्या प्रोक्तं घृत घटेन दधि घटेन इक्षुरस घटेन दुग्ध घटेन जल घटेन कृतोपवासत्रय यदा भविष्यति तदा अष्टादशा गात्र मेलं कुरु; तेमी १ तातहड गोत्रं । २ बापणा गोत्रं । ३ कर्णाट गोत्रं । ४ वल गोत्रं । ५ मोराक्ष गोत्रं । ६ कुल हट गोत्रं । ७ विरिहट गोत्रं । ८ श्री श्रीमाल गोत्रं । ९ श्रेष्टिगोत्रं । एते दक्षिण बाहु। १ सुचंती गोत्रं । २ आइचणा गोत्रं । ३ चारवेडीया गोत्रं । ४ भाद्र गोत्रं । ५ चींचट गोत्रं (देशलहरासाखा)। ६ कुंभट गोत्रं । ७ कनउजया गोत्रं । ८ डिंडम गोत्रं । ९ लघु श्रेष्टि गोत्रं । एते वाम बाहु स्नात्रं कर्तव्यं नान्यथाऽशिवो शान्तिर्भविष्यति। मूल प्रतिष्ठानंतरं वीर प्रतिष्ठा दिवसातीते शतत्रये ३०३ अनेहसि ग्रंथियुगस्य वीरोरस्थस्य भेदोऽजनि दैव योगात् इत्युक्तं श्रीमदुपकेशगच्छचरित्र सूत्रे श्लोक-१७२ .
१५ तत्पट्टे श्रीदेवगुप्तसूरि। १६ तत्पट्टे सिद्ध सूरि। १७ तत्पट्टे रत्नप्रभ सरि।
१८ एवं अनुक्रमेण श्रीवीरात् वर्षे ५८५ श्रीयक्षदेवसारैर्बभूव महाप्रभावकर्ता द्वादशवर्षे दुर्भिक्षमध्ये वज्र स्वामी शिष्य वज्रसेनस्य गुरोः परलोकप्राप्ते यक्षदेवसूरिणा चत्वारि शाखाः स्थापिता:
१९ तत्पट्टे कक्कसूरि । २० तत्पट्टे देवगुप्तसूरि । २१ तत्पट्टे सिद्ध सूरि । २२ तत्पट्टे रत्नप्रभसूरि । २३ तत्पट्टे यक्षदेव सूरि । २४ तत्पट्टे कक्क सूरि । २५ तत्पट्टे देवगुप्तसूरि । २६ तत्पट्टे सिद्ध सूरि । २७ तत्पट्टे रत्नप्रभसूरि । २८ तत्पट्टे यक्षदेव सूरि । २९ तत्पट्टे कक्कसरि । ३० तत्पट्टे देवगुप्त सूरि । ३१ तत्पट्टे सिद्धसूरि । ३२ तत्पट्टे रत्नप्रभ सूरि । ३३ तत्पट्टे यक्षदेव सूरि ।
३४ तत्पट्टे ककुदाचार्य । तत्पट्टे देवगुप्ताचार्य । तत्पट्टे सिद्धाचार्य। एतानि पंच उपकेशगच्छाधिपाचार्याणां मूलनामानि। तत्पट्टे कक्कसरि द्वादश वर्षयावत् षष्ट तप आचाम्लसहितं कृतवान् । तस्य स्मरणस्तोत्रेण मरोटकोटे सोमकश्रेष्टिस्य श्रृंखला त्रुटिता । तेन चिंतितं यस्य गुरोः नामस्मरणेन बंधनरहितो जातः एकवारं तस्य पादौ वंदामि । स भरुकच्छे आगतः । अटणवेलायां सर्वे मुनीश्वरा अटनार्थ गतास्ति । सच्चका गुरो अग्रे स्थितास्ति। द्वारो दत्तोस्ति तेन विकल्पं कृतं । शच्यका शिक्षा दत्ता मुखे रुधिरो वमति । मुनीश्वरा आगता ।वृद्धगणेशेन ज्ञातं भगवन् द्वारे सोमकश्रेष्टी पतितोस्ति। आचार्यैः ज्ञातं अयं सच्चिकाकृतं । सच्चिका आहूता कथितं त्वया किं कृतं । भगवन् मया योग्यं कृतं । रे पापिष्ट यस्य गुरुनामग्रहणे बंधनानि शृंखलानि त्रुटितानि संति स अणाचारे रतो न भविष्यति । परं एतेन आत्मकृतं लब्धं । गुरुणा प्रोक्तं कोपं त्यज शांतिं कुरु ।तया कथितं यदि असौ शान्तिर्भविष्यति तदा अस्माकं आगमनं न भविष्यति प्रत्यक्षं । गुरुणा चिंतितं भवितव्यं भवत्येव स सज्जकृितः। सच्चिकावचनात् द्वयोर्नाम भंडारे कृताः श्रीरत्नप्रभसूरि अपरश्री यक्षदेवसूरि एते सप्रभावा एतदनेहसि अस्य उपेकशगणस्य द्वाविंशति शाखा नामानि दत्तानि
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जैन साहित्य संशोधक १ नागेन्द्र २ चन्द्र ३ निर्वृत्ति ४ विद्याधराणां स्थाने १ सुंदर २ प्रभ ३ कनक ४ मेरु ५ सार ६ चंद्र ७ सागर ८ हंस ९ तिलक १० कलस ११ रत्न १२ समुद्र १३ कल्लोल १४ रंग १५ शेखर १६ विशाल १७ राज १८ कुमार १९ देव २० आनंद २१ आदित्य २२ कुंभ इति । ततः तेनैव कक्कसूरिणा अबूंदाचलमेखलायां तृषार्तस्य संघस्य डंड स्थापनेन जलं प्रगटि कृतं । तेनैव साधर्मिक वात्सल्ये जेसलपुरात् भरुकच्छे घृतो आनीतः ।
३५ तत्पट्टे श्रीदेवगुप्तसूरि । तत्पदमहोत्सवे पाठकाः पंच स्थापिता जयतिलकादि। तेन जयतिलकेन श्रीशान्तिनाथचरित्रं निर्मितं ।
३६ तत्पट्टे सिद्ध सूरि । ३७ तत्पट्टे कक्क सूरि। ३८ तत्पट्टे देवगुप्तसरि। ३९ तत्पट्टे सिद्धसूरि। ४० तत्पट्टे कक्क सूरि । ४ १ तत्पट्टे देवगुप्तसूरि। सं०९९५ वर्षे बभूव ।
४२ क्षत्रीयवंशोत्पन्नत्वात् वीणावादने तत्परं क्रियाविषयं सिथिलः । ततः चतुर्विधसंघेन तत्पट्टे वीस विस्वोपकारकः स्थापितः श्रीसिद्धसूरिः ।
४३ तत्पट्टे कक्कसूरिः पंचप्रमाणग्रन्थकर्ता । ४४ तत्पट्टे संवत् १०७२ वर्षे श्रीदेवगुप्तसूरि । ४५ तत्पट्टे नवपद प्रकरण-स्वोपज्ञटीकाकर्ता सिद्धसूरि । ४६ तत्पट्टे कक्क सूरि । ४७ तत्पट्टे देवगुप्तसूरि । ४८ तत्पट्टे सिद्ध सूरि । ४९ तत्पट्टे कक्कसूरि ।
५० तत्पट्टे संवत् ११०८ वर्षे देवगुप्त सूरिर्बुभूव। भीनमाल नगरे साह भईसाक्षेन पद महोत्सवे सप्तलक्ष धन व्ययो कृतः । ततोः गुरुणा पादप्रक्षाल्येन जले विषापहार लब्धी येन भइसाक्ष श्रेष्ठिना श्री देवगुप्त सूरेः पद महोत्सवः कृतः । स पूर्व डिंडवाण पूरे भइसा भार्या छगणाणि स्थाप्यते ततो गुरूपदेशेन ज्वालितानि छगणानि रुप्यमयानि भवंति ततो तेन रुप्येन गदहिया मुद्रा पातिता । भइसाक्ष माता श्री शत्रुजय यात्रागता खरच तुट्यते पत्तन मध्ये ईश्वरश्रेष्ठिनः पार्श्वे खरचो याचिता । तेन पृष्टं भवती कस्य माता तेन कथितं अहं भइसाक्ष माता । तेन हसितं अस्माकं गृहे पानीयमानयंति तेषां माता इति वित र्कितं। ततोऽनंतरं पश्चात् धनं गृहीत्वा यात्रां कृत्वा संघभक्ति कृत्वा गृहे जगाम। पुत्रेण प्रष्ट मातः मम कियभूमौ नामं वर्तते । माता कथितं भवतां प्रतोली द्वारं यावन्नाममस्ति । तेन वचनेन असंतोषो जातः । श्रेष्टि हास्यवचनं कथितं । तद्वचनं वालयिस्यामि तदा द्विर्ताय वेला भोजयिष्यामि । एवं प्रतिज्ञा कृत्वा पत्तने सामान्यवेषे द्वार हट्टे गतः । भो श्रेष्टि रूप्यं ग्रहिष्यसि । तेन कथितं रोषभरेण यत्किचिदानयिष्यसि तत्सर्वे गृह्णामि । संचकारो याचितः तेन युष्माभिर्दीयते सवालक्ष मुद्रिका दत्ता । ततो गर्दभयानि भारयत्वा पत्तने जगाम । पृष्टं एतत्कि रुप्यं वर्तते एवं श्रुत्वा श्रेष्टिनः चमत्कृताः स श्रेष्टि समग्र पत्तनश्रेष्टि मेल. यित्वा चरणे पपात । भइसाक्षस्तदेव कथितं गुर्जरधरीत्रीमध्ये महिषेण पानीयमानयेतुं तदा मोचयामि । तद्धनं देशे सप्तक्षत्रे व्ययो कृतः । ततो गादिया इति शाखा जाता ।
५१तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि । ५२ तत्पट्टे श्री कक्कसूरि संवत् ११५४ वर्षे बभूव । येन हेमसूरि कुमारपाल वचसा कृपाहीना मुनिवरा निष्कासिता ।
५३ तत्पट्टे देवगुप्तसूरि येन लक्ष द्रव्यं त्यजितं । ५४ तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि । ५५ तत्पट्टे संवत् १२५२ श्री कक्कसूरिर्मभूव येन मरोट कोटः प्रगटी कृतं ।
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उपकशगच्छीया पट्टावलिः
५६ तत्पट्टे श्री देवगुप्तसूरि । ५७ तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि। ५८ तत्पट्टे श्री कक्कसूरि ।
६० तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि । ६१ तत्पट्टे श्री कक्कसूरि । ५९ तत्पट्टे श्री देवगुप्तसूरि । ६२ तत्पट्टे श्री देवमुप्तसूरि । ६३तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि । ६४ तत्पट्टे श्री कक्कसूरि। ६५तत्पट्टे श्रीदेवमुप्तसूरि ।
६६ तत्पट्टे संवत् १३३० वर्षे चीचट गोत्रेऽतएव उवरराय स्थापितः श्री अर्बुदाचल तलहटीकालंकारो वेरणीनगरतः शा० देशलेन श्री शत्रुजयादि सप्त तीर्थेषु चउदश १४ कोटि द्रव्य व्ययेन चउदश यात्रा कृता चतुर्दश वारान् । प्रथमं देवगुप्तसूरि तत्पट्टे सिद्धसूरि प्रमुख समग्र सुविहित सूरि हस्तेन संघपति तिलकः कारितं । उक्तं च
श्री देशलः सुकृत पेसल वित्त कोटी । चंचच्चतुर्दश जगज्जनितावदातः । शत्रुनय प्रमुख विश्रुत सप्त तीर्थः । यात्रा चतुर्दश चकार महामहेन ॥ १ ॥
तत्पुत्र समरसहजाभ्यां विमलवसत्युद्धारः कारितः संवत् १३७१ वर्षे । तथा एवमपरेरपि तिर्थयात्रा कृत्वा संघपतेः पदं स्वाकीरितं इत्युक्तमुपदेशरसाले । साह देसलेन पाल्हणपुरे श्री सिद्धसूरि पद महोत्सवो कृतः । तेन सिद्धसूरिणा समराग्रहेण शत्रुजये षष्ठोद्धारे श्री आदिनाथस्य प्रतिष्ठा कृता ।
६७ तत्पट्टे संवत् १३७१ वर्षे साह सहजागरेण श्री कक्कमूरि पद महोत्सवो कृतः । येन गच्छप्रबंधः कृतः । तत्र देसल पुत्राः समर-सहजानां चरित्रमस्ति । एवं उपकेश गच्छे अनेक प्रभावका ग्रन्थकर्तारो निरीहां सूरयो अभूवन् तेषां कियद् गण्यते एवं
६८ तत्पट्टे श्री देवगुप्तसूरि बभूवः। कवि सार्वभौम विद्वच्चक्रचूडामणि सिद्धन्तपारगामी सर्वशास्त्रपारंगत । श्री सारंगधरेणं संवत् १४०९ वर्षे दिल्यां मध्ये पद महोत्सवो विहितः सुवर्णसहस्रं पंचक व्ययेन ।
६९ तत्पट्टे श्री सिद्धसूरिः संवत् १४७५ वर्षे गुणभूरय अणहिलपाटक पत्तने चोरवेडीया गोत्रे साह झावा नीवागरेण पद महोत्सवः कृतः गुरूणां । ..७० तत्पट्टे संवत् १४९८ वर्षे श्री ककसूरयः चित्रकुटे चोरवेडीया गोने साह सारंग सोनागेर राजाभ्यां पद महोत्सवो कृतः येन चतुर्दश शत चतु: चत्वारिंसत् अधिक १४ ४ ४ कच्छ मध्ये अमारी प्रवर्ताविता। याम श्री वीरभद्रः प्रतिबोधितः। संस्कृतप्राकृतपरमामृतप्रवाहा विरचित निखिलशास्त्रावगाहाः वाणीविलासवाचस्पतितुल्याः सकलकलारंजितकोविदाः धर्मबुद्धिधुरंधरा सकलपुरंदराः ।
७१ तत्पट्टे सं० १५२८ वर्षे जोधपुरे श्रेष्टि गोत्रे मंत्रीश्वर जयतांगरेण श्री देवगुप्तसूरेः महोत्सवे नव महोत्सवो कृतः । श्री पार्श्वनाथस्य प्रासादः कारितः पौषधशालायां च । श्री शत्रुनय यात्री कृता । पंच पाठकाः स्थापिताः । तेषां नामानि श्री धनसार १ उ० देवकलोल २० पद्मतिलक ३ उ० हंसराज ४ उ० मतिसागर ५।
७२ तत्पट्टे श्री सिद्धसूरयो गुणभरयः । श्री श्रेष्टिं गोत्रे मंत्रीश्वर दशरथात्मजेन मतश्विर लोलागरण संवत् १५६५ वर्षे मेदिनीपुरे पद महोत्सवः कृतः ।
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[११
जैन साहित्य संशोधक ७३ तत्पट्टे श्री कक्कसूरयः श्री जोधपुरे संवत् १५९९ वर्षे गच्छाधिपो जातः श्रेष्टि गोत्रे मंत्रि जगात्मजेन मंत्रीश्वर धरमसिंहेन पद महोत्सवो कृतः । - ७४ तत्पट्टे श्री देवगुप्त सूरयः श्री श्रेष्टी गोत्रे मंत्रि सहसवीर पुत्रेण संवत् १६३१ मंत्री देदागरेण पद महोत्सवः कृतः ।
__७५ तत्पट्टे विद्यमान संवत् १६५५ वर्षे चैत्रसुदि १३ सिद्धसूरिर्बभूव श्री श्रेष्टी गोने मंत्रि मुगुट मंत्रि शेखर सर्व विश्व विख्यात राज्यभार धुरंधर मंत्रीश्वर महामंत्रि श्री ठाकुरसिंह विक्रमपुरे महा महोत्सवेन पद महोच्छवो कृतः ।
७६ संवत् १६८९ वर्षे फाल्गुण शुद्धि ३ श्री कक्कसूरिर्बभूव । श्री श्रेष्टि गोत्रे मंत्रि मुगुट मंत्रि ठाकुरसिंह तत्पुत्र मं० सावलकेन तत्पत्नी साहिबदेन पद महोत्सवो कृतः ।
संवत् १७२७ वर्षे मृगशिर सुद ३ दिने श्री देवगुप्तसूरिर्वभूव श्रेष्टि गोत्रे मंत्रि ईश्वरदासेन पद महोत्सवो कृतः।
७८ तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि संजातः । श्रेष्टि गोत्रे मंत्रि सगतसिंहेन पट्टाभिषेकः कृतः संवत् १७६७ वर्षे मृगशिर सुदि १० दिने जातः ।
७९ तत्पट्टे श्री ककसूरिर्बभूव । मंत्रि दोलतरामेन सं० १७८३ वर्षे आसाद वदि १३ दिने पद महोत्सवो कृतः ।
८० तत्पट्टे देवगुप्तसूरि सं० १८०७ वर्षे बभूव । मुहता दोलतरामजीना पद महोत्सवी कृतः ।
८१ तत्पट्टे श्री सिद्धसूरिर्बभूव । संवत् १८४७ वर्षे महासुदि १० दिने पट्टाभिषेकः संजातः । मुं० श्री खुशालचंद्रेण पदमहोत्सवो कृतः। तेषां प्रासादात् अहं कल्पवाचनं करोमि । पुनः दीक्षा गुरु प्रसादात्
८२ तत्पट्टे श्रीकक्कसूरिर्बभूव । संवत् १८९१ रा वर्षे चैत्र सुद ८ अष्टमीदिने पट्टाभिषेकः संजातः। वैद्यमुं० ठाकुर सुत मुं० सिरदारसिंह गृहे समस्त श्रीसंघेन बीकानेर मध्ये पदमहोत्सवः कृतः ।
(३ तत्पट्टे श्रीदेवगुप्तसूरिर्वभूव । संवत् १९०५ वर्षे भाद्रवा सुदि १३ चंद्रवासरे पट्टाभिषेक: संजातः । श्रेष्टि गोत्रे वैद्य मुहता शाखायां प्रेमराजो तस्य परिवारे हठीसिंघजी ऋषभदासजी मेघराजजीकानां उस्संगे गृहीत्वा श्रीफलोधीनगरमध्ये समस्त वैद्य मुहता पट्टाभिषेको कृतः । तेषां प्रासादात् अहं कल्पवाचनां करोमि ।
८४ तत्पट्टे श्रीसिद्धसूरिर्बभूव । संवत् १९३६ वर्षे माघ कृष्ण ११ दिने पट्टाभिषेक संजातः श्रष्टि गोत्रे वैद्यमुहता शाखायां ठाकुर सुत महारावजी श्रीहरि सिंघजी पद महोत्सवः कृतः वृद्ध गृहे मध्ये धांसीवाला सुरजमलजी हस्तात् समस्त श्रीसंघसहितेन विक्रम पुर मध्ये देवदुष्य रंजित छटिका राज्य द्वारात् समागता । तेषां प्रासादात् अहं कल्पवाचनां करोमि इति ॥
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उपकेशगच्छीया पट्टावलिः ॥ श्रीरत्नप्रभसूरिस्तोत्रम् ॥
॥ श्रीमद्रत्नप्रभसूरिसद्गुरुम्यो नमः ॥ वामेयपट्टे शुभदत्तनामा तच्छिष्यजातो हरदत्तमुख्यः । आर्याबुधिः केशी स्वयंप्रभोपि सूरीशरत्नप्रभलब्धिपात्रः ॥ १॥ भव्यावलीकमलकाननराज गं श्रियःप्रवृत्तिमुनिमानसराजहंसं ॥ श्रीपार्श्वनाथपदपंकजचंचरीकं रत्नप्रभं गणधरं सततं स्तवीमि ॥२॥ विद्याधरेंद्रपदवीकलितोपि में श्रीमत्स्वयंप्रभुगिरः परिपीय योत्र । दीक्षावधुमुदवहन्मुदमादधानो रत्नप्रभस्स दिशतात्कमलाविलासं ॥ ३ ॥ मंत्रीश्वरोहडसुतो भुजमेन दष्टः संजीवितः सकललोकसभासमक्षं । यस्यांघ्रिवारिरुहपुष्करसिंचनेन रत्नप्रभस्स दिशतात्कमलाविलासं ॥ ४ ॥ मिथ्यात्वमोहतिमिराणि विधूय येन भव्यात्मनां मनसि तिग्मरुचेव विश्वे । संदर्शितं सकलदर्शनतत्त्वरूपं रत्नप्रभस्स दिशतात्कमलाविलासं ॥५॥ येनोपकेशनगरे गुरुदिव्यशक्त्या कोरंटके च विदधे महती प्रतिष्ठा । श्रीवीरबिंबयुगलस्य वरस्य येन रत्नप्रभस्स दिशतात्कमलाविलासं ॥ ६ ॥ श्रीसत्यिकाभगवती समभूत्प्रसन्ना सर्वज्ञशासनसमुन्नतिवृद्धिकी । यद्देशनारसरहस्यमवाप्य सम्यक् रत्नप्रभस्स दिशतात्कमलाविलासं ॥ ७ ॥ गृह्णति यस्य सुगुरोर्गुरुनाममंत्रं सम्यक्त्वतत्त्वगुणगौरवगर्भितं ये । तेषां गृहे प्रतिदिनं विलसंति पद्मा रत्नप्रभस्स दिशतात्कमलाविलासं ॥ ८ ॥ कल्पद्रुमः करतले सुरकामधेनु-श्चितामाणः स्फुरति राज्यरमाभिरामा । यस्योल्लसत्क्रमयुगांबुजपूजनेन रत्नप्रभस्स दिशतात्कमलाविलास ॥ ९ ॥
इत्थं भक्तिभरेण देवतिलकश्चातुर्यललिागुरोः श्रीरत्नप्रभसूरिराजसुगुरोः स्तोत्रं करोति स्म यः । प्रातः काम्यमिदं पठत्यविरतं तस्यालये सर्वदा ।
सानंदं प्रमदेव दीव्यतितरां साम्राज्यलक्ष्मीः स्वयं ॥ १० ॥ इति ओएसनगरे सपालक्षश्रावकाः प्रतिबोधिता ओएसवालज्ञातिः स्थापिता तस्य स्तोत्रमिदं
प्राताख्यान पद्धतौ प्रत्यहं पठनीयं ॥ संपूर्ण ॥ ग्रंथाग्रंथ ॥ ३१५ ॥ श्रीरस्तु ॥
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जैन साहित्य संशोधक समिति
-- -DHOKER
पेटन. श्रीयुत हीरालाल अमृतलाल शाह. बी. ए. मुंबई.
वाईस पेटन. श्रीयुत केशवलाल प्रेमचंद मोदी. बी. ए. एलएल्. बी. वकील अमदाबाद. श्रीयुत असरचंद घेलामाई गांधी, मुंबई.
सहायक. शेठ परमानंददास रतनजी, मुंबई. श्रीयुत मनसुखलाल रवजीभाई मेहता, मुंबई. शेठ कांतिलाल गगलभाई हाथीभाई, पूना. शेठ केशवलाल मणीलाल शाह, पूना. शेठ बाबूलाल नानचंद भगवानदास झवेरी, पूना.
सभासद. श्रीयुत बाबू राजकुमार सिंहजी बद्रीदासजी, कलकत्ता. श्रीयुत बाबू पूरणचंदजी नाहार. एस्. ए. एलएल. बी. कलकत्ता. शेठ लालभाई कल्याणभाई झवेरी, वडोदरा ( मुंबई. ) शेठ नरोत्तनदाम भाणजी, मुंबई. शेठ दामोदरदास, त्रिमुवनदास भाणजी, मुंबई. शेठ त्रिभुवनदास भाणजी जेन कन्याशाला, भावनगर. शेठ केशवजीभाई माणेकचंद, मुंबई. शेठ देवकरणभाई सूळजीभाई, मुंबई. शेठ गुलाबचंद देवचंद, मुंबई. श्रीयुत मोतीचंद गिरधरलाल कापडिया, बी. ए. एलएल बी. सोलीसीटर, मुंबई. श्रीयुत केशरी चंदजी भंडारी, इंदौर. शाह अमृतलाल एण्ड भगवानदास कुं० मुंबई. शाह चंदुलाल वीरचंद कृष्णाजी, पूनाशेठ लाधाजी सोतीलाल, पूना. शाह धनजीभाई वखतचंद साणंदवाळा, (अमदाबाद) शाह बाळुमाई शासचंद, तळेगाम ( ढमढेरे). शाह चुनिलाल झवेरचद, मुंबई. शाह भोगीलाल चुनिलाल, सोलापुरबझार, पूना केंप.
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पाली, प्राकृतं, संस्कृत, गुजराती, हिन्दी भाषानां
केटलांक उत्तम पुस्तको
०-१४-०
७-८-.
१ प्राकृत कथासंग्रह. सं० मुनि जिनविजय ( पुरातत्त्वमन्दिर ग्रंथावली ) २. पाली पाठावली.
"
०-१२-० ३. कुमारपाल प्रतिबोध (प्राकृत ऐतिहासिक ग्रंथ; गायकवाड सीरीझ) , ४. हरिभद्राचार्यस्य समयनिर्णय ( जै. सा. सं. प्रथमाळा )
०-४-० ५. प्राकृत व्याकरण संक्षिप्त परिचय
०-४-० ६. सुपासनाह चरियं (प्राकृत भाषानो महान् चरित्रग्रंथ ) ।
७-८-० ७. सुरसुन्दरी चरियं (प्राकृत भाषामां एक सुंदर कथा)
२-८-० ८. उपकश गच्छीय पट्टावली (संस्कृत)
०-४-० ९. गुणस्थानक्रमारोह (हिन्दी भाषान्तर-विस्तृत विवेचन)
१-४-० १०. परिशिष्ट पर्व (हिन्दी भाषामां उत्तम भाषांतर)
१-४-० ११. छेदसूत्राणि (आमां कल्प--व्यवहार--निशीथ नामना त्रणा छेदसूत्रो बहु शुद्ध अने
उत्तम पद्धतीए छपावेला छे,जे अत्यंत दुर्लभ छ घणी थोडी नकलो छपावेली छे.)२-८-० १२. साधुशिक्षा (सुन्दर हिन्दी भाषांतर)
... -८-० १३. जैन धर्मनुं अहिंसातत्त्व (तात्विक विवेचन)
२-४-० १४. सुखी जीवन (वांचवालायक शांतिप्रद सुंदर गुजराती पुस्तक)
१-०-० १५. नयकार्णिका (उत्तम गुजराती विवेचन)
०--६-० ए सिवाय, आत्म तिलक प्रन्थ माळामां छपाएलां नानां मोटां पुस्तको जे प्रभावना करवा लायक होई नामनी किंमते ज वेचवामां आवे छे ते पण नीचेनां ठेकाणे मळे छे.
गुजरात पुरातत्त्वमंदिर,
एलीस अति अहमदाबाद (गुजरात)
भारत जैन विद्यालय,
पूना सिटी ( दक्षिण).
मुद्रक-पृष्ठ १-३३ जैन साहित्य मुद्रणालय; पृ० ५७-८० चित्रशाला प्रेस; और बाकी सब-हनुमान प्रेस, सदाशिव पेठ, पूना सीटी.-प्रकाशक चिमनलाल
एल्. शाहा, भारत अणिया, पूना शहर.
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संरक्षक -श्रीयुत सेठ हरगोविंददास रामजी शाह-मुंबई.
खंड २ ) जैन साहित्य संशोधक
(जैन इतिहास, साहित्य, तत्त्वज्ञान आदि विषयक सामयिक पत्र )
संपादक
मुनि श्रीजिनविजयजी M. R. A. S.
X••••••XXXXXXXXX••••••%%••••••%%••••••XXXXXXXXXX
( अंक २
कि क या नुक्रमणिका
श्री महावीर समय निर्णय तीर्थकर वर्धमाननो समय मेरुतुंगाचार्यनी स्थविरावलि
परिशिष्ट
तरंगवती कथा
.९३-१२८ १२९ १३५
*•..............•••••••XXXXXC••••••XXX••••••XX€••••••%%%••••••> X•••••••••••••••
प्रकाशक
जैन साहित्य संशोधक कार्यालय.
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स्थान- भारत जैन विद्यालय-पूना शहर.
ज्येष्ठ, विक्रम सं. १९८० ] महावीर नि. सं. २४५०
[ जून इ. स. १९२४
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ग्राहक वर्गने नम्र निवेदन. जैन साहित्य संशोधन। अंको नियमित समये ग्राहकोने नथी मळी शकता तेथी अनेक सज्जनो अकळाय छे अने केटलाकने तो संपादक सुधांने ठपकाना पत्रो लखवा जेटली तस्दी लेवी पडे छे. आ स्थिति जिज्ञासु अने ज्ञानपिपासु सज्जनोने जेटली असह्य लागे छे ते करतां मने पोताने अनेक गणी दुःखभरी लागे छे. परंतु ए स्थितिमा परिवर्तन करवानी बनती कोशीशो करवा हुंकोटलो उत्सुक छु एनी कल्पना ग्राहकोने शीरीते करावी शकुं? आ खंडनो १ लो अंक गया वर्षना जेठमासमां प्रकट थयो हतो, ते पछी आजे पार्छ, आ वर्षना जेठ मासमां, आ बीजो अंक प्रकट थाय छे. एटले वर्षमा एक अंक बहार पडयो. बारबार महिना सुधी ग्राहकोने अंक न मळे अने ते बदल जो ग्राहक योग्य फर्याद करे तो तेमां तेमनो जराए दोष हुँ काढी न शकुं; उलटं, हुं तो एवा सज्जनोनो आभार ज मार्नु. जैनसाहित्य संशोधकना ग्राहक वर्गमां ५-७ पण सज्जनो एवा ज्ञानपिपासु छे के जेओ एना अंकनी कागने डोळे वाट जोयां करे, ते जोईजाणीने मने तो एक प्राकारे संतोष ज थाय छे.
हवे, आ पत्रनी आटली बधी अव्यवस्था केम छे, ते संबंधमां बे वातो ग्राहकोने कही दउं. आ पत्रनु कार्यालय जे छ ते फक्त आ अक्षरो लखनार माणसनुं एक फुट पहोळ अने छ फट लांबु दर्बळ शरीर छे ते ज मात्र छे, ए करतां वधारे साधन-संपत्ति हजीसुधी भेगी थई नथी. अने तेमां वळी आ शरीर जेम आ पत्रनु कार्यालय बनी रह्यं छे तेवी ज रीते बीजां पण एवां केटलांए कार्योन कार्यालय थई रहेढुंछे. लेखो तैयार करवानी शुरुआतथी लई अंकने ठेठ पोष्टमां नांखवाजवा सुधीनी सघळी क्रियाओ ज्यां एक ज शरीरने करवानी होय त्यां बार-महिने पण एक अंक प्रकट थई जाय छे ते माटे जो हुँ मारी जातने शाबाशी आपवानी ग्राहको पासे मांगणी करूं तो तेमणे ते खुशीथी आपवी जोईए..
आम छतां, हुं पत्रने जेमबनेतेम वधारे नियमित करवानी कोशीश तो कर्यां ज करूं छं. पण तेनी सफळतानो आधार ग्राहकोनी ज्ञानरुचि उपर रहेलो छे. जो ग्राहक संख्या संतोषजनक प्रमाणमां होय तो एकाद व्यवस्थाकरनार मनुष्यनी गोठवण कार्यालय करी शके अने ते द्वारा उपरनी केटलीक व्यवस्था नियमित थई शके. ग्राहकसंख्या अत्यारे तो नामनी ज छ; अने पत्र पाछळ थता खर्चनो चोथो भाग पण पूरो ग्राहकोना लवाजमथी कार्यालयने मळतो नथी. आवा खोटना मार्गे कोई पण पत्र चाली शकतुं नथी ए सौ कोई जाणे छे. वधारे नहि तो पांचसो ग्राहक पण जो पूरा मळी रहे तो पत्रनो कारभार ठीकठीक नभी शके. आवडा मोटा अने सुसंपन्न जैनसमाजमाथी आवा पत्रने एटला पण ग्राहको न मळे ते समाजने लज्जाकारक छे. ए बाबतम ग्राहकवर्ग जो सहज प्रयत्न करे अने दरेकजण अकेक बब्बे बर्बाजा नवा ग्राहको मेळवी आपे तो सहजे एटली ग्राहक संख्या पूरी थई रहे तेम छे. शु सज्जन ग्राहक आनो उत्तर आपवानी उदारता अने पोतानी साहित्यप्रियता बताववा कमर कसशे ?
-संपादक त्रीजो अंक तैयार थाय छे. त्रीजो अंक लगभग अडधा उपर छपाई गयो छे. एमां खासकरीने खरतर गच्छनी अनेक पट्टावलियो अने महत्वना लेखो आवशे. खरतरगच्छनो उज्ज्वल इतिहास जाणवानी इच्छावाळाए आ अंक अवश्य जोवो जोईए.
-व्यवस्थापक.
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।। ॐ अर्हम् ।। ॥ नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते महावीराय ॥
जैन साहित्य संशोधक
'पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि । सच्चस्साणाए उबट्टिए मेहावी मारं तरइ ।'
जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ।' दि, सुयं, मयं, विण्णायं, जं एत्थ परिकहिज्जइ । '
6
खंड २ ]
- निर्ग्रन्थप्रवचन - आचारांगसूत्र ।
[ अंक २
श्री महावीर - निर्वाण समय-निर्णय
[ इन्डियन एन्टीक्केरी, भाग ४३ मां, प्रकाशित, जार्ल चार्पेन्टीअर, पीएच्. डी.; उप्सला; ना इंग्रेजी लेखनो अविकल अनुवाद ]
'केम्ब्रीज हिस्टरी ऑफ इंडिआ ' पु. १ मां जैनोना इतिहास विषेनुं प्रकरण लखती वखते महावीरनो खरेखरो समय नक्की करवानी मने खास जरुर पडी हती; परंतु आ महत्त्वना प्रश्न उपरना अनेक प्रमाणोनो ऊहापोह करवानो तेमां पूर्ण अवकाश नहि मळवाथी, प्रचलित जैन धर्मना संस्थापकना समय विषे में जे अभिप्राय बांध्यो छे तेना मूलभूत तत्तत् विचाराने अहीं दर्शाववानुं मने अनुकूळ लाग्युं छे. वळी, प्रो. जेकोबीए जैनधर्मना अभ्यासमां अगत्यनां पुस्तको कल्पसूत्र तथा सैक्रेड बुक्स ऑफ धी ईस्ट, पु. २२ - नी प्रस्तावनामां महावरना समय माटे 1 सबळ प्रमाणोथी, पण संक्षेपमां, जे संकुचित अवधी बांधी त्यारपछी आ विषय उपर कोई पण पूरेपूरी चर्चा करवामां आवी नथी; तेथी ए विषयने अहीं फरीथी उपाsat अस्थाने नहि गणाय. प्रो. जेकोबी पासे जे प्रमाणो हतां लगभग तेवां ज प्रमाणो मारी पासे छे, तेथी मारा आ लेखमां घणे भागे तेमना कथननुं पुनरालेखन थशे अने पछी तेमनो
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1. महावीरना समय विषे मारी पहेलांना विद्वानाना अभिप्रायो माटे जुओ-राइस, इंडि० एन्टी० पु. ३ पा. १५७, इ. थॉमस, पु. ८, पा. ३०६ पाठक पु. १२, पा. २१. प्रोफेसर जॅकोबना लेखथी आ बधा लेखो रद थया छे तेथी मारा लेखमां ए जूना लेखको विषे हुं उल्लेख करवानो नधी.
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९४] जैन साहित्य संशोधक
[खंड २ विकास करवामां आवशे. धणा वर्ष उपर एमणे महावीरना समय विषे जे अभिप्राय बांध्यो हतो, परंतु जेने आ विषयना अभ्यासी विद्वानोए उपाडी लीधो नथी, ते ज आभिप्राय आ तपासना अंते मारो पण थशे एम सर्वने मालुम पडशे.
जैन धर्म विषना उपयोगी निबंधोमां, एटले के-हॉर्नल, प्रोसी० ए० एस० बी० १८९८, पृष्ठ ३९; अथवा गुरीनॉट, बीब्लीऑग्राफी जैम, पृ०८ मां, महावीरना अवसाननी तिथि इ. स. पूर्वे ५२७ कही छे. पोताना आ धर्मगुरुनुं निर्वाण विक्रम पहेलां ४७० वर्षे धयु एम श्वेताम्बरो माने छे, तथा विक्रम पहेलां ६०५ मां थयु एम दिगंबरो माने छे; आ वात सर्वने सुविदित छे. आबे तिथिनी वच्चे जे १३५ वर्षनो तफावत छे ते विक्रम संवत् (इ. स. पूर्वे ५७) अने शक संवत् (इ. स. ७८) वच्चेना तफावत जेटलो छ, तेथी प्रो. जेकोबी जणावे छे ते प्रमाणे, 2 एटलं स्पष्ट थाय छे के दिगंबरोए शालिवाहन अने विक्रम ए बे नामनो माहोमांहे गुंचवाडो को छे,-अने आवी भूल धणी वार थती जोवामां आवे छे. उपलक नजरे जोतां आपणने आ वात एकाएक खरी लागे छे परंतु जेकोबी अने बीजा विद्वानोना कहेघा प्रमाणे, ज्यारे आपणे बारीक तपास करीए छीए त्यारे मालम पडे छे के आ कथनने सबळ प्रमाणोनो आधार नथी. इ. नी तिथि विषे बे मुद्दाओ विचारावा योग्य छे:
(१) महावीरना निर्वाणनो समय अने विक्रमना इ. स. पूर्वे ५७ मां राज्यारूढ थयानो समय, आ बेनी वच्चेनां ४७० बर्षना संबंधमां जैनोनां कथनो; अने
. (२) बुद्ध जे भारा मत प्रमाणे ( के जे हुँ आगळ समजावीश) इ. स. पूर्वे ४७७ मां अवसान पाम्या तेमना समकालीन महावीर हता एवं सप्रमाण साबित थएलुं छे, ते उपरथी महावीरना निर्वाण माटे इ. स. पूर्वे ५२७ नी मीति खरी होवानो संभव छे या असंभव..
अंते मारा लेखना छेल्ला (३) भागमा, हेमचंद्र दर्शावेली सांप्रदायिक हकीकत विषे चर्चा करी तेमांथी शुं परिणामो आवे छे तेनो विचार करीश.
१. जैन कालगणना अने तेनो आधार. प्रख्यात जैन लेखक मेरुतुंगे वि. सं. १३६१-इ. स. १३०४ मां प्रबन्धचिंतामणि नामक ग्रंथ रच्योः अने त्यारपछी लगभग बे वर्षे विचारश्रेणि नामे ग्रंथ रच्यो जे भाउ दाजीना 3 कहेवा प्रमाणे, तेना थेरावली ग्रंथनी टीका रूपे छे. आ ग्रंथमां वीर संवत् अने विक्रम संवत्ना समन्वय माटेना आधार रूपे ते प्रसिद्ध गाथाओ आपेली छे जेनुं प्रथम अवतरण बुल्हरे 4 आप्यु हतुं अने त्यारपछी जेनी चर्चा जेकोबीए करी हती. गाथाओ आ प्रमाणे छः
जं रयणिं कालगओ आरिहा तित्थंकरो महावीर । तं रयणिं अवंति-वई अहिसित्तो पालगो राया ॥१॥ सही पालग-रण्णो पण्णवण्णस तु होइ नन्दाण । असयं मुरियाणं तीसं चिय पूसमित्तस्स ॥२॥
2. कल्पसूत्र, पा. ७. जुओ-जर्नल, बॉ. बॅ. रॉ. ए. सो.पु. ९, पा. १४७, मेरुतुंगना बीजा ग्रंथो, अने अर्वाचीन लखाणामां आवेला तेना विषेना उल्लेखो विषे जुओ वेबरनु कॅटेलोग, पु. २, पा. १०२४. ,
4. इंडि• एन्टी० पु. २, पा. ३६२.
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अंक २]
श्री महावीरनो समय-निर्णय बलमित्त-भाणुमित्ता सष्टी वरिसाणि चत्त नहवहने।
तह गद्दभिल्ल-रज्जं तेरस वरिसा सगस्स चउ ॥३॥ भावार्थ:--जे रात्रे अर्हत् तीर्थकर महावीरे निर्वाण प्राप्त कर्यु ते ज रात्रे अवन्तीपति पालकनो अभिषेक करवामां आव्यो. (१)
पालक राजाए ६० वर्ष राज्य कर्यु, अने नंदोए १५५ वर्ष राज्य कर्युः मौर्योए १०८ वर्ष, तथा पूसमित्ते (पुष्पमित्रे) ३० वर्ष राज्य कर्यु. (२)
बलमित्र अने भानुमित्रे ६० (वर्ष) राज्य कर्यु, अने नभोवाहने ४० वर्ष. ते ज प्रमाणे गर्दभिल्लनी सत्ता १३ वर्ष रही, तथा शकनु राज्य चार वर्ष रहयु. 5 (३). ___आ पण गाथाओ घणी टीकाओ अने कालगणना-विचार-विषयक ग्रंथोमा उध्वृत करेली छे (ब्युल्हर). दाखला तरीके, तपागच्छनी (महावीरथी विजयरत्नना पट्टारोहण सुधीनी एटले वि. सं. १७३२-इ. स. १६८५-८६ सुधीनी) 6 पट्टावली. एमां विक्रम अने शक वञ्चना समयपूरक पण वे श्लोक आप्या छे, परंतु अहीं ते संबंधे आपणे विचार करवानो नथी. त्रीजा श्लोकमां नहवहणने बदले नहवाण पाठ आप्यो छे ते एक तफावतनी बाबत छे; पण अहीं ते पण आपणने अनुपयुक्त छे कारण के, ते श्लोको बहु ज गुंचवाडा भरेला तथा अश्रद्धेय छे; एटलं ज नहि पण, ते ग्रंथकारे नहवान नामना महान सुबानो समय विक्रमनी पहेलां मूक्यो छे के जे तद्दन असंभवित छे.
उपर कह्या प्रमाणे, आ श्लोकोमा महावीरना निर्वाणथी ते प्रख्यात राजा विक्रमादित्यना समय सुधीमां थएला राजवंशोनी टुंक हकीकत आवे छे. पण ए गाथाओ मूळ कया पंथनी छे ते तद्दन अज्ञात छे. एटलुज मात्र नक्की छे के आ श्लोको मेरुतुंगना अगर तेना कोई समकालीनना रचेला नथी, कारण के ते समय पहेलां घणा वखतथी जैन ग्रंथकारोए प्राकृत भाषामां लखवानुं छोडी दीधुं हतुं. 7 अलबत्त, जैनोना आगमोमां तो आ गाथाओ नथी ज; अने तेथी देवर्द्धिगणिनी सिद्धांत ग्रंथोनी छेल्ली आवृत्ति पछी ( महावीर पछी ९८० अगर ९९३ मां, एटले के इ. स. पूर्वे ५२७ थी गणतां इ. स. ४५३ अगर ४६६) एरचायानो घणो संभव छे. एटले ए श्लोको सिद्धांतनी छेल्ली आवृत्ति वखते अगर तरत पछी जे टीकाओ रचाई ते जुनी टीकाओमांना हशे. आ ग्रंथनां हस्तलिखित पुस्तको प्रमाणे नहवहणे ए प्रथमा विभक्ति सप्रमाण होय तो ए अमुक समयनुं सूचक बनी शके-जा के आ विषयमां हुं कांई पण स्पष्ट अभिप्राय आपी शकुं तेम नथी-कारण के एटलुं तो सुनिश्चित ज छे के पाछळथी लखायली टीकाओमां, दाखला तरीके, देवेन्द्रनी उत्तराध्ययन उपरनी टीकामां (इ. स. १०७३) ज्यां टीकाना समय करतां प्राकृत भाषा घणी जुनी छे, त्यां एकारान्त प्रथमा जोवामां आवती नथी. 8 आ अने
5. आ अनुवाद बुल्हरनो करेलो छे. 6. क्वेटे प्रसिद्ध करेली, एन्डि• एन्टी० पु. ११, पा. २५१.
7. स्टडी इटालीअनी, पु. १, पा. १० मा पुल्लेना कहेवा प्रमाणे जैन ग्रंथकारोए लग भग इ. स. ८५० ( शीलांकना समय) थी संस्कृत भाषामां लखवा मांडयः तेम छतां आ कांई निश्चित मीति नथी.
8.आ ग्रंथने में दाखला तरीके लीधो छ तेनुं कारण ए के तेनी प्राकृत भाषा प्रो.जेकोबीना Ausgewahlte Erzahlungen नामना पुस्तकथी सुज्ञात थाय छ, आ विषयनी चर्चा स्पष्ट करवा माटे मारे कहेवू जोइए के ए ग्रंथमाना ज जे भागमां एकारान्त प्रथमा आधे छ (पा. २८, पं. १७-२४, पा. ३२, पं. ३५,पा.३३ पं. २८, अने पा.३४, पं. ११-२०) ते ते भागोनी भाषा तद्दन जुदीज छ,अने कदाच कोइ एक अंगनी छे, जेनुं नाम हं हाल स्पष्ट रीते कही शकु तेम नथी.
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जैन साहित्य संशोधक
[खंड २ आवां बीजां मीति विषनां जैनोनां कथनो संबंधी एक बाबत उपर खास भार मुकवानो छे, अने ते ए के, सर्व ग्रंथकारो विक्रम संवतनी स्थापना उज्जयिनीना राजा किक्रमादित्ये करी एम माने छे. पण कील्हार्ने 9 घणा वखत थयां सिद्ध कयु छ के इ. स. पूर्व ५७ थी शरु थता संवत्साथे, उज्जयिनीना राजा विक्रमादित्य, के जे कदाचित् जगत्मां थयो पण नहि होय, तेनो संबंध घणो पाछळ थी स्थापित थयो छे: अने ए विक्रम संवत्नो साथी प्रथम उल्लेख, संवत् ८९८%इ. स. ८४२ ना धोळपुरना एक लेखमां करवामां आव्यो छे; तथा ते संवत्नी साथे विक्रमना नामनु जे जूनामां जूना साहित्यमां कथन थएलुं छे ते धनपाळना पाइयलच्छी (वि.सं. १०२९ इ. स. ९७२) अने अमितगतिना सुभाषितरत्नसंदोह (वि. स. १०५० इ. स. ९९५) ग्रंथमां छ.10 आ प्रमाणे जो आपणे गणना करिए तो आपणने जणाशे के विद्यमान रूपमां तो आ श्लोको घणा जूना होई शके नहि; एटले के कदाच इ. स. ना ८मा अगर ९ मा सैकाना हशे. पण आ तो मात्र सूचना ज छ; अने आ श्लोकोमा आपेली, महावीरना अवसान अने इ. स. पूर्वे ५७ मां शरु थएला संवत्नी वच्चना काळमां थएला राजाओनी गणतरी, आ संवतनो उजायनीना काल्पनिक राजा विक्रमादित्य साथे कोई पण रीतिए संबंध थयो, तेना घणा वखत पहेलां हयात हशे.
ए गाथाओमां करेलां कथनो जरा गूढ लागे छे. अहीं अवंतीना राजा पालकने नंद अने मौर्य वंशो साथे, मगधना पुष्यमित्र साथे, तथा गर्दभिल्ल, जेने अन्य स्थळे विक्रमादित्यना पिता तरीके वर्णववामां आव्यो छे तेनी साथे, तेम ज पश्चिम हिंदना केट लाकराजाओ साथे अने हिंदना उत्तर-पश्चिम खुणाना अनार्य राजवंशोना शकनी साथे एकत्रित करवामां आव्यो छे जेकोबीए 11 जणाव्यु छ के आ यादी के जे प्रथमथी ज मगधराजाओनां नाम आपवा माटे रचाई हशे, कारण के महावीर तेज देशना हता, तेमां अवन्तीना राजा पालकनुं नाम आवे ए वात शंकास्पद छे. त्यारे आ पालक ते कोण? खरेखर आ पालक बीजो कोई नहि पण ते अवन्तीना प्रद्योतराजानो पुत्र अने वारस तथा वत्सना प्रसिद्ध राजा उदयननी 12 राणी वासवदत्तानो भाई, जे पालक नामे ओळखाय छे ते ज छे, आ उदयन महावीर तथा बुद्धनो समकालीन हतो तेथी तेनो साळो पालक लगभग महावीरना निर्वाण समयमां राज्यारूढ थयो होय ए संभवित छे. परंतु महावीरना समयमां के स्यारपछी मगधमां शासन करता शिशुनागना वंश साथे ए पालकने कोई पण जातनो संबंध नथी. पण आ यादीमां तेनुं नाम आववाथी आपणने गाथाना मूळविषयक प्रश्नना निराकरण माटे एक अमूल्य कुंची मळे छे. कारण के उपर जणाव्या
रूपमां तेओ आधनिक छ, अने तेथी ज्यारे मगधना राज्य साथ जैन लेखकोनो संबंध रह्यो न हतो ते वखतमां रचाएली छे. पण तेमां जणावेलां ४७० वर्षमाथी २९३
9. इन्डि. एन्टी० पु. २०, पा. ३९७.
10. समय निर्णयना जरा तफावत माटे ( इ. स. ९९३ अगर ९९४), सरखावो स्मीट (Schmidt) अने हर्टेल ( Hertel ), Z. D. M. G. 59,297
11. कल्पसूत्र, पा. ८.
12. भाऊ दाजीना कहेवा प्रमाणे मेरुतुगे स्पष्ट जणाव्युं छे के जे रात्रे महावीरनु निर्वाण थयु ते ज रात्रे प्रयोतनु मरण थयुं, जर्नल बो. बॅ. रॉ. ए. सो. पु. ९, पा. १४७. मृच्छकटिकमां जे नाम आवे छे ते एनुं छे के नहि ते कही शकाय तेम नथी. पण ते नाटकमां तेना अने उदयनना संबंध विषे कोई साबीति न होवाथी हुँ ए वात संभवित धारतो नथी. परंतु निवेन्द्रम् ग्रंथमाळामां छपातुं चारुदत्तनुं मूळ मळशे त्यारे कदाच आ प्रश्न उपर कांहक अजवाळू पाडी शकाशे.
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amerikant
अंक २] श्री महावरिनो समय-निर्णय
[९७ जेटलां वर्ष सुधीना तो मगधना खरा ऐतिहासिक राज्यकर्ताओने गणाव्या छ, तेथी एम चोकस अनुमान थई शके के मगधराजाओनां खरा नाम अपनारी जूनी तवारीखोमांथी आ नामो लीधां हशे. आ यादीमां छेल्लां नामो उज्जयिनीना राजाओनां आवे छे; गर्दभिल्ल पण उज्जयिनानो राजा हतो, तेनो पुत्र विक्रमादित्य तेओमां घणो प्रख्यात हतो, तथा जैन लोकोए इस्वी सननां पहेलांनां सैकांओमां हिंदना पश्चिम भागमां घणो अगत्यनो भाग भजव्यो हतो, तेम ज तेमने उज्जयिनी साथे घणो संबंध हतो;एटला माटे तेमने उज्जयिनीना राजाना नामथी आ यादी शरु करवी तथा तेना ज नामथी इति करवी ए अनुकूळ लाग्युं हशे. विशेषमां एम पण एक अनुमान थई शके के मौर्यराजाओनी पडतीथी ज जैनोनो मगध अने पूर्वहिंद साथेनो संबंध . तूटी गयो हतो. बौद्धोनी गुंचवाडा भरेली वातो उपरथी तथा बीजां वधारे निश्चित प्रमाणो13 उपरथी आपणे एम धारी शकीए के पुष्यमित्र घणो ज धर्मद्वेषी हतो, अथवा तो एना वंशजोथी तेमने घणुं सहन करवू पडद्यु हतुं. ते समय पछी खरी रीते मगधराज्य विषे तेओ कथं जाणता न हता. 14 मगध देशना आ राजाओनी यादीमां पालकनु नाम केम आव्यु तेना विषे प्रो. जेकोबीए 15 एक गुचवण भरेलो तर्क बांध्यो हतो, ते एवो के ग्रंथकर्ताए अजातशत्रुना पुत्र अने वारस उदायिनने बदले भलथी पालकना बनेवी उदयनने गण्यो, अने तेथी उज्जयिनीना पालकनुं नाम आ प्रमाणे ए यादीमां आवी गयु. में उपर समजाव्यु छे ते प्रमाणे हुं धारतो नथी के पालक मूळ यादीमां होय; पण जो तेमां, तेना नामनी हयाती माटे कोई कारण आपq होय तो, हुं सरळ रीते ग्राह्य थाय तेवी बीजी सूचना करूं छु. कल्पसूत्र १४७ (जेकोबी-संपादित पा. ६७) मां एम कहेवामां आव्यु छ के महावीर ज्यारे छल्ला पावा (अगर पापा) मां रह्या हता त्यारे हस्तिपालकनी लेखकोवाळी सभामां (रज्जुसभा) निर्वाण पाम्या. आ राजानु नाम कल्पसूत्र १२३ मां पण आवे छे, ज्यां तेने हाथपाल कहेलो छ, अने जेकोबीए, से० बु० इ०, पु०२२, पा०२६४, २६९ ए वन्ने ठेकाणे हास्तपाल एम नाम वापरेलुं छे. पण हस्तलिखितग्रंथ बन्ने फकराओमां हथिपाल अने हस्थिपालग एम रूप आपे छे, अने पालुं रूपजेकोबीए कल्प० १४७मां आपेलुं छे. आ उपरथी एम स्पष्ट थाय छे के तेनुं नाम हस्तिपाल अगर हास्तपालक हतुं. आ बाबत उपर कांई भार मूकवानी जरूर नथी, कारण के तेमांथी वधारे जाणवानुं आपणने कोई कारण नथी. हवे हस्तिपाल (क) ने घरगतु भाषामां पालक पण कहेता होय तो ते संभवित छे अने मानी शकाय तेम छ तेम ज आ राजा महावीरना निर्वाण साथे घणो निकटनो संबंध धरावनारो होवाथी आपणे एम सूचवी शकिए के महावीरना निर्वाणनी रात्रिए तेने अभिषेक करवामां आव्यो हतो, एम पाछळथी कहेवामां आव्यं हशे.मारा अभिप्राय प्रमाणे, कोईक पालक जेने, पश्चिम हिंदमां जैनोमां प्रसिद्ध थएला ए ज नामना अवन्तीना राजाने बदले पाछळथी भूलथी गण्यो हशे, तेनो आ यादीमा आस्तित्व भोगववान आथी पुरतुं कारण मळी शके. 16 परंतु उपर जणावेलां कटेलांक कारणोने लीधे
13. सरखावोः वी. ए. स्मीथ, अर्ली हिस्टरी ऑफ इंडीआ, पा. १८८.
14. पूर्वहिंदमां कालंगनो राजा खारवेल जैनोनो रक्षक हतो; परंतु आ रक्षक पणुं थोडो वखत रह्य हशे. जैनो पोताना ए आश्रयभूत राजानो नामोल्लेख पण क्यांए करता नथी, तेम ज तेनी मीति पण अनिश्चित छे.
15. कल्पसूत्र, पा. ८,
16. पावानो हस्तिपाल (क) राजा कपिलवस्तुना शुद्धोदननी माफक, अगर कुंडग्गामना सिद्धार्थनी माफक एक नानो ठाकोर हशे, तेथी हुँ धार छु ते प्रमाणे कोई पण इतर जैन अगर ब्राह्मण ग्रंथोमां तेनुं नाम मळी आवतुं नथी. आ उपरथी एम जणाय छे के एनुं नाम याद रहेवाचं कारण ए ज के एना राज्यमा महावीर निर्वाणने पाम्या; अने तेथी ए पण स्पष्ट ज छे के आवो नानो राजा तेना नामना माटा राजाने बदले भूलथी गणवामां आवी जाय.
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९८ ]
जैन साहित्य संशोधक
[ खंड २
आ पालक राजा महावीरनो समय नक्की करवामां अने महावीर निर्वाण तथा विक्रम संवत्नो प्रारंभ ए बेनी बच्चेनो समय पूरो करवामां, उपयोगी थाय तेम नथी.
हाल तुरत आपणे आ लोकोमां आपेलो नंदोनो समय (१५५ वर्ष ), मौर्योनो समय ( १०८ वर्ष ) तथा पुष्यमित्रनो समय ( ३० वर्ष ) तपासमा लेता नथी; तेनो विचार आगळ उपर करीशं- हमणां विक्रमसंवत् पहेलां ११७ वर्ष सुधीना, एटले के लगभग इ० स० पूर्वे १९७४५७ सुधीना राजाओ विषे हुं बोलवा मागुं छं. आ राजाओ नीचे प्रमाणेः
ariana अने भानुमित्र, ६० वर्ष राज्य नहवहण ( नभोवाहन ), ४० गर्दभिल्ल
35
33
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अने शक ४ वर्ष राज्य
"
आ राजाओनी विचित्र यादी विषे कांई पण निश्चित रीते कहेवातुं नथी. नहवहण जेने बदले बुल्हर अने जेकोबी नभोवहन लखे छे तेनुं नाम बीलकुल जाण्यामां नथी; 17 सेने माटे एक ज सूचना थई शके के मौर्य राज्यनी पडतीनो समय अने विक्रमसंवत्ना आरंभनो समय ए बेउनी वचमां पश्चिम हिंदमां ए कोई नानो राजा थयो हशे वळी, जो के बलमित्र अने भानुमित्रनां नाम बीजे स्थळे जोवामां आवे छे तो पण एमने माटे पण उपरोक्त कथन ज कहेतुं योग्य थशे. जेकोबीए प्रसिद्ध करेली, जरा गुंचवाडा भरेली कालकाचार्यनी वार्ताीमां, पा० २६८ उपर आपणे वांची छीए के आ राजाओ जे कालकना भत्रिजा थता हता तेओनुं राज्य भरुकच्छ ( भरुच ) मां हतुं, तथा तेओ जैनधर्म प्रत्ये मित्राचारीथी वर्तता हता. ए वार्तामां कह्याप्रमाणे कालके रोषे भराईने, पोताना शत्रु उज्जयिनीना राजा गर्दभिल्लने मारवाने, शक लोको ने हिंदमां बोलाव्या हता. ते उपरथी आ बे राजा विक्रमना समयथी जरा ज आगळ थया हता एम कही शकाय एक अगर ऋण 18 कालकोनी वातोनो वधारे. गुंचवाडा करवानुं मूकी दईने हुं एटलुंज कहुं हुं के कालक एक ज थयो हतो जे महावीर पछीनो २३ मो 'स्थविर' हतो; तथा कल्पद्रुमनी 19 पूरवणीमां कह्या प्रमाणे निर्वाण पछी ३७६ मा वर्षमां विद्यमान हतो; एटले इ. स. पूर्वे ५२७ थी गणीए तो इ. स. पूर्वे १५१ मुं वर्ष आवे. तपागच्छनी 20 पट्टावर्लामां कहेलुं छे के आ कालक महावीर पछी ३७६ अगर ३८६ वर्षे, एटले के इ. स. पूर्वे १५१ अगर १४१ मां पंचत्वने पाम्यो; अने आ समय उपरोक्त श्लोकोमां बलमित्र अने भानुमित्र विषे निर्णीत करेला समय साथे बराबर मळतो आवे छे; कारण के तेओ बनेए ६० वर्ष सुधी एटले इ. स. पूर्वे १७४-१७३ अने ११४-११३ नी वचमां राज्य करेलुं मानवामां आवे छे. परंतु हुं तो आ वातने, तेम ज उपरोक्त श्लोकोने जरा पण अगत्यता आपी शकतो नथी.
17. जो आ नहवाण नाम कांई पण उपयोगनुं होय अने ते सतप राजा नहपान जे इ. स. ८० – १२५ थयो हतो एम मानवामां आवे छे, ते ज ए होय, तो आ यादी पाछला भागमांथी नकामी नीवडे. पण वस्तुस्थिति आ प्रमाणे नथी एम मानवाने मने कारणो मळे छेः (१) गमे तेवा गुंचवाडा भरेली वंशावळी होय तो पण नहपान ने विक्रम पहेला मूकवा ए असंभव छेः अने ( २ ) जो, ते नहपान ज होय, तो चोक्कस रीते तेनुं नाम कालकाचार्यनी वार्तामां आववुं ज जाईए, के जे वार्तानो विषय विक्रमनी पहेलां हिंदमा सीधीयन सत्तानो उदय ए छे, पण ए प्रमाणे जोवामां आवतुं नथी.
18. सरखावोः जॅकोबी, पा. २५०.
1'. जेणे उत्तराध्ययन सूत्र उपर टीका लखी हती ते लक्ष्मीवल्लभनी बनावेली कल्पसूत्र उपर आ एक टीका छे. 20. क्लाट, इन्डि. एन्टी० पु. ११, पा. २५१.
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अंक २] श्री महावीरनो समय-निर्णय
[९९ उपर निर्दिष्ट करेली कालकनी वार्तामा ज गर्दभिल्ल अने शकोनो इतिहास आधे छे. महावीर पछी ४५३ मा वर्षमां एटले के इ. स. पूर्वे ७४ मां अगर विक्रमनी पहेला सत्तरमा वर्षे थपला राज्यारोहण वाळा गर्दभिल्लना समयमां हयाती धरावनार बीजा कालके विक्रम राजाना पहेलां सीधीयन राजाओने हिंदुस्थानमां चढाई करवा माटे बोलाव्या तेना विषेनी वातोने, खरेखर, काईक ऐतिहासिक प्रमाण होवू जोईए. बीजे स्थळे आ गर्दभि (ल) ने उजयिनीनो राजा तथा विक्रमादित्यनो21 पिता कहेलो छ; अने तेना विषे एम सूचित करवामां आव्युं छे के इ.स.४२०-४३८ मां थएलो अरबस्ताननो राजा बहराम गोर तेज आ हतो. बोजा वळी कहे छे के इ.स. पूर्वे पहेला सैकामां थएलो सत्रप गुडफर अगर गॉन्डोफेरस ते पण आजहतो; 22 परंतु गर्दभि(ल) विक्रमना समय साथे निकटनो संबंध धरावतो हतो, तेथी उपरोक्त बन्ने प्रमाणो निर्बल ठरे छे. वळी, गर्दभिल ए नाम पण एक विचित्र भारतीय जेवू लागे छ, 23 जनुकारण भाग्ये ज आपीशकाय; तेथा तनामनु मूळ परदेशीय हशे एम संभव एम पण शक्य लागे छ के गर्दभिल ए कि नाम छे अने तेथी ते नामनो माणस कोईक नानो ग्रीक राजा होवो जोईए जेने सीधीयन राजाओए हराव्यो हशे. पण तेने उज्जैनना ए नाममा प्रख्यात राजा साथे कांई संबंध न हतो. आ कामचलाउ तर्कनी विरुद्ध सबळ प्रमाण आपी शकाय तेम नथी, कारण के विष्णुपुराण प०४४, २४, १४ मां गर्दभिलोने एक जात तरीके गणी, आंध्र वंशथी उतरी आवेली यवन, शक, बाल्हीक विगेरे हिंदुस्थान उपर चढाई करनारी जातो साथे गणाधी छे; ए कारणे कदाच घणा जूना सैकाओमां थएला गर्दभिलमी साथे नैसर्गिक अगर कृत्रिम संबंधे तेना नाम उपरथी आ लोकोनुं नाम पडयुं हशे.
गर्दभिल्लना विषयमां आटलं ज.पण शक के जेणे विक्रमादित्यथी हार्या पहेलां चार वर्ष सुधी राज्य कर्यु हतुं एम कहेलुं छे, तेना विषे घणो रस आपी शके एवी तथा ऐतिहासिक उपयोगिता वाळी केटलीक सूचनाओ कालकनी गुंचवणभरेली वार्तामां आवेली छे. ते वार्तामां कहेलं छे के गर्दभिल्लना उच्छेदनी प्रतिज्ञा लईने कालक केटलोक वखत भटक्यो अने शककूल देशमां (Z. D. M. G. 34,262) आव्यो; अने कालकाचार्यकथानक, श्लोक ६३ मां शकवंश विषे कहेलं छे केः
सगकूलाओ जेणं समागमा तेण ते सगा जाया । 'शककूलमाथी उतरी आवेला होयाथी ते शक कहेवाया, वळी, एमां ज कहेलं छे के शककूलना प्रांतोना अधिकारीओने साहि कहेता. तथा ते देशना राजा 'राजसमूहना मुकूटमाणि' ने साहाणुसाहि कहेवाता. 'शककूल-शकस्थान' एम कहेतुं प्रो. जेकोबीनुं सत्य हतुं; 24 तथा स्ट्रेबो, ११, ८, २,25 मां आवुलं नाम जे संस्कृत शब्द शककूलना जेवू ज छे ते पण तेमणे री आप्यु छ; अने एटलं तो निःसंदेह छे के ते उपरथी ज जरा फेरफार करी पाडेलुं छे. तेथी कालक विषेनी वार्तानो तथा तेणे करावेली सीधीयनोनी चढाईनो काईक ऐतिहासिक
21. विष्णुपुराण ( विल्सन ), ५, ३९२; सरखावो वेबर इन्डि० स्टुडी० पु. १५, पा. २५२
22. प्रथम सूचना As. Res. IX, 147 मां विल्फर्ड करेली, अने बीजी इन्डि एन्टी० २, १४२ मां प्रीन्सेपे करेली, तथा तेने Ind. Act. II,409 मां लॅसेने अनुमोदन आप्यु छे.
23. मारा धारवा प्रमाणे जूना नाम गोभिल साथे, तथा मृच्छकटिकमांना तद्दन अस्मृत रोभल नाम साथेज सरखावी शकाय. सरखावोः Indog. Forsch, 28, 178; 29, 380 sqr.
24. पा. २५५. 25.( आ ठेकाणे लेखके ग्रीक अवतरण आपेलुं छे जे अहीं छापी शकाय तेम नथी-संपादक)
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१०.] जैन साहित्य संशोधक
[खंड २ आधार हशे ज; तथा वार्तानुं 26 सघळं रूप जोईने हुं धारूं छं के, ओएमा कडफीस्से करेली हिंदना उत्तरपश्चिम भागनी जीत विषे ते कहे छे, ए असंभावित छे. कारण के ते वार्तामां शकसत्रो अने कोईक ग्रीक (?) राजा ( गर्दभिल्ल) वच्चेनी लडाई जे पाछळथी उज्जयिनीनी सामान्य लौकिक वाती थई तेनी आछी स्मृति ज हशे एम लागे छे. इ. स. पूर्वे प्रथम सैकामां जे शक राजाओ थया तेनो पूर्ण अहेवाल डफ साहेबनी क्रॉनोलॉजी ऑफ इंडिआ, पा.१७मां आपलो छ, अने ते अहेवालथी मारी सूचना निर्बळ थती नथी. चढाई करनारा अरबस्तानी हता तथा साहाणुसाहिनो अर्थ 'राजाधिराज' थाय ए कल्पनाने टेको अपाय तेम नथी. कारण के ते एम स्पष्टताथी कहेलुं छे के चढाई करनारा शक हता, नहि के आरबी अगर बॅक्टेरीअन. 'शाओनानो शाओ' पद जे आ वार्ताना 'साहाणु साहि' मां हुं जोऊ छु तेना विषे मारे कहेवू जोईए के ते कनिष्क पहेलांना सिकाओ
पी; परतु आ खास महत्वन नथी, कारण के एम जणाय छे के ए वार्ता घणा अर्वाचीन समयमां उत्पन्न थई; अने ते समयमा पहेलांना शको अने कुशानो वच्चे गुंचवाडो थई शके ते सहज छे. परंतु ए वार्तामां शक वंशनां झीणां झीणां स्मरणो जाळवी राखवामां आव्यां छे, ते उपरथी एम सिद्ध थाय छे के ए वार्ता तद्दन नकामी नथी.
आ चर्चाथी हुं बताववा मागु छ के उपरोक्त श्लोकोमा आपेली वंशवार यादी जेना उपर जैन लोको महावीरना मरण अने विक्रमसंवत्ना आरंभनी वच्चेनां ४७० वर्षना समयनो आधार राखे छे ते लगभग तद्दन नकामी छे. आ समय भरवा माटे क्रमवार करेली राजाओनी श्रेणी तद्दन बिन ऐतिहासिक छ, अने तेथी तेना उपर आधार राखी शकाय तेम नथीकारण के तेमां निर्वाण पछीनां ६० वर्षोमां उज्जैननो एक राजा थयो, एम कहेलुं छे, पण ते राजाने महावीरनी साथे कोई पण संबंध नथी. उपरोक्त यादीमां तेनुं नाम केम दाखल थयुं ते माटे में उपर प्रमाणे कारणो शोधवा प्रयत्न कर्यो छे. बाकीनां २९३ वर्षोमां मगधना वंशोनो समावेश करेलो छ, जेनी ऐतिहासिकता विषे कोई पण जातनो शक नथी. आ उपरथी एम स्पष्ट जणाय छे के प्रथम आ यादीमां मगधना राजाओने ज मूकवाना हशे, केजे वात स्वाभाविक रीते आप. णने पण इष्ट छे. कारण के महावीरे लगभग पोतानी आखी जींदगी ए ज देशमां तथा विबिसार अने अजातशत्रु राजाओना गाढ संबंधमां गाळी हती. विक्रम पहेलांनां ११७ वर्षमा जे जूदा जूदा भागना राजाओनां नामो भी छे, तेना विषे आपणे एटलुंजकही शकीए छीए के ते राजाओनो मगध साथे काई पण संबंध हतो नहि., .
उपरोक्त विवेचनथी जणाशे के जैनोना जे कथन प्रमाणे महावीर विक्रम पहला ४७० वर्षे, अगर इ. स. पूर्वे ५२७ मां थया ते कथनने मात्र कल्पनामय ज आधार छे, अने तेथी अविश्वसनीय छे. हवे हुं मारी तपासना बीजा भाग उपर आवीश अने एमां बतावीश के उपरोक्त कथन निश्चित करेली बौद्ध मीतिओ साथे पण असंबद्ध छे, अने तेथी सर्वथा तेनो त्याग करवो जोईए. २. महावीर अने जैनो साथे बौद्धोनो संबंध-बुद्धनो निर्वाण-समय.
जेकोबी अने बुल्हरे ऊहापोह करीने स्पष्ट कर्यु छ के बौद्ध अने जैन आगमोमां घणाखरा एकना एक ज माणसोनां नामो आवे छे-मात्र केटलीक जग्याए ज तेमने माटे जुदां जुदां नामो वापरवामां आव्यां छे. आ उपरथी उपरोक्त विद्वान् महाशयो ए निर्णय उपर आव्या छे के बुद्ध
26. कालकनी वार्तामा साहाणसाहि हिंद उपर चढाइ करतो नथी पण तेना साहिओ तेना क्रोधथी नासी छुटवाने चढाइ करे छे.
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अंक २] श्री महावीरनो समय-निर्णय
[१०१ अने महावीर समकालीन होवा जीईए, तेमणे लगभग एक ज प्रदेशमा प्रवास कों होवो जोईप तथा तेमना वखतना एक ज राजाओ अने अग्रगण्य पुरुषोना संसर्गमां तेओ आव्या होवा जोईए. विशेषमां जेकोबीए खास निश्चित रीते बाताव्युं छे के बौद्ध आगममां गणावेला 27 छ पाखंडी गुरुओमांना निग्गन्थ-नात (थ)-पुत्त ते ज महावीर छे. आ बन्ने समकालीन हता, तथा बन्ने मगधमां फरता हता28 तेथी परस्पर समागममां आव्या हशे, के केम तेनी कदा च कोईने शंका होई शके; पण, आ बन्ने तद्दन भिन्न अने स्वतंत्र हताप विषयमा तो हवे कोडेने शंका थाय तेम नथी. नात(थ) पुत्त अने तेना अनुयायिओ संबंधे बौद्ध आगमोनां वाक्योनी प्रो. जेकोबीए, संक्रेड् बुक्स् ऑफ धी ईस्ट, पु० ४५, पा० १५ मां सारी रीते चर्चा करेली छे. परंतु तत्स्थळे तेमनो मुख्य हेतु मात्र जैनो अने तेमना धर्म विषेना बौद्ध उल्लेखो भेगा करी समजाववानो हतो, ए उल्लेखोमांथी ऐतिहासिक बाबतो तारवी काढवानो हेतु गौण हतो, तेथी एमांनां केटलांक वाक्यो विषे हुं अहीं पुनः चर्चा करीश. जो के तेमां वर्णवेला बनायो घणा लांबा समये पाली आगम विद्यमान रूपमा संगठित थएला होवाथी तेना उपर सर्वथा आधार राखी शकाय तेम तो नथी; तो पण तेमांना केटलाक मुख्य बनावो तो खास बनेला होवानां सबळ प्रमाणो जणाय छे.
सामञफलसुत्त (दी० नि० १, पा० ४७) नी सुशात प्रस्तावनामां कहेलुं छे के, मगधराज अजातशत्रुए अनुक्रमे पूरणकस्सप, मक्खलीगोसाल, अजितकेसकंबल, पकुधकच्चायन, संजयवेलहीपुत्त, अने निगण्ठ नाथपुत्त एमछपाखंडी गुरुओनो धर्म सांभळवा तेमनी मुलाकात लीधी, अने आखरे असंतुष्ट थईने बुद्धने शरणे गयो. एमां जरा अतिशयोक्ति हशे, कारण के एक ज रातमां अजातशत्रुए सात महान् गुरुओनी मुलाकात लीधीए मानी शकायतेमनथी.29 परंतु आमांना गोसाल अने नातपुत्त ए बे गुरुओनी धार्मिक मान्यताओने जैन लेखो 30 साथे सरखावतां आपणने जे बातमी मळे छे ते उपरथी एम कही शकाय के ए प्रस्तावनानो निष्कर्ष खरो छे. वळी औपपातिकसूत्र जेवा जैन ग्रंथमां पण राजा कृणीय अगर कोणिय (अजा
27. काई विशेष कह्या बिना ज्या ज्या मात्र नात (थ) पुत्तनु नाम आवे छे एवां वाक्यो, दाखला तरीके नीचे प्रमाणे:-चु० ब०५, ८, १; दी. नि. २, पृ० १५०; म. नि० १, पृ. १९८, २५०; २, पृ. २; बौद्ध संस्कृतमां तेने निर्ग्रन्थो शातिपुत्रः कहेलो छे, दाखला तरीके दिव्यावदान पा. १४३; महावस्तु १, पा. २५३, २५७; ३, पा. ३८३.
28. स्वर्गस्थ एल. फीअरे प्रपंचसूदनी उपरथी J. A. Ser, VIHI,t. XII, 209 मां एवो मत दर्शाव्यो छ के महावीर ने बुद्ध कदापि मळ्या न हता, परंतु आ एक भूल छ एम स्पष्ट जणाय ळे.
29. माज्झमनिका . २, पा. २ मां कहेलुं छे के बुद्धना वखतमा उपरोक्त छए पाखंडी गुरुओ एक बखते त्यां साथे चातुर्मास रह्या हता. कल्पसू० १२२ मां कह्या प्रमाणे महावीरे त्यां १४ चातुर्मास गाळ्यां. परंतु दी.नि. मां एम कथं छे के चोमासा पछी कार्तिकनी पूर्णिमाने दिवसे अजातशत्रुए तेनी मुलाकात लांधी. परंतु एम पण बनवू शक्य छे के ए ज बाबतनो अही उल्लेख होय.
30. (दी.नि.१,५७ मांनी) नातपुत्तनी धार्मिक मान्यताओ माटे सरखावोः-जेकोबी, से० बु० इ०, पु. ४५, प० २०; अने गोसालनी मान्यताओ माटे (दी०नि० १५३) पृ० २९ तथा हेस्टिंग्स एन्साइक्लोपीडीआ, पु.१ पा. २५९ मां आवेलो डॉ. हार्नेलनो लेख. ( सरखावो तेम ज उवासगदसाओ App.II)
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१०२]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
तशत्रु ) ए लीधेली महावीरनी मुलाकात विषे कथन करेलुं छे; तेथी जो के दीर्घनिकायमा 31 जेनो उल्लेख करेलो छे ते ज आ मुलाकात हशे, एम कहेवाने प्रमाणो नथी, तो पण अजातशत्रु महावीरनी मुलाकात लेतो तेनी कल्पना जैन लेखकोने तद्दन अज्ञात न हती ए सिद्ध करवाने पूरता दाखला मळी शके तेम छे.
मज्झिमनिकाय १, पा० ९२ मां, बुद्धे पोताना सगा शाक्यकुमार महानामन्ने राजगृहनी नजीकमां केटलाक निर्ग्रन्थ साधुओसाथे थएली पोतानी वातचीत विषे कहेलुं छे. महावी•रना ते शिष्योए पोताना गुरु सर्वज्ञ, सर्वद्रष्टा वगेरे के एम कही तमनां वखाण को हता
आमां कांई खास विशेष नथी, कारण के सर्वज्ञता ए महावीर तेम ज गोसाल; बुद्ध तेमज देवदत्त सर्वनुं सामान्य लक्षण थई पडयुं हतुं. वळी, पाली आगमोमां बीजा घणा दाखला छे के ज्यां उपर प्रमाणे ज महावीरना शिष्योए पोताना गुरुना सर्वज्ञ तरीके वखाण करेलां छे. तेवी ज रीते मज्झिमनि० २, ३१ मां राजगृहमां सुकुलदायि; तेमां ज २, २१४ मां केटलाक निर्ग्रन्थ साधुओ; अने अंगुत्तर १,२२० मा लिच्छवी कुमार अभय वेसालीमां आनंदनीसाथेवात चीतमा नातपुत्तनां वखाण करे छे. परंतु आ सर्व फकराओमां नातपुत्त, तेनी धर्मभावमाओ तथा तेना अनुयायिओ विष घणी शाततापूर्वक कहेलुं छे, तेथी एम सिद्ध थाय छे के बौद्ध आगमोने यथास्थित रूप आपनाराओने गौतम अने महावीरना जीवनसमयना बौद्धो अने जैनो वच्चेना संबंधनु चोकस ज्ञान हतुं.
वेसालीमां 32 रहेतो सेनापति सीह जे पाछळथी बौद्ध थयो हतो तेना नातपुत्त साथेना समागम बाबतना महावग्ग ६, ३१,१ ना फकराविषे, तथा मज्झिम नि० (१. पा० ३७१) ना प्रसिद्ध उपालिसुत्त विषे प्रो. जेकोबीए से० बु० इ० पु० ४५, पा० १६ मां चर्चा करी छे. एमां विस्तार पूर्वक कहेलं छे के उपाली जे नातपुत्तनो अनुयायी हतो, ते ज्यारे नालन्दामां 33 आ बन्ने गरुओ मळ्या हता त्यारे धार्मिक विचारोमां बुद्धने हराववाने त्यां गयो हतो. परंतु आ प्रयत्ननुं परिणाम उलटुं ज आव्यु, कारण के बुद्धे तेने ज (उपालिने) पोताना शिष्य बनाव्यो. त्यार बाद उपालि पोताने घेर राजगृहमां गयो अने द्वारपालने कां के हवे निर्ग्रन्थोने पेसवा देवा नहि. ज्यारे पाछळथी पोताना शिष्यमंडळ सहित महावीर तेने मळवा आव्या त्यारे उपालिए पोतानो धर्म बदलवानुं कारण कडं अने बुद्धनां वखाण कर्या. तेमां अंते आ शब्दो आवे छे:---
अथ खो निग्गण्ठस्स नातपुत्तस्स भगवतो सक्कारं असहमानस्स तत्थ एव उण्हं लोहितं मुखतो उग्गञ्चीति ।
'पण भगवान बुद्धनां वखाण सहन नहि करी शकवाथी निगंठ नातपुत्सना मुखमांथी उष्ण लोही नीकळी पडयुं.'
31. औपपातिकसूत्रमा कयु छ क कूणिय चम्पामा रहेतो हतो; दीघनिकायमा का छे के उपरोक्त समागम राजगृहमां थयो हतो. उवास . १, ७ मां उमुकित अजातशत्रनी मुलाकात (वी. ए. स्मीथ पोताना हिंदुस्तानना प्राचीन इतिहास, पा. ४१ मां तेनुं अवतरण लीधुं छे.) चंपानो पण उल्लेख करे छे. आ विषे हुं आगळ उपर कहीश.
32. उपरोक्त फकरो अंगुणनिकाय, ४, पा. १८० मां पण आवे छे.
33. उपर आपेला कल्पसू० १२२ ना अवतरणमां महावीरे राजगृहमा तथा नालन्दाना परा (वहिरिका) मां १४ चोमासां गाळ्यां. आ स्थळने जैनो पण प्रख्यात मानता हता; सरखावोः सूत्रकृतांग २,७-से. बु० इ०, पु. ४५, पृ. ४१९.
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अंक २] श्री महावीरनो समय-निर्णय
[१०३ ___ आ फकरा उपर घणो भार मुकवामां आव्यो छे, कारण के घणा विद्वानोए आ वातने दी०नि० ३, पृ० ११७ अने २०९; म०नि० २, पृ० २४३ वाळी हकीकत साथे जोडीने 34 को छे के नातपुत्त ज्यारे पावामां मरी गया त्यारे बुद्ध शाक्योनी भूमि उपरना सामगाममा हता. आ उपरथी एम अनुमान करवामां आव्युं छे के उपालीनी मुलाकात पछी थोडा ज वखतमां महावीरनुं अवसान थयु. 35 अहीं, महावीरना अवसान विषना बौद्ध उल्लेखना विषयमां हुँ नहि बोलुं; आगळ उपर तेनी चर्चा करीश; परंतु उपालिनी आ वार्ता तथा तेना प्रथम गुरुना अवसान संबंधी, बे बावतो उपर हु भार मूकवा मागुंछु. प्रथम बाबत ए छे केहालमां मनातुं महावीरना निर्वाणवें स्थान पावापुरी पटणा प्रांतना विहार भागना गिरियक गामथी लगभग त्रण माइल दूर आवेलु छे; 36 ज्यारे दो० नि० ३, पृ० ११७ विगेरे उपरथी ए स्पष्ट थाय छे के बौद्धो पावा ते स्थळने मानता हता के ज्यां कुसिनाराथी आवतां बुद्ध चुंदना घरमा रह्या हता; अने ते शाक्योना प्रदेशमां आवेलुं कहेवाय छे. राजगृहमा उपलिसाथे विखवाद थयां पछी जो महावीर थोडा ज वखतमां अवसान पामवाना होत तो तेवा आजारीने माटे आ स्थान घणुं दूर कहेवायतथा कल्पसू० १२२-३ प्रमाणे महावीरे पोतानुं छेल्लु चोमासु पावामां 'राजा हस्तिपालनी लेखकोनी सभा'मां गाळयुं हतुं. तेथी उपालिने लीधे तेमनु मरण थयु एम जो मानीए तो पण उपालिनी मुलाकात पछी तेओ लगभग अर्धा वर्ष सुधी जीव्या हशे. बीजी बाबत ए छे के चु० व० ५,४,३ मां, ज्यारे देवदत्तने पण महावीरना जे कारण बन्यु त्यारे तेना मुखमांथी पण उष्ण लोही नीकळयुं एम एक ज वात कहेली छे. जो के केटलीक पाछळनी विगतो उपरथी स्पेन्स हार्डी अने बीगन्डेट 37 एम माने छे के उपालिना विरोधना परिणामे तेमनुं मरण थयुं, परंतु जूना लेखोमां कोई पण स्थळे ए प्रमाणे कहेलुं नथी. पण आ उपरथी हुँ ए निर्णय उपर आq छु के महावीरना मरणने उपालिना विरोध साथे कार्यकारणनो अगर अन्य कोई पण प्रकारनो संबंध नथी. ____ अभयकुमारसुत्त ( म० नि० १, ३९.२) मां कहेलुं छे के राजगृहमां निगंठनाथपुत्ते अभयने कह्यु के, तमे बुद्ध पास जई, प्रिय शद्बो बोलवा ए ठीक के नहि, ते विषे प्रश्न पूछो. आ प्रमाणे बुध्दने पकडवाने जाळ पाथरवामां आवी; कारण के जोते 'ना' कहे तो पोते खोटो पडे, अने 'हा' कहे तो देवदत्तने तेणे शा माटे कठोर शद्बोथी धिकार्यो हतो एम अभय पूछे. हुँ कबुल करुं छु के आ फकराने अगत्यता आपवानी जरुर नथी, कारण के पाली आगममा 38
34. सरखावोः चामर्स.J. R. A.S. 1895, p. 665.
35. उपालिना विरोध पछी नातपुत्त थोडा ज वखते मरी गया ए वात स्पेन्स हार्डीए, मॅन्युअल ऑफ बुद्धिज्म् पा. २८. मां कहेली छे. पण सरखावाः-जेकोबी. कल्पसू. पा.६
36. सरखावोः इम्पीरीयल गॅझेटीअर आफ इंडिआ. पु. २०, पा. ३८१
37. सरखावोः से बु०३०,पु.१३,पृ.२५९.आज बाबत सिद्ध करनारो बीजो दाखलो सारिपुत्त अने मोगल्लानना गुरु संजयना इतिहासमां आवे छे. ज्यारे तेना शिष्योए तेनो त्याग को त्यारे तेणे लोही ओक्युं हतुं, एम कहेलं छ. पण तेना मरण विषे कोई कहेलं नथी, जे ते वखते थयुं नहि होय, कारण के मारा धारवा प्रमाणे ते ज बेलठ्ठीपुन्त नामे पाखंडी हतो. पण बील अने बीगन्डेट कहे छे के ते त्यारपछी तरत ज मरी गयो, जे बाबत स्पेन्स हार्डीना कथनथी विरुद्ध छे.Manual p. 202. सरखावोः से० बु० इ०, पु० १३, पृ० १४९.
38.संयत्त०नि० ४,३२२ मां जणाववामां आव्यु छे के एक दारुण दुष्काळना समये बुद्ध अने नातपुत्त बन्ने एक साथे नालंदामा रह्या हता. ते दर्मिआन नातपुत्त पोताना धर्मानुयायी एक गृहस्थ जेनुं नाम असिबन्धकपुत्त (सरखावो उपरोक्त पुस्तक पृ. ३१७) हतुं अने ते गामनो ग्रामणी हतो तेने बुद्धनी पासे जई एक प्रश्न पूछवा कां के 'आ (दुकाळना) वखते तमारा बधा श्रमणोने अहीं राखी गरीब लोकोना खोराकने वाहा करावी देवो ए शं तमन योग्य लागे छे? "
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१०४ ]
जैन साहित्य संशोधक
[ खंड २
बीजो पण एक आवो ज दाखलो आवेलो छे; पण अन्य कोई पण प्रमाणथी ए नकामो छे एम सिद्ध थई शके तेम नथी, तेथी एमांथी ए निष्कर्ष काढी शकाय के देवदत्तनो धर्मविरोध थया पछी पण महावीर जीवता हता. आ बनाव प्रो. ह्राइस डेवीड्सना 39 प्रमाण पुरःसर धारबा प्रमाणे बुद्धना निर्वाण पहेलां दस वर्षे बन्यो हतो.
प्रो. जेकोबी 40 एक उपयोगी बाबत उपर ध्यान खेचे छे, के जैनोना प्राचीन आगमो मां बुद्ध अने तेना अनुयायीओनो बीलकुल उल्लेख थयो नथी, तेथी आ बाबत, बुद्ध अने महावीर समकालीन होवा छतां बने ते नवाई जेवुं गणाय, अने ते उपरथी ए एवा अनुमान उपर आवे छे के महावीरना समयमां बौध्दोनुं घणुं महत्व नहिं वध्युं होय. गमे तेम हो, हुं आ अनुमानने मळतो थई शकुं नहि, केम के अनुमानानी प्रतिज्ञा जोईए तेवी खरी नथी. सिद्धान्तोमां केटांप स्थळे अन्य संप्रदायोनी साथै बौद्धोनो पण खुल्लेखुल्लो निर्देश थपलो जोवामां आवे छे. 41 वळी; आनुं कारण केटलेक अंशे जैन सिद्धान्तनी रचना पण होय. बुद्ध महावीरनो प्रतिस्पर्धी हतो ए निःसंदेह छे अने भयंकर पण गणाय खरो, परंतु ते मंखलिपुत्त गोशालना जेवो द्रोही भने द्वेषीलो शत्रु तो नहोतो ज. कारण, मंखलिपुत्त गोशाले महावीरना धर्ममांथी नोकळी जई पोतानो स्वतंत्र मत स्थाप्यो अने आटलेथी ज संतोष नहि मानी पोताना गुरुना करतां वे वर्ष पहेलां तीर्थकरपद प्राप्त कर्यानी घोषणा करवा मांडी हती. आ बीना नवीन स्थापित थला संघने ( धार्मिक समाजने ) एक भीतिजनक आघात पहचाडे ए स्वाभाविक छे, अने तेथी करीने आ तत्त्वज्ञानी 42 के जेने बुद्ध पण एक महान् दुराशयी पाखंडी 48 तरीके वर्णवे छे, तेना उपर जैन शास्त्रमां पण गाळो अने शापोनो वरसाद बरसावेलो जोवामां आवे तो तेथी नवाई पामवा जेवुं नथी. आ प्रमाणे प्राचीन काळना जैनोने बुद्धना करतां गोशाल वधारे महत्त्वनो पाखंडी लाग्यो होय. आ उपरांत जैनोना सिद्धान्त ग्रंथो जे पाली सिद्धान्त पछी घणां वर्षे हालना रूपमां ग्रथित करवामां आव्या, तेने बौद्धोना आगमो 44 साथे सरखावी शकाय नहि. हुं आधी एम कांई सूचववा नथी मांगतो के बुद्ध अने तेना मतविषयक प्राचीन हकीकत सूत्रोमांथी पुस्तकारूढ करनाराओए काढी नाखी छे. परंतु हुं बे बाबतो तरफ वाचकनुं खास ध्यान खेचवा मागुं हुं के जे प्रो. जेकोबी माने छे तेम केटलेक अंशे अर्थोंबोधन करे छे.
(१) जे दृष्टिवाद नामनुं अंग व्युच्छिन्न थयुं छे तेमां कदाच बौद्धोना संबंधमां कांई
39. जुओ, हेस्टींग्सनी एन्साइक्लोपीडीआ पु. ४. पृ. ६७६.
40. कल्पसूत्र, पृ. ४.
41. सरखावोः दा० त० वेबरनुं इंडी. स्टडी० १६, ३३३.३८१ अने सूत्रकृतांग २, ६, २६ से० बु० इ०, पु० ४५, पृ० ४१४.
42. भगवती, शतक १५ नो डॉ. हॉर्नलनो संक्षेप, उवासग्गदसाओ, परिशिष्ट १,
43. जुओ, अंगु० निकाय ० १ ३३, २८६.
44. पूर्वकालमा चौद पूर्वोनुं विद्यमानपणुं दृष्टिवाद व्युच्छिन्न थवाथी अंगोनी अपूर्णता अने श्वेताम्बरोना . वर्तमानकालीन आगमोने प्रमाण मानवामां दिगंबरानी चोक्खी ना; आ सर्वे हकीकत एम सूचवे छे के गुरुशिष्यपरंपरा द्वारा मळेला विद्यमान सिद्धान्त ग्रंथो अपेक्षाकृत अर्वाचीन काळना छे.
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अंक २] श्री महावीरनो समय-निर्णय
[१०५ उल्लेख होय तेम संभवे छे; कारण तेना नाम उपरथी जणाय छे के तेमां अन्यमतोना 45 ज संबंधमा ऊहापोह करेलो हतो.
(२) वर्तमानकालीन सिद्धान्तनी शैली ज एवीकृत्रिम छ के तेमां जोईती हकीकतो शोधी काढवी असंभवित छे. कारण के ते सर्व खंडित रूपे छे–जो के केटलेक स्थळे केटलाक भागोने कंटाळाभरेली भाषाशैलीमा विस्तृत करेला छे; तेम ज ते (सिद्धान्त ) उपरोक्त स्मारक गाथाओनी माफक तारवी काढी लीधेला या तो जूना सिद्धान्तमांना सामान्य रीते साचवी राखेला भागो जेवा छे.
आ विषय उपर हवे वधु चर्चा न करता हुं जैनोना संबंधमां कांई खास हकीकतो आपवा बाळां केटलांक बौद्ध ग्रंथोमांनां उदाहरणो आपशि. कारण उपर चर्चेलो विषय हुं अन्य स्थळे 46 चर्चवा मागु छु. आवी जातना घणा फकराओ जेमां मतोनी विगतो जणावेली छे ते प्रो. जेकोबीए संगृहीत कर्या छे. आ स्थळे साधारण महत्वनी बाबतोना विषयना केटलाके फकराओ आपशि; अने ते, जरूर होय तो, प्रमाणरूपे बतावी शकाशे के बौद्धो अने जैनो, पोताना संप्रदायोना आरंभ कालमां-तेओना संस्थापकोना जीवनकालमां-परस्पर घणा ज निकट संबंधमां रहता हता. जैनो पोताना धर्मप्रवर्तकोने 'अर्हत्' नुं पद आपे छे ए सुविख्यात छे. अने आ पद खारवेलनी शिलालिपिमां आवेला-समणो वा ब्राह्मणो वा अरहा (खार वेल. ५, ८, १) 47, आ एक वाक्यमां जोवामां आववाथी मारा धारवा प्रमाणे तेनो अर्थ 'जैन ' होवो जोईए. बीजी पण एक बाबत ध्यानमा राखवा जेवी छे के पाली ग्रंथोमां नातपुत्त अने बीजा पांच पाखंडी मताचार्यों माटे 'गणिन्', 'गणाचरिय', 'गणस्स सत्था', (संयुक्त नि० १,६६) अने 'तित्थकर' एवा इल्काबो जणावेला छे. मारा मत प्रमाणे आ इल्काबो बुद्धने 48 कदापि लगाडवामां आवता नथी, पण जैन तीर्थकर माटे ते बराबर बंध बेसता लागे छे; कारण के 'गण' शब्द प्राचीन समयमां जैन संघनो एक विभागसूचक हतो; जेनो अर्वाचीन कालीन 'गच्छ' अतिशब्द छे, अने तीर्थकर पद तो.महावीरनो अत्यंत सामान्य इल्काब छे जेनो हक्क गोशाले पण को हतो. आ संबंधमां कोईने शंका थाय तेम छे के आ बाबत कांई विशेष साबीत करी शके तेम नथी; कारण के आ इल्कायो बधा तीर्थको माटे सरखी रीते वापरवामां आव्या छे, पण आपणे याद राखq जोईए के जे गोशाल महावीर पछी सौथी वधारे महत्त्वना मनातो हतो, ते शरुआतमां महावीरनो मात्र शिष्य ज हतो; अने तेणे पोताना गुरु महावीरथी बे वर्ष पहेलां ज तीर्थकरपद प्राप्त कर्यानो दावो को हतो. वळी, गाथामां आ वन्नेनी साथे पकुधकच्चायन अने पूरणकस्सपनो उल्लेख थएलो छे. आ गाथा खरेखर जूनी छे अने ते संयुत्त नि० २, ३, १०, ६मां आवेली होवाथी विशेष प्रामाणिक गणावी जोईए. अने सु
45. प्रो. जेकोबीने (से. बु० इ०, पु० २२ पृ० ४५) दृष्टिवादना एक विशिष्ट भाग तरीके मनातां चौद पूर्वो नष्ट थयानुं प्रधान कारण तेमां महावीरना विरोधीओना सिद्धान्तोनुं वर्णन आपेलुं हतुं, ते लागे छे. परंतु आ अनुमान मने बीलकुल स्वीकारवा लायक लागतुं नथी.एनाथी विशेष अविश्वासपात्र कारण वेबरे आप्यु छे. Ind. Stud. XVI, 248, Cf, also Lumann Actes du VIe congres des Orient. III, 559. 46. उत्तराध्ययनसूत्रनी आवृत्ति जे तैयार थाय छे तेनी प्रस्तावनामां.
॥ अहेत् ए इल्काब पाखंडी मताचार्योना नाम सरखावोः राइझ डेविडस, Hastings' Encyclopaedia 1,774
48. सामञफलसुत्त ( दा०नि० १,७४) मां बुद्ध अन तेना विरोधी मताचार्यो, जे अहींआं बहु ज नजीकना संबंधमां जोवामां आवे छे, तेमना भिन्न भिन्न बतावेला गुणो या लक्षणो जुओ.
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१०६ ]
जैन साहित्य संशोधक
[ खंड २
मं० विला० १, १४४ मां बुध्दघोष खुल्ली रीते जणावे छे के पकुध 'सितूदक परिखित्तो' हतोः अर्थात् ( महावीरनी माफक ) थंडा पाणीना उपयोगनो प्रतिषेध करनार हतो. अने मार्गमां नदी अथवा तळावमां थईने पार उतरवाने पाप मानतो हतो ( नदि वा मग्गोदकं वा अतिक्कम्म सीलं मे भिन्न ति ). तेना मतनी बीजी बाबतनुं प्रो. जेकोबीए से० बु० इ०, पु० ४५, पा० २४ मां विवेचन कर्युं छे. पूरण कस्सपना संबंधमां दघिनिकाय १, ५२, 49 मां वर्णवेला तेना सिद्धान्तो उपरथी जैन धर्मनी साथे तेनी कांई पण समता जोवामां आवती नथी. परंतु तेना संबंधमां जणाववामां आवेली वे बाबत खास ध्यानमा राखवा लायक छे, कारण ते उपरथी पूरण अने गोसालनो परस्पर संबंध घणो गाढ हतो तेम सूचित थाय छे. सु० विला० १, १४२मां एक कथा आपली छे, जेमां पूरण शा कारणथी नग्न साधु थयो हतो ते बताववामां आव्युं छे अने आ कथा तेज ग्रंथमां पृ० १४४ मां गोसालना संबंधमां आपेली दंतकथानी साथे तद्दन मळती छे. 50 वळी, गोसालना, वर्णानुसार छ जातिमां करेला मनुष्योना विभागो अंगुतर निकाय, ३, ३८३ मां पूरणना करेला छे एम बताववामां आव्युं छे. 51 आ हकीकत भूल भरेली होय तेम लागती नथी, परंतु ए एम बतावती होय तेम लागे छे के पूरणनो पण एव मत हतो. आ उपरांत गोसाल 'कर्म' ना अस्तित्वने मानतो न हतो (नत्थि कम्मं विगेरे दी० नि० ) अने पूरणनी पण आ बाबतमां तेवी ज मान्यता हती एम लागे छे; कारण के ते पण एम कहे छे के माणस जीवोने मारे अगर कापे तेमां पाप नथी तेमज सारां कर्मोथी पुण्य पण संचित करतो नथी. तेनो मुख्य सिंद्धान्त नीचेना शब्दोमां प्रदर्शित थाय छे:- नास्ति पापं नास्ति पुण्यम्' । आ उपर जणावेली बाबतोथी एटलुं तो अवश्य संभावित लागे छे के महावीर, गोसाल, पकुध अने पूरण वच्चे केटलोक विशेष संबंध हतो; अल्बत्त तेओना सिद्धान्तो मां भिन्नता हो; अने तेमाना अनुयायीओ जैनोनी माफक गणोमां वर्हेचापला हशे. 52
महावीर एक नग्न साधु हता ते तो आचारांग १, ८, १. द्वारा सुज्ञात थई चुक्युं छे. आ बाबतमां ते तेमना पूर्वगामी पार्श्वथी जुदा पड़ता हता; कारण के पार्श्वे वे वस्त्र पहेरवानी छूट आपी हती. 53 गोसाल पण नग्न ज हतो. अने तेणे पोताना अनुयायिओ के जे आजीविकोना नामे ओळखाता
49. पकुध अने गोसाल ए वन्ने वच्चना संबंध माटे सरखावोः होर्नल; हेस्टिंग्सनी एन्साइक्लोपीडआ १,२६१ 50. आ दंतकथा होर्नले उवासग्ग • ना परिशिष्ट २. पृ. २९ उपर आपेली छे; सरखावोः स्पेन्स हाडींनी मॅन्युअल, पृ. ३०१.
51. सरखावोः सु० विलास ० १, १६२ होर्नल, हेस्टींग्स्नी एन्साइक्लोपीडीआ १, २६२. आ मत अने जैनोना लेश्याना सिद्धान्तनुं वर्णन 'जैनो अने आजीविकोनो लेश्यानो सिद्धान्त' नामना निर्वन्धमां सारी रीते बताववामां आव्युं छे, जे निबन्ध Sertum philologicum C. F. Johansson Oblatum, Upsala 1910, P. 19ff. मां छपायो छे.
52.बाकीना बे अर्थात् अजित केसकम्बल अने सञ्जय बेलट्ठिपुत्तना संबंधमां वर्णन आपी शकतो नथी. अजित एक जडवादी हतो अने ते आत्माना अस्तित्वने ज न होता मानतो; एटलुं ज नहि पण आगामी जन्मना संबंधमां विचार करवाने पण मना करतो हतो. दुल्बमां जणाच्युं छे के ( Rockhill, Life of Buddha p. 103 ) तेनी मान्यता गोसालना जेवी हती; ते दघिनिकायना फकरा साथे सरखाववा लायक नथी. अने संजय ए मारा धारवा प्रमाणे महावग्ग १, २३-२५ मां, सारिपुत्त अने मोग्गल्लानना गुरु तरीके जणावेल संजय परिव्राजक छे. आ बाबत जो सत्य होय तो ते निःशंक रीते ब्राह्मण होवो जोईए. दीघनिकाय १, ५८ ने आधार विचार करतां ते एक वादी हतो अने अलंकारशास्त्रविषयक पोतानी कळा प्रदर्शित करवा धणुखरुं प्रयत्न करतो हतो.
53. सरखावो; दाखला तरीके उत्तराध्ययन २३, १३.
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अंक २]
श्री महावीरनो समय-निर्णय
[१०७
हता तेमना माटे पण अचेलकव्रतर्नु ज विधान कर्यु हतु. परंतु महावीरे पोताना शिष्यो-अनुयायिओनी पसंदगीने माटे बन्ने मार्गो खुल्ला राख्या हता. बौद्ध ग्रंथोमां अनेक वखत नग्न यति
ओनो उल्लेख थएलो जोवामां आवे छे, अने ए रीते ते आजीविको ज समजवाना छ. उदाहरण तरीके महावग्ग ८, १५, ३, 54 १, ३८, ११, ७०, २; चुल्लव० ८, २८, ३, निस्स०६, २; संयुत्त निकाय २, ३, १०, ७ वगेरे. आमांनां केटलांक उदाहरणोमां नग्न भिक्षुओने मात्र तिथिय (तीर्थक) कहेला छे अने तेथी करीने ते महावीरना अनुयायिओ पण सूचवी शके. वळी गोसाल अने पूरणनी'छ जातिओ'नी नोंधमां'एकवस्त्रवाळा निर्ग्रन्थो' तथा 'अचेलकोना श्वेतवस्त्रधारी गृहस्थ अनुयायिओ' अने 'नग्न भिक्षुओ अर्थात् आजीविको' वच्चे भेद पाडवामां आव्यो छे. ते उपरथी जणाय छे के बौद्धो पोताना प्रतिस्पर्धी मतोना संबंधमां चोक्कस जाणता हता. घणाक स्थळोमां अचेलो अथवा अचेलकोना संबंधमां वधारे व्याख्या कर्या सिवाय उल्लेख थएलो जोवामां आवे छे अने आ शब्द जैनोमां सारी रीते मान्य छे. अंगु० निका० १, २०६ मा एम कहेवामां आव्यु छ के निग्रंथो पोताना श्रावकोने उपोसथ दिवसोमां नग्न रहेवा फरमावे छे. चु० व० ५, १०, १ मां जणावेलुं छे के एक साधुना हाथमां पाणी पीवान तुंबडीनुं एक प्यालु जोईने लोको कहेवा लाग्या 'तीर्थकोनी माफक.' आचारांग २, १,६,१ प्रमाणे जैनोने तुंबडाना 55 बनावेला पात्र वापरवानी छूट अपवामां आवेल छे, अने तेथी करीने आटीका वास्तविक रीते तेमने ज लागू पडे छ.56 आ उपरांत म.व.४,१,१२ मा मूकव्रत अथवा मौनव्रत पाळनारा साधुओनुं वर्णन थएलुं छे. ते उपरथी आपणने सूत्रकृतांग १, १३, ९ (से० बु० इ०, पु० ४५,पृ० ३२१) मां जैनधर्मदर्शक (मोणपदं गोतं) अर्थात् मौन व्रत पाळतुं 'गोत्र' रूपी उद्गार याद आवे छे. _ आ बाबतने पुरवार करनारां बीजां पण घणां उदाहरणो मळी आवेलां छे. बौद्धोने तेमना तद्दन प्रारंभ काळमां, तेमना विरोधिओ-निग्रंथो अथवा जौनोना चरित्रो तथा संस्थाओगें घणुं सारं शान हतुं.आ फकराओ उपरना विवेचनमां उतरी कालक्षेप करवा मांगतो नथी. परंतु जे बाबतो उपर रजु करवामां आवी छे, तथा प्रो. जेकोबी अने अन्य विद्वानोए अगाउ ज जे दाखलाओ पूरा पाडेला छे, ते सर्व उपरथी चोकस अनुमान थई शके छ के महावीर अने बुद्ध ए बन्ने भिन्न, समकालीन, अने प्रतिस्पर्धी साधु समाजना संस्थापक हता. पण जो आपणे जैनपरंपरागत कथाने साची मानीए अने ते अनुसार महावीर निर्वाण विक्रम पहेला ४७० वर्षे
54. आ प्रकरणमां बुद्ध अने गोसालनी वच्चना साम्यनो एक आर्थर्यकारक दाखलो जोवामां आवे छे तेथी एम लागे छ के ते बाबत निःसंदेह बन्न जणाओए कोई ब्राह्मण ग्रंथमाथी लीधी हशे. कारण के 2 मां एम जणावेलुं छे के एक रात्रे एक 'चातहीपिको महामेघो' आकाशमां आव्यो अने वरसाद पज्यो. आ अवसरे बद्धे पोताना शिष्योने नीचे प्रमाणे कयु:-यथा भिक्खवे जेतवने वस्सति एवं चतूसु दीपेसु वस्सति, ओवस्सापेथ भिक्खवे कार्य, अयं पच्छिमको चातुद्दीपिको महामेघोः-ओ भिक्षुओ, जेवी रीते जेतवनमा वरसे छ, तेवी रीते अत्यारे चारे द्वीपमा वरसाद पडे छे. तमे शरीर उपरथी वस्त्रो काढी नांखो. ओ भिक्षुओ, कारण के चारे द्वीपो उपर आ छेल्लो महान् मेघ चडेलो छे' आ 'छल्लो' महान् मेघ आपणने एकदम गोसालनी आठ छल्ली वस्तुओमांनी ( अठचरमाइं) एक वस्तु--'छल्लुं भयंकर वावाझोडु'-नी याद आप छे. सरखावोः भगवती पृ. १२५४; अने होनल, हेस्टींग्सूनी एन्साइक्लोपीडीआ १, २६३.
55. सरखावो; वळी औपपातिक. ७९, ७.
56. तेज अध्ययनमा साधुने--निर्ग्रन्थोने, पाणी पीवा माटे माणसनी खोपरीनुं पात्र बनावी वापरता, दर्शावेला छे, घणा प्राचीन समयमां आ प्रमाणे केटलाक संप्रदायोमां आ वस्तुनो उपयोग थएलो जोवामां आवे छे.
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जैन साहित्य संशोधक एटले इ. स. पूर्वे ५२७ मां थयार्नु जणावीए तो आपणने आ अनुमानना संबंधमा शक उठे खरो. कारण के बुद्ध निर्वाणनी, जनरल कनिंगहाम अने प्रो. मेक्समुल्लरे पहेलीज वखत अने मारा अभिप्राय प्रमाणे बराबर रीते निर्णीत करेली मिति इ. स. पूर्वे ४७७ मां आवे छे अने सघळा मूळ लेखो एकमते निर्वाण समये तेमनी ऊमर ८० वर्षनी बतावे छे, ते उपरथी ते इ. स. पूर्वे ५५७ मां जन्म्या होवा जोईए. आ उपरथी ए स्पष्ट छ के जो महावीर इ.स. पूर्वे ५२७ मां निर्वाण पाम्या होय तो बुद्ध ते समये ३० वर्षनी वयना होवा जोईए. परंतु बुद्धे पोतानी ३६ वर्षनी वय पहेलां लगभग इ. स.पूर्वे ५२१ मां बुद्धत्व प्राप्त नहि करेलु होवाथी अने अनुयायिओपण नहि मेळवेलाहोवाथी,ते समयमां महावीरने कदापि मळीशके एतद्दन असंभवित छे.आ उपरांत वळी बन्ने अजातशत्रुना राज्यकाल दरम्यान विद्यमान हता एम पण आपणे जाणीए छीए.आराजा बुद्धनिर्वाण पहेला ८ वर्षे अभिषिक्त थयो हतो अने तेणे ३२ वर्ष राज्य कर्यु हतुं. तेथी पण उपरोक्त मितिओ बिल्कुल अविश्वसनीय बने छे. आटला माटे, महावीरना निर्वाणनी मिति कांतो इ. स. नी शरुआतनी वधारे नजदीक लाववी जोईए, अगर तो बुद्धना निर्वाणनी तारीख आगळ खसेडवी जोईए. परंतु इ. स. पूर्वे ५२७ वाळी महावीरनिर्वाणनी तारीख परंपरागत होवाथी अने बुद्ध निर्वाणनी इ. स. पूर्वे ४७७ नी मिति मात्र संशोधित होवाथी कदाचित् कोईने बाजी मितिने माटे-बुद्धनी निर्वाणमितिनी सत्यताना संबंधमां शंका उठे. आ उपरांत मि. विन्सेन्ट स्मिथ आदि विद्वानोनी नवीन शोधमां बुद्धनिर्वाणनो समय इ. स. पूर्व ४८६ अगर ४८७ वर्षे स्थापित करवामां आव्यो छे अने डॉ० फ्लीटनी शोध अनुसार इ.स. पूर्वे ४८२-८३ मां स्थापित थाय छे. उपर निर्दिष्ट शोधो जो खरेखर साची नीवडे तो महावीरनिर्वाणना इ स. पूर्वे ५२७ ना समयनी सत्यताना संबंधमां संभावना उपस्थित थाय. परंतु हुं उपरोक्त फेरफारोमां कांई तथ्य समाएलुं मानतो नथी, अने विशेषमा मानुं छु के जनरल कनिंगहामे अने प्रो. मेक्समुल्लरे जे बुध्द निर्वाण- वर्ष इ. स. पूर्वे ४७७ मुं नक्की कर्यु छे ते प्रामाणिक छे; अने तेथी मारा आमतने साबीत करवाते समयना निर्णय योग्य बधी महत्वनी कीबाबतोनो एकवार फरीथी अहीं विचार करवो उचित धारुं छु.
हिंदुस्थाननी साची कालगणना, अलेकझेन्डरना हुमलाबाद, चंद्रगुप्तथी शरु थाय छे. परंतु हजी सुधी चंद्रगुप्तना अभिषेकना काळनो संपूर्ण रीते निर्णय थयो नथी; कारण के विद्वानोना मतान्तरो अनुसार अभिषेकनो समय इ. स. पूर्वे ३३५ थी ३१२ वच्चे होवार्नु मनाय के. वली बद्ध अने चंद्रगप्तनी वञ्चना समयना संबंधमां, जना ग्रंथोमां आपेली गणत्री वजनवाळी लागती नथी. तेथी करीने मॉ. सेनार्ट (इ० ए० २०, २२९) अने मि. वी. गोपाल ऐय्यर (पु० ३७, पृ० ३४१) अने अन्य विद्वानोना मानवा प्रमाणे माझं पण एम मानबुं छे के कालगणनानी शरुआत मात्र अशोकना शिलालेखोथी ज थई शके तेम छे. डॉ. बुलरे, इ० ए० पु० ६, पृ० १४९; पु० २२, पृ० २९९; ए० इ० पु० ३, पृ० १३४ उपर; अने डॉ० लीटेज० रा०ए० सो० १९०४, पा०१ मांजे सूचना करली छे के सिद्दापुर, स अने रूपनाथनी आशाओना अंतमा २५६ नो अंक छे,ते बुद्धना निर्वाण पछी व्यतीत थएली वर्षसंख्या सूचवे छे. ते सूचनानुं डॉ. एफ्. डबल्यु. टोमसे (J. A. 191c, p. 507 ) संपूर्ण रीते निराकरण कर्यु छे. ते जे अनिषेध्य प्रमाणथी आ बाबत साबीत करे छे तेनो अर्थ एम समजवानो छे के आ आज्ञा प्रसिद्ध थई त्यारे २५६ रात्रिओ सुधी अशोक घर छोडीने चाल्यो गयो हतो. 57 आ लेख जोधामां आव्यो त्यार पहेलां आ सूचना अश्रद्धेय लागती न हती.
57. डॉ. थोमसना पाठने स्वीकारीने डॉ. फ्लीटे (J. R. A.S. 1910, p. 1301 ) तेना आधारे जे अनुमान कयु हतुं ते कोईपण रीते टके तेम नथी. माँ.लेवीए (J. A. 1911, p. 119 ) २५६ दिवसोनुं जे अनुमान कर्यु छे, ते मात्र शक्य छे.
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अंक २]
श्री महावीरनो समय - निर्णय
[१०९
कारण के अशोक पोताना आध्यात्मिक गुरुने 'व्युथ'ना नामथी दर्शावे ते असंभवित लागे छे. वळी, आ विशेषण तेणे अन्य कोई स्थळे वापर्यु नथी; लुंबिनी स्तंभ उपर ते बुद्ध, शाक्यमुनि अने भगवन्त एवां गुणनामो बापरे छे. आथी कालगणनानी दृष्टिए ते सूचनानुं बलिकुल महत्त्व रतुं नथी. माँ० सेनार्डे घणा वखत पहेलां जणान्युं हतुं के कालगणनानी शरुआतनुं केन्द्र १३ मी खडक उपरनी आज्ञामां छे, कारण के ते स्थळे अशोक अंतियोक 58 नामना योनराजा अने तेना राज्यनी पार तुरमय, अंतिकिन, मक अने अलिक खुदरनो उल्लेख करे छे. आ मतने हुं अनुसरं छं. लॅसने ( Ind. Alt II, 254) अगांउ ज सूचवी दधुं हतुं के आ राजाओ अनुक्रमे नचैिना राजाओ छे:-सीरीआनो राजा थीओस, एन्टिओकोस बाजो (२६१-२४६इ. स. पूर्वे), जीतो बाजो टोलेमेइओस ( मृत्यु २४७ इ. स. पूर्वे), मेसेडोनिआनो आन्टिगोनोस गोनटस ( मृत्यु, इ. स. पूर्वे २३९ ), सिरीननो मगस ( मृत्यु, २५८ इ. स. पूर्वे ); अने एपिरसने अलेकझेन्डर ( मृत्यु २५८. इ. स. पूर्वे ) ५ हवे खडक उपरनी आज्ञाओ अशोकना अभिषेकने १२ वर्ष थयां हृतां त्यारे पटले के तेना अभिषेकना १३ मा वर्षमां प्रसिद्ध थई हती. ए. विषमां ही सुश्री कोईने पण शंका थई नथी; तेम ज थाय तेम पण नथी के, ए १३ मी आज्ञामां जे पांच राजाओनो निर्देश करेलो छे ते सघळा, ते वखते हयात न हता. कारण के अशोके दरेक राजा पासे पोसामा धर्मप्रवर्तकोने मोकल्या हता. अने आ उपरथी ए सहज समजी शकाय तेम छे के तेओनी साथे ते गाढ संबंध धराचतो होवो जोईए. अने तेथी करीने इ. स. पूर्वे २५८ वर्ष पछी एक या वे वर्षो बाद जे तेओमांना बे राजा गुजरी गया हता ते एनी मां न आवे एम मानवुं अशक्य छे. कारण के आ बेमांनो एक तो (मगस) टोलेमेइओस ( Ptolemaios ) नो एक निकटनो सगो हतो अने टोलेमेइओस ए अशोकना वखतनो एक घणो ज बळवान राजा हतो जेणे बिंदुसारना दरबारमां अने खुद अशोकना दरबारमां पण पोतानो दिओनिसीओस ( Dionysios ) नामनो एलची मोकल्यो हतो. 59 आटला माटे अशोकनुं तेरमुं वर्ष एन्टिओकस थीओस (Antiochos Theos ) ना राज्यधिरोहणना इ. स. पूर्वे २६१ मा वर्ष पछी अने मगसना अवसान तथा प्रायः अलेकझान्डरना मरणनी पूर्वे - जो मा छेलो राजा आ करतां वधारे वहेलो न गुजरी गयो होय- एटले इ. स. पूर्वे २५८ मा वर्ष पहेलां आवकुं जोईए. जो ए प्रमाणे आ तेरमुं वर्ष इ. स. पूर्वे २६० - २५८ नी वचमां आवे तो तेनो अभिषेकनो समय इ. स. पूर्वे २७२-२७० मां पडे. अने सघळी बौद्ध परंपराओना एकमते अशोक पोताना अभिषेक पहेलां चार वर्षे राजा बन्यो हतो ते उपरथी तेनो पिता बिन्दुसार इ. स. पूर्वे २७६ अने २७८ नी वचमां गुजरी गयो हशे.
उपरोक्त गणत्री तत्कालीन स्मरणस्तंभादिना अखंडनीय आधार उपर तैयार करवामां आवी छे. परंतु बौद्ध इतिहास ग्रन्थो एम जणावे छे के बुद्ध पछी २१८ मां वर्षमां अशोक पोताना ९९ माईओने 60 मारी नाखीने राज्याभिषिक्त थयो हतो. आ कथन जो विश्वासपात्र लेखाय तो बुद्धनुं निर्वाण इ. स. पूर्वे ४८९-४८७ नी वचमां नक्की थयुं मानवुं जोईए. पण आ कथन
58. सरखावा, खडक उपरनी आज्ञा बीजी. अहींयां पण तेज राजाओनी मतलब छे.
59. सरखावा, व्ही. ए स्मीथ, Early History, P. 139.
60. आ हकीकत खडक - आज्ञा नं. ५ थी खोटी पडे छे कारण के आ आज्ञामां अशोक पोताना भाई ओना निर्देश कर्यो छे. आ बाबत माँसेनार्ट शोधी काढी हती. ( Ind Ant XX 259 )
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११०]
जैन साहित्य संशोधक विरुद्ध ते ज इतिहासोमां 61 बीजु कथन मळतुं होवाथी तेओनी गणत्रीमां क्या भूल छे ते ९ आ स्थळे समजावीश.
राजगृहनो राजा बिंबिसार अने तेनो पुत्र तथा उत्तराधिकारी अजातशत्रु-जेने जैनो कूणिय अथवा कोणिय नामे ओळखे छे-तेमना संबंधमां ब्राह्मण, बौद्ध अने जैन आत्रणे धर्मोमां परंपराओ जोवामां आवे छे. बौद्धोना पुरातन लेखो जणावे छे के बिंबिसार बुद्धनो समकालनि हतो अने बुद्ध निर्वाणथी आठ वर्ष पहेलां ते पोताना पुत्रना हाथे मरण पाम्यो हतो. पुराणोनी हकीकत अनुसार आ बिंबिसार शैशुनाग वंशनोपांचमो राजा हतो अन तेणे२८ वर्ष राज्य कयुःहतुं. परंतु दीपवंश ३, ५६-६१, अने महावंश २, २५ मां एम जणावेलुं छे के ते बुद्ध पछी पांचमे वर्षे जन्म्यो हतो, पंदर वर्षनी उम्मरे राज्यासन पर आव्यो हतो अने ५२ वर्ष सुधी तेणे राज्य कर्यु हतुं. जो के आ हेवाल मां कांई तथ्यांश नथी. कारण के बिंबिसार बुद्ध अने महावीर बन्नेनी पहेलां गुजरी गयो हतो. बिंबिसार पछी अजातशत्रु ( उर्फे कूणिक) गादिए आव्यो अने तेणे पुराण अनुसार २५ वर्ष, अने सिलोनना इतिहास प्रमाणे ३२ वर्ष राज्य कर्यु. तेने गादी उपर आव्याने आठ वर्ष थयां त्यारे बुद्धनु अवसान थयुं. पण आ पछी पौराणिक अने बौद्ध हेवालो नामोमा मळता आवता नथी. कारण के पुराण जणावे छे के अजातशत्रुनी पछी हर्षक अथवा
मनोराजा थयो अने तेणे २५ वर्षे राज्य कये. त्यारपछी उदय राजा बन्यो जेणे ३३ वर्ष राज्य कर्यु. बौद्धो एम कहे छे के अजातशत्रु पछी उदायिभह (दीघनिकाय) अथवा उदय भहक62 (दपिवंश, महावंश) राजा बन्यो अने तेणे १६ वर्ष राज्य कर्यु. जैनो आने उपायिन् कहे छे अने तेना शासननो समय लांबो बतावे छे. 63
हवे आ हकीकत ने शरुआतनुं केन्द्र मानीने विविध कालगणना विषयक लेखोनो एक पछी एक लई विचार करवो जोईए. अने तेथी हुँ पहेल वहेलां वायुपुराणमांथ मळी आवती ब्राह्मणपरंपराथी शरुआत करीश.
___ आ ग्रंथनी अनुसार, दर्शक ( अथवा हर्षक) 64 ना २५ वर्ष पर्यंत राज्य करी रखा पछी उदय ( अथवा उदयाश्व ) राजा बन्यो अने तेणे ३३ वर्ष राज्य कर्यु. आना पछी अनुक्रमे नन्दिवर्धन अने महानान्दिन आव्या जेओ बनेए ८५ वर्ष राज्य कर्यु. महानन्दिन शैशुनाग वंशनो छल्लो राजा हतो अने तेनी पछी नव नन्दो, महापद्म इत्यादि राजाओए बे पेढी सुधी कुल १०० वर्ष राज्य कर्यु. छेल्ला नंदनी पछी मौर्य राजाओ गादीए आव्या तेमांना चन्द्रगुप्ते २५ वर्ष, बिन्दुसारे २५ वर्ष अने अशोके ३६ वर्ष राज्य कयु. जो हवे आपणे अजातशत्रुथी मांडीने अशोकना अभिषेक सुधीनां बधां राजाआनो सरवाळो करीए तो ते सरवाळो ३१७ वर्षनो थाय छे. अने जो आपणे सिद्धरूपे मानी लईए के अजातशत्रुना आभषक पछी ८ वर्ष बुद्ध निर्वाण पाम्या तो अशोकनो समय बुद्धनिर्वाण पछी ३०९ मां आवे, ए अशक्य छे. कारण के सिलोननो सन्-जेना आधारे बुद्ध इ. स. पूर्वे ५४४ वर्षे निर्वाण पाम्या हता तेनीअनुसार उपरोक्त समय इ. स. पूर्वे २३४ वर्षे आवे छे अने आपने जाणीए छीए के इ. स. पूर्वे २६० अने २५८ वञ्चना वर्षथी १२ वर्ष पहेलां अशोकने राज्यभिषेक थयो हतो. इ. स. पूर्वे
61. उत्तरीय बौद्धोना कथनने हुं बीलकुल महत्त्वनुं मानतो नथी, ते एम कहे छे के अशोक बुद्धनिर्वाण पछी १०० वर्षे जन्म्यो हतो.
62.आ कदाच तेनुं खरं नाम हशे कारण के बौद्धोनी तेम जै जनोनी जूनामां जूनी परंपरा आ नामजणावे छे. 63. आ विषय हुं आगळ उपर चर्चीश. 64. विष्णुपुराणमां तेनुं नाम दभर्क आपेलं छे. सरखावो, मलर, Ancient Skt. Lit P. 296
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अंक २] श्री महावीरनो समय-निर्णय
[१११ ४७७ ने निर्वाणना वर्ष तरीके स्वीकारीए तो तेनी अनुसार अशोकना अभिषेक इ. स. पूर्व १६८ वर्षे आवी पडे परंतु आ परिणाम तो विशेष असंगत बने छे.
__ आ हिसावे जोतां पुराणोमां भूल थई होय तेम जणाय छे अने ते सहेलाईथी शोधी शकाय तेवी छे. पिता अने नव पुत्रो मळी नन्दोनी बे पेढीओ हती एम ब्राह्मणोना, जैनोना अने केटलेक अंशे बौद्धोना ग्रंथोमां पण वर्णन जोवमां आवे छे. वळी हेमचन्द्र अने अन्य जैन ग्रंथकारो तो स्पष्ट रीते ज कहे छे के उदय अथवा उदायि ते शैशुनाग वंशनो छल्लो राजा हतो..आ उपरथी स्पष्ट थाय छे के महानन्दिन् अने नन्दिवर्धन जेवां नामानुं शैशुनाग नामो साथे काई सादृश्य नथी.परंतु ते नंद अने महानंदिन महापद्मनन्दनुं 65 जाणे टुंकुं रूप होय एम शंका उत्पन्न करे छे.आ उपरथी तेमज वर्षांनी अतिशयोक्ति भरेली संख्या उपरथी हुँ एवी कल्पना करुं छु के पुराणोमां बे वखत नन्दोनी गणत्री थई छे. अने आम थर्बु ते, नंदोना इतिहासना संबंधमां ते ग्रंथोमां थएलो मोटो गोटाळो जोतां, तहन शक्य लागे छे. वळी पिता अने पुत्रोना राज्यनां मळी जे एकंदर १०० वर्षो आपवामां आव्यां छे ते घणां शंकास्पद लागे छेकारण के आजे प्रत्येकने बराबर १० वर्ष फाळे आवे छे, आ दाखलाओ उपरथी हुं अनुमान करूं छु के महानन्दिन् अने नन्दिवर्धन आ बे पुरुषो असलमा नन्दो के जेमणे कुल मळीने ८५ वर्ष राज्य कर्यु हतुं तेमनी बे पेढीओना प्रतिनिधिओ हता. 66 अने नन्दोनां जे सो वर्ष बताववामां आव्यां छे ते पाछळथी साची हकीकतोनां विस्मरण अने गेरसमजतिने लईने, उमेरो थरलो छे. तेथी करीने जो आपणे नंदोमा १०० वर्ष उडावी दईए तो बुद्धनिर्वाण अने अशोकना अभिषेक बच्चेनो काल ३०९ वर्षोंने बदले २०९ वर्षोनो थाय. अने पछो निर्णीत कालगणनानुसार तेनो समय इ. स. पूर्वे २६८ मां पडे. परंतु बौद्धो जेमने अशोक परत्वेनी उमत्त माहिती छे तेओ कहे छे के तेणे पोताना अभिषेक पहेलां चार वर्ष अने अभिषेक पछी ३७ वर्ष राज्य कर्यु हतुं, जे हकीकत पुराणमांजणावेली ३६ नी संख्याने साधारण निकट थाय छे. जो आम होय तो आपणे ३६मां ५ उमेरवां जोईए अने तेम कर्याथी तेना राज्याधिरोहणनो काल इ. स. पूर्वे २७३ मां वर्षमा आवशे. आ मिति शिलालेखो उपरथी तारखी काढेली मिति अर्थात् इ. स. पूर्वे २७६-२७४ साथे लगभग मळती आवे छे. ___आटलुं विवेचन ब्राह्मणग्रंथना संबंधमां कर्यु. जैन हेवाल के जे उपर टांकेली स्मारक गाथाओमां मळी आवे छेते हेमचन्द्रना परिशिष्ट पर्वमा अंतर्गत थएली परंपरारूप ज छे. पण आनो विचार अंतमां ज करवो घटे छे. तेथी करीने हालमां बौद्धोनी हकीकतो, के जे सिलोनना ... 65. खारवेलना शिलालेखमा तेम ज कौटिलीयना पृ. ४२९ उपर नन्दराजना बे वखत निर्देश थएलो छे. नन्दुस खुल्ली रीते Justin XV, 4, 1 मांना अलेग्झेन्डुस माटे सुधारणा छे. . (जुओ Gutschmid ). Diodoras XVII 93 अने Curtins IX,2 मा चन्द्रगुप्तनी पहेलांना मगधना छेल्ला राजाना नाम बतावेला Xandrainas अथवा Aprammes i संस्कृत रूप शं थाय ते हूं बीलकुल समजी शकतो नथी. Xandramas मां संस्कृत शब्द चन्द्र अथवा तो चण्डंनो भास थाय छे खरा, पण नंदोमा आवु नाम नहि वळी शकतुं होवाथी आ उपरथी कांई अनुमान काढी शकाय नहि..
66. बे पेढीओए मळीने कुल ८५ वर्ष राज्य कर्य होय ते बाबत जो के थोडीक अविश्वसनीय लागे खरी परंतु मि. विन्सेन्ट स्मीथे पोतानी Early History of India मां, अंग्रेजी इतिहासमांथी लांबा राज्यकाल दाखबतां जे उदाहरणो आप्यां छे ते जोता आ वात पण अशक्य होय एम लागती नथी. वाचक नीचेनी हकीकत उपर ध्यान आपशे के आठमो हेनरी अने तेनां पुत्रोए मळीने ९४ वर्ष ( १५०९-१६०३) राज्य कर्यु हतुं अने ते हेनरी इलिझाबेथना मरण पूर्वे ११२ वर्षे जन्म्यो हतो.
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जैन साहित्य संशोधक
[ खंड २
इतिहासामां मळी आवे छे ते उपर चर्चा कराश. शरुआतमां महावंश ग्रंथ लईशुं. कारण के एम आपली हकीकतो तद्दन स्पष्ट छे, ज्यारे दीपवंशमां आपेली बधी हकीकतो घणी गोटाळा भरेली छे. 67
महावंश २, २५ अने ४ १, ५, १४ मां जणावेलुं छे के बिंबिसारे ५२ वर्ष राज्य कर्य हतुं अने तेनी पछी तेनी हत्या करनार तेने। पुत्र अजातशत्रु आव्यो. तेणे बुद्ध निर्वाण पहेलां आठ वर्ष अने त्यारपछी २४ वर्ष एम कुल ३२ वर्ष राज्य कर्यु हतुं. अजातशत्रु पछी आवेला राज'ओ बुद्धधर्मना सारा आश्रयदाता थया होय तेम लागतुं नथी, कारण के महावंश ४, १ मां पछीना राजाओने 'पितृघातवंश' पटले पितानी हत्या करनाराओनो वंश, एवं नाम आपेलं छे. अने वधारेमां जणान्युं छे के ते वंशना सघळा राजाओ अनुक्रमे पोताना पिताने अगर पूर्व जने मारीने ज पोते गादी उपर आव्या हता. आ राजाओ ते अनुक्रमे -- उदयभहक जेणे १६ वर्ष 68 राज्य क. अनुरुद्धक अने मुण्ड बन्ने मळीने ८ वर्ष राज्य कर्यु अने छेल्लो नागदासक जेणे २४ वर्ष राज्य कर्तुं हतुं आ राक्षसो--जेमांना छेल्लाने आवेशमां आवी गएला लोकोए ठारमारी नाख्यो हतो तेमनी-पछी एक धर्मात्मा मंत्री शुशुनागे १८ वर्ष राज्य कर्यु अने तेनी पछी तेनो पुत्र कालासोक राजा थयो अने तेणे २८ वर्ष राज्य कर्यु. तेना शासनमा ११ मां aai ( अतीते दस वस्से, ४, ८ ) वेसालीमां बीजी सभा मळी जेनी मिति बुद्धनिर्वाण पछी १०० वर्ष आपेली छे. कालासोकनी पछी तेना दश पुत्रो गादिए आव्या अने तेमणे २२ वर्ष राज्य क. तेओनी पछी नव नंदो थया जेओए बीजां २२ वर्ष राज्य कर्यु. 69 छेला नंदने चाणक्ये गादी उपरथी उठावी दीधा पछी चंद्रगुप्त राजा थयो जेणे २८ वर्ष राज्य कर्यु. तेना पुत्र बिन्दुसारे ५८ वर्ष राज्य कर्यु अने तेनी पछी अशोक गादीए बेठो. ते पोताना ९९ भाईओने मारी माखीने निर्वाण बाद २१८ वर्षे राज्याभिषिक्त थयो. आ सघळी तारीख एक बीजा साथे साधारण रीते ठीक बेसती आवे छे परंतु उपरोक्त समन्तपासादिकामांनी 'भूल ' निःशंकपणे बतावे छे के आ परंपरा सघळी बाबतो मां विश्वास राखवा लायक नथी. अने तेथी आपणे बुद्धनिर्वाण पछी २१८ वर्षे अशोकनो अभिषेक थयो हतो ए जणावती नोंधने बहु महत्व
67. बुद्ध पछी सो वर्षे अशोक राजा थयो हतो ए प्रकारनुं दिव्यावदाननुं कथन हुं अहिं विचारमां लई शकतो नथी. ( pp. 568, 379 etc ) अने ए ग्रंथना, पृ. ३६९, ४३० उपर एक तद्दन अविश्वसनीय एवी राजांओनी यादी आपेली छे; जे यादी कोई पण अन्य नोंध साथै मळती आवती नथी बल्के अन्य सर्व नोंधथी विरुद्ध पडे छे. आ यादीमां नीचे प्रमाणे मगधराजाओनी यादी आपेली छे. बिंबिसार, अजातशत्रु, उदायिन् ( उदयिभद्र ), मुण्ड काकवर्णिन्, सहालि, तुलकुचि, महामण्डल, प्रसेनजित्, नन्द, बिन्दुसार, अशोक, सम्प्रति ( अशोकनो पौत्र अने कुणाल पुत्र ), बृहस्पति, बृहसेन (?) पुष्यधर्मन् अने पुष्यरथ आ स्थळे एटलं सूचववा मांगूं छं के आ यादीम चन्द्रगुप्त ने सर्वथा छोडी देवामां आव्यो छे अने ए ज एक बाबत उपरथी तेनी किंमत आंकी शकाश.
68. बुद्धघोषनी समन्तपासादिकाना ३२१३ पृ. मां, आ राजाओमांना प्रत्येकना ८ वर्षोंने बदले १८ वर्ष बतावेलां छे. आ परंपरा घणी अजायबी भरेली लागे छे, अने ते बुद्ध अने अशोकनी बच्चेनी कुल वर्ष संख्या साथ मोटो विरोध दर्शवे छे. आ उपरथी एटलं ज अनुमान काढी शकाय छे के सीलोननी परंपरा गंभीर रीते अचोक्कस छे.
69. मारा जाणवा प्रमाणे, आ पहेलां, ए कोईनी जाणमां नथी आव्युं के जैनपरंपरामां पण कालासोक अने तेना उत्तराधिकारीओनु झांखं स्मरण बच्युं छे. उपांग ८ अने ९ मां ( निरयावली ) कालराज अने तेना नव भाईओ, जेओने परंपरागत कथन अजातशत्रुना आरमान भाईओ होवानुं बतावे छे, तेओ संबंधी उल्लेख मळी आवे छे. अने आगळ ऊपर तेना दश पुत्रो जेमांना बे नामे महापद्म अने नन्दन हतां तेमनो पण उल्लेख थएलो छे. आ उपरथी नंदोना बीज पण सगाओना संबंधमां तद्दन अस्तव्यस्त रूपमा केटलुक मळतापणुं जोवाय -
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अंक २] श्री महावीरनो समय-निर्णय
[ ११३ आप जोईए नहि. तेम छतां, उपरोक्त मितिओमा एक एवी मिति छे जेने बौद्धो साधारण रीते बराबर जाणता होवा जोईए; अने ते अन्य कोई महि पण ते बीजी सभानी तारीख छे. आ समा बुद्ध पछी १०० वर्षे मळी तेम चु० ५० १२, ११ मां जणावेलुं छे. ते तारीख साची हो या न हो, अथवा सभा पण मळी हो या न हो तेनी साथे आपणने आ स्थळे काम नथी 70 आपणो मुख्य मुद्दो जे छ, ते ए छेके आ वर्ष सिलोननी कालगणनामां एक महत्वतुं प्रारंभकेन्द्र हतुं अने मारी रद्ध मान्यता छ के सिलोनना भिक्षुओ, प्राचीन परंपराओ द्वारा जाणता हता के आ सैकुंकालासाकना शासनना बराबर १० मा वर्ष पछी आवतु हतु. आ विषयमा एक वार फरीथी हुंमात्र बुद्धघोषनी, एक जरा विषयान्तर बतावती, हकीकत उपर भार मूकवा मागु छु; कारण के तेने लईने कदाच आपणने कोई रीते कालासोकना पहेलांना राजाओनी यादीमा काई फेरफार करवो पडे. परंतु तेना समय पुर्वेनी बीनाओ, महान् अशोकनी मितिने असर करती नथी; कारण के ते वखते तेना आभिषेकना संबंधमां एपी चोक्कस परंपरा प्रच. लित हती के तेनो अभिषेक बीजा संघमिलन पछी ११८ वर्ष बाद अने बुद्ध पछी २१८ वर्ष थयो हतो, हवे मिर्णीत कालगणनाना आधारे गणत्री करतां अभिषेकनी आ मिति इ. स. पूर्वे २६०-५९ मां आवे खरी, पण शिलालेखो साथे तेनो मेळ मेळवी शकाय तेम नथी.
ए तो निःसंदेह छे के अशोकनी समय-गणना, सघळा तारीखवाळा शिलालेखोमा स्पष्ट जोवामां आवे छे ते प्रमाणे, अभिषेकना वर्षथी थाय छे. 71 परंतु आपणे उपर गणत्री करी छ के तेनो अभिषेक इ. स. पूर्वे २७२-२७० नी वच्चे थयो हशे. आ उपरथी बुद्धनिर्वाण स्पा रीते इ. स. पूर्वे ४९०-४८८ नी वचमां आवे छे, जे साल जनरल कनिंग्हाम अने प्रो. मेक्समूलरनी गणत्री साथे एक थती नथी. पण अहीं एक बीजी बाबत पण विचारणीय छे.
बौद्ध अहेवालो अनुसार, अशोक तेना राज्यकाळना प्रथम भागमां अथवा शरुआतमां नास्तिक हतो अने अभिषेक बाद त्रण वर्षे ते बौद्धधर्ममा दाखल थयो 72 हतो. आ बाबत घणी महत्त्वनी छे कारण के प्रायः करीने अशोकना पोताना कथनो साथे ए संमत थाय छे. खडक उपरनी आज्ञा नं. १३ नी सुप्रसिद्ध उपोद्घातमा जणाव्युं छे के
अ[स्तव ]स अभिसित [ स दे ] वन प्रिअस प्रिअद्रशिस रजो क [लिग विजित] 73
आथी कलिंगनी जीत इ. स. पूर्वे २६४-२६२ वर्षोनी वचमां थई हशे अने आ पछी तरतज राजाए थएला नरसंहार अने रक्तप.तनो पश्चात्ताप करवा मांडयो अने केटलाक प्रमाणमां ते नवीन धर्ममार्गी बन्यो. आगळ उपर ते सहसाराम वगेरे आशामां जणावे छे के हुँ अढी वर्ष करतां वधारे वखत सुधी मन्दोत्साही (उपासक) हतो. परंतु त्यार बाद एक वर्षथी दृढ उत्साही थई संघनो सभ्य बन्यो छु.
अधिकान् (f) अढातियानि वसानि य हकं (उपासके) नो तु खो बाढं पकते हुसं एकं स (म)वछरं सातिरेके तु खो स (म्) वछर् [अ] म् यं मये संघे उपयीते बादं च मे पकते.
70. आ मत मारो नथी. कारण के आ संबंघमा बौद्धपरंपराने मुख्य पणे निर्मूल ठराववाना हेतुथी R. 0. Franke ए बतावेली सघळी दलीलोथी पण हजी मने खात्री थई नथी.
71. खडक उपर कोतरेली आज्ञा नं. १३ मां ८ मा वर्ष ( कालिंगनी जीत ) थी ते २६ मा वर्ष (स्तंभआज्ञा. १ ४ अने ५.) अने २७ मा वर्ष ( स्तंभ-आज्ञा ७) सुधीनी तारीखो.
72. दीपवंश. ६, १८; वळी प्रक्षिप्त गाथा ६, २४ मां आभिषेक बाद त्रण वर्षे धर्मपरिर्वतन जणावेलंछे. 73. शाहाबाझगढी. एपि. इन्टि. २, ४६२.
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११४]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
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आनो तात्पर्य ए छे के, अशोक बुद्धधर्मनो साचो अने विश्वासु अनुयायी बन्यो ते घखते देना अभिषेकने, साडा दश करतां पधारे, आशरे अगीभार वर्ष; थयां अने ते प्रमाणे गादी उपर आव्याने लगभग पंदर वर्ष थयां हतां. खडक आज्ञा नं. ८ मां तेणे जणाव्यु छ के ते पोताना अगीआरमा वर्षमां 'संबोधि प्राप्त करवा नीकळ्यो' हतो (अयाय संबोध); आ हकीकत सहसाराम आशामां 74 लखेली बाबत साथे ठीक मळती आवे छे. हवे आपणे दीपवंशमां का प्रमाणे अभिषेक पछीना प्रण वर्षोने, जो, सहसाराम आशामां जणाषेलां ' अढी वर्षोथी अधिक काळ साथे सरखावीशुं तो आपणे कबुल करवू पडशे के ते बन्नेनी बच्चे असरकारक साम्य दृष्टिए पडे छे, अने ते उपरथी एवं अनुमान थाय छे के वस्तुतः ते बन्ने उल्लेखो एकज बीनाने उद्देशीने करवामां आवेला छे. 75 आ उपरथी बीजुं पण एक अनुमान नीकळे छे के सिलोनना आ हेवालो-अथवा तेमनी मूळभूत प्राचीन अट्ठकथा--नी, अशोकना अभिषेक अने निर्वाण वच्चेना अंतरालने २१८ वर्षोनुं बताववामां गेरसमजुति थएली छे. आ २१८ वर्षों मूळमां अभिषेकने उद्देशीने नहि हतां परंतु कलिंगनी विजयसमाप्ति अगर प्रथम धर्मप्रवर्तन, अथवा आ बन्ने बीनाओनी साथे संबंध धरावतां हता. एटलु तो आपणे कबुल करवू जाईए के बौद्धोना माटे अशोकना अभिषेक करतां तेनुं बुद्धधर्ममां प्रवर्तन अति महत्त्वनुं हतुं. अने आटला माटे अशोकना आ बनाक्ने एक केन्द्र मानी बौद्धोए त्यांथी तेना संबंधी तेमनी कालगणनात्मक तेमज ऐतिहासिक नोधोनी शरुआत करी होय. कलिंगनी जीत कालगणनात्मक गणत्रीओमां घणुं करीने वधारे अगत्यनी न होती, परंतु तेनुं महत्त्व तेना धर्मप्रवर्तनने अंगेज छे. कारण के मारा पोताना अभिप्राय प्रमाणे, कलिंगनी अंदर, अगर कोई अन्य स्थळमां, अशोकना राज्य साथे कलिंगना मिश्रण थया उपर कोईपण संवत्नी स्थापना थई होय एवो एक पण पुरावो नथी. 76
त्यारे सिलोनना अहेवालोमा जणावेलां २१८ वर्षो असलमा अशोकना अभिषकेनी साथ
74. अहीआं में डॉ. एफ. डबल्यु. थोमसमी J.A. 1910, p. 507 मां आपेली स्पष्ट अने विश्वासजनक हकीकतोनो संपूर्ण उपयोग करलो छे..
75. बौद्धशास्त्रो अने आज्ञाओना परस्पर सरखापणाना टेकामां घणां प्रमाणो छ, जनो कोई पण निषेध करी शके तेम नथी. उदाहरण तरीके, दिव्यावदानमा, धार्मिक आज्ञाओना आस्तित्वना संबंधमा उल्लेख थएलो छ, अने ते स्थळे तेमनी संख्या ८४००० नी बताववामां आवी छे. आ संख्या हास्यजनक-कल्पनामय-लागे छे; परंतु तेमां आ आज्ञाओना संबंधां (पृ. ४१९, ४२९ इत्यादि) पञ्चवार्षिक नामनी संस्थानो निर्देश करे छे. आ संस्था ते धर्मयात्रा ज होवी जोईए, जे प्रस्तर-आज्ञा ( Rock-Ed.)३ अन ४ मां बताव्या प्रमाणे पांच पांच वर्षे थती हती. वळी दिव्याबदान पृ. ४०७ मां जणावेलुं छे के कुणालने तेना पिताए तक्षाशिलाना सुबा तरीके मोकल्यो हतो (हेम. परिशिष्ट, ९, १४ मां जणावेलें छे क तेने उज्जयिनी मोकलवामां आव्यो हतो.) आ उपरथी धौली अने जौगडनी आज्ञा १ ली मां आवता 'उजेनि (ते) कुमाले' अने 'ताखसिलाते ( कुमाले)' शब्दोर्नु स्मरण थई आवे छे. दिव्यावदान पृ. ३९० अने लाम्मन्दई शिलालेखनी वच्चे जे मेळ Barth, Journal des Savants, 1897, p. 73 अने बुल्हर, Ep. Ind. V; p. 5 बतावे छे, तेनो पिशल S. B. Pr. A.. W. 1903, p. 731, अस्वीकार करे छ; अने ते वास्तविक रीते लागे छे पण अचोकस. परंतु, दिव्यावदानमा अशोकनी तीर्थयात्रा संबंधी जे उल्लेख मळे छे ते वास्तावक छे.
76. डॉ. फ्रीट J. R. A.S. 1910, pp 242 ff, 824 ff, जे कहे छ के खारवेलना शिला. लेख उपरथी मौयवंशना आस्तत्वना संबंधमां कोई पण तर्क बांधवानो आपणने हक मळतो नथी, तेने हु समत छु.जा के ते लेखनी १७ मी लीदीना तेणे करेला अर्थने हं सर्वथा अस्वीकारणीय मानुं छु. डॉ. फ्लीटर्नु भाषांतर आ प्रमाणे
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अंक २]
श्री महावीरनो समय - निर्णय
[ ११५
संबंध धरावतां नहि परंतु धर्मपरिवर्तनने उद्देशीने लखेलां होय, तो आ बनाव, बुद्धनिवाणनी मिति इ. स. पूर्वे ४७७ नी स्वीकारतां इ. स. पूर्वे २५९ मां थयो होय, अने छेवटनुं धर्मपरिवर्तन आशरे ऋण वर्षो पछी एटले इ. स. पूर्वे २५६ थयुं हशे. परंतु आ मितिमां केटलांक वर्षो वधारे गणाएलां लागे के; कारण के कलिंगनी जीत मोडामां मोडी इ.स. पूर्वे २६२ मां परिसमाप्त थई होवी जोईए. तेम छतां आपणे नीचेनी वे बाबतो ध्यानमा राखवी जोईए, कारण के ते द्वारा घणु करीने बधी मितिओ संपूर्ण रीते संगत थाय तेम हे. (१) उपर जणाव्या प्रमाणे बुद्धघोष अने अहेवालो बच्चेनो विरोध केटलोक अगत्यनो छे, अने (२) महावंशमां ज्यारे बिंदुसारे २८ वर्ष राज्य कर्यानुं जणावेलु छे त्यारे ब्राह्मणग्रंथो के जे ए बाबतमां वधारे सत्य होई शके तेमां २५ वर्ष अर्थात् त्रण वर्ष ओछां दर्शावेलां छे. आ सूक्ष्म भेदोने भेगा करवाथी एवं अनुमान नीकळे छे के, उपरोक्त २१८ वस्तुतः अतिशयोक्ति भरेलां छे, अने तेथी इ. स. पूर्वे ४७७ वर्षे नक्की करेली बुद्धनिर्वाणनी मितिमां आ अतिशयोक्ति कांई वांधा करती होय तेम मने लागतुं नथी, एटलुं ज नहि पण तेने वधारे दृढ करे छे.
महावंशनां केलांक कथनो जो के अविश्वसनीय छे खरा, छतां पण दीपवंशमां आपेलां, राजाओ तथा तेमना राज्यों संबंधी वर्णनो, एवां गोटाळा भरेलां जोवामां आवे छे के तेने मुकाबले महावंशनां वर्णनो घणांज स्पष्ट लागे छे. आ गुंचवाडावाळां वर्णनामां पण हुं कांईक जे मार्ग शोधी शक्यो धुं तेमां मने मगधना रोजाओनां संबंधमां बे मुख्य परंपराओ जणाई आवे छे. आमांनी पहेली तो घणी ज गुंचवणी भरेली छे अने बीजी सिलोनना राजाओनी कारकीर्दीनी गणत्रीओ साथै विचित्र रीते भेळसेळ थपली छे. शरुआतमां कहेवुं जोईए के दीपवंशमां अने महावंशमां जे बे मुख्य बाबतो स्पष्ट जोवामां आवे छे तेमांनी एक तो द्वितीय संघसम्मेलन संबंधे छे के जे सम्मेलन बुद्ध पछी १०० वर्षे थयुं हतुं. आ वखते शिशुनागना 77 पुत्र अशोकना राज्यनां १५ वर्ष अने १० दिवसो व्यतीत थया हता. अने बीजी बाबत ए छे के, अशोक बुद्ध पछी २१८ वर्षे अभिषिक्त थयो हतो. 78 बीजी जे हकीकतो दीपवंशमां ३,५६ थी मांडीने ६, १, ज्यां अशोकना अमलनी शरुआत थाय छे त्यां, सुधीमां जणावेली छे, ते ए छे के, बिंबिसारे ५२ वर्ष राज्य कर्यु हतुं. अजातशत्रुए ८ वर्ष बुद्धना जीवतां अने २४ वर्ष निर्वाण
छः
सात अंगोना संग्रहना ६४ मा अध्ययनने ( अथवा अन्य विभागने ते उत्पन्न करे छे, बहार आववा प्रेरणा करे छे (अर्थात् ताजुं करे छे. ) आनो अर्थ शुं? मारा जाणवा प्रमाणे, पहेलां सात अंगों कदापि एक भाव धारण करतां होय तेम शास्त्रमां मानवामां आव्युं नथी. अने तेम बराबर रीते करी शके पण नहि. कारण के उवासगदसाओ, रचनाशैलीमा छठ्ठा अंगनी अपेक्षाए आठमा अने नवमा अंगनी साथे वधारे समान छे. अने आपणे कदाचित मानी लईए के धर्मशास्त्र - आगम-जे रूपमा अत्यार विद्यमान छे ते ज रूपमां ते वखते हतां-जो के आ वात तद्दन आवश्वसपात्र छे तो ६४ मुं अध्ययन ते भगवतीना ५ मां ' सय' साथे बंध बेसे जेने खारवेले फरीथी ताजा कर्यो होय. परंतु आम मानवुं ते मूर्खता भरेलुं छे. वळी ९-११ अंगोमा कुल ७५ अध्ययनो नथी परंतु ३३+१०+२० एटले ६३ ज छे. परंतु आ विषय हुं अन्य स्थळे चचींश. चंद्रगुप्ते कोई पण मौर्ययुग स्थाप्यो न होतो ते वात तो खुल्ली छे कारण के अशोक तेनेा उपयोग करतो नथी. अने ए उपरांत प्लाइनी ( Pliny ) ६ : १७ (२१) मां जे मेगेस्थिनीझनुं कथन आपेलुं छे के 'बेकसपिता ( Father Bacchus ) थी मांडीने ते अलेकझान्डर सुधी एटले ६४५१ वर्षोमां हिंदुओ १५३ राजाओनी गणत्री करे छे, ते मने तो कलियुग अगर अन्य कोई लौकिक युगनी गणतनी कढंगी नोंध होय तेम लागे छे; सरखावो, वळी Arrian, Ind. ch. 8
77. दीपवंश. ४, ४४; ५, २५.
78. दीपवंश. ६, १.
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११६] जैन साहित्य संशोधर्फ
[खंड २ बाद पटले कुल ३२ वर्ष अने उदय-(भद्द ) १६ वर्ष. 79 परंतु महावंशमा जे जणावेलुं छे के अनुरुखके अने मुंडे ८ वर्ष राज्य कर्यु हतुं, ते बाबत दीपवंशमां तद्दन छोडी ज दीधी छे अने ५, ७८ थी तो चोक्कस अनुमान थाय छे के उदयनो उत्तराधिकारी नागदास हतो. नागदासे ओछामां ओछां २१.वर्ष 80 राज्य कर्यु हतुं. ते ११, ३० उपरथी मालुम पडे छे. शिशुनागे १० वर्ष 81 राज्य कर्यु अने तेनी पछी कालासोक गादी उपर आव्यो. परंतु तेनी कारकीर्दी केटलो काळ रही ते संबंधी दीपवंशमां कांई कथन होय तेम मारा जाणवामां नथी. दीपवंश ५, ९९ मी माथा, जे नीचे आपी छे तेमां कालासोकने जरुर तेनापिता सुसुनाग साथे मेळसळ करी दीधेो हशे कारण के तेमां कडूंछे केः
सुसुनागस्सच्चयेन होन्ति ते दस भातरो ।
सब्बे बावीसति वस्सं रज्ज कारेसु वंसतो ॥ आमां कालसोकना दश पूत्रोनो स्पष्ट निर्देश थएलो छे, जेमणे महावंशमां जणाच्या प्रमाणे ६२ वर्ष राज्य कर्यु हतुं. नंदोनो तो पतो ज नथी. चंन्द्रगुप्ते २४ वर्ष राज्य कर्यानुं जणावेलुं छे. बिंदुसारनो मात्र ५, १०१, ६, १५ मां अशोकना पिता तरीके निर्देश थएलो छ, परंतु तेना अमलनो काळ आप्यो नथी. 82 - अशोके ३७ वर्ष राज्य कर्यु हतुं ( ५, १०१) बुद्ध पछी २१८ वर्षे तेनो आभषेक थयो हतो, अने अभिषेक थया बाद त्रण वर्षे तेणे धर्मपरिवर्तन कर्यु हतुं. विगेरे विगेरे. आ बधी हकीकतो सुप्रसिद्ध छे. परंतु बीजी बाजुए, नीचे आपेली प्रकट कृत्रिम गाथा ६, २४:
परिपुण्णवीसवस्साम्हि पियदस्साभिसिञ्चयं ।
पासण्डं परिगण्हन्तो तीणि वस्समतिकमि ॥ के जेनी अंदर २० वर्षो कोई अज्ञात बीनानी साथे लगाड्यां छे. उपरांत अशोकना समयना संबंधमां एक गोटाळा भरेली बीजी हकीकत आपेली छः ६, १०२ मां जणावेलुं छे के अशोकना २६ मा वर्षमां तिस्स गुजरी गयो; परंतु ७, ३२ मां ते आठमा वर्षमां गुजरी गयो हतो तेम जणावेलुं छे आ परस्पर विरोधी कथनो केवी रीते उत्पन्न थयां हशे ते हुं समजी शकतो नथी.
११, १, थी आपणने सिलोनना राजाओ संबंधी हकीकत मळे छ के, जेमांना प्राचीन राजाओए तो घणा लांबा समय सुधी राज्य भोगव्युं हतुं, अने पछीना राजाओए घणांज थोडां वर्षो तेम करी शक्या. ५, ११, ८ मां जणावेलुं छे के विजयराजा अजातशत्रु 83 पछी ८ मे वर्षे गादी उपर आव्यो अने ३८ वर्ष राज्य करी उदयना १४ मा वर्षमां गुजरी गयो. त्यार
79. दीप० ४, ३८, ५, ९७.
80. नागदास जो खरेखर उदयनो उत्तराधिकारी होय तो तेणे ४० वर्ष राज्य जरूर कर्यु होय; कारण के कालासोकने निर्वाण पछीना १०० मा वर्षमा, राज्य करता १० वर्ष अने १५दिवस थयां हता.
81. दीप० ५,९७,
82. परंतु आनी गणतरी ११, १२-१३ (जुओ, हेठळ ), थी करी शकाय, अने ते प्रमाणे तेना राज्यसमयनी वर्षसंख्या २९ मेळवी शकीए.
83. दी. ९,४० प्रमाणे बुद्धना आंतिम वषमां ते सिलोन आव्यो; महावंश ७१ प्रमाणे जे रात्रिए बुद्धनि वाण थयं ते ज रात्रिए.
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अंक २ ]
श्री महावीरनो समय- निर्णय
[ ११७
पछी लगभग एक वर्ष जेटलो निर्नायकी - अराजक- काल गया पछी पटले उदयना १६ मा वर्षे पण्डुवासनो राज्याभिषेक थयो अने ते ३० वर्ष राज्य करी नागदासना एकवीसमा वर्षमां अवसान पाम्यो. तेना पछी अभय राजा थयो अने तेणे २० वर्ष राज्य कर्यु अने त्यारपछी फरीथी १७ वर्ष अराजक पणुं रधुं. ते अंधाधुंधी दरम्यान पकुण्डक या पण्डुकाभय जे लुटारा तरीके जीवन गुजारतो हतो ( चोरो आसि, ११, २) ते पोताना नव मामाओने मारीने (११, ३) अनुराधपुरमा अभिषिक्त थयो अने ७० वर्ष राज्य करी चन्द्रगुप्तना १४मा वर्षमां मरण पाम्यो. ते पोतानो राजमुकुट पोताना पुत्र सुटसीवने सोपतो गयो हतो. आ मुटसीव ६० वर्ष राज्य करी अशोकना 84 अभिषेक पछी १७ वर्षे इ. स. पूर्वे २५७ मां देहांत पाम्यो. आ सघळी हकीकतो उपरथी चन्द्रगुप्तनो समय इ. स. पूर्वे ३१५-३१४ मां आवे छे अने अशोकनो राज्याभिषेक इ. स. पूर्वे २५७ मां पडे छे. परंतु आ बन्ने मितिओ वधारे अर्वाचीन थाय छे. हवे विचार करीए के पकुण्डक जे पोताना अभिषेकना समये ३७ वर्षनो हतो तेणे ७० वर्ष राज्य कर्य होय अमे तेना पछी तेना पुत्रे ६० वर्ष राज्य कर्य होय ते अशक्य जेवुं ज लागे छे. 85 परंतु आमां कये स्थळे भूल रहेली छे तेनो मात्र निर्णय करवो कठीण छे. छतां गणतरीनी चूक पण बहु मोटी नहि होवाथी, सिलोनना ऐतिहासिक ग्रंथो, व्यवस्थित करेली इ. स. पूर्वेनी ४७७ नी तारीखने कायम राखवामां प्रतिबंध करे तेम लागतुं नथी.
आ टुंकी तपासनुं संक्षेपमां तात्पर्य:- अशोकनो राज्याभिषेक इ.स. पूर्वे २७२ भने २७०नी बचमा थयो हशे अने तेनुं वास्तविक राज्याधिरोहण तेनाथी लगभग चार वर्ष पहेलां एटले इ. स. पूर्वे २७६-२७४ वर्षे थयुं हशे जो एनाथीए वधारे चोक्कस तारीख मेळववा माटे उपर आपलां बीजां वर्षो गणत्रीमां लईए अने अशोक इ. स. पूर्वे २७४ मां राजा थयो हतो एम धारीए तो तेना राज्यकालना ४१ (४+३७) वर्षो गणत्रीमां लेवाथी तेना देहान्तनी तारीख तरीके आपणे इ. स. पूर्वे २३३ मुं वर्ष मेळवी शकीए. बिन्दुसारना संबंधमां ब्राह्मणग्रंथोनुं कथन बौद्धग्रंथोना कथन करतां वधारे साधुं प्रामाणिक छे तेम मारुं धारखं छे, अने तेना राज्य. कालना समय आपणे वधारेमां वधारे २५ वर्षनोज स्वीकारी शकीए. आ अनुसार तेनो समय इ. स. पूर्वे २९९ अने २७४ वर्षोनी वच्चे निर्णीत थाय; अने मारुं एम पण मानवु छे के तेनुं राज्य पछी ज शरु थयुं इतुं. चन्द्रगुप्ते इ. स. पूर्वे ३२३ अने २९९ नी बच्चे राज्य कर्य हशे अने आम थबुं जमने तो वधारे संभवित लागे छे. एनुं कारण ए छे के जस्टिन १५, ३ मांथी जो कोईपण अनुमान नीकळी शकतं होय तो ते एज छे के चन्द्रगुप्त, पाश्चिमात्य प्रान्तो 86 जीत्यानी पलां जलाक वर्षे मगधनो राजा थयो हतो. जो के तेणे ते समय पहेलां 87 अलेकझान्ड - रने खरेखरी रीते जोयो होय तो पण आ अनुमानने वांधेो आवतो नथी. मेगेस्थिनीज खात्री. पूर्वक इ. स. पूर्व ३०३ - ३०२ मां, पाटलीपुत्रना 88 राजदरबारमां आवेलो हतो तेथी, अने
84. आ कथन उपरथी बिन्दुसारना समयनी गणतरी करी शकाय; तेणे आशरे २९ वर्ष राज्य कर्तुं हतुं एम जणाय छे.
85. ए बात तो खरेखर आश्चर्य पमाडे छे के एक करतां वधारे लेखकोनुं कहेवु छे के Taprobane ना निवासीओ घणा लांबा आयुष्यवाळा हता. सरखावो, उदाहरण तरीके प्लाइनी ( Pliny ) ६, २२ (२४) 86. मि० विन्सेन्ट स्मिथे पोताना प्राचीन इतिहासना पृ० ११५ उपर दर्शावेलो अभिप्राय जो के आथी बिरुद्ध छे, छतां हुं तेने स्वीकारी शकतो नथी. 87. प्लुटार्क, Alex ch. 72
88. Smith, 1. c. p. 118.
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११८]
जैन साहित्य संशोधक
[ खंड २
त्यां केदलांक वर्ष रहेलो होवाथी, चंद्रगुप्तना मरणनी प्राचीनमां प्राचीन मिति, मेगेस्थिनीजे तेना जीवता होवानुं चोक्कस कथन करेलुं होवाथी, ते मात्र इ. स. पूर्वे २९९ वर्षे ज घटी शके.
त्यारे हवे, इ. स. पूर्वे ४७७ अने ३२३ मा वर्षेनी वच्चेनुं १६४ वर्षोनुं अंतर आपणे अजातशत्रु अने तेना वंशना राजाओ, तथा नंदराजाओना राज्यकालथी भरी शकीशं. अजातशत्रु बुद्ध पछी २४ वर्षे राजा थयो हतो एम कहेवाय छे। अने ते उपरथी तेनी अवसानमिति तरीके लगभग इ. पूर्वे ४५३ 89 आपणे प्रायः नक्की करीए. उदय अथवा उदायि जेने हुं शैशुनाग
नो छेलो राजा मानुं हुं तेणे पुराणमां आपेली हकीकत अनुसार ३३ वर्ष, अने सिलोनना इतिहास अनुसार मात्र १६ वर्ष राज्य कर्यु हतुं. परंतु आ स्थळे आपणे जैनोनुं पण शुं कथन छे ते ध्यानमां लेबुं जोईए. आ बाबत हुं आगळ उपर चर्चीश, परंतु ते कथन, एकंदर पौरा णिक कथनने पुष्टि आपतु होय तेम लागे छे. दीघनिकाय उपरथी पटलं तो स्पष्ट जणाय छे के अजातशत्रु ज्यारे बुद्धनी मुलाकात लीधी त्यारे उदायि ते अगाउ जन्मेलो हतो. तथा ते घखते ते कुंमर लायक थयो हतो, एम मनातुं हतुं. आम छतां तेणे ३० वर्ष राज्य कर्यु पण होय. आ गणतरी आपण स्थूल रूपे इ. स. पूर्वे ४२५ अगर ४२० अर्थात् चन्द्रगुप्त पूर्वे सो वर्ष जेटला अर्वाचीन काळमा लावी मूके छे. अने आ समय मुख्यत्वे करीने नंदराजाओनो होय, जेमणे हेमचंद्र ना कहेवा मुजब ९५ वर्ष, तेमज जे रीते में उपर पुराणमांथी तारवी काव्यां छे ते मुजब आसरे ८५ वर्ष, राज्य कर्तुं हतुं. शुशुनाग नाम खास सन्देहजनक लागे छे. कारण के शिशुनाग तो ते वंशनो स्थापक हतो, जेमां बिंबिसार आदि राजा थया हता. जो कालासोक खरेखर थई गयो होय तेम आपणे मानीए तो ते नन्द अ हशे . आ प्रमाणे शैशुनाग वंशनो इ. स. पूर्वे ४२० ना अरामां अंत आवी गयो हशे अने आम मानवाथी हेमचंद्रना नंदराजाना अभिषेक संबंधी कथन साथै तेनो विरोध पण आवतो नथी. तेथी आ मितिने पासनी मिति तरीके स्वीकारी शकाय अने हुं इ. स. पूर्वे ४७७ वर्षने बुद्धनिर्वाणनी अतिशय संभवित मिति तरीके स्वीकारवामां कोई पण वांधो होय तेम जोतो नथी. 90 हवे जो बुद्धनिर्वाणनी अन्य सौ
89. आ २४ वर्षने पुराणमां अजातशत्रुना राज्यकालनां जणावेलां २५ वर्ष साथै अद्भुत मळतापणु छे. आनो भावार्थ शुं ए होय के गणनानो उपयोग बुद्धनिर्वाणथी थयो हशे; कारण के ज्यारे पौराणिक राजयादी उत्पन्न थई त्योर आ बुद्धनिर्वाण मोजुद हतुं. आ उपरांत बीजुं पण एक मळता पणुं अशोकना संबंधमां मळे छे. कारण के पुराणमांना अशोकना ३६ वर्षो, बौद्धोए अशोकना अभिषेक बादनां बतावेलां ३७ वर्ष साथे मळतां आवे छे.
90. मि. विन्सेन्ट. ए. स्मिथे, प्राचीन इतिहास, पृ. ४२, मां बुद्धनिर्वाणने इ. स. पूर्वे ४८७-८६ मां नक्की करवा रजु करेलां कारणोना विषयमां कहेतुं जोईए के ते बीलकुल विश्वसनीय जणातां नथी. वर्षगण्य अने विंध्यवास ए बन्ने वसुबन्धुना समकालीन हता अने चीनी मंथोमां एम जणावेलुं छे के 'तेओ निर्वाण पछी ९०० वर्षे थया हता' परंतु एम्. एन्, पेरिए B. E. F. E. O. XI. 339 ff पुरतां प्रमाणो आपी बताव्युं छे के चीनी ग्रंथकारो निर्वाणसमय इ. स. पूर्वे छठ्ठी सदीमा मूके छे, अने बीजं ए के वसुबन्धु इ. स. ३५० नी पहेला थई गयो हतो. केन्टननी “ खण्डित - टिप्पणिका " ( Dotted record ) जे इ. स. ४८९ मां समाप्त थई हती ते बुद्धनिवाणना समय इ. स. पूर्वे ४८६ मां बतावे छे अने ते टिप्पणिका उपलक जोतां, उपयोगी होय तेम भासे छे. परंतु ज्योर आपणे वधारे विचार करीए छीए त्यारे भिन्न भिन्न शाखाओना बौद्धनु आ समयना विषयमां भिन्न भिन्न मन्तव्य जवाय छे अने कोइर्पण बौद्धशाखा निर्वाणना आ समय अर्थात् इ. स. पूर्वे ४८६ थी केवल आ एकज नोधमा आपेली तारखि ज खरी के एम मानी लेवुं बहु अजब लागे छे,
गणत्री करती नथी. त्यारे उदाहरण तरीके परमार्थ
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अंक २ ]
श्री महावीरनो समय - निर्णय
[११९
मिति करतां, विश्वसनीय मितितरीके इ. स. पूर्वे ४७७ मुं वर्ष जो स्वीकारी शकाय तो तदनुसार बुद्धनो जन्म, अवसानसमये तेमनुं वय ८० वर्षनुं हतुं, तेथी इ. स. पूर्वे ५५७ मां थयो हशे अने आ विषयनी सघळी हकीकतोनुं आपणं एकज मूळ जे पालीग्रंथो छे ते एम जणावे छे के तेमणे २९ वर्षेनी ऊंमेर संन्यास ग्रहण कर्यो हतो तथा ३६ मा वर्षे बुद्धत्व मेळव्युं हतुं ते उपरथी आ छेली बीना जरूर इ. स. पूर्वे ५२० मां बनी हशे आ गणत्री-जे लगभग साची ज छे-ते अनुसार पटलं तो सुगम्य छे के जो महावीरनुं देहावसान, जे एक परंपरानुसार कछेवाय छे के इ. स. पूर्वे ५२७ मां थयुं हतुं, ए जो खरूं होय तो ते प्रमाणे तेओ अने तेमनो महान् प्रतिस्पर्धी बुद्ध बन्ने कोई पण वखते परस्पर मळी शक्या होय तेम मानी शकाय ज नहि, अने ते प्रमाणे पालिग्रंथोमां नातपुत्त अने तेमना अनुयायीओना संबंधमां करेला सघळा उल्लेखो कल्पनाजन्य अने कृत्रिमरीते बनावी लीघेली योजना रुपे ज ठरे. परंतु आम मानवु ते तो कोई पण दृष्टिए संगत होई नहि शके.
आ ते आपणे जोई शक्या छीए के बुद्धनिर्वाणनी तारीख जो इ. स. पूर्वे ४७७ वर्षनी होय - अने आम होवामां कांई शंका नथी - तो महावीर निर्वाणनी इ. स. ५२७ नी तारीख यथार्थ होय ए शक्य ज नथी. आ महावीर नीर्षाणिनी उपरोक्त तारीख जे एवी गणतरी उपर अस्तित्वमां आवेली के तेओ विक्रम पूर्वे ४७० वर्षे निर्वाण पाम्या हता, तेनो पायो मजबूत नथी, तेटला माटे आपणे निःसंदेहे रीते आ मितिनो अस्वीकार ज करवो जाइए. अने तेने बदले कालगणनात्मक बधी गणत्रीओनी साथे बंधबेस तेवी बीजी मिति शोधी काढवा प्रयत्न करवो जोईए. आ प्रकारनी मिति डॉ. जेकोबीए 91 घणा वर्ष पूर्वे सूचवी दीघेली होवाथी मारूं कर्तव्य मात्र तेमनी दलीलोनुं महत्व बताववानुं तथा तेने केटलाक नवा हेतुओ द्वारा मजबूत करवानुं छे, एम हुं मांनू छं.
३. हेमचन्द्रनी जैन परंपरा अने महावीरनो सत्य समय.
जैन ग्रन्थकारोमां सौथी महान् मनाता हेमवन्द्रे ( इ. स. १०८८-११७० ) पोताना स्थवि - रावली चरित - जे साधारण रीते परिशिष्टपर्वने नाम ओळखाय छे-तेमां बिंबिसारथी मांडीने अशोकना पौत्र अने तेना उत्तराधिकारी सम्प्रतिना वच्चेना काळनो एक प्रकारनो इतिहास आपेलो छे. आ ग्रंथ जे घणे स्थळे मात्र एक मनःकल्पित अने पौराणिक ऐतिहासिक नोंध जेवो जणाय छे ते तेमणे पोताना धर्मप्रवर्तकोना पुराण-वर्णनना एक परिशिष्ट रुपे लखेलो छे. परंतु मारी खातरी थई छे के आ नोंध जो के केटलेक स्थळे गुंचवाडा भरेली तथा पौराणिक लागे छे, छतां पण तेमां अहीं तहीं केटलीक साची अने ऐतिहासिक बाबतो सूचित थपली छे. अने आ ऐतिहासिक बाबतो महावीरनो समय निर्णय करवामां उपयोगी थाय तेम छे. जेनो समय ४९९-५६९ छ-ते एम जणावे छे के तेनी एक कृति बुद्ध पछी २६५ मां वर्षे समाप्त थई हती. (पेरि. 1. c. p. 361 ). हवे जे परंपरा जणावे छे के अशोक बुद्धनिर्वाण पछी २२० वर्षे थयो हतो तथा ते शी- हांगति (इ. स. पूर्व २४६-२१०) नो समकालनि हतो ते परंपरानुसार बुद्धनिर्वाणनो समय इ. स. पूर्वे ४९६ (२४६ + .२५०) मां मुकाय. मि. वि. गोपाल ऐय्यरे, इंडि. एन्टी. ३७, ३४१ मां जणावेलां कारणोना संबंधमां एटलं जणाववुं बस थशे के ते सर्व दलीलो सहसाराम आज्ञामां आवता २५६ नी गरसमजुती उपर अवलंबित होवाथी तेमज सिलोनना इतिहासग्रंथोमां आपली मितिओने सर्वथा अविवेकपणे कबुल राखीने, उभी करवामां आवेली होवाथी. साची नथी.
91. कल्पसूत्र, पृ.
८ अने ते पछीनां.
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संरक्षक
१२०] जैन साहित्य संशोधक
[खंडे २ श्रेणिक (बिंबिसार) अने तेनो पुत्र कूणिक (अजातशत्रु ) जैनोमां सुप्रसिद्ध छे, परंतु तेमना राज्यकालनी मितिओ, मारी जाण मुजब, कोई पण स्थळे आपवामां आवी नथी. हेमचंद्र ६, २१ मां जणावे छे के कूणिक चंपामां मरण पाम्यो हतो अने तेनी पछी उदायिन राज्यगादी उपर आव्यो हतो, अने तेणे राजधानी तरीके नवं नगर, पाटलीपुत्र, वसाव्यु हतुं. आ राजा चस्त जैन हतो अने घणो सत्ताशाली थई शक्यो हतो. परंतु तेना उपर एक शोकजनक विपत्ती आवी पडी हती. हकीकत ए छे के तेणे कोईएक राजाने गादी उपरथी उठाची दीधो हतो, तेना पुत्रे युक्तिथी जैन साधुनो वेश पहेरी तेना महेलमा प्रवेश कर्यों अने तेने मारी नांख्यो. उदायीनी पाछळ वारस न हतो अने तेथी करीने तेनां पांच राजचिन्होने तेनो उत्तराधिकारी शोधवा बहार मोकलवामां आव्यां. पसंदगी विलक्षण थई; कारण के एक नापित अने गणिकानो पुत्र जेनुं नाम नंद हतुं ते आ रीते पसंद थयो (६, २३१.) अने राज्यासने तेनो अभिषेक थयो. आ बीना, परि० ६, २४३ ना नीचे आपेला लोकनी अनुसार, महावीरनिर्वाण पछी ६० वर्षे बनी.
अनन्तरं वर्धमानस्वामिनिर्वाणवासरात् । गतायां षष्टिवत्सर्याम् एष नन्दोऽभवन्नृपः॥
आ नंदना संबंधमां हेमचंद्रे विरोधदर्शक विचार बिलकुल प्रदार्शत कयों नथी. अने ते उपरथी आपणे साधारण एम मानी शकिए के आनंद केटलाक प्रमाणमांजैनधर्म मनातो हशे. आ धारणाने उदयागरिमांथी मळेला खारवेलना शिलालेख रूप एक अतिशय महत्त्ववाळा लेखद्वारा साचुं समर्थन मळतुं होय तेम जणाय छे. ते लेखमां नंदराजना संबंधमा बे उल्लेखो थएला छे. अने आ नंदराज ते सामान्य रीते नंदवंशनोज हशे.आ लेखनो प्रथम फकरो जो के सर्वथा अस्पष्ट छे अने बीजो फकरो त्रुटित थएलो छे परंतु तेनी पछीनो भाग स्पष्ट जणावे छे के खारवेले 'मगधना राजाने अग्रजिन (प्रथम तीर्थकर) ना पगे पडाव्यो जेने नंदराज लई गयो हतो (?) [पादे व (म्) दापयति नंदराजनितस अगजिनस]; आ 'अनजिन' शब्द ते महावीर तथा ऋषभ बन्नेने लागु पडी शके-अने अहींआं गमे तेने लागु पडतुं होय-परंतु आटलुं तो स्पष्ट ज छे के कलिंग उपर स्वारी करी ते वखते नंदराजा जिननी 92 प्रतिमाने लई गयो हशे. अने जो ते जिनमां श्रद्धावाळो न होय तो ते शा माटे आवी वस्तु लई जवानी पसंदगी करे? आ उपरांत नंदनो पूर्वाधिकारी-पूर्वज उदायी ते एक श्रद्धालु जैन हतो अने अजातशत्रु पण थोडेक अंश तेवो ज हतो. 93 आ उपरथी आ बधा राजाओने बौद्धो 'पितृघातक वंश' एवं जे नाम आपे छे तेमां कांई नवाई जेवू जणातुं नथी; जो के आ नाम अन्य स्थळे वस्तुतः मात्र अजातशत्रुने ज घटतुं होय एम मानवामां आव्यु छे.
आ प्रमाणे महावीरनिर्वाण अने नंदना राज्याधिरोहण वच्चे ६० वर्षोनुं अंतर पडे छे. आ कालांतरमा स्पष्ट रीते कूणिकना राज्यसमयनो केटलोक भाग तथा उदायिन्नी संपूर्ण कारकीर्दाना समयनो समावेश थएलो छे. अने में उपर सिद्ध कर्यु छे के उदायी प्रायः तेना वशनो छेलोजराजाहतो. हवे बुद्ध, इ.स. १४७७मां निर्वाण पाग्या होय. तो ते हिसाब अजातशत्रु इ. स. पू. ४८५ मां राजा थयो हशे. अर्थात् निर्वाण पहेलां आठ वर्षे. आ राजानु पहेलुं साहस तेणे कोसलना वृद्ध राजा साथे युद्ध आरंभ्यु ते हतुं. आ कोसलनो राजा ते
92. आ हकीकतने मळती एवी एक वात, प्रो.जेकोबीना 'आउसोवाल्ट इर्सेलुंगेन, पान ३१ अन ते पछीनामा, प्रद्योत अने उदयनना संबंधमां लखेली मळी आवे छे.
93. जुओ जेकोबीनुं कल्पसूत्र, पृ० ५.
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अंक २
श्री महावीरनो समय-मिर्णय
[१२१
तेनी ओरमान मातानो भाई हतो. भगवतीसूत्रना १५ मा 94 सयमा एम जणावेलु छ के पाखडाचार्य गोशाल,जे महावीरनो कट्टो प्रतिस्पर्धी हतो ते, आ लडाईना 95 अंते तरतज श्रावस्तीमां मरण पाम्यो हतो. अने तेना मरण पछी १६ वर्ष महावीर जीवता रह्या. आ मिति गोशालना संबंधमां आपवामां आवेली अन्य मितिओ साथे मळती आवे छे ते आपणे नीचेनी हकीकत उपरथी जोई शकीशं. महावीर पहेला बे वर्षे ज्यारे गोशाले जिनत्व प्राप्त कर्यानो दावो करेलो हतो त्यारे महावीरनी ऊमर ४० वर्षनी हती अने त्यारपछी १६ वर्ष सुधी तेओ बन्ने मळ्या ज न होता. त्यारपछी तेओ मात्र, गोशालना मरणना वर्षमां एटले छल्ली वखते मळ्या हता. आ उपरथी गोशाले काळ को ते वखते महावीरनी ऊंमर५६ वर्षनी हशे महावीरनी कुल ऊमर ७२ वर्षनी हती एटले ते उपरथी तेओ गोशाल पछी १६ वर्ष जीवता रह्या हता ते पण साबित थाय छ ज. 96आ १६ वर्षनी गणतरी करतां आपणे इ.स.पूर्वे४७०थी सहेज पाछळ एटले आशरे ४६८-६७ मां उतरी आवीए छीए, आ तारीख हेमचंद्रना कथन-आधारे महावीरना निर्वाण तरीके सूचवेली तारीख साथे तद्दन मळी जाय छे. जो के कूणिक-अजातशत्रुना राज्यसमय दरम्यान महावीर स्वामीन निर्वाण थयुं हतुं एवं चोकस कथन, मारा जाणवा प्रमाणे, मळतुं नथी ए वात खरी; परंतु, तेवी रीते, तेमनो अने उदायीनो मेळाप थयो हतो, एवं बतावनार पण कोई कथन जणातुं नथी. अने हुं धारु छ के, आपणे बलके एवं ज अनुमान करवू जोईए के बौद्धग्रंथोमां अजातशत्रुना राज्यकालनां जे ३० वर्ष बताव्यां छे ते साचां छ. उदायीनुं राज्य १६ वर्ष चाल्यं हशे, अने कदाच, अजातशत्रु अने तेनी वच्चे जो बीजो कोई न थयो होय तो ३३ थी पण वधारे वर्ष तेणे राज्य कर्यु होय. 97
नंदराजाओ के जेमनी संख्या ९ हती, तेमना मंत्रिओ घणा कुशल हता. ए मंत्रीओ सघळा, प्रथम नंदराजाना मंत्री कल्पकना वंशजो ज हता. छेल्ला नंदराजाना प्रसिद्ध मंत्रीनुं नाम सकटाल हतुं.आ सकटालने प्रस्तुतविषयमा स्थूलभद्ना पिता तरीके वर्णववामां आव्यो छे.अने स्थूलभद्र ते जैन-धर्मना सातमा (अगर नवमा) युगप्रधान आचार्य हता अने तेओ महावीर पछी २१५ (अथवा २१९) मा वर्षमां गुजरी गया हता. ए पुस्तकमां नंद, सकटाल, वररुचि, चंद्रगुप्तनी युवावस्था तथा चाणक्य साथेनो तेनो संबंध-ए विषयक जेटली कथाओ-वार्ताओ आपवामां आवी छे ते सघळी मात्र परीनी वार्ताओ ( Fairy tales) जेवी देखाय छे. परंतु ए जोतां आश्चर्य उत्पन्न थाय छे के आ कथाओ छेक आवश्यक नियुक्तिनी टीकामां पण आवेली छ अने ते तेनीए पहेला लखाएली होय तेम देखाय छे. तेम ज केटलेक अंश कथासरित्सागरनी वार्ताओने पण मळती आवे छे अने महावंश टीकाना ११९, ८ ff; १२१,
94. हॉर्नले आपेली उवा० परिशिष्ट १, तथा हेस्टिंग्सनी इन्सा० पृ. २६० मानी हकीकत साथे सरखावो. .95. आ बनाव लडाई पछी बन्यो हतो तेनी साबीती, भगवती, पृ० १२५४ अने ते पछीनामांना उल्लेखथी, स्पष्ट मळी आवे छे. गोशालना जे नियतिना ८ सिद्धांतो बताव्या छ तेमां ए लडाईनुं सूचन पण थाय छे. सरखावो होर्नल, l. c. पा. २६३
96. सरखावोः होर्नल, उवा० परि० २, पा. ११०
97. जो आपणे महावीरना मृत्यु माटे इ. स. पूर्वे ४६७ मुं वर्ष स्वीकारी लईए तो, पछी अजातशत्रु, जो ते बुद्ध पछी २४ वर्ष जीवतो रह्यो होय, तो तेमना पछी १४ वर्षे मरण पाम्यो होवो जोईए. महावीरना निर्वाण अने नन्दना राज्यारोहण वच्चे, हेमचंद्रना कथनानुसोर जो ६० वर्षनो अंतर होय तो ते मुजब उदाायए ४६ वर्ष पर्यंत राज्य कर जोईए, पण आ समय बहु वधार पडतो देखाय. कारण के तेना गादिए आव्या पहेला ३० वर्ष उपर ज्यारे कूणिके बुद्धनी मुलाखात लीधी हती त्यारे तेनो जन्म थएलो हता, एवो उल्लख मळी आवे छे. (दी.नि. १-५०)
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१२२]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
२२ ff; 98 भागो साथे तो तेनाथी पण वधारे मळती आवती होय तेम जणाय छे. परंतु आपणने आ स्थळे आ बाबत काई महत्वनी नथी. तेनाथी जे कांई सिद्ध थाय छे ते मात्र एटलुं ज छे के 'आपणा सननी पछी केटलीक सदीओ सुधी नंदो अने मौर्यराजाओना कालना संबंधमा केटलीक कथाओ हिंदुस्तानमा प्रचलित हती.' (जेकोबी, परिशिष्ट पर्व. पृ. ५० टि. २). आ यधुं छतां आ ग्रंथमा जो कोई महत्त्वनो श्लोक होय तो ते ८, ३३९ मां आवेलो नीचेनो श्लोक छे:एवं च श्रीमहावीरमुक्ते वर्षशते गते । पञ्चपञ्चाशदधिके चन्द्रगुप्तोऽभवन्नृपः ॥
आ श्लोकना महत्व उपर भार मुकतां, जेकोबिए केटलांक वर्षो आगम च जणावी दी, छे के आ श्लोक, महावीरना निर्वाण संबंधी एक नवी अने वधारे संगत परंपरानो सूचक छे. 99 ‘चन्द्रगुप्तोऽभवन्नृपः' अने ६, २४३ ना अंते आवतो 'एष नन्दोऽभवन्नृपः' आ बन्ने पदोनी रचनाशैली एटली बधी मळती लागे छे के जेथी भाग्ये ज एम कही शकाय के ए अणधारेलीरीते-आकस्मिक रीते-लखाई गया होय. अने तेना उपरथी एवं अनुमान निकळत होय तेम लागे छ के हेमचंद्रे आ श्लोको कोई विशेष प्राचीन ग्रंथोमांथी अक्षरशः उद्धृत कर्या हशे अथवा तो कोई प्राचीन कालगणनात्मक प्राकृत गाथाओर्नु भाषांतर कर्यु हशे. हेमचंद्र फक्त एटलुंज जणावे छे के चन्द्रगुप्तनी पछी तेनो पुत्र बिंदुसार गादी उपर आव्यो हतो (८, ४४५) अने विंदुसार पछी तेनो पुत्र अशोकश्री राजा थयो हतो. (९, १४) अने अशोकश्रीए पोतांनु राज्य पोताना पौत्र संप्रतिने सोप्यु हतुं. आ संप्रति ते कुणालनो पुत्र हतो(९,३५) अने एक श्रद्धावंत जैन हतो. हेमचंद्रे आस्थळोमां तेओना समयनुं बीलकुल सूचन कर्यु नथी; तेम कालगणना साथे पण तेओर्नु अनुसंधान बताव्यु नथी. ते उपरथी जेकोबीना मानवा प्रमाणे आपणे एम धारी शकीए के तेमणे विक्रमसंवत् अने चंद्रगुप्तना राज्याधिरोहणना काल वच्चेनुं अंतर २५५ वर्षनुं बतावती परंपराने सत्यरूपे स्वीकारी हशे. आ गणतरी अनुसार महावीरनिर्वाण अने विक्रमना राज्यधिराहणनी घच्चना काल २५५+ १५५-४१० बराबर थाय. अने ए उप. रथी ए पण अनुमान फलित थाय के महावीर इ. स. पूर्वे ४६७ मा वर्षमा निर्वाण पाम्या हता. मारा मानवा प्रमाणे आज तारीखथी निर्वाण संबंधी बीजी पण बधी बाबतोनो निकाल आवी शके छे, अने तेटला माटे तेज खरी छ एम मानवू जोईए.
98. सरखावो; टर्नर, महावंश १ पृ. ३९ नी फुटनोट; तेम ज गायगर, दीप. महा० पृ. ४२ फू. अ॥ ग्रन्थ अने परिशिष्ट पर्व वच्चे नानामां नानी विगतोनी पण समानता छे. महावंशनी टीका पाछलथी थएली जणाय छे (गायगर, तेज पृ. फु. ३७) पण तेमांनी सामग्री जूनी छे.
99. कल्पसूत्र, पृ. ८. नी फुट नोट.
100. दिव्या. पृ. ४३० मां अशोक पछी संप्रतिनो जे उल्लेख थएला छे ते आथी वधारे महत्त्वना बन छ. नागार्जूनी गुफाना लेखाथी साबीत थयु छ के मगधमा अशोक पछी दशरथ गादिए आव्यो हतो के जेना विषे जैनो कशुं कहेता नथी. आ उपरथी, मि. विन्सेन्ट.ए. स्मीथे पोतानी अली हिस्टरी ऑफ इन्डियामां जे एम सूचन कयु के के-अशोकना सरण पछी तेना साम्राज्यना पूर्व अने पश्चिम एम बे विभागो थई गया हता, ते मने खरूं लागे छे. संप्रतिना पिता कुणालनो उज्जयनी अने तक्षशिला साथेनो सतत संबंध ए ज बाबत सूचवे छे. अन जैनो जे मौर्योनो राज्यकाल १०८ वर्षनो गणे छ तेनो पण कदाच आ हकीकतथी निकाळ आवी शके. कारण के इ, स. पूर्वे १८५ मां मगधमांथी ज्यारे पुष्यमित्रे ए वंशनो उच्छेद कर्यो तेनी पहेला ज पश्चिममां ए वंशनुं राज्य बन्ध थई गयु हशे. तेम छता, ए वात नोंधवा जैवी छ के मरुतुंगे आपेली कालगणनात्मक गाथाओमां पुसमित्त (पुष्यमित्र )नी राज्यना ३० वर्षांनी नांध लेवाएली छे. अने आ समय इ. स. पूर्वे २०४-१७४ ना गाळा साथे बंध बेसतो आवे छे. हुं, महाभाष्य अने मिनेन्डरना समयथी जे कालगणना नक्की थाय छे तेनाथी विरुद्ध आ उल्लेखने घटावी शकतो नथी,
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अंक २]
श्री महावीरनो समय-निर्णय
[१२३
- मेरुतुंगे नोंधेली परंपरानुसार चन्द्रगुप्तना राज्याधिरोहणन वर्ष इ.स. पूर्वे ३१२ मुं आवे छे. आ मिति घणी ज गुंचवाडो उत्पन्न करनारी छे. मौर्यसंवत् इ. स. पूर्वे ३१२ मा वर्षे शरु थयो हतो ए बाबत, सेल्युसिडनना संवत्नी साथे ते संवत् आभिन्न छ एम बतधवा खातर मानवू मने उचित लागतुं नथी. जो के आपणे सारी पेठे जाणीए छीए के चंद्रगुप्ते सेल्युकसने हिदुस्तानमाथी देशवटो आप्यो हतो तेम ज तेनी पासेथी तेनी सत्ता हठेळना बेक्ट्रीआना मुलकनो एक भाग खुचावी लीधो हतो; परंतु ए वात समजमां नथी आवती के चन्द्रगुप्ते, तेना पराजित शत्रुना नाम उपरथी, पोताना संघत्नो आंरभ कों होय. आ उपरांत एम पण मनाय छे के चंद्रगुप्ते नवो युग स्थाप्यो न होतो. (सरखावो, उपर पृ. ११५.) परंतु चंद्रगुप्त वार पछी १५५ वर्षे राज्याभिाषिक्त थयो हतो एम कहेवातुं होवाथी एम लागे छे के आ संवत्नो आरंभ पण कोई एक घणीज महत्वनी जैन बाबत साथे संबंध धरावतो हशे. अने हुं धाएं छु ते प्रमाणे छे पण तेम ज.
चंद्रगुप्तनो समय जैनधर्ममाटे खरेखर एक अतिशय पडिा अने दुःखनो समय हतो. आ समयमां जैनधर्म राज्याश्रयथी वंचित थयो हतो. जो के जैनो चंद्रगुप्तने जैनधर्मानुयायी तरीके अने पाछली वयमां तो खास तेने एक जैन साधु तरीके पण बतावे छे; परंतु, चाण क्यनी राजनीति आवा पाखंडी मतानी 1 अनुकूळ नही पण प्रकट प्रतिकूल हती. अने वास्तविक रीते जोतां जैनोनो पूर्वहिंदुस्थान साथेनो संबंध जे अशोक पछी सर्वथा तूटी गयो हतो( आमां खारवेलर्नु राज्य अपवाद रूप छे परंतु तेनो समय हजी सुधी अनिश्चित छ.) ते त्यारपहलां पण केटलेक अंशे शिथिल थयो होय एम लागे छे. परंतु आ उपरांत चंद्रगुप्तना राज्यकालमा १२ वर्षनो एक दारुण दुष्काळ पडयो हतो, के जे दुष्काळ जैनधर्ममां भेद उभो करवामां निमित्त बन्यो हतो एम जणववामां आवे छे. ए ज समयमां श्वेतांबर अने दिगंबर नामना बे संप्रदाओनी शरुआत थई हती. जे कालमां चंद्रगप्त राजा थयो हतो ते वखते-जैन इतिहासमां घणा ज थोडा कालांशोमां जोवामां आवे छे तेम-एक ज समये जैनधर्म संभूतिविजय अने भद्रबाहु नामना बे युगप्रधानोनी सत्ता हेठळ प्रवर्ततो हतो. परंतु संभूतिविजये, चंद्रगुप्त जे वर्षमा राज्याभिषिक्त थयो तेनी पछीना ज वर्षमा एटले वीर पछी १५६ मा वर्षमां काल को. आ वर्ष ते कदाच हेमचंद्र, परिशिष्ट पर्व, ८,३३९ मांजे कहेछे के १५५{ वर्ष पूर्ण थ हतुं (गत), तेज वर्ष छ; अने ते उपरथी मारी एवी मान्यता छ के आ बनाबने अनुकूल आववा माटे ज हेमचंद्रे चंद्रगुप्तना राज्यनी शरुआत, इ.स. पूर्वे ३१२(अथवा ३११) नी बराबर मळता एवा तेज वर्षमा, त्यार पहेलांना दशमा अगर अगीआरमा वर्षे न मूकतां, मूकी छे.संभू तिविजयनो मरणकाल जैन इतिहासना एक कालभागनो अंतसूचक छे. ए बाबत खरी छे के तेमना पछी १५ वर्षे गुजरी गया हता ते भद्रबाहु, तथा तेमना उत्तराधिकारी स्थूलभद्र ए
1. सरखावो:-इ. थामस. गुप्तवंशनी नोंधो ( Records of the Gupta dynasty )पा १७; जेकोबी, कल्पसूत्र, पा० ८; वि. ए. स्मीथ, हिंदुस्थाननो प्राचीन इतिहास पा० ३३ टी.; ४० टी०, १८७ टी.; फ्लाट, ज. रॉ० ए. सो० १९१०, पा. ८२५ टी० २.
अर्थशास्त्र, ज्यां सुधा ते अन्यकृत सिद्ध थाय नही त्यां सुधी, हु ते चाणक्यकृत ज मानुं छु, ए अर्थशास्त्रमा सांप्रदायिक अथवा जैन असरनो जराए उल्लेख जणातो नथी. सिवाय के, पृ. ५५वीगेरे उपरनो उल्लेख के जेमां बीजा बीजा देवोनी साथे कदाचित् जैन सम्मत अपराजित, जयन्त अने वेजयन्तनो पण निर्देश छे. पण मारा मते एमां काई विषेशता नथी. पृ. १९९ इत्यादि उपरनो तर्थिकरना उल्लेख जैनधर्म प्रवर्तकने सूचवे; पण आपणे याद राखर्च जाईए के पाली पिटकमां 'अन्य तीर्थिक' ए शब्द अनेक संप्रदायना भिक्षओ माटे वापराएलो छे.
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१२४ जैन साहित्य संशोधक
[खंड २ बंने चतुर्दशपूर्वधारी हता; जो के स्थूलभद्रने छल्ला चार पूर्वो बीजाने शीखववा मनाई थएली हती. दिगंबरो भद्रबाहुने छल्ला श्रुतकेवली माने छे त्यारे श्वेतांबरो स्थूलभद्रने छल्ला श्रुतकेवली माने छ 2 आ उपरथी एम जणाय छे के संमूतिविजय करतां भद्रबाहु वधारे महत्त्वना लेखाता हशे अने तेम हतुं पण खरूं. परंतु भद्रबाहु जो के आखा जैनधर्मना युगप्रधान हता छतां पण केटलेक अंशे सांप्रदायिक हता. आम मानवाचं कारण ए छे के ज्यारे ते पोते दक्षिण तरफ जवा नोकळ्या त्यारे तेमणे पोतान
नकळ्या त्यारे तेमणे पोताना अनुयायीओनी एक मंडळी मगधमां छोडी दधिी हती अने जे मंडळी तेमनी साथे दक्षिणमां गई हती तेणे पछी, जे मंडळी मगधमां रही हती तेमनां चारित्र तथा सिद्धान्तने पसंद कर्या नहि. अने त्यारपछी भद्रबाहु नेपाल तरफ चाल्या गया अने सघळा सिद्धांतोने 3 एकत्र करवा उद्युक्त थपला संघने तेमणे मदद करवा घणी खशी न बतावी. ते उपरथी लागे छे के तेओ ते लोकोना आ कार्यमा संमत नहि होय अथवा तो तेने पूर्ण रीते पसंद कर्यु नहि हशे. अने तेथी आखरे ए अनुमान थाय छे के मूळ प्राचीन, आविभक्त अने महावीरना समयथी निर्विकृत स्वरूपे चालता आवता जैनधर्मना वास्तवमा छल्ला युगप्रधान संभूतिविजय छे, परंतु तेमना घणा ज वधारे प्रसिद्ध साथी भद्रबाहु, अव्यव. स्थितकालनी असरने लईने कोई जुदीज हालतमा मूकाया. तेटला माटे मारुं धारदुं छे के चंद्रगुप्तने संभूतिविजयना देहान्तकालना वर्षमा मूक्यो हो, जेम के महावीरनिर्वाणनी रात्रिमा पालकनो राज्याभिषेक मूकेलो छ.4
छ स. पूर्वेना ४६७ मा वर्षने महावीर निर्वाण वर्ष तरीके मानवाना पक्षमा अन्यान्य बाबतान विवेचन प्रो० जेकोबीए पोतानी कल्पसूत्रनी आवृत्तिमां कर्यु छे. हुं फक्त बेज मुद्दा उपर चर्चा करवा मागुं छु, कारण के ए मुद्दाओ आ प्रश्नना विषयमा घणी महत्ता धरावे छे.
हेमचंद्रथी मांडीने अर्वाचीन काळनी सघळी जैनपरंपरा भद्रबाहुना निर्वाणसमय तरीके वीर पछी १७० मुं वर्ष जणावे छे. आ वर्ष परंपरागत निर्वाणसमयने हिसाबे इ. स. पूर्व ३५७ मां आवे परंतु प्रो. जेकोबीनी व्यवस्थित करेली मितिनी अनुसार इ. स. पूर्वे २९७ मां मूकाय. आ बने मितिओमांनी बीजी ज मिति शक्य जणाय छे, कारण के सघळी जैनपरंपराओ भद्रबाहुने चन्द्रगुप्त साथे नजीकमां नजीक संबंध धरावनार तरीके स्पष्ट जणावे छे. अने आ रीते इ. स. पूर्वे ३५७ नी मिति बहिष्कृत थाय छे.
कल्पसूत्रमांना जिनचरित्र- १४८ मुं सूत्र आपणने जणावे छे के ते ग्रंथ महावीर पछी ९८० वर्षे समाप्त थयो हतो. परंतु साथे साथे एक बीजो पण उल्लेख छ (चायणन्तरे ) जेमां ९९३ मुं वर्ष आपेलुं छे. सघळी टीकाओ जे प्राचीन चूर्णिना आधारे रचाएली छे ते सर्वे आ मितिओनो जुदी जुदी बीनाओ साथे संबंध बतावे छ।
(१) देवार्धगणीना अध्यक्षपणानीचे थपली वलभीनी सभा, जे वखते सिद्धांतने पुस्तकारूढ करवामां आव्युं हतुं ते प्रसंग.
2. पण, श्वतांबरा पण केटलेक ठेकाणे भद्रबाहने छल्ला युगप्रधान माने छ, ए बाबतनो पुरावो मळे तेम जणाय छे. सरखावो-जकोबी, कल्पसूत्र पृ० १९ Z. D.M.G.38, 14.
3. आ विषयनी वधारे विगतो माटे जओ प्रो. जेकोबीनो 'श्वेतांबर अंन दिगंबर संप्रदायोनी उत्पत्ति' वागे लेख. Z. D. M.G. 38. 1.
4. सरखावाः-उपर पृष्ठ 5. परिशिष्टपर्व, ९, ११२ 6. जेकोबी. कल्पसूत्र पृ० ५ 7. जेकोबी, सेक्रेट बुकस ऑफ धी इस्ट. २२, पृ० २७०
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अंक २]
श्री महावीरनो समय - निर्णय
[ १२५
(२) स्कंदिलाचार्यना अध्यक्षपणा हेठळ मथुरामां मळेली सभा. जेमां प्रायः सर्व सिद्धांतोमां सुधारा वधारा करवामां आव्या हता.
(३) आनंदपुरना राजा ध्रुवसेन आगळ तेना पुत्रना मरणनो शोक निवारण करवा अर्थे कल्पसूत्रनुं जाहेर वांचन; अने
( ४ ) कालकाचार्ये करेलो पज्जुसणना दिवसनो फेरफार. 8
मथुरामां भरेली सभाना विषयमां जणावधुं जोईए के तेनुं, तेनाथी वधारे महत्वनी अने प्रसिद्ध वलभीनी सभा साथे गुंचवण थपलुं छे. वलभीनी सभामां सिद्धान्तग्रन्थोन अत्यारना रूपमा खरेखर ठराववामां-नक्की करवामां आव्या हता. परंतु आ सभा साचे ज थपली हती के नहीं, ते प्राचीनकालनी वात होवाथी, अत्यारे विचारणीय नथी' परंतु वलभी संबंधी वर्णनो तेमज आनंदपुरना राजा ध्रुवसेन समक्ष कल्पसूत्रनी थपली जाहेर वाचना; ए बे बाबतो घणा उपयोगनी छे. दुर्भाग्ये आनंदपुरना संबंधमां कोई हकीकत मळती नथी; टीकाओमां ते महास्थान होवानुं जणावलें छे परंतु आटली माहीतिथी आपणने विशेष मदद मळती नथी. तेम छतां आपणे नीचेनी बाबतो ध्यानमां लेवी जोईए.
९. ध्रुवसेन ए नाम, घणुं अजाण्युं नथी. ते वलभीना एक वंशनु नाम छे. अने आपणे जाणीए छीए के पहेला ध्रुवसेन इ. स. ५२६ मां राज्यगादी उपर आव्यो हतो.
२. आ ध्रुवसेनने पुत्र न हतो कारण के इ. स. ५४० मां तेनी पछी तेनो भाई गृहसेन 10 गादी उपर आव्यो हतो; अने
३. महावीरनिर्वाणनी तारीख तरीके इ. स. पूर्वे ४६७ मा वर्षने स्वीकारी, कल्पसूत्रनी एक वाचना के जेना माटे कहेवुं जोईए के, ते खरेखर प्राचीन अने उपयोगी छे ते वाचनामां आपला ९९३ वर्षनी, त्यारथी गणत्री करीए छीए तो एक आश्चर्यजनक सरखापशुं मेळवी छी. कारण के (९९३ - ४६७ =५२६ ) ९९३ मांथी ४६७ वर्ष बाद करतां जे ५२६ मुं वर्ष आवे छे ते बराबर वलभीनी गादी उपर ध्रुवसेनना अधिरोहणनुं वर्ष छे.
आ सघळी हकीकत उपरथी मारुं चोक्कस अनुमान थाय छे के वलभीनी महासभा ध्रुवसेना राज्यारोहणना वर्षमां ज मळी हती, अने बीजु ए के कल्पसूत्रमां आपवामां आवेलुं महावीरनुं जीवनचरित्र पण, जे छेली वखत ते ज सभामां निर्णीत करवामां आव्युं हतुं, तेनुं ध्रुवसेन राजानी समक्ष वाचन करवामां आव्युं हतुं. अने आ बाबत, मारा अभिप्राय प्रमाणे महावीरनिर्वाणना इ. स. पूर्वे ४६७ मुं वर्ष सूचवती हकीकत माटे एक घणु किमती समर्थन छे.
वे मात्र एक ज प्रश्ननो ऊहापोह करवो अहीं बाकी रह्यो छे. जे विद्वानोने आ मिति ग्राह्य नथी तेओ एकदम जणावशे के आ सूचना नातपुत्तना अवसानना संबंधमां पाली सिद्धातोमां आवतां वर्णनोथी विरुद्ध छे. कारण के ते ग्रंथोमां जणावेलुं छे के बुद्ध ज्यारे शाक्यभू
8. आ कालकाचार्य जैन पट्टावलीमां लीजा छे. महावीर पछी ४७० वर्षे विद्यमान गर्दभिल्लना शत्रु कालकाचाते आ नथी सरखावो - Z. D. M. G. 34. 241.
9. आ समितिना प्रमुख स्कंदिल ए जो क्लाटे प्रसिद्ध करेली ( Testgruss an Bohtlingk p. 54 ff) पहावलीमां जेनो उल्लेख छे ते ज होय तो ते तो वीर पछी ४१४ वर्षे एटले इ. स. पूर्व ११३ मां मरणपाम्या एम कहेवाय छे.
10. आ वंशमां भाइयो एकबाजा पछी गादिए आवता एवो कांई नियम न हतो; ए वात गूहसेन पछी तेनो पुत्र गूहसेन बाजो जे इ. स. ५५९ मां गादिए बेठो हतो ते उपरथी सिद्ध थाय छे.
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१२६ ] जैन साहित्य संशोधक
[खंड २ मिना सामगाममां विचरता हता त्यारे नातपुत्ते पावामां काळ को हतो; अर्थात् महावीरनिर्वाण बुद्धनिर्वाणनी पूर्वे थयुं हतुं. आ वर्णन मने तद्दन मान्य छे परंतु हुं मानु छ के ए विद्वानो आ प्रश्नना संबंधमां थोडो संभाळपूर्वक विचार करशे तो तेमने जरुर जणाशे के आ हकीकत बधु महत्त्वनी नथी.
प्रो. जेकोबीए पोताना ग्रंथमां एक घणुंज मजबुत प्रमाण रजु करेलु छ अने जणावे छे के इ. स. पूर्वे ५२७ ना वर्षने बरतर्फ करी, हेमचंद्रना कहेवा मुजब इ. स. पूर्वे ४६७ मुं वर्षज स्वीकारणाय छे. अने मारे आ स्थळे जणावी देवू जोईए के डॉ. जेकोबीनुं प्रमाण एटलु बर्षा मजबुत छे के तेने पालीग्रंथमां मळी आवता आवाप्रकारना वर्णनने लीधे फेंकी देवाय तेमनथी. - उपरोक्त वर्णन दीघनिकाय ३, ११७, २०९; अने मज्झिमनिकाय २, २४३ 11 मां जोवामां आवे छे अने ते एम जणावे छ के ज्यारे बुद्ध सामगाममा रहेता हता त्यारे तेमने खबर केहवामां आवी हती के तेमना प्रतिस्पर्धाए पावामां काळ को. अने बीजुं ए के नि.. थोमां गंभीर भेदो-सांप्रदायिक फांटा पडी गया हता, तेम ज आखो जैनसमाज भन्न थई जवानी तैयारीमा हतो. पावा संबंधी वर्णन केटलेक अंशे खरुं छे, कारण के जैनोनी मान्यतानुसारे पण महावीर पावामां ज निर्वाण पाम्या हता. परंतु केटलेक अंशे खोटुं पण छे, कारण के में उपर जणाव्युं तेम 12 बुद्धो ए पावाने-राजगृहनी पासे आवेली पावानेमानता नथी के जे आज दिन सधी पण जैनो माटे तीर्थ स्थळ मनाय के. बौद्धो पावान, ज्यां आगळ बुद्ध चंदना घरे छेल्लुं खाणुं खाधुं हतुं ते कुशीनारनी पासे आवेला नाना शहरे तरीके ओळखावे छे, के जे बाबत पण शंका उत्पन्न करवा वाळी छे. आ उपरांत हुँ उपर जणावी गयो छु के, उपालि साथेनो मेळाप, जेने महावीरना मरणना साचा कारण तरीके बताववामां आव्यो छे, तेवू कशुं वर्णन सौथी प्राचीन सूत्रोमां मळतुं नथी. अने, अंतमा जणावं छं के धर्मभेद संबंधी तेमां आपेलो वृत्तांत आ नांधने पहेलां करतां वधारे शंकापान बनावे छे, कारण के जैनग्रंथोमां आ प्रकारचं बीलकुल वर्णन नथी, पण तेथी उलटुंते तो एम जणावे छे के आ अवसरे तो समाजमां सर्व स्थळे शांति फेलायली हती. वळी जैन ग्रंथोमां धर्मभेदो छुपावेला छे ज नहीं. ते ग्रंथोमां एवा बे नाना धर्मभेदोनुं वर्णन आपेलुं छे, अने ते तीर्थकरनी 13 विद्यमानतामां ज उत्पन्न थया हता तेम कहेलु छे. आ स्थळे हुँ गोसाल अने तेना अनुयायीओनी करेली पजवणीनुं वर्णन करतोज नथी के जेनो महावीरस्वामीना निर्वाण वखते अंत आवी गयो हतो. आ बाबतमां, मारूं एम धारयु छे के आ धर्मभेदोनो झांखो हवाल निकायोना रचयिताओने मळ्यो हशे अने तेओए तेने पावामां थएला नातपुत्तना निर्वाण संबंधी तेमणे मेळवेला ज्ञान साथे गुंचवी नांख्यो हशे अने तेथी तेओए आ पावाने, भूलथी तेओनी वधारे परिचित पावा मानी लीधी हती. आखरे मारे कहेवू जाईए के आ दंतकथामां उपरोक्त तपासना निर्णयने बाधा पहोचाडे तेवू एक पण तत्व नथी अने महावीर बुद्ध करतां थोडा वखत पाछळ थया हता ते प्रकारना मतने बरोबर बेसती आवती अन्य बे बाबतो हुँ नोंधवा इच्छा राखु हुं.
दी० नि० २,५७; म०नि० १, ३७७; सं०नि०१, ६६; इत्यादि ग्रंथोमां जैनधर्मने चातुर्याम 11. प्र. चामर्से ज. रा. ए. सो. १८९५, पृ० ६६५ आदिमा ए उल्लेखोर्नु अवतरण अने भाषांतर कर्यु छे. 12. जुओ उपर पृष्ठ 13. सरखावो--लायमान,इन्डियन स्टडजि, १७, पृ. ९८ नी नोट,
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अंक २]
श्री महावीरनो समय-निर्णय
[१२७
एटले 'चार यमवाळो' 14 कहेलो छे. परंतु खरी रीते ए महावीरनो धर्म नथी. ए तो तेमनी पूर्वे थएला पार्श्व नामना तीर्थकरनो प्ररूपेलो धर्म छे. कारण के महावीरे तो पोताना धर्मावलंबीओ माटे पांच व्रतनुं विधान कर्यु हतु. अने खुद जैनोमां पण "महावतो" नी संख्याना संबंधमां वास्तविक रीते गुंचवण होय तेम जोवामां आवे छे. 15 सामञफलसुत्त आदि पालीग्रंथोनी आवी रीते वर्णन करवामां भूल थएली हती एम मानवानुं कारण नथी; कारण के आ वर्णन बद्ध अने महावीर परस्पर वधारे निकटना संबंधमां आव्या ते सम परिस्थिति हती तेनो चितार मात्र छे. अने आ उपरथी आपणे कदाच अनुमान करी शकीए के महावीरे, तेमनो बुद्ध साथे कांईक संबंध थयो हतो ते वखते एटले थोडोक वखत बाद पोताना पांच महाव्रतनो सिद्धांत छेवटरूपे नक्की को हतो.. ___ आ उपरांत बौद्ध धर्मना ग्रंथोमां मुख्य राजा तरीके मात्र बिंबिसारनुं वर्णन थएलु छे, अजातशत्रुनो उल्लेख वधारे प्रमाणमां थएलो जोवामां आवतो नथी. आ उपरथी ए हकीकतने टेको मळे छे के अजातशत्रुना राज्यनी शरुआत थई त्यार आगमच बुद्धनुं जीवन पोताना अघसान संमुख थवा लाग्यु हतुं, अर्थात् तेमनुं जीवन समाप्त थवानी तैयारीमा हतु. परंतु जैनधर्मग्रंथोमां महावीरना जीवनकालमां कूणिके घणो मोटो भाग भजवेलो छ अने खचीत तेनुं वर्णन वधारे नहिं तो निदान तेना पिताना जेटलुं तो थएलुं छे ज. बौद्धो ज्यारे जणावे छे के तेमना तीर्थकर बुद्ध अने आ राजाओनो परस्पर मेळाप मगधनी जुनी राजधानी राजगृहमां थतो हतो त्यारे जैनग्रंथोमा स्थले स्थले तेमना तीर्थकर अने कूणिकना मेळापनी भूभी तरीके कूणिकनी नवी राजधानी चंपाने बताववामां आवी छे. आ बाबत पण खरेखर अजातशत्रुना राज्यना उत्तरकाळनी द्योतक छे. _हवे हुं मारी तपासनी अंते आवी पहोंच्यो छु. मारे न्यायदृष्टिए जणावी देवू जोईए के आ लेखमां लखेली सघळी बाबत एक या बीजा रूपमां आ लेखनी पहेलांज वर्णित थई गएली छे. परंतु आ प्रकारनुं पिष्टपेषण, आ जातनी सामान्य रूपनी अत्यारनी सघळी शोधोने साधारण छे, अने तेथी ए बाबतमांमने बीलकुल दिलगीरी थती नथी. अत्यार सुधीमां मळी आवेली सघळी हकीकतोनु भंडोळ एकवार फरीथी, वाचको समक्ष भूकवानुं मने घणुंज अनुकूल लाग्युं छे, कारण के ए द्वारा तेओ आना संबंधमां वधारे योग्य अभिप्राय-पछी ते अभिप्राय उपरोक्त अभिप्रायने अनुकूल थाय के प्रतिकूल थाय-बांधवा शक्तिमान थशे. अने मारु खसुस मानQ छे के महावीरना समयनिर्णयनो प्रश्न घणोज महत्त्वनो छे अनेतेटलामाटे जेटलां वधारे साधनो मळे तेटलां बधां साधनो द्वारा विवेचन करवा योग्य छे. जो हूं एटली मोटी आशा न राखी शकुंके सघळा लेखको मारा अनुमानने संमत थशे, के जे अनुमान प्रो. जेकोबीए लांबा काळ उपर सूचवेलुं हतुं अने जेने में मात्र अन्य नवी दलीलो द्वारा मजबुत करवा ज प्रयत्न करेलो छे, तो पण हुं एटली आशा तो जरुर राखी शकुंछु के उपरोक्त विवेचन, घणा लांबा समयथी उपेक्षापात्र बनेला एवा आ अति महत्वना विषय तरफ तेओ पोतानुं ध्यान दोरशे. मने नहि मळी शकेली एवी घणी नवी माहीतिओ विद्वानोने उपलब्ध थशे अने आ गंभीर प्रश्ननो कोई नवो चूकादो जन्म पामे ए पण बनवू संभवित छे. अत्यारे तो आनाथी अन्य
14. सरखावो-उत्तराध्ययन सूत्र २३, १२ मां कहेला, ' चाउज्जामो धम्मा' 15. सरखावो-हेस्टींग्सनी इन्साइकलोपीडिया, पु. १, पृ. २६४ मां डॉ. होर्नलनो लेख.
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१२८] जैन साहित्य संशोधक
[खंड २ प्रकारनो निर्णय थई शके ए मने शक्य लागतुं नथी-के जे निर्णय आ महावीरनिर्वाणना समय साथे संबंध धरावती तेमज तेना उपर आधार राखती अन्य बाबतोने वधारे बंधबेसतो थाय.
टिप्पण-आ निबंधना वाचकने जरुर लाग्युं हशे के में प्रो. गायगर (Geiger) ना महावंशना भाषांतरना ( London 1912 ) उपोद्घातनो बीलकुल उल्लेख कों नथी. वास्तवमां, मारे जणावयूँ जोईए के हुआ निबंध पूरो करी रह्यो त्यांसुधी में ते उपोद्घात वांच्योज न हतो, अने तेथी करीने मारां करेला केटलांक अनुमानो त्यार आगम च प्रो. गायगरे साबीत करेली बाबतोनी मात्र पुनरुक्ति रूपे जणाशे. परंतु आ प्रसिद्ध विद्वान् सिलोननी परंपराविषयक सघळी बाबतोर्नु अपूर्व ज्ञान धरावता होवा छतां तेमनी कालगणनात्मक तपासना मुख्य परिणाम साथे हु संमत थई शकतो नथी. बुद्धनिर्वाणनी मिति तरीके इ. स. पूर्वे ४७७ मा वर्षने मानवा माटेनां मारां सघळां कारणो-प्रमाणो-में मारा लेखमां आपलां छे. अने इ. स. पूर्वे ४८३ वर्षथी गणाता सीलोनना संभवित संवत्ना अस्तित्वमात्रथी, मारो मत खोटो होय तेवी मारी खातरी थती नथी. आनुं कारण ए छे के आ संवत्नो पत्तो-उल्लेख ११ मी सदीना पहेलां, बुद्धनिर्वाण पछीना १५०० वर्षना अरसामां, थएलो मळतो नथी. अने प्रो.गायगर ज्यारे अशोकनो अभिषेक इ. स. पूर्व २६४ नक्की करे छे त्यारे तेओ शिलालेखना प्रमाण तरफ उपेक्षा करता होय तेम जणाय छे; कारण तेमां जणावेलुं छे के अभिषके पछीनुं १३ मुं वर्ष इ. स. पूर्व २६० अने ५५८ नी वचमां पडे छे. अने तेज काळना शिलालेखो द्वारा पा प्रमाणे पुरावो मळतो होवाथी, सिलोनना ऐतिहासिक ग्रंथोर्नु प्रमाण, स्वाभाविक रीते ज निरुपयोगी निवडे छे.
आ निबंधनो उपसंहार करता पहेला, हुं मारा निबंधना हस्तलिखित कागळोने अतिशय मायालुपणे वांची जई अंग्रेजी भाषाना शुद्ध प्रयोगने लगती मारी केटलीक भूलो सुधारी आपनार डॉ. एफ्. डबल्यु. थॉमसना तरफ मारी अंतःकरणनी उपकारवृत्ति प्रकट करूं छु.
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अंक २]
श्री महावीरनो समय-निर्णय
[१२९
amrrnamamaamana
तीर्थकर वर्धमाननो समय. [ जर्नल ऑफ धी रॉयल एसियाटिक सोसायटी, सन १९१७, पृष्ट १२२-३० मा प्रकट थएल एस्. वी. वेंकटेश्वरना THE DATE OF VARDHAMANA नामना लेखनो अनुवाद.]
___ वर्धमान ए आधुनिक जैनधर्मना संस्थापक छे. तथा तेमनो समय ते प्राचीन हिंदुस्थान (आर्यावर्त)नी कालगणनामां एक जूनामां जूनो सीमासूचक स्मरण-स्तंभ छे. आम छतां तेमना निर्वाणना समयना विषयमां घणा मतभेदो छे. जैन तीर्थकरोना जीवन तथा युगना संबंधमां पौराणिक हकीकतो तो पुष्कळ उपलब्ध थाय छे. परंतु आ परंपरागत कथनोनी विगतो अत्यंत गुंचधणीवाली तथा परस्पर घणी विरोधात्मक जणाई आवे छे. तेमां वळी केटलीक तो सामान्य पणे खोटी रीते समजवामां तथा समजाववामां आवेली छे. आ लेखमां आ सघळां परंपरागत कथनोने, तेमना युगनारीतरिवाजो, गौतम बुद्धनी साथेनोवर्धमाननो संबंध, तेमज आ बंने त्यागी महापुरुषोनो, मगधना राज्यवंश-के जे वंशनी साथे भारतवर्षना इतिहासना प्रारंभिक काळमां, आ बन्ने धर्मों अत्यंत गाढ संबंध धरावता हता-ते वंशना राजा
ओ तथा महाराजाओनी साथेना तेमना संबंधने अनुकूल थाय ते रीते समजाववानो यत्न कर वामां आवेल छे. भारत वर्षनी, इ. स. पूर्वेनी छठी अने पांचमी शताब्दिनी कालगणनानी साधा रण रीते यथार्थ योजना, हिंदू, बौद्ध अने जैन साधनो, के जे अनुक्रमे पुराणो, दीपवंश अने गाथाओमांथी मळी आवे छे, ते साधनोमांथी मळी आवतां अनेकविध कथनोने परस्पर संगत करवाथी, करी शकाय छे. आ प्रकारनी कालगणनानी एक विगतवार योजना गत वर्षना इंडिअन एन्टीक्वेरीमा आपली छे. तेटला माटे तेज बाबतनी पुनरुक्ति करवानी अहीं जरुर नथी. मारी पद्धतिनी गणना अनुसार, वर्धमान साथे संबंध धरावता शैशुनाग राजाओनी तारीखो आपवी ज अहीं पुरती थशे. बिंबिसार उर्फे श्रेणियनो समय : ५१३-४८५ इ. स. पूर्वे छे. अजातशत्रु उर्फे कूणिक इ. स. पूर्वे ४८५-४५३, उदय उर्फे उदायी भद्रक, इ. स. पूर्वे ४५३४३७, अने दर्शक इ. स. पूर्वे ४३७-४१३.1
जैनपरंपरा अनुसार वर्धमान श्रेणिय बिंबिसार साथे संबंध धरावता हता. श्रेणियनी राणी चेल्लणा वैशालिना चेटक राजानी पुत्री हंती. अने वर्धमाननी माता त्रिशला ते एराजानी बहेन हती.2 आ उपरथी बिंबिसारनी राणी ए वर्धमाननी पहेली बहेन (मामानी छोकरी) थाय. आपणने मळी आवती नोंधो उपरथी, वर्धमाननो पोतानी बेन-मगधनी राणी-साथेअगर तो तेना पति बिंबिसारनी साथे वयोविषयक शो संबंध हतो, ते कल्पी काढवू अशक्य छे. जैन नोंधोमां वर्धमान अने बिंबिसार ए बनेना परस्पर थएला मेळाप संबंधी घणी ज जूज हकीकत मळे छे. जेकोबीनुं मानछे के उत्तराध्ययनसूत्रना वीसमा अध्ययनमां आवी एक परस्पर थएली मुलाकातनो उल्लेख छ. जो, ते कहे छे तेमज होय तो पण बिंबिसार ए वखते खासो वृद्ध होवो जोइए; अने ए जैन यति तो ते समये तद्दन युवान हता तथा स्पष्ट रीते तरतना ज दीक्षित थएला हता. परंतु वास्तविक रीते, आ अध्ययनमा उल्लिखित जैन यतिने वर्धमान कहेवा ए घणुं शंका भरेलु लागे छे; कारण-यति एम कहे छे के तेमना पिता कौसा म्बिना (रहीश) छे. ज्यारे आपणे ए तो स्पष्ट जाणीए छीए के वर्धमानना पिता तो वैशालीनी
- 1 इन्डि• एन्टि. १९१५ पान ४१-५२. 2. कल्पसूत्र (जेकोबीनी आवृत्ति) पा० ११३. 3. S. B. E., Vol. XLV, pp. 100-1,
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१३०] जैन साहित्य संशोधक
[ खंड २ नजीक आवेला कुण्डग्रामना एक सरदार-उमराव हता. यतिए एम कहेलुं छे के तेमनुं कुटुंब पुष्कळ समृद्धिवान हतुं. परंतु वर्धमानना कुटुंबना विषयमा आवं कोई खास कथन थएलुं नथी.
अजातशत्रुना विषयमा बौद्धो करतां जैनो घणं वधारे जाणे छे. तेना राज्यकालना अंतिम समयमां तेनी राजधानी चंपा हती. अने त्यां ज ते मरी गयो हतो एम जाणवामां आव्युं छे. तेणे वर्धमाननी घणी वार मुलाकातो लीधी हती, अने तेनो पुत्र उदायी ते तो खरेखर एक चुस्त जैन हतो. उवासग-दसाओमां 6 गोसालनो मरण समय, कोसल साथे अजातशत्रुमा थएला युद्ध बाद बतावेलो छे, अने वर्धमाननुं निर्वाण गोसालना मरण पछी १६ वर्षे थयातुं जणावेलुं छे. जैन सूत्रामां 7 एम कहेलु छे के वर्धमाननो मामो चेटक, जे वखते अजातशअए चंपा नामनी पोतानी राजधानीमांथी वैशाली उपर हमलो को ते वखते, त्यांनो राजा हतो. आ उपरथी आपणे न्यायसर एटलु अनुमान करी शकीए छीए के ते राजाना भाणेज आ जैन यति, आ बनाव बाद घणा वर्ष सुधी विद्यमान रह्या हता. तेम ज एटलुं तो आ परथी स्पष्ट ज थाय छे के जैनो, अजातशत्रुना राज्यना प्रारंभिक वर्षोना करतां तेना अंतनां वर्षांनी घणी ज वधारे अने चोक्कस माहीति धरावे छे.
उदय अने दर्शकना राज्योनं, आ बने धोनी नोंधोमां घj ज झां प्रतिबिंब नजरे पडे के. सर्व आटली वात तो कबुल राखे छे के अजातशत्रुनो उत्तराधिकारी उदय बन्यो हतो, अने आ वात पुराणोक्त हकीकतो द्वारा समार्थितन थती होवा छतां आपणे ठीक ठीक तेम मानी शकीए छीए. बौद्ध परंपराओनी अनुसार उदय ए अजातशत्रुनो, बिंबिसारनी हयातिमां सुद्धा एक मानीतो पुत्र हतो; तथा पोताना पितानो बुद्धनी साथे मेळाप थयो ते वखते, ए एक बुवान पाटवी कुंवर हतो. आधी अजातशत्रुना मरण समये उदय मध्यवयस्क होवो जोईए. परंतु पर्शक, मात्र भासना वासवदत्ता नाटकमांथी ज तेना विषयमा जे फक्त एक परंपरामळी भावे छे ते अनुसार, गादीए आव्यो ते समये घणो ज जुवान-नानी उमरनो हतो. आ रीते जोतां, पुराणोमां जणाव्या प्रमाणे अजातशत्रु अने उदयनी वच्चे दर्शक आव्यो हतो तेम मनाय नहि. संभवित छे के जे उदय राजानी गादीए ते आव्यो हतोते राजानो, ते एक पुत्र या तो नानो
हे होई शके. बौद्धो उदय धिषे आथी वधारे काई जाणता नथी; परंतु जैन नोधोमा जणाव्या प्रमाणे, ते (उदय) जैन धर्मनो एक चुस्त अनुयायी हतो, 8 पोताना पितानो उत्तराधिकारी बन्यो हतो तेम ज पाटलिपुत्रनो 9 वसाधनार हतो. अने छेल्लु ए के तेनी कारकीर्दिनो टुंक समयमां ज तेना खूनने लईने अंत आव्यो हतो.
दर्शकना विषयमां, सिलोनना बौद्धो फक्त एटलुंज जणावे छे के तेनुं नाम नागदसक हतुं. परंतु आ उपरांत तेओ कई जणावता नथी. दर्शकना राज्यना प्रारंभ कालमां चंडप्रद्योत विद्य. मान हतो.10 चण्ड तथा तेना पुत्र पालकने जैनपरपंराओमां जे महत्त्व आपवामां आव्युं छे ते उपरथी एम अनुमान न कळे छे के ते युगमां जैनधर्मनुं मुख्य स्थान अने केन्द्र मगध नहि परंतु उज्जैन हो. तेम ज वर्धमान अने चण्ड ए बने समकाले देहांत थया हता, ते वात जो सरी होय तो, आपणे मानी शकीए के जैनधर्मना संस्थापके दर्शकनुं राज्य जोयुं हशे.
4. हेमचन्द्र रचित स्थविरावली चरित, ६,२१. 5. औपपातिक सूत्र.पृ.३९. 6. हानलनी आवृत्ति. परिशिष्ट १. अने २. पृ. ११०. 7. निरयावली सूत्र, पृ. २७. 8. कल्पसूत्र, op. cit, p. 5. 9. हेमचन्द्र, op. cit.जेनी साथे पाटलीपुत्र वसाव्यानी बाबतमा वायुपुराण पण मळतुं छे. 10 भासकृत स्वप्नवासवदत्तम् (त्रिवेन्द्रम् सीरीझ) पृ. ४.
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अंक २]
श्री महावीरनो समय-निर्णय आटली हकीकतो उपरथी एटलो निर्णय थाय छे के वर्धमाननुं निर्धाण गौतमबुद्धनी पछीथी थयुं हतुं. परंतु विद्वानोनो एक एवो मजबुत पक्ष पण रहेलोछेजे आ विचारनी सख्त विरुद्ध के. उदाहरण तरीके मि. विन्सेन्ट ए.स्मथ,11 हजी पण मानछे के वर्धमान एबुद्धनीपहेलां केटलाक वर्षे थई गया हता. ते लखे छ के जैन यति (तीर्थकर) “संभवित रीते बिंबिसारना राज्यना अंतनी नजीकना कालमां निर्वाण पाम्या हता. " अने गौतम बुद्धनुं निर्वाण “ अजातशत्रुना प्रारंभना राज्यकालमां थयुं हतुं.” महावीरना निर्वाणना, परंपरागत चाली आवेला समयने माननाराओनो पण आवो ज मत छे. वास्तवमां, तेओ, जैन तीर्थकरना निर्वाणने, बुद्धना निर्वाण करतां पचासथी वधारे वर्षों पूर्वे मूके छे. आथी करीने आ विषयनी विगतवार तपाल करवानी जरूर छे. ___मि. स्मीथनो उपरोक्त मत दीर्घनिकाय ३, ११७ आदि, अने मज्झिम निकाय २, २४३ आदिने आधारे उत्पन्न थएलो छे. आ विषयमां, प्रथम तो आपणे ए ध्यानमा राखवू जोईए के . दी०नि० २, २७ आदि अने म०नि० १, ३७७ मां जैनधर्मनो उल्लेख" चातुर्याम" (चार व्रतो वाळा) धर्म तरीके करेलो छे. जैन आगमग्रंथोमां 12 पण ए उल्लेख मळी आधे छे अन ते धर्म वर्धमाननी पूर्वे २५० वर्षे थएला पार्श्वनाथनो हतो. परंतु ते धर्भ वर्धमान-जेमणे पार्श्वनाथनां आ चार व्रतोमां पांचमुं ब्रह्मचर्य- व्रत उमेरीने पांच व्रतो अमलमा मूल्यां-मूकाव्यां हतांतेमनो न हतो. बीजुं ए के बुद्ध अने बिंबिसार ए बनेनो परस्पर अनेक वखत मेळाप थयोहतो 13 अने आ विषयमां एक बौद्धसंप्रदाय 14 तो एटले सुधी कहे छे के बुद्ध अने बिंबिसार ए बन्ने एक ज दिवसे जन्म्या हता. आथी विरुद्ध जैनपरंपरानुं 15 एम कहेवं छेके वर्धमान अने अवन्तीपति चण्डप्रद्योत ए बने एक ज दिवसे स्वर्गे गया. भासकृत वासवदत्ता द्वारा आपणे जाणीए छीए के प्रद्योत खरेखर अजातशत्रुना स्वर्गवास पछी तथा उदयना पण देहांत थया बाद पोते हयाती धरावतो हतो. त्रीजी बाबत ए छे के बुद्ध अजातशत्रुना प्रारंभिक राज्यकालमां, पछी ते तेना ५ अथवा ८ मा वर्षमां होय, निर्वाण पाम्या हता ए वात सघळी बौद्धपरंपराओने संमत छे. परंतु जैनपरंपराओ तो एम जणावे के के वर्धमान कोसलना राजानी साथे अजातशत्रुना युद्ध थई गया पछी ओछामां ओछां १६ वर्ष तो हयाती धरावता हता.
__ आ उपरांत आ बंने धर्मोना प्राचीन ग्रंथोना सामान्य अभ्यास द्वारा एटलं अनुमान स्पष्ट रीते नीकळी आवे छे के वर्धमान, बुद्धना समयमां नहि, परंतु तेमना केटलांएक वर्षों पछी जन्म्या हता. प्राचीन बौद्ध ग्रंथोमां 16 जैनोना भिन्न भिन्न संप्रदायोना उल्लेखा थपला छे जेवा के-पाचनाथ; वर्धमान अने पुराण काश्यप एमना अनुयायीओ. आ काळ तेमने विविध धार्मिक पंथो रचवानो हतो. तीर्थकर ए शब्द जेनो अर्थ बौद्धो" पाषंडीमतनो संस्थापक" एवो करे छे, ते शब्दनो जैन ग्रंथमां थएलो अर्थ “धर्मनो संस्थापक" छे. हवे तैर्थिक अगर तो पाषंडीमतोना खास खास संस्थापकोनो विचार करतां, जैनग्रंथोमां नोधाया प्रमाणे, गोसाल ए सौथी प्रधानपद भोगवे छे; परंतु बुध्दना विरोधी तरीके तेनुं
11. Early History of India, 3 rd., ed., p. 33 12. उदाहरण तरीके जुओ उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २३. 18. जुआ, से. बु. इ. पुस्तक ५० (इन्डेक्स् ) प्रमाणमाटे पा. ९९ 14. Rockhill, Life of the Buddha (Citing Dulva, XI), p. 16. 15. The Literary Remains of Dr. Bhau Daji, p. 130. 16, सरखावो-महावग्ग ८, ५,३; अंगुत्तरनिकाय ३, ३८३.
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१३२] जैन साहित्य संशोधक
[खंड २ स्थान एटलं मोटें जोवामां आवतुं नथी. आपणे जाणाए छीए के गोसाल वर्धमाननी पहेलां १६ वर्षे मरी गयो हतो तथा तेणे आजीविक नामे एक सुप्रसिद्ध पंथ स्थाप्यो हतो. जो ते गोसाल बुद्धनो समकालीन होत तथा एक विरुद्ध पंथना संस्थापक तरीके प्रसिद्धि भोगवतो होत तो आपणे सहजे आशा राखी शकिए के, तेनो प्राचीन बौद्धग्रंथोमां, तेवा रूपमां जरुर उल्लेख करवामां आव्यो होत. तेमज जमालि नामनो वर्धमाननो एक प्रसिद्ध समकालीन पुरुष, के जेणे जैनधर्ममां पहेलो पक्षभेद उभा को हतो, तेनाविषयमां पण बौद्धोने कशी माहीति नथी. अंतमां जैनग्रंथोमां वर्णववामां आवेलुं तत्त्वशास्त्र ए सांख्य तेम ज वेदांत बनेथी विरुद्ध छे. परतुं बौद्ध तत्त्वशास्त्रनो पायो आ बे प्राचीन धर्मो उपर नंखायलो छे; तथा तेमां (बौद्ध दर्शनमां) पाछळना वखतमा व्यवस्थित थएल वैशेषिक दर्शननो क्याए पण उल्लेख थएल नथी; परंतु, एनाथी उलटुं, जैनदशन, जेम डॉ. भाण्डारकर स्पष्ट रीते जणावी आप्यु छे 17 तेम " ते एक बाजुए सांख्य अने वेदांत अने बीजी बाजुए वैशेषिक ए बनेनी वच्चे करेला समन्वयना रूपनुं छे." _ हवे आपणे वर्धमानना समय साथे कोईपण रीते संबंध धरावती एवी जुदी जुदी परंपरागत हकीकतोने तपासीए. - १. आ परंपराओमा प्रथम उल्लेखनीय एवी एक सुप्रसिद्ध गाथा छे. आ गाथाने दिगंबरो तथा श्वेतांबरो-बने संप्रदायो माने छ, अने तेनु तात्पर्य ए छे के महावीरनु निर्वाण 'विक्रमनी पूर्वे ४७० वर्षे ' थयु हतुं. परंतु डॉ. हॉर्नलना 18 जणाव्या मुजब आ गाथानो अर्थ बने संप्रदायो जुदी जुदी रीते करे छे. दिगंबरो आने विक्रमना जन्मथी गणे छे त्यारे वतांबरो तेना राज्याधिराहणना समयथी. आ गाथा साथे विक्रमनं नाम जोडाएल छे ते उपरथी तेने एक अर्वाचीन परंपरादात्री मानी अने ते रीते ऐतिहासिक दृष्टिए महत्त्व विनानी गणीने तेनो इनकार करवानो नथी. कारण के आ गाथार्नु स्वरूप निःशंक आधुनिक होवा छतां पण ए शक्य छे के ते कोई एक प्राचीन परंपराने आधारे रचाएली होय. अने तेम मानवाने माटे अधिक मजबुत कारण ए छे के ए गाथा बंने संप्रदायने मान्य छे.
आ गाथाविषक जे खरो प्रश्न छे ते तेना अर्थना संबंधमां छे. प्रॉ. कीलहॉर्न 19 एम जणावे छे के इ. स. पूर्वे ५८ वर्षे शरु थएला संवत् साथे विक्रमना संबंध छेक ९ मी अने १० मी शताब्दिमां उत्पन्न थवा मांड्यो हतो. अने आ संवतने विक्रमादि
न आ संवत्ने विक्रमादित्ये स्थापित कर्यो हतो एवो खास उल्लेख, पहेल पहेलो, सन १९९८ ना एक शिलालेखमां जोवामां आवे छे. परंतु आ उल्लेखनीय संवत्ना विषयमा एक बाबत प्रॉ. कील्हॉर्नने विचारवी रही गई छे के बारमी शताब्दिमा विक्रमसंवत् ने अनंदविक्रमसंवतना नामे लखवानी एक खास गणना पद्धति उभी थई हती. आ अनंदविक्रमसंवत् 20 लगभग इ. स. ३३ मा एटले पहेला विक्रमसंवत् पछी ९० अगर ९१ वर्षे शरु थयो हतो. बीजी 'सनंद' नामनी गणना पद्धति इ. स. पूर्व ५८ अगर ५७ वर्षे उत्पन्न थई हती. चन्द वरदाई नामना ते ज (१२ मी) शताब्दिना प्रसिद्ध कविए पोताना काव्यमां आ गणत्रीनो अथथी ते इति सुधी उपयोग करेलो छे. आ उपरथी एटलं स्पष्ट थाय छे के विक्रमसंवतनी गणतरीनी आ सनन्द अने अनन्द ए बने रीतिओ, जे समये प्रस्तुत गाथाने वर्तमान रूपमां मूकवामां आवी ते समये, प्रचलित हती.
17. जुओ तेमनो रिपोर्ट सन १८८३-८४, पृ. १०१ आदि. 18. Inp. Ant. XX p. 360 19. Ind. Ant. XIX and xx. 20.J. R. A. S.,1906,p. 500
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अंक २]
श्री महावीरनो समय-निर्णय
[१३३
हवे जो आपणे सनन्दगणतरी स्वीकारीए तो तदनसार निर्वाणसमय इ.स.पर्वे ५२७मांमकाय परंतु आपणे जेम पाछळ जोई गया, वर्धमान बुद्धनी पछी थएला होवाथी आ तारीख प्रकट रीते असंभवीत छे. तेथी परिणामे गाथामा उल्लेख करवामां आवेल विक्रमसंवत् ते इ.स.३३मां शरु थएल अनन्द विक्रम संवत् होवो जोईए. इ. स. ३३ थी पूर्वे ४७० वर्ष गणतां वर्धमानना निर्वाणनी तारीख तरीके इ. स. पूर्वे ४३७ मुं वर्ष आवे.
२. हवे आपणे ते परंपरागत हकीकत 21 तपासीए, जेनी अनुसार मौर्यवंशीय चंद्रगुप्तराजानं राज्याधिरोहण वीरनिर्वाण पछी १५५ बर्षे बतावेलंके. चंद्रगतना राज्य सौथी वधारे संभवित तारीख 22 ग्रहण करतां निर्वाणना समय तरीके आपणे ३१९+१५५= ४७४ इ. स. पूर्वेनुं वर्ष प्राप्त करीए छीए. परंतु जैन गणत्रीमां भूल थई होय तेम जणाय छे. कारण के तेमां ज्यारे पालकना राज्यनां ६० वर्ष आपलां छे, त्यारे पुराणोमां तेना राज्यकालना फक्त २४ अगर २८ वर्षों ज गणावेलां छे. 23 मत्स्यपुराण जेवा सौथी प्राचीन पुराणमां पालकनां राज्यनां फक्त २८ वर्षों जणावेलां छे. आ रीते मात्र पालकना ज राज्यकालमां ३२ वर्षनो तफावत पडे छ. नंदोना संबंधमां एम छे के हेमचंद्रे तेमना राज्यकाल तरीके ९५वर्षों गणेलां छे. परंतु आपणी कालगणनानी पद्धति अनुसार उदयना मरण पछीना नंदोना-मात्र एकला नंदोनो ज जैन ग्रंथमां विचार करवामां आवलो छ-राज्यनां बराबर ९० वर्ष सिद्ध थाय छे. जैन गणतरीमां आ भूलो छ एम जो स्वीकारी लईए तो आपणे वर्धमानना निर्वाण समय तरीके ४७४-(३२+५), एटले इ. स. पूर्वे ४३७ मुं वर्ष नक्की करी शकीए.
३. हवे आपणे ते परंपरागत हकीकत 24 तरफ फरीशं, जेमां कहेलुं छे के महावीर पछीना सातमा पट्टधर स्थूलभद्र ते नवमा नंदना मंत्री हता तथा जे काळे चंद्रगुप्ते नंदनु खून कर्यु हतुं ते अरसामां स्वर्गे गया हता. जो के आपणे सम्राट् अने यति ए बनेना मरणोनी समकालीनता जेवा मुद्दा उपर वधारे भार न मूकीए छतां आ मुद्दाना संबंधमां एटली नोध लेषा जेवी छ केते गणतरी आपणी तारीख साथबंध बेसे छ. एटलं याद राख जोइए के गणधरो या पट्टधरोनी परंपराना विषयमा लगाडेली वर्षांनी सरेराश, वंशनी माफक ज बराबर बंधबेसी शकती नथी. अने एनुं कारण ए छे के पट्टधरनी बाबतमा उत्तराधिकारी केटलीक वखत एक मोटी उंमरनो होवाथी तेना पूर्वजनो समकालीन गणाय छे; नहि के तेनी पछीनी नवी पेढीनो. मारा मतनी पुष्टिमां हुँ तपागच्छनी25पट्टावलीमाथी तेमज लक्ष्मीवल्लभना कल्पद्रुममांथी वर्ष संख्याओ टांकुं . आ बंने ग्रंथोमां-ए वात परस्पर मळती आवे छे के वर्धमान पछी ३७६ या ३८६ वर्षना कालमां२३ स्थाविरो थया हता. आ उपरथी आपणे प्रत्येक पेढिनां १६ अगर १७ वर्षो मेळवी शकीए छोए. वर्धमाननी जे निर्वाण तारीख आपणे नक्की करी छे तेनी साथे संगत राखवा खातर चंद्रगुप्त सुधी थएली स्थविरोनी सात पेढिओना ११८ वर्ष नक्की करवां जोईए. अने आ वर्षसंख्या, उपर प्रत्येक पेढि माटे मेळवेली वर्षसंख्या साथे मळती थाय छे.
21. हेमचंद्र एनो उल्लेख कर्यो छे अने मेरुतुंगे तेनो समालोचना करी छ. 22. Dr. Hultzsch's, in JRAS., 1914. 23. वायु अने ब्रह्माण्ड पुराणमा २४ तथा मत्स्यपुराणमां २८ वर्ष आपेलां छे. 24. जओ स्थविरोनी सूचि. SBE.xxii,pp. 278,289. तथा इन्डि. एन्टि. पु. ११, २४६, 25. Ind. Ant. XI, 251. .
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जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
४. अंतमा, आपणे वर्धमान अने अवन्तीपति चण्डप्रद्योत ए बनेना अवसाननी समकालीनता बतावनारी परंपराना संबंधमां विचार करीए. अहींआं पण आपणे आ समकालीनताने अक्षरशः न लई शकीए छतां पण एटलुं तो स्वीकारी शकाय के आ महात्मा तथा राजा बने लगभग सरखा समये देहांत पाम्या हशे. भासना वासवदत्तामां जे एक परंपरा आवेली छे तदनुसार चण्डप्रद्योतनुं मरण मगधना दर्शकना राज्यना प्रारंभमां (४३७-४१३ इ. स. पूर्वे ) थयु होवू जोईए. कारण एम छे के, भासे, प्रद्योत पासे तेना पुत्रने माटे दर्शकनी बहेननुं मागुं करावेलुं छे. आ नाटकना पोताना जर्मन अनुवादमां प्रो. जेकोबी एवो मत धरावे छे के आ प्रद्योत "प्रायः महासेननो पुत्र छे." परंतु मारी पासे स्पष्ट पुरावा छे के ते महासेननो पुत्र नहि पण खुद महासेन ज हतो. बीजा अंकमां भासे जणावेलुं छे के “प्रद्योत जे महासेन कहेवाय छेतेनुं कारण तेनी मोटी सेना छे."26 छटा अंकमां प्रद्योतनी राणी उदयनने कहे' "तुं अमारा पुत्र गोपाल बालकना जेटलो वहालो अमारो जमाई थयो छु.” 27 बौद्धग्रंथो द्वारा आपणे जाणीए छीए के उदयने चंडप्रद्योतनी पुत्रीनहरण करी तेनुं पाणिग्रहण कर्यु हतुं. ___हवे मात्र एटलुंज बताववानुं रघु छ के-भासनी आ कथा एक प्राचीन अने विश्वासपात्र परंपराने आधारे रचाएली छे. ते कथानी अंदर लावाण्यकर्नु दहन अने प्रद्योतनी पुत्रीन कल्पित मरण ए एक मख्य सांकळ छे अने आ बाबतमां आ कथाने बौद्ध दिव्यावदान 28 द्वारा पुष्टि मळे. भासे प्रद्योतने जे महासेननो बिरुद आपेलो छे तेने बाणना कथन- पण समर्थन मळे छे. कारण के बाणे पण हर्षचरित्रमां29 ते राजाने ते ज उपनाम आपेलुं छे गोपालपालक ए नाम विष्णुपुराणमां पण मळी आवे छे. परंतु अन्य पुराणो अने जैन मेरुतुंग तेनुं नाम फक्त पालक एटलं ज आपे छे, अने आ नाम ते घणुं करीने तेना पूर्ण नामनुं एक रूपान्तरित संक्षिप्त नाम छे. भासे आ रीते स्पष्ट रूपे एक प्राचीन परंपरानो उपयोग करेलो होवाथी आपणे तेनी कथाने स्वीकारीए के चंडप्रद्योत दर्शकना राज्याधिरोहण पछी पण हयाती धरावतो हतो. आ कथन जो खरं होय तो तेनुं अने वर्धमाननुं अवसान इ. स. पूर्वे लगभग ४३७ वर्षनी पहेलां होई शके नहि.
आरीते इ. स. पर्वेनं ४३९ में वर्ष अगर तो अनन्दविक्रमनं ४७० मं वर्ष ते जैन कालगणनाविषयक प्राचीन परंपराओने पूर्ण करतुं जणाय छे. तेमज आ हिंदु, बौद्ध अने जैन पुरावाओना आधारे ए युगना सामान्य इतिहासना संबंधमां जे जाणीए छीए तेनी साथे पण बंधबेसतुं थाय छे.
.
26. त्रिवेन्दम् संस्कृत ग्रन्थावलीमां मुद्रित पृ० २० 27. तेज पुस्तक. पृ० ६९. 28. जुओ, अवदान ३६. 29. हर्षचरित्र उच्छ्वास, ६, पृ २२१ ( In the Bombay edition of the Text.)
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अंक २ ]
मेरुतुंगाचार्यनी स्थविरावली
मेरुतुंगाचार्यनी स्थविरावली.
[ जर्नल ऑफ धी बॉम्बे बँच ऑफ धी रॉयल एसियाटिक सोसायटी, भाग ९ ( सन् १८६७-७० ) मां प्रकाशित डॉ. भाऊ दाजीनो निबन्ध ]
इ. स. नी पंदरमी (? चौदमी) शताब्दिमां मेरुतुंग नामना एक जैन आचार्य थई गया छे. तेमना रचेला ग्रंथो पैकी चार ग्रंथोनी नकलो मारी पासे छे. एक प्रबंधचिंतामणि; जेनो फॉर्बससाहेबे रासमाला नामे गुजरातनो इतिहास लखवामां सारो उपयोग करलो छे. बीजुं महापुरुषचरित्र; जेमां अनेक अतिप्राचीन जैन सत्पुरुषोनां चरित्रो वर्णववामां आव्यां छे. त्रीजानं नाम षड्दर्शनविचार छे. आ ग्रंथमां, जैन, बौद्ध, सांख्य, जैमिनीय अथवा मीमांसा, औलुक्य अथवा कणाद अने गौतमीय एम छ दर्शनोनुं संक्षिप्त वर्णन करेलुं छे. अने चोथा ग्रंथनुं नाम ' थेरावली छे. आमां स्थावरोनी एक वंशावळी याने परंपरा आपेली छे. आ छेल्लो ग्रंथ, ते, कालगणनात्मक अने ऐतिहासिक मुद्दावाळी केटलीक प्राचीन गाथाओना उपर एक टीकारूप छे. आ सघळा ग्रंथो संस्कृत भाषामां रचाएल छे परंतु तेमां प्राकृत भाषानी गाथानां अवतरणो आपलां छे. मारी पाले छ भिन्न भिन्न जैन सूरिओ या पंडितोनी रचेली छ संपूर्ण पट्टावलीओ छे. अने बीजी पण केटलीक पट्टावलीओना अंशो छे परंतु तेमांनी एके ऐतिहासिक रसिकतानी ege मेरुतुंगनी थेरावलीने पहोंची शके तेवी नथी. प्रबंधचिंतामणि ग्रंथ, तेमां अंते जणाव्या प्रमाणे, संवत् १३६७ एटले इ. स. १४२३ (११३१० जोईए-संपादक ) मां काठी आवाडमां आवेला वर्धमानपुर अर्थात् वढवाण शहरमां, रचेलो हतो.
पट्टावलीनो सार नीचे मुजब छे:--
कार्तिक वदी १५ ने दिवसे श्रीमहावीर तीर्थंकरनं निर्वाण थयुं. आ बाबत कल्पसूत्र नामना ग्रंथमां वर्णवेली छे. एक प्राचीन गाथानो पण आ स्थळे उल्लेख करेलो छे. ते गाथामां एम जणावेलू छे के जे रात्रिए अर्हन् तीर्थंकर महावीर निर्वाण पाम्या तेज रात्रिए अवन्ती ( मालवा ) तो चंडप्रद्योत नामनो राजा पण मरण पाम्यो. तेनी पछी तेनो पुत्र पालक अव तीनी गादी उपर अभिषिक्त थयो. मेरुतुंग पोतानी तारीखो अने कथनोना प्रमाणमां रूपांत. रित मागधीमां रचेली गथाओनो उल्लेख करे छे, अने ते गाथाओने संस्कृतगद्यमां विवरणपूर्वक समजावे छे.
[ १३५
आ पालक राजानुं राज्य ६० वर्ष चाल्युं; ते वखते पाटलिपुत्रमां राज्य करता कूणिकना पुत्र उदायीनुं खून थयुं. * आ राजाने संतान नहि होवाथी नापित-गणिकाथी उत्पन्न थपल नंदनो, पांच देदिप्यमान आभूषणथी भूषित एवा मुख्य हस्तीनी पसंदगी अनुसार, राज्याभिषेक थयो. परिशिष्ट पर्व ( हेमचंद्रकृत ) मां एवं वर्णन मळी आवे छे के " वर्धमान स्वामी ( अर्थात् वीर ) ना निर्वाण पछी साठ वर्षो वीती गयां पछी आनंद राजा थयो अने तेनी पाछळ एक पछी एक एम अनुक्रमे नव नंदो पाटलिपुत्रनी गादीए आव्या. तेमनुं राज्य कुल १५५ वर्ष चाल्युं” आम वीर पछी २१५ वर्ष थाय पण परिशिष्ट पर्वमां एम पण कहेलुं छे के महावीरनिर्वाण पछी १५५ वर्ष चंद्रगुप्त राजा थयो. तेटला माटे मेरुतुंग आ हकीकत विचारणी छे एम जणावे छे, कारणके आ हकीकत प्रमाणे ६० वर्ष ओछां थाय छे. तेम अन्य ग्रंथोनी हकीकत साधे पण आ बावत विरोध धरावे छे.
* कौणिक अगर कूणिक ते श्रोणिकनो पुत्र हतो. आ श्रेणिक भंभासारना नामे ओळखाय छे अने ते बौद्ध ग्रंथोमां वर्णवेला राजगृहनो राजा बिंबिसार ज हतो.
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१३६ ] जैन साहित्य संशोधक
[खंड २ त्यारपछी १०८ वर्ष मौर्य राज्य चाल्यु. चाणाक्ये नवमा नंदने गादी उपरथी दूर करी चंद्रगुप्त आदि मौर्य राजाओने पाटलिपुत्रनी राज्यगादी उपर स्थापित कर्या. एम वीर पछी ३२२ वर्ष वीत्या. मौर्यराज्य पछी पुष्यमित्रे ३० वर्ष राज्य को.
त्यारबाद बलमित्र अने भानुमित्रे ६० वर्ष सुधी राज्य कर्यु. आ राजाओ ते उज्जयिनीनी गादी उपर थई गएला तेज नामना राजाओथी जुदा हता. कल्पचूर्णि (कल्पसूत्रनी एक टीका) मां एवी हकीकत आपेली छे के आ राजाओए (उज्जयिनीना) चतुर्थी पर्वना संस्थापक कालिकाचार्यने पोताना राज्यमांथी बहिष्कृत कर्या हता. तेमना पछी चालीस वर्ष नभोवाहने, जे केटलांक स्थळेोमां नरवाहनना नामथी ओळखाय छे तेणे, राज्य कर्यु. आ बनावनो समय वीरनिर्वाण पछी ४५३ वर्षे आवे छे. अने आ वर्षे गर्दभिल्लने निर्मूळ करनार कालिकाचार्य, मानपूर्ण सूरिपद पाम्या. नभोवाहन पछी गई भिल्ले १५२ वर्ष राज्य भोगव्युं अर्थात् गई भिल्लवंशनु राज्य कुल १५२ वर्ष रा. नभोवाहन पछी गईभिल्ल उज्जयिनीमां ज्यारे १३ वर्ष मात्र राज्य कर्यु हतुं ते वखते, कालिकाचार्य पोतानी बेन सरस्वती उपर करवामां आवेला जुलमने कारणे गईभिल्लनु निषूदन कर्यु, अने उज्जयिनीमां शक राजाओने स्थापित कर्या. तेओए त्यां चार वर्ष राज्य कर्यु अने ते रीते कुल १७ वर्ष थयां.
गर्दभिल्लना पुत्र विक्रमादित्ये उज्जयिनीनुं राज्य पार्छ लीधुं अने सुवर्णना दानथी विश्वना करजने दूर करीने विक्रमसंवत् नामे नवीन संवत्सर प्रवर्ताव्यो. आ (युग) नी स्थापना वीर ना धार्षिक दानना वर्षथी * शरु थता वीर संवत् ५१२ वर्षे करवामां आवी. विक्रमना राज्यकालनां|
६० वर्षो. तेनो पुत्र विक्रम चरित्र उर्फे धर्मादित्यना राज्यकालनां तेना पछी थएला राजा भाइल्लना राज्यना ,
" " नाइल्लना राज्यना , " " नाहडना ,
,,
१४
"
१०
आ राजाना समयमां श्रीमहावीरनुं यक्षवसति नामर्नु मोटुं चैत्य, जालोर नजीक आवेला सुवर्णगिरिना शिखर उपर, एक वेपारी (श्रेष्ठि) ए पुष्कळ द्रव्य (९९ लाख ) खरची बंधाव्यु हतुं. विक्रम पछीना १३५ वर्षमा १७ वर्ष उमेरतां १५२ वर्ष थाय छे, अने (गाथामां) पण तेम ज कहेलुं छे. विक्रमराज राज्यकाल एटले के विक्रमनां वंशात्मक वर्षनी नभोवाहननी पछी १७ वर्षे शरुआत थई; विक्रम संवत् अगर राज्यारंभ ते विक्रमना राज्यथी, अथवा मेरुतुंगनी कल्पनानुसार विक्रमराज्यकालना १७ मा वर्षथी, शरु थयो. तेथी १५२-१७=१३५ वर्षो विक्रमकालयुगनां थाय छे. जिनकाल ते विक्रमकालनी पहेलांनो जिनवीरनो काल छे. आ ४७० वर्षनो काल ते श्रीमहावीर अने विक्रमनी वच्चेना कालनी बराबर छे. श्रीवीर अने विक्रमादित्यना काल या संवतनी गणत्री केवी रीते करवामां आवी हती विक्रमना राज्यनी शरुआत पहेलां ४७० वर्षे श्री वीरनुं निर्वाण थयुं हतुं, एटले के विक्रमना राज्यनी शरुआत वीरनिर्वाण बाद ४७० वर्षे थई.
* दाननुं वर्ष के जे नवा संवतनी स्थापना- एक मुख्य कारण छे. राजा आखं वर्ष अतिशय सुवर्णराशि दानमां आपे छे त्यारे ते प्रवर्ते छ एम मानवं छे. महावीर पोताना मरण अगाउ ४२ मा वर्षमा तेम कर्यु हतुं एम कहेवाय छे.
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अंक २]
मेरुतुंगाचार्यनी स्थविरावली
[१३७
wwwwwwwwwwwwwww
भाइल्ल
पालक
विक्रमादित्य नन्द
धर्मादित्य मौर्य
१०८ पुष्यमित्र ३०
नाइल बलमित्र
नाहड भानुमिग्र नभोवाहन ४०
१३५ गर्दभिल्ल १३
४७०
कुल संख्या ६०५ शक संवतनी आ वखते-वीरनिर्वाण पछी ६०५ वर्षे भारत (हिंदुस्थान ) मां शरुआत थई हती.
आटली बाबतोनुं धर्णन करीने मेरुतुंग अनेक स्थविरो (थेगे, एटले महान् यतिओ) ना पट्टप्रतिष्ठाकाल (सूरि पदवी उपर प्रतिष्ठापन) नी तारीखो आपे छे. श्रीवीरना निर्वाणथीः
सुधर्मखामीनुं पट्टाधिरोहण ...... २० वर्षसुधी
जंबुस्वामीनु , ...... ४४ " परिशिष्ट पर्वमां एवं लखेलं छे के जंबुए वरिनिर्वाण पछी ६४ वर्ष आयुष्य भोगवी, पोतानी पाटे कात्यायन गोत्रना प्रभवने स्थापित कर्याः अने सर्व कर्मथी निवृत्त थई अक्षय्य स्थानने पाम्या.
प्रभव
११ वर्ष सय्यंभव २३ ,, यशोभद्र ५० , संभृतिविजय ८, भद्रबाहु
१७०
३०,
आ रीते वीरनिर्वाण पछी १७० वर्ष थयां. परिशिष्ट पर्वमा जणावेलुं छे के वीरनिर्वाणथी १७० वर्षों वीत्या पछी भद्रबाहु समाधिपूर्वक स्वर्गे गया.
स्थूलभद्र ४५ वर्ष अर्थात् वीरनिर्वाणथी २१५ वर्ष आर्यमहागिरि आर्यसुहस्ति गुणसुंदर
३३५ वर्ष आ समये ( अणुनिगोद व्याख्याता ) कालिकाचार्य प्रादुर्भूत थया. कालिकाचार्यनां अणुनिगोद उपरनां व्याख्यान सांभळवा इन्द्र आव्यो हतो ते वात फरीथी संक्षेपमा पुनरावृत्त करी छे. कालिकाचार्य प्रज्ञापनोपांग सूत्रना कर्ता छे. मूळमां १४० नो अंक आप्यो छे जे नकल करनारनी प्रकट भूल छे. कारणके आना प्रमाणमां परिशिष्टपर्वनी जे एक गाथा टांकेली छे तेमां १७० होवानुं जणावेलुं छे ते वीर पछीना ११ गणधर सहित पट्टधरोमांना २३ मा पट्टधर हता. सिद्धांतमां ते श्यामार्यना नामे ओळखाय छे.
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१३८]
कालिकाचार्य स्कंदिलसूरि
जैन साहित्य संशोधक
४१ वर्ष
३८
बलिरसह सूरि सािं ( स्वाति ) सामज्जो ( श्यामार्य ) संडिलो ( शांडिल्य ) जियधरो ( जित - धर ) अज्ञसमुद्दो ( आर्य समुद्र ) मंगू ( मंगु ) मंडिल्लो ( मंडल ) नागत्थि ( नागहस्ती ) देवढी
४१४
आ आप्या पछी मेरुतुंगाचार्य वृद्धसंप्रदाय एटले प्राचीन परंपरागत कथनो नोंधे छे. स्थूलभद्रा आर्यमहागिरि आर्यसुहस्ति नामे वे शिष्यो हता.
आर्यमहागिरि शाखा ते मुख्य शाखा छे अने ते स्थविरावालीमां नीचे प्रमाणे आपवामां
आवी छे:
"
वर्ष
रेवसिंहो
खंडलो
हिमवं
आ देवर्धी ते वीरथी २७ मा पट्टधर हता. थई जाय, तेटला माटे लखाव्यो.
नागज्जुणो गोविंदो भूयदिनो
लोहित्यो
दूसमणि
भद्रगुप्त श्रीगुप्त श्रीवज्र
( रेवतिसिंह ) (स्कंदिल ) ( हिमवान् )
( नागार्जुन )
( गोविन्द )
( भूतदिन )
( लौहित्य )
कल्पसूत्रमां आपेली बीजी शाखा नीचे प्रमाणे छे:
अज्जसुहात्थ ( आर्यसुहस्ति ) ( सुस्थित )
सुट्ठिय इंददिनो अज्जदिनो सिंहगिरि ( सिंहगिरि )
( इन्द्रदिन्न ) आर्यदिन )
( दुष्यगण )
( देवर्धिन् )
तेमणे संपूर्ण सिद्धान्त, रखेने ते नष्ट
वरसामी ( वज्रस्वामी )
सोपारग वहरसेनेो ( सौपारक वज्रसेन )
३९ वर्ष
"
१५ ३६ "
[ खंड २
परंतु आ शाखाओमा आर्यसुहस्तिनी पछी गुणसुंदरनुं नाम आवतुं नथी; तेमज श्यामान पछी स्कंदिलाचार्यनुं नाम पण नथी. परंतु मेरुतुंगे पुरातन यादीओमां तेओना नामनो निर्देश थलो जोवाथी अहीं पण तेमणे ते नामो वचमां मूकी देवानी हिंमत करी छे. आवी ज बाबत रेवतिमित्रना संबंधमां जाणवानी छे. स्कांदल पछी ३६ वर्षे रेवतिमित्र थया हता. ( अने तेमना पछी ), आर्य मंगु २० वर्षे एटले आ काळ ते वीरनिर्वाण पछी ४७० वर्षो काळ थयो. ( वीरनिर्वाणथी ) ४५३ वर्ष थयां पछी कालिकसूरि जेमणे गर्दभिल्लनो विनाश कर्यो हतो तेओ थया. तेमना पछी २४ वर्षे आर्यधर्म थया केटलाकनुं एम मानवु छे के मंगु अने धर्म ए बने एकज व्यक्तिनां नामो छे. तेओना मते आर्यधर्मनो काल ४४ वर्षनो बने छे.
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अंक २] मेरुतुंगाचार्यनी स्थविरावली
[ १३९ आ समय वीरनिर्वाण पछी ५८४ वर्षनो छे. तदनंतर श्री आर्यरक्षित १३ वर्ष. पुष्यमित्र २० वर्ष पट्टधर रह्या. आमणे यथार्थ रीते सूत्रार्थनो बोध कराव्यो हतो. आ प्रमाणे आपणे वी. रथी ६१७ मा वर्षमां आवीए होए. आ समये शक संवत्सरनी शरुआत थई. दोषयुक्त छे अने उल्लिखित गाथा मेळववानी जरुर छे.)
साधारण रीते नीचे लखेल कथन उपलब्ध थाय छ:--
अगाउ (प्राचीन समयमां) चंद्रगुप्त राजाना समयमां बार वर्षनो दुष्काळ पडवाथी उत्कृष्टलब्धि (उत्कृष्ट ज्ञानना ग्रंथो) अने बीजा हजारो प्रकीर्णको नष्ट थयां. बहलस्स अने बलिस्सह आ बंने एकज व्यक्तिनां नामो हतां. स्थविरावलीमां आर्य मंगुनी पछी भिन्नशाखामां उत्पन्न थएला एवा आर्यधर्म, भद्रगुप्त, वज्रस्वामी अने आर्यरक्षितनां नामो मुकेलां छे. अने आम वानं कारण एटलंज हतं के ते व्याक्तिओ नामांकित या प्रधानपुरुष हता. रेवतिसिंह सूरि ते बह्मद्वीपकथी भिन्न छे. त्यारपछी वज्रस्वामीना समयमां फरीथी १२ वर्षनो दुष्काळ पडवाथी सिद्धान्तनुं व्याख्यान बंध थयु. परंतु ज्यारे फरी आबादो थई त्यारे स्कंदिलाचार्ये मथुरामां संघने एकठो करी फरीथी सिद्धान्तनो वाचनानो आरंभ कर्यो. अने आ वर्णन "जेसि इमो अणुओगो" थी शरु थती गाथा अनुसार मानवामां आवे छ.
बीजी शाखामां, आर्यसुहस्तिना १२ अंतेवासीओमांना सुस्थित नामे पांचमा अंतेवासी हता. तेमनी द्वारा कोटिकगणनी उत्पत्ति थई. अने कल्पसूत्रमा एम जणावलं छे के एलावत्य गोत्रना आर्यमहागिरिने उत्तरथेरो नामना प्रथम अने षडुलुक उर्फे रोहगुप्त जे आठमा अंतेवासी हता तेओना उपरांत आठ शिष्यो हता. छेल्ला अंतेवासी षडुलुक उर्फे रोहगुप्तद्वारा कल्पसूत्रमा जणाव्या प्रमाणे त्रैराशिक शाखानो प्रादुर्भाव थयो.
आवश्यकसूत्रमा भिन्नभिन्न निन्हवोनो समय नांचे प्रमाणे आपेलो छ:प्रथम निह्नव ( जमालि ) वीर प्रभुने केवळ ज्ञान थया पछी १४ मे दिवसे (? वर्षे) थयो.
बीजो (तिष्यगुप्त) १६ वर्षे बीजो ( अव्यक्त) २१४ , चोथो ( समुच्छोदिक) २२० , पांचमो (गंग)
२२८ , छटो (रोहगुप्त त्रैराशिक) ५४४ ,, सातमो ( गोष्ठा माहिल) ५८४ ,
आठमो (दिगंबर पंथ) ६०९ ,, हवे विचारो के षडलुक रोहगुप्त आर्यमहागिरिनो शिष्य होय तो ते समये वीर पछी ५४४ वर्षो केवी रीते व्यतीत थयां होय ? आर्यमहागिरि ए स्थूलभद्रना शिष्य हता. अने स्थूलभद्र उपर समजाव्या प्रमाणे वीरनिर्वाण पछी २४५ वर्षे उत्पन्न थया हता. आथी ( आर्यमहागिरिना ) अंतेवासीने वीर पछी ५४४ मा वर्षमा मूकी शकाय ज नहि.
आ संदेहनिराकरण माटे बहुश्रुत विद्वानो ज प्रमाण छे. आज प्रमाणे बार वर्षना दुष्काळना अंते वज्रस्वामीए पोताना वज्रसेन नामना शिष्यने जाहेर कर्यु हतुं के--'ज्यारे तमने एक लाख रूपीआनी किंमतनुं भोजन मळे त्यारे तमारे हवे लोकमां समृद्धि (अथवा रेलचेल) थशे एम समजवू' एम कहीने एने संदेशो आपी मोकल्यो, ते शिष्य सोपारगमां वसता जिनदत्त नामना श्रेष्ठि (व्यापारी) ने त्यां गयो. तेनी ईश्वरी नामनी पत्नीए तेने झेर भेळव्या विना
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१४०]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड
एक लाख रुपीआनी किंमतनुं भोजन अर्पण कर्यु.* अने शिष्ये तेमने कडं के आवती काले समृद्धि थशे--अने पछी ते त्यां सुखपूर्वक रह्यो. पछीथी तेने इन्द्र, चन्द्र अने विद्याधर नामना शिष्यो प्राप्त थया हता. ____ एक सो शाखावाळा वड अगर पिंपळाना झाडनी माफक चंद्रकुल, आज सुधी कीर्तिमंत वर्ते छे अने तेना संबंधमां नचिनी एक गाथा पण प्रचलित छः--
"कोडि गणो गणो मे, वइर साहा साहा मे चन्दकुलं कुलं मे." "गणोमां कोटी गण, शाखाओमां वज्रशाखा अने कुलोमा चन्द्र कुल (श्रेष्ठ) छे." भृगुक्षेत्रमा आर्य खपुटाचार्य अने सिद्धसेन प्रभावक (थया). वळी, वज्रस्वामी पछी वज्रसेन थया हता ३३ वर्ष.
नागहस्ति रेवतिमित्र ब्रह्मद्वीपक सिंह
२३९ त्यार पछी स्कंदिल, हिमवत्सूरि अने नागार्जुन ७८ वर्ष.
आ ७८ वर्षमांना २२ वर्ष ज्यारे व्यतीत थयां त्यारे वलभिनो नाश थयो. तेना माटे एवो उल्लेख छ के-"पण सयरी वाससाई तिणि सयाई अइक्कमेउण, विक्कमकालाउ तओ वलही-भंगो समुप्पण्णो." --विक्रमकाल पछी ३७५ वर्ष व्यतीत थयां पछो वलभिनो भंग थयो.
विक्रम पछी वज्रस्वामी ११४ वर्षे थया.
वज्रखामी पछी स्कंदिल २३९ वर्षे थया. तेना पछी २२ वर्षे वलभिभंग थयो अने एम एकंदर ३६५ वर्षों थयां तेज रीते, विक्रम पछी ५१० वर्षे, अने वीरनिर्वाण पछी ९८० वर्षे देवर्धिगणीए सिद्धान्त लखाव्यो. अने ते वखते कल्पसूत्रमा तेमणे लख्यु के--“श्रमण भगवान महावीरना निर्माण पछी ९०० वर्षो पसार थयां पछी १० मां सैकाना ८० मा वर्षमां आ ग्रंथ रचायो हतो.'
आना पछी १३ वर्षे (कालकसूरिए) शुक्ल चोथने दिवसे पर्युषणापर्व उजव्यु, अने आ बाबत (उल्लिखित गाथामां) वर्णवेली छे. १०५५ मा वर्षमा (उल्लिखित ) गाथामां जणाव्या मुजब, हरिभद्रसूरिनुं मरण (थयुं). पछी जिनभद्रक्षमाश्रमण
६५ वर्षे थया. " पुष्यमित्र
६० , , , स्वातिसूरि जेमणे शुक्ल चौदशने दिवसे पाक्षिक प्रतिक्रमणनी स्थापना करी हती. (उल्लिखित गाथा) केटलाक ग्रंथोमां पुष्पमित्रने स्वातिसूरिनी पछी मुक्या छे, परंतु आम कर ( उल्लिखित) गाथाथी विरुद्ध छे. मुख ग्रंथ (जे अनुक्त या अनिर्दिष्ट छे परंतु जेमां गाथा आपेली) मा एम कहेलुं छे के तेमणे वीर पछी १३०० वर्षे सूरिपद मेळव्यु हतुं. परंतु आना संबंधमां बहुश्रुत पुरुषोए तपास करवानी जरुर छे, कारण के तेमां एम जणावेलुं छे के स्वाति (सूरि) पछी संभूतिविजय थया हता. पचाश वर्ष माढर, ६० वर्ष संभूतिगुप्त अने बप्पभट्टसूरि; परंतु आ विषयमा उत्तम प्रमाण मात्र संप्रदाय ज छे.
* ग्रंथकार आ प्थळे एम सूचवे छे के श्रेष्टिनी स्त्रीनो इरादो, दुष्काळपीडीत कुटुंबिओने झेरमिश्रित भोजन आपी अनिवार्य चिरंतन पीडामांथी मुक्त करवा माटे एकी वखते मारी नाखवानो हतो.
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अंक २] मेरुतुंगाचार्यनी स्थविरावली
[१४१ वीरनिर्वाण पछी १६३९ वर्षे अने विक्रम पछी ११६९ वर्षे श्री विधिपक्ष मुख्याभिधान, आर्यरक्षितसूरिए अंचल गच्छ स्थाप्यो. ___ वीरनो शिष्य श्रेणिक हतो. तेनो पुत्र कूणिक. तेनो पुत्र उदायी तेना पछी पाटलिपुत्रमा नव नंदोए राज्य कर्यु. चाणाक्ये तेओने हांकी काढी चंद्रगुप्तने राज्यभिषिक्त को. तेना पुत्रनुं नाम बिंदुसार हतुं. तेना पुत्रनुं नाम अशोक श्री अने तेनो अंध पुत्र कुणाल हतो. एना पुत्र संप्रति राजाए उज्जयिनीमां राज्य कर्यु हतुं. आनो वंशज गईभिल्ल हतो. ए राजानो शक राजाए नाश कर्यो. गईभिल्लना पुत्र विक्रमादित्ये शक राजाने नसाडी उज्जयिनीनी गादी उपर पोते बेठो. तेणे वीरना मोक्ष पछी ४७० वर्षे संवत्सरयुग स्थाप्यो. त्यारबाद संवत ८२१ ना वैशाख सुद २ ने सोमवारे चावडा वंश (चाउडा अगर चावरा वंश) ना वनराजे अणहिल्लपुर वसाव्युं. तेणे पोते ६० वर्ष कुल राज्य कर्यु. तेना पुत्र योगराजे ९ वर्ष राज्य कर्यु; पछी संवत ८९१ मां श्रीरत्नादित्ये त्रण वर्ष राज्य कर्यु. तेनी पछी वैरिसिंहे ११ वर्ष राज्य कर्य,
संवत ९०५ मां तेनो पुत्र क्षेमराज गादी उपर आव्यो अने ३९ वर्ष राज्य कर्यु. संवत ९४४ मां चामुंड राजे क्षेमराजनो उत्तराधिकारी बनी २७ वर्ष राज्य कर्यु. संवत ९७१ मां तेनो पुत्र थाघड गादी उपर आव्यो अने तेणे २७ वर्ष राज्य कर्युः
संवत ९९८ मां तेनो पुत्र भूअड गादीए आव्यो अने तेणे १७ वर्ष राज्य कर्यु. आ प्रमाणे चाउडा वंशना आठ राजाओए कुल १९.६ वर्ष राज्य कर्यु.
संवत १०१७ मां चालुक्यवंशनो श्रीमूलराज(दौहित्र)गादीए आन्यो. तेणे३५वर्ष राज्य कर्यु. संवत १०५२ मां तेनो पुत्र वल्लभराज गादीए आव्यो अने तेणे चौद वर्ष राज्य कर्यु. संवत १०६६ मां तेनो भाई दुर्लभ राज्यगादी उपर आव्यो अने तेणे १२ वर्ष राज्य कर्यु. संवत १०७८ मां तेनो भाई अने नानगिलनो पुत्र नामे भीमदेव गादीए आव्यो अने तेणे
४२ वर्ष राज्य कर्यु. संवत ११२० मां तेनो पुत्र श्रीकर्णदेव तेनो उत्तराधिकारी थयो अने तेणे ३० वर्ष
राज्य कर्यु. संवत् १९५० मां तेनो पुत्र जयसिंहदेव तेनी पछी गादी उपर आव्यो अने तेणे ४९
वर्ष राज्य कयु. संवत् ११९९ नी कार्तिक सुद ३ थी संपूर्ण त्रण (?) दिवस सुधी अराजक स्थिति (पादुका राज्य-पावडी ओनुं राज्य)
तेज वर्षना मार्गशीर्ष सुद ४ ने दिवसे भीमदेवना पुत्र क्षेमराजना पुत्र देवपालना पुत्र त्रिभुवनपालनो पुत्र कुमारपाल गादीए आव्यो अने संवत १२२९ ना पौष सुद १२ सुधी पटले ३० वर्ष, १ मास अने सात दिवस तेणे राज्य कर्यु.
तेज दिवसे तेना भाई महिपालनो पुत्र अजयपाल गादीए आव्यो.
संवत १२३२ ना फाल्गुन सुद १२ ने दिवसे अर्थात् ३ वर्ष अने २ महीना पछी लघु मूलराज गादीए आव्यो.
संवत १२३४ ना चैत्र सुद १४ ने दिवसे तेना राज्यना २ वर्ष, एक महीनो अने बे दिवस पूरा थया. अने ते दिवसे भीमदेव राजा थयो.
थेरावली समाप्त.
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१४२] जैन साहित्य संशोधक
[खंड २ (टिप्पण) त्यारबाद गजनक (घिजनाना महमुदना) राज्यनी स्थापना थई. (एक गाथानो उल्लेख कर्यो छे.) पछीथी संवत् १३०० मां श्री वीरधवलनो भाई वीसलदेव राज्य गादी उपर आव्यो.
१३१८ मां अर्जुनदेष. १३३१ मां सारंगदेव. १३३५ मां लघुकर्ण.
१३६० मा माधव नामनो एक नागर ब्राह्मण यवनोने लाग्यो. कुमारपालना प्रधान नामे बाहडे, संवत १२११ मां [शत्रुजय उपर ] एक पत्थरनुं मंदिर वंधाववामां बे करोड ९७ लाख रूपीआ (रु २,९७,००,०००) खा.
संवत १३७१ मां यवनो (मुसलमानो) तरफथी थएला त्रासने लइने, ज्यारे जावडिनी स्थापली मूर्ति नष्ट थई हती त्यारे समराके एक नवी मूर्ति स्थापित करी.
[केटलोक खुलासो.] थेरावलीना प्रारंभमां आपेलां नामो तथा तारीखो घणांज महत्वनां छे.
महावीर ए छेल्ला जैन तीर्थकर छे. बौद्धो गौतमने महावीर कहे छे. अने तेमना मुख्य अने प्रसिद्ध शिष्य तरीके महाकाश्यपर्नु नाम आपे छे. जैनो काश्यपने महावीर कहे छे अने गौतमने तेमनो मुख्य शिष्य (गणधर) बतावे छे. जैनो तथा बौद्धो बंने मगध अथवा बिहारनी राजधानी राजगृहना राजा श्रेणिक, जेने जैनो भंभासार कहे छे तथा बौद्धोना मतानुसार जे बिंबिसरो छे, तेने महावीरना मित्र तथा धर्मानुयायी तरीके एकमते जणावे छे. आ पुरुषो तथा त्यारपछीना राजाओना संबंधमां मारी समालोचना हुं बीजालेखमां करवा इच्छु छु. ते लेखमां हुं बुद्धनो काल तथा खिस्ति सन् पूर्वेनो हिंदुस्थाननो इतिहास, जेमना संबंधमां बौद्ध अने ब्राह्मणग्रंथोमांथी जडी आवती तारीखोथी जैन ग्रंथोमां आपेली तारीखो घणीज जुदी पडे छे, तेना विषयमा आलोचना करवा मारो इरादो छे.
परिशिष्ट पर्वमां हेमाचार्य उदायीना खुनना विषयनी विगतो आपली छे. थेरावली प्रथम नंदनी उत्पत्तिना विषयमां एक संक्षिप्त अने अत्युपयोगी हकीकत आपे छे. अत्यारसुधीमां प्रकाशित थएला बौद्धग्रंथोमां ते विषयमा कांई लखेलुं जोवामां आवतुं नथी. पुराणोमां तेने शूद्रथी उत्पन्न थएल जणाव्यो छे. परंतु तेनी नापित (हजाम) कुलमां उत्पत्ति विषयक जे जैन हेवाल मळे छे ते हेवाल, अलेक्झान्डरे पंजाब उपर चढाई करी ते समये पाटलिपुत्रना राजाना डिओडोरस सिक्युलस ( Diodorus Siculus ) अने क्विन्टस कार्टअसे (Quintus Curtius ) आपला हेवाल साथे जो के तद्दन एकरूप नथी छतां घणो मळतो छ. आ राजा ते, चंद्रगुप्त अगर ग्रीकोना संकोटसनो पूर्वज हतो.
प्राकृत ग्रंथोमां शको तेमज सिथिअनोने सग कहेला छे. विक्रमसंवत् अने विक्रमादित्ये करेलो शकराजाओनो पराजय आ बे बनावो समकालीन होय तेम जणाय छे. परंतु शकनृपकाल के जे शालिवाहननो युग ज छे ते शक लोकोए करेली मालवा अने दख्खण उपरनी जीतना समकालीन छे. शककाल अथवा शकोना युगने, भारतवर्षीय विद्वानो सुद्धांए केटलीक वस्त्रत पहली बाबत साथे अने केटलीक बखत बीजा बनाव साथे गोटाळो करी दीधो के, अने ते रीते तेमनी गणत्रीमा १३५ वर्षनी भूल थाय छे.
भरुचनी एक प्राचीन जैन लाइनरनिा अवशिष्टोमांथी मळी आवेल एक पट्टावलीना छुटा
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अंक २] मेरुतुंगाचार्यनी स्थविरावली
[१४३ पानामां शा कारणथी कालिकाचार्ये शक राजाओने दाखल कर्या तथा विक्रमादित्ये तेमने केवी रीते हांकी मूकी पोतानो संवत्सर स्थाप्यो ते बाबतनो खुलासो आप्या पछी नीचेनी बाबत उमेरेली छे; "विक्रम पछी १३५ वर्ष वीत्यां पछी शक लोकोए फरीथी विक्रमपुत्र (विक्रमनो पुत्र अगर वंशज ) ने हांकी काल्यो अमे तेनुं राज्य जीती लीधुं.' ___ चाउडा (चापोत्कट) वंशनी कालगणाना जे वनराजथी शरु थाय छे.ते कालगणना प्रबंधचिंतामणि तथा अन्य यादीओमां आपेली कालगणनाथी, राजाओना नाम संबंधी क्रम अने संख्या परत्वे तथा तेओना राज्यकालनी संख्या परत्वे, भिन्न पडे छे. आ उपरथी स्वाभाविक रीते एक एवो प्रश्न उभो थाय छे के थेरावलीना कर्ता मेरुतुंग ते प्रबन्धचिंतामणिना कर्ता जेमनु नाम पण मेरुतुंग छे, ते होय के नहि ?
_आ स्थळे हुं प्रबन्धचिंतामणि, जिनमण्डनोपाध्यायकृत कुमारपाल प्रबन्ध, तथा एक ननामी पट्टावली उपरथी तारवी काढेलुं एक तुलनात्मक कोष्टक नीचे रजु करुं छु:
मेरुतुंगनी प्रबन्ध- जिनमण्डनोपाध्याय- पट्टावली
चिंतामाण कृत कुमारपाल प्रबंध. (नाम वगरनी)
वनराज यागराज क्षेमराज
५५
१३
६महीना -
६ महिना
वैरिसिंह रत्नादित्य सामंतसिंह मूलराज चामुण्डराज वल्लभराज
६ महीना दुर्लभराज भीमराज ऊर्फे भीमदेव कर्णदेव
नथी आप्यु जयसिंहदेव प्रतिना दोषने लइने ४९ कुमारपाल अजयदेव उर्फे अजय
पाल मूलराज भीमदेव पादुका-राज (अराजक स्थिति) त्रिभुवनपाल वीसलदेव अजुनदेव सारंगदेव
४८-८-१० ३०-८-२७
३-११-२८
२-१-२४ ६५-२-८
....:: WWW
६ दिवस २ मास १२ दिवस
१३-७-६२ २१-८-८
* एक प्रतिमां ५२ अने बीजीमां मूलनी माफक ळे.
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१४४] जैन साहित्य संशोधक .
[ खंड २ साहित्य-समालोचन Ardha-Magadhi Reader By Banarasi Das Jain M. A..
Published by the University of the Punjab, Lahore. अर्धमागधी रीडर, ग्रन्थकार प्रो. बनारसी दास जैन, एम्. ए. ओरिएन्टल कॉलेज, लाहोर ।
बम्बई, कलकत्ता और पंजाब युनिवर्सिटीके अभ्यासक्रममे कुछ वर्षोंसे जैन साहित्यको भी स्थान मिला है और बम्बई इलाखेमें तो कुछ विद्यार्थी जैन साहित्यका आभ्यास कर एम्. ए. तक भी पहुंचे हैं। लेकिन विद्यार्थियोको और प्रोफेसरोको इस विषयमें अभी तक सबसे पहली कठिनाई तो इसी बातकी हो रही है कि पढने-पढानेके लिये वैसी कोई पुस्तके ही अभी तक तैयार नहीं हैं। कुछ वर्षोंसे जैन साधुओका प्रयत्न इस बारे में तो यथेष्ट हो रहा है कि भंडारोंमें पडे पडे सडने वाले संस्कृत प्राकृत आदि जैन ग्रन्थोको छपवा छपवा कर प्रकट कर दिये जाय । परंतु साधुओंके इस प्रयत्नकी मर्यादा बहुत ही संकुचित और कार्यकी पद्धति बहुत ही शिथिल होने के कारण, युनिवर्सिटीके विद्यार्थियोंको उसका कोई लाभ नहीं मिलता। इस लिये यह काम, जैनसाहित्यके. आभ्यासी जो थोडे बहुत स्कॉलर हैं उन्हींके द्वारा किये जानेकी आवश्यकता है।
हमें यह जान कर प्रसन्नता हुई कि श्रीयुत प्रो. बनारसी दासजीने यह अर्धमागधी रीडर तैयार कर, इस महत्त्वके कामका प्रशंसनीय प्रारंभ कर दिया है। यह रीडर, अर्धमागधी अर्थात् जैनागमोकी प्राकृत-भाषाके अभ्यासियोंको प्रावेशिक शान करानेमें अच्छी मदत दे सकेगी। इसका संकलन और संपादन उत्तम रीतिसे किया गया है। प्रारंभमें, पहले अर्धमागधीका संक्षिप्त व्याकरण दिया गया है। उसके बाद, अर्धमागधी भाषा और उसके साहित्यका परिचय कराया गया है। तदनन्तर, कुछ उपयुक्त ऐसे छपेहुए जैन ग्रन्थोकी सूचि जैन साहित्यके प्रकाशन-कार्यमें विशिष्ट योग देनेवाली कुछ व्यक्तियोंका परिचय; और अन्तमें हस्तलिखित ग्रन्थ पढनेवालों के लिये पुरानी लिपि विषयक कुछ सूचनाएं भी देदी हैं । फिर कोई ७८ पन्नोमे, विवागसुय, नायाधम्मकहा, ओववाइयसुत्त, आयारंगसुत्त, पण्हावागरण सुत्त, सूयगडंगसुत्त, उत्तरज्झयणसुत्त और दसवयालियसुत्त आदि जैन सूत्रोमेसे चुन चुन कर कितनेक मूल-पाठ दिये हैं। पाठोका चुनाव अच्छा और भाषा तथा साहित्यकी दृषिसे विशिष्ट परिचायक किया गया है। फिर इन मूल-पाठोका इंग्रजी अनुवाद और कुछ आवश्यक टिप्पणियां देकर सर्वांत महत्त्वके शब्द और नामोंकी एक सूचि भी दे दी है। इस प्रकार नवीन अभ्यासीकेलिये इस रीडरको उपयोगी बनानेमें प्रो. जैनने जो खूब परिश्रम और प्रयत्न किया है तदर्थ वे विद्यार्थियोंके धन्यवादके पात्र हैं और हम आशा करते हैं कि भाई श्री बनारसी दासजी इस विषयका अपना प्रयत्न सतत जारी रखेंगे और आगे पर हमको इससे भी अधिक महत्त्वकी कोई ऐसी पुस्तक भेट करेंगे।
प्रस्तुत रीडरकी एक हिन्दी आवृत्ति भी बनारसी दासजीने तैयार की है जो कभी शायद जैन साहित्य संशोधकके पाठकोको पढनेको मिल सकेगी। प्रकाशकः-शाह केशवलाल माणेकचंद, माननीय कार्यवाहक जै० सा० सं० कार्यालय
. . . भारत जैन विद्यालय, पूना शहर. मुद्रक:-गणेश काशिनाथ गोखले, सेक्रेटरी श्री गणेश प्रिंटिंग वर्क्स, ४९५ शनवार पेठ, पुणे शहर.
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તરંગલતી
અર્થાત ભગવાન શ્રી મહાવીરદેવના શાસનની એક સાથ્વીની
હૃદયંગમ અને આદભૂત
આત્મક્યા.
પ્રાકૃતમાં મૂળકર્તાઃ પાદલિપ્તાચાર્ય– સંપકર્તા નેમિચંદ્ર ગણિ.
– – પ્ર. લયમેનના જમના અનુવાદ ઉપરથી ગુજરાતી કરનાર નરસિંહભાઈ ઈશ્વરભાઈ પટેલ.
શાંતિનિકેતન.
પ્રકાશક બબલચંદ કેશવલાલ કે. મોદી.
હાજા પટેલની પિળ-અમદાવાદ વિક્રમ સં. ૧૯૮૦. [સર્વ હક સ્વાધીન.] સને ૧૪.
આવૃત્તિ ૧ લી. કી, રૂ. -૧ર-૦. નકલ ૧૪૦૦.
શ્રી “વીર-શાસન પ્રિન્ટીંગ પ્રેસમાં” શા. કેશવલાલ દલસુખભાઇએ છાપું
ઠે. કાળુપુર, ટંકશાળ–અમદાવાદ,
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કેશવલાલ પ્રેમચંદ મેદી (પ્લીડર) ની પુત્રી (મોહનલાલ પિટલાલ ડોકટર (કીડર) ની પત્ની)
માણેક -
જન્મ સંવત ૧૯૬૨ ના કારતક સુદ ૧૨, બુધવાર તા. ૮ નવેમ્બર સને ૧૯૦૫
દેહત્યાગ સં. ૧૯૭૯ ના માગસર વદ ૧૩ શનીવાર તા. ૧૬ ડિસેમ્બર સને ૧૯૨૨
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અણુ પત્રિકા.
મ્હારી વ્હાલી ભગિની !
પૂર્વ સંચિતની કૃપા વિના આવી એન કયાંથી મળે? ડાહી અને વિવેકી તા ઘણીય બહેના હાય, પણ આવી કુટુંબવત્સલ અને સત્કર્મ માં આમ ધાર્યું કરનારી તે તેા દુર્લભ જ. માણેક ! ત્હારા મનોરથ ઉમદા અને પરાપકારી; એ મનેરથ પાર પાડવામાં ત્હારા આગ્રહ અને ત્હારૂં બળ અમને સાને હરાવે છે! તું સારૂં કરનારી, તુ ત્હારા ગુણથી, બુદ્ધિથી અને કમથી સાને જીતનારી ! તે અમારામાં જન્મ, માટેજ મા ભાગ્યેાદય છે. ધન, વૈભવ કે રાજ્યસત્તા કરતાં તારા જેવા રત્નના સહવાસીને કેમ અભિમાન ના ચડવુ જોઇએ? છતાંય તારા સહવાસ કેટલા ટુ. સુવાસવાળુ ઉ
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ત્તમ કમલ ખીલતાં પહેલાંજ કરમાઇ જાય તે દેખી કાને શાક ના થાય? એમ છતાંય રોક કર્યું શું વળે એમ માની ત્હારા સ્મરણાર્થે તારા જેવીજ સુંદર, પ્રેમાળ અને ગુણવાન નાચિકાવાળી મહાન્ કથા, સમયના ગાઢતિમિરમાંથી બહાર પ્રકાશમાં લાવવા પ્રયત્ન કરવા તે ઉત્પન્ન થતાં શાકને ભુલવવાના એક સરલ મા છે એમ માનીનેજ આ પુસ્તક હારા
સ્મરણાર્થે અર્પણ કરૂ છું.
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નખર
અર્પણ્ પત્રિકા
વિષયાનુક્રમ.
૩–૧૧ સાધ્વીની આત્મકથા
વિષય.
વિષયાનુક્રમ
પ્રકાશકના બે બેાલ....
પ્રો. લાયમેનની પ્રસ્તાવના
૧ મંગલ અને પૂર્વચન ભૂમિકા–સાધ્વીનું ભિક્ષા લેવા જવું
ર
૩ સાધ્વીની પૂર્વકથાને પ્રારંભ
૪ પૂર્વજન્મના વૃત્તાંત
....
૫ કામના, સાધના અને સિદ્ધિ.
૬ અહીં તહીં
७ પલાયન
૮ લૂટારાને હાથે પકડાવું
૯
ઘેર આવવું
૧૦ લૂટારાનું સાધુ થવું
૧૧
ત્યાગ અને સાધના
૧૨ પ્રશસ્તિ
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પ્રકાશકના બે બોલ.
_ પાદલિતાચાર્યનું નામ જૈન સાહિત્યમાં સુપ્રસિદ્ધ છે. પ્રભાવક ચરિત્ર, પ્રબંધચિંતામણિ આદિ અનેક ગ્રંથમાં એમના સંબંધમાં કેટલું લખેલું મળી આવે છે. . સૌરાષ્ટ્રના સુપ્રસિદ્ધ જૈનતીર્થ શત્રુંજયગિરિની પવિત્ર તળાટીમાં વસેલું પાલીતાણા નામનું પાટનગર એ જ આચાર્યના નામનું અતિ પ્રાચીન સ્મરણસ્થાન છે એમ ઘણી જુની જેને માન્યતા છે. પ્રભાવક અને ચમત્કારી પુરુષ તરીકેની ચિરપ્રચલિત ખ્યાતિ કરતાં યે પંડિતગણમાં પ્રકૃષ્ટ પ્રતિભાશાલી પુરૂષ તરીકેની કીતિ એમની ઘણી જૂની છે. જે રસપૂર્ણ કથા વાચકેના હાથમાં છે તેના મૂળ કર્તા એ જ આચાર્ય હતા. એક કાળ-ઘણું જૂના સૈકાઓમાં જ્યારે સંસ્કૃત ભાષાની સર્વશ્રેષ્ઠ ગદ્ય કાવ્ય અને કથાના કર્તા ભટ્ટ ભાણુને જન્મ યે થયા ન હતા ત્યારે પાદલિતાચાર્યની તાતી કથા સહૃદય વિકાનેના સુકુમાર મનને ગંગાના કલ્લે ની માફક નચાવ્યા કરતી હતી. સંસ્કૃત વાસવદત્તા અને પ્રાકૃત તરંગવતી એ બંને કથાઓ સેંકડે વર્ષો સુધી ભારતીય સરસ્વતી દેવીની કર્ણ—કલિકાઓ મનાતી હતી. જૈન આગમ સાહિત્યના દ્વિતીય યુગના મૂળ સૂત્રધાર વિદ્યમાન જૈન વાભયને અમર સ્વરૂપ આપનાર યુગપ્રવર જિનભદ્રગણિક્ષમાશ્રમણે પોતાના આવશ્યક મહાભાષ્યમાં (જુએ ગાથા ૧૫૦૮) તરંગવતીને નામનિર્દેશ કર્યો છે અને તેનું જ પુનરુચ્ચારણ આચાર્યવર્ય હરિભદ્દે પિતાની આવશ્યક ટીકામાં કર્યું છે. હરિભદ્રના શિષ્ય અને કુવલયમાલા કથાના કર્તા દાક્ષિણ્યચિ ઉદ્યોતન સૂરિએ (શક સંવત ૭૦૦, વિક્રમ સંવત્ ૮૩૫) પિતાની કથાના પ્રારંભમાં પાદલિપ્તાચાય ની પ્રતિભાની પ્રશંસા સૂચવતા ત્રણ કે લખ્યા છે. તેમાં તમારી માટે લખ્યું છે કે –
चक्काय जुवल सहिया रम्मत्तण-रायहंस-कयहरिसा।
जस्स कुलप्पन्चयस्स व वियरइ गंगा तरंगमई ॥ મહાકવિ ભટ્ટમાણુને વિધિએ અર્જેલા અદ્વિતીયતાના આસનથી ઉતારી પાડ નાર સિદ્ધ સારસ્વત કવીશ્વર ધનપાળે પણ પિતાની તિરાખંજરની પીઠિકામાં પાદ. લિસની રતુતિ કરતાં લખ્યું છે કે – . प्रसन्नगम्भीरपया रथाङ्गमिथुनाश्रया।
पुण्या पुनाति गङ्गेव गां तरङ्गवती कथा ॥ શુપાલન જર્જ નામે પ્રાકૃત ભાષામાં એક ઉત્તમ ચરિત્ર રચનાર લક્ષમણ ગણિએ ( વિ. સં. ૧૧૯), એ ચરિત્રની પ્રસ્તાવનામાં પૂર્વ કવિઓનાં ગુણગાન કરતાં તરંગવતીનું ગૌરવ આ પ્રમાણે ગાયું છે
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તરગતી को न जणो हरिसिज्जइ तरंगवइ-वइयरं सुणेऊण । - इयरे पबंध-सिंधू वि पाविया जीए महुरतं ।।
પ્રભાવક ચરિત્રના કર્તાએ પાલિતાચાર્યનું મૃત્યુ સાંભળી કેઈ કવિએ કાઢેલા દુખેગારનિદર્શક એક પ્રાચીન પ્રાકૃત ગાથા સંગ્રહી રાખી છે જેમાં જણાવ્યું છે કે –
सीसं कह वि न फुटुं जमस्स पालित्तयं हरंतस्स। .
जस्स मुहनिज्झराओ तरंगलोला नई बूढा ॥ પાદલિપ્તાચાર્યની તે મૂળ કૃતિ આજે કયાંયે ઉપલબ્ધ નથી. ઘણા જૂના ભંડારેમાં અને તેવી જૂની ટીપમાં પણ આ કથાને ઉલેખ મળી આવતા નથી. આથી જણાય છે કે એ મૂળ કથા ઘણા જૂના સમયમાં નષ્ટપ્રાય થએલી હેવી જોઈએ.
- જે કૃતિને આધારે પ્રસ્તુત અનુવાદ તૈયાર કરવામાં આવે છે તે એક મૂળ કથાના સારરૂપે પાછળથી રચાયેલ સંક્ષેપ છે, અને આ વાત પહેલા જ પાના ઉપરના બીજા પેરેગ્રાફમાં સ્પષ્ટ જણાવેલી છે. આ સારના કતાં હાઈયપુરીય ગચ્છમાં થએલા આચાર્ય વિરભદ્રના શિષ્ય મિચંદ્રગણિ છે, એમ છેવટે આપેલી ગાથા ઉપરથી જણાય છે. એ ગાથા આ પ્રમાણે –
हाईयपुरीयगच्छे मुरी जो वीरभद्दनामेति ।
तस्स सीसस्स लिहिया जसेणा गणिनेमिचंदस्स (2)॥ આ હાઈપુરીય ગ૭ અને તેમાં થએલા આચાર્ય વીરભદ્ર તથા તેમના શિષ્ય નેમિચંદ્ર વિગેરેના સમય ઈત્યાદિના સંબંધમાં હજી કાંઇ વિશેષ જાગૃવામાં આવ્યું નથી, આખો ગ્રંથ પ્રાયઃ ૧૬૪૪ પ્રાકૃત આર્યામાં રચેલે છે.
મૂળ કથા ગદ્યપઘ ઉભયમાં હશે એમ જણાય છે અને તેની ભાષા પ્રાચીન અપભ્રંશ હશે. ઉપર જે મૂળ કથાની પ્રશંસા જણાવનારા પ ટાંકેલાં છે તે ઉપરથી તેનું મહત્ત્વ સહેજે જાણી શકાય તેમ છે. વિદ્વાનું શેધકો અને મુનિએ આ બાબત લક્ષ્ય રાખે અને જૂના પુરાણ ભંડારેમાંથી જે મૂળ ગ્રંથ મળી આવે તે જૈન કથાસાહિત્યની કીતિ દિગંત પર્યંત ઝળકી ઉઠે તેમ છે.
આ ગ્રંથની એક મૂળ પ્રતિ, અમદાવાદમાં, ફતાસાની પિળમાં હરકોર શેઠણીના નામથી ઓળખાતી હવેલીમાંના બેન શ્રીચંચળબાઈ–શેઠ ઉમાભાઈ હઠીસિંગના ધર્મપત્ની—તરફથી મળી આવી હતી, અને એક બીજી પ્રત પાલીતાણાના આણંદજી કલ્યાણજીના ભંડારમાંથી મળેલી છે. - આમાંની એક પ્રતિ જર્મનીના પ્રસિદ્ધ વિદ્વાન પ્રિ. યાત્રીને, શ. રા. કેશવલાલ છે. મોદીએ મોકલેલી, અને તેમણે તે પ્રતિ પિતાના મિત્ર છે. લૈંયમાનને આપી. છે. લાયમાનને એ ગ્રંથ અતિશય રસદાયક જણાયાથી તેમણે પ્રથમ આખા ગ્રંથની પિતાના
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પ્રકાશના એ એલ.
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હાથે નકલ કરી અને પાશુદ્ધિ કરવાના પ્રારંભ કર્યો. એ પછી તેની અર્થ સકલના કરતાં દરમ્યાન મૂળ પાઠ કેટલાક ઠેકાણે વધારે અશુદ્ધ અને યાંક ખડિત જેવા જણાયાથી ખીજી પ્રતિ મેળવવા માટે તેમણે રા. રા. મેઢી સાથે પત્ર વ્યવહાર શરૂ કર્યાં. એમ કરવામાં ઘણા સમય જશે એમ જણાયાથી, વચ્ચે તેમણે આખા ગ્રંથના જર્મન ભાષામાં ઉત્તમ અનુવાદ કરી તેને છપાવીને પ્રસિદ્ધ કરી દીધે. ૐ. લાયમેનને એ અનુવાદ ઘણા સરસ અને કાવ્યમરી ભાષામાં થએઢે હોવાથી તેમજ મૂળ કથાની વસ્તુ પણ એક ભાવપૂર્ણ ભારતીય આદર્શ હોવાથી યુરેપમાં તેના તરફ સારૂ લક્ષ્ય ખેંચાયું છે અને બીજી યુરેાપીય ભાષાએમાં પણ તેનાં ભાષાંતર થવા લાગ્યં છે, અમારી પાસે એ જર્મન અનુવાદ આવતાં અમને પણ એનુ' ગુજરાતી ભાષાંતર પ્રકટ કરવાની ઇચ્છા થઈ. પણ તે પૂર્વે જ શાન્તિનિકેતનમાં રહેતા શ્રીયુત નરસિંહભાઈ ઈશ્વરભાઈ પટેલને હાથ જર્મન ભાષાન્તર આવવાથી ગુજરાતી ભાષાન્તર કર્યું. અને તેને પુરાતત્ત્વ મંદિરના આચાર્ય શ્રી જિનવિજયજી મહારાજે મહેનત લઈ, પાલીતાણાવાળી મૂળની પ્રતિની સાથે સરખાવી શેાધી આપ્યું છે.
આ સાથે પાદલિપ્તાચાર્યના સમય વિગેરેના વિચાર સળધમાં એક વિસ્તૃત નિષધ લખી આપવા માટે મુનિશ્રી જિનવિજયજી ને નિવેદન કરતાં તેમણે તેમ કરી આપવાની ઈચ્છા દર્શાવી હતી, પરંતુ સમયાભાવે અદ્યાપિ તેએશ્રી તે લખો ન શક્યા તેથી, હાલ તુરત તે અમે આ સંબંધમાં આટલું જ નિવેદન કરી સતાષ માનીએ છીએ.
ડો. લાયમાન મૂળ ગ્રંથ તૈયાર કરી રહ્યા છે અને તે થાડાજ દિવસમાં પૂર્ણ કરી શકવાનું જણાવે છે. એ મૂળ ગ્રંથ પ્રસિદ્ધ થવાને પ્રસંગે આ સધમાં સ્તર ઐતિહાસિક હકીકત વાચકોને જોવા મળશે એવી આશા રહે છે.
વિ
આ ખાખત માટે અમે શ્રીયુત નરસિંહભાઇ તથા શ્રી જિનવિજયજી ના અત્યંત આભારી છીએ.
તેમજ કેટલાંક પ્રુફે વિગેરે જોવામાં અને ઉપયેગી સૂચનાઓ આપવામાં સાક્ષરવર્યં રા. ખ. શ્રીયુત રમણુભાઈ મહિપતરામ નીલકંઠ, બી, એ.એક્.એ. ખી, તથા શેઠ વર્ધમાન સ્વરૂપ? જે પરિશ્રમ લોધા છે તે બદલ તેમને પણ અમે અંતઃકરણપૂર્વક આભાર માનીએ છીએ.
અમદાવાદ હાજાપટેલની પેળ.
એપ્રીલ ૧૯૨૪.
Aho! Shrutgyanam
લી.
પ્રકાશક.
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- લયમેનની જર્મન પ્રસ્તાવના ગુજરાતી અનુવાદ,
સાધ્વી
અર્થાત પ્રાચીન ભારતની એક નવીન કથા.
હું આ જે કથા રજુ કરું છું તે ખરેખર એક નવીન કથા છે. કારણ કે ભારતવાસીઓ સિવાય બહારના કોઈએ અદ્યાપિ એ વાંચી નથી, અને જે ભારતમાં એકવાર એ લોકપ્રિય થઈ પડી હતી, ખુદ તે ભારતમાં પણ અત્યારે એને કોઈ જાણતું નથી. આ કથા પ્રાચીન ભારતનું દાન છે, પણ વાંચીને એને વાચક ક્યા કાળમાં મુકશે એ હું ચોક્કસ રીતે જાણતો નથી. ટૂંકામાં એટલું જ કહેવાનું કે એમાં વર્ણવેલા ધાર્મિક સિદ્ધાન્તો બૌદ્ધ કાળમાં પ્રક્ટ થયા છે, તેથી કથા ક્રાઈસ્ટના પછીના કાળમાં એટલે કે બીજી કે ત્રીજી સદીમાં લખાઈ હોવી જોઈએ.
કાળનિર્ણય ચોક્કસ રીતે વાચક જાણશે ત્યારે વખતે ફરીવાર એને ભ્રમ ઉડી જશે. મથાળે મેં કથાકાર પાદલિપ્તનું નામ આપ્યું નથી. વળી પુસ્તકનું નામ એમણે જે આપ્યું છે તે પણ લીધું નથી. પોતાની કથા કહેનાર સાધ્વીના નામ ઉપરથી એમણે ‘તરંગવતી’ નામ રાખ્યું છે. આમ લેખકના અને સ્થાના મૂળ નામને મેં શામાટે વિસારી મુક્યાં છે ? મારે એ વિસારી મૂકવાં પડયાં છે, કારણ કે એ નામવાળી એમની મૂળ કૃતિ ખરી રીતે તે બહુ કાળથી નાશ પામી છે. એમાંના વસ્તુ ઉપરથી આશરે એક હજાર વર્ષ પછી “તરંગલેલા” એવા નવા નામથી તેનું એક નવું સંસ્કરણ થયું હતું, એ હજી સચવાઈ રહ્યું છે, અને તેના જ ઉપરથી આ અનુવાદ થયો છે.
મેં આપેલા નામ પ્રમાણે તેના સમયનિર્ણયની જે લોકોએ આશાઓ રાખી હશે તે આશાઓ તો મારે ઢીલી કરી નાખવી પડે છે, પણ એટલું તો હું નક્કી માનું છું કે એ બધું છતાં આપણું આ પુસ્તક દરેક સાહિત્યભક્તને અને દરેક ધર્મશાધકને બહુ ઉપયોગી થઈ પડશે. માનસશાસ્ત્રીને પણ ઉપયોગી થઈ પડશે; અને એ આશ્ચર્ય સહિત જોઈ શકશે કે પુનર્જન્મનો સિદ્ધાન્ત કેવી પ્રબળતાથી ભાવનામય પ્રદેશ ઉપર અસર કરીને ઠેઠ વસ્તુસ્થિતિમાં આવી કરે છે અને શ્રદ્ધાના સામાન્ય મતો પેઠે એ મત પણ વ્યવસ્થિત રીતે પ્રવર્તે છે. વૈદ્ય સુદ્ધાંને પણ એમાંથી ત્રિદોષ વિષે વાંચવાનો આનંદ મળશે.-એક ત્રિદોષ એ પણ જણાશે કે જે કથાનાયિકાને જ નહિ. પણ સુધરેલા સમસ્ત સંસારને અને એ કથાકાર સુદ્ધાને લાગે છે.–વળી આપણી કથામાં પુનર્જન્મની ભાવના અવરોધભાવે પ્રકટ થાય છે, કારણ કે આપણે માત્ર કોઈ કઈ વાર સાંભળેલી એવી પ્રકૃતિ જીવનની સાચી કથાઓ પણ એમાં આવે છે. પ્રેમના (Brehm) પ્રાણજીવ વિષેના લેખો વાંચીશું તો આખા એશિયામાં અને બીજે પણ પિતાના સ્નેહને માટે પ્રખ્યાત થયેલા ચક્રવાક જાતિના પંખી માટે નીચે પ્રમાણે જાણી શકીશું (ત્રીજી આવૃત્તિ, ૧૮૯૦-૧૮૯૨, ભાગ ૬, પૃષ્ઠ ૬૨૪):
તુર્કસ્તાનમાં અમારામાંના એક જણે એક જોડામાંની માદાને ગોળી મારીને તેની પાંખ
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સંયમિનની પ્રસ્તાવના
IX
તોડી નાખી અને તેના ગભરાયેલા નરના દેખતાં તેને પકડી. એ નર ઉડી તે ગયો, પણ ત્યાંથી દૂર ગયો નહિ; અને બીજા કોઈપણ ચક્રવાકે કર્યું હોત એમ એણે પણ કર્યું કે એ વેદનામય સ્થિતિ માટે કલ્પાન્ત કરી કરીને ચારે બાજુ ગોળ ઉડવા માંડ્યું, છ અવાજ કર્યા પણ એ ત્યાંથી ગયો નહિ અને પોતાની પ્રિયાને માટે અંતે એણે પ્રાણ આપો.”
આ ભારતી કવિએ લખ્યું છે એ જાણે ઉપર જણાવ્યા પ્રમાણેના જીવનનો આધાર લઈને પુનર્જન્મને મત પ્રતિપાદન કરવા માટે પ્રકૃતિની કવિતા ના લખી હોય ! આત્મા માત્ર માણએમાં જ અવતરે છે એવા ખ્રિસ્તિ મતને લીધે, બીજાં પ્રાણીમાં આત્મા નથી એવી માન્યતાઓ, પ્રાણીના આત્મા પ્રત્યેની આપણી લાગણીઓ મરી ગઈ છે, અને તેથી સાધારણ રીતે આપણામાં આવા આત્મભાવ-સમાનવાળી પ્રકૃતિની કવિતા કુરતી જ નથી. પણ એમાં કોઈ સંદેહ નથી કે ભારતમાં એ કવિતા વિકસેલી છે અને તે મનુષ્યના અને પ્રાણીના આત્માને સ્નેહસંબંધે જોડે છે. ભારતના આ વિચારોને રૂપાન્તર કરીને ઓવિડે ( Ovid) અને તેના સમયના ગ્રીક વિચારકાએ લીધા હતા.
એ લાગણી અને પ્રેમે વર્ણવી છે એ અવલોકન માટેની સ્થિતિ જોઈને આપણે આગળ ચાલીએ તો જણાશે કે આપણું કથાકારને ભારતના આદિકવિ વાલ્મીકિ સાથે પણ સંબંધ છે એમ જણાશે. એ કવિએ, જે એક પક્ષીના જીવનસાથીને એક પારધીએ મારી નાખ્યો તે પક્ષીને માટે, બહુ સુંદર કેમાં ખેદ કર્યો છે. આપણી કથાના વણાટમાં ભારતની ભાવનાને, અરે એશિયાની ભાવનાને અને એથીય વિશાળ ભાવનાને હાથ ફર્યો છે.
આ કથાનું વસ્તુ અને એમાં જે કંઈ બીજી ખાસ ખુબીઓ છે તેથી યુરોપમાં એ લોકપ્રિય થશે, એટલું જ નહિ પણ એમાં રહેલી કવિની તેજસ્વિતા તથા સરળતા પણ પ્રકટ થશે. ભારતના કથાત્મક સાહિત્યમાંથી જે કંઈ આપણને મળે છે તેમાંનું ઘણુંખરું આ કથામાં છે. કારણ કે મહાકાવ્યના નીરસ વિસ્તારની અને લઘુ કાવ્યના સરસ અર્કની વચ્ચેનો સુખી મધ્ય માર્ગ ભારતના સાહિત્યમાં ભાગ્યે જ હોય છે.
છતાં યે, આ કાવ્યમાં આવી ભારતીય અને સાર્વદેશિક મહત્તાઓ છતાં, પ્રશ્ન થાય છે કે, મૂળ કથાને નાશ પામવાનું શું કારણ હશે ? નવા સંસ્કરણને લેખક પિતાના પૂર્વ કથનમાં લખે છે, કેઃ “અનેક કારણોને લીધે એ મૂળ કથા, આજે સમજવી કઠણું થઈ પડી છે.” તેથી એને ભવિષ્યમાં કાયમ કરવાને માટે આ જાતના જીવતા રૂપમાં પાછી આવી પડી. તેવી જ રીતે અનુવાદ કરીને આજે હું પણ એને નવું સ્વરૂપ આપું છું જેથી યુરોપમાં એ વાંચી શકાય.
મૂળ કથા તો સમજવી કઠણ છે. પણ આ અનુવાદ પણ સમજવો કઠણ પડે નહિ એટલા માટે મારે અહીં કલ્ક ઉમેરીને વાત સ્પષ્ટ કરવી જોઈએ. - આર્ય કુળની ભારતશાખા દક્ષિણ સૂર્યના પ્રતાપબળે બીજી શાખાઓ કરતાં વહેલી પાકી ઉઠી. તેમજ બીજી શાખા કરતાં એને પ્રવાસમાં આદિવાસીઓ તરફથી વિને પણ બહુ ખમવાં પડેલાં. વળી આર્ય કુળની બીજી શાખાઓને સેમેટીક કુળમાંથી, બાબિલેનિયનોમાંથી, મિસરીઓમાંથી અને પેલેસ્ટીનેમાંથી) જેમ જીવનરસ મળ્યો હતો એવો જીવનરસ ભારતકુળને બહાર કયાંયથી મળેલો નહિ,
ભારતકુળના આર્યો વહેલા પાકી ઉઠયા એની એ જ સાબિતિ છે કે એમણે સાહિત્યધારા * ઈતિહાસમાં સૌથી વહેલી વહેવરાવી અને વળી વારસામાં મળેલા પ્રાકૃતિક ધર્મમાંથી ઉંચા
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તરગવતી.
પ્રકારના ધર્મ વિકસાવ્યા. તેથી યુરાપમાં આપણા જુગા કરતાં ઇતિહાસના જીગ—જેવા કે પ્રાચીન, મધ્ય અને નૂતન ભ્રુગ ભારતમાં પણ પાડી શકાય પણ વહેલા શરૂ થયા.
આશરે ઈ. સ. પૂ. ૧૫૦૦ વર્ષથી ભારતમાં પ્રાચીન જુગ શરૂ થાય છે. ત્યાર પછી હજારેક વર્ષથી મધ્યનુગ શરૂ થાય છે, એ જુગમાં પ્રકના વિકાશ થયા અને ઉપભાષા બનેલી સંસ્કૃત ભાષામાં વિકશતા બ્રાહ્મણધર્મના પ્રકની રેખા પાસે એક નવું જ પગલું મુકાયું: ચાલતી આવેલી બિળપૂજાને અને સાથે સાથે એ સંસ્કૃત ભાષાનો પણ મુદ્દે ધમે અને એવા ખીજા ધર્માએ અનાદર કર્યો, અને વિવિધ પ્રકારની લાભાષાનો-એટલે કે પ્રાકૃત ભાષાએ નો--ઉપયાગ કર્યાં. મુસલમાનોના હુમલા થયા ત્યારથી છેવટે નુતન જુગ બેઠા; ઉપર વર્ણવેલા બે પ્રકારના પ્રામાં એક પરદેશી–મુસલમાની પ્રક પોતાનુ કારસીઆરખી ભાષાધન લેઇ આવી મળ્યા.
આમ ધર્મના તથા ભાષાના ઇતિહાસને હિસાબે ભારતનો સમસ્ત મધ્ય જુગ, એક ખીજાતી સાથે વહેતા તથા ભેગા વહેતા વિરૂદ્ધ પ્રકારના પ્રવાહાને બનેલા છે. પ્રથમ તા નવા ધર્મોએ સામા બળને રોકી દીધું; આમ પ્રખ્યાત મહારાજા અશોકે આશરે ઇ. સ. પૂ. ૨૫૦માં બૌદ્ધ ધર્મ ગ્રહણ કર્યા અને આખા ભારતમાં એણે જે વિખ્યાત લેખા કાતરાવ્યા તે પ્રાકૃતમાં કાતરાવ્યા. વળી સુધર્મમાં અને તેના સહચર જૈનધર્મમાં ધાર્મિક પ્રદેશ ઉપરાંત સાહિત્યના બીજા સ સાધારણ પ્રદેશમાં પણ પ્રાકૃતનો છુટથી ઉપયાગ થવા લાગ્યા. પણ પાછળથી, આશરે ઇ. સ. ની ચોથી સદીમાં સસ્કૃતે પાછા કરી પેાતાનો સર્વોપરિ અધિકાર મેળવ્યા; અરે, એ ધર્મોમાં પણ એણે પગ પેસાડયો તે કંઇક અંશે તે એનો પુરા કબજો લીધા.
તેથી હવે થયું એમ કે પ્રાકૃત લેખા જે દેશમાં ને કુળમાં ઉર્ષ્યા હોય તેને અનુસરીને તથા તેમના ઉપર જે પ્રમાણમાં સંસ્કૃત ભાષાનો પ્રભાવ પડ્યો હેાય તે પ્રમાણમાં સંસ્કૃત નહિ એવી શુદ્ધ લેાકભાષાના–એટલે કે દેશમાં ખેલાતી ભાષાના ભંડારમાંથીજ વિવિધ સમૃદ્ધિ વાળા શબ્દોનો ઉપયાગ કરતા થયા. ઇ. સ.ની શરૂઆતની સદીએમાં જે ક આ ભાષાધનપ્રાન્તભાષાનાં શબ્દો-તરફ્ માહથી વળ્યા, તે પછીની સદીઓમાં સંસ્કૃત ભાષા પાછી સ સાધારણ થઈ ગઇ ત્યારે એને તે પ્રમાણમાં ત્યાગ થયા.
જે કાળમાં, ગ્રંથ લખવામાં પ્રાન્તની પ્રાકૃત ભાષાને ઉપયાગ કરવાનું વલણ હતું અને સાહિત્યવ્યવહારમાં એ ભાષાએ બધાને સમજાતી હતી તે કાળમાં--ઈ. સ. ની શરૂઆતની સદીઓના એ કાળમાં આપણી કથા રચાઈ હતી. પણ સંસ્કૃતના દબાણને લીધે પાછળથી પ્રાન્તભાષા વ્યવહારમાંથી ખસતી ગઇ અને સમજવી કહ્યુ. થતી ગઇ. અને પછી એવું થયું કે જે લેખકા એ ભાષા સમજતા હતા તેએ એ ગ્રંથૈાનાં નવાં સંસ્કરણ કરવા લાગ્યા. એવા પ્રાચીન સમયના ગ્રંથા પાછળથી એવી રીતે નિરૂપયોગી થઈ પડવા ને તેથી નાશ પામવાના ભયમાં આવી પડચા. એવા ગ્રંથાને આપણી આ કથાની પેઠે સંસ્કૃત શબ્દોથી અર્વાચીન પ્રાકૃતમાં ઉતારી લેખને, એટલું જ નહિ પણ સીધા સંસ્કૃત અનુવાદ કરીને બચાવી લીધા છે. આ કથાની પેઠે ઇ. સ. ની શરૂઆતની સદીએમાં લખાયેલી અને પાછળથી નાશ પામેલી બૃહત્કથાનાં એ જાતનાં ત્રણ નવાં સંસ્કરણ હાલ મળી આવે છે.
હાલની ગાથાસપ્તશતીતે નામે એળખાતા શૃંગારિક ગ્રંથની કાળગણુનામાં, પ્રાન્તિક ભાષાઓમાં પ્રધાન એવી એની પ્રાકૃતને માટે ગુંચવણ ઊભી થઇ હતી. પશુ એ ગાથાસમૂહમાં
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લાયમેનની પ્રસ્તાવના
X1 બારેક લેખકનો હાથ છે. અને એ ગાથાઓમાં પ્રબળ અને સરસ છાપ પાડે એવી રીતે એટલે કે શુદ્ધ સ્પષ્ટ અર્થભરી રીતે ગૃહજીવન આંકવામાં આવ્યાં છે. તેમાં શબ્દો કે રચના બદલીને, થાગ્રંથની પેઠે, અર્વાચીન સ્વરૂપ આપવામાં આવ્યું નથી, સુભાગ્યે એ વગરફેરફારે જળવાઈ રહી છે; અને દશકાઓ પૂર્વે આલ્શષ્ટ વેબરે પિતાની પ્રબળ શક્તિ એના ઉપર જેમ અજમાવી હતી તેમ બીજા કોઈ પંડિતે પાછું એ કામ હાથમાં લેવું જોઈએ છે. આ ૭૦૦ ગાથાઓના ભાગ્ય ઉપરથી આપણે નિર્ણય કરી શકીએ તો એમ પણ ખુશીથી કહી શકીએ કે આપણી કથા તેમજ બૃહત્કથા પણ મૂળ સ્વરૂપે સચવાઈ રહી હોત. કારણ કે નવા સંસ્કારથી વસ્તુ તે સચવાઈ રહ્યું, પણ એ રૂપ બદલાવાને કારણે જ વસ્તુનું પુરાણું સ્વરૂપ પુરી રીતે દબાઈ ગયું.
આ કથાની સાથે “કામનીત' નામની ગેલેરૂપની દૈઈચ-ભારત (અથવા એમ કહીએ કે ભારત-જર્મન) કથા સરખાવતાં ઈચ (જર્મને પિતાને જર્મન નહિ પણ દૈઈ કહે છે અને ડેન, દઇચ, શ્વાસ, લાન્સ ને વશ વગેરે પ્રજાઓ જર્મન કુળની છે તેથી જર્મન કહેતાં એ બધી પ્રજેઓનો સમાવેશ કરે છે) વાચકને બહુ રસ પડશે. એ બંનેમાં આ ત્રણ ઘટનાઓ આવે છેઃ
પ્રથમ તે, નાયિકા પિતાની શક્તિથી આગળ આવે છે, ભારતની નાયિકા આશ્ચર્યજનક કુલપરીક્ષાથી અને ગેલેરૂપની નાયિકા દડે રમવાની કળાની અદ્દભુત કુશળતાથી.
બીજું, નાયકનાયિકાને પાછલો ભવ સાંભરી આવે છે અને તે બંને કથાઓમાં જુદી જુદી રીતે; ભારતના નાયકનાયિકાને આ ભવમાં અને, ગેલેરૂપનાંને પેલા ભવમાં,
ત્રીજું, કેવળ જુદી પડતી પણ લૂટારાની વાત બંનેમાં આવે છે, ભારતની કથામાં બંનેને લૂટે છે, ત્યારે ગેલેરૂપનીમાં માત્ર નાયકને જ લૂટે છે.
આવી બાબતની વધારે સરખામણી મારે કરવી જોઈતી નથી. મારા કરતાં આપણા સાહિત્ય-ઈતિહાસનું પડિત ભારતની અને ભારતમાંથી ઉત્પન્ન થયેલી ભાવનાઓને માગે ઉતરે અને એ બેની સરખામણી કરીને કિસ્મત અંકે તો સારું.
તેમજ આ કથાની પ્રધાન ભાવના રૂપ મહાવીરના ધર્મ ઉપર પણ અહીં કંઈ બોલવા ઈચ્છતો નથી, કારણ કે જેને એ સંબંધે કંઈ વધારે જાણવાની ઇચ્છા હોય તે “ બુદ્ધ અને મહાવીર” નામની મારી ચોપડીમાંથી વાંચી લેશે. આ કથાની સાથે એ ચોપડી પણ તે જ ગ્રંથપ્રકાશકે પ્રકટ કરી છે.
જે હસ્તલિખિત પ્રતિ ઉપરથી આ અનુવાદ કરવામાં આવ્યા છેતે પ્રતિ બનવાળા મારા સુમિત્ર ફેસર હરમાન યાકેબીએ મને પહેલીવારકી ૧૯૨૦ના ઓક્ટોબરમાં આપી હતી. તે પહેલાં મને એમણે સમાચાર આપ્યા હતા કે પ્રતિ ભારતમાંથી આવી છે, પણ સાથે જણાવ્યું હતું કે તે એટલી અશુદ્ધ છે કે તેમાંની વાર્તાની ધારા સળંગ કરવાને માટે બહુ કાળ અને શ્રમનો વ્યય કરવો પડશે, અને નવી આવૃત્તિને માટે મૂળ તૈયાર કરવું તે મોટે ભાગે અશકય પણ બને. મેં ઉત્તર આપ્યો કે ગમે તેમ હોય પણ મારે એક વખતે તો એની વાચના કરવી છે, કારણ કે જે ગ્રંથનું આ નવું સંસ્કરણ થયું છે એ મૂળગ્રંથની મહત્તા, એ ઉલ્લેખ કરનાર
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વાં
* તાંબવતી. સાતમી અને આઠમી સદીના ટીકાકારોની ટીકાઓથી, ત્રીસ વર્ષ પહેલાંથી જ મારા ધ્યાનમાં આવેલી છે. મારા મિત્રે એ પુસ્તકની તપાસ કરવા, એ હસ્તપ્રતિ ખુશીથી મને સોંપી. એમને એ પ્રતિ અમદાવાદના રા. કેશવલાલ પ્રેમચંદ મોદીએ આપી હતી. આ પ્રત કેટલીક સદીઓ ઉપર લખાએલી કે પ્રતિના ઉતારા રૂપે છે. તેનાં પંદર પાનાં પ્રથમ રા. કેશવલાલે (ગાથા ૧–૪૫૭), તપાસી જેવાને પ્રો. યાકેબીને મોકલ્યાં હતાં. પાછળથી તેમણે પુરી પ્રત મળે, મને મોકલી દીધી હતી.
હસ્તપ્રતના ખુટતા ભાગ ઉપરથી (અને હું માનું છું ત્યાંસુધી તેના સ્વરૂપ ઉપરથી) યથામતિ મારું અનુમાન એવું છે કે કથા પદ્યમાં છે અને ગાથાની સંખ્યા કરવામાં આ એવો ખુટતે મેટો ભાગ એક જ જગાએ છે અને તે ગાથા ૬૭૧ ઉ. થી ૬૭૭ ઉ. સુધી તેર પંક્તિઓ વાળો છે. ગાથાઓના અંકની ગણતરી બધેય (૧૦, ૨૦, ૩૦, એમ) દશકાથી કરેલી છે, અને ૮ના અંકને બે વાર મુકયો છે, તેથી ૯થી બધા અંકમાં દશદશની ભૂલ ઠેઠસુધી ચાલી આવી છે; એક જગ્યાએ ખુટતે ભાગ તે છે જ નહિ, છતાં ગમે તો મૂળ લેખના કે ગમે તો સંસ્કારકના દષ્ટિદોષથી કંઈક ભૂલ થયેલી લાગે છે. પરણ્યા પછી નાયકનાયિકાએ અનેક માસ પછી સંસારત્યાગ કર્યાનું એક જગાએ જણાવ્યું છે. બીજી જગાએ બાર વર્ષ પછી સંસાર ત્યાગ કર્યાનું જણાવ્યું છે. વાર્તાને આખી સળંગ ગોઠવ્યા પછી આ વિરોધભાવ ટાળી શકાય. અનુવાદમાં આવી પૂર્તિ ( બેશક કૌસમાં ) ૧૦મા અધ્યાયને આરંભે મુકી છે, ૧૩૦૯મી ગાથા પૂર્વે હસ્તપ્રતિમાં અમુક ભાગ ખુટતો હોય તેમ લાગે છે, પણ (ગાથાના અંક જોતાં) કંઈ ભાગ ખુટતો જણાતું નથી, એટલે એ લેખક કે સંસ્કારકનો માત્ર દૃષ્ટિદોષ જ છે.
૧૬૪૪ ગાથામાં ભારતભાષામાં આ કથા પુરી થાય છે. મેં એમાં ૧૨ અધ્યાય પાડ્યા છે. અને માઈનમાં ગાથાના અંક મુક્યા છે. તેથી અંકીના ભાગને એક બીજા સાથે સરખાવી જોતાં કયાં અને કેવી રીતે મેં અનુવાદને સંક્ષિપ્ત કર્યો છે એ સમજી શકાશે. બાર અધ્યાયનાં નામ, તેમજ કથા ભાગમાં હકીક્ત સ્પષ્ટ કરવા કે કથા સળંગ કરવા કેટલાક શબ્દો મેં કસમાં મુક્યા છે.
Freiburg i/B. im Hauso Sutterlin, /
Mitte Mai 1921.
Ernst Leumann,
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તરંગવતી:
(૧. મંગલ અને પૂર્વકથન )
૧–૪. શાશ્વત, અચળ અને અનુપમ સુખને પ્રાપ્ત કરનાર તથા જન્મમરણના કલ્લોલવાળા દુઃખસમુદ્રથી પાર થનાર સર્વ સિદ્ધાત્માઓને વન્દન હે. સદગુણ, સસ્કીલ, વિનય અને વિજ્ઞાન વડે સંઘસમુદ્રની શોભા વધારનાર સપુને નમસ્કાર છે. જેના પ્રભાવથી મૃત છતાં પણ જે કવિવરે સદા જીવિત જણાય છે તે સંગીત અને સાહિત્યની અધિષ્ઠાત્રી દેવી સરસ્વતી સુપ્રસન્ન થાઓ. કાવ્યરૂપી સુવર્ણના ગુણની પરીક્ષા માટે જે કટી સમાન ગણાય છે તે વિદ્વત્સમાજનું કલ્યાણ થાઓ.
૫-૬. પાદલિપ્ત આચાર્યો તાવતી નામે એક કથા લેકભાષામાં રચી છે, તે ઘણું વિસ્તૃત અને વિચિત્ર છે. એમાં કેટલાં યે કુલક ભરેલાં છે, કેટલાં યે યુગલકે ગુંથેલા છે, અને કેટલાંયે ષોનાં ષકે રચેલાં છે; એ કારણથી એ કથાને નથી તો કોઈ સાંભળતું, નથી તે કઈ પૂછતું અને નથી તે કઈ કહેતું. કેવળ એ વિના જ ઉપગની વસ્તુ થઈ પડી છે, ઈતર જેનેને એને કાંઈ ઉપગ થતો નથી, તેથી એવા જનના હિતાર્થે, તેમજ એ કથા સર્વથા નષ્ટ ન થાય એ માટે પણ, એમાંની કિલદગાથાઓ અને લેકપદને છોડી દઈને અતિસંક્ષેપમાં મેં આ કથા ગૂંથી છે. એટલા માટે મારું આ કાર્ય મૂળ કથાકાર આચાર્યને ક્ષન્તવ્ય થાઓ !
૭-૧૩. ભૂમિતલ ઉપર ઉતરી આવેલ સ્વર્ગલોક સમાન કેશલા (અયિ) નામે વિશાળ નગરી છે. ત્યાં રહેતી પ્રજા દ્વારા બ્રાહ્મણ, શ્રમણ, અતિથિ અને દેવતાઓની કરાએલી, પ્રજાએ કરીને સંતુષ્ટ થએલા દે એ લેકે ઉપર સંતતિ અને સંપત્તિના આશીર્વાદ વર્ષાવે છે, એવી એ પુણ્યભૂમિમાં થએલા આચાર્ય પાદલિપ્તના બુદ્ધિવભવના નમુના રૂપ આ કથાને અનન્યમનવાળા થઈ તમે સાંભળો. પ્રાકૃત જનેના સર્વ સાધારણ કલ્યાણને અર્થે કરાએલી આ પ્રાકૃતિકથા જે ધર્મબુદ્ધિપૂર્વક સાંભળવામાં આવે તે પછી જમના ભયથી પણ ડરવાનું કાંઈ પણ કારણ રહે નહિ.
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૨
તરંગવતી.
(૨. ભૂમિકા સાથ્વીનું ભિક્ષા લેવા માટે જવું.) ૧૪-૨૧. સમૃદ્ધિશાળી લેકેથી ભરેલા એવા અનેક ગામ અને નગરેથી શોભતે મગધ નામે પ્રસિદ્ધ દેશ છે. એ દેશમાં, પૃથ્વીમાં પ્રધાન, અને રમણીય ઉદ્યાન તેમ જ વનથી વિભૂષિત, રાજગૃહ નામે સ્વર્ગના જેવું સુદર નગર છે. એ નગરમાં પિતાનાં પરાક્રમે વડે સઘળા શત્રુઓને જેણે પરાજ્ય કર્યો છે અને વિપુલ સૈન્ય અને સંપત્તિને જે સ્વામી છે એ કેણિક નામે રાજા રાજ્ય કરે છે. એ રાજા પિતાના કુળને પ્રકાશક, શરે, અને સર્વ દેષ રહિત છે. રાગદ્વેષ સર્વથા વિલીન થઈ ગયા છે જેમના એવા પરમ શાન્ત વીતરાગ તીર્થકર મહાવીરના જન્મમરણથી મુક્તિ અપાવનાર શાસન (ધર્મ) ને એ અનુરાગી છે. એ રાજાના શરીર અને જીવિતના રક્ષક જે, તથા સર્વ પ્રજાને પ્રિય, કુળવાન અને સદાચારી એ ધનપાલ નામે નગરશેઠ ત્યાં વસે છે, એ શેઠને અનુરૂપ અને સૌભાગ્યવતી એવી સમા નામે પતિવ્રતા પત્ની છે.
૧ર-ર૩. એ શેઠના મકાનની સમીપમાં એક ઉપાશ્રય આવેલ છે, એમાં પિતાની ઘણી શિષ્યાઓ સાથે સુવ્રતા નામે એક સાધ્વી આવીને રહેલા છે. એ સાથી કૌમારબ્રાચારિણું છે. અનેક પ્રકારનાં તપ તપીને એમણે પોતાની કાયાને ખૂબ કુશ કરી નાંખેલી છે, જેન ધર્મના તત્વજ્ઞાનને એ પૂર્ણ જાણનારી છે અને એકાદશ અંગે એમને સારી રીતે અવગત છે. પોતાના આત્માની મુક્તિના માર્ગમાં એ હંમેશાં ઉક્ત રહે છે.
૨૪–૨૮.એ સાધ્વીની અનેક શિષ્યાઓમાંથી એક બહુ વિનીત શિષ્યાને એક સવારે છટ્ટ (બે ઉપવાસ) વ્રતનાં પારણાં કરવાં હતાં, અને તે માટે બીજી એક નવદીક્ષિત ભિક્ષુણને પોતાની સાથે લઈને તે ભિક્ષા લેવા માટે પોતાની વસતિ (ઉપાશ્રય) બહાર નિકળે છે. નાના મોટા બધા જી ઉપર દયાપ્રેમ-ભાવ ધારણ કરતી અને નીચી નજરે તથા ધીમે પગલે ચાલતી એ સાધ્વી ભિક્ષા ગ્રહણ કરવા યોગ્ય એક ઉંચી હવેલીના પ્રશસ્ત આંગણામાં આવીને ઉભી રહે છે.
ર૩૦. અતિથિઓના આગમનની રાહ જોતી ઘરની કેટલીક દાસીઓ આંગણામાં ઉભી છે તે એ સાધ્વીના સન્દર્યને જોઈને ચકિત થઈ જાય છે.
કુલ-૩૫. મહામહે તે વાત કરવા લાગે છે કે જુઓ આ લક્ષમી સમાન સાધી! એના વાળ કેવા સુન્દર અને આંકડીયા છે ! એનું મુખ ચંદ્રના જેવું મોહક છે. વિના શણગારે છે પણ ચીકણે વચ્ચેથી એના કાન ઢંકાયેલા છે. અને પાણીમાંથી કમળ બહાર નિકળે છે તેને જે એને સુંદર હાથ ભિક્ષા માગતી વખતે વસ્ત્રમાંથી બહાર નિકળે છે,
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સાધ્વીનું રૂપ
- ૩૬-૩૭. તેને શબ્દ સાંભળીને ઘરની શેઠાણી બહાર નીકળે છે. તે સુન્દર ને પ્રભાવશાળી છે, તેની વાણું બહુ ધીમી છે, શરીર ઉપર તેણે બહુ જ આછાં પણ બહું કિમતી ઘરેણાં ઘાલેલાં છે અને છેલ્લું–ઉજળું વસ્ત્ર પહેરેલું છે.
૩૮-૪૧. પિતાના આંગણાને પાવન કરતી આ પવિત્ર સાધ્વીને અને તેની સહચરીને જોઇને પ્રથમ તો સાગરકન્યા લક્ષ્મી સમાન એ સાધીને અને પછી તેની સહચરીને તે આદરભાવે નમસ્કાર કરે છે, ત્યાર પછી કમળફુલ ઉપર ભમરા બેઠા હોય એવી કાળી કીકીઓવાળા ચંદ્રસમાન એ સુંદર ખ સામે એકી દ્રષ્ટિએ તાકીને જોઈ રહે છે.
૪૨-૫૪. લક્ષ્મી જેવી સુંદર એ સાધી સંબંધે તે વિચારે છે. “નથી તો સ્વપમાં આવી અનુપમ સુંદર સ્ત્રીનું ચિત્ર મેં જોયું, કે નથી વર્ણનમાં પણ આવું વાંચ્યું. આવું સુંદર તે સ્ત્રીકમળ કોણ હશે ? સુંદર સ્ત્રીઓને ઘડવાનાં જે દ્રવ્યો તેમાંથી સર્વોત્તમ દ્રવ્ય લેને શું વિધાતાએ આને ઘડી હશે? જ્યારે આ અત્યારના મુંડિત મસ્તકવાળા ભિક્ષુણીવેશમાં પણ આટલી બધી સુન્દર દેખાય છે, ત્યારે રૂપીસંપન્ન ગૃહિણીના વેશમાં તે એ કેણ જાણે કેટલી બધી અનુપમ લાગતી હશે! એના એકે અંગ ઉપર શણગાર નથી અને વળી તે ઉપર ધૂળ લાગી છે, તે પણ મારી આંખ એના ઉપરથી ખસતી નથી, ઉલટી અંગે અંગે ફર્યા કરે છે. સ્વર્ગની કુમારિકાઓ પણ આની અનુપમ સુન્દરતાની વાંછના કરે તેમ છે. શું આ તે કઈ અસશે કે દેવકન્યા હશે? પણ એમ કેમ હોય ! શિપીએ ઘડી કાઢેલી મૂર્તિની આંખોની પેઠે દેવકની દેવાંગનાએની આંખે તે સાંભળવા પ્રમાણે મીંચાતી નથી, તેમ જ તેમના હાર અણુકરમાયા રહે છે, અને તેમને ધૂળ લાગતી નથી; પણ આ આયને પગે તે ધૂળ લાગેલી છે અને એની આ હાલે છે. તેથી એ નક્કી દેવી તે નથી જ, છે તે અવશ્ય માનવી લેકની જ કેઈ નારી. પરંતુ મારે આ રીતે શંકામાં શા માટે રહેવું? હું એમને ધીરે રહીને પૂછી લઉં. માણસને જ્યારે સાક્ષાત્ હાથી જ નજરે પડે તે પછી તેનાં પગલાં ખેળવાની શી આવશ્યકતા ?” - પપ-પ૬. એમ વિચાર કરી શેઠાણી સાથ્વીને આદરપૂર્વક પ્રથમ ભિક્ષા આપે છે, અને પછી ઉત્સુકતાએ અને આશ્ચચે પ્રશ્ન કરે છે: “પૂજ્ય સાધ્વીજી, જે તમને કઈ નિયમને બાધ ન થતો હોય તે ક્ષણભર વિસામે છે અને મને કેઈ ધર્મકથા કહે.”
પ૭-૬૧. ત્યારે સાધ્વી કહે છે કે “સવ જગતના જીવને હિત કરનાર એવા ધર્મને ઉપદેશ કરવામાં કઈને કશાને બાધ હોઈ શકે નહિ. અહિંસાલક્ષણધર્મ તે કહેનાર અને સાંભળનાર બંનેને પવિત્ર કરે છે. જો કે ડીવાર પણ હિંસાથી મુક્ત
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સરગવતી.
થાય અને ધમને ઉપદેશ સાંભળ્યા પછી તે અહિંસા ધર્મનું વ્રત લે, તે ઉપદેશકને ઉપદેશ આપે સફળ છે; કારણકે પિતાના ઉપદેશથી તે માત્ર બીજાને જ નહિ, પણ પિતાને પણ પુનર્જન્મના અપાર સમુદ્રથી પાર ઉતારી જાય છે, આથી ધમને ઉપદેશ દે એ તે સદા શ્રેષ્ઠ છે. તેથી હું જે કાંઈ જાણું છું તે કહું છું; તમે ધ્યાન દેઈને સાંભળે,”
૬૨-૬૫. તે વખતે દાસીઓ આનદ તાળીઓ લે છે અને બેલે છે કે “હવે આપણે એકીટસે આ સાધ્વીની અજબ સુંદરતા નિહાળી શકીશું!” પછી એ સાધ્વી અને તેની સહચરી તેમને માંડી આપેલ આસન ઉપર એકાન્ત સ્થાન પર બેસે છે અને આનંદ જેમને માટે નથી એવી દાસીઓ તથા શેઠાણી પણ તેમને સભ્યતાપૂર્વક નમસ્કાર કરીને સામે ફરસબંધી ઉપર બેસી જાય છે.
૬૬-૬૮.પછી એ સાધ્વી રકુટ અને વિશદ વાકાએ કરીને, કાન તથા મનને મધુર લાગે તેવે સ્વરે, ટુંકાણમાં પણ સહજ સમજાય તેવી શૈલીમાં, જગના સર્વ જીને સુખ આપનાર અને જન્મ, જરા, રંગ, મરણ આદિનાં દુખેને નાશ કરનાર એવા જિનમહાત્માએ કહેલા ધર્મને સાર સંભળાવે છે; સમ્યગજ્ઞાનદર્શન, અહિંસા, સત્ય, અસ્તેય, બ્રહ્મચર્ય અને અપરિગ્રહ સ્વરૂપ પાંચ મહાવ્રત, તપ અને સંયમ; વિનય અને ક્ષમા આદિ ગુણવિશિષ્ટ ધર્મનાં તનું રહસ્ય સમજાવે છે. ( ૬૭૭. જ્યારે સાધી ઉપદેશ આપી રહે છે, ત્યારે શેઠાણ એમને વિનયભાવે કહે છે કે “ધર્મનો ઉપદેશ તે મેં સારી પેઠે સાંભળે; પણ તે પવિત્ર આર્યા! મને બીજી એક વાત કહે, તમારા સુંદર મુખનાં દર્શનથી મારી આંખે તે તૃપ્ત થઈ છે, પણ તમારા જન્મની કથા સાંભળવાને મારા કાન આતુર બની ગયા છે. વિષ્ણુને જેમ પદ્મ વહાલું છે, તેમ તમે કિયા પિતાને વહાલાં હતાં ? અને આખા જગને નમસ્કાર કરવા જેવાં તમારાં માતા કોણ હતાં? તમારા પિતાના ઘરમાં અને પતિના ઘરમાં કેવું સુખ હતું? અને કિયે દુખે તમારે સાધ્વી થવું પડયું ? એ બધું જાણવાની મને બહુ આકાંક્ષા થઈ રહી છે. જગતુમાં એમ કહેવાય છે કે સુંદર નારીનું અને નદીનું, તેમ જ સાધુનું અને સાધ્વીનું મૂળ ન પૂછવું (કારણ કે વખતે એથી એમની તુચ્છતા તરી આવે છે અને અસંતોષ થાય છે અને તેથી તેમના પ્રત્યેનું માન ઘટે છે). વળી હું એ પણ જાણું છું કે ધર્માત્માઓને નકામી વાતે પૂછી મારે કઈ દેવું નહિ જોઈએ. પણ તમારી સુંદરતાથી આશ્ચર્ય પામીને જે એ પ્રશ્ન પૂછવાનું મને મન થાય છે.”
૭૦-૮૦ સાધ્વીએ ઉત્તર આપે કે “એને જવાબ આપે જરા કઠણ છે, કારણ કે આવા નકામા (એટલે કે આત્માની પવિત્રતાને લાભ કરતાં હામિ વધારે કરનારા)
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સાધ્વીની પૂર્વકથાને પ્રારંભ
વિષય સંબંધે અમે વિચાર કરી શકીએ નહિ. પૂર્વે ગૃહજીવનમાં જે આનંદ અને જોગવતાં તે યાદ પણ કરી શકીએ નહિ. તેપણુ જગતનાં દુઃખથી જે ધૃણુ પેદા થઈ એ તરફ જ નજર રાખીને, કર્મનું ફળ મને કેમ પ્રાપ્ત થયું એ વિષેનું જ હું સ્વાનુભવનું શેડું વર્ણન કરીશ.”
૮૧-૮૫. આ શબ્દથી રાજી થઈને શેઠાણી પિતાની દાસીઓને બધુ ધ્યાનથી સાંભળવાની સૂચના કરે છે. અને સાધ્વી હવે પિતાના પૂર્વજન્મની કથા કહી સંભળાવે છે. પેતાના આશ્ચર્યજનક સદભાગ્ય વિષે અભિમાન કર્યા વિના અને માત્ર ધર્મ ઉપર જ દ્રષ્ટિ રાખીને સુંદર સરસ્વતી દેવી જેવી એ સાધ્વી આમ આરંભ કરે છેજે જાણું છું અથવા જે મને થાય છે તે પ્રમાણે મારા જીવનની કથા હું ટુંકામાં
(૩. સાથ્વીની પૂર્વકથાને પ્રારંભ ) ૮૬-૪, મધ્ય દેશમાં વત્સ નામે એક મનહર પ્રદેશ છે. અમૂ ય પદાર્થોથી એ પ્રદેશ પરિપૂર્ણ ભરેલો છે. ત્યાં અનેક ધર્માત્માઓ વસે છે, અને જીવનની ત્રણ કામનાઓ ધર્મ, અર્થ ને કામનું ઉચિત રીતે પરિપાલન કરે છે. તે પ્રદેશની રાજધાની કૈશાખી ખરેખર સ્વર્ગનગરી છે, મધ્યદેશનું જા મોતી એ છે, બીજી નગરીઓને નમુનારૂપ છે, અને જમુનાને કિનારે જાણે રત્ન છે. ત્યાં ઉદયન રાજા રાજ્ય કરે છે, તે યુદ્ધમાં અને પ્રતાપમાં પ્રખ્યાત થયેલ છે, સાધુઓને અને સાધ્વીઓને ભક્ત છે, મિત્રને સુખકર છે, અને શત્રુઓને ભયંકર છે. અરે, હાથીએ, રથે અને પાયદળે બળવાન, હૈહય વંશમાં એ ઉતરી આવેલ છે; પૂર્ણચન્દ્ર જેવી એના મુખની શોભા છે, હંસના સ્વર જે એને સ્વર છે, અને સિંહની ગતિ જેવી એની ગતિ છે. કુળે, રૂપે ને ગુણે પ્રખ્યાત એવી એની વાસવદત્તા રાણું છે. . . ~-૧૦૧.રાજાને સમાન વયનો એક મિત્ર એ નગરને નગરશેઠ છે, એનું નામ અષભસેન છે. નગરના મહાજનને એ મુખી છે, પ્રજામાં એને બોલ વજનદાર ગણાય છે, અર્થશાસ્ત્રના સિદ્ધાન્તને તે સારી રીતે જાણે છે, જેમાં અને વ્યાપારીઓમાં ન્યાય ચુકવી જાણે છે, બધાની સાથે મિત્રભાવે રહે છે, લેકનું ભલું કરવાની વૃત્તિવાળો છે, સત્યનિષ્ઠ અને પ્રમાણિક છે, નિષ્કલંક ગૃહસ્થજીવન જીવે છે, અને જૈન ધર્મના ઉપદેશનું નિરંતર શ્રવણ કરે છે.
૧૦૨-૧૦૬. તે શેઠને આઠ પુત્ર થયા પછી છે. એમણે યમુનાની પ્રાર્થના કરી, અને તેના ફળ રૂપે હું એમને ઘેર અવતરી. અવતર્યા પછી મને સારી તજવીજથી પારણામાં સુવાડી, અને મારી સંભાળને માટે હુશિઆર દાસીએ સખી. થડા સમય પછી નાહ
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તરંગવતી. છેદનની ક્રિયા કરી ને તે સમયે મારાં માબાપે પિતાનાં સગાંસ્નેહીઓને જમાડ્યાં. પછી જન્મ આદિ જે જે સંસ્કાર કરવા ઘટે તે સ કર્યા, અને પિતાની ઈચ્છા પ્રમાણે સંબંધીજનેએ મારું નામ, તરંગવતી યમુનાના તરંગોની કુપાએ હું અવતરી માટે, તરંગવતી પાડ્યું.
૧૦૭-૧૧૫. શય્યામાં જ્યારે હું બેચેન થતી, ત્યારે હાથપગ પછાડતી મારી ધાવ અને દાસી જુદા જુદા ખંડોમાં મને વારંવાર ફેરવતી. પછી તે મારે માટે સેનાનાં રમકડાં આપ્યાં. મારે જે જે જોઈએ એ સિ સેનાનું આવતું. મારાં સગાં સો મને પોતપિતાના ખેળામાં લેતાં અને બહુ લાડ લડાવતાં, હું ખૂબ તેમના આનંદનું કારણ થઈ પડી. ધીરે ધીરે લેકનાં આંખ, મોં અને હાથ હાલતાં તે ઉપર હુ ધ્યાન આપતાં શીખી, અને મારી મેળે કંઈ કંઈ ઉચ્ચાર કરતાં પણ શીખી. પછી એક દહાડે મેં પગ માંડવા માંડ્યા ને જ્યારે અશુદ્ધ ઉચ્ચારે તાતા બેલી, ત્યારે તે મારા કુટુંબીઓના હષ ને પાર રહ્યો નહિ, ત્યાર પછી ડે કાળે ચુડાકને સંસ્કાર કરવામાં આવ્યું. પછી તો હું આમતેમ છુટથી ફરવા લાગી, સખીઓ સાથે સેનાની પુતળીએ રમત રમવા લાગી, અને માટીનાં ઘરે બાંધી તેની રમતમાં લીન થઈ જવા લાગી.
૧૧૬-૧૨૧. જન્મ પછી બારમે વર્ષે મારી સમજશક્તિ એટલી બધી ખીલી ઉઠી કે મારે માટે ઉત્તમ પ્રકારના શિક્ષક રાખવામાં આવ્યા, અને રીતસર ધીરેધીરે હું ગણિત, વાચન, લેખન, ગાન, વીણાવાદન, નાચ, અને પુષ્પઉછેરની કળાએ શીખ; વળી વનસ્પતિશાસ્ત્ર અને રસાયણશાસ્ત્ર પણ મને શીખવવામાં આવ્યાં. આ ઉપરાંત મારા પિતા જેને ધર્મના અનુરાગી હતા તેથી તેમની ઈચ્છા એવી થઈ કે મારે ધર્મશાસ્ત્રમાં પણ પ્રવીણ થવું જોઈએ, એટલા માટે નગરમાં ઉત્તમ મનાતા ધર્મપંડિતે મારે માટે રાખ્યા અને તેમની પાસેથી પાંચ અણુવ્રત, ત્રણ ગુણવ્રત અને ચાર શિક્ષાત્રત વગેરે શ્રાવકધર્મની ભાવનાઓને મેં સારે અભ્યાસ કર્યો.
૧૨૨-૧૨૪. પછી તે હું ઉમ્મરમાં આવી, મારા શરીરનાં અંગે ખીલી ઉઠયાં અને નેહજીવન શું તે સમજવા લાગી. તે વખતે દેશના ઘણાં ધનાઢથ કુટુંબોમાંથી મારે માટે માગાં આવવા લાગ્યાં. પણ તેમાંથી કઈ પણ કુળે, રૂપે ને ગુણે મારે લાયક ને હેવાથી એ બધાં માગને મારા પિતાએ રીતસર પાછાં વાળ્યાં,
- ૧૨૫-૧૩૧. હું મારા પ્રિય મંડળમાં મટી થવા લાગી. મારી સખી સારસિકા જે કઈ નવી વાત સાંભળતી, તે આવીને મને કહેતી. આનંદ કરવાને જે કંઈ સખીઓ. આવતી તેમને હું મારી હવેલીને સામે મળે અગાસી ઉપર લઈ જતી અને ત્યાં અમે
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શ૬ વડતુનું આગમન.
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ખુરી હવામાં આનંદ કરતાં, તેમ જ દૂરદૂર સુધીના દેખાવ જતાં. મારાં માબાપ અને ભાઈઓ કુલ, કપડાં, ઘરેણાં, રમકડાં અને મીઠાઈની મને ભેટ આપતાં. મારા વિનયથી મારાં માબાપ, મારા દાનથી ભિક્ષુકે, મારી પવિત્રતાથી મારા ભાઈઓ અને મારા સ્નેહથી બીજાં બધાં આનંદ પામતાં. લક્ષમી જેમ મંદર પર્વત ઉપર આનંદ પામે તેમ હું પિતાના ઘરમાં મારી ભાભીઓ અને સખીઓ સાથે આનંદમાં રહેતી, પિષધના દિવસોમાં હું ઘણી વખતે સામાયિક વ્રત આચરતી અને જૈન ધર્મનું તત્ત્વજ્ઞાન મેળવવા માટે ગણધારિણી સાધ્વીજીઓની ઉપાસના કરતી. આ રીતે માબાપ, ભાઈઓ અને સગાંસંબંધી સાથે નેહમાં રહીને હું મારા દિવસો સુખમાં નિગમતી હતી.
- ૧૩ર-૧૩૫. એક વાર મારા પિતા, ભગવાનની સેવા કર્યા પછી, ભજન કરીને સારા સવચ્છ કપડાં પહેરીને ફુલેથી શણગારેલા ખંડમાં બેઠા હતા અને મારે સંબંધ મારી માતા સાથે વાતો કરતા હતા, જાણે ગોવિંદની સાથે લક્ષ્મીજી બેઠાં હેય એમ એ ભતાં હતાં. હું પણ નાન કર્યા પછી જિનેશ્વર દેવની પૂજા પ્રાર્થના કરીને માબાપને પ્રણામ કરવા ત્યાં ગઈ. મેં નીચી વળીને તેમના ચરણોમાં માથું મુક્યું, ત્યારે તેમણે “તારું કલ્યાણ થાઓ કહી નેહથી આશીર્વાદ આપ્યા અને પિતાની પાસે બેસવા કહ્યું.
૧૩૬-૧૩૮. પળવારમાં જાણે ચંદ્રપ્રભાથી શણગારાઈને શરદબાતુની કાળી ૨.શ્રી આવી હોય એમ, બહાર કામ કરવાને લીધે કાળીદેવી જેવી કાળી થઈ ગયેલી અમારી માળણ કુલાળાં વસ્ત્ર પહેરી ફલઘરમાંથી નીકળીને અમારી બેઠકમાં આવી પહોંચી, અને સુવાસ પ્રસરાવી દીધો. તે હાથમાં કુલની ભરેલી છાબ લઈ આવી હતી. સભ્યતાથી મારા પિતા પાસે જઈ વિનયશીલ વિદ્યાર્થીની પેઠે નીચી નમી અને મધમાખીઓના ગણગણાટ જેવા મધુર સ્વરે બોલી:
૧૩૯-૧૪૨. “હંસ અહુણા જ તેમની ઉનાળાની વાસભૂમિ, હિમાલયના ઉત્તર પ્રદેશમાં આવેલા માનસસર, ઉપરથી પાછા આવ્યા છે અને અહીંની તેમની વાસભૂમિમાં આનંદ કરવા લાગ્યા છે. તેઓ કર્ણમધુર સુંદર બેલ બેલે છે અને તે વડે આપણને સમાચાર આપે છે કે શરદ્ હતુ આવી છે. અને સફેદ પાંખવાળા હંસની પેઠે શર તુ પણું યમુનાના કિનારાનાં ઝાંખાં વને કરીને પિતાના આવ્યાના સમાચાર આપે છે. - એણે સુવાસિત વનેને આસમાની રંગનાં, અસનવનેને પીળા રંગનાં અને ફીકા સપ્તપર્ણનાં વનેને સફેદ વર્ણનાં વસ્ત્રો પહેરાવી દીધાં છે. હે શેઠ, તમારા ઉપર એની કૃપા થાઓ, અને સદ્ભાગ્ય તમારા ઉપર હશે.”
Alstonia scholaris આ ઝાડ શાતિનિકેતનમાં જોયાં છે, અને તે ત્યાં છાતીમ’ એ અપભ્રંશ નામે ઓળખાય છે.-અનુવાદક,
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તરંગવતી.. ૧૪૩-૧૪૬. એમ કહીને એણે ફૂલની છાબડી ઉઘાડી અને સસપનાં કુલથી ભરેલી છાબ મારા પિતાના હાથમાં મુકી. એ ફુલને સુગંધ, હાથીના મદના ગંધ જેવો, તીવ્ર હતો અને તેથી ચારે દિશામાં તેને સુગંધ પસરી રહ્યો. પ્રભુને અર્પણ કરવાના સંકલ્પ તે છાબને મારા પિતાએ પિતાને કપાળે અડાડી, અને પછી દેવને ચઢાવવાને માટે એમણે તેમાંથી થોડાંક ફુલ જુદાં કાઢ્યાં, થોડાંક મને આયાં, ડાંક મારી માને આપ્યાં ને બાકીનાં મારા ભાઈઓને અને ભાભીઓને પહોંચાડ્યાં.
૧૪૭–૧૫૬.એ બધાં કુલ હાથીદાંતના જેવાં સઢ હતાં, પણ મારા પિતાની નજરે અમુક એક કુલ ઉપર પડી. એ પુલ ભવ્ય સ્ત્રીના સ્તન જેવડું મેટું હતું અને રંગે હેજ પીધું હતું. શેક વાર સુધી તે એ પુલની સામે એ ચકિત થઈને જોઈ રહ્યા. પછી જ્યારે એ વિચારમાંથી જાગ્યા, ત્યારે હસીને મને એ પુલ આપ્યું ને બોલ્યાઃ - “આને રંગ તો જો! કુલ ઉછેરવામાં અને સુગંધ પારખવામાં તું નિપુણ બની છે, તેથી એ વાત તે તું સારી રીતે સમજે. આ બધાં સફેદ સપ્તપર્ણનાં કુલેમાં આ એક પીછું કેમ? વખતે કોઈ કુશળ કારીગરે આપણને આશ્ચર્ય પમાડવા અથવા તે કુલ ઉછેરવાની કળામાં નિપુણતા દેખાડવા આમ કર્યું હશે? કેમકે દાહક અને બીજાં દ્રવ્યથી (તેમને કુલના કયારાની માટીમાં મેળવવાથી) કુલને અને ફળના ધાર્યા રંગ લાવી શકાય છે. કારણ કે એવા પઢાર્થોમાં છેડને ખીલવી તેમાં ફેરફાર કરવાનું વલણ હોય છે, જે આપણે ચેમાસામાં નજરે જોઈએ છીએ. છતાં યે જુદા જુદા રંગનાં કુલ અને ફળ ઝાડથીજ પરખાઈ આવે છે.”
૧૫૭-૧૫૯ પિતાનાં વચન સાંભળીને મેં એ કુલને બરાબર તપાસી જોયું અને પછી એ બાબતમાં ચકકસ નિર્ણય ઉપર આવતાં હું વિનયભાવે બેલીઃ
- ૧૬-૧૬૨. જમીનની જાત ઉપર, વાવેતરની છત ઉપર, બીજ કે ઘરૂ ઉપર, તથા ખાતર અને વરસાદ ઉપર ઝાડની જાતને આધાર રહે છે. અને આ બધી વસ્તુસ્થિતિ ઉપર બારીક નજર રાખીને કુશળ કારીગર કુલને બધી જાતના રંગ લાવી શકે છે. પણ આ કુલના સંબંધમાં એવું કંઈ થયું જણાતું નથી, કારણ કે એના સુગંધ ઉપરથી હું પારખી શકું છું કે પીળો રંગ એ ફુલને પિતાને નથી, પણ કમળના પુલના રજકણ એ ફુલને લાગેલા છે તેને છે.
૧૩. મારા પિતાએ ઉત્તર આપેઃ “પણ બાગ વચ્ચેના સપ્તપર્ણના ઝાડ, ઉપર આપણું આ જે કુલ કુટયું છે તેને કમળના કુલના રજકણ લાગે કેવી રીતે?”
૧૬૪–૧૬૯ મેં કહ્યું“આ ફલમાંથી જે વાસ આવે છે, તેમાં કમળને વાસ વધારે પડત છે અને તે ઉપરથી આપણે એ અનુમાન ઉપર આવવું જ જોઈશે કે
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પોળા સપ્તવણ પુલના કાથડો.
આપણું સમવ નું પુલ કમળપુલને રજકણે પીળું રંગાયુ છે. સપ્તપર્ણ ના એ ઝાડ પાસે તળાવ હાવુ' જોઇએ ને આ શરઋતુમાં એમાંનાં કમળપુલ મુખ ખીલ્યાં હાવાં જોઇએ; અને ત્યાં એ પીળે રજકણે રંગાયેલાં કમળપુલ ઉપર તેમાંનું મધ ચુસવા હુજારા મધમાખીઓ બેસતી હશે અને ત્યાંથી આગળ ઉડતાં એ મધમાખીએ સપ્તપણું નાં ધાળાં પુલ ઉપર થઈને જતી હશે અને પેાતાની પાંખ ઉપર આવેલા કમળના રજકણુ એ પુલ ઉપર પડતા હશે. અને આ રીતે આપણું આ કુલ પીળું થયું હોવું જોઇએ. બીજો તા કાઈ જ સભવ નથી; અને હું જે કહુ. છુ તેની ખાતરી આપણને આપણી માળણ પાસેથી થઈ શકશે.
૧૭૦-૧૭૨. મારૂં કથન સાંભળી પિતાએ મારા કપાળ ઉપર વહાલથી ચુખન કર્યું' ને ખેલ્યા: ‘અહુજ સુંદર રીતે આ કાહ્યા તે ઉકેલ્યા છે; હું... પણ મારી મેળે એ જ અનુમાન ઉપર આવ્યેા હતેા, પણ તારી પરીક્ષા કરવાને માટે જ મે તને એ પ્રશ્ન કા હતા. ખરેખર હવે તું સત્વર લગ્ન કરવાને ચેાગ્ય થઈ છે અને તારે ચેાગ્ય વર શેાધી કાઢીશ.’
૧૭૩-૧૭૪. આ વખતે મારી માતાએ મારા પિતાને કહ્યુઃ જેને વિષે આવા સુંદર અનુમાન પર આવી તે ઝાડને જાતે જોવાની મને છે.' પિતાએ કહ્યું: ‘ભલે, તમારા સમગ્ર સ્ત્રીમડળને લેઈને ત્યાં જઈ શકે. બહાર ફરવા જવાથી તમને બીજા પણ લાભ થશે.’
૧૭૫–૧૭૬. અને પછી પિતાએ ઘરના મુનીમને ખેલાવીને કહ્યું: કાલે સવારે આગમાં ઉજાણીના દાખસ્ત કરી. બધી વ્યવસ્થા ખરાખર કરજો. સ્ત્રીમડળ ત્યાં આનંદ કરવા જનાર છે. ’
૧૭૭-૧૮૧. દાસીએ, સખીએ અને મારા ભાજનની સંભાળ રાખનારી દાસી મેલી: કારણ કે જેમ ઇંધણુ વિના દેવતા ટકતા નથી, ખાવાની વેળા વટાઈ જાય એમ ન થવુ* જાઇએ. ’
આપણી દીકરી બહુ આકાંક્ષા
ભાભીઓએ મને વધાવી લીધી. અને · હુવે વખત થયા છે, માટે જમી લે. તેમ અન્ન વિના શરીર ટકતું નથી.
૧૮૨-૧૮૭. ચદ્ર અને દૂધના જેવી સફેદ અને ઉત્તમ પ્રકારે બનાવેલી ખીર પછી મે' ખાધી અને ત્યાર પછી તાજા માખણના બનાવેલા પાક ખાધા. પછી એક વાસણમાં મારા હાથ ધોઈ નાખ્યા ને રૂમાલે લેહીને સાફ કરી નાખ્યા. ત્યાર પછી મારા હાથ અને માં ઉપર તેલ ચેાન્યુ.
૧૮૮-૧૯૩. આવતી સવારે ખગમાં જવાની વાટ જોતી ઞી સ્ત્રીઓના માં ઉપર આન' આનંદ છવાઈ ગયો, અને એટલામાં જ આરામ અને નિદ્રા લેતી રાત્રિ આવી
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તરડાવતી.
પહોંચી. મેં પણ આ અજવાળી રાતે ખૂબ આનંદમાં ગાળી, અને જ્યારે ઉંઘ આવી ત્યારે દીવાને અજવાળે જ પલંગમાં જઈ સૂતી. સવાર થતાં મેં હાથ મેં ધોયાં અને દેવને નમન કરી સાધુપુરૂના ગુણમરણ પૂર્વક સંક્ષેપમાં પ્રતિકમણ કર્યું. પણ અનેક સ્ત્રીઓને તે રાત ઉતાવળે પુરી થતી ન હતી એટલા માટે સતને ગાળો ભાંડતી, અને ખરેખર કેટલીક તે બાગમાં શું શું જોવાનું મળશે અને સરોવરમાં સ્નાન કરવાથી કે આનંદ થશે ઈત્યાદિ અનેક વિષયે ઉપર વાત કરતી આખી રાત જાગતી બેસી રહી.
૧૪-૧૯૮. ઉજાણીની વ્યવસ્થા કરવાને મુનીમ તે જોઈતા ચાકરેને લઈને આગળથી મળસ્કે જ બાગમાં ગયા હતા. એ પૂર્વાકાશના કમળને ખીલવતા, આકાશમાં પિતાને પ્રવાસ કરતા કરતા સૂર્યદેવ ઉદય પામ્યા. હવે સ્ત્રીઓ જુદા જુદા રંગનાં કઈ સુતરાઉ તે કઈ હીરાગળ તે કઈ ચીનાઈ, એમ-બહુ મૂલ્યવાન વસ્ત્રો પહેરી બહાર નિકળી; એમણે વળી મેતીનાં અને સેનાનાં રત્નજડિત ઘરેણું પહેર્યા હતાં. સ્ત્રીઓની સુંદરતાએ શેભામાં વળી શુભા વધારી મુકી અને તેમની જુવાનીએ તેના ઉપર વળી એપ ચઢા.
૧ ૨૮૪. મારી માતા પણ એટલામાં તૈયાર થઈ ગઈ હતી અને શુભ મુહૂર્ત જોઈને એણે આધેડ નારીઓના ભવ્ય સંઘને પિતાની પાછળ લી. પાછળ તેમની ચંચળતાએ મહાલતી જુવાન નારીઓ ચાલી. તેમના ઝાંઝરના, કટિમેખળાના અને બીજા ઘરેણાને ઝણકારથી હવેલીનું આંગણું એવું તે ઝણઝણી રહ્યું કે જાણે તે સંઘને વિદાય દેનારાં વાજાં વાગતાં હેય. અને આ સંઘ નિકળવાના સમાચાર મારી માએ મને, મારી સખીઓ મેકલી, કહાવ્યા.
૨૦૫-૨૦૯. મારી સખીઓ શણગારાતી હતી તે વેળાએ હુ પણ સેથી અને જ કપડાંથી અને ઘરેણાંથી શણગારાતી હતી, અને મારા અતિ મૂલ્યવાન શણગાર કરીને તેમનાથી ત્રણ ગણી શોભા પામી ચંપાના ફુલ પેઠે ખીલી નીકળી હતી. પછી હું સખીમંડળની વચ્ચે મ્હાલતી મ્હાલતી હવેલીના આંગણામાં આવી ઉભી. ત્યાં આવીને જોયું તે ઇદ્રના સ્વર્ગમાં જાણે જુવાન અપ્સરાઓ ટેળે મળી હોય એમ અમારા આંગણામાં જુવાન નારીઓ પુર ભપકામાં ટેળે મળી હતી.
૨૧-૨૧૪. રથને બળદ જોડી દીધા હતા, અને પિતાની બેઠક પાસે ઉભેલા સારથિએ મને દેખતાં જ કહ્યું: “અહીં બેન; શેઠે તમારે માટે આ અનુપમ સુંદર રથ નક્કી કર્યો છે.” એમ બોલતાંની સાથે જ તેણે મદદ કરીને મને રથમાં ચઢાવી. રથમાં સુંદર મૂલ્યવાન ગાલીચે પાથર્યો હતો. મારી દાસી અને સખી સારસિકા પણ એજ રથમાં આવી બેઠી ને પછી રથ પિતાની ઘુઘરીઓ ખખડાવતે ચાલવા લાગ્યું. પાછળ અમારો
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માગમાં પ્રયાણુ.
૧
રખવાળ પેાતાના પાશાક પહેરીને ચાલતા હતા. આજી માજી અમને જોવા આવનાર સ્ત્રીઓની ખૂબ ભીડ જામી હતી.
૨૧૫-૨૨૪. અમારે। સુંદર સધ નગરના રાજમાર્ગ વચ્ચે થઈને ચાલ્યેા. ઠેર ઠેર લાફા ટોળેટોળાં મળીને અમને જોવા લાગ્યા. નારીએ પેાતપેાતાનાં ઘરની બારીઓમાંથી. માં કાઢીને મહુ આતુરતાએ અમને જોઈ રહી હતી. એ જોઇ હું તેા છક થઇ ગઈ.. તેમ જ રસ્તા ઉપર અને ઘરની ખારીઓમાં જાણે હીરા જડી દીધા હોય એમ સજ થઇ ગયેલાં માણસે પણ અમને જોઇને છક થઈ ગયાં. . સ્વર્ગ, રથમાં બેશી ને જતી લક્ષ્મીને જેમ જોઈ રહે તેમ લેાક મને એકીનજરે જોઈ રહ્યા. નગના જીવાન પુરૂષોનાં હૈયાં મને જોઇને આતુર અને બળવાન કામરાગને લીધે એવાં તે ખળી ઉચાં કે તેમનાં જીવન જોખમમાં આવી પડ્યાં. પણ જુવાન નારીઓને બીજી જ ઈચ્છા થઈ આવી:– જો આપણી જાતને સ્વર્ગની સુંદરતા સાથે સરખાવવી હાય તા આપણે આના જેવું સુંદર થવું જોઇએ. મારા મુખની સુંદરતાથી અને મૃદુતાથી નગરના એ રાજમાર્ગ ગાંડા ગાંડા થઇ ગયા, અને સુંદર દેખાવથી ઉભરાઇ ગયા. એમાં મારા દેખાવ તે સાથી ચમત્કારી હતા. લેાકેા પાસેથી સાંભળેલી આ બધી વાતા મારી સખીઓએ મને કહી.
૨૨૫-૨૨૮. માગને દરવાજે આવી પહોંચતાં અમે યાં રથમાંથી ઉતર્યાં‘ અને ત્યાં આગળ ચાકીદાર મુકીને અમે બધાં ફરવા નિકળ્યાં. જાણે સ્વના નાદનવનમાં જુવાન અપ્સરાએ ફરતી હેાય, તેમ બધી નારીએ ફાવે તેમ પાતાતાને માગે ફરવા લાગી. ખીલતાં ઝાડા એક ખીજાની સાથે ગુંથાઇને જે ઉપર દરવાજા જેવાં મની ગયાં હતાં, તેની નીચે થઇને તેઓ ચાલવા લાગી, અને ઝાડ ઉપરથી પુલભરી ડાંખળીએ તેડવા લાગી.
૨૨૯ ૨૩૦. એટલામાં મારી માતાએ બૂમ મારીઃ આવે આપણે મારી દીકરીએ બતાવ્યું છે. તે, તળાવને કાંઠે ઉભેલુ, સપ્તપણુંનું ઝાડ જોવા જઇએ. ', એની સૂચના પ્રમાણે બધું એ નારીમડળ આનંદભર્યાં પગલાં ભરતુ તે દિશાએ ચાલ્યુ,
૨૩૧–૨૩૬. રથમાંની મારી સહચરીએ અને હુ' થમાંથી ' ઉતર્યા પછી માગની શાભાથી મુગ્ધ મને અને આંખે અંદર પેઠાં. શરઋતુએ માગનાં વિવિધ પુલાને સુદર ખીલાવ્યાં હતાં. જાણે કુલે ફુલે ભમરા ભમતા હાય તેમ હુ' તેા ભમવા લાગી, અને પક્ષીઓનાં હજારા તરેહનાં ગાનથી મારા કાનને પરિતૃપ્ત કરવા લાગી. જેમ જુગારી પેાતાની મૂઠ હારી બેસે ને રમતના તેના જોસ ભાગી જાય, તેમ સતને સભેાગની આતુરતા વિના જ મળફાને ખેલવાની કુ ો અને
આરભે જેનાં સુંદર પીછાં ખરી ક્રૂરતા જોયા. વળી કેળાના અને
પડયાં છે એવા મેર તાલના માંડવા અને
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તરંગવતી,
એવી એવી ઘણી જગાઓ બાગમાં જોઈ. કુલને લીધે સફેદ થઈ ગયેલાં સપનાં ઝાડ પાસે રાતાં અશોકવૃક્ષ અને આસમાની બાણક્ષ હતાં.
૨૩૭-૨૫૦. ચાલતાં ચાલતાં એક સુંદર સપ્તપર્ણનું ઝાડ અમારી નજરે આવ્યું. એ ચારે બાજુએથી, ફુલશણગારના ભારે કરીને, લચી ગયું હતું. કુલથી સફેદ થઈ ગયેલી એની ડાંખળીઓ મધમાખીઓનાં ટેળાંથી નમી ગઈ હતી અને જાણે કાળા રંગને પોષાક ચઢાવ્યો હોય એવું દેખાતું હતું. અને પવને કરીને જે કુલ ભંય ઉપર પડી ગયાં હતાં તેને ગાંડછાએ ચઢેલા કાગડા સફેદ માખણના લોચા માની ઉપાડી ઉડતા ફરતાં હતા. એ ઝાડ ઉપરથી નારીના સ્તન જેવડું મોટું ને ચાંદીના વાડકા જેવું સફેદ એક પુલ મેં ચુંટયું કે તરત જ મધ ચુસનારી માખીઓનું એક ટેળું, કમળ ઉપર બેસવાની લાલસાએ કમળના ઘાટના અને કમળના જે વાસ આપતા મારા મેં તરફ ધસી આવ્યું. મેં ઉપર એ મધમાખીએ બેસવા જતી હતી, તેમને મેં મારા મૃદુ હાથ વડે વારી; પણ મારા હાથ તે જાણે પવનમાં ડાંખળી હાલતી હોય એમ માની એની દરકાર કર્યા વિના જ તે મેં ઉપર આવી લાગી. વેદનાએ મેં ચીસ પાડી અને હું પાછી પી; પણ માખીઓના ગણગણાટ અને પંખીઓના કલબલાટમાં મારી ચીસ તે કયાંય દબાઈ ગઈ. ઘોડાના મેંના ફ્રેણ કરતાંએ નરમ એવી મારી ઓઢણી મેં મારા મેં ઉપર ખેંચી લીધી, કે જેથી ઘણીખરી. માખીઓ ખશી ગઈ. પણ આમતેમ દેડવાથી મારાં રત્નજડિત ઘરેણું વિખેરાઈ પડયાં, અને કામદેવનું બાણ જેના વડે ચઢાવાય એવી કટિમેખળા કેડેથી છૂટી પડી. પણ વેદનાને લીધે એની પરવા કર્યા વિના જ હું તે દેડી ને કેળના માંડવામાં પશી ગઈ. ત્યાં મારી સખી સારસિકા હતી તેણે મને આશ્વાસન આપી કહ્યું: “તને મધમાખીઓ તે હજી યે બહુ લાગેલી છે, પણ ડરવા જેવું કશું નથી.”
૨૫૧-૨૬૧. જે સપ્તપર્ણને અમે જોવા આવ્યાં તે ઝાડ પાસે હવે હું ગઈ. કમળના તળાવવાળી મધમાખીઓનાં ટેળેટેળાં તેના ઉપર બેઠાં હતાં. પુનમના ચાંદા જેવા મધપુડાને છોડીને આજે એ બધી શરનાં કુલેમાં ભરાઈ બેઠી છે. અમારા સાથમાંની જે સ્ત્રીઓ ત્યાં પહોંચી હતી તેમણે તો ફુલના મેહમાં ઝાડની ડાંખળીઓ સુદ્ધાં બધી ચુંટી નાંખી હતી. મારી સખીના ખભા ઉપર મારા ડાબા હાથનું કાંડુ ટેકવીને અને કમળસરોવર ભણી નજર રાખીને હું આગળ ચાલી રહી હતી. બધી જાતનાં કમળફુલ પુરેપુરાં ખીયાં હતાં. બાગના રત્નસમાન આ સરોવરની સપાટી પક્ષીઓના શબ્દથી ગાજી રહી હતી અને મધમાખીઓનાં ટેળાંથી છવાઈ રહી હતી. રાતાં કુલ પ્રભાતની, સફેદ ફુલ ચંદ્રપ્રભાની, અને શ્યામળાં કુલ વાદળાની યાદ આપતાં હતાં. મધમાખીઓને ગણગણાટ અને હસેના નાદથી ગગન ભરાઈ ગયું હતું. પાણીની ઉપરનાં મેજ ઉપર ફલ પવનથી હીંચકા ખાતાં હતાં. ત્યાં મેં કલબલાટ કરતી બતકે, નર-માદાની જોડીએ
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પૂર્વભવનું
મરણ વર્ણન,
ચાલતાં ચક્રવાકે, અને ઘેળો પીછો વાળા આનંદી હસે જોયા. પીળાં કમળ ઉપર બેઠેલી મધમાખીઓ સેનાની તાસકમાં મુકેલાં નીલમ જેવી શોભી રહી હતી અને રેતીના કિનારા ઉપર રૂના જેવાં સફેદ પીછાંવાળ હંસ શરહ્ના સુંદર હાસ્ય સાથે પિતાનું હાસ્ય ભેળવતા હતા.
(૨૬-૨૭. પછી મેં નર-માદાની જોડીએ બંધાયેલાં અને પિતાના સ્નેહને લીધે પંકાયેલાં અનેક ચકવાને જોયાં. એમના રાતા રંગમાં પીળા રંગ ભેળવાયાથી એ રમણીના સ્તનના રંગ જેવાં બહુરંગી દેખાતાં હતાં. તળાવમાં રંગિત ફરસબંધી જેવાં લીલાં પાનનાં જે આસન બંધાઈ રહ્યાં હતાં તેના ઉપર કેટલાક આવા ચક્રવાક આરામ લેતા હતા, અને કેટલાક વળી આવાં પત્રાસનેની વચ્ચે વચ્ચે સોમલન જેવા રાતા રંગના, જાણે સનેહને લીધે જ રાતા બન્યા હોય એવા, પોતાની નારીઓના સ્નેહને પિષતા બેઠા હતા. એ વખતે તળાવમાંને આ દેખાવ હું જોતી હતી તે વખતે એ ચક્રવાકેને પરસ્પરને સનેહ અને મમતા જોઈને મારા મનમાં કોઈ અગમ્ય વિચારો આવવા લાગ્યા. આ જન્મમાં નહિ અનુભવેલી એવી કાંઈ કલ્પના મને થવા લાગી અને એ ઉંડા વિચારમાં ને વિચારમાં મને મારે પૂર્વ અવતાર પ્રત્યક્ષ થઈ આવ્યું. એ પૂર્વ જન્મનું મરણ થતાં જ મને મૂછ થઈ આવી અને ચેતન વિનાના શરીરની માફક હું જમીન પર ઢળી પડી.
૨૬૮-ર૭૨. જ્યારે મને ભાન આવ્યું ત્યારે જાણ્યું કે મારી આંખમાંથી તે શું પણ મારા વેદના-ભર્યા હૈયામાંથી પણ આંસુની નદી વહે જતી હતી, અને મારી સખી કમળપત્રને પડીઓ બનાવી તેમાં પાણી લઈ આવીને મારા દુખભર્યા હૈયા ઉપર અને આંખ ઉપર એ પાણી છાંટતી હતી. હું ઉભી થઈ અને પાસેની કેળની ઘટા અંદરની એક કુંજમાં પડેલી આસમાની કમળને વાત કરાવતી કાળી શીલા ઉપર જઈને
બેઠી. ત્યાર પછી મારા દુઃખમાં અને અશાન્તિમાં હૃદયથી ભાગ લેતી મારી સખી મને પુછવા લાગી. “બેન, તને એકદમ આ શું થયું? શું તને ચક્કર આવવા લાગ્યાં કે બહુ થાક લાગ્યો કે ખરેખર તને મધમાખીએ ચટકે ભર્યો?”
ર૭-ર૭૭. મારી આંખમાં નાં આંસુ તે એ પુછી રહી હતી, પણ મારા ઉપરના નેહને કારણે એની આંખમાંથી આંસુ દડદડ વલ્લે જતાં હતાં. વળી એ બેલીઃ “તને આમ મૂછ શાથી આવી ગઈ? બેન, તું જે જાણતી હોય તે કહે કે જેથી જલદી તેને ઉપાય થાય; તારૂ શરીર કથળી ન જાય એટલા માટે હવે ખાટી થવાય નહિ. દરદ બેશક કંઈક ભારે હોવું જોઈએ, બેપરવા કે બેદરકાર કર્યો પાલવે નહિ. વાત હાથમાં હેય એટલામાં જ કંઈક ઉપાય કરી લેવું જોઈએ, નહિ તે માત્ર ઉઝરડે છે, તે પણ કેઢિીના ઘા જે થઈ જાય.”
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૧૪
તર’ગવતી.
૨૭૮-૨૯ સખીને કહી શકાય એવુ' એણે મને ઘણુ કહ્યુ. ત્યારે મેં ઉત્તર આપ્યું: ‘ભટ્ટ જેવું કશું નથી; એન, મને ચક્કરે આવ્યાં નથી, બહુ થાકી ચે ગઈ નથી કે મધમાખીના ચટકા યે લાગ્યા નથી.
૨૮૦-૨૮૧. પણ એ તે વચ્ચે જ એટલી ઉઠી કે: ‘ત્યારે તુ રંગ વિના પ્રીકા પડી ગયેલા રામધનુષની પેઠે મૂર્છા ખાઇને એમ લેય ઉપર કેમ પડી ગઈ? બેન, તુ' તારૂં હૈયુ* ખેાલ, હું તેા તારી પ્રિય સખી છું, ’ ૨૮૨–૨૮૬. નીલમ જેવી સુંદર કુ ંજમાં મે' સખી સારસિકાને કહ્યું:૮ સારી પ્રિય સખી, પવનથી તુટી પડેલા પાનની પેઠે મૂર્છા ખાઇને હું શા માટે ભેાંય ઉપર પડી એ બધી હકીકત હું તને ટુંકામાં કહીશ. તું મારી નાનપણુની સખી છે અને મારા સુખદુઃખની ભાગિયણુ છે; તેમ મારાં મધાં છાનાં પણ તું જાણે છે. ત્યારે આજની વાત પણ બધી તને કહીશ. પણ બધી વાત તારા હૈયામાં રાખજે. એ તારે માંએથી ખીજા કોઈને કાને જવા પામે નહિ ! મારા ગળાના સમ માં કે બીજા ફાઇને આ વાત કહીશ નહિ. ’
૨૮૭–૨૮૮. ત્યારે સારસિકા મારે પગે પડી ને બેલી: બેન, તારા પગના સમ ને તારા ગળાના સમ, હું કોઈને નહ કહું', '
'
૨૮૯ ૨૯૧. પછી મારી વહાલી ને વિશ્વાસુ સખીને મે કહ્યું: અહુ દુઃખની વાત છે કે મારા પાછલા અવતારની વાત મારી આંખેાએ આંસુ વડે બહાર નિકળી જવા દીધી છે. મારા પ્રિયને મને જે વિજોગ થયા છે તેનું સ્મરણ થઇ આવવુ... એ, પણ અહુ દુઃખની વાત છે. જે સ્નેહ મેં એકવાર માણ્યું છે ને જે દુઃખ લે!ગળ્યુ છે તે સૈા હું તને કહું છું, જે મન દેને સાંભળ, ’
૨૨. મારી સખા મારી બાજુમાં સાંભળવાને અધીરી થઇને બેસી ગઇ ને આંસુ વહેતી આંખાએ મેં વાત શરૂ કરી.
(૪. પૂર્વ જન્મનુ' વૃત્તાન્ત.)
૨૯૩-૨૯૪. આપણી પાડેાશમાં અંગ નામે પ્રસિદ્ધદેશ છે અને એ દેશ શત્રુથી, ચારથી ને દુષ્કાળથી સા નિભાઁય છે. ત્યાં ચંપા નામે સુંદર નગર છે. જેમાં અનેક સુદર ખાગમગીચા તથા રમણીય જલાશા છે ત્યાંની વસ્તી સાથે જ સ્ત્ર`સમી છે. ૨૫-ર૯. તે દેશની વચ્ચે થઈને પવિત્ર ગગાનદી વહે છે. તેને અને તીરે અનેક નગર અને ગામ વસેલાં છે અને જળપંખીઓનાં ટાળે ટાળાં તેમાં રહે છે. સમુદ્રની જાણે વ્હેલી પત્ની હોય એમ એ તેના તરફ ધસે છે. કાબ પક્ષી તેા જાણે એનાં કુંડળ છે, હુંસની હાર જાણે એની કિટમેખળા છે, ચક્રવાક પક્ષીની જોડ જાણે એનાં એ
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ગંગામાં જળકીડા
૧૫ સ્તન છે, એનાં મજાથી જાણે એ હસતી દેખાય છે. એને કિનારે હાથી, બળદ, વાઘ, ચિત્તા ને વરૂ રહે છે. પાણીની સપાટી ઉપર પાકા રાતા ઘડા તરતા હોય એમ ચકવાની જેડાં આનંદે રમ્યા કરે છે. હંસ બતક અને એવા જ બીજાં જળપ્રાણીઓ પણ ચિંતા વિના સ્વતંત્રતાએ ફરતા ફરે છે.
૩૦૦-૩૧૪. મારી પ્રિય સખી, ત્યાં હું આગલા અવતારમાં રાતાંપીળાં પીછાંવાળી ચક્રવાકી હતી અને સ્વતંત્રતાનું પૂરું સુખ ભગવતી. ચકવામાં નેહ એટલે સાચો અને પ્રબળ હોય છે તે સ્નેહ આખા જગતમાં બીજે ક્યાંય નહિ હશે. અને મારે નર તે વળી ચંચળ માથાએ કરીને અને ગેળ દડા જેવે શરીરે કરીને પ્રખ્યાત હિતે; તેમાં વળી એ કુશળ તરનારે હતો અને કેરેન્ટના કુલના ગોટા જેવો સુંદર હતો. તેનાં કાળાં અને રૂવાંટી વગરનાં પગનાં ચાખ્યાં કમળના કાળા પાન જેવાં હતાં. છેવટ સુધી તેને સ્વભાવ તપસ્વી જે સરલ હો, એને ફોધ તે બહુ પહેલેથી બળી ગયું હતું. રાતા પ્રભાતસમયે તેની સાથે જ હું તરવા જતી. ઉડતી પણ તેની સાથે જ. એવી રીતે અમે નેહમાં સાથે રહેતાં, ચઢતા ઉતરતા સુંદર શબ્દથી અમારા કાનને અને હૃદયને આનંદ આપતાં, એક બીજાને સુખી કરતાં, એક બીજાની પાછળ જતાં, સાથે રમત રમતાં અને એકબીજાને વિજોગ કદી સહી શક્તાં નહિ. નદીએ, કમળસરોવર, રેતીને કિનારે કે કિનારાના જંગલે-જ્યાં જતાં ત્યાં અમે સ્નેહને દેખાવ કર્યા વિના જ પણ સાચે સ્નેહે બંધાઈને સાથે જ રહેતાં,
૩૧૫-૩ર૬. એક સમે સૌ જળપક્ષીઓ સાથે અમે પણ ગંગાને પાણીએ બનેલા સુંદર તળાવમાં રમતાં હતાં, તેવે સૂરજને તાપે બન્યો બળે થઈ ગયેલું એક હાથી ત્યાં નદીમાં નાહવા કાજે આવ્યું. રાજાઓના ભાગ્યસમા ચંચળ એના કાન આમ તેમ હાલતા હતા; મૃદંગના જે મૃદુદુ અવાજ તે કર્યા કરતે, પણ વળી એ રાક્ષસસમું પ્રાણી વચ્ચો વચ્ચે મેઘગર્જનાના જે ભયંકર નાદ પણ કરતું. તેના કુંભસ્થળમાંથી મદ ઝરતો હતો અને સપ્તપર્ણના કુલના જે એને તીવ્ર વાસ પવનને બળે ચારે દિશાઓમાં પ્રસરી રહે. કિનારાના ઘુમ્મટ ઉપરથી આ મહાપ્રાણ નીચે ઉતયું. રેતીમાં પડતાં એનાં પગલાં વડે જાણે ગંગાની કેડ ઉપર કંદરે બનાવતું હાય તેમ દેખાવા લાગ્યું અને સમુદ્રની રાણી જેવી ગંગા જાણે એ હાથીથી ભય પામીને પિતાનાં મોજાને લઈને દેડી જતી હોય તેમ દેખાવા લાગી. એણે પાણી પીધું ને પછી સુંઢથી ફેફવાડે મારીને પાણી એવું ઉડાડ્યું કે જાણે નદી ઉપર વાદળ ચઢી આવ્યું. પછી પ્રવાહમાં એ ઉંડે ઉતર્યો અને સુંઢ વડે પાણીને પર્વત જેવડે પ્રવાહ પિતાની પીઠ ઉપર વહેવડાવ્યો. નદીમાં એણે એવાં તે મોજાં ઉડાવ્યાં છે તે અમે હતાં તે તળાવમાં પણ આવી પહોંચ્યાં. એ જ્યારે સુંઢ ઉંચી કરતો અને તેથી એનું મેં પહેલું થતું
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સરગવતો.
ત્યારે એનાં જડમાં, જીભ અને હોઠ વડે એવી ખખાલ દેખાતી કે જાણે એ અજન પર્વતની સિંદુરની ગુઢ્ઢા હાય.
મારા
૩૨૭–૩૩૫. ભયથી ત્રાસીને બીજા જળપ્રાણીઓની પેઠે હું પણુ સ્વામીની સાથે ઉંચે ઉડી ગઈ. પછી હાથી નદીમાંથી નિકળી પેાતાને રસ્તે પાછે! ચાહ્યા જતા હતા, તેવે સમે વનકુલાંએ શણગારાઅલા, હાથમાં ધનુષમાણુ લેઇને સાક્ષાત્ જમતા જેવા એક જુવાન પારધી આવી પહેચ્યા. એના પગ ઉઘાડા હતા અને નખ વાઘના પાશા ખૂબ લાંખા વધેલા હતા. એનુ શરીર ખૂબ મજબુત હતું અને એની પહેાળી છાતીમાંથી, ધનુષની પણછ ફુટે એમ, એ લાંખા હાથ ફુટતા હતા. તેની દાઢી રાતાશ પર અને સુંવાળી હતી; હેાઠ કઈક ફાટેલા હતા અને મળવાન ખાંધ ઉપર માંથું હાલતું હતુ; માથા ઉપર વાંકડીઓ વાળ હતા અને વાળના છેડા સાપની જીભશા દેખાતા હતા. વળી પત્રને અને સૂરજને તાપે કરીને એની ચામડી કાળી થઈ ગએલી હતી. તેથી એ રાક્ષસર્સમે કે જમતના સાક્ષાત્ અવતારસમા દ્વિસતા હતા. તેની પીઠે એક તુંબડુ લટકતું હતુ, અને તેમાં ખાણુ ભર્યાં હતાં. તેણે ભયંકર વ્યાઘ્રચમ પહેયું હતુ, અને તે જાણે વસ્ત્ર ઉપર મેશના કે સહીના લીસેટા તાણ્યા હાય એમ દેખાતું હતું.
પડે તેા ઉપર
૩૩૬-૩૪૧. પારધીએ એ હાથીને જોયા કે તરત જ, જરૂર ચઢી જવા માટે, દોડીને એક માટા ઝાડ નીચે જઈ ઉભું!, પછી ધનુષ પર બાણુ ચઢાવીને ખુબ જોરથી ખેચ્યુ ને હાથી ઉપર તાક્યું. પણ કમનશીબે એ નિશાન ચુકયા અને તે હાથીને ન લાગતાં સામે જ ઉડતા મારા સ્વામીને જઈ ચાઢ્યું. તેનાથી એમની એક પાંખ કપાઈ પડી ને તેની સાથે એ પણ મૂર્છા ખાઇને પાણીને કિનારે પડ્યા. હું મારા પ્રિયની પાછળ ઉડી અને એમની વેદના મારાથી નહિ સહન થઈ શકવાને કારણે હું પણ તેમની પાસે જ મુચ્છિત થઇ ધરણી ઉપર ઢળી પડી..
૩૪૨-૩૪૬. જ્યારે મને ભાન આવ્યું ત્યારે મેં ખળતે હૈયે . અને આંસુભરી આંખે
લાખના ડાઘા
શું જોયું ! મારા સ્વામીની પાંખ છુટી થઈને જાણે પવનના મળે તુટીને કમળ પડ્યુ હાય એમ એમની પાસે પડી હતી અને તેમના શરીરમાં ખાણુ ચાંચું હતું. પાસે પડેલી પાંખ કમળના પાન જેવી વિખરાઈ પડેલી હતી. જાણે રાતાપીળા ઘડા ઉપર પડવા હાય તેમ મારા સ્વામીના શરીર ઉપરના લેાહીના ડાઘ દેખાતા હતા. એ ડાઘ એટલા બધા પડયા હતા કે જે જોઇને કોઇને તા એમ જ લાગે કે અશોક કુલના ગેાટા ઉપર ચડનરસની છાંટ મારી છે; અને છતાં ચે એ પાણીને હાવાથી શુકલન જેવા કે આથમતા સૂર્ય જેવા ભવ્ય દેખાતા હતા.
કિનારે જ
પડેલા
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પતિવિજેગ.
૧૭ - ૩૪૭-૩૫, મારી ચાંચ વડે એ એમના ઘામાંથી બાણ ખેંચી કાઢ્યું, અને રડતી આંખે મારી પા વડે મેં એમને પવન નાખે. પછી મેં એમને બેલાગ્યા, પણ એ તે જડ જેવા નિશ્રેષ્ટ થઈને પડી રહ્યા હતા. તેમ છતાં સનેહને લીધે અને મુંઝવણને લીધે તે વખતે તે મેં માની લીધું કે હજી એ જીવતા છે.
૩પ૧-૩૫૩. પણ જ્યારે મને બધું સમજાઈ ગયું ત્યારે વણવી નહિ શકાય એવી વેદનાએ હું તે વવાર બેભાન થઈ ગઈ. પછી મારી પાંખમાંથી સુંદર પીંછાંને મારી ચાંચ વડે ચુંથી નાંખ્યાં; મારા સ્વામીની પાંખમાં પણ મેં ચાંચ મારી અને મારી પાંખે વડે હું એમને બાઝી પડી. હું એમની આસપાસ ઉડવા લાગી અને આમ રૂદન કરવા લાગી
૩૫૪-૩૫લ તમને, આ ગંગાના શણગારને, કીયા પાપીએ માર્યો? મારા સુખની ઈષ્યએ કેણે મને અનાથ કરી મુકી કે જેથી વિજેગનું દુઃખ મને આગના ભડકાની પેઠે બાળે છે, અને ભયંકર વિચારની અંદર મારે ડુબી જવું પડ્યું છે? મારા પ્રિય સ્વામી, હવે તમારે વિગે કરીને કમળસરોવર ઉપર હું આનંદ શી રીતે ભેળવી શકીશ? આપણા બેની વચ્ચે કમળના પાંદડાએ કરીને પણ વિજોગ તે, તે જાણે તમે પરદેશ ગયા છે એમ મને તેનું દુઃખ સાલતું, ત્યારે હવે તે મૃત્યુએ આપણને આજે કાયમનાં જુદાં પાડવાં છે, માટે હવે મારા દુઃખને અવધિ ક્યાં આવશે?
૩૬૦-૩૬પ, ફરીવાર પાછે એ પારધિ આવ્યું અને મારા જીવનના સાથી ઉપર નજર કરીને જેવા લાગે ત્યાં તે હાથીને બદલે મારા સ્વામી માર્યા ગયેલા જણાય, તેથી વેદનાએ કરીને એ બેલી ઉઠઃ “હા, પ્રભુ!” એ ભયંકર માનવીના ભયથી હું પાછી ઉd ગઈ. પણ મારા સ્વામી માર્યા ગયા તેથી એને પણ દીલગીરી થઈ. એણે એમને ઉપાડીને ચંદ્રપ્રકાશ જેવી રેતી ઉપર મુક્યા, પછી કિનારા ઉપર એ લાકડાં શોધવા ચાલ્યા એટલે ફરીને હું મારા પ્રિય સ્વામી પાસે જઈ બેઠી.
૩૬૬-૩૬૯ ડુસકાં ભરતી ભરતી વિદાયના છેલ્લા શબ્દો હું બોલતી હતી તેવામાં તે પારધિ લાકડાં લેઈને વળી પાછા આવ્યું અને હું ફરી પાછી ઉડી ગઈ. મને જણાયું કે એ પાપી હવે મારા સ્વામીને અગ્નિસંસ્કાર કરશે, તેથી એમના મૃત દેહ ઉપર આમતેમ આકાશમાં મેં નિરાશાએ ઉડ્યા કર્યું.
૩૭૦-૩૭૩. અને સાચે જ એ પારધિએ પોતાનું ધનુષ અને બાણભર્યું તુંબડું ભેય પર મુકીને મારા સ્વામીને લાકડાની ચિંતામાં મુકયા. પછી એમાં અગ્નિ સૂર્યો, અને લાકડાની ચીપાટે આમતેમ બેશી ઘાલી. મને તે એ અગ્નિ દાવાનળ કરતાં પણ ભયંકર લાગ્યો અને વિચારમાં ને વિચારમાં મારા સ્વામીને શોકભર્યો હદયે કહેવા લાગી
૩૭૪–૩૭૮. એ પ્રિય સ્વામી, આજ સુધી આપણા મિત્રરૂપ પાણીમાં તમે વાસ કરતા, તે આજે આ શત્રુરૂપ અગ્નિને શી રીતે સહન કરી શકશે? જે અગ્નિ
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તરણાલી, તમને બાળે છે તેથી હું પણ બળી મરું છું, એ અગ્નિ તમે શી રીતે સહન કરી શકશો? આનંદ અને શોક ઉપજાવનારૂં આપણું પ્રારબ્ધ હજીયે ધરાયું નથી કે આપ ણને એકવાર એક કર્યા પછી પાછાં ફરી જુદાં કર્યો ? અરેરે! મારું હૈયું લેઢાનું હેવું જોઈએ, નહિ તે એ તમારૂ દુઃખ, પ્રિયતમ, આમ જોઈ રહે નહિ, પણ તરત જ તમારી ચિતામાં કુદી પડે. આમ દુઃખમાં ને વિજોગમાં હું તમારાથી દૂર રહું એના કરતાં તે એ ભલું કે હું તમારી સોડમાં ચિતા ઉપર સુઉં.
- ૩૭૯–૩૮૩. આમ શોકના આવેગને કારણે ને નારીસુલભ વીરતાને પ્રભાવે હું સતી થવાના ઠરાવ ઉપર આવી. જે સનેહી આત્માની પાછળ એમનું શરીર ચાલ્યું જતું હતું તેમની પાસે હું અગ્નિમાં જઈ પડી, અનિ હવે મને હિમ જેવો ઠંડી લાગવા લાગ્યો, કારણ કે હું મારા સ્વામીની સોડમાં હતી. ફુલમાં જેમ માખી, તેમ હું અગ્નિમાં ડુબી ગઈ અને એ અગ્નિએ મને મારા સ્વામી ભેળી કરી દીધી. જો કે એ રાતી પીળી અગ્નિની શિખા મને બાળતી મારી ચારે બાજુએ રમતી હતી, તેયે પતિના વિચારમાં મને જરા યે દુઃખ થયું નહિ. એમ, મારી સારસિકા, હું સતી થઈને મારા પ્રિય પતિની પાછળ ચાલી નિકળી.
૫ કામના, સાધના અને સિદ્ધિ ૩૮૪-૩૮૫. (સાધ્વી તરંગવતી આગળ બેલે છે) અમારાં મરણની કથા મારી સખીને હું વર્ણવી રહી કે તરત જ શેકને લીધે ફરી હું મૂચ્છ પામી. ફરી
જ્યારે મને ભાન આવ્યું ત્યારે ફરીથી એને અચકાતે શબ્દ અને ધડકતે હૈ કહેવા લાગી
૩૮૬-૩૯૬, ગંગાને કાંઠે હુ સતી થયા પછી કૌશામ્બી નગરીમાં ત્રાષભસેન શેઠના ધનવાનું અને આબરૂદાર ઘરમાં અવતરી. એક વખતે આ જળતો જોઈ મને એ મારી પૂર્વ જન્મ વાર્તા સાંભરી આવી હતી, તેમજ આજે પણ અહીં આ તળાવના ચકવાકેને જોઈને મને ફરી બળવાન નેહ-સ્મૃતિ થઈ આવી. આ પ્રમાણે મારા પાછલા જન્મનું પ્રારબ્ધ મને બધું કેમ સાંભરી આવી તાજું થયું અને હું મારા સ્વામીથી મૃત્યુ થયે કેમ વિજોગ પામી, એ બધું મેં તને ટૂંકામાં કહ્યું છે. પણ તે મારા જીવના સોગન ખાધા છે તે પ્રમાણે, હું મારા પ્રિયને ફરી મળી શકું નહિ ત્યાં સુધી, આ વાત કોઈને કહેતી નહિ. હવે જ્યારે મારી કામના સફળ થશે, ત્યારે જ મને સુખ થશે.
આજ સાત વર્ષથી હું મારા એનેહીને ભેટવાની આશામાને આશામાં, મારા માતાપિતાને બેટી પેટી આશાઓ આપે જાઉં છે. જે એમાંથી કશું હવે વળશે નહિ તે હૈયાના દુઃખને ટાળવાને માત્ર એક જ માર્ગ બાકી છે, જે જિનપ્રભુએ જગના ઉદ્ધાર રને માટે સાર્થવાહ થઈને બતાવ્યું છે. તે નિવણને માર્ગ સાધવાને માટે હું સાધ્વી
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મન ત્યાગ.
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ઈશ. સ`સારના સબંધમાં બધાવાથી આ જાતનું જે વિજોગનું દુઃખ ખમવું પડે છે, તે દુઃખ ફરી બીજી વાર ન થાય તેવે માર્ગે હુ* વિચરીશ સ'સારનાં દુ:ખની સાથે સાથે જન્મમરણનાં દુઃખ ટાળીને આત્માના સાચા સ્થાનમાં પહોંચવાને માટે હું સાધ્વી થઈશ.
૩૯૭–૪૦૧. ( તર’ગવતી વળી આગળ ખેલે છેઃ ) સ્નેહને મળે મારી સખી ઉપર વિશ્વાસ રાખીને મારા દુઃખની બધી વાત મે એને કહી. એ ભલી સારસિકા પણ મારા ઉપરના સ્નેહને લીધે અને મારા દુઃખની દયા આવવાને લીધે ભારે વિલાપ કરવા લાગી. પછી એ રડતી આંખે મેલી:
અરેરે સખી, મારા પ્રારબ્ધમાં આ શી તારા સ્વામીના વિજ્રગની દુઃખભરી વાર્તા સાંભળવાની! પૂર્વનાં કર્મ, વખત જતાં પાકીને, કેવાં કડવાં ફળ આપે છે! પણ મૅન, ધીરજ ધર, ધ્રુવ તારા ઉપર જરૂર કૃપા કરશે અને તારા એકવારના સ્વામી ભેળી તને કરશે.
૪૦૨-૪૦૩. આવાં પ્રિય આશ્વાસનનાં વામ્યા ખેલીને સારસિકાએ મને શાન્ત કરવાના પ્રયત્ન કર્યો, અને પાણી લાવીને મારી આંસુભરી આંખેા ધેાઇ નાંખી. પછી અમે કેળાની એ કુંજમાંથી નિકળીને ચાલ્યાં અને જે જગાએ મારી માતા સ્ત્રીઓના સાથને લેઈ આનઃ ઉડાવતી હતી ત્યાં ગયાં.
૪૦૪-૪૦૬. મારી માતા તળાવને કિનારે હતી ને ત્યાં સૈાના સ્નાનને માટે વ્યવસ્થા કરતી હતી. હું તેની પાસે ગઇ. મારી આંખા રાતી અને મારી માં પ્રીકુ જોઈને તરત જ તે ગભરાએલા અવાજે માલીઃ—બેટા, તને આ શું થયું ? આ માગના આનંદમેળામાં તને દુઃખ જેવું શું લાગ્યું? તારૂ માં કરમાઈ ગયેલી કમળમાળા જેવું કેમ દેખાય છે.
૪૦૭–૪૧૦. શાકને લીધે આંસુભરી આંખે હેાતાં વ્હેાતાં મે" ઉત્તર દીધેાઃ--‘મા, મારૂ' માથું દુખવા આવ્યું છે.? તરત જ મારી મા છળી ઉઠી ને મેલી:–દીકરી, ત્યારે તું ઘેર જા! હું... પણ તારી સાથે જ આવુ... છું. તને – મારા આખા ઘરના મેતીને – દુઃખભરી દશામાં એકલી શી રીતે મેકલું ?’
૪૧૧-૪૧૪. મારા ઉપરના સ્નેહને લીધે એણે મધી વાતે પડતી મેલીને ઘેર જવાની તૈયારીઓ કરી નાખી, અને નારીમડળને ધીમે રહીને એણે કહ્યુંઃ ‘જયારે તમે નાહી રહેા અને ઉજાણી જમી રહે, ત્યારે પાછળથી ધીરે ધીરે ઘેર આવજો, કંઇક જરૂરનુ' કામ આવી પડવાથી હું તે! અહુણા જ જાઉં છું. તમે આનદે કામ પતવો !’. આમ એણે પેાતાની આનંદની કામના છેડી દીધી, પણ સ્ત્રીઓને એમના કામમાં વળગાડી રાખી. તેમને આનંદમાં રાખવાને કારણે જ અમારા ઘેર જવાનું કારણ એણે એમનાથી સંતાડી રાખ્યું.
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તળવતી. ૪૧૫-૪૧૬. ચોકીદારને, વ્યવસ્થાપકેને, ઝનાનખાનાના વ્યંડળોને તેમના કામની જરૂર પુરતી સૂચનાઓ આપીને પિતાના નાના ટેળા સાથે અને થોડા ચાકરે સાથે મને લઈને એ સત્વર શહેરમાં આવી.
- ૪૧૭-૪૧૮. ઘેર આવીને સારસિકાએ મારે શણગાર અને વચ્ચે ઉતારી લીધાં ને હું ઘરનાં વસ્ત્રો પહેરીને પલંગમાં સુતી.
૪૧૯-૪૨૨, પછી મારી માતા મારા પિતા પાસે ગઈ અને બેલી -આપણી દીકરીને લઈને હું પાછી ઘેર આવી છું. એના માથામાં વેદના થાય છે તેથી એને બહુ ઉઘાડામાં રાખવી સારી નથી. મારે જે સપ્તપર્ણનું ઝાડ જેવું હતું, તે મેં સારી પેઠે અને કુલે પૂરૂં ખીલેલું જોયું છે, અને નારીમંડળ એમની ઉજાણીના આનંદમાંથી નિરાશ ના થઈ જાય એટલા માટે મારા ઘેર આવવાનું કારણ મેં તેમનાથી છુપું રાખ્યું છે.”
૪૨૩-૪૨૬. મારી માતાને મેં એથી આ સમાચાર સાંભળીને મારા પિતા તે અશાન્તિએ અને ચિંતાએ ગભરાઈ ગયા, કારણ કે એમને સનેહ મારા બધા ભાઈએ કરતાં પણ મારા ઉપર વધારે હતું. એમણે તરત એક સારા કુળમાં અવતરેલા, ચતુર અને વિશ્વાસપાત્ર, તથા આખા નગરમાં પ્રખ્યાત એવા વૈદ્યરાજને બોલાવી આણ્યા. એ શઅવૈદું પણ જાણતા હતા. એમને હાથ હલકે અને વેદના વિના ક્રિયા કરે એ હતે. રેગની પરીક્ષા કરવાના અને પછી રોગ ટાળવાના ઉપચાર કરવાને આ ગયે એમણે સામે બાજઠ ઉપર બેસીને મને પુછયું:
૪ર૭-ર૮. “બેન, તમને તાવને લીધે કે માથાના દુખાવાને લીધે શરીર ભારે લાગે છે? મને ખુલ્લું કહો જેથી ઉપચાર થઈ શકે. આજ સવારમાં શું ખાધું હતું? ખાધેલું બરાબર પચી ગયું છે? ગઈ રાત્રે ઉંઘ બરાબર આવી હતી ? ” - ર૯. મારે બદલે સારસિકાએ જ ઉત્તર આપે અને મેં સવારમાં શું ખાધુ હતું અને અમે બાગમાં કેમ ગયાં હતાં એ બધું વણવી બતાવ્યું; પણ મારા પાછલા અવતારના અનુભવની વાત ટાળી દીધી.
૪૩૦-૪૩૭. અનેક પ્રશ્નો પુછીને ચિકિત્સા કર્યા પછી વૈદ્યરાજે મારાં માબાપને કહ્યું: “તમારી દીકરી માંદી દેખાય છે, એટલું એ જ બાકી ચિંતા કરવા જેવું કશું નથી. કારણ કે, જે ખાધા પછી તરત જ તાવ ચઢે તે એનું કારણ સ્નેહ હોય છે અને એને કફ કહે છે. પચનક્રિયા ચાલતી હોય તે વેળાએ જે તાવ ચઢે તે એનું કારણ બીજું છે ને તે પિત્ત છે, પણ જે પચન થઈ રહ્યા પછી તાવ ચઢે તે તે વખતે વાતને કારણે પણ હોય. જે ત્રણે કારણે એકઠાં થયાં હોય તે એમાં અનેક રાગ હોય, અને એવા ત્રિદોષમાં બે ત્રણ લક્ષણ દેખા દે છે. બીજા એક પ્રકારને તાવ હોય છે એને અકસમાતજવર કે ખેદાર કે સ્વજવર કહે છે, તે સેટી કે ચા
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સ્નેહથીા.
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જીકના *ટકાથી, કે હથિયારના ઘાથી કે ઝાડના પડવાથી કે એવા જ કારણથી આવે છે. તમારી દીકરીના સબંધમાં તાવ નક્કી કરવામાં એવાં કોઈ લક્ષણ દેખાઈ આવતાં નથી, તેથી તમારે કશી ચિંતા કરવાનુ કારણ નથી. એ નીરાગ છે. ગાડીના આચકાથી એ હાથી ગઈ છે અને ખાગમાં ફરવાથી થાકી ગઇ છે એટલે અત્યારે એ નરમ છે ને તાવ જેવું લાગે છે, પણ એ તે માત્ર થાક જ છે. પશુ વખતે એને ભીતરની ચિ`તા પણ ડાય અને એ કાઈ ભારે રોકને કારણે થઇ હોય.'
૪૩૮-૪૪૧. મારા સંબધમાં મારાં માબાપને વૈદ્યરાજે સાચુ' જ કહ્યું હતું, અને જ્યારે એ ઉઠ્યા ત્યારે એમને માન આપવાને માટે હવેલીના દરવાજા સુધી એ એમને વળાવવા ગયાં. પાછલે પહેાર મારી માતાએ મારા શેાકમળ્યા હૃદયને ખાવાના આ ગ્રહ કર્યાં ને મારે કઈક ખાવુ પડયુ.. એટલામાં માગમાં ગએલુ' નારીમ`ડળ પાછુ આવ્યુ અને તેમને સ્નાનમાં અને ઉન્નીમાં કેવા આનંદ આવ્યે એનું વર્ણન કરવા મડયું, રાતે પથારીમાં ઉઘાડી આંખે આમતેમ મે' આળેટચા કર્યું; પણ રાત તે જાણે કેમે કરી જાય નહિ તેવી લાગી.
૪૪૨-૪૪૩. સવાર થતાં, જે જીવાનેાના હૃદયમાં આગલે દિવસે મને જોઇને મદનનાં બાણુ વાગ્યાં હતાં, એવા સેંકડ જીવાનાના પિતા મારૂ માગુ` કરવાને મારા પિતા પાસે આવવા લાગ્યા. ગમે તેવા એ આબદાર હશે, પૈસાદાર હશે, પણ એ અધાનાં માગાં મારા પિતાએ પાછાં વાળ્યાં, કારણ કે કોઈની નૈતિક કે ધાર્મિક ચેાન્યતા એમની નજરમાં બેઠી નહુિ,
૪૪૪–૪૫૧. પણ પછીથી એ પાછા વાળેલા ઉમેદવારોનાં જુદા જુદા પ્રકારનાં રૂપગુણની વાત સાંભળીને મારા પાછલા અવતારની કથા પાછી મને ચાદ આવી ને આખામાંથી આંસુની ધારા વહેવા માંડી. જેમ જેમ એ સ્મૃતિમાં હું ડુબતી ગઈ, તેમ તેમ ખાવું પીવું હુ` ભૂલતી ચાલી. માત્ર મારાં માતાપિતાને અને સગાંસંબધીને રીઝવવાને ખાતર જ વેદનાભર્યે હૈયે પણ કંઈક ખાતીપીતી કે આઢતીવ્હેરતી. જો જીવનના તરંગ મને મારે રસ્તે ઢારી જાય નહિ, તે એ તરંગ ઉપર મારા જીવશી રીતે ચાંટે ? સમપર્ણના ફુલવાસના તરગ જે આકળા થઈને સ્નેહને નચાવે, તે પહેલાં ગમે એટલુ સુખ આપતા હોય, પણ આજે મને માણુની પેઠે કેમ ન વાગે ? ચંદ્રનાં કિરણા જો મદનનાં ખાણુ થઈને મારી છાતીમાં લાંકાય તે મને શી રીતે સુખકર લાગે ? ગમે તે પુલમાંથી અમૃત ઝરે, ગમે તે શાન્તિ આપતે વરસાદ પડે, ગમે તે સવારમાં ઝાકળ પડે, પણ મારે મને તે એ સૈા જાણે અંગાર ઝરતા હાય એમ લાગતું. ટુકામાં જે બધુ... બીજી વેળાએ સુખ આપે, તે અત્યારે મારા સ્નેહી વિના મને દુઃખ આપતું હતું.
૪૫૨-૪૫૪, ગુરૂજનાના ઉપદેશ અનુસાર મેં મારી કામના સિદ્ધ કરવાને માટે
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સરગવતી .
કઠણ તપસ્યા કરવી શરૂ કરી. એ તપસ્યા એકસાને આઠ આચામ્લ કરવારૂપ હતી. મારાં માબાપે એ વ્રત કરવાની સમ્મતિ આપી. કારણ કે આવા વ્રતથી દુર્ભાગ્ય ટળે છે અને સભાગ્ય વધે છે. મારી મન:કામનાની તા એમને ખબર જ નહેાતી; તેથી જેમ જેમ હું સુકાતી ગઈ તેમ તેમ એમને લાગતું ગયું કે એ તે વ્રતને કારણે એનુ શરીર સુકાતુ જાય છે. મારી કામના સિદ્ધ નથી થતી તેથી આ શરીર સુકાય છે એની એમને શી રીતે ખબર પડે?
૪૫૫-૪૬૩. મારી આંતરિક વેદનામાં મને અકસ્માત્ એક નવીન વિચાર સ્ફુરી આવ્યા અને તે અનુસારે મે' કેટલાંક ચિત્રપટ આલેખ્યાં. મારા પાછલા અવ તારમાં મારા સ્વામી સાથે રહીને મે જે અનુભવ લીધેા હતા, તે પ્રકટ કરવાને વચ્ચેપટ ઉપર સુંદર પીંછી વડે અનેક ચિત્રે મે અકલ્યાં. અમે એકઠાં સ્નેહે કેમ રહેતાં, ક્રમ ચરતાં, મારા સહચરને કેમ ખણુ વાગ્યુ, પારધિએ કેમ એમને અગ્નિસ સ્કાર દીધા, હું પોતે તેમની પાછળ કેમ સતી થઇ; એ બધા દેખાવાનાં મે ચિત્રા ચીતર્યં. વળી ગંગા, ને તેની પાસેનું ભર્યું તળાવ, ને નદીનાં બળવાન મેાળ, ને તેના ઉપરનાં સા જળપક્ષીએ, ને તેમાં ચે વળી ખાસ કરીને ચક્રવાકે—એ સેનાં પણ ચિત્રા આંકયાં, વળી હાથી ને તેની પાછળ પડેલા ધનુર્ધારી પારધિ પણ ચીતર્યાં. કમળતળાવ ફુલે ખીલેલુ* અને વિવિધ ઋતુનાં ખીલેલાં ફુલેએ લચકાતાં વિશાળ ઝાડવાળું વન પણુ ચીતર્યું અને એ જુદાં જુદાં ચિત્રની ચિત્રમાળાની સામે કલાકોના કલાકે ખેશીને મારા હૈયાના હાર જે ચક્રવાક તેના સામુ એકીટશે નિહાળી રહેતી.
૪૬૪-૪૬૬, એવે કાન્તિકી પૂર્ણિમા આવી, એ કૈાસુદીપવ તરીકે મનાય છે. તે પવને માટા આનઢનેા દિવસ ગણવામાં આવે છે. હિંસક ધંધા કરનારાઓનાં હાટ મધ રહે છે અને કષ્ટ કરીને આજીવિકા કરનારાઓને વિશ્રાંતિ મળે છે. ધર્મનિષ્ઠ મનુષ્ય તપ, જપ, દાન, પુણ્ય આદિ કરીને પેાતાના જન્મને સફળ કરવા પ્રયત્ન કરે છે.
૪૬૭–૪૭૨. એ દિવસે મે પણ મારાં માતાપિતાની સાથે ઉપવાસ કર્યાં. સધ્યાકાળે ચાતુર્માસિક પ્રતિક્રમણ કરીને બધા આત્માઓની સામે જાણ્યેઅજાણ્યે થએલા અપરાધ માટે મનાભાવે ક્ષમાપ્રાર્થના કરી. સવાર થતાં મેં ઉપવાસનું પારણું કર્યું અને પછી મારી હવેલીની અટારીએ ચઢીને આનંદી નગરની શેાભા નિહાળવા લાગી. કળાકુશળ કારીગરાએ ચીતરેલા થાંભલાઓ વડે હવેલી આકાશ સુધી ઉચી શાલી રહી હતી. મુખ્ય દરવાજા ઉપર પાણીએ ભરેલા સોનાના કળશ મુકવામાં આવ્યા હતા, જે જાણે દાનની ઘાષણા કરતા હાય તેવા દેખાતા હતા; અને એથી લાક જાણી લેતા કે આ હવેલીમાં રહે. નાર ગૃહસ્થ પુષ્કળ દાન કરનાર છે અને ખરેખર તે દિવસે અમારે ત્યાં પુષ્કળ જ દાન
૧ દિવસમાં એક જ વાર અને તે પણ માત્ર લુખ્' સૂતૢ અન્ન જમવું તેને જૈનયમમાં ભાગ્રામ્સ અથવા માયખિલ વ્રત મૃત્યુ' છે.
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કીડીપવે. કરવામાં આવ્યું. તેનું, ચાંદી, ગાય, કન્યા, ભૂમિ, શયન, આસન આદિ જેને જે જોઈતું હતું તેને તે આપવામાં આવ્યું.
૪૭૩-૪૭૬, તેની સાથે નગરમાં જેટલાં જનચે (મંદિર) હતાં તે પણ ખૂબ શણગારવામાં આવ્યાં અને સુવતી સાધુસંતોને સ્વીકારવા લાયક વસ્ત્ર, પાત્ર, ભોજન, શયન, આસન આદિ વસ્તુઓનું પણ સદ્દભાવપૂર્વક દાન કરવામાં આવ્યું. મંદિરમાં વિરાજમાન જિનેશ્વરદેવની મૂર્તિઓ આગળ સેના અને રત્નનાં ભેટયું મુક્યાં.
૪૭૭–૪૮૦. દાનનું સદા ફળ મળે છે, સારા દાનનું સારૂં ને નબળાનું નબળું. જ્ઞાની અને તપસ્વી સાધુઓને દાન દીધાથી હમેશાં સારૂં ફળ મળે છે. એ વડે આ જીવનનાં દુઃખ ટળે છે ને પેલા જીવનમાં સારે ઘેર જન્મ મળે છે, જેથી આત્માની ઉન્નતિ કરવાને અવસર મળી શકે છે. સંતપુરૂની આ રીતે દાન વિગેરે દ્વારા કરેલી સેવાથી નિવણને માર્ગ સહજે જ આવે છે.
૪૮૧–૪૮૩. પણ જો રાજાના શત્રુને, ચારને, જુદુને અને વ્યભિચારીને દાન અપાય તે તેનાં ફળ ખાટાં પમાય. આ પ્રકારે દાનને વિવેક કરી અમે અમારે ઉદાર હૃદયે માત્ર આપણા ધર્મના સાધુઓને જ નહિ, પણ બ્રાહ્મણ અને ભિક્ષુકે વગેરે બીજા પણ બધા પ્રકારના દાનાર્થીઓને પુષ્કળ દાન આપ્યાં. ટૂંકમાં કૈમુદીપ એ અમારે માટે તે પૈસાની કેથળી છેડી મુકવાને, દાન આપવાનું અને પવિત્રતા ખીલવવાને મહાન દિવસ હતે.
- ૪૮૪–૪૮૭. સાંજ થઈ અને મેં નગરની ઉંચીનીચી છબિ નિહાળવા માં સૂર્ય ભગવાને પોતાનાં કિરણની જાળ સંકેલી લીધી ને પિતે અદશ્ય થઈ ગયા. તેમની સવારની રાણું પ્રભાતદેવીની સાથે રહી રહીને એ કંટાળી ગયા હતા ને ફીકા પડી ગયા હતા અને સાંજની રાણી સંધ્યાદેવી પાસે તેના પતિનગરમાં જઈ રહ્યા. લોક એમ પણ કહે છે કે આકાશના આટલા લાંબા પ્રવાસને લીધે થાક્યાથી રતાં– સોનેરી-કિરણોની-માળા-પહેર્યા વીરની પેઠે ધરતીમાતાને ચરણે લીન થઈ ગયા, અને, પછી અપારેવીંટી રાત્રિએ સિા જીવનને પિતાની અંદર વીંટી લીધાં.
૪૮૮-૪૧. હવે, અમારા ઘરના મુખ્ય દરવાજા આગળ જે એક સુંદર અને ગણું આવેલું હતું તે અમારી હવેલીને અને ખરી રીતે તે આખા રાજમાર્ગને શણ ગાર ગણાતું. એ આંગણામાં અતિ મૂલ્યવાન તણીમાં જડીને મેં મારી છબિઓ લેઓને જેવાને માટે મુકી, અને એની સંભાળ રાખવાને મારા સુખદુઃખની ભાગિયેણ, મારી ભલી સખી સારસિકાને પાસે ઉભી રાખી, એવી કામનાથી કે પૂર્વજન્મના સ્વામી, જે જરૂર તે વખતે મનુષ્યજન્મમાં આવ્યા હતા, તેમને ખેળી કઢાય. મારાં ઘરનાં કે બહારનાં માણસમાં, મર્મ જાણી લેવામાં ને પરીક્ષા કરવામાં એના જેવું. કેઈ ચતુર નહોતું. મેં એને કહી રાખ્યું હતું કે
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તારગવતી.. ૪૯-૫૦૫. “માણસના અંતરને તેના શબ્દ ઉપરથી અને હાવભાવ ઉપરથી કેમ પારખી કાઢવું એ તું તે સારી રીતે જાણે છે. તેથી મારા જીવનને સુખી કરવાને મારું કહેવું સાંભળઃ જે મારા તે વખતના સ્વામી આપણુ નગરમાં જ જમ્યા હશે તે તે બીજા બધા લોકની પેઠે એ પણ ફરવા જરૂર આવશે અને આ ચિ
શે, અને જોશે ત્યારે અમારા પાછલે ભવ યાદ આવશે. કારણ કે જે માણસ સુખદુખમાં નેહી હોય છે, તેણે ગમે એટલે લાંબે વિજોગ સહ્યો હશે તે ય એને એવાં ચિત્ર ઉપર આંખ પડતાંની સાથે જ બધું યાદ આવે છે, અને હૈયામાં છુપાઈ રહેલે ઉભરો આંખમાં તરી આવે છે. અસંસ્કારી માણસની આંખ કઠણ હોય છે, મિત્રની આંખ ખલી અને શુદ્ધ હોય છે, સાચા માણસની આંખ દઢ હોય છે, બેદરકારી માણસની આંખ ઢીલી હોય છે, દયાળુ માણસ બીજાનું દુઃખ જુએ છે ત્યારે એને દયા ઉપજે છે, અને જ્યારે એ પ્રસંગ એના પિતાના જ જીવનને અનુભવ હોય છે, ત્યારે તે એથી યે વધારે એને લાગી આવે છે. ત્યારે તે જાણે એની છાતીમાં બાણ વાગ્યે હોય એમ એને લાગે છે ! વળી લેક કહે છે કે જેને પાછલે ભવ યાદ આવે છે એ ગમે એટલે બળવાન હોય તે ય મૂચ્છ પામે છે. તેથી મારા સ્વામીને પિતાના પાછલા ભવનું શેકભર્યું સમરણ આ ચિત્રથી જાગશે કે તરત જ મૂરછ પામશે. પછી જ્યારે એમને ભાન આવશે ત્યારે હૃદયે અને આંસુભરી આંખે કે આ ચિત્ર ચીતર્યો એમ અધીરાઈથી પુછવા માંડશે. ત્યારે તારે ખાત્રીથી માનવું કે એ જ મારા
વાયેલા ને મનુષ્યનિમાં હાલ અવતરેલા સ્વામી છે. તેમને દેખાવ અને હાવભાવ તું ધ્યાન દઈને નિહાળી લે છે અને એમનું નામઠામ જાણી લેજે અને પછી બધી વાત મને સવારમાં કહેજે. અહા ! એમને ફરીથી મળીને મારું બધું દુઃખ વામીશ અને એમને ભેટીને મારે નેહ તાજો કરીશ ! પણ અરેરે! જે એ ના જડ્યા તે! મારે સાધ્વી થઈને નિવણને માર્ગે ચાલવા નિકળી પડવું. સવામી વિના અને છેવટની સીમાએ જલદી પહોંચવાની આશા વિના જીવતર ગાળવું એમાં જ નવા નવા અવતાર ધરવાનું અનંત દુઃખ છે.”
૫૦૬૫૦૮. એમ પતિ સાથે ફરી સંગ થાય એ કામનાએ મેં સારસિકાને બહુ બહુ સૂચનાઓ આપી ને પછી ચિત્રો સાથે એને વિદાય કરી. અને હવે તે સૂર્ય પૂરેપર આથમી ગયું હતું અને સને ઢાંકી દેનારી રાત્રિ આવી હતી. આપણા ધર્મ પ્રમાણે પર્વને દિવસે હમેશના સુવાનાં ખંડમાં સુવાને બદલે પિષધ લેવાના ખંડમાં જમીન ઉપર જ સૂવું જોઇએ. તે રાત્રે રાત્રિ જાગરણ કરવું જોઈએ અને પ્રભુનું ધ્યાન ધરવું જોઈએ; એ પ્રમાણે હું પણ પિષધ લેવાના ખંડમાં ગઈ અને મારાં માબાપ સાથે જિનપ્રભુની સ્તુતિ-વંદના કરોને દૈવસિક અને ચાતુમાસિક પાપમાંથી મુક્ત થવા માટે પ્રતિકમણ કર્યું.
પ૦૯-૫૧૨. એ બધું કરી રહ્યા પછી હું સ્થિરભાવે ભોંય ઉપર ઉધી ગઈ.
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સ્વપ્નલક્ષણ.
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એ ઉંઘમાં મેં', જાણે હું... પર્વત ઉપર ચઢીને ભમતી હાઉ”, એવુ સ્વમ જોયું, જ્યારે હું... જાગી ત્યારે મે મારા પિતાને પુછ્યું કે:-‘આવા સ્વસનુ ફળ શું?’
૫૧૩-૫૨૩, ત્યારે મારા પિતાએ ઉત્તર આપ્યુંઃ-સ્વમશાસ્ત્ર પ્રમાણે એવુ' સ્વ. સદ્ભાગ્ય સૂચવે છે. સ્વસવર્ડ માણસને આત્મા સદ્ભાગ્ય કે દુર્ભાગ્ય, આનંદ કે શેક, જીવન કે મરણુ આગળથી જાણી શકે છે. કાચું માંસ, લેાહીભર્યાં ઘા, હાથ પગ ભાંગવા, વેદનાની ચીસ, અને આગના ભડકા: એવાં એવાં સ્વસ નઠારા ફળની સૂચના આપે છે; પણ હાથી ઉપર કે બળદ ઉપર કે મહેલ ઉપર કે પર્વત ઉપર કે દૂધાળા ઝાડ ઉપર ચઢવુ' એ આવતા ભાગ્યની સૂચના આપે છે. અને સ્વપ્રમાં સમુદ્ર કે નદીને જે ઓળંગી જાય છે તેનાં દુઃખ નિશ્ચય ટળે છે. વળી જાતિ ઉપર પણ ઘણા આધાર રાખે છેઃ કાઈને સ્વમમાં નરજાતિની કે નારીજાતિની વસ્તુ મળે કે ખાવાય તે ધારેલા લાલ કે હાનિ થાય. ટુકામાં માણસ જે સારાની આશા રાખે છે કે જે નઠારાથી ડરે છે તે સ્વમ ઉપરથી જાણી શકાય છે. અને સ્વપ્રમાં ફળવાનાં ફળ કયારે ફળે છે એ સ્વસના સમય ઉપરથી નક્કી થાય છે: જો સ્વપ્ત સમીસાંજે ઉંઘ આવ તા જ આવે તે તેનુ ફળ છ મહિને ફળે, જે મધ્યરાતે આવે તે તેનુ ફળ ત્રણ મહિને મળે, જો બ્રાહ્મમુહૂર્ત એટલે કે ગાયા ચરવા નિકળે તે સમયે સ્વમ આવે તે દોઢ મિહને ક્ળે અને જો સવાર થતાં આવે તેા તરત ફળે. છેવટે કહેવાનુ એટલું જ કે સારે શરીરે આવેલાં સ્વપ્ન જ ભવિષ્ય સૂચવે છે. પણ એથી વિરૂદ્ધનાં સ્વપ્નનુ ફળ કઈ જ નથી. જ્યારે કન્યા પર્વત ઉપર ચઢ્યાનુ સ્વમ જીવે ત્યારે ધાર્યો પતિ મળે, અને બીજાને એવુ સ્પરૢ આવે તે ધાર્યું ધન મળે, મારી દિકરી! સાત દિવસની અંદર તારૂં સદ્ભાગ્ય ખુલશે.’
૫૪-૫૨૮. મારાં પિતાનાં આ વચનથી મને વિચાર ઉઠયા કે મારા હૈયામાં જેને માટે કામના છે, તેના સિવાય બીજા પુરૂષ સાથે મારાથી રહી શકાય નહિ. મારી ગુપ્ત કથા તા મારાં માબાપથી સંતાડી રાખવાના મેં ઠરાવ કર્યાં. તેથી સારસિકાની વાટ જોતી આખી રાત હુ... ત્યાં પાષધશાળાના ખડમાં બેસી રહી અને પછી વિચારમાં ને વિચારમાં જિનપ્રભુનું ધ્યાન ધરતી બછાનામાંથી ઉઠી ઉભી થઈ અને રાત્રિ પ્રતિક્રમણ કર્યું. સૂૌંદય થયા પછી દાતણુ કર્યું ને ત્યાર પછી મારાં માબાપથી છુટી પડીને ધીરે ધીરે ઉપર ચાલી ગઈ.
પર૯–૫૩૨. પછી અમારી હવેલીની અગાશી ઉપર હું ચઢી, છેક એની ફરસ ઉપર સુદર ચિત્રા ચીતર્યાં હતાં અને તેમાં મૂલ્યવાન હીરા મેતી જડયાં હતાં. મારૂ તુટી પડે એવુ શરીર માત્ર આશાને લીધે જ ટટાર ચાલી શકતું હતું. એવામાં સૂરજ ઉગ્યા, એનાં કિ’શુકપુલના જેવાં લાલ કિરણા પૃથ્વી ઉપર પથરાઈ રહ્યાં અને પછી દૂર દૂર સુધીની પૃથ્વી કેશર રંગે ર'ગાઇ ગઈ. સર્વ જગતને એણે જગાડયું. અને રાત્રે ખીડાઈ ગયેલાં કમળાને ખીલવ્યાં.
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પશુ-પ૩૪. એવે સારસિકાએ પણ દેખા દીધી. ઉતાવળે ઉતાવળે એ મારી પ. સે આવી અને સ્નેહભરી દ્રષ્ટિએ એણે મને આવતાની સાથે જ હૈયા સાથે ચાંપી લીધી પછી આનંદી મહએ ફતેહ મળ્યાના મને સમાચાર આપ્યા. એના બોલમાં જ કંઈક અનેરી મિઠાશ હતી. એણે હાંફતે હાંફતે કહેવા માંડયું:
પ૩પ-પ૩૬. બહુ દિવસથી વાયલા તારા સ્વામી જડ્યા છે. વાદળાં વિના ની શરઋતુની રાત્રિને ચંદ્ર જાણે પ્રકાશને હેય એવું એમનું મુખ પ્રકાશે છે. એની હવે ધીરજ ધર, તારી આશા હવે થોડા જ વખતમાં ફળીભૂત થશે.”
૫૩૭-૫૩૮. આ શબ્દ સાંભળ્યા કે તુરત જ હું તે સુખના વરસાદમાં નવા ગઈ, મહાન સારસિકાને ભેટી પડી. પછી મેં પુછયું: “એ વહાલી સખી, મારા સ્વામી, નું સ્વરૂપ તે અત્યારે ફરી ગયું હશે, તે ય તે એમને શી રીતે ઓળખી કાઢ્યા
છે. પ૩૯-૫દર. ત્યારે એણે ઉત્તર આપેઃ “પ્રિય સખી, કેવી રીતે તારા સ્વામી જડી આવ્યા તે વિગતવાર કહું, તું સાંભળી તે ચેકસી રાખવાની જે જે સૂચના સંધ્યાકાળે આપી હતી, તે સાંભળી લેઈ હું છબિઓ લઈ ચાલતી થઈ. હું એ છાિં એ ચિતરા ઉપર ગોઠવી રહી તેવે સમયે, રાત્રિએ ખીલતાં પવને મિત્ર જે ચંદ્ર ઉગ્યા. પ્રકાશને ફેલાવતે રાત્રિને પ્રિયજન, કામદેવને વહાલો, એ ચંદ્ર ધીરે ધી ઉપર ચઢવા લાગ્યા. સરોવરના જળ પર જેમ ખીલેલું કમળ તરે તેમ એ આકાશપટિયા ખીલીને તરવા લાગ્યો. તેને રાજમાર્ગ ઉપર સુંદર ગાડીઓમાં બેશીને અને મા મત નગરજને જાણે રાજા હોય તેમ ફરવા નિકળ્યા. રાતની શોભા જેવાને આતુર સ્ત્રીઓ ગાડીઓમાં બેશી નિકળી, પગે ચાલતા જુવાન પુરૂ જુવાન સ્ત્રીઓ સાથે હાથે હાથ મીલી વીને હૈયેહૈયાં મિલાવી આમ તેમ ચાલતા દેખાયા. આનંદે ઘેરાયલાં લેકનાં ટેળા સામાં આવતાં ટેળામાં મળી જતાં ને પછી પાછાં વળી સાથે ચાલતાં. ટૂંકમાં, ચોમાસામાં પાણીને પ્રવાહ નદીનું રૂપ ધારણ કરીને જેમ સમુદ્ર તરફ વહે છે, એમ રાજમાન ઉપર લેકને પ્રવાહ વહેવા માંડયો. જે ઉંચા હતા, તે સહજે જોઈ શકતા, પણ નીચા હતા તેમને પગની આંગળીઓનાં ટેરવાં ઉપર ઉંચું થવું પડતું. ઘણું ભીનું ભચડાતા અને ખાસ કરીને જાડા તે એથી ચીસો પાડતા. રાત કેમ ચાલી જાય છે. એની કેટલાક માણસો પિતાના ફરવા આગળ પરવા કરતા નહોતા, પણ કેટલાક પિતા ફાનસમાં અર્ધ ઉપર બળી ગળી દિવેટે તરફ આંખ રાખ્યા કરતા અને રાત જેમ જેરા જતી ગઈ તેમ તેમ લેકની આંખ ઉંઘે ઘેરાતી ગઈ અને તેમની આતુરતા એની થતી ગઈ, તેથી ભીડ પણ ઓછી થતી ગઈ; અને આખરે થોડા જ લેકે છબિ પી આવવા લાગ્યા. પણ હું લેક તરફ અને વખત જેવાને દીવા તરફ જતી હતી, તેની અકસ્માત સરખી વયના પિતાના મિત્રોના ટેળા વચ્ચે ચાલતે એક યુવાન પુરૂષ ત્યાં આવી પહોંચ્યો અને છબિ જેવા લાગ્યું. કાચબાના પગ જેવા એના પગ મૃદુ હતા, ગની પિંડીએ ઘાટદાર હતી, એની જાગો મજબુત હતી, એની છાતી સપાટ વિશાળ
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મહિના પાછલા ભવનું સ્મરણ
ર૭ માંસ ભરી હતી, તેના હાથ લાંબા સ્થલ અને બલવાન હતા-પિતાના મિત્રાના મુખને કમલકુલિની પેઠે ખીલાવતે અને તેમની વચ્ચે ચાલતે જાણે બીજો ચંદ્ર આવ્યું હોય એમ એ ચંદ્રથી યે વધારે સુંદર શોભતે હતે. એની જુવાનીની સુંદરતા અને મૃદુતા એવી તે ભવ્ય હતી કે જુવાન સ્ત્રીઓ એને નેહથી જોઈ રહેતી. ખરેખર એવી તે એકેય સ્ત્ર નહીં હોય જેના હૃદયમાં આ પુરૂષ પેશી ન શકે. લેક તે બોલવા લાગ્યા કે ગમે તે એ દેવકને પુરૂષ હવે જોઈએ કે ગમે તે એ પિતે જ એકાદ દેવ હવે જોઈએ. એ છબિને છેડી વાર જોઈ રહ્યો અને પછી એમાં પ્રકટ થતી ઉત્તમ કળાનાં વખાણ કરતે બે - પદર-૫૭૬, “અહીં આ રેતીના બે કિનારા વચ્ચે નીચાણમાં વહેતી ને ભમરા ઉઠાવતાં મોજાંવાળી ચંચળ ગંગાને કેવી સુંદર ચીતરી છે! કમળભર્યા તળાવવાળું અને વિવિધ ઝાડેથી ઊંચુંનીચું દેખાતું આ વન કેવું સુંદર છે ! વળી શરતું, શીત, વસંત, શીષ્મ વગેરે જતુઓ વનફળ અને વનકુલ વડે કેવી આબેહુબ બનાવી છે ! અરે, અને આ બે સ્નેહને પાંજરે પુરાયેલાં ચક્રવાક જીવનના સમસ્ત પ્રવાહમાં કેવાં સુંદર રીતે એક બીજાની સાથે જડાઈ ગયાં છે! અહીં તેઓ પાણી ઉપર સાથે તરે છે, તહીં રેતીના કિનારા ઉપર સાથે આરામ લે છે, પણે આકાશમાં સાથે ઉડે છે અને વળી મણે કમળકુલોની વચ્ચે સાથે જ બેસે છે; સદા અને સર્વત્ર તેઓ એક બીજા સાથે અચળ સ્નેહમાં કેવાં જડાઈ રહ્યાં છે! ચકવાની ગરદન ટૂંકી ને સુંદર છે અને એને રગ કિશુક કુલના જે લાલ ચળકે છે. વળી મૃદુ અને ટૂંકી ગરદનવાળી ચક્રવાકી તેના રંગને લીધે કોત કુલના જેવી લાગે છે. અને એ ચવાકની પાછળ કેવી ચાલે ચાલી રહી છે. આ હાથી પણ કે સુંદર ચીતર્યો છે! એ એની નાતના મુખી જેવું લાગે છે અને ઘાડા વનમાં પિતાને માર્ગ કરવાને માટે ઝાડનાં ડાળ તેલ પાડતે ચાલે છે. સદીમાં નાહવાને લેભે હવે તે નીચે ઉતરે છે. હવે અહીં એના ભવ્ય શરીરને લઈને એ પાછો નિકળે છે. ત્યાં તે શિકારી એના ઉપર બાણ તાકે છે. પહાથે પગે ઉભે. રહીને એ ધનુષ ઉપર બાણ ચઢાવીને કાન સુધી ખેંચે છે. પછી બાણ છોડે છે-આ પણું બહુ સુંદર ચીતર્યું છે–પણે ડાંગરનાં કણસલાં જેવા કે કમળના તતુ જેવા રાતાશ પગે ચળકતે ચકવાક ઉડે છે અને એ બાણ એને વાગે છે. અરે જુએ, આ ચક્કબાકી સંતાપને લીધે વિલાપ કરે છે, કારણ કે પારધિએ તેના પતિના જીવનને અને હિને નાશ કર્યો ! એ પિતાના સ્વામીની પાછળ પડે છે અને અનંત વેદનામાં બળી મરે છે. ખરેખર ! આજના ઉત્સવમાં જે કંઈ જોવા જેવું છે એમાં આ ચિત્ર મિથી સુંદર છે; પણ આ ચિત્રની બધી હારને અનુક્રમે જેવી જોઈએ.” છે કે પછ૭-૫૮૫. આમ બેલતાની સાથે જ એ સુંદર પુરૂષ ચિત્રો સામે આશ્ચર્યથી લઈ રહ્યા હતા એટલામાં બેભાન થઈ ધરણું ઉપર ઢળી પડયે. વાંસ ઉપર બાંધેલી લિની દેરી કપાતાં જેમ ધજા ધબ દઈને જમીન ઉપર પડી જાય એમ એ ઢળી
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તરાવતી.
પાડ્યો, એના મિત્રા તા ચિત્રા જોવામાં એવા લીન થઈ ગયા હતા કે એ પડ્યો એની પશુ ખબર એમને તરત તેા ના પડી. ખબર પડીકે તરત જ એમણે એને ઉપાડી લીધા અને એને જાણે ચિત્રાએ જ બેભાન કર્યાં હાય એમ એથી દૂર ખુલ્લી હવામાં લઈ ગયા. વખતે એ જ સુંદર પુરૂષરૂપે તારા ચક્રવાક હોય અને છેવટે મારી સખીની કામના સિદ્ધ થાય એ ઉત્કંઠાએ હું પણ પાછળ પાછળ ગઈ. અને ખરેખાત ! જ્યારે એને ભાન આવ્યું, ત્યારે રડતી આંખે ડુસકાં ખાતા ખાતે એ મેલ્યાઃ
૫૮૬-૫૮૮. ‘એ મારી વ્હાલી!મારા માલિગ ના આનદ તારી કાળી ચકચકતી આંખા લેઇને અત્યારે તું ક્યાં હશે ? એકવાર જ્યારે આપણે ગંગાનાં મેળા ઉપર ચક્રવાકજન્મમાં રમતાં હતાં, ત્યારે તું મારાં સ્નેહના ખજાના હતી; પણ અત્યારે તારા વિના હું ગાંડા થઈ ગયા છું. તું સ્નેહની ધજાની પેઠે મધે મારી પાછળ પાછળ આવતી અને છેવટે મૃત્યુમાં પણ તું મારી પાછળ આવી.
૫૮૯૫૯૪, લાજ છેડીને આંસુભરી આંખે એ વિલાપ કરતા હતા અને ઉપરથી નીચે સુધી શેકની મૂત્તિ જેવા થઈ રહ્યા હતા ત્યારે એના મિત્રા એને ઠપકો આપવા લાગ્યાઃ ‘આમ શેક કર ના, શું તારૂં ભાન ગયું છે ?' એણે એમને ખાત્રી આપી કે મારૂં ભાન ગયું નથી. ત્યારે વળી એમણે પુછ્યું: ‘ત્યારે તને થયું છે શું ?” અને પછી એણે એમને ઉત્તર આપ્યું: ‘હુ' એ બધી વાત તમને કહીશ, પણ તમે છાની રાખો ! આ ચક્રવાકાની કથા જે અહીં આ અનેક ચિત્રામાં ચીતરી છે તે મારા પોતાના પાછલા ભવની કથા છે.’ એમણે પુછ્યું કે એ શી રીતે હોઈ શકે ? અને વળી ચિકત થઈને પુછ્યું કે પાછલા ભવની કથા તને યાદ શી રીતે આવી શકે? ત્યારે તેણે દરેક ચિત્ર કેવી રીતે પેાતાના પાછલા ભત્રની સાથે ખધખેસતું આવે છે એનું ધીરે ધીરે વર્ણન કરી ખતાવ્યુ અને પછી છેવટે કહ્યું:
૫૫-૬૦૩. ‘પારધિના માણુથી મારા જીવ તા ચાલ્યે! ગયા, તેથી મારી પ્રિયા મારી પાછળ કેવી રીતે સતી થઈ ગઈ, એ તા હું. આ ચિત્રાથી જ જાણી શક્યા. એ જોઇને મારૂ હૈયુ મળતી વેદનાએ એવુ તેા ભરાઈ આવ્યું કે કાણુ જાણે કેવી રીતે હું મૂર્છા પામી ધરણી ઉપર ઢળ્યા. આ ચિત્રા જોઇને મને મારા પાછલા ભવ આબેહુબ યાદ આવ્યા ને તે પ્રમાણે મેં તમને એ ભવની બધી કથા કહી સભળાવી. અને હવે જે નિશ્ચય મારા મનમાં કર્યો છે તે તમને જણાવું છું. એના વિના ખીજી કાઈ સ્રીની સાથે હું લગ્ન કરીશ નહિ; તેથી કોઈ પણ રીતે જો એની સાથે મારા ભેટા થાય તા તા સ્નેહના આનંદ મને મળે. તમે ભાઈ! જાએ ને તપાસ કરી કે એ ચિત્રાનું ચીતરનાર કાણુ છે? નક્કી એણે જ એ ચિત્રા તૈયાર કરાવેલાં વાં જોઇએ. ગમે તા એ ચિત્રા એણે ચીતા છે કે ગમે તે એણે જાતે કાઈ કળાધરને સૂચનાઓ આપી. ચીતરાવ્યાં છે, નહિ તે જે હકીકતા હું જાણું છું તે ખીજો કોઈ ચીતરી શકે નહિ. જે ભવમાં હું ચક્રવાક થઈને એની સાથે રહ્યો હતા તે એના વિના બીજું કાણું જાણી શકે ?
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પતિની પ્રતિજ્ઞા.
૬૦૪-દ એની સૂચના સાંભળીને, સખ. જે કોઈ પ્રશ્ન પુછવા આવે તેને ઉત્તર દેવાને હું તે ઉતાવળી ઉતાવળી ચિત્ર પાસે જઈ ઉભી. તુરત જ મેળવે બાળ એક જણ આવ્યું ને પુછવા લાગ્યું: “આખા નગરને આશ્ચર્યચકિત કરી મેલ્યું છે એવાં આ ચિત્રનું ચીતરનાર કેશુ?” મેં ઉત્તર આપેઃ “નગરશેઠની દીકરી તરં. ગવતીએ એ ચિત્ર ચીતરીને અહીં મુકાવ્યાં છે, અને સાચે જ એ ચિત્ર કંઈ ક૯૫નાથી ચીતર્યો નથી.” પછી બીજી કેટલીક ચેખવટ મેં કરી એટલે તે તારા સવામી પાસે પાછે દેડી ગયો અને ત્યાર પછી શી વાત થાય તે સાંભળવા હું પણ તેની પાછળ જ ગઈ.
૬૧૦-૬૧૨, ત્યાં જઈ મને પુછવા આવનારે બોલ્યાઃ “ચિંતા કરીશ ના, મારા મિત્ર પદ્યદેવ ! તારી પ્રિયા મળી આવી છે. એ ઋષભસેન નગરશેઠની દીકરી તરંગવતી છે. એની જ સૂચનાથી એ ચિત્ર મુકાયાં છે, અને એ કંઈ કલ્પનાથી ચીતરાયાં નથી, પણ એની સખીએ મારા પ્રશ્નોના ઉત્તર દીધા એ ઉપરથી મારી ખાત્રી થઈ છે કે એ એક સાચા જીવનની કરુણ કથા છે.
૧૩-૧૪. આ શબ્દોથી તારા પ્રિયનું મુખ પૂરા ખીલેલા કમળની પેઠે મલકાયું. પછી એ બેઃ હવે મને મારા જીવનમાં આનંદ આવશે, કારણ કે મારી એક વખતની ચકવાકી નગરશેઠની દીકરી થઇને અવતરી છે. પણ તરત જ પાછા ચિંતાતુર થઈ બોલવા લાગ્યાઃ “પણ નગરશેઠ પૈસાને જેરે એટલે અભિમાની છે કે એની કન્યાને માટેનાં બધાં માગાં પાછાં વાળ્યાં છે, ત્યારે આપણું ધાર્યું પાર શી રીતે ઉતરશે? એકવાર મારી પ્રિયા જડ્યા પછી જે એને મળી શકે નહિ તે ન જડ્યા કરતાં પણ વધારે વેદના થશે.”
દલ૭–૧૯ એને એક મિત્ર છેઃ બસ, તે જડી છે એટલે તે હવે કઈ વાધે નથી. જે વસ્તુ વિદ્યમાન છે તે જરૂર મળી જ રહેશે, એને રસ્તો થઈરહેશે. અને હજી પરણાવી નથી એટલે એને માટે નગરશેઠની પાસે માગું કરવાની વ્યવસ્થા કરીશું. જે એથી કશું નહિ વળે અને તારી ખુશી હશે તે આપણે એનું હરણ કરી લાવીશું.
દર૦-ર૧, પણ એણે તો ઉત્તર આપેઃ “નગરશેઠના ઘરમાં જે કુળાચાર પેઢીએ થયાં ચાલતે આવે છે તે કઈ પિતાની પુત્રીના સનેહને કારણે એ ઓળંગશે નહિ, અને તેથી જે એ પિતાની પુત્રી અને દેશે નહિ તે હું મારા જીવનને અંત આણીશ, કારણ કે તું કહે છે એવું બળાત્કારનું કામ તે મારે કરવું નથી.”
દરર-૬૨૪. હવે સા મંડળ પિતાના અગ્રેસરને વીંટી વળી તેની હવેલી તરફ ચાલ્યું અને તેના કુટુંબ વગેરેનાં નામઠામ જાણી લેવાને માટે હું પણ એમની પાછળ ચાલી. જે મકાનમાં એ પેઠા તે એવું તે ઉંચું ને સુંદર છે કે જાણે કેઈ સ્વર્ગમાંથી ઉપાડી આણને પૃથ્વી ઉપર મુકી દીધેલું દેવવિમાન હોય. મેં એના પિતાનું નામ
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રમવી,
અને ધ વગેરે ચોકસાઈથી પુછી લીધું અને એ બધી હકીકતેથી જ્યારે મને ખુશ સંતોષ થયો ત્યારે ઉતાવળે પાછી આવતી રહી.
દર૫-દર૮. એવામાં નક્ષત્ર, રહે તેમ જ ચંદ્ર પણ એકેએકે કરી અદશ્ય થઈ ગયા અને કુલે-ચુંટી-લીધા તળાવ જેવું આકાશ કેરૂ થઈ ગયું. અને પછી સઘળા જીવજંતુને જે મિત્ર અને દિવસને જે પ્રભુ સૂર્ય તે બંધુજીવ (બારીઆના) કુલના જેવો લાલ રંગે ઉગી નીકળે. ચારે દિશાઓ સૂર્યથી સોનારંગે રંગાઈ ગઈ. તે જ વેળાએ તને બધા સમાચાર આપવાની આતુરતાએ હું તારી પાસે દોડતી આવી. તારે સ્વામી જડ્યાની જે જે બધી હકીકત મેં જોઈ જાણી તે બધી મે તને આ રીતે કહી દીધી છે અને મારા ઉપર જે વિશ્વાસ તે મુક્યું હતું તે આજે સફળ થયે છે; એવી લાગણી અત્યારે હું અનુભવું છું.”
દર૯ (સાધ્વી તરંગવતી પિતાની કથા શેઠાણી પાસે વળી આગળ ચલાવે છે.) મારી સખી પિતાની વાત પુરી કહી રહી એટલે હું અધીરી થઈને બેલીઃ “પણ એમના માબાપનાં નામ ને વ્યવસાય તે મને કહે."
૩૦-૩૫. વળતી સારસિકા બેલીઃ “એને પિતા ધરતી અને સાગરના ખજાનાનો ધણી છે. ખુદ હિમાલય પણ એના જેટલે અચળ નથી. વળી એણે ધરતીને ધર્મશાળાઓ અને આનંદશાળાઓથી એવી તે શણગારી દીધી છે કે તેનું નામ જેમ મોટા વ્યાપારી તરીકે તેમ જ મોટા ધર્માત્મા તરીકે પણ ચારે દિશામાં પ્રખ્યાત થઈ ગયું છે. એ શેઠનું નામ ધનદેવ છે. શેઠને આ પુત્ર ઘરડાં અને જુવાન સૈને વહાલે છે અને એનું નામ પડે છે. એ કામદેવ જે સુંદર છે અને વળી પદ્ય જે મનહર છે.”
૩૬-૩૯. સખીએ જે બધા સમાચાર આપ્યા તેથી મારા કાનની નેહભરી ઉત્કંઠા તૃપ્ત થઈ. છતાં યે સારસિકાની આંખ અને કાનને ધન્યવાદ દેતી હું બોલી:-ત બેન ભાગ્યશાળી કે તે મારા સ્વામીનાં દર્શન કર્યું ને એમનાં વેણુ કાનેકાન સાંભવ્યાં.” પછી મારી પાસેથી એ ચાલી જતી હતી ત્યારે પણ મેં મારા આનંદના આવેગમાં કહ્યું: “મારે શેક હવે ટળે છે અને આનંદ ઉભરાય છે, કારણ કે મારા સ્વામી મને આસક્ત છે.”
૬૪૦-૬૪૨. પછી નાહી લીધું, પંખીઓને દાણા નાખ્યા, જિનપ્રભુની પૂજા કરી અને પારણું કરીને ઉપવાસ પૂરો કર્યો. ત્યારપછી ઉપવાસે અને પારણાએ થયેલા શ્રમથી આરામ લેવાને કાજે શેતરંજી-પાથર્યા અને પવને-ઠંડા-થયા ખંડમાં ગઈ. ત્યાં સ્વામીને મળવાની હજારે આશાએ હું ઘેરાઈ ગઈ અને એમના નેહથી વિખુટી પડે અનેક વિચારેમાં વખત ગાળવા લાગી.
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અહીં તહીં.
૬૪૩-૬૭. એવે સારસિક પાછી આવી, એને શ્વાસ તે જાણે માતે જ નહોતો અને આંખમાંથી બેર બેર જેવડાં આંસુ જતાં હતાં. એ બેલીઃ સર્વમાન્ય શેઠ ધનદેવ પિતાના મિત્ર અને સંબંધીજનને લઈને તારા પિતા) નગરશેઠ પાસે આવ્યા અને
સ્પષ્ટ શબ્દોમાં એમને કહ્યું: “તમારી દીકરી તરંગવતીનું મારા દીકરા પદ્યદેવ માટે માગું કરું છું; બોલે, કેટલે આંકડે આપને જઈશ?' પણ નગરશેઠે અસભ્યતાભર્યા આ શબદ એમને સંભળાવી દીધા
૬૪-૬૫ર. “જે ધણી વેપારને કારણે હમેશાં પરદેશમાં રહે, કદી ઘેર રહે નહિ અને તેથી કરીને દાસીઓની સાથે રમ્યા કરે, એવા માણસને મારી આવી કન્યાને શી રીતે સંપું? એને તે સદા પ્રષિતભર્તૃકાના જેવા વાળ રાખવા પડે અને (બીજી સ્ત્રીઓની પેઠે) શણગાર સજવાના કદી પ્રસંગ જ નહિ આવે. સ્વામીથી વિ ખુટી પડેલી એને ભીની અને રાતી આંખે માત્ર કાગળ લખવામાં ને સનાન કરવામાં વખત ગાળ પડે. આમ મારી દીકરીને વેપારીના ઘરમાં પુષ્કળ ધન હોવા છતાં મને રતાં સુધી વિધવાની દશા ભેગવવી પડે, એના કરતાં તે ભીખારીને આપવી સારી. પછી ભલેને એવાં નાણું, શણગાર, સુગંધી પદાર્થો અને એવા સુંદર સોહાગ એને ના મળે.” - ૫૩, સારસિકાએ કહેવા માંડયું કે આમ એમણે એ શેઠનું માગું તુચ્છકાયું અને (વાતચિત્તમાં) સભ્યતા, મિત્રતા અને માનવૃત્તિ અશકય થઈ પડી તેથી તે શકાતુર થઈને ચાલી નિકળ્યા. - ૫૪-૬૫૫. મારી સખીએ આણેલા આ સમાચારે શિયાળાને હિમ જેમ કમળની દાંડીને ભાગી નાખે એમ, મારા મનોરથને મૂળથી ભાગી નાંખે. મારું સર્વ ભાગ્ય ચાલ્યું ગયું મારું હૈયું એકવાર તે આનંદને બદલે પાછું શેકથી ભરાઈ ગયું. અને આંસુભરી આંખેએ મેં મારી રેતી સખીને કહ્યું:
પદ-૫૮. “મારો સખા બાણ વાગ્યે જીવી શકે નહિ, તેથી હું પણ જીવી શકી નહિ. એ જીવે તે જ મારાથી છવાય. પક્ષીના ભાવમાં પણ હું એની પાછળ મૃત્યુમાં પેઠી ! ત્યારે આજ આ માનવભવમાં એમના વિના-મારા સનેહી વિના હુંશી રીતે જીવી શકું? જા, સારસિકા, અને એમને આ પત્ર આપ, વળી કહેજે કે.
દપ-દદ. “થરથરતી આંગળી વડે ભેજપત્ર ઉપર લખેલે આ પત્ર સનેહની સુદંર કથા કહેશે. એ છે તે ટુંકે, પણ અંદર હકીકત મહત્વની છે. તમને આપવા એ પત્ર મારી સખીએ આપે છે.
" દદલ. અને એમના આત્માને આધાર આપવાને માટે વળી આ નેહશબ્દ એમને કહેજે
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તરંગવતી. દર-દદપ. “તમો સ્વામીને અનુસરવાને માટે જેણે ચક્રવાકીના ભાવમાં પિતાનું જીવન સમર્પી દીધું, તે આજે નવે અવતારે નગરશેઠની કન્યા થઇને અવતરી છે. તમને શોધી કાઢવાને જ ચિત્રમાળાનું પ્રદર્શન કર્યું હતું. એકવાર તમે એની પાસે આવ્યા કે એની કામના પુરી થઈ. અરે, ગયા ભવમાં બેવાયેલા અને ફરી પાછા આજે મળી આવેલા પ્રિયતમ! આપણને ગયા ભવમાં એકરૂપ કરનારે નેહસંબંધ હજી ચે હય, તે તમારા જીવનને જાળવી રાખે અને તમારી સાથે મારા જીવનને પણ બચાવે !”
દદ૬. “વળી અમને એકસૂત્રે બાંધનારો નેહ પરિપૂર્ણતાએ પામે ત્યાં સુધી સે ગુપ્ત રાખવાની એમને સૂચના આપજે.”
૬૭-૬૯. આ અને એવી બહુ બહુ વાતે મેં ભારે હૈયે સારસિકાને કહી ને પછી કાગળ આપીને વિદાય કરી. (અને છેવટે મેં એને સેગન દેઈ કહ્યું, “અમે બે રનેહસંબંધે જોડાઈશું એવા સમાચાર ગમે તે રીતે જરૂર લાવજે. મેં તેને કહી ન હોય કે કાગળમાં લખી ન હય, એવી સો વાતે મારા લાભની હોય તે, એ. મને કહેજે.”
૭૦-૭૧. પછી મારી એ સારી સખી મારા સ્વામી પાસે પત્ર લઈને ગઈ ને સાથે મારા હૃદયને પણ લેતી ગઈ. એની ગેરહાજરીમાં ચિંતાએ કરીને મેં નિશ્ચય કર્યો
(અહીં મૂળ ગ્રંથમાં દા ફ્લોક ૬૭૧ ઉ. થી ૭૭ ખુટે છે. )
૬૭૮-૬૮૦. ( સખી પાછી આવી અને મને કહેવા લાગી:-) “સખી, તારી પાસેથી પત્ર લઈને હું નિકળી એટલે નગર વચ્ચે આવેલા રાજમાર્ગ ઉપરની સુંદર હવેલીઓ પાસે થઈને ચાલી. અનેક ચકલાં વટાવીને હું એક મહેલ પાસે આવી ઉભી, વૈશ્રવણ (કુબેર) અને શ્રી જાણે ત્યાં એકઠાં થયાં હોય એવે એ મહેલ લાગતું હતું. ભારે હૈયે હું તે દરવાજા પાસે આવી ઉભી. ત્યાં રોકીદાર હતે તેણે અનેક જતી આવતી દાસીઓમાંથી પણ મને ઓળખી કાઢી કે આ કેઈ અજાણ્યું માણસ છે, અને મને વાતે વળગાડીને પ્રશ્ન કર્યો કે “ તું ક્યાંથી આવે છે?” સ્ત્રીઓને વાતે ઉડાવી દેતાં આવડે છે, તેથી મેં જુદું જ કહ્યું, કે “હું અજાણી છું એ તમે સાચે જ પારખી કાઢયું છે, પણ મને તમારા મહેલના કુમારે બોલાવી છે. ચોકીદારે ( આનંદથી) કહ્યુંઃ “અહીં થઈ જનારઆવનાર કે મારાથી અજાણ્યું નથી! તે ઉપરથી મેં એનાં વખાણ કરી કહ્યું: “ જેને ઘેર દરવાજા આગળ તમારા જેવા રોકીદાર હોય છે તે શેઠ સુખી છે. ( અને વળી કહ્યું) હવે મને શેઠના પુત્રની પાસે લઈ જાઓ.” એણે ઉત્તર વાળ્ય. “ બીજની સ્ત્રીઓ મારા ઉપર એ વિશ્વાસ કરે ત્યારે તે એ કામ હું ખુશીથી કરૂં . ' એવું કહીને તેણે એક દાસીને ભલામણ કરી કે સાથી ઉપરને માળે કુમાર પાસે આને લેઈ જા.” પછી દાસી સાથે હીરામોતીએ
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દાસીનું પદ્યદેવ પાસે જવું, જડેલા મહેલના સાથી ઉપરના માળે હું પળવારમાં જઈ ઉભી. ત્યાંથી રાજમહેલમાં લાંબે સુધી નજર પહોંચતી હતી. દાસી મને રતનજડિત આસન ઉપર બેઠેલા જુવાન પુરૂષને દેખાડી ચાલતી થઈ.
દિલ-૭૦ વિશ્વાસ રાખીને હું કુમારની પાસે ગઈ. પાસે એક ભેળા જે બ્રાહ્મણકુમાર હતે શેઠને દીકરે ઢીંચણ ઉપર મુકીને એક ચિત્ર જેતે હતે. એની આંખમાંથી આંસુ ઝરીને એ ચિત્ર ઉપર પડવું, તે જેમ કોઈ કાગળમાં થયેલી ભૂલ લૂંછી નાખે એમ એણે લુંછી નાખ્યું. આમ એ તને-મળવાની-આશાભર્યો અને વળી તારા-વિજેગથી–ચિંતાભર્યો હૈયે બેઠે હતે. મેં વિનયથી નમીને હાથ કપાળે અડાડી નમસ્કાર કર્યા અને કહ્યું: “ઘણું જી કુમાર’! તે સાંભળી હાથમાં વાંકે દંડ અને લાલચળ જામા નીચે વ્યાઘચર્મ છે જેની પાસે એ પેલો મૂર્ણો અને બલ બ્રાદાણુ ચીભડાના બી જેવા દાંત કાઢો બેલી ઉઠયોઃ “મને બ્રાહ્મણને તે પહેલા નમસ્કાર શા માટે ન કર્યા? આ શુદ્રને કેમ કર્યા?” ભયથી મારીં ચુડી તે કાંડેથી સરી ગઈ, જાણે હું પોતે ભેંય ઉપર પડી ગઈ, અને બોલીઃ “મહારાજ, નમસ્કાર તમને.’ હું તરત જ પાછી ઉભી થઈ ગઈ ને બોલીઃ “સાપના જેટલી મને તમારી બીક લાગે છે, એણે બૂમ મારી “શું? મને તું સાપ કહે છે?” મેં ઉત્તર આપ્યો: “સાપ કહેતી નથી, હવે થયે સંતોષ? પણ એ બોલી ઉઠ
મને સાપ કહીને હવે ફરી જાય છે? યાદ રાખ કે હુ ઉંચા બ્રાહ્મણકુળનો છું; મારા પિતા હારિતગોત્રના કાશ્યપ છે, અને હું છોગ્ય સંપ્રદાયનું મીઠું ખારૂં ખાઉં છું. હજી તું મને ઓળખતી નથી ?' આમ એણે મને અનેક મહેણાંટણાં સંભળાવ્યાં, શેઠના કુંવરથી આ સાંભળ્યું ગયું નહિ તેથી તેણે એ બ્રાહ્મણને ખખડા ને કહ્યું “અરે પાછ, પારકા ઘરની દાસીને આમ સતાવ ના. તારે ખાલી બડબડાટ બંધ કરી દે. તું માત્ર મૂર્ખ જ છે, બીજું કાંઈ નહિ.” શેડના કુંવરે એને આમ ધમકાવ્યા એટલે પછી માત્ર દૂર રહીને મારી સામે આંખે કાઢવા લાગ્યો ને બીજા એવા એવા ચાળા કરવા લાગે, બીજું એનાથી કશું થઈ શકયું નહિ. પછી એ ચાલતે થયું એટલે રાજી થઈને, પણ જાણે રડવા જેવી થઈ ગઈ હોઉં એમ, હું બેલી: “ધન્ય પ્રભુ, એ ગયા.”
૭૧૦-૧૬. “શેઠના એ કુંવરે પછી મને પુછયું: “સુંદરી, તું કયાંથી આવે છે? તારે શું જોઈએ છે તે જલદી બેલી દે.”
ત્યારે હું બેલીઃ “હે કુળભૂષણ, અવગુણવિહીન, સદ્ગુણસંપન્ન, સફળદ્રુદયમોહન, મારે એક નાનેરો સંદેશે સાંભળે. નગરશેઠ અષભસેનની સ્વર્ગની અસર સમાન કન્યા તરંગવતીએ એ સંદેશે. મેક છે. તરંગવતીએ પોતાના હૃદયની જે ઈશ પિતાના ચિત્રમાં ચીતરી છે, તે ઈચ્છા સફળ થવાની આશા રાખે છે. પાછલા ભવને (ચિત્રમાં ચીતરેલો) નેહસંબંધ જે હજી યે રહેવાનું હોય તે એનું જીવન ટકાવવા
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તરગવતી.
માટે એને તમારા હાથ આપે.. આ સદેશે! મારે તમને આપવાનો છે. સ દેશાના મમ તા (એના લખેલા ) આ પત્રમાં તમે જોશે.'
** ૭૨૭–૭૨૧. આ શબ્દો સાંભળી એના માં ઉપર તે આંસુના પ્રવાહ વહેવા લાગ્યા અને એનુ આખુ` શરીર થરથરવા લાગ્યુ. આમ એણે પેાતાના સ્નેહ તેા દેખાડી આપ્યા, પણ તરત કઇ ઉત્તર દેઈ શક્યે નહિ. કારણુ કે ડુસકાંથી એના સ્વર નિકળી શક્યે નહિ. નિરાશાને દાખી દેવાને જે ચિત્ર એણે મકયું હતું, તે પાછુ આંસુથી ફ્રી પલળી ગયું. કઈક શાન્ત થઈને એણે પત્ર લીધેા અને જેમ જેમ એ પત્ર તે ધીમે ધીમે વાંચતા ચાલ્યા તેમ તેમ એની આંખેા રમવા લાગી. પત્રને ( ચતુર વાકયાએ લખેલે ) ભાવ એ સમજી ગયા એટલે એ સારી રીતે શાન્તિ પામ્યા અને પછી દઢ, સ્પષ્ટ, રણકતે શબ્દે આવ્યે
૭૨૨-૭૨૪. “ વિસ્તાર કરવાનું કારણ નથી. મારી શી દશા છે તે ટુકામાં જ સાંભળ. જો તું આવી નહાત તે હું જીવી શકત નહિ. ઠીક પળે તું આવી પહોંચી છે તે હવે મને આશા પડે છે કે પ્રિયાને મળવાને કારણે જીવનમાં રસ આવશે. વળી તારા આવવાથી, કામદેવ પેાતાના ખાણુથી 'ડા ને ઉંડા ઘા કર્યે જાય છે, તેની સામે રક્ષણ કરવાનું મળ હુ પામ્યા છે.
** ૭૨૫-૭૨૬. ત્યાર પછી, તારાં ચિત્ર કરીને એને પાછલા ભવ જે યાદ આવેલા તેની સા કથા મને કહી બતાવી અને તે મને જે ડેલી અને રજેરજ મળતી આવી. માગના તળાવ પાસે ફરતાં ચક્રવાકને જોઇને તને તારી પાછ્યા ભવ સાંભરી આવેલા તે કથા મેં પણ તેને વિગતવાર કડી સભળાવી.
'
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૭૨૭-૭૪૫ એણે કહ્યું: ‘અરેરે, ( તારી સખીનાં ) ચિત્રા જોઈને ત્યાં ને ત્યાં જ મારા હૈયામાં (વિજ્રગના ) દુઃખના કાંટા ઉડે સુધી પેશી ગયા, જેટલેા અમારા સ્નેહ એકવાર ઉડા હતા તેટલે જ ઉડા એ કાંટા પેઠે. ઉત્સવપુરા થતાં જેમ વાવટા જમીન ઉપર પડી જાય તેમ ઘેર જઈને હું પથારી ઉપર પડવો, ચારે આજી મારા મિત્ર વિ’ટાઈ વળ્યા ને એજ સ્થિતિમાં માકીની રાત મે' ગાળી. કિનારા ઉપર આવી પડેલી માછલી જેમ તરફડે, તેમ હુ' સ્નેહદે પીડાતે અને અસહાય નિરાશાએ હાંફતા પથારીમાં પડી રહ્યા. હું શૂન્યમાં તાકી રહેતા, આંખને અણુસારે ઉત્તર આપતા, વળી હસતા અને ગાતા અને વળી પાછે રાઈ પડતા. મારા મિત્રા મારૂં સ્નેહ પારખી ગયા અને એમણે શરમ છેાડીને મારી માતાને વાત ઉઘાડી પાડી કહ્યુ કે જો તમે તમારા (પુત્ર) પદ્મદેવને માટે નગરશેઠની દીકરી તરગવતીનુ માગુ' નહિ કરા તેા એ મરી જશે. મારી માતાએ આ વાત મારા પિતાને કરી. તે તુરત જ નગરશેઠને ત્યાં ગયા, પણ નગરશેઠે એમનુ માગુ તોડી કાઢયું. આથી મારું માબાપે શાન્ત કરવાને પાધરૂં મને કહ્યું-કે તું કહે તેની સાથે તને પરણાવીએ, માત્ર એની વાત છેડ. આ વાત સાંભળીને હું એમને પગે પડચા, નમ્રતાપૂર્વક
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નેહપs.
૬૫ હાથ જોડ્યા અને જમીને કપાળ અડાડ્યું પછી સભ્યતાપૂવક છે કે જેમ તમે કહેશે એમ કરવા તૈયાર છું, એનામાં એવું શું વધારે છે !. આથી મારાં માબાપ શાન્ત થયાં અને એમની ચિન્તા ટળી. પણ મેં તે આપઘાત કરવાને નિશ્ચય કર્યો હતો, કારણ કે મળવાની મારી બધી આશાઓ ભાંગી પડી હતી. અને દિવસે મારી ચેજનાને અમલ કરતાં વખતે લોક મને અટકાવે એ બીકથી રાતે બધાં ઉંઘી જાય ત્યારે આપઘાત કરવાને સંકલ્પ કર્યો. જીવવાની તૃષ્ણથી છુટે થઈને અને મરવાને માટે તૈયાર થઈને આ બધા સંકલ્પવિક૯પ કરતે હોતે, એવામાં જ તું આ સંદેશે લેઈ આવી. એથી મારા હૃદયમાં ઉત્સવ થયે ને મારા જીવનમાં અમૃત રેડાયું. પણ તારી સખીને શેકભર્યો કાગળ વાંચતાં મારી આંખોમાંથી આંસુ નિકળી પડશે ને મને બહુ દુઃખ થશે. તારી સખીને મારા તરફથી આટલું કહેજે. જેને મરતાં તું સતી થઈ અને જેને તે આટલે મૂવે ખરીદી લીધું છે તે તારે (ખરીદેલો) દાસ થવાનું સ્વીકારે છે. તારાં ચિત્રથી એને સો વાત સાંભરી આવી છે અને જ્યાં સુધી તું એની થઈ નથી, ત્યાં સુધી એ દુખિયે છે; અને છતાં યે તારા સંબંધની અને નેહપ્રમાણની જે આશાએ એને આનંદ આનંદ થઈ રહ્યા છે, અને એ આશાએ કરીને એ સુખિયે છે. •
૭૪૬-૭૫૮. “આ સંદેશો આપ્યા પછી પણ એ મહાનુભાવે તારા સ્નેહની આશાઓ ઉપર બહુ સનેહવાલે કરીને મને બહુવાર ઉભી રાખી ને છેવટે ના છુટકે– રજા આપી. પણ પછી મહેલમાંથી બહાર નિકળતાં મને તે જાણે આકાશપાતાળ એક થઈ ગયાં. ખરેખર, (તારા પિતાને) નગરશેઠને મહેલ બાદ કરતાં (આખા રાજમાર્ગ ઉપર) એ બીજો એકે મહેલ નથી. હજી યે એ ભવ્યતા, એ શેભા, એ આદરમાન મારી આંખો આગળ તરી આવે છે, અને તારા પ્રિયની અતુલ સુંદરતા પણ ઝળકી આવે છે. હવે એણે લખી આપેલો ઉત્તર તને આપું, એમાં એણે નેહ અને અશાઓની ધારાઓ પ્રકટાવી છે. ”
(તરંગવતી હવે સાબીરૂપે પિતાની કથા આગળ ચલાવે છે.) જે પત્ર રૂપે મારા પ્રિય મારી પાસે આવ્યા હતા, તે પત્ર મેં લીધે ને તેની ઉપરની મહેરને ઉંડે શ્વાસે ચુંબન કર્યું. હજી તે મારી આંખે એ મહોર ઉપર હતી અને કાનમાં મારી સખીને શદે ઉતરતા હતા, તેવે જ ચંપાની પાંખડીએ ઉઘડતાં જેમ અંદરથી તંતુગણ બહાર નિક ના આવે એમ મારા હૃદયમાં આનંદને કુવારે છુટો. તરત જ મેં મહેર તેડી અને વાંચવાને આતુર થઈ કાગળ છે. મારા પિતાના મૃત્યુ સિવાયની બીજી બધી અમારા પાછલા ભવની કથાનું એમણે સંપૂર્ણ અને ચમત્કારિક વર્ણન કર્યું હતું:
જ્યાં સુધી અમે સાથે હતાં ત્યાં સુધીનું બરાબર એકરસ વર્ણન હતું અને મારા મરણની કથા તે એ જાણતા ન હતા. આનંદથી ઉતે હૃદયે એમણે મોકલેલે એ પત્ર મેં
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તરંગવતી.. વાંચવા માંડ્યો. જે લાગણી મને થઈ હતી એ એમને પણ થઈ હતી અને તે એમણે સુંદર શબ્દોમાં વર્ણવી હતી. વાંચતાં એમને નેહ મને સ્પષ્ટ થયું. કાગળમાં આમ હતું - ૭૫૯-૭૬૭. “મારા હૃદયની રનેહપાત્રી તરંગવતી જોગ આ સ્નેહસંદેશ છે. જેનું મુખ કમળસમું છે અને જેનું આખું અંગ અનંગને બાણે કરીને આટલી તીવ્ર વેદના સહે છે એવી જુવતીનું મંગળ અને કુશળ હે! (વિજેગમાં પણ) આપશુને સ્નેહે કરી જેણે બાંધી રાખ્યાં છે એવા કામદેવની કૃપાવડે હું કુશળ છું. માત્ર અનંગનું બાણ મને ચોટયું છે એટલે જ્યાં સુધી તું મારાથી દૂર છે ત્યાં સુધી મારું અંગ ઢીલું ને નબળું પડતું જશે. આ સાજાતા જાના સામાન્ય સમાચાર પછી, કમળપત્રના જેવી સુંદર આંખેવાળી હે પ્રિય, બીજી વાત હવે કહ્યું: આપણું એક વખતના નેહાનંદને યાદ કરતાં આજે પણ તારે માટેની કામનામાં હું ડુબી જાઉ છું; મારા મિત્રો અને સંબંધીઓની મદદથી હું નગરશેઠનું મન મનાવી લેવું, ત્યાં સુધી તું ધીરજ ધર, પિતાની ઈચ્છા થાય ત્યાં સુધી ધીરજ ધર.” - ૭૬૮-૭૬૯ આ પત્ર વાંચીને મને લાગ્યું કે મારા પ્રિય (જો કે એમણે અમારા અંતજીવનનું યથાસ્થિત વર્ણન કર્યું હતું, તે પણ મને ધીરજ ધરવાનું કહેવું હાવાથી) નેહમાં ઠંડા પડી ગયા છે. આથી મારો ઉત્સાહ ને ઉત્કંઠા પણ ભાગી ગઈ. હું ઢીલી થઈને બેશી પી અને જાંગ ઉપર કોણી ટેકવી તથા હાથ ઉપર મેં ટેકવી બાવરાની પેઠે તાકી જોઈ રહી.
૭૭૦-૭૭૩. મારી સખી મને સભ્યતાથી સમજાવવા લાગી ને દિલાસો આપવા લાગી. એ બેલી: પણ મારી સખી, તારી લાંબા કાળની કામના સફળ થવાના, અને તમારે સ્નેહસંબંધ બંધાવાના સમાચાર જે પત્ર આપે છે તે જ પત્રથી તારે શોકજંતુ તારા પ્રિયના વચનામૃતથી મરી જઈ મીઠે થઈ જ જોઈએ; તેથી નિરાશ થતી ના. થોડા જ સમયમાં તમે એક બીજાને આલિંગન કરી શકશે.”
૭૭૪-૭૭૫. મેં ઉત્તર દીધોઃ “સાંભળ હું શાથી એટલી બધી નિરાશ થઈ ગઈ તે મને લાગે છે કે દૂર રહેવાથી રને ઠંડો પડી જાય છે, કારણ કે એથી અમારા સંબંધને આધાર ભવિષ્ય ઉપર લટકતા રહે છે.”
૭૭૬-૭૮૧. હાથ જોડીને ફરી સખી બોલીઃ “સખી, તું નકકી જાણજો કે, વીરપુરૂષે પિતાનું સાધ્ય સાધવાને કંઈક ચેજના અને વ્યવસ્થા રચે છે. સાચાં સાધનને અભાવે જેને તેને ઉપયોગ કરી લે એ સારૂં નથી. ઉતાવળમાં વગરવિચારે સાચાં સાધન વિના કંઈ કામ કોઈ ઉપાડે તે એ સફળ થાય તે ય પરિણામ કડવાં આવે. સારાં સાધનને ઉપગ કર્યા છતાં માણસ ધાર્યું ના ઉતારી શકે, તે ય એને દેષ કઈ કાલે નહિ. માટે વીરપુરૂ, કામના બાણથી ગમે એટલા પીડાએ તે પણ, માગે જઇને પોતાના કળને લઇ ઈ બેસે નહિ,
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(૭. પલાયન.) ૭૮૨-૭૮૭. આમ મારી સખી સાથે વાત કરતાં કરતાં પધને ખીલવનારે જે સૂર્ય તે આથમી ગયો એનું મને ભાન રહ્યું નહિ. ઉતાવળે ઉતાવળે મેં નાહી લીધું ને સખી સાથે કંઈક ખાઈ લીધું. પછી એને લઈને અગાશીમાં ગઈ અને સુંદર આસન ઉપર બેશીને એની સાથે મારા પ્રિય વિષેની વાતે મેડા સુધી કરી. જેમ જેમ મોડું થતું હતું તેમ તેમ અંદરની અશાન્તિ વધતી જતી હતી, અને તે અસહ્ય થતી જતી હતો. નેહને બળે હું એટલી બધી પીડાવા લાગી કે મારું જીવન ટકાવી રાખવાને ખાતર મારી સખીને (સારસિકાને) માટે વિનંતી કરવી પડી (હું બેલી-):
૭૮૮-૭૯૦. “કુમુદને ખીલવનારે ચંદ્ર જેમ જેમ ઉપર આવે છે તેમ તેમ એ વૈશ્યને (શેઠના દીકરાને) મળવાની મારી ઉત્કંઠા બહુ જ વધતી જાય છે. અને જેમ પવનને બળે બસ્તીના મેં આગળનું પાણી ઉડી જાય છે એમ એ ઉત્કંઠાને બળે મારા હૃદયમાંથી તારી મીઠી વાણી પણ ઉડી જાય છે-ટકતી નથી. અરે મારો જીવ એમની પાછળ તલસે છે! અત્યારે જ મને એમને ઘેર લઈ જા ! એકવાર એ મારા પતિ હતા, નેહની વેદી ઉપર હું મારી લાજ હોમી દેઈશ.”
૭૯૧-૭૯૨. મારી સખીએ મને સમજાવવા કહ્યું: “તારે તારા કુળની લાજ રાખવી જોઇએ. આવું કશું સાહસ કરતી ના ! તારે એને કલંક ન લગાડવું જોઈએ, એ તારો થયે છે, તું એની થઈ છે, તારે મુશ્કેલી વહારી લેવી જોઈએ નહિ. તારાં માબાપ જરૂર તારી વાત માનશે.”
૭૩, આપણે સ્ત્રીઓ ઘણીવાર આવેશથી ખેંચાઈ જઈએ છીએ, મને પણ એમ જ થયું. આવેશને માર્યો મારે સે વિવેક ચા ગયે. નેહથી કેવળ બાવરી બની હું બેલી
૭૪-૭૯૭. “માણસે બધાં જોખમ ખેડવા તૈયાર થવું જોઈએ. જે માણસ સાહસ ખેડતાં, તેમાં આવી પડનારાં વિદનેથી ડરતે નથી તે જગતમાં વિજય પામે છે. એકવાર કામ શરૂ કર્યું કે પછી તે ગમે તેવું આકરું હોય તે ય સહેલું થઈ જાય છે. આટલી ઉત્કંઠા પછી જે તું મને મારા પ્રિય પાસે નહિ લેઈ જાય તે રનેહને બાણે પીડાઈને તારી નજર આગળજ મને મરી ગયેલી તું જેશે. વખત જરાયે ખેતી ના! મને લઈ જા ! જે મને તારે મરેલી જેવી ના હોય તે આ અપકૃત્ય પણ કર!”
૭૯૮-૮૦૯ આવા દબાણથી કરીને મારા જીવનને આનંદ આપવા માટે એ મારી સાથે મારા પ્રિયને મહેલે આવવા કબુલ થઈ. (જેના ઉપર રનેહનું બાણ ચઢાવી શકાય એવું) કામદેવનું ધનુષ-કામને ઉશ્કેરવા-મારે શણગાર આનંદે ઝટપટ સજી લીધે. મારી આંખમાં ભવ્ય તેજ આવ્યું, કારણ કે એની સાથે મારા પ્રિયને ત્યાં જવા મારા પર તલપાપડ થઈ રહ્યા હતા અને હૈયું તે કાને પડીને ક્યારનું વ પાલતું થઇ ગયું
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તરગવતી હતું. પછી અમે ધ્રુજતે શરીરે એકએકને હાથ ઝાલીને પાછલે બારણે થઈને મારા ભવ્ય મહેલમાંથી બહાર નિકળી ગયાં. (અમારા નગર) શાસ્ત્રીને સ્વર્ગસમી શોભા આપનારે રાજમાર્ગે થઈને અમે કુલમાળાના જેવા લાંબા ચિટામાં ચાયાં. પણ આ સુંદર દેખાવ ઉપર મારી આંખ ચેટે શી રીતે ? કારણ કે મારા વિચાર તે મારા પ્રિયમાં જઈ ચેટયા હતાઆજે મારા પ્રિયને જોઈ શકાશે એ જ વિચારે મારા મનમાં ઘળાતા હતા. એથી મને થાક પણ લાગે નહિ. માણસની ભીડ તે હતી, તે ય અમે ઉતાવળે પગલે ચાલ્યાં અને અનેક હરકતો વેઠીને પણ આખરે અમે મંદિરમાં આવી પહેંચ્યાં. સખીએ મને એ બતાવ્યા, તે વેળાએ એ પિતાના મિત્રની વચ્ચે દરવાજા ઉપર બેઠા હતા અને વીણા વગાડતા હતા. શરચંદ્રની પિઠે એને પ્રકાશ આપી રહ્યા હતા.
૮૧૦-૮૨૦. વગર હાભેચાત્યે મેં તો એમને જોયા જ કર્યા, છતાં યે મારી આ એમને જોઇને ધરાઈ નહિ. વારંવાર એ તે આંસુથી ભરાઈ જતો. મારા ચકવાકના ભવના મારા સ્વામીને જેમ જેમ જોયા કર્યા, તેમ તેમ એમને જોવાની મારી તૃષ્ણા અત્યારે વધતી ગઈ. માત્ર એમની જ નજર અમારા ઉપર પડવાને કારણે આનંદ પામીને અમે ત્યાં પાસે ઉભાં, અને છતાં ય પાસે જઈ શકતાં નહોતાં. એવામાં સારે નશીબે એમણે પિતાના મિત્રને રજા આપી. “જાઓ હવે, શર૬રાત્રિમાં જઈ આનંદ કરે, હું હવે સુઈ જઈશ.” એ લેક ગયા કે તરત જ એ મારી સખી (જેને એમણે ઓળખી લીધી હતી) તરફ જોઈ બેયાઃ “આવ, જે ચિત્રો નગરશેઠને ઘેર મુક્યાં હતાં, તે આપણે જોઈએ.” (આમ એ બોલતા હતા ત્યારે, હું મારા શણગારને અને કપડાંને ઠીકઠાક કઈ જતી હતી ને મારે અભિમાની હૃદયે, કામદેવને જાણે અવતાર ના હોય એવા મારા પ્રિયને મને નમાન્યા જોઈ રહી હતી. સખી સભ્યભાવે એમની પાસે ગઈ, એટલે એ તરત જ સભ્યભાવે ઉઠયા ને જે ખંડમાં હું શરમ ને ગભરાટની મારી સંતાઈ ઉભી હતી તે જ ખંડમાં (મારી સખીના દેરાયા) આવી ઉભા. પછી એ આનંદભરી આંખેએ નેહરુખ વદને બેલ્યા.
૮૨૧-૮૨૫. “તારી સખી, મારા જીવનસરોવરને પોષનારી, મને સુખ આપનારી સહચરી, મારા હૃદયની રાણું કુશળ તે છે ને? જ્યારથી મદનપ્રભુનાં બાણથી હું ઘ. વાય છું ને તેને મળવાને ઉણુક બને છું ત્યારથી મને કશું ચેન પડતું નથી. “તમે શર૬રાત્રિમાં આનંદ કરો મારે હવે સુઈ જવું છે” એવું બહાનું કાઢીને મારા મિત્રોને મેં વિદાય કરી દીધા છે તે માત્ર મારી ચાલાકી જ હતી. (સાચી વાત તે એ હતી કે) તેમની સેબતમાંથી છુટા પડી મારે ફાવે તેમ તમારે મહેલે જવું હતું અને ત્યાં એ ચિત્રો જેવાં હતાં. પણ તને જોતાની સાથે જ મને થયેલા આનંદને લીધે મારા હૃદયને શેક ઉદ્ઘ ગયે છે. કહે, મારી પ્રિયા પાસેથી તું શે સંદેશે લઈ આવી છે? ”
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પ્રિયમિલન,
૮૨૬. ત્યારે મારી સખી ખેલી: “ કશે સદેશે હું લાવી નથી, એ પાતે જ અહી' આવી છે. ”
૮૨૭–૮૨૮. વળી એ ખાલી: સખી છે તે બહુ ચે કુશળ; પણ એ એવી તેા સ્નેહઘેલી બની ગઇ છે કે તમારે હવે એના હાથ ઝાલવા જ જોઈશે. સમુદ્રની નારી ગંગા જેમ સમુદ્રમાં વહી જાય છે, તેમ સ્નેહે કરીને તણાતી તરંગવતી તમારી પાસે દાડી આવી છે. '
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૮૨૯-૮૩૬. (આ શબ્દો સાંભળીને) મારે તા આખે શરીરે પરસેવાનાં મિ દુએ ચમકી ઉઠયાં, મારામાં કર્યું ખળ રહ્યું નRsિ. મારી આંખે!માં આનદનાં આંસુ ભરાઈ આવ્યાં. ગભરાતી ને થરથરતી હું સભ્યતાએ મારા પ્રિયને પગે જઇ પડી, પણ તરત જ એમણે પાતાને અળવાન ને સ્નેહભયે હાથે મને ઉઠાડી ઉભી કરી, એમણે મને ખાથમાં ભીડી લીધી, એમની આંખેામાં પણ સ્નેહનાં આંસુ ભરાઈ ગયાં. પછી એ ખેલ્યાઃ “મારા શાકને હણનારી મારી સખી, તારૂ કલ્યાણ હા!” એમ ખેલતા એ, પુરા ખીલેલા કમળ જેવે આનભયે મુખે મારી સામે એકીટસે, જોઇ રહ્યા; એ સુખ જાણે કમળમાં બેસનારી પણ કમળ વિનાની લક્ષ્મી ના હોય એવું મને જણાયુ શરમની મારી હું' તે એમની એમ ઉભી રહી, આનંદનાં મેાજામાં દુખતી અને કમ. ળના પાન જેવા મારા કામળ પગ ધરતી ઉપર આમતેમ ફેરવતી, હું ત્રાંસી આંખે એમના તરફ જોયા કરતી અને જ્યારે એ મારી આંખ સામે જોતા ત્યારે પાછી નીચુ' જોઈ જતી, તેમના બધા હાવભાવમાં તેમનું સ્વરૂપ એવું તે મેહક અને સુંદર હતુ. કે મારા માહને પાર રહ્યા નહિ. મારા હૃદયની ભૂમિ ઉપર એમની દ્રષ્ટિને એવા સુખભર્યો વરસાદ રેલાયે કે મારા આનંદનાં બીજ ફુટી નિકળ્યાં.
૮૩૭-૮૪૧. પછી એ ખેલ્યાઃ “ મારી કામલી, આ સાહસ તું શી રીતે કરી શકી ? તારા પિતાની મરજી સંપાદન કરતા સુધી જોવાનુ મેં તને કહ્યું જ છે. તારા પિતા રાજદરબારના કૃપાપાત્ર છે, મહાજનના અગ્રેસર છે, મિત્રમ‘ડળમાં એમને ભારવર આખા નગરમાં સાથી વધારે છે; એમની ઇચ્છાને જો આ તારા આચરણથી આઘાત લાગશે તેા એ પાતાની ઇચ્છા પ્રમાણે ચલાવવાને મધા ઉપાયેા ચાજી શકશે અને ક્રોધના માર્યા મારા આખા કુટુંબ ઉપર વેર વાળશે. તેથી તને વિનતી કરૂં છુ કે તારી ગેરહાજરી જણાઇ આવે તે પહેલાં તું ઘેર ચાલી જા. સીધે રસ્તે તને પ્રાપ્ત કરવાના હું બધા ઉપાય લઈશ. મારી પ્રિયા, આપણે આપણુ મિલન ગમે તેટલુ થ્રુપુ રાખવાનું કરીએ તોપણ તે તારા પિતાની જાણમાં આવી જશે. કારણકે ગમે તેટલુ ગૂઢ કાય પણ સાવધાન મનુષ્ય જાણી શકે છે.” મારા સ્વામી મારી સાથે આ પ્રમાણે વાત કરે છે એ જ વખતે રાજમાગે જતા કોઈ પુરૂષના નીચે પ્રમાણેના ઉદ્ગારે સાંભળવામાં માન્યાઃ
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તરગતી,
૮૪ર-૪૩. પિતાની મેળે ચાલી આવેલ પ્રિયા, વન, અર્થ, રાજલક્ષમી, વર્ષસમય, ત્વના અને ચતુર સનેહીઓના આનંદને ઉપલેગ જે કરી શકતું નથી તે જાતે ઘેર ચાલી આવેલી લમીની કિંમત જાણ નથી.
૮૪૪-૮૪૫. “જીવિતના સર્વસ્વસમાન રમ્ય પ્રિયાને પ્રાપ્ત કરીને જે છેડી દે છે તે મનુષ્ય સફળ કામનાવાળે થતો નથી.”
૮૪-૮૪૮. એ ઉદ્દગારના ભાવાર્થથી પ્રેરાઈને વળી મારા પ્રિયે મને કહ્યું છે જે આપણે પરદેશમાં ચાલ્યાં જઈએ, તે જ વિદાશી ને શંકાથી મુક્ત થઈને આનંદે રહી શકીએ.” ત્યારે મેં રડતે હૃદયે ઉત્તર આપેઃ “હા! મારા પ્રિય, હવે મારાથી ઘેર જવાય એમ નથી, હું તે તમે જ્યાં જશે ત્યાં, તમારી પાછળ આવીશ.”
૮૪૯. (હુ એમના વિચાર પ્રમાણે અનુસરી શકું એટલા માટે) અનેક તરહથી એમણે મને ઉત્તેજન આપ્યું, અને હું પાકા ઠરાવ ઉપર આવી એટલે એ બોલ્યાઃ “ઠીક ત્યારે, આપણે નાશી જઇએ! હું હવે મુસાફરીની તૈયારી કરી લેવું.”
૮૫૦-૮૫૨. માર્ગમાં જરૂર પડે એવી ચીજ એકઠી કરવાને એ મહેલની અંદરના ભાગમાં ગયા, એટલે મારા દરદાગીના લઈ આવવાને મેં મારી સખીને ઘેર મોકલી. એ દોડતી ગઈ, પણ એટલામાં તે મારા પ્રિય હાથમાં કથળી લઈને પાછા આવ્યા અને કહેવા લાગ્યાઃ “ચાલ મારી પદ્મિની, વખત વહ્યા જાય છે. નગરશેઠ જાણી જાય તે પહેલાં આપણે ખશી જવું જોઈએ.”
૮૫૩. મેં ગભરાઈને ઉત્તર આપેઃ “મારા દાગીના લેવા મેં સખીને ઘેર મકલી છે, એ આવે એની આપણે વાટ જોઈએ.”
૮૫૪-૮૫૮. એમણે ઉત્તર આપેઃ “અર્થશાસ્ત્રમાં લખ્યું છે કે હતી એ પરિભવ-તિરસ્કાર કરાવનારી છે, એ કાર્યની સાધક નથી પણ ખરી રીતે બાધક છે. ખરેખરી ગુપ્ત વાતથી દૂતીને સદા દૂર જ રાખવી જોઈએ. એ જલદી જ ફસાવી દે છે, કારણ કે રીઓથી કશું છાનું રાખી શકાતું નથી. વળી જે સાથે દરદાગીના લીધા, તે તે એથીયે વધારે ફસાઈ પડવાને લે. વળી એના આવવાથી આપણને માર્ગ કાપતાં અડચણ પડશે અને આપણું શાનિતને ભંગ થશે, માટે એને તે આપણે છોડી દઈએ! અને હવે વખત છે જેઈને નથી. હીરા, ઝવેરાત અને એવું એવું સિ કીંમતી મેં લઈ લીધું છે. જેની આપણને જરૂર પડશે તે એનાથી ખરીદી લેવાશે. માટે આવ હવે, આપણે ચાલતાં થઈ જઈએ.”
૮૫૯-૮૬૩. એ સાંભળીને હું તેમ કરવા તૈયાર થઈ ને સારસિકાની વાટ જોયા વિના જ અમે તે રસ્તે પડયાં. નગરના દરવાજા સારી રાત ઉઘાડા રહે છે તેથી અમે બહાર નિકળી ગયાં અને જમુનાને કિનારે જઈ પહોંચ્યાં. ત્યાં અમે એક
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પલાયન મછ ખેળી કાઢ. એને દરથી એક ખોલા સાથે બાંધ્યું હતું અને (સુભાગ્યે) એની અંદર પાણી પેસતું નહોતું. અમે એને છેડી લીધને બંને જણ ઝટપટ અંદર ચઢી ગયાં. મારા પ્રિયે હાથમાંની કેથળી અંદર મુકી દીધી ને હલેસું પકડ્યું. ત્યાર પછી નદીમાં રહેતા કાલીયનાગની અને ખુદ નદીની પણ, નમસ્કાર કરીને, સ્તુતિ કરી. પછી સમુદ્રને મળવા જતી નદીમાં અમે અમારી હેડી હંકારી.
૮૬૪-૮૬૭, પણ અમારા જમણા હાથ તરફ શિયાળવાં રખડતાં હતાં તે અકાળે બોલવા લાગ્યાં. પશુઓમાં સૌથી લુચ્ચાં એ શિયાળવાને અવાજ અમને સંભળાવા લાગ્યું. જેરથી વગાડાતા શંખ જે બેસુરે એમને અવાજ હતો, તરત જ મારા પ્રિયે મછ અટકાવ્યું અને મને કહ્યું: “શુકન મળે ત્યાં સુધી આપણે ઉભા રહીએ. કારણ કે ડાબી બાજુથી નિકળીને જે શિયાળ જમણું બાજુએ જાય તેમજ પાછળ જાય અથવા પાછળ આવે તે અપશુકન થાય. જીવને કશું જોખમ થવાનું નથી, કશું વિદત આવવાનું નથી એવી આપણે ખાતરી કરી લેવી જોઈએ.”
૮૬૮-૮૭૨. એમ બેલ્યા પછી મોજાના (અટકાવી રાખેલા મછવા ઉપરના) મારાથી ડરીને ફરીથી મછા નદીમાં હંકારવા માંડશે. હલેસાને જેરે મછો ચાલ્યો ને વળી મજાને પ્રવાહ ખબ ઉતાવળે ચાલ્ય, અને આમ અમે મછવામાં બેથી ઘણી ઉતાવળે આગળ ચાલ્યાં. દૂરના કિનારા ઉપર નવાં નવાં ઝાડ દેખાતાં ને પાછળ અદશ્ય થઈ જતાં. પવનને સુસવાટ અને પંખીઓને કિલકિલાટ અત્યારે બંધ થઇ ગયા હતા અને તેથી જમુના શાન્તિની પ્રતિજ્ઞા પાળતી હોય એવી દેખાતી હતી. પણ ત્યારે મારા પ્રિયે, ભય ગયેલ છે અને ચિંતા જેવું કશું નથી, એમ જાણીને હદયને આનંદ આપનારી વાતે કરવા માંડી.
૮૭૩-૮૭૯ એ બેયાઃ “આટલા લાંબા વિજેગ પછી આપણે પાછાં એકબીજાને આલિંગન દેઈ શક્યાં એ આપણું કેવું સદ્ભાગ્ય! તે આપણે સંજોગ ઇચ્છ ના હેત, એ ચિત્ર ચીતયા ના હેત, તે આપણે એક બીજાને મળી શકયાં ના હતા, કારણ કે (પાછલા ભવ પછી) આપણા રૂપ તે બદલાઈ ગયાં હતાં. મારી પ્રિયા, (ખરેખર) તે ચિત્રો ચીતરીને મારા પ્રત્યેની મોટામાં મોટી (રહ–અને) જીવનસેવા સિદ્ધ કરી છે.” આવું આવું મારા કાનને ને હૃદયને સુખ આપનારૂં એ બહુ બેલ્યા. હું એને કશે ઉત્તર વાળી શકી નહિ. હું તે માત્ર શરમની મારા મેં નીચું રાખીને ત્રાંસી નજરે એમના તરફ જોઈ જ રહી. ગળામાંથી અવાજ નિકળે જ નહિ, નેહની આશાઓ સફળ થતી જોઈને નેહભર્યું હૈયું કંપવા લાગ્યું. (અંતે) મારા સુખના ભાવ ખુલ્લા કરવાને, મારા પગને અંગુઠો મળવાને પાટીએ ઘસતી ઘસતી, હું બેલી –
૮૮૦-૮૮૩. “આહા પ્રિય, તમે જાણે મારા પ્રભુ છે. તમારી સાથે સુખદુઃખ ભેગ
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તરંગવતી. વવાને મારા અંતરની પ્રેરણાથી મેં આપ સાથે પાસા નાખ્યા છે. મારું ગમે તે કરે; માત્ર એટલું માગું છું કે વિષમ સ્થિતિમાં આવી પડતાં પણ મને એકલી મુકી જશે ના. ગમે તે થતાં પણ હુ તે તમારી સાથે સ્નેહે બંધાઈ રહીશ. જો તમે મને ખાવાનું બંધ કરશે તો મારાથી ભૂખે રહેવાશે, પણ જે મારા હૃદયનું ખાવાનું બંધ કરી દેશે, તે તમારા વિના મારાથી રહી શકાશે નહિ.”
- ૮૮૪-૮૯૨, માનવહૃદયની ચંચળતા દેખાડનારા મારા આ શબ્દો સાંભળીને એમણે ઉત્તર આપેઃ “આહ મારી હાલી, તું એવી કશી ચિંતા કરતી ના, તને એવું કશું નહિ થવા દઉ. આપણે હવે શરતની ઉતાવળી નદીમાં અનુકૂળ પવનને બળે વિના મુશ્કેલીએ આગળ ચાલીએ છીએ અને સુંદર કાકદી નગર પાસે આવતા જઈએ છીએ, પેલા એના સફેદ મહેલે દેખાય. ત્યાં મારાં ફેઈ રહે છે, એમના મહેલમાં આપણને આવકાર મળશે અને સ્વર્ગમાં જેમ અપ્સરા તેમ ત્યાં તું ચિંતામુકત થઈ સુખમાં રહી શકશે. તું મારા સુખની વધારનારી છે ને દુઃખની હરનારી છે. તું મારા જીવનનું સર્વરવ છે ને મારા વંશની રાખનારી છે.” એવું કહીને અમારા ચકવાના ભવને સંભારતાં એમણે મને આલિંગન દીધું; ઉનાળામાં (સૂરજથી) તપેલી ભયને વરસાદના પર્શથી જેવી આનંદની લાગણી થાય, એવી આનંદની લાગણી મેં મારા પ્રિયના સ્પર્શથી અનુભવી.
૮૯૦-૮૯૬. ત્યાર પછી ગાન્ધર્વલેકે જેમ કરે છે એમ, માનવભેગને શિખરે પહોંચાડનાર ગાન્ધર્વવિવાહે અમે પરસ્પર બંધાયાં. દેવેની પ્રાર્થના કર્યા પછી તરત જ (જેમ વ્યાવહારિક લગ્ન પ્રસંગે થાય છે એમ) મારે હાથ ઝાલવાને બદલે મારા સ્વામીએ મારી જુવાનીની કળી ચુંટી લીધી. પરસ્પર ધરાતા સુધી દાંપત્ય વિલાસને આનંદપભેગા કરી લીધું.
૮૯૭. એટલીવારમાં અમારે મછો અમને લઈને (અમારી ઇચ્છા હતી તે પ્રમાણે, જમુનામાંથી નીકળીને) ગંગામાં આવી પહોંચ્યા. એકવાર જેમ પૂર્વભવમાં આ નદી ઉપર અમારી ચકલાકની જોડી તરતી હતી તેમ આજે નેહી યુગલની જે તરવા લાગી.
૯૮–૯૧. રાત્રિ ચાલી ગઈ લલાટમાં જેને ચંદ્ર છે, ચંદ્રિકા જેનાં સુંદર સફેદ વસ્ત્ર છે અને તારા જેના ભવ્ય અલંકાર છે એવી એ જુવાન રાત્રિનારી સરી ગઈ. પૃથ્વીના જળદર્પણ ઉપર ચંદ્ર હવે તે માત્ર હંસની પેઠે તરવા લાગે; જેને રાત્રિના ચાર પહેરેગીરે અત્યારસુધી પકડી રાખ્યું હતું તે હવે ઉપર આપે ને નીચે માત્ર ઝાંખે દેખાવા લાગ્યું. મળસ્કામાં પંખીનાં સિા ટેળાં જાગી ઉઠયાં, તેમનાં ગાનથી ને સાદથી જાણે નદી સાથે એ સંબંધ જોડતાં હેય એવું દેખાતું હતું. અધારને શત્રુ સૂર્ય, માનવીઓની દિનચર્યાને માટે પ્રકાશને ગગનદી પ્રકટ હોય એમ, ઉ.
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૮. લૂટારાને હાથે પકડાવું. ૯૦૨-૯૦૪, ગંગાના વહેતા પાણી ઉપર કેટલાક સુધી એમ સુખે વહ્યા પછી મારા પ્રિય બેલ્યાઃ “પ્રિયે નિતંબિની, સૂર્ય ઉગે છે એટલે હવે દાતણ કરવાની વેળા થઈ છે, તેથી જમણા હાથ ઉપર શંખલા જેવી સફેદ રેતીથી ચળકતે જે કાંઠે દેખાય છે ત્યાં આપણે ઉતરીએ.”
૯૦૫-૦૮, ત્યાં આગળ પહોંચીને મ9 લંગર્યો અને ઉતર્યા. જ્યાં હજી કે માનવીને સંચાર થયે નહોતે એવા રેતીના કાંઠા ઉપર અમે ફરવા લાગ્યાં. પણ સામે દેખાતી સુંદર જગા હજી તે અમે પુરી જોઈ પણ નહોતી તેવામાં, જ્યાં ભયની શંકા સુદ્ધાં નહિ પડે એવી તે જગામાંથી, એકાએક લૂટારા દેખાયા. કાંઠા ઉપરનાં ઝાંખરાંમાંથી એ બહાર નિકળી આવ્યા અને જમરાજના ભયંકર દૂતે જેવા દેખાતા એ અમારી તરફ ધસ્યા.
૯૦૯-૨૦, ભયથી હું તે ચીસ પાડી ઉઠી ને “હવે આ સંકટમાં શું કરીશું ?” એમ મારા સ્વામીને પૂછવા લાગી. એ બોલ્યા: “ ડરતી ના ! અહણા જ તને ખબર પડશે કે મારી લાકળના ઝપાટાથી એમને કેવા હાંકી કાઢું છું. તેને મારી જીવનનકા બનાવવાના મનોરથમાં હું એ તે મુગ્ધ થઈ ગયે હોં કે ઘરથી હથિયાર લેવાનું પણ ભુલી ગયે. સ્નેહના આનંદેત્સવને માટે બધા પ્રકારનાં ઝવેરાત માત્ર લીધાં, પણ નેહસાહસને અંગે જે સંકટ રહેલું છે તેને તે વિચારેય આવ્યે નહિ. છતાં યે તું શાન્તિ રાખ! બળવાન હશે તે જુદ્ધમાં જીતશે. આ જંગલી ચાર મને ઓળખતા નથી અને એમણે હજી મારે હાથ જે નથી, એથી જ એ આટલી હિંમત કરી શક્યા છે. એક જણને હું નીચે પાડી દેઈશ અને એનાં હથિયાર લઈ બીજાઓની પાછળ પડીશ. પરિણામ અનિષ્ટ જ આવશે તે તને લુટાતી દેખવા કરતાં મારૂં શાર્ય સમાપ્ત કરી દેઈશ. કારણકે તારાં કપડાં ને ઘરેણાં કાઢી લેવાને લૂટારા તને બાંધે એ તે મારાથી કદી જોયું જાય નહિ. મારે માટે તું પાછલા ભવમાં સતી થઈ હતી અને મારે માટે આ ભવમાં પરદેશમાં નિકળી પડી છે. ત્યારે મારામાં જ્યાં સુધી પ્રાણ છે ત્યાં સુધી તેને બચાવવાને માટે મારાથી બને એટલું બળ વાપર્યા વિના શી રીતે રહેવાય? મને જવા દે અને લૂટારાની સાથે જુદ્ધમાં ઉતરતાં મને અટકાવ નહિ, હવે તે જિતવું કે મરવું! ”
૯૧-૨૬. આ શબ્દો સાંભળીને હું પ્રિયને પગે પડીને બેલી: “મારા નાથ, મને અનાથ કરીને એકલી મુકી જતા ના. તમારે જુદ્ધે ચઢવું જ હોય તે મારો જીવ લેઉં ત્યાં સુધી ઉભા રહે. કારણ કે લૂટારાના હાથમાં તમને પડડ્યા મારાથી જેવાશે નહિ. લુટારાને હાથે પડ્યા છે એવું જેવાને જીવવું એના કરતાં તે આશાભેર મરવું ભલું. અરેરે મા પ્રિય, આખરે તને મારા થયા તે ખરા, પણ એટલામાં તે આ ગંગા
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તરંગવતી. કાઠે જ, જાણે માત્ર ચંચળ સ્વમ જ હેય, એમ તમે ચાલી જવા બેઠા ! આવતા ભવમાં આપણે એક બીજાને મળીશું કે નહિ એ તે બીજી વાત છે, પણ અત્યારે તે હું જીવું છું ત્યાં સુધી મારી પાસે રહો ! આપણે એક બીજાથી વિખુટાં પડીએ નહિ, બાકી બીજું તે જે થવાનું હોય તે થાય! કારણકે બીજા બધાને આપણે ભુલાવી શકીશું, પણ આપણું કર્મના ફળને ભુલાવી શકીશું નહિ.” (તેથી કરીને આવતા ભવમાં વિખુટાં પડાય નહિ એટલા માટે આજે પણ વિખુટો પડવું નહિ જોઈએ.)
- ૯૨૭-૦૨૮. આ પ્રમાણે કપાત કરીને મેં મારા સ્વામીને જુદ્ધે ચઢતાં વાર્યા. લ ટારાઓને મેં, રડી પડી, હાથ જોડી, કાલાવાલા કરીને કહ્યું“મરછમાં આવે એમ મારાં અંગ ઉપરથી ઘરેણાં ઉતારી લે, અમારા સનેહની ખાતર મારા સ્વામીને મારશો નહિ (એટલું માગી લઉં છું.”
૨૯-૯૦૮. પછી અમને લૂટારાએ પકડડ્યાં. એક પાંખ કપાઈ ગઈ છે જેની એવું પંખી જેમ ઉડી શકે નહિ તેમ અમારાથી પણ નાશી જવાય એમ નહોતું. થે ડાક લૂટારાએ એટલામાં જઈને મછો અને તેમાં મુકેલી) કથળી પણ કબજે કરી લીધી. બીજા મને દૂર લઈ ચાલ્યા તેથી મેં ચીસો પાડવા માંડી. કેટલાકે મારા સવામીને પકડયા; પણ, વાદીના શબ્દથી ઝેરી સાપ જેમ ઠંડો પડી જાય તેમ, મારા શબહથી એ (યુદ્ધ કરવાની ઈચ્છા છતાં) ઠંડા રહ્યા. અમને બંનેને અને ઝવેરાતની કેથળીને લુટારા ગંગાના રેતીના કિનારા ઉપર લઈ ગયા. મારા શરીર ઉપરથી બધાં ઘરેણાં તે ઉતારી લીધાં, પણ અમને બેને જરા ય જુદાં કર્યો નહિ. છતાં વેલીનાં જેમ કુલ ચુંટી લેવાય તેમ મારાં બધાં ઘરેણું ઉતારી લેવાતાં જોઈને મારા સ્વામી રેવા લાગ્યા, હું પણ રોવા લાગી, કારણ કે મારા સ્વામી લૂટાયેલા ભંડાર જેવા, અથવા તે કમળ જેમાંથી તે લીધાં છે એવા સરેવર જેવા દેખાતા હતા. મારી ચીસે બહુ કારમી થતાં એ ભયંકર લૂટારાઓએ મને ધમકાવી અને કહ્યું: “બૂમ તારી બંધ કર ! નહિ તે તારા ધણીને મારી નાંખીશું.” એથી હું દબાઈ ગઈ ને મારા સ્વામીને જીવ બચાવવાની ચિંતા કરવા લાગી, અને માત્ર ધીમે ધીમે છાનાં ડુક્કા ખાવા લાગી. જેકે આંસુ તે મારી છાતી સુધી દદડી પડતાં હતાં, તે ય મારૂં રેવું તે હઠ આગળ જ અટકી પડતું.
૯૯૯-૯૪૩. અમારા ઝવેરાતની કેથળી લૂટારાના સરદારે જોઈ ત્યારે એ મલકાઈને બોલ્યાઃ “ઠીક શિકાર મળે છે!” એક જણ બોલ્યા: “આ મહેલ આપણ ધી વળ્યા હતા, તે ય આટલું તે ના મળ્યું હોત.” બીજો બેઃ “જુગારમાં માણસનું ભાગ્ય ગમે એટલું ખુલે અને વર્ષોનાં વર્ષો સુધા રમે તે ય આટલું તે ભેગું ના થાય. આપણી બૈરીઓને આ બધું આપીશું ત્યારે એ શું કહેશે?” આવી વાતે કરતા કરતા એ લુટારા (અમને લઈને) કિનારે છે વિધ્યાચળની દક્ષિણ દિશા તરફ આતા થયા,
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લુટારાની ગુફા.
૪૫ ૯૪૪-૯૪૭. પર્વતની ઉંડી સુંદર છોમાં લૂટારાઓની ગુફા હતી. ત્યાં અમને બંનેને એક વેલાવડે એકઠાં બાધીને લઈ ગયા. કેટલાક લેક બહાર ઉભા રહીને પાણીની ભિક્ષા માગતા હતા, કારણ કે ગુફાની અંદર પાણી ખૂબ હતું. ગુફાને દરવાજે બહુ મજબુત હતું, અને તલવારે ભાલા અને એવાં બીજા હથિયારોવાળા લૂટારા અંદર જનાર અને અંદરથી નિકળનાર ઉપર સખત ચકી રાખતા હતા. ઢોલ, કરતાલ, શંખ અને એવાં બીજ વાદ્યોથી તેમજ ગાન, હાસ્ય, નાચ અને બૂમો તથા ચીથી થતે કેલાહલે કરીને આખી ગુફા ગાજી રહી હતી.
૯૪૮-૯૫૪. અંદર પેસતાં જ અનેક વાવટા ઉપરથી અમે પારખી લીધું કે આ તે કાળીનું મંદિર છે અને તેના બલિને ઉત્સવ ચાલે છે. દેવીને (નિયમ પ્રમાણે.) નમસ્કાર કરવાને માટે અમે જમણી બાજુએ ગયાં તે જોયું કે (અમારા માલ ઉપરાંત ) બીજે પણ માલ બીજા લૂટારા લેઈ આવ્યા હતા. બંને ટેળીવાળા સાજાતાજા પાછા આવ્યા હતા અને મેટી લૂટ લાવી શક્યા હતા તેથી તેઓએ એક બીજાને પ્રણામ કર્યા ને કુશળસમાચાર પુછડ્યા. વેલાઓ એકઠાં બંધાયેલાં અને લટારાની ગુફામાં આવી પડેલાં અમને બેને સે જણ આશ્ચર્યચકિત નજરે જોવા લાગ્યાં, અને એમાંથી એક જણ બોલી ઉઠર “નરનારીઓની જે સૃષિ પહેલાં રચાઈ, તેથી અસંતુષ્ટ થઈ તેને નાશ કરીને) યમદેવે અંતે આ જોડું સરયું લાગે છે. ચાંદે રાતથી : ને રાત ચાંદાથી જેમ વધી જાય તેમ આ એક બીજાથી સુંદરતામાં વધી જાય એવાં છે.”
૯૫૫-૯૫દ. અમે એ ગુફામાં જરા આગળ ગયાં અને જાણે ત્યાં સ્વર્ગ અને નરક એકસાથે જ હેય તેમ અંદરના આનંદી વસનારા અને નિરાનંદ કેદીઓને જોયા. દેવલોકના જોડા જેવું નરનારીનું જોડું અહીં આવ્યું છે, એવા સમાચાર રેલાતા ગુફામાંને રાતે ( અમને જેવાને ) ઉસુક લોકથી, ખાસ કરીને બાળકે, વૃદ્ધ અને સ્ત્રીઓથી ઉભરાઈ ગયે.
૯૫૭૯૬૩. શેકાતુર સ્થિતિમાં અમને આગળ લઈ જવામાં આવ્યાં, ત્યારે કેદમાં જીવતી રહેલી સ્ત્રીઓ અમારે માટે વિલાપ કરવા લાગી, જાણે અમે એમનાં જ બાળક હઈએ. પણ પુરૂષના જેવા હૃદયવાળી લૂટારાની એક સ્ત્રીએ મારા સ્વામીને કહા “તમારું સુંદર મુખ લેઈને મારી પાસે આવે. (અને અમારા ચેકીદારને એણે કહ્યું) ચંદ્ર સમાન સુંદર, અને ચંદ્રની પ્રિય સખી નક્ષત્રરાણ રોહિણીના જેવી આ સ્ત્રીને આપણી આ પૃથ્વી ઉપર લેઇ આવનાર, આ જુવાન પુરૂષને થોડો વખત અહીં ઉભે રાખે, કે જેથી લુટારાની નારીઓ પળવાર એની સુંદરતા નિરખી લે! ” એ ચાલતા હતા ત્યારે મોહ પામવાને ટેવાઈ ગએલી સીએ હવશ થઈને તેમને જોઈ રડવા લાગી. આ જોઈને હું તે સંતાપથી, ઈર્ષાથી ને સાથે સાથે કેધથી સળગી ઉઠી.
૯૪-૯૬૭. પકડાયેલી સ્ત્રીઓમાંની કેટલીક તે, જાણે એ પિતાને જ પુત્ર
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સર
સરગવતી.
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હાય એમ, શોક કરવા લાગી. કેટલીકે એમને કહ્યું: તારા સ્વર્ગીય સ્વરૂપથી તું અમારૂ ચિત્ત ચારી લે છે; તારી ઢષ્ટિના સ્વર્ગીય ઘુંટડા અમને કૃપા કરીને પીવા દે ! ’ વળી કેટલીક આંખમાં આંસુ લાવીને એમ કહેતી જણાઈ કે: “ તું તારી સ્ત્રી સાથે અહીંથી વહેલા છુટકારો પામે તે ઠીક ! ” વળી એક જણીતા એમના સાન્દયથી છેક આશ્ચર્ય મૂઢ બની ગઇ ને ટિમખળાની ઘુઘરીઓ ખખડાવી મેલાવવાનાં ઈસારા કરવા લાગી.
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૯૬૮-૯૭૪, (મારે માટે પણ તરેહવાર વાતા થવા લાગી. ) એક જુવાન ન કે કામાતુર થઈને કહ્યું: આહ, આ અદ્ભુત નારીસ્વરૂપ ! ” કેટલાક એકબીજાને આંગળી કરી મને બતાવવા લાગ્યા, ને મારા વખાણ કરવા લાગ્યાઃ “એકેએક ખાખતમાં એનુ સાન્દર્ય તા જીએ ! એના વેલી જેવા સુંદર શરીર ઉપર કળીએ જેવાં એનાં સ્તન અને હ્યુગા જેવાં એના હાથ કેમ કુટે છે એ તેા જુઓ ! વળી એને જોઇને પુરે આવેલી ની સાંભરી આવે છે; એનાં એ સ્તન તે જાણે ચક્રવાકનું જોડું બેઠું છે, ( અનેક આંકડાથી શેલતી ) એની કટિમે ખળા તે જાણે હુંસની હાર સરખી લાગે છે અને એના નિતંબ તે જાણે પ્રચંડ રેતીનાં કિનારા હેાય એવા દેખાય છે. પૂર્ણચંદ્ર ( ઉદયસમયે ) પ્રભાતરંગે ( એટલે કે રાતે રંગે ) રંગાયા હાય એમ એનું સુંદર સુખ રાવાને કારણે કઇક રાતું થયું છે. અને સર્વ હાવભાવે કરીને સુદર અને માહક અનતા એના રૂપથી શ્રીનું સ્મરણ થાય છે. માત્ર એના હાથમાં કમળ નથી એટલી જ ખામી છે. એના કાન જુઓ કેવા રૂપાળા છે! આંખા કેવી કાળી છે ! દાંત કેવા શ્વેત છે! સ્તન કેવાં ભરાવદાર છે ! જાગેા કેવી ગાળ છે ! અને પગ કેવા ઘાટીલા છે ! ” ૯૭૫-૭૬, બીજા બેએક લૂટારા ખેલ્યાઃ “ ઘટતાં ઘરેણાં પહેરાભ્યાં હાય તે તો ખરેખર અપ્સરા બની જાય. પુખ્ત થાંભલે હોય તે ય પણ એને સ્પર્શ કરે તેા અંદરથી જાગી ઉઠે. માટા તપસ્વી હાય તે પણ પેાતાની કઠાર તપસ્યાના ફળમાં એની વાંચ્છના કરે. ખરે ( દેવરાજ ) ઇંદ્ર પશુ પાતાની હાર મખા વડે પશુ એને જોતાં ધરાય નહિ.”
૯૭૭-૯૦૮. પણ પરનારીને દેખી જેને કઈક શરમ આવે છે એવા કેટલાક પરણેલી છે” એમ કહીને ચાલતા અનુમાન કરવા લાગ્યા કે ‘જરૂર
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મને જોઈને સ કાચાયા ને · અભાગણી ` કે ‘· એ તે થયા. તે ય અમને અનેને જોઈને કેટલાક લૂટારા આપણા સરદાર આ માણસને મારી નાખશે અને પછી એ સ્ત્રીને પરણશે.’
૯૦૯-૯૮૧. આવી આવી વાતા સા નરનારીઓ કરવા લાગ્યાં, પણ મારા સ્વામીનું મરણ તા સ અનુમાનવા લાગ્યાં અને તેથી મારી ચ'તા અસહ્ય થઈ પડી, સામાન્ય રીતે જુવાન પુરૂષ મને અને જુવાન સ્ત્રીએ મારા સ્વામીને વખાણુતી; બાકીનામાંથી કાઈએ જિજ્ઞાસાથી, કોઈએ નિરાશાથી અને કોઈએ તે કશી પણ લાગણી વિના મમારી માતા કરી. ભૂતાશની આ બ્રુની થતી અમારે માટે આમ ત્રણ પ્રકારે
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દેવીને બળિ. અભિપ્રાય આપ્યા જતી હતી તે સાંભળતાં સાંભળતાં અમે ( એ રસ્તાને છે 3) સરદારને ઘેર આવી પહોંચ્યાં. એ ઘર ઉંચું હતું અને એને કાંટાની વાડ હતી.
- ૯૮૨-૦. આમ અહીં ડાળીઓથી બનાવેલા એક ખંડમાં અમને લઈ ગયા. એ લેકના સરદારનું આ દિવાનખાનું હતું. પ્રસિદ્ધ વીરપુરૂષ હોય એમ એ સરદાર કુંપળે પાથરેલા આસન ઉપર બેઠે હતે, ખીલેલા પુલના મેટા ગોટાથી પિતાને પંખે કરતે હતે, એને એ ગોટે સોના જે ચળકતે હતું અને એના ઉપરના ભમરા સુંદર ગુંજારવ કરી રહ્યા હતા. જુદ્ધ કરીને જીતી આણેલાં શસ્ત્રાએ એ સરદારે પોતાના શરીર ઉપર ધારણ કર્યા હતાં, અને અનેક જુદ્ધમાં અને સંકટમાં સાચા નિવડેલા લૂટારાઓ એની ચારે બાજુ ઉભા હતા. જેમ જમને ચારે બાજુએ ચંડાળે વીંટાઈ વળે તેમ એની ચારે બાજુએ એ લોક વીંટાઈ વળેલા હતા. એના પગની પિડીઓ માંસના લેચાથી ભરાવદાર હતી, તેની જાથે કઠણ અને તેના નિતંબ ભારે હતા. અમે તે મોતની ચિંતાએ થરથરતાં થરથરતાં હાથ જોડીને તેને નમસ્કાર કર્યો. હરણના જેડાને જેમ વાઘ, એમ અમને એ તીણી નજરે જોઈ રહ્યા અને તેથી અમને વળી વધારે ચિંતા વધી પડી. પાસે ઉભેલું લુટારાનું ટેળું અમારું જુવાનીનું સૌદર્ય ભયંકર, વાંકી દષ્ટિએ નિહાળવા લાગ્યું ને આશ્ચર્યચકિત થઈ ગયું.
૧-૯૨, વિરેની, સ્ત્રીઓની અને બ્રાહ્મણની હત્યા તથા એવાં બીજા પાપકર્મો કરવાથી દયામાયા નાશ પામી ગઈ છે જેના હૃદયમાંથી, એવા એ (લૂટારાના) સરદારે, બીલકુલ લાગણી વિના અમને નિહાળી લીધાં, પછી પાસે બેઠેલા એક ભયંકર લૂટારાને કાનમાં આ પ્રમાણે કહ્યું:
૯૩-૯૪. “(આપણું મંડળના) મેટેરાઓ મળીને દેવીને (કાળીને) શરઅને જે બળિ આપવાને છે, તેને માટે બે આ નરનારી ઠીક પડશે. તેથી કરીને (માતાની) નવમીની રાત્રે આ જેડાને બળિ દેવાશે. એ બેની બરાબર ચકી કરે જેથી એ નાશી જાય નહિ. ”
૫-૧૦૦૭. આ શબ્દ સાંભળીને મારા હૃદયમાં ચિંતા ને મરણની બીક ફરી વળી. પેલા લૂટારાએ તે એ આજ્ઞા નમ્રતાએ માથે ચઢાવી અને અમને એના ઘરમાં લઈ ગયે. એકી રાખવામાં જરા પણ ખામી આવે નહિ એટલા માટે એણે મારા સ્વામીને તાણીને બાંધ્યા. તેમને આપવામાં આવતી આવી વિટંબણને દુષે મારે આત્મા બળી ઉઠશે, તેથી ગરુડ જેના સ્વામીને ઉપાડી ગયો છે એવી સાપણીની પેઠે કપાત કરવા લાગી. વિખરાઈ ગએલે વાળ ને આંખમાંથી વહી જતે આંસુએ હું એમને અને એમના બંધને બાઝી પડી, (પછી મેં લૂંટારાને કહ્યું“જેમ વનહાથીની સાથે (એને વળગી પડેલી) હાથણુને બાંધે તેમ આ નામ સાથે મને પણ ભલે બાંધે, કારણ કે એમની પીઠ તરફ બાંધી લીધેલા એમના ઢીચણ સુધી પહોંચતા હાથ મને
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તરગવતી
આલિ'ગન દેવાને સર્જાયા છે. ' ( આમ કહીન ) હું એમને છુટા કરવા જતી હતી એટલામાં તે એ લૂટારાએ મને મારી, ધમકાવી ને ધક્કા મારી એક કારા ખસેડી મુકી. મારા સ્વામીએ હિંમત રાખીને પોતાના ખધ અત્યાર સુધી સહન કર્યા હતા, પણ મારી આ સ્થિતિ જોઇને એમની હિંમત જતી રહી રડતા રડતા એ બેલ્યા: “અરેરે, મારે માટે તું આવી કદી ન સાંભળેલી, મરવા કરતાં પણ ભુડી વેઢના સહન કરે છે. મારા સબધીઓને અને મારી જાતને માટે કદી પણ નહાતું લાગ્યું તેવું આજે મારી નવવધૂને માટે લાગે છે ! ” આ સાંભળીને, એ જાણે ખળવાન છાતી વાળા હાથી ડાય તેમ ધારી એમને પેલા લૂટારાએ ભેાંય સાથે દૃમાવ્યા, નેકે એમના હાથ તા પીઠ તરફ્ બાંધેલા જ હતા. આમ એમને સૈ રીતે હાલતાચાલતા બંધ કરી દીધા પછી એ નિર્દેય લૂટારા એક લાકડા ઉપર બેઠા અને ત્યાં કાચું માંસ તથા મહિરા આરેાગવા લાગ્યા. ૧૦૦૯-૧૦૧૪. મરણચિંતાએ મે' મારા સ્વામીને કહ્યુ: “અરેરે, આવા યા વિનાના સ્થાનમાં આપણે મરવું પડશે. ” એ પછી એ લૂટારાને કહ્યું “ ા (મારા સ્વામી) કાશામ્બીના એક વેપારીના એકના એક પુત્ર છે, અને હું પોતે (ત્યાંના જ) શેઠની પુત્રી છુ.... કહેશેા એટલા હીશ, મેાતી, સાનુ ને પરવાળાં અમે તમને ત્યાંથી અપાવીશુ. અમારા પિતા પર મંગળ લેઇને કોઇને ત્યાં મેાકલા, અને એ બધું જયારે અહીં આવે ત્યારે અમને છૂટાં કરજો.” પણ એ લૂંટારાએતા ઉત્તર વાળ્યા: “ તમને ( અમારી દેવી ) કાળી આગળ અળિ દેવાનુ સરદારે નક્કી કર્યું છે. જેની કૃપાએ અમારી સૈા આશા પુરી થાય છે એવી એ માયાને ો માનેલે ભાગ અપાય નહિ, તા એ ક્રોધે ભરાય. અને અમારો નાશ કરે. તેમજ જે અમને અમારી મહેનતનું ફળ, શુદ્ધમાં વિજય, ધનમાલ ને બધા પ્રકારનાં સુખ, જે અમને આપ્યા જ જાય છે તેની કૃપા અમારાથી શી રીતે તરડાય ? ”
નગર
૧૦૧૫-૧૦૨૧. આવું સાંભળીને અને મારા સ્વામીને આમ ભયકર રીતે ખાંધેલા જોઈને હું' તે છાતીફાટ રડવા લાગી. સ્વામીને સ્નેહમધને ખંધાયલી હું છુટે મ્હાંએ વિલાપ કરવા લાગી. કારણ કે હવે કોઈ આશા દેખાતી નહોતી. મારી આંખામાંથી એવાં તે અનર્ગળ આંસુ વહી ગાલ ઉપર થઇ છાતી ઉપર વહેવા મડવાં કે ઢેઢ પકડાયેલી બીજી કેટલીક સ્ત્રીઓને પણ રડવું આવ્યું. મે' કાન્ત કર્યું, માથુ* કુત્યુ', માથાના વાળા પીંખ્યા, ને છાતી કુટી. ( પળવાર સુખદ સ્વપ્નું આવે તે ચ હું તા આમ જ રડું:) મ્હારા વહાલા, સ્વમમાં હુ'તમને પામી હતી, જાગે ને હુ એકલી જ પાછી રાઈશ.” મારી વેદનામાં આમ મે' બહુ કાન્ત કર્યું.
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૧૦૨૩–૧૦૨૬
૧૦૨૨ કેટલાક લૂંટારા ખૂબ આનંદ ઉડાવતા હતા અને વીણા ઉપર આમ ગાતા હતાઃવારણહારી વાણીની પરવા યાં જ વિના, જીવનમરણને ઓળંગી સાહસ કરીને, ધાર્યું લેવું એ જ વીરનું કામ છે.
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કર્મોના નિયમ ઉપર શ્રદ્ધા.
૧૦૨૭.
કારણકે ખીજાની પેઠે માત તા આવવાનું, પણ વિના સાહસે ધાર્યું મળવાનું નહિ, માટે વેળાસર સાહસ કરવા ઢાડા. જે જિત્યેા છે તે જ સુખે મરે છે, કારણકે વીરપુરુષ જ, ગયેલ' સુખ પાછું આવે ત્યાં સુધી, ઉત્સાહને તાળે રાખી શકે છે. સાચે જ, વીર વેદના વેઢતે વેઢતે પણુ, વીરતાથી હરકતાને ધકેલ્થે જાય, તા સુખરૂપી નારીની સાથે આનદ કરે છે.
૧૦૨૮–૧૦૩૩ ત્યાર પછી મારા સ્વામીએ મને કહ્યું: ‘ શેક કર ના, મારી વડ્ડાલી, પણ હું' તને કહુ છું તે સાંભળ! આ કેદખાનામાંથી નાશી છુટવું ખની શકે એમ નથી જ. વળી માણસે વિના આનાકાનીએ જમદેવની આજ્ઞાને તાબે થવુ જોઈએ. એ એકવાર માણસને પકડે એટલે બીજો ઉપાય જ નહિ. રાત્રે તારા ને ગ્રહને લેઇને ફરનારા આકાશને ચંદ્ર પણ (સપૂર્ણતામાંથી ધીરે ધીરે ક્ષય પામી આખરે બધા ય અધારા થવાના) દુર્ભાગ્યને તાબે થાય છે. ત્યારે સામાન્ય પ્રાણીને તેા કેવડા માટા ભે છે! સ્થળ, કાળ, વસ્તુ ને પ્રકારને અનુસરી માણસને એના કર્યાં કર્મનાં ફળ મળે ને તેને અનુસરીને સુખદુઃખ મળે એ તા મહાનિયમ જ છે. તેથી મારી પ્રિયા; હિંમત હારતી ના! સમસ્ત પ્રાણીજગતમાં એવું કાઇ નથી કે જે સુખ:દુખને નક્કી કરનારા એ નિયમને આળંગો શકે.
૧૦૩૪–૧૦૩૮, આ દિલાસા દેનારા શબ્દોથી મારે શેક કંઇક આ થયા. પતિની સાથે બધાયેલી હરણીની પેઠે હુ` બીજી કેદ થઈ પડેલી સ્ત્રી તરફ જોવા લાગી, મારા વિલાપથી કેટલાકની આંખેામાંથી આંસુ વડ્યાં જતાં હતાં, અને હવે તે પણ પેાતાનાં દુઃખ સ‘ભારી રડવા લાગી. બીજી જે સ્વભાવે જ સહૃદય હતી એ તે મસારા આવતામાં જ લાગણી થવાથી રડી પડી હતી. રાતી આંખે એ પુછવા લાગી: ‘તમે ક્યાંથી આવા છે ? અને તમે આ લૂંટારાને અભાગી હાચે કેવી રીતે પડયાં !
૧૦૩૯-૧૦૪૨. ( પાછલા ભવની કથાથી માંડીને ) અમારા નશીબની સૈા કથા મે' એમને રડતી આંખે કહી સ’ભળાવી: હાથી નાહવા આવ્યે અને શિકારીએ એને અદલે મારા ચક્રવાકને માર્યાં, અમે એ ભવમાં કેમ સુખી હતાં, કેમ હું એમની પાછળ સતી થઇ અને અમે એ વત્સનગરમાં માનવભવમાં અવતર્યો; કેમ ત્યાં ચિત્રાની સહાયતાથી અમે એકબીજાને શેાધી કાઢયાં; કેમ મે મારા પ્રિયને વિનંતી કરી, પણ એમણે ના પાડી એટલે મેં મારી સખી સારસિકાને મેકલી; અને કેમ છેવટે મછવામાં એશી નામાં અને ગંગાને રેતીને કાંઠે લટારાને હાથે પકડાયાં (એ સા કહી સČભળાવ્યું),
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તરંગવતી. ૧૦૪૩-૧૦૪૬. (ત્યાં ઉભે હેતે) એ ટારાને આ બધું સાંભળીને દયા આવી અને મારા પતિના બંધ ઢીલા કરવા એમની પાસે ગયે. પણ પેલી કેદ પકડાયેલી
એને તે એણે એવી સખત ધમકાવી કે વાદળાંના કાટકાથી ગભરાઈને જેમ હરણીઓ નાસે એમ એ છુટી પડીને નાઠી. અને એ બધી જતી રહી કે તરત જ એણે મારા સ્વામીને છાનુંમાનું કહી દીધું, કેઃ “તારે હવે ડરવાનું કારણ નથી; હું તમને મોતમાંથી ઉગારી લઈશ. તમારાં જીવન બચાવવાને માટે મારા જીવનને જોખમમાં નાખીને પણ ગમે તે પ્રકારે ઉપાય કરીશ.”
૧૦૪૭-૧૦૫૦. એના મુખની આવી વાણી સાંભળીને અમારી મરણચિંતા એકવારે ચાલી ગઈ અને ( અમારા હૃદયમાં) હર્ષ વ્યાપી રહ્યો. છતાં યે છુટવાની અમારી એ આશા સફળ થાય એટલા માટે અમે ઉપવાસ કરી, અમે આજે કોઈપણ પ્રકારને આહાર લેઇશું નહિ” એવા, જિનપ્રભુને રમરી, પરચનાન કર્યા તેથી લૂટારાએ જ્યારે અમારી સામે સ્વાદિષ્ટ માંસાહાર આણી મુ ને બહુ લાંબે પ્રવાસ કરવાનું હોવાથી એ ખાવાને કહ્યું ત્યારે અમે કહ્યું, કેઃ “અમે એ ખાતાં નથી, માટે ખાઈશું નહિ.'
(૯. ઘેર આવવું.) ૧૦૫૧-૧૦૫૫. હવે સૂર્ય ભગવાનની (આથમતાં) પ્રભુતા ને તાપ ચાલે ગ, પદભ્રષ્ટ થયેલા રાજા જે એ દેખા, વાતાવરણમાંથી પાર નિકળી ગયા પછી ઉગતી વખતે દેખાય છે એ (તાપની નબળાઈથી લાલ) દેખાવા લાગે. દિવસ યુ થયાના સમાચાર સૌ ઝાડ પણ આપવા લાગ્યાં-એ પણ નમતાં દેખાયાં અને તેમની અંદરના માળામાં પક્ષીઓ આરામ માટે એકઠાં થવા લાગ્યાં. આંખ સામે મરણ દેખીને અમે આટલું બધું રડયાં ને કકળ્યાં હતાં ને તેણે કરીને બહુ લાંબે
એલે દહાડે પુરે થયો. પૃથ્વીને આરામ આપતી તથા આકાશને શણગાર સજાવતી રાત્રિ ભવ્યરૂપે આવી. ચંદ્ર પણ પિતાને મૃદુ, જુઈનાં ફુલ જે સફેદ પ્રકાશ પાડતા પિતાના કપાળમાં ચાંલ્લો (સસલાને દાઘ) કરીને બહાર આવ્યું.
- ૧૯૫૬-૧૬૪. એવે લુટારાની એ ગુફામાં કોલાહલ મચી રહ્યો. પીતા ને નાચતા લૂટાશ તથા કેદીઓ બુમ પાડીને, હશીને, વગાડીને અને ગાઈને શેર કરવા લાગ્યા. જ્યારે એ લેક શાન્ત થઈ ગયા ત્યારે અમારે પહેરેગીરે મારા સ્વામીના બંધ છેડી નાખ્યા ને કહ્યું “ચાલે, હવે હું તમને લઈ જાઉં.” પછી કઈ જાણે નહિ એવી રીતે અમને એ બહાર લઈ ગયે, અને એક છુપે વનમાર્ગે આગળ ચાલ્યા. એ ત્યાં ઘણુ રખડેલ તેથી ત્યાંની સિ ગલી કુચીઓ જાણતે. એ ચારે દિશાએ નજર રાખ્યા જ કરતે. આ નીરવ પ્રવાસમાં અમને ઘણીવાર થાક પણ ખાવા દેતે. અસ્ત્રશસ્ત્ર એણે સજેલાં હતાં ને કમરે પટ્ટો કર્યો હતે. એવી રીતે એ અમારી સાથે ચાલતે.
૧૦૫-૧૦૬૭. એકાદ ઝાડમાંથી થોડાંક પંખીઓ (અરધી ઉંઘમાંથી જેગીને
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ગુફામાંથી પલાયન
પ
ઉડી જતાં અને એમની પાંખાના અવાજ, પુંડી ખાઇને પડતાં સુકાં પાદડાંના ખખડાટ જેવા સભળાતા. વળી રાની ભેંસેા, વાઘ, ચિત્તા અને જરખની ખૂમા, તેમજ પ ીઓની અનેક પ્રકારની ચીસા (દૂરદૂરથી ) સંભળાતી. અમે મહાલયમાં પડતું મુકર્યું હતું તે. છતાં ચ, અમે કહી શકીએ કે, વનનાં અધાં પ્રાણીએ ને પશુપ ́ખીએ સારે નશીએ શાન્તિ રાખી રહ્યાં હતાં..
૧૦૬૮-૧૦૭૧. છેવટે મે હાથીઓએ તેાડી પાડેલાં ડાળ જોયાં, જેના ઉપરથી ફળકુલ તેડી લીધાં હતાં. આ અને બીજી નીશાનીઓથી જાણી લીધું કે હવે અમે વનને છેડે આવ્યાં છીએ. અને ત્યારે એ લૂટારાએ અમને કહ્યું: હવે તમે વનની બહાર આવ્યાં છે. ને હવે કંઇ ભે! જેવું નથી. પાસે જ ગામડાં આવે છે. આ મેનને રસ્તે તમે ચાલ્યાં જાએ. હું... પણ ખીજે રસ્તે ચાલ્યેા જાઉં છું. લૂંટારાની શુકામાં મારા સરદારના હુકમને અનુસરીન કેદમાં રાખ્યાં ન સંતાપ્યાં તે માટે ખમા કરો, ’
૧૦૭૨-૧૦૭પ. મારા સ્વામીએ ઉપકારની લાગણીથી લૂટારાની, અમારૂં ભલુ કરનારની, આંખ સામે જોયુ અને શુદ્ધ નમ્રસ્વરે કહ્યું: ‘ અમારે કોઇ ( સહાયક) સ`ખ*મીએ પાસે હતા નહિ તેવી વેળાએ, તમને એવા હુકમ હતા છતાં, તમે અમારાં જીવન ઉગારી લીધાં છે. કોઇ પણ આધાર કે છત્ર વનાનાં અને જીવનાશા હારી બેઠેલાં અમને તે એમજ લાગ્યું હતું કે અમે કાંશીએ ચંઢી ગયાં છીએ અને અમારા ગળાં ઉપર (માંતની ) દારી લાગી છે, એ ઢારીને તમે વીરતાથી કાપી નાખી છે. વસનગરમાં નસતા શેઠ ધનદેવને પુત્ર હું પદ્મદેવ છુ, એ વાતની કાઇ પણ સાખ પુરશે. ’
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૧૦૭૬-૧૦૭૯, અને વળી એમણે કહ્યું': · ચાલે ત્યાં, અમે તમને સારી પેઠે ખલા આપીશુ. ' લૂટારાએ ઉત્તર આપ્યા: જોઇ લેઇશું. ' ( તે ઉપરથી મારા સ્વામીએ કરી કહ્યુંઃ ) ‘ જ્યારે ત્યાં આવવાનું થાય ત્યારે તમને સમ છે કે, તમે અમને જરૂર મળજો. જેણે જીવ બચાવ્યા હાય તેને તેના જેવા સરખા બદલે તે કરી જ આપી શકાય નહિ, પણ તમે અમારા ઉપર કમમાં કમ એટલી તે કૃપા કરશેા જ કે જેથી અમે તમારા સ્નેહભર્યાં આદર કરી શકીએ, ’
૧૦૮૦-૧૦૮૧. એણે ઉત્તર આપ્યોઃ ‘તમે મારાથી સતેષ પામ્યાં છે એ જ મારે તે ઘણું છે.' આટલું ખેલ્યા પછી વળી એ બેલ્વે: ‘હવે તમે તમારી મેળે ચાલતાં થાઓ.’ એમ કહી એ પર્વતને રસ્તે ચાલતા થયા અને અમે મેદાનમાં રખડવા લાગ્યાં.
૧૦૮૨-૧૦૮૬, રસ્તા વિનાના મેદાનમાં મારાથી ચાલવું મુશ્કેલ થઈ પડયું. અત્યાર સુધી અમે બહુ ઉતાવળે ચાલ્યાં હતાં અને હવે તે ભુખ, તરસને થાકથી એક બાઈ ગઈ હતી. તેથી કેવળ સુકાઈ ગએલે મ્હાંએ ચાલતાં પગ લથડતા હતા. મારાથી જરા ય ચાલવું અશકય થઈ પડ્યું. એટલે મારા સ્વામીએ મને પેાતાની પીઠ ઉપર ઊંચકી લીધી, પણ એમને શ્રમ પડે એથી તરત જ નીચે ઉતરી પડયા મે એર
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તરરાવતી કર્યું, પણ મને શ્રમમાંથી ઉગારી લેવાને માટે એમણે કહ્યું “આપણે છેક ધીરેધીર જઈશું. જે આ વન ધીરેધીરે આછું થઈ ગયું છે. વળી ગાએ ઠેરઠેર ભોંય ખોદી નાખી છે અને કઈ કઈ ઉકરડા પણ દેખાય છે. એ બધાથી સમજાય છે કે કઈ ગામ પાસે જ છે, હવે તેને સારી રીતે વિશ્રામ મળશે.”
૧૦૮૭-૧૦૮૯. પળવારમાં મારે જે ટળી ગયું અને ગાયને ગૃહજીવનની માતાઓને-મારી સામે જ જોઈને મને આનંદ થશે. વળી કાનમાં કુલના ગોટા ઘાલેલા ને હાથમાં ઝાડની ડાંખળીઓ ઝાલેલા ગોવાળીઆના છોકરા પણ અમે જોયા. ઉત્કઠાએ એમણે અમને પુછયું: “આવે તાડે માગે તમે કયાંથી આવે છે?” મારા સ્વામીએ કહ્યું કે અમે ભુલા પડયાં છીએ”ને પછી પુછ્યું:
૧૦૯૦. “આ દેશનું નામ શું? અને (પાસેના) નગરનું નામ શું? તમારું ગામ કયું અને અહીંથી એ કેટલું છેટે છે?”
૧૯૧એમણે ઉત્તર વાળે “અમારું ગામ ખાય છે, અહીં આ વન પુરૂં થઈ રહે છે, એથી બીજુ કંઈ વધારે અમે જાણતા નથી.”
૧૯૨–૧૦૯૪, છેડે આગળ ગયાં ત્યાં તે ખેડેલી ભેય આવી અને મારા પ્રિય બલી ઉઠયાઃ “પણે પેલી જુવાન નારીઓ ગામમાંથી નિકળી વનમાં પાંદડાં વીણવા જાય છે. મારી સુજાનુ પ્રિયા, સફેદ કટિમેખળા નીચે એમની ગોળ રાતાશ પડતી જાગો કેવી સુંદર દેખાય છે!' આવાં આવાં નેહભર્યા વચને બેલીને મારા સવામીએ મારો કલેશજનક થાક ઉતારવા પ્રયત્ન કર્યો.
૧૯૫–૧૦૯૭. પછી અમે ગામની જરાક એક બાજુએ આવેલા તળાવ ઉપર આવી પહોંચ્યાં, તેના સ્વચ્છ પાણીની અંદર માછલાં હતાં ને ઉપર કમળફુલ હતાં. અમે નિશ્ચિતમને ગામડાના આ તળાવમાંથી કમળે સુવાસિત કંચન જેવું પાણી બે બેબે પીધું. ત્યાર પછી વળી અમે (છછરા) પાણીની અંદર ઉતર્યા અને ઠંડું પાણી અમારા (હે) ઉપર છાંટયું, પછી થાક તથા ચિંતાથી મુક્ત થઈને ગામ તરફ ચાલ્યાં.
૧૦૯૮-૧૧૦૦. ત્યાં તે અમે સુંદરીઓને ઘડામાં પાણી ભરી જતી જોઈ, એમણે કેડ ઉપર ઘડા લીધા હતા અને બલૈયાંથી શોભતા હાથ (ઘડાને ગળે વીંટાળી રાખ્યા હતા. અને મારા મનમાં પ્રશ્ન ઉઠઃ “ત્યારે આ ઘડાએ એવું તે શું પુણ્ય કર્યું હશે કે એ નવનારીઓની સેડમાં પુરૂષે હોય એવા બેઠા છે અને એમના હાથમાં સુંદર આલિંગન પામ્યા છે?” પણ એ સુંદરીએ તે એકીટસે આશ્ચર્યદષ્ટિએ અમારી સામે જોઈ રહી.
૧૧૦૧-૧૧૦૭. જે ગામમાં અમે આવ્યાં હતાં તેની ચારે બાજુએ કળાવિનાની અને છતાં એ સુંદર વાડ હતી. નારીએ જાણે પહેરા ઉપર ઉભી હોય એવી એ દેખાતી હતી, કારણકે નારીઓનાં સ્તન જેવાં તુંબડાં એના ઉપર લટકતાં હતાં. જ્યાં આ
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ગામવાસે. ગળથી ગામની સ્ત્રીએ અમને જોતી હતી, ત્યાં આગળથી એ વાડ કમનશીબે ભાગેલી હતી. તેથી એ સ્ત્રીઓ આશ્ચર્યથી અમારી સુંદરતા જોતાં આંખ પણ ફરકાવતી નહિ, અને જોવાની પદ્ધમાં અંદરની બાજુએથી (વાડ) ઉપર પડતી ને તેને હડસેલતી અને કેલાહલ મચાવતી. આમ (વાડના) ભાગવાથી અવાજ થતો એટલું જ નહિ, પણ (ઉત્સુકતાએ બહાર આવેલી) આધેડ સ્ત્રીઓને જોઈને કેટલાક કુતરા ચમક્તા ને ઊંચાં મેં કરીને ભસવા લાગતા. અમને જે સ્ત્રીએ જોતી હતી તેમાંની કેટલીક તે માંદી ને ફીકી દેખાતી હતી, એમને તાવ આવતું હતું અને (દુબળી પડી જવાથી) એમનાં બલૈયાં ઢીલાં પડી ગયાં હતાં. એમની પાછલી બાજુએ બે પિશાક પહેરેલી (તંદુરસ્ત) તરુણ કેડમાં આકરાં લઈને પોતાના ઘરમાંથી બહાર નિકળી આવી હતી. આવા આવા અનેક દેખાવ જોયા અને જાણ્યા, અને આમતેમ જોતાં જોતાં અમે ધીરેધીરે (એ ગામની) શેરીમાં પિઠાં.
૧૧૦૮–૧૧૧. વનમાં હતાં ત્યારે ગમે એમ કરીને જીવ બચાવવાની ખાતર અને વનમાંથી નિકળી જવાની ખાતર, (જે પગે હું ચાલતી હતી તે પગના ઘાની કે ભૂખની કે તરસની કે થાકની મેં (બહુ) પરવા કરી નહોતી, પણ હવે તે બે ટળી ગયે હતું ને ભવિષ્ય નક્કી થઈ ગયું હતું, તેથી ભૂખ તરસ ને થાક વિષેના મને વિચાર આવ્યા ને મેં મારા સ્વામીને કહ્યું: “પ્રવાસીને કરવું પડે છે એમ આપણે પણ ખાવાનું માગીએ.”
૧૧૧૧-૧૧૧૭. જેમનું સ ધન લટારાએ લટી લીધું હતું એવા મારા સ્વામી બેલ્યાઃ “ જેમને અનમ્ર કુળાભિમાન હોય છે તેમને તે, ગમે એવા સંકટમાં આવી પડયા છતાં, લોકની પાસે ભીખારીને વેશે જવાનું ભારે પડે છે. ગામના લોક પાસે જઈને ઉભે રહે તે મને શરમ ભરેલું ને નીચું જોવા જેવું લાગે. કારણ કે (ભીખારીની પેઠે) આમ ઉભા રહેવું એ તે જેનામાં કંઈક લાગણી છે એ માણસ, એનું બધું જતું રહ્યું હોય અને વગડામાં દુઃખે ઘેરાયેલ હોય તે ય, પસંદ ન જ કરે. જે જીભ દુખને સમયે ફરિયાદ કરતાં સંયમમાં રહે એ જીભ ભીખ માગવાનું શી રીતે કબુલ કરે! અને છતાં યે, મારી પ્રિયા, એ અભિમાન હોવા છતાં એ તારે માટે ગમે તે કરતાં પણ અચકાઈશ નહિ; તેથી આ શેરીના શણગારરૂપ આ મંદિરમાં તું થોડીવાર થાક ખા; તારે માટે ખાવાનું શી રીતે લાવવું એને હું વિચાર કરૂં છું.”
૧૧૧૮–૧૧૨૧. ચારે બાજુએથી ખુલ્લું અને દરેક ખુણાએ થાંભલાને ટેકે રહેલું એવું એ મંદિર હતું અને ત્યાં પર્વને દિવસે વંઠેલા જુવાનીઆ મેળે ભરતા. (વનમાંથી નિકળ્યા પછી જે ખેતરે આવ્યાં હતાં તેની આ બાજુની સીમા ઉપર જ
વેલા) આ મકાનના ખંડમાં અમે પેઠાં. એ મુકામ પ્રવાસીઓને ઉતરવા (ગામ લેકે) " કાઢયો હતે. તેમાં (ગામના) ગૃહસ્થ જગની નવી જુની જાણવાની ઈચ્છાએ) અને વળી
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તરવતી. ગામનાં છોકરાં ( રમવા માટે) એકઠાં થતાં, વનમાં બધા પ્રકારનાં બીજ અને પ્રક જાળવીને સાચવી રાખનાર, (રાજા) દશરથનાં સતીપુત્રવધૂ, જગ~સિદ્ધ સીતાજીનું મરણ કરીને જમીન ઉપર એક ચોકખી ને ડાંગરનાં કણસલાં જેવી ચળકતો જગાએ બેઠાં.
૧૧રર-૧૧ર૯ એવામાં તે ખેડખાંપણ વિનાના બાંધાના એક સુંદર જુવાનને ચપળ સિંધી ઘોડા ઉપર બેશીને આવતે અમે જે. એણે બહુ જ નરમ ધળાં સુતરેલ કપડાં પહેર્યા હતાં, તેની આગળ સિપાઈઓ અને બીજા માણસે ઉતાવળે પગલે ચાલતા હતા. હું જરૂર (એની નજરમાં) એક પુરૂષની સોબતમાં નગરનારી જેવી દેખાતી હઈશ ! પણ હું તે શરમાયા વિના અમારા સીતામંદિરના અષ્ટકોણ થાંભલાને અઢેલીને ઉભી રહી. કુમાષહરતી (એ અશ્વારનું નામ એવું હતું ) અમારા મંદિરની ડાબી (દેવના માનમાં) બાજુએ થઈને ચાલે, પણ મારા સ્વામીને દેખતાં જ તે એકદમ ઘોડા ઉપરથી છલંગ મારીને ઉતરી પડશે. એ મારા સવામીને પગે પડો ને ઉંચે સ્વરે રડી પડીને બે કે હું તમારા ઘરમાં બહુ દહાડા રહો છું.” મારા સ્વામીએ એને ઓળખે કે તરત જ એને એ આવેગથી ભેટી પડ્યા ને પુછવા લાગ્યાઃ “તું અહી ક્યાંથી ! (મારા પિતા) શેડ કુશળ છે? મારાં બા ને બીજા સા આપણાં સંબંધી ને મિત્રે કુશળ છે!”
૧૧૩. મારા સવામીની સામે એ જમીન પર નમીને બેઠે અને પિતાના જમણા હાથથી એમને ડાબે હાથ ઝાલી સમાચાર કહેવા લાગે
૧૧૩૧-૧૧૪ર. નગરશેઠના ઘરમાં મેટે મળસ્કે ખબર પડી ગઈ કે દીકરી દેખાતી નથી ત્યારે એની સખીએ (સારસિકાએ) તમારી પાછલા ભાવની બધી કથા કહી સંભળાવી; અને તમે કેમ તૈયારી કરીને નાશી ગયાં એ વાત પણ એણે કહી. પછી તરત જ નગરશેઠ તમારા પિતા પાસે ગયા અને બોલ્યા: “ કઈક કઠોર થયે હતે એને માટે કૃપા કરીને મને ક્ષમા આપશે. મારા જમાઈની (હવે એમને જમાઈ માનીશ) શેધ કરા! તરત જ એ ઘેર આવે તે ય એમને (મારાથી) બીવાનું કારણ નથી. એ બિચાર જુવાન પરદેશમાં અજાણ્યા લોકની વચ્ચે શું કરશે?” ત્યાર પછી એમણે (તમારા પિતાને) શેઠને તમારા પાછલા ભવની બધી કથા અથથી તે ઈતિ સુધી, જે પ્રમાણે એમણે સખી પાસેથી સાંભળી હતી તે પ્રમાણે, કહી સંભળાવી. અને તમારી કેમળ હૃદયની માતા તે તમે આમ અકસ્માત અળગા થઈ ગયા તેથી શેકમાં ડુબી ગયાં, અને એવું છાતી ફાટ રડવા લાગ્યાં કે પાસે બેઠેલાને પણ રડવું આવ્યું. આખા વત્સનગરમાં એક મેઢેથી બીજે મઢે એમ રસ જગાએ વાત જણાઈ ગઈ કે શેઠના દીકરાને ને નગરશેઠની દીકરીને પિતાનાં (સહ)જીવનનો કથા યાદ આવી છે. હવે શેઠે ને નગરશેઠે તમને ખોળી કાઢવાને ચારે બાજુ અનેક માણો મોકયા છેમને પણ સવારમાંજ મણાશક (નામે નગર) તરફ તમારી પુછપરછ કરવા
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વિશ્રામ..
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માકલ્યા હતા, કારણ કે મારા પિતા ત્યાં રહે છે; પણ ત્યાં તમારા કશે! પત્તા લાગ્યા નહિ. છતાં ચે મે' વિચાર્યું કે જેમની મિલ્કત નાશ પામી હાય છે, કે જેમને માથે ખીજા સક્રેટ આવી પડત્યાં હોય છે, અથવા જેમણે અપરાધ કર્યાં હોય છે, કે જે કઠણ જાદુવિદ્યા શિખ્યા હાય છે (એમને પ્રયાગ કરવા માટે વનમાંની સામગ્રીએની જરૂર પડે છે), તેમને વનવગડાના પ્રદેશમાં ફરવાનું ગમે છે. તેથી એવે એને ઠેકાણે તપાસ કરવા ને નજર રાખવા ગયા હતા અને અતે અહીં આવી પહાંચ્યે। છું. દેવે અહીં મારા શ્રમના બદલે આ છે. તમારા ઉપર શેઠે અને નગરશેઠે નિજહાથે લખેલા આ કાગળા આપ્યા છે. ”
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૧૧૪૩–૧૧૪૭. તરત જ માથુ· નમાવીને મારા સ્વામીએ પત્ર લીધા અને પેાતાના મિત્રને જણાવ્યું કે એ થાક ખાવાને ત્યાં બેઠી છે.' કાગળા ઉઘાડીને (પાતે પ્રથમ વાંચીને) ધીરે ધીરે વાંચવા લાગ્યા, રખેને એમાં લખેલુ કઈ છાનુ ઉતાવળે વાંચી ન નંખાય. કાગળાની બધી મતલમ જાણી લીધા પછી, એમણે એ કાગળા ( કશું છુપાવવાનું હતું નહિ તેથી ) માટેથી વાંચી સભળાવ્યા; એટલે હું પણ એથી નાકેગાર થઈ. કાગળા સાંભળ્યા તે પ્રમાણે તેા જરા ચે ક્રોધ વિના એ લખાચા હતા અને પુષ્કળ વાત્સલ્યભાવ એમાં ખતાન્યેા હતા; વારવાર લખ્યુ હતું કે: ' ઘેર આવે!' આથી મારી ચિંતા તા એકેવારે વેગળી થઈ ગઈ અને મારા હૈયામાં આનદગ્માન દ વ્યાપી રહ્યા.
૧૧૪૮-૧૧૫૫. એટલામાં કુમાાષહસ્તીની આંખે મારા સ્વામીના હાથ ઉપર પડી. એમના એ હાથને ( લૂટારાની ગુફામાં) બહુ સખત મધને ખાંધ્યાથી સારાયા હતા ને તેથી જુદી જ જાતના દેખાતા હતા, વળી સુજી પણ ગયા હતા. અને એશે ( એમને ) કહ્યું: ‘ રણક્ષેત્રમાં ઉતરેલા જોદ્ધાના જેવા તમારા હાથ હાથીની સુંઢ સમાન બળવાન છે અને સાથે સાથે અનેક ઘાથી જુદા જ પ્રકારના ને સુજેલા દેખાય છે એવું જે મેં સાંભળેલું તે વાત ત્યારે ખરી કે ?' તરત જ, અમે કેવાં કેવાં ભયંકર દુઃખ (લૂટારાની ગુફ્રામાં) વેઠયાં હતાં એ એને કહી ખતાવ્યું. પછી ગામમાં સાથી સારે ઘેર એ મને, આરામ થાય એટલા માટે, લેઈ ગયા. એ ઘર બ્રાહ્મણનું હતું. બ્રાહ્મણુ અમારી સાથે સબધ રાખી શકે એવી સ્થિતિના અમે હાવાથી એ બ્રાહ્મણુકુટુ‘બમાં ( બ્રાહ્મણુ ) સરખા આદર પામ્યાં, પાણીના કરવા વાપરી શક્યાં; વળી હાથ ધોવાને ચાકપુ' પાણી મળ્યું અને પછી તરત જ સ્વાદિષ્ટ ભેાજન અમને જમાડ્યાં; અમે ઉપસર માન્યું કે અમને આવી પ્રભુની પ્રસાદી સળી, અમે હાથ માં ધાઇને અમારા પગના ઘામાં ગરમ ઘી મુક્યું, અને ત્યાર પછો એ કુટુબમાંથી વિદાય લેઇ નિકળ્યાં.
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૧૧૫૬, આમ ફરી અમે હતાં એવાં થઈ ગયાં ને હવે ખને જણાં ઘોડા ઉ
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પ
તરવતી.
પર ચઢ્યાં. કુમાાષહસ્તી અને તેના સિપાઇઓ તથા માણુસાને લેઈને ઘર તરફ અમે ચાલ્યાં. ૧૧પ૭-૧૧૭૭. પહેલાં તે અમે પ્રણાશક નગર ભણી ચાલ્યા. એ નગર એવું તે સુંદર છે કે એને આખા પ્રદેશનું મોતી અને ભાગ્યદેવીનુ' સ્થાન કહેવું જોઇએ. પેાતાની સખીને ઉતાવળી ઉતાવળી મળવા જતી, ને નીચાણુના પ્રદેશમાં એ કાંઠે વહેતી, ને પીવા જેવા સ્વચ્છ પાણીવાળી તમસા નદી (માર્ગમાં આવતી હાવાથી) અમે મછવામાં એશી એળગી ગયાં એટલે અમે પ્રણાશક નગરથી રોભી રહેલા એ બે નદીએના સ ંગમસ્થાનમાં તે ને તેજ દિવસે આવી ઉભાં, અને કુમાષહસ્તીએ (ઉતાવળે) ગોઠવણુ કરી દીધા પ્રમાણે ધારીમાગે થઇને મહા આનંદે અમારા કુળમિત્રના સંબંધીને ઘેર આવી ઉતર્યાં. ત્યાં અમારા સ્નાનથી, ભાજનથી અને તેલમાઁ નથી સારી રીતે સત્કાર થશે. અને ત્યાર પછી વળી રાત્રે સુદર નિદ્રાના લાહવો મળ્યા. ખીજે દિવસે સવારમાં ઉઠીને દાતણુપાણી કયા, નાહ્યાં, દેવની ઉપાસના કરી ને પછી થાક, ભય અને ભૂખથી મુક્ત થઇને વળી પાછાં પથારીમાં સુતાં. તે દરમિયાન કુલ્માષહસ્તીએ અમે ઘર તરફ આવીએ છીએ એવા સમાચાર આપવા, કૌશામ્બીમાં અમારા મામાપ ઉપર કાગળ લખી નાખ્યા, જેટલા દિવસ અમે ત્યાં રહ્યાં તેટલા દિવસમાં ખાનપાન વગેરે સર્વ પ્રકારની અમને જોઈતી સામગ્રીથી અમારાં દુઃખની નિશાની સુદ્ધાં ભુંસી નાંખવા એ લાકોએ પ્રયત્ન કર્યો. ઘેાડા દિવસ પછી જયારે અમે પૂરેપૂરા સાજા થયા ત્યારે કાશામ્બી તરફ જવાની અમે ઈચ્છા દેખાડી. પ્રવાસની સા તૈયારીઓ થઈ. સ્ત્રીઓએ બહુ ચે ના પાડી, તે ય ઘરનાં બાળકાને મેં એક હજાર કાર્ષોપણની (રમની) બક્ષીસ કરી, જેમાંથી અમારે માટે થયેલુ લગભગ બધું ખર્ચ વળી જાય. મારા સ્વામી એટલી બક્ષીસ આપતાં શરમાતા હતા, કારણ કે એવા સ્નેહભર્યાં આદરની એવી કિંમત એમને બહુ ઓછી લાગતી અને એવી વાત કરતાં એમને સ`કાચ થતે. (જતી વખતે મળી લેવાને) એ સ્નેહીઘરની સા સ્ત્રીઓને મે' અને સા પુરૂષાને મારા સ્વામીએ મળી લીધું. પ્રવાસમાં જરૂર પડે એવી સૈા ચીજો ને ઔષધે! સુદ્ધાં અમે સાથે લેઇ લીધાં, જેથી માર્ગમાં કશી અડચણ પડે નહિ. ત્યાર પછી મારા સ્વામી સુંદર ઘેાડે ચઢ્યા, તે ધાડા મારા રથની પાછળ ચાલતા હતા. શેઠે અને નગરશેઠે માકલેલા ચાકરી જ માત્ર નહિ. પણુ વળી ( એ ચાકરા સાથે કૌશામ્બીથી આવેલા એ અમારા ગૃહમિત્ર ) કુલ્માષટુસ્તી અને તેનાં માણસા પણ ચારે બાજુ વીંટાઈ વળીને ચાલતાં. તે ઉપરાંત ધાડા પડેલી ત્યારે પેાતાની શૂરવીરતા અનેકવાર દેખાડેલી એવા માણુસાને હથિયાર.'ધ કરીને અમારે રખવાળે માકલ્યા હતા. આમ અમે ચેટામાં થઈને પ્રણાશક નગરમાંથી નિકળ્યાં ત્યારે અમારા ભપકાથી સૈા વસ્તી આ મૂઢ થઇને જોઈ રહી. અને અમારા મિત્રને અડધે અને અમારે પેાતાના અડધા એમ બેવડા કટલે લેઈને, કેાઈથી ન ઉતરે એવા ભપકાથી, અંતે (એમની નજર) બહાર અમે નિકળી ગયાં ત્યાંસુધી રાજમાને રસ્તે જતાં હજારા લેક અમારી ઉપર તાકીને જોઈ રહ્યા.
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વાસાલિક તીથ.
૧૧૭૮-૧૧૮૨, હવે મારા સ્વામીએ ગાડીવાનને કહીને મારે રથ ઉભે રખાવ્યા અને પિતે મારી પાસે અંદર આવ્યા ત્યારપછી વળી પાછે સાથ ચાલ્યા. (ભાગમાં) પછી ઉંચી ડાંગરનાં ખેતર, વિસામાના ચોતરા તથા પર જોતાં ધીરેધીરે અમે વાસાલિક નામે ગામ આવી પહોંચ્યાં. ત્યાં પર્વતના (લીલોતરીથી ઢંકાયેલા) શિખર જેવું એક પ્રાચીન વડનું ઝાડ જોઈને અમને આનંદ થશે. કેઈપણ પ્રવાસીને આનંદ આપે એવું એ મનહર ઝાડ હતું. ખુબ પાંદડાવાળી એની ઘટામાં પંખીઓનાં ટેળેટેળાં એન. ઉપર બેઠાં હતાં. અમારે ગૃહમિત્ર એ જોઈને બે
૧૧૮૩-૧૧૮૫, “આપણા ધર્મના પ્રવત્તક વર્ધમાન (મહાવીર–૨૪ માંના છેલ્લા તીર્થંકર) સંસારનો ત્યાગ કરીને જ્ઞાન પામ્યા તે પૂર્વે અહીં એમણે વાસ કર્યો હતો અને તેથી આ જગ્યાનું નામ વાસાલિક પડયું. પરિણામે એ જિનેશ્વર ભગવાનના સ્મરણમાં હજારે દેવ, કિન્નર ને માણસે આ વડના ઝાડની પૂજા કરે છે.”
- ૧૧૮૬-૧૧૮૮. આ વચને સાંભળીને અમે બંને પુજ્યભાવે ને આનદભયે હૈયે રથમાંથી નીચે ઉતર્યો. જિનભગવાનના સ્થાનકનાં દર્શન કરવાને અમને, ઈચ્છા થઈ અને વડના મૂળને અમારા કપાળવડે બહુ શ્રદ્ધાથી અને નમ્રતાથી સ્પર્શ કર્યો. હાથ જોડીને હું બોલી: “હે ભાગ્યશાળી વૃક્ષ, તું ધન્ય છે કે જિનભગવાન મહાવીર તારી છાયામાં આવી રહ્યા.”
૧૧–૧૧૯૦ એ વડની એમ પૂજા કર્યા પછી અને ત્રણવાર એની પ્રદ ક્ષિણા ફર્યા પછી પાછાં અમે તાજ થઈને વિચાર કરતાં ફરી રથમાં ચડ્યાં. જ્યાં (ભગવાન) વદ્ધમાને શાતિએ વાસ કર્યો હતો તે સ્થાનનું દર્શન કર્યાંથી મને ઘણે આનંદ અને ઉલ્લાસ થયે અને લાંબા સમય સુધી હું એ વિચારમાં નિમગ્ન થઈ રહી.
૧૧૧૧-૧૧૫. સ્વામીની પડખે (બેશ) ગૃહિણીનું સુખ અનુભવતી અનુભવતી એકાકી હતી અને કાળી એ ગામડાં વટાવી ચાલી. પછી રાતવાસો કરવાને અમે, જેની હવેલીએ વાદળાંએ અડકે છે એવી બહુ વસ્તીવાળી શાખાંજના નગરીમાં આવી પહોંચ્યાં. અહીં અમે તમારા સ્વામીના) મિત્રને ત્યાં આનંદથી ગયાં, એની કૈલાસના શિખર જેવી હવેલી એ નગરીના અનન્ય શણગારરૂપ હતી. અમારે માટે નાહવાની, ખાવાની અને સુવાની ઉત્તમ ગોઠવણ કરવામાં આવી હતી. અમારા સમસ્ત સાથને પણું જમાડ, વળી સારથિની અને બળદની પણ સારવાર કરી. આમ અમે બહ સુખમાં તે રાત ગાળી. પછી સવારમાં મેં તથા હાથપગ ધોઈને સૂરજ ઉગતાં ત્યાંથી વિદાય લીધી.
૧૧૯૯-૧૨૦૨. વિવિધ પંખીઓનાં અને ભમરાનાં ટેળાં (ઉડતાં) દેખાતાં અમે વાતે કર્યે જતાં હતાં તેથી કેટલો પંથ કપાયે એ તે અમને જણાયું ય નહિ.
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સરગમતી
કુલ્માષહસ્તીએ આગળથી કહી રાખ્યું હતું તે પ્રમાણે ગામ અને નગરના રસ્તાની (માપ દેખાડવા) નિશાનીરૂપ ઉભાં રહેલાં પવિત્ર ઝાડાને અમે દૂરથી જોઇ લેતાં. પાછુ એક બીજું વડનું ઝાડ દેખાયું; તેની કઇંક પાસે આવ્યાં ત્યારે તેનાં લીલાં પાનને લીધે તે પૃથ્વીનું જાણે શ્યામ, ભવ્ય, પ્રકાણ્ડ સ્તન હૈાય, એવું દેખાતું હતું; પ્રવાસીઓના સ'ધને વિસામા કરવાનું એ સ્થાન હતું, રસ્તાના શણગારરૂપ હતું અને ( વળી ) કૌશામ્બીના સીમાડાનુ મેાતી હતું. કાળડાળીઓની ઘટામાં સેકડા પ‘ખીએ રહેતાં; વળી સુવાસિત ફુલકળીએ અનુપમ શાભા આપતી. ઉપર મેઘ જેવા સફેદ પટ ઝુલતા હતા અને નીચે ઉત્સવહાર પહેરાવેલા અને પાણીએ ભરેલા કારા ઘટા મુકયા હતા. ( અમને ત્યાં સુધી સામે લેવા આવેલાં) આળખીતાંએ અને સગાંવહાલાંએ અમને ત્યાં વધાવી લીધાં અને અનેકાનેક આશીર્વાદ આપ્યા.
૧૨૦૩-૧૨૦૭. અમે ત્યાં નાહ્યાં અને તેથી અમારે થાક ઉતરી ગયા. પછી અમે અમારું સાસરીમની પાસે ગયાં અને એમનાં ટાળાંમાં આનંદે જઈ બેઠાં. હવે મારે રથમાં બેસવાનું ન હતું ને તેથી ઘેાડે ચઢી. મારી પાછળ (મારી સાચી સખી) સારસિકા અને (મને માન આપવાને આવેલા) આયાએ, ખાજાઓ, દાસી, જુવાન નીઆએ અને બીજાને સાથ ચાલ્યું, પણ ખાસ કરીને મારા સ્વામી પેાતાના મિત્રને (કુમાષહસ્તીને) લેઇને બીજા ઘેાડાએ જોડેલા સાનાના રથમાં બેશી સાથે ચાલ્યા. વળી નણુ દો અને ભેાજાઇએ પણ પોતાના દાસદાસીના સાથે સાથે અમને મળવાને આવી હતી, તે પણ સુંદર (ખળદ-)ગાડીઓમાં બેશીને મારી સાથે (પિતાના) નગર તરફ ચાલી.
૧૨૦૮-૧૨૧૨. પ્રખ્યાત માશુસનાં સુખદુઃખ, જવુંઆવવું, પ્રયાસે નિકળવું ને પાછું ઘેર આવવું, સે લેકને તરત માલમ પડી જાય છે. એવી રીતે અમે પણ ઉંચા પ્રભુદ્વારમાં ( ઉતાવળે ઉતાવળે તૈયાર કરેલા વિજયતારણમાં ) થઈને કૈાશાખી નગરમાં પ્રવેશ્યાં. ત્યાં આગળ જમણે હાથે એક નરપમીના અવાજ સભળાયા અને એમ સારા શકુન થયા. અને જે રાજમાગે થઈને અમે ચાલ્યાં તે માર્ગે અમને આવકાર આપવાને સફેદ સુગધિત ફુલેાથી શણગારી કાઢ્યા હતા, અને ઠેઠ સુધી રસ્તાની બેઉ બાજીની ઉંચી હવેલીઓની હારા ઉપર અને સુંદર દુકાને આગળ અમને જોવાને આતુરતાથી એકઠાં થયેલાં પુરૂષ અને સ્ત્રીઓની ભીડ જામી હતી. સરાવર ઉપરનાં કમળફુલાની સપાટી પવનથી ઉંચીનીચી થાય એવા દેખાવ લેાકનાં કમળફુલશાં સુખાને લીધે અમને દેખાવા લાગ્યા.
૧૨૧૩–૧૨૧૬. મારા સ્વામીને માન આપવાને માટે રાજમાગ ઉપરના લાકોએ સ્નેહંભરી દૃષ્ટિએ એમની તરફ્ જોયું, એટલુંજ નહિ પણ હાથ જોડીને નમસ્કાર કર્યાં. વાદળાંથી ઢંકાઈ રહ્યા પછી જેમ શચંદ્ર ભાવે એમ પરદેશથી પાછાં અમને ઘેર આવેલાં
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ભૂતનું ઘેર આવી પહોંચતુ
૫૯
જોઈને સાને આનદ થયા, એટલુ જ નહિ પણ સાએ એમને આશીર્વાદ આપ્યા ને તેમાં પણ બ્રાહ્મણેાએ અગ્રેસર થઈને. અને હૃદયના આ ઉમળકાના એ કશે લુખા ઉત્તર માપી શકયા નહિ. બ્રાહ્મણુશ્રમણા અને એવા પૂજ્ય લેાકને એમણે પશુ હાથ જોડીને નમસ્કાર કર્યો; મિત્રાને આલિંગન દીધાં ને બીજાઓને ધન્યવાદ દીધે.
૧૨૧૭-૧૨૨૦. કાઈ કાઈ એલવા લાગ્યા: ‘નગરશેઠના મહેલ આગળના ચિત્રમાં ચીતરેલા ને જેને શિકારીએ વીધી નાખ્યા એ ચક્રવાક પેલેા રહ્યો. અને તેમાં ચીતરેલી અને જે સતી થઇને નગરશેઠને ઘેર દીકરી થઇને અવતરી છે તે આ જ આ (ભાગ્યશાળી) વધૂ છે. પ્રારમ્પે ચિત્રમાંનાં એ એને કેવી સુંદર રીતે એકઠાં આણી દીધાં છે ! બીજા કોઈ ખેલવા લાગ્યાઃ · કેવા સુંદર છોકરા !' મીજાએ ટાપસી પુરી: ‘ કેવું સાચું !' વળી ખેલાયું: ‘કેવુ ઝુગતે જોડું!' એ એને શે ભતા જ છે! — < ઉસ્તાદ કરી છે!?
૧ર૧-૧૨૫. એમ સા લાકોએ (જુદી જુદી રીતે) મારા પ્રિયતમને વખાણ્યા, પછી અમે ધીરેધીરે એમને મહેલે સાથે આવી પહોંચ્યાં, ત્યાં અમને દાસદીસીઆએ પગ ધોવાનુ પાણી આપ્યું અને સુંદર પાત્રા આણીને તેમાંથી દહીં, ચોખા અને કુલ દેવને ચઢાવ્યાં; પછી અમને માળા અને કમળદડા આપ્યા ને ત્યાર પછી હું' મારા સ્વામીની સ’ગે ખારણામાં પેઠી. હું' ભૂલથી જરાક પાછળ પડી ગઇ ને ઉતાવળે ચાલીને પાછી સાથે થઈ ગઈ; અને અમે મારા સસરાના મેહેલના, લેાકની ભીડવાળા સુદર અને વિશાળ ચાકમાં આવ્યાં.
૧૨૨૬-૧૨૩૨. મારા પિતા (નગરશેઠ) પેાતાના કુટુંબને લેઈને બીજા વેપારીઓ સાથે આગળથી જ આવીને સાંગામાંચી ઉપર બેઠા હતા. ક ંઈક સકાચથી અમે સાને ચરણે માથું મુક્યું, અને એમણે સ્નેહાળ દેવાની પેઠે અમારા ઉપર દૃષ્ટિ કરી. એમણે અમને આલિંગન આપ્યાં, કપાળ ઉપર ચુંબન કયા, એમની આંખમાં હર્ષનાં આંસુ આવ્યાં ને ક્યાંય સુધી અમારી સામે જોઈ રહ્યાં. મારી માતા અને સાસુએ પણ અમને હૈયાના ઉમળકાથી આલિંગન આપ્યાં અને શઈ પડ્યાં એમની આંખેામાંથી આંસુ નિકળી પડયાં અને સ્તનમાંથી ધાવણ નિકળી પડ્યું. પછી મારા (આઠ) ભાઈઆને એકેએકે પગે લાગી અને ભક્તિભાવે મારૂં' મસ્તકકમળ એમની આગળ નમા વતી ચાલી ત્યારે એમની પણ આંખમાં આંસુ તરી આવ્યાં. વળી જે સૈાને હુ'સ્નેહથી સ'ભારતી તે સા આવી મળ્યાં. મારી દાસીએ અને સખીએ (સારસિકાએ) પ્રથમ (વડના ઝાડ નીચે વધાવી લેવા આવ્યાં હતાં ત્યારે) પેાતાનાં આંસુ રોકી રાખ્યાં હતાં, તેમણે પણ અત્યારે છુટથી વહેતાં મુકી દીધાં, (કારણ કે ચેાડી વાર સુધી) એમનું દુઃખ સમે એવુ નહાતું, ઝાકળનાં માતી જેના ઉપર પડ્યાં છે એવી પુલરેખા જેવી એ (એ) દેખાતી.
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તરંગવતી. ૧૨૩૩-૧ર૩૮. નગરશેઠની અને વેપારીઓની સૂચનાથી પછી (ભેટ મુકતી વખતેલાવવામાં આવે છે એવા પ્રકારને) એક ઘડો આયે. અમને અમારે આસને બેસાડયા પછી તે સંબંધીજનેએ અમારા આજ સુધીના જીવન વિશેની વાતે પુછવા માંડી. ત્યારે મારા પ્રિયે અમને જે અનુભવ થયું હતું તે સ (અથથી ઇતિ સુધી અનુક્રમે) એમને કહી સંભળાવ્યુંઅમે એકવાર સાથે વસતાં, એ સહવાસ પ્રિય હોવા છતાં અમારૂં મૃત્યું થયું ને તેથી વિગ થયે, એ ચિત્રને લીધે પાછા સંજોગ થયે, મછવામાં બેશીને નાશી ગયાં, લટારાના હાથમાં ફસાયાં, મરણના મેંમાં જઈ પડયાં, એમની ગુફામાંથી એક લૂટારાએ બચાવી: નસાડયાં, વનમાં પ્રવાસ કર્યો, એક ગામ મળી આવ્યું અને છેવટે કુમાષહસ્તી સાથે ભેટે થે. આ સે વાતે વર્ણવી.
૧ર૩૯-૧૨૪૪. અમારે એસા અનુભવ મારા સ્વામીએ વર્ણવ્યું તે સાંભળીને બંને પક્ષની મારા પિતાના કુટુંબની અને મારા સ્વામીના કુટુંબની) આંખમાં પાછાં આંસુ ભરાઈ આવ્યાં, અને મારા પિતા બેલ્યાઃ “તમે આ વાત અમને પહેલાં કેમ ના કહી? તમને આટલું દુઃખેય પડત નહિ ને આટલે પસ્તાવો થાત નહિ. જરા પણ ભલું કર્યું હોય તેને માટે પણ સારે માણસ હદ ઉપરાંત ઉપકાર માને છે અને એને બદલે વાળી શકાય નહિ ત્યાં સુધી પિતાને માને છે. ત્યારે જેનું એકવાર ભલું કર્યું છે તેના ઉપર વળા કરી ભલું કરાય તે માણસે ઉપકાર માને નહિ તે શી રીતે જીવી શકે? એવા ભલાને એને મંદરપર્વત જેટલો ભાર લાગે છે અને તેને બેવડે બદલે વાળી શકાય ત્યારે જ એને સંતોષ થઈ શકે છે. તમે મને જીવન આપ્યું છે, ત્યારે હું પણ તમને જીવન આપી શકું તે જ જીવવું સારું લાગે.'
૧૨૪૫-૧ર૪૮. આવાં આવાં વચનેથી ગૃહપતિએ (મારા પિતાએ) અને બીજા શેઠીઆઓએ અમને રીઝવ્યાં. અને અમારા પાછા આવવાથી અમારા ઘરનાં બધાં માણસે ખુશી થયાં હતાં. ખરે, અજાણ્યા લેક, ને સારું નગર પણ, અમને હેતે મળવા ઉતાવળે ભરાઈ ગયું; અને વખાણ કરવા માટે, આશીર્વાદ આપવા માટે અને વધાવવા માટે અમે સુંદર કીમતી ભેટ આપી. કુમાષહસ્તીને તે બદલામાં હજાર સેનામહોરે મળી અને અમને પણું. સૌ સંબંધીઓએ એકઠાં મળીને અમૂલ્ય ભેટ આપી.
૧૨૪૯-૧રપ૩, શુભ મુહુત નિરધારીને અમારા બંને કુટુંબને શેભે એવા ઠાઠથી–નગરમાં કદી થયો નહિ એવા ઠાઠથી–અમારાં લગ્ન થયાં, આખો વખત એ અસાધારણ ઉત્સવ મંડાયે કે અનેક લેકે આ આનંદ કદી નહિ અનુભવ્યો હશે! અને અમારા બંને કુટુંબ હૃદયભારી મિત્રતાએ, આનંદશેકને સમાન અનુભવ કરવા લાગ્યાં, અને એને કુટુંબો જાણે એકજ હોય એમ દેખાવા લાગ્યાં. વળી મારા સવામીએ ગ્રહથેલેવાનાં (આપણા ધર્મના પાંચ વ્રત લીધાં અને જિનપ્રભુના સુંદર અમૃતે દેશનું મનન
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ઘરથી નિકળ્યા ત્યારની સ્થિતિ. કરતાં આદર્શ ગૃહજીવન ગાળવા લાગ્યા. હું પણ આગળ (૪૫૨-૪૫૪માં) કહી ગઇ છું એમ એકસે ને સાઠ આયંબિલ વ્રત પૂરાં કરતી હતી...કારણ કે એ જ વ્રતથી મારી કામના સફળ થઈ હતી.
૧૨૫૪. હવે મારી સખી સારસિકાને મેં પુછયું: “હું મારા સ્વામી સાથે ચાલી નિકળી (અને તને ઘેર મોકલી) ત્યાર પછી ઘેર તારી શી સ્થિતિ થઈ?”
૧૨૫૫૧૨૭૨. સારસિકાએ ઉત્તર દીધે: “તારી સૂચના પ્રમાણે તારા દાગીના લેઈ આવવાને હું તે ઉતાવળી ઉતા વળી ઘેર ગઈ. દરવાજાને આગળ ન જોયાથી ઘરના લેકને વ્યાકુળ થઈ ગયેલા મેં જોયા અને મહેલમાં મને મારી પણ સલામતી લાગી નહિ, છતાં તારા ખંડમાંથી તારા દાગીનાની થેલી, નગરના મણિરૂપ એ થેલી લઇને અહી આવી. પણ મારી એટએટલી વાંછના છતાં તે તે મને મળી નહિ ને તેથી નિરાશ થઈને એ દાગીનાની થેલી લઈને પાછી ગઈ, “આહ મારી સખી” એ નિસાસે નાખીને તારા ખંડમાં પિઠી ને (દુખની મારી) ખૂબ છાતી કુટી. ધીરેધીરે મારી ગભરામણભરી એકાન્તમાં શાન્તિ વળતી ગઈ ને મને આમ વિચાર આવ્યેઃ “(પૂર્વજન્મના યાદ આવ્યાને) એમને પડદે નગરશેઠને નહિ ખેલું તે એ પિતાની દીકરી ઉપર ભારે ક્રોધ કરશે. માટે હું એમ કરીશ, (એટલા માટે કે) તે દહાડે એ એમની દયા પામે. મારૂ પિતાનું પણ ડું ઘણું અણુ આ પ્રમાણે વળશે.” મારા અકળાએલા હદયમાં આવા આવા વિચારે ઉઠયા અને હું પથારીમાં જઈ પડી, પણ તે રાતે ઉંઘ બીલકુલ આવી નહિ. પછી સવારમાં હું નગરશેઠને પગે પડી અને તારે પૂર્વભવ તને સાંભરી આવ્યાની અને તારા પ્રિયની સાથે તારા ચાલી ગયાની સિા કથા એમને કહી દીધી. પણ એ તે પિતાના અનમ્ર કુળાભિમાનને કારણે, રાહએ ગ્રહાએલા ચંદ્રની પેઠે પિતાનું સો તેજ હારી બેઠા. હાથ ચાળીને એ બેયાઃ “અરેરે ! કેટલું ભયંકર. આપણ કુળ ઉપર આ શું કલંક આવી પડયું! એ ચકલાકને કે શેઠના દીકરાને પણ કશે દેષ નથી, દેષ માત્ર મારી દીકરીને કે જે આમ સ્વછંદ થઈને ચાલી ગઈ. નવી જેમ પોતાના જ કિનારાને ડુબાડે તેમ ભ્રષ્ટ નારીઓ પોતાના કુળની આબરૂને ડુબાડે. અશુદ્ધ પુત્રી ઉંચા અને ધનવાન્ કુળને હાનિ કરે છે, અને એ પોતાના ભ્રષ્ટાચારથી આખા કુળને, તે ગમે તેવું સારું હોય તો ય, કલંક આણે છે, તેથી તે એ કુળને શેભતી નથી. સાચું જ કહ્યું છે કે કલ્પનાનાં સ્વપ્ન ઉપર અને સુંદર મૃગજલ ઉપર જેટલે વિશ્વાસ રખાય એટલો જ વિશ્વાસ ચંચળ અને ચતુર નારી ઉપર રખાય. વળી એમણે કહ્યું: “પણ તે આ બધી વાત મને વહેલી કેમ ના કહી? હું ત્યારે જ એને પરણાવત અને આ સંકટ આવવા ના દેત.”
૧૨૭૩-૧૭૪. “મેં ઉત્તર દીધેઃ “એની કામને સફળ થાય નહિં ત્યાં સુધી એ વાત ાની રાખવા માટે મારે એના જીવના સેગન ખાવા પડયા હતા. હું
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તરરાવતી એ સંતલસમાં ભળી હતી, તેથી મારે પરાણે પણ ચુપ રહેવું પડયું હતું. તેથી શેઠ, મારા ઉપર દયા કરે.”
૧૨૭૫–૧ર૭૯. “ શેઠાણીએ જ્યારે આ બધી વાત સાંભળી ત્યારે એ તે તારા દુઃખના ને વિજેગના વિચારમાં બેભાન થઈ પડયાં. અને એમને પડેલાં જોઈને, નાગણુને ગરૂડના પંજામાં સપડાએલી જોઈને ગભરાએલા નાગરાજની પેઠે, શેઠ પોતે પણ તરત જ છુટે મહએ રડવા લાગ્યા. ભાન આવ્યા પછી શેઠાણું એવું તે હદયભેદક રૂદન કરવા લાગ્યાં કે બીજાં બધાને રોવું આવ્યું. ભાઈઓ ભાઈઓ ને બીજા બધાં, સખી, તું જતી રહી તેથી, ખૂબ રેપીટ કરવા લાગ્યાં. પણ શેઠાણીનું હૈયું નેહાળ, તેથી દીકરીના સ્નેહને કારણે એમના શેકને ને રૂદનને તે પાર જ રહ્યો નહિ, છેવટે એમણે શેઠને કાલાવાલા કરી કહ્યું:
૧૨૮૦-૧૨૮૪. “જે લોક શુદ્ધાચારી હોય છે ને આબરૂદાર મનાય છે એમને પણ દીકરી તરફનાં બે દુઃખ તે હોય છે. વિજોગ ને કલંક. પણ એ સા પૂર્વકમેં કરીને નક્કી થયેલા પ્રારબ્ધને આધીન છે. માણસની ઈચ્છા હોય કે ના હોય, પણ એ પ્રારબ્ધ વડે માણસ સુખદુઃખ પામે છે, તેથી ભૂલ થઈ જાય તેને દોષ લે ના ઘટે; કારણકે કુટિલ કાળદેવતા એને ખેંચી ગયા. પૂર્વભવની વાત એને સાંભરી આવી અને તેથી એક વખતના કર્મનું ફળ એને મળ્યું, ત્યારે તે એની ભૂલ બહુ નાની કહેવાય. અને મારે એ દીકરી ઉપર એ ભાવ છે અને મારા હૈયામાં એ એવી વશી રહી છે કે એના વિના મારાથી જીવાશે નહિં.'
૧૨૮૫-૧૨૮૯, “આવે વચને કાલાવાલા કરીને નગરશેઠની પત્ની પિતાના સવામીને પગે પડી, અને “ઠીક ત્યારે એવું એમની મરજી ના છતાં ય એમની પાસે કહેવરાવ્યું. પછી એમણે કહ્યું: “ધીરજ ધર! એ તારી લાડકી તને લાવી આપીશ; એ બે કયાં ઉપડી ગયાં છે તેની શેઠ પાસેથી ખબર પડશે.” એમ બોલી તારા પિતા પછી રથમાં બેસીને અહીં આવ્યા અને તમને બેને શી રીતે ઘેર પાછાં લાવવાં - એ બાબત શેઠ સાથે વિચાર કરવા લાગ્યા, પણ તે દરમિયાન તારા પિતાના) ખરાબ કુટુંબે તે મને ધમકાવી, આંખે કાઢીને એક લપડાક ચઢી કાઢી ને આમ મને સજા કરી. વળી એ કહેવા લાગ્યા કે “તું એને ત્યાં લેઈ જ કેમ ગઈ?” વળી તમને ખળવાને માટે માણસે મોકલ્યાં અને તમને આવતાં સાંભળીને એ ઐ રાજી થઈ અહી પાછાં આવ્યાં. ”
૧૨૯૦–૧ર૧. (સાવી કહે છે) સારસિકાએ જે બધું જાણ્યું હતું એ સો એણે મને વિગતવાર કહી સંભળાવ્યું. અને પછી મારા સ્વામીએ શા માટે ઉતાવળ કરી હતી ને દાસદાસી વગર અમે કેમ ચાલ્યાં ગયાં એ વાત મેં એને કહી સમજાવી.
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ઓઢપ્રાદ
૧ર૦-૧ર૯૭. મારા પતિએ વિદ્વાન મિની સહાયતાથી એક નાટક રચ્યું હતું. તે નાટક નટીઓ મને ભજવી બતાવે એવી વ્યવસ્થા છેડા દિવસ પછી મારા સસરાએ કરી. આમ અમે આ ભવ્ય મહેલમાં સંબંધીઓ અને મિત્રે વચ્ચે, કમળસરોવરમાંના ચક્રવાકની પેઠે, મહા આનંદે રહેવા લાગ્યાં. અમારાં હૈયાં નેહાન કરીને ગંઠાઈ ગયાં અને અમે પળવાર પણ એક બીજાથી અળગાં રહી શકતાં નહિ, હું જાણે નેહના લાંબા સુખને માટે સરજાઈ હતી તેથી એક પળ પણ જે હું એકલી પડતી તે ય મને એ પળ બહુ લાંબી લાગતી; નાહતાં, ખાતાં, શણગાર સજતાં, સુતાં, બેસતાં, ટુંકમાં સમ કાજ કરતાં, અને અંદરની એકતાને આનંદ ભાગવતાં, તે એટલે સુધી કે અમે માળા પહેરીને, અને સુંગધી પદાર્થો અમારા શરીર ઉપર છાંટીને અને ચેતીને નાટક જોવા જતાં ત્યારે પણ એવી એકતાને આનંદ જોગવતાં. આમ અમે કશી પણ ચિંતા વિના નેહમાં એકવત થઈ રહેતાં.
૧૨૯૮-૧૩૦૮. આમ સુખસાગરમાં તરતાં તરતાં તારાઓ અને ચંદ્રથી પ્રકાશતી રાતેવાળી સુંદર શરદ્ સુખમાં ચાલી ગઈ. પછી શિશિરની રાતે આવી. તે લાંબી થવા લાગી ને ઝાકળ પડવા લાગ્ય, (એ અતુમાં) સૂરજ પિતાને પ્રકાશ ઉતાવળે ખેંચી લેવા લાગ્ય, (ગ્રીષ્મની વિલાસસામગ્રીઓ) ચંદ્ર, ચંદન, મોતીની માળા, કંકણુ, સુતરનાં ને રેશમનાં કપડાં એ સિા મનથી ઉતરવા લાગ્યાં. શિયાળે આવ્યું, બરફ સાથે એની પણ મજા લેતો આવે. ઘેરઘેર નેહીજન અને (ઘેર આવેલા) બધા પ્રવાસીઓ આનંદ કરવા લાગ્યા. ત્યારપછી વસંતમાં ઠંa ચાલી ગઈ ત્યારે સહકાર કુલ (સા પ્રકૃતિમાં) ખીલ્યાં તેની સાથે સનેહનું રાજ્ય પણ ખીલ્યું. તેવારે નારીઓએ કામ પડતાં મેલવા માંડયાં ને ઉતાવળી ઉતાવળી હીંદેળાખાટે ગઈ હિંદેળાખાટને મજબુત બાંધી હોય અને સ્નેહી હાથે કરીને એ હિંદળાય તે વગર ભેએ ખુબ હીંચકો આવે ને ખૂબ આનંદ મળે. અમારા અતુલ, અદ્દભુત અને જેવાજેવા બાગની શેભા નિહાળતાં અમે નંદનવનના દેવજુગલની પેઠે આનંદ કરતાં. (મારા પ્રિય મને કહેતા ) “મદનવાડીના તરૂપ આ ભમરા તે જે. ઝાડનાં કુલ અને બીજી વનસ્પતિ ઉપર, નારી લેકની આંખના કાજળની પેઠે, એંટી બેઠા છે અને વેલીઓ ઉપર (તેમની કળીઓ રૂ૫) ચંદ્રને ( ચંદ્રગ્રહણમાં) ઢાંકી નાખતા રાહુ સરખા દેખાય છે.” આવી શૃંગારિક ઉપમાઓથી મારા સવામી મને આનંદ આપતા અને મારા વાળમાં કુલ બેસતા, જેથી એ બધાંને મિશ્ર સુગંધ નિકળતે. આવું આવું કરવાને લીધે ખીલેલી વનસ્પતિ જોવામાં એમને બહુ મજા પડતી અને આવી રીતે આનંદમાં તથા સ્નેહમાં અમે ગઠીયાં રહેતાં.
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સરગવતી. (૧૦ લૂટારાનું સાધુ થવું.) ૧૩૦૯-૧૩૧૪. (ઋતુઓ બદલાતાં ફરી પાછી વસંત આવી અને પ્રકૃતિની, શોભા નિહાળવા ફરી પાછાં અમે બાગમાં ગયાં.) ત્યાં એક અશોક વૃક્ષની નીચે ચુકેલી પત્થરની બેઠક ઉપર (આપણુ ધર્મના) એક સાધુને નિશ્ચિતમને મોં નીચું રાખીને બેઠેલા જોયા. તરત જ મારા વાળમાંનાં પુલ ખરી પડયાં મેં મારાં અંગ ઢાંકી દીધાં અને મારા મહેને ભાવતા ચૂર્ણ (પાઉડર)ને લુંછી નાખે. મારા સ્વામી પણ સ્વસ્થ થઈ ગયા, એમણે જેડા ઉતારી દીધા ને કુલ મુકી દીધાં, કારણ કે ભભકાભેર પિશાકે મહાપુરૂષ પાસે જવું શેશે નહિ. પછી અમે ઉતાવળે ઉતાવળે એમની તરફ ગયાં, અને કંઈક દૂરથી માથું નમાવી પૂજ્યભાવે, પણ શાન્તિથી, અમૂલ્ય રત્નની પેઠે એમને નિહ. ળવા લાગ્યાં. પછી અમે જરા વધારે નજીક ગયાં, અને માયા, મદ, માહ આદિથી વિરકત, શુભધ્યાનમાં સંલગ્ન અને શરીર તરફ પણ અનાસકત એવી એ ધર્મભૂતિના ચરણમાં અમે અમારી કરાંજલિ અર્પણ કરી. ક્ષણભર અમે પણ એમની આગળ, અવ્યગ્ર મનવાળા થઈ, શાન્તચિત્તે ધ્યાન ધરીને બેઠાં અને પછી જયારે પિતાના ધ્યાનમાંથી મુક્ત થઈ, એમણે પ્રશાન્તદષ્ટિએ અમારી તરફ જોયું ત્યારે અમે ઉભા થઈ વિનયભાવે એમને ત્રણ વાર વંદન કર્યું.
૧૩૧૫-૧૩૧૭. આ પ્રમાણે વંદન અને નમન કરીને તપગુણનો ઉત્કર્ષ ઈચ્છીને એમના શરીર અને જીવનયાત્રાના કુશળ પ્રશ્નો પૂછડ્યા.
૧૩૧૮. એના જવાબમાં તેમણે આશીર્વાદ આપીને કહ્યું કે જ્યાં જવાથી જગનાં બધાં દુખેને અંત થાય છે અને અતુલ તયા અક્ષય સુખ પમાય છે એવું જે નિર્વાણ સ્થાન તે તમને પ્રાપ્ત થાઓ.”
૧૩૧૯-૧૩૨૦. તેમને એ આશીર્વાદ અમે અતિ નમ્ર અને શ્રદ્ધાળુ ભાવે મસ્તકે ચઢાવ્યું અને પછી જરા અને મૃત્યુની પેલી પાર લઈ જનાર કલ્યાણકારક ધર્મને ઉપદેશ આપવાની પ્રાર્થના કરી.
૧૩ર૧. એના ઉત્તરમાં તેમણે જીવ–આત્માનાં બંધન અને મોક્ષ વિષે શાસ્ત્રમાં જણાવ્યા પ્રમાણે ધીરેધીરે સરળતાપૂર્વક આ રીતે ઉપદેશ આપ્યોઃ
૧૩રર-૧૩ર૬. “જગતમાં રહેલા પદાર્થોનાં સ્વરૂપને જાણવાનાં ચાર સાધન છે. ૧ પ્રત્યક્ષ, ૨ અનુમાન, ૩ ઉપમાન, અને ૪ આગમ, આપણી ઇદ્રિાથી જે વસ્તુ જોઈ-જાણી શકાય, તે પ્રત્યક્ષ ગણાય. જે વસ્તુના કોઈએક ગુણધર્મને જોઈ-જાણ તેના વિશેષ સ્વરૂપને નિર્ણય કરે, તે અનુમાન કહેવાય. પ્રત્યક્ષ અગર પરાક્ષ વસ્તુ સાથે કઈ બીજી વસ્તુને સરખાવવી તેનું નામ ઉપમાન હોય છે; અને કઈ શાસ્ત્ર અગર શિક્ષક પાસેથી જે વસ્તુનું જ્ઞાન મેળવવું તે આગમ કહેવાય છે. આ ચાર રીતે બંધ અને મોક્ષનું પણ જ્ઞાન મેળવી શકાય છે.
૧૩ર૭-૧૩૩૪. “હવે આત્મા તે શું છે તે વિચારીએ આત્મા રૂપ, શબ્દ, ગંધ, . રસ અને સ્પર્શ એ ઈદ્રિયગેચર ગુણેથી સદા સર્વદા મુક્ત છે, એ ઇંદ્રિયથી પણ
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કર્મનાં બંધન અગોચર છે. એ અનાદિ અને અનંત છે. જ્યાં સુધી એ શરીરના બંધનથી બંધાયો છે ત્યાં સુધી એ સુખદુઃખ અનુભવે છે, અને ત્યારે (અનુભવે એટલે) - ઇદ્રિવડે નહિ, પણ પ્રત્યક્ષ પ્રમાણ વડે – વિવિધ પ્રકારની સમ્મતિ ઈચ્છા, વિચાર આદિ દર્શાવવા માટે દેહનાં જે હલનચલન થાય છે તેના વડે – પ્રમાણભૂત થાય છે. વિચાર, અહંકાર, જ્ઞાન, સ્મરણ, બુદ્ધિ આદિ સ્વરૂપે એ પ્રકટ થાય છે. સંસારના સ્વભાવ નિયમ પ્રમાણે (પૂર્વ જન્મનાં પુણ્યનાં કે પાપનાં ફળરૂપ) કમ ભેગવત આત્મા હષ કે શેકને, સુખ કે દુઃખને, શાન્તિ કે અશાન્તિ, આનંદ કે ઉદ્વેગ, ભય કે પૈયનો અનુભવ કરતે પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે.
- ૧૩૫-૧૩૩૯ “આત્મા પિતે કરેલાં સારા નરસાં કર્મવડે સંસાર વધારે છે. અને તે ત્રણ રીતે, મનથી, વાચાથી ને કર્મથી. મૂઢ જીવન (માહે કરીને સંસારમાં) લિપ્ત થઈ જતાં કર્મના બંધનમાં પડે છે, પણ મોહથી મુક્ત થઇને સંસા૨માં વસે છે તે તે પોતે કર્મથી અલિપ્ત રહે છે; એ જ તીર્થંકરેએ (આપણુ ધર્મના સંસ્થાપકેએ) એ જ પ્રકારને ટુંકામાં (આત્માના) બંધ અને મેક્ષ સંબધે ઉપદેશ આપે છે. એક બાજુથી આત્મા (અમુક કર્મોથી) મુક્ત થાય છે, અને બીજી બાજુથી (અમુક કર્મોથી) એ બંધાય છે; એ રીતે સંસારપ્રવાહના યંત્રમાં ભમરડાની પેઠે એ ફર્યા કરે છે. સારાં કર્મો એ બંધાય તે (ફળ પાકીને) દેવનિમાં અવતરે છે, મધ્યમ કર્મથી માનવયોનિમાં અવતરે છે, મોહમય કર્મથી પશુનિમાં પુનર્જન્મ પામે છે, ને બીલકુલ ખરાબ કર્મથી નરકમાં પડે છે.
- ૧૩૪૦-૧૩૪૩. “રાગ અને દેશને જે દબાવી દેતું નથી, તે કમના બંધનમાં પડે છે. વળી (પાંચ મહાપાપ, જેવાં કે) પ્રાણાતિપાત, અસત્ય, અદત્તાદાન, મૈથુન અને પરિગ્રહ; તેમજ કૅધ, માન, માયા અને લોભ (તથા વિવિધ પ્રકારની બીજી નિર્બળતા) ભય, તરંગ, કુટિલતા, અપ્રામાણિકતા આહિ, આ બધા દુશુ જ્યારે અજ્ઞાન સાથે ભેગા થાય છે, ત્યારે કર્મના બંધનનું મૂળ દૃઢ બને છે; એમ સારરૂપે તિર્થંકરેએ કહ્યું છે.
૧૩૪૪૧૩૪૬. “તેલ ચાળેલા માથા ઉપર જેમ ધૂળ ચોંટી જાય છે, તેમ રાગ અને દ્વેષના વિચારોએ ખરડાએલા આત્માને કર્મ ચેટી જાય છે, અને તેના પ્રભાવથી આત્મા પૃથ્વી, પાણી, અગ્નિ, પવન, અને વનસ્પતિ જેવી અતિ સૂક્ષમ જીવનએમાં વારંવાર જન્મમરણ કરતે પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે.
. ૧૩૪૭-૧૩૪૮. “સાધારણ રીતે વર્ણવીએ તે (આત્માને બંધનમાં રાખનારાં) કર્મ આ આઠ પ્રકારનાં છેઃ ૧. જ્ઞાનાવરણીય
૫. આયુ ૨. દર્શનાવરણીય
૬. નામ ૩. વેદનીય
૭, ત્ર ' ૪. મેહનીય
૮. અન્તરાય ૧૩૪૯-૧૩પર. “અને જેમ જુદા જુદા દાણાનાં બીજ પૃથ્વીમાં વેરવાથી પિતાની જાત પ્રમાણે જુદાં જુદાં ફળપુલ આપે છે, તેમજ વિવિધ પ્રકારનાં કર્મો
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તરબતી પિતાપિતાની વિવિધતા પ્રમાણે શુભ અશુભ-સારા નરસાં ફળ આપે છે. કર્મકૃત ફળદયનું
સ્વરૂપ દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ, ભાવ અને ભવને આશ્રયે જાણી શકાય છે. દ્રવ્ય એટલે કે (આ વિષયમાં) આત્મા, નક્કી થયેલ ક્ષેત્રે એટલે કે ત્રણ લેકમાં (સ્વર્ગમાં, મર્યમાં અને પાતાળમાં અથવા નરકમાં), કાળમાં એટલે કે ફળને અનુસરી જન્મજન્માન્તરના ફેરામાં ભટકે છે, જેથી એક સ્થિતિ ફરીને બીજી થાય છે અને પૂર્વનાં કર્મને લેઈને નવાં નવાં જીવન ધારણ કરે છે.
૧૩પ૩-૧૩પ૬. “(આત્માના સામયિક શરીરને ધારણ કરતી) સ્થિતિ ઉપર શરીર આધાર રાખે છે, શરીર ઉપર માનસિક કર્મને આધાર છે, માનસિક કર્મ ઉપર અંતકરણને આધાર છે, અંતઃકરણ ઉપર તદ્રુપતાને (ભાવ અને વસ્તુની એક રૂપતાને) આધાર છે, તપતા ઉપર પરિણામને આધાર છે અને પરિણામ ઉપર આત્માને લાગતાં બાહ્ય અને આત્યંતરિક દુખેને આધાર છે. આ દુખે ટાળવાને માટે માણસ આનંદ કરવા જાય છે ને ત્યાં બહુ પાપ આચરે છે આ પાપને લીધે ( કારણકે એનું પ્રાયશ્ચિત્ત કરવાને માટે બીજા દેહ ધરવાજ જોઈએ) જન્મમરણના ફેરા ફર્યા જ કરવાની ઘટમાળને ચાકે બંધાય છે. આમ માણસને પોતાના કર્મને અનુસરીને જાયા પ્રમાણે ગમે તે નરકમાં, ગમે તે પશુનિમાં, ગમે તે માનવજાતિમાં કે ગમે તે સ્વર્ગમાં ભમવું જ પડે.
૧૩૫૭-૧૩૬૧, “(ઉપર બતાવેલી નિઓમાંથી ત્રીજીમાં એટલે માનવજાતિમાં અવતરે તે) માણસને (ઉદાહરણ તરીકે છે. તેના કર્મને અનુસરીને પુનર્જન્મમાં ચંડાળ, ભિલ, અંત્યજ, પારધિ, શક (સિથિયન), યવન (સેમેટિક અને ગ્રીક), બર્બર (વનવાસી) આદિને ત્યાં અવતાર આવે. માનવજાતિમાં જન્મ આવતાં પણ તેને પિતાનાં (પૂર્વ)કર્મને અનુસરી અનંત સુખદુઃખ ભેગવવાં પડે; શરીર અને બુદ્ધિના વિકાશને અનુસરી માણસ ચાકર થઈ દુઃખ ભોગવે કે ધણી થઈ સુખ ભગવે, સંજોગ પામે કે વિજેગ સહે, કુલીનને ઘેર કે કુલહીનને ઘેર અવતરે, જીવનબળ ને જીવનવિલાસમાં આગળ કે પાછળ પગલાં ભરે; લાભ પામે કે હાનિ સહે. એ સો કરતાં પણ વધારે તે એ ધ્યાન રાખવાનું છે કે આત્મા મનુષ્યના જ( સ્વર્ગના કે બીજા કેઈમાંથી નહિ) અવતારમાંથી સર્વ દુઃખને અંત આણનાર માક્ષને પામી શકે.
- ૧૩૨-૧૩૭૧. “હવે આ મોક્ષ સંબંધે સંસારમાંને અજ્ઞાન ઝાંખરાંએ પુરાઈ ગયેલ જે માર્ગ તે તીર્થકરેએ સમ્યગૂ જ્ઞાન તથા શુદ્ધ છવને કરીને ઠેઠ મેક્ષ સુધી ચેક કર્યો છે. પૂર્વકાળથી પિતાને વળગી આવેલાં કર્મને (જીવના જન્મજન્માન્તરના માગમાં એના ઉપર લાગેલા કર્મસંસકારને ) આત્મસંયમ વડે જે દબાવે છે અને (રહી ગએલાં અથવા વધતાં જતાં) બાકીનાં કમને સંયમ વડે નષ્ટ કરે છે. એ જ્યારે (માનવદેહમાંથી મરીને) પિતાનાં સર્વ કમનો ક્ષય કરે છે ત્યારે તે કર્મમુક્ત થાય છે અને પરમપવિત્ર બને છે. નિમેષમાત્રમાં એ ઉંચામાં ઉંચું સ્થાન પ્રાપ્ત કરે છે, અને ફરી
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મેક્ષ
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જન્મવાના દુઃખથી અને ચિંતાથી મુક્ત થઈને, અવિચળ પવિત્રતા ભાગવે છે. વિવિધ ચેનિમાં અવતાર આપનાર કર્મથી મુક્ત થતાં આત્મા પવિત્ર બનીને ઉપાધિના પજામાંથી છુટી પેાતાની મેળે જ ઉંચે ચઢે છે, સર્વોત્તમ દેવાના (પ્રદેશેાના) ઉપર એ પવિત્ર પ્રદેશ આવેલા છે, તે પ્રભાતના જેવા પ્રકાશે છે અને સેાના તથા શ`ખ જેવા સ્વચ્છ છે. ત્રિલેાકને શિખરભાગે એ અવસ્થિત છે અને રત્નનિર્મિત છત્રના જેવા આકાર ધારણ કરે છે. અને હાઇ સિદ્ધક્ષેત્ર, કોઇ પરમપદ, કોઇ અનુત્તરસ્થાન અને કાઇ બ્રહ્માક કહે છે. અખિલ જગતને શિરાભાગે આવેલા એ સ્થાનની ઉપરે. સકથી વિમુક્ત થએલા સિંદ્ધાત્માઓને શાસ્ત્રત વાસ હાય છે. એ સિદ્ધાત્માએ સર્વ કમાંથી મુકત હોય છે, શગદ્વેષના સંસ્કારાથી અલિપ્ત હોય છે. પાપ અને પુણ્યની પેલે પાર ગએલા હોય છે. સુખદુ:ખના વિકારાથી અસ્પૃષ્ટ હાય છે. અનતજ્ઞાન અને શક્તિથી પરિપૂર્ણ હોય છે. એ સિદ્ધાત્માએ ફરી વાર કયારે પણ પુનર્જન્મને પ્રાપ્ત થતા નથી. એક આત્મજ્યેાતિમાં અનંત આત્મજયેતિએ સંમિલિત થાય તાપણુ તેમના સ્વરૂપા સ્થાનમાં કોઇ પણ પ્રકારના સ`કાચ કે વિસ્તાર થતા નથી.”
૧૩૭૨-૧૩૦૭૪. (સાધ્વી તરગવતી એ શેઠાણી આગળ ખેલે છેઃ) સાધુના આ ઉપદેશથી હું તેા એક પ્રકારના આનદમાં ડુબી ગઈ, ને હાથ કપાળે લગાડીને ખેલી: · અમે આ ઉપદેશને કારણે આપનાં અત્યત ઋણી છીએ.' મારા પ્રિયે તે એમને અચળ શ્રદ્ધાથી નમસ્કાર કરી કહ્યું: ‘આપ જગતના બંધનથી મુક્ત થઈ ગયા છે, ધન્ય છે આપને. જે આપને સા સાંભરતું હાય તે આપ એ સાધના શી રીતે સાધી શક્યા છે, તે પણ મને કહેા. મારી ઉત્કંઠાને માટે, હે મહાત્મા, મને ક્ષમા આપશે.’ ૧૩૭૫. તીર્થંકરાના ધર્મમાં પારંગત થયેલા એ સાધુએ પેાતાના જીવનની કંથા માનદમય શાન્તિએ મીઠી અને શાન્ત વાણી વડે આ પ્રમાણે કહી:
૧૩૭૬-૧૩૮૪. ભૈ’સ, સાપ, ચિત્તા અને જગલી હાથીએ જ્યાં વસે છે એવા ભયકર વનપ્રદેશમાં આવેલા ચ’પાપ્રાન્તની ધારે પારધિએ રહેતા હતા, તેઓ વનમાં સ'હાર કર્યો કરતા; તેમનું સંસ્થાન યમરાજના ગુપ્તવાસ સ્વરૂપ હતું. તેમની જોબનવંતી
ન્યાએ રાતા રંગનાં વસ્ત્ર પહેરતી અને વળી એમની નારીએ જુવાન હાથીઓના દાંતવડે હથિયાર બનાવવાનું કામ કરતી. હું પણ પાછલા ભત્રમાં ત્યાં પાધિ હતા અને હાથીઓના શિકાર કરતા. વનમાં જીવન ગાળતા ને માંસ ખાતા; મારા સફળ ખાણુવેધનાં લાક વખાણ કરતા અને તેથી મને ‘સિદ્ધમાણુ’ કહેતા. મારા પિતા પણ પાધિ હતા, એ પેાતાની નેમ ઢી ચુકતા નહિ; પાતાના ધંધામાં કુશળ હોવાથી એમને લેાક વ્યાધરાજ' કહેતા. મારી માતા મારા પિતાની માનીતી હતી ને તે તે પણ એક પારધિની પુત્રી હતી. વનનુ ભય'કર અને અભિમાનભર્યું સાન્વય તેનું પાતાનુ જ હતું, એથી લાક એને ‘વનસુંદરી' કહેતા.
૧૩૮૫–૧૩૯૩, ‘જુવાનીમાં એકવાર મે' મારૂ' તીર એક હાથી ઉપર તાથુ,
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તરાવતી ત્યારે મારા પિતાએ મને શીખામણ આપીઃ “આપણા કુળમાં જે આચાર પળાય છે તે તું સાંભળ. પ્રજા ઉત્પન્ન કરી શકે એવું હોય ને ટેળાને નાયક હોય એવા ભવ્ય હાથીને તારે મારે નહિ. વળી પિતાનાં બચ્ચાંનું રક્ષણ કરવાને સ્નેહવશ થઈને પારધિનો ભય કર્યા વિના બચ્ચાની સાથે ચાલે છે એવી જે હાથણે તેને પણ બચાવવી. તેમજ હાથીનું જે બચું હજી ધાવતું હોય તેને પણ મારવું નહિ, કારણ કે નાનાને મેટું થવા દેવું જોઈએ. વળી કઈ નર તથા માદા નેહવશ થઈને દૈવજોગે આગળથી જ સંગ કરતાં દેખાય, તે તારે એ બેને વિખુટાં નહિ પાડવાં, કારણકે તેમના સ્નેહસભેગથી બચ્ચાં થાય છે. આજે આપણે કુળને આચાર છે તે તારે પાળ જેઈએ, જે એ આચાર ઓળંગે છે તે અને તેના કુટુંબીઓ નાશ પામે છે. (હાથીનાં બચ્ચાંને મારવાં નહિ અને તેના વંશને બચાવવો જોઈએ. આ શીખી લે અને (પછીથી) તારા પુત્રને પણ શીખવજે.” આ ભાવનાએ જ હું મારે ધંધો ચલાવતા હતા અને ગાઢા જંગલમાં રસ્તો કાપતા અને ગુંડા તથા જંગલી બળદે તથા જંગલી ભેંસે તથા હર તથા હાથીઓ તથા સુવરની પાછળ પડતે.
૧૩૯૪-૧૪૨૦. “સરખા ઘરની એક જુવાન ને સુંદર કન્યા સાથે મને મારાં માબાપે પરણ. એ મને સ્નેહાનંદ આપતી. એ રંગે શ્યામળી હતી, એનાં સ્તન કામદીપક હતાં, નિતંબ ભારે હતા અને ચંદ્રમાના હાસ્યથી પ્રકાશ પામતું હોય એવું એનું મુખ હતું. એની આંખે રાતા કમળ જેવી હતી અને જુવાનીના જોરથી એનું કલેવર ખીલી ઉઠેલું હતું. ટુકામાં, એની વિશુદ્ધ સુંદરતાને લીધે અને એના સનેહને બળે મારી જુવાનીમાં એ મારા મહાભાગ્ય રૂપ બની રહી હતી. વનનું આવું મનગમતું રત્ન જેની પાસે હોય તે શિકારના આવા ખજાનાથી સંતોષ પામ્યા વગર કેમ રહે! મારી પારધણના મેહભર્યા આલિંગનમાંથી છુટી સવારમાં ઉઠતે અને પછી મદિરા અને રતિકીડાના ઉપભેગથી જે કંઈ થાક ચઢ હોય તેને દૂર કરી અમારા પારધિલેકની દેવીની પ્રાથના કરવા જતે. પછી ખાનપાન કરી તાજો થઈ પાછો મારા લોહીથી ખરડાએલે ધધે લાગી જતા.
૧૪૦૧-૧૪૧૪. “એક દિવસ ઉનાળામાં મેં ધનુષબાણ લીધાં, ભાથું લટકાવ્યું ને રસ્તે પડયે. કાન પાછળ વનકુલ ખસ્યાં હતાં ને પગમાં પાઘડી પહેરી હતી. એવી રીતે હું વનહાથીની ધમાં નિકળે, અને આખરે (ખાધાપીધા વગર ને કંઈ શિકાર મેળવ્યા વિના) તાપે ને દુઃખે નબળા પડી જઈ આખા વનમાં રખડતે રખડતા ગંગાનદી સુધી જઈ પહોંચ્યો. ત્યાં સ્નાન કરીને તરતનો જ નિકળેલે પર્વત જે હશે માત્ર એક જ હાથી મેં જે. હું જાણી ગયે કે એ મહાજીવ ગંગાની ઝાડીમાંને ના હાય, કારણ કે ઝાડેથી ગાઢી થયેલી આ ઝાડીમાં એને હતા એવા સુંદર વાળ (વાળા હાથી) મળી શકે એમ નહોતા. તેથી એ હાથી બીજા કેઈ વનમાંથી આવેલ હોય જોઈએ; એને દાંત તે હતા નહિ, તોપણ એ સર્વોત્તમ શિકાર હોવાને માટે એને માર
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સાધુની આત્મકથાઃ પારધિના આત્મત્યાગ
નેઇએ, તેથી પારધિના નિયમ પ્રમાણે ખરાખર એકાગ્ર થઇને એ હાથી ઉપર જીવનસૌંહારક માણુ ચું. પણ તે ખણુ કંઇક ચુ' નિકળી ગયું ને હવામાં ઉડયું; એ ખાણુથી એ હાથી ન વિધાતાં એક ચક્રવાક વિધાઈ પડ્યા. દુઃખથી પોડાતા એ ચક્રવાકની એક પાંખ તુટી પડી અને પળવારમાં એ જંળપટ ઉપર આવી પડચા. પાણી જાણે રક્તસાગરમાંનું હોય એમ રાતુ' થઈ ગયું. એની નારી, રૂદન કરતી એના કલેવર ઉપર આમ તેમ ઉડવા લાગી. એથી મને પણ રડવું આવ્યું ને હું મેલ્યાઃ અરેરે, સ્નેહી જોડા ઉપર મે... આ શું દુઃખ આણ્યું!' પતિ હજી જીવતા છે એ ભ્રમમાં એણે મારૂ ખાણુ ઘામાંથી ખેચ્યું. એટલામાં તા હાથી અદૃશ્ય થઇ ગયા. મે એ ૫ખીને ત્યાંથી ઉપાડી રેતીને કિનારે મુકા અને પછી ઘેાડી વારે સહાનુભૂતિ સાથે એના અગ્નિસંસ્કાર કર્યાં પશુ એટલામાં તે મે' જે અગ્નિ સળગાખ્યા હતા તેમાં એની ચક્રવાકી પેાતાના સાથીના સ્નેહુબ ધ નથી તાઈને પડી, અને એની સાથે મળી સુઈ.
૧૪૧૫-૧૪૨૨. એ જોઈને મને ભયંકર પિરતાપ થયેા (ને વિચાર આવ્યે ); આવા સુખી જોડાના મેં શા માટે નાશ કરી !' હું વિલાપ કરવા લાગ્યુંઃ ‘અમારા કુળધર્મના નિયમ મેં પાળ્યા છે અને છતાંયે, અરેરે, આજે આ બીજના (જેમાંથી ફળ પેદા થઇ શકે તેના ) નાશ કર્યાં. આવા વિહારથી અને આવા કુળધર્મથી મને તા તિરસ્કાર છુટે છે. મારાથી આવુ' જીવન જીવાય શી રીતે? આ જીવન કરતાં તે મરવુ" બહુ !' આમ આપધાત કરવાની મને પ્રબળ ઈચ્છા થઈ આવી અને તેના આવેશમાં મે' પણ ચક્રવાકીની પાછળ અગ્નિમાં પડતું મેલ્યું ને મારા પાપી શરીરને ખાળીને ભસ્મ કર્યું. હું મારા કુળધર્મને સખ્ત રીતે વળગી રહ્યા હતા, અને વળી મને માશ ક્રમના પરતાવા થયા હતા, તેમજ મારા એ જન્મની પૂર્ણતાથી ખેદ થયા હતા. આ કારણથી, પશ્ચાત્તાપને લીધે પ્રાપ્ત થએલા શુભકર્મના ફળથી-એ શરીરને નાશ થતાંની સાથે જ નરકમાં પડવાને બદલે, ગંગા નદીને ઉત્તર કિનારે એક ધનવાન વ્યાપારીને ત્યાં મારા જન્મ થયા.
૧૪૨૩-૧૪૨૭, “ અનેક ખેડુતેાની વસ્તીવાળા, ફળદ્રુપતાએ વખણાએલા અને ઉત્સવથી ભરપુર એવા બહુ વિશાળ કાર્ડ નામે દેશ છે. કમળસાવર ઉપર અને ખાગમાં આનદ કરવાને અનેક પ્રવાસીઓ અહીં આવે છે. સાગરરાણી ગગાનદી કાંઠે દ્વારવતી સમાન વારાણસી નગરી એ દેશમાં મુખ્ય નગરી છે, ગંગા નદીના મેાજા એ નગરીને કિલ્લા સમાન છે. એમાં અનેક મેાટા વ્યાપારીઓ વસે છે. તેમની સ્ત્રીએ મમૂલ્ય આભૂષણેાથી કલ્પવૃક્ષ જેવી શણગારાએલી રહે છે. અકેકે વ્યાપારી લાખાને હિસાબે માલ વેચે છે ને ખરીદે છે. એમની હવેલીએ અલગ અલગ છે, તેથી તેમનાં આંગણાંમાં જ નહિ પણ ( હવેલીઓની) વચ્ચે લાંબે રાજમાગે પણ વાતાવરણમાં થઇને ઠેઠ જમીન સુધી સૂરજ પેાતાનાં કિરણ ફૂંકી શકે છે.
૧૪૨૩-૧૪૪૦. “ અહીં ( એક વ્યાપારીની આવી હવેલીમાં ) મા
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તરંગવતી જન્મ થયો અને મારું નામ રૂદયશસુ પડ્યું. રિવાજ પ્રમાણે લેખન આદિ વિવિધ કળાએ શીખે. પણું શેડા જ સમયમાં ઉડાઉ બનાવનાર, કલંક લાવનાર, હુંકામાં બધા દુર્ગણ વસાવનાર જુગારની રમત તરફ મારું વલણ થયું. એ રમત કરીને (વ્યાપારી વર્ગના) હલકા કે અનેક રીતે નષ્ટભ્રશ થઈ જાય છે અને છળકપટમાં નિર્દય અને જિતવાને માટે ગાંડા બની જઈને બધા સગુણેને વિસારી મુકે છે. આ જુગારના મોહમાં હું પડશે અને અંતે ચેરી કરવા લાગે અને એથી મારો કુળપર્વત દાવાનળની પેઠે બળવા લાગ્યો. ઘર ફાડવાં ને જાત્રાળુઓને લૂટવા એ મારે ધ છે થઈ પડી ને મારાં આવાં કર્મને લીધે મારાં(કબીએ)ને નીચું જેવા પ્રસંગ આવ્યું. એવી રીતે (એકવાર) બીજાઓનું ધન લૂટવાને ઈરાદે રાતે હાથમાં તલવાર લેઇને રાજમાર્ગો નિકળી પડયો, પણ નગરમાં આ વાતની જાણ થઈ ગઈ અને હરામખરને જીવ હવે સલામત નહોતે એમ જોઈને હું ખારીકવનમાં નાશી ગયે. વિધ્યાચળની વિભૂતિ સમાન એ વનમાં અનેક જાતને શિકાર મળી શકે એમ હતું, પંખીઓનાં પુષ્કળ માળા હતા તથા લૂટારાની પુષ્કળ ગુફાઓ હતી. વિવિધ પ્રકારનાં ઝાડની ઘટા સિને અંધારામાં ઢાંકી દેતી. વિધ્યાચળની અંદરની બાજુએ આવેલી આવી એક ગુફામાં હું આવી પહોંચે. એને એક જ બારાડ્યું હતું અને એ ગુફાનું નામ સિંહગુફા હતું. ત્યાં હથિયારબંધ મજબુત માણસે રહેતા તે વેપારીઓને ને વણજારાને લૂટી આનંદ કરતા. એ એમના ધંધામાં અને બીજી એવી અનેક કળાઓમાં તથા હળીમળીને કામ કરવામાં ખૂબ પ્રવીણ હતા. પણ છતાં યે એમાં કેટલાક એવા પણ હતા કે જેમાં બ્રાહ્મણૂથમણને, સ્ત્રી બાળકને અને ઘરડાંમાંદાંને સતાવતા નહિ. લૂટતાં હજારવાર ઘા પણ ખાતા, છતાં એ એકંદર રીતે એમનો ધંધો સારી રીતે ચા જતો. આ ટારાઓમાં હું પણ એક લૂટારા તરીકે દાખલ થઈ ગયે.
૧૪૪૧-૧૪૫૦. “ભલ્લપ્રિય (ભાલે પ્રિય છે જેને એ) નામે એક જણ એ મંડળને નાયક હતો, એ હમેશાં પિતાના મજબુત હાથમાં ભાલે ઝાલી રાખતે, હો કરવામાં સાહસી હતો અને સર્પની પેઠે સર્વને ભયંકર હતા. પોતાના હજારે લૂટારાને પિષવાને અને પિતા પ્રમાણે તેમનું રક્ષણ કરવાને એ અજાણ્યા ધનવાનેને ખબ સતાવતે. પિતાના બાહુબળને કારણે એ ઘણે પ્રખ્યાત થયે હતા અને તેથી લૂટારાઓમાં નાયક તરીકે બહુ માન પામ્યું હતું. એની પાસે મને લઈ જવામાં આવ્યું. મારી સાથે એણે માયાથી વાતચિત કરી, તેથી બીજા લૂટારા પણ મારી સાથે આદરથી વર્તતા, આથી હું ત્યાં વિના હરકત ને આનંદે રહેવા લાગ્યો. ઘણાં ધીંગાણાંમાં મેં મારું ખબ શિય બતાવ્યું ને તેથી મારો મોભે ને માન વધ્યાં અને આ રીતે આખરે હું એક નામી લૂટારે ગણવા લાગ્યો. જુદ્ધ હોય કે ના હોય, અમે નાશી જતા હોઈએ કે કેઈની પાછળ પડયા હોઈએ, પણ હું હમેશાં નાયકની બાજુમાં જ રહેતે, અને મારા સબતીએ મને “શક્તિધર “નિર્દય,” “જમદૂત આદિ નામે ઓળખતા. શત્રુને હું ચીરી
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સાધુની આત્મકથાઃ લૂટારાન
નાખતા, મિત્રાને બક્ષીસ આપતા અને જુગાર રમતી વખત પશુ મુકતે, એવી રીતે બહુ કાળ સુધી મે એ લૂટારાઓની સાથે યમદેવના ખભા હુલાવ્યા.
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સરતમાં મારી જાતને ગુફામાં મારા સાથીએ
** ૧૪૫૧-૧૪૫૫, એકવાર અમારી એક ટાળી અમારા એ નિત્યકન્ય ઉપર ગઈ હતી ને ત્યાંથી લૂટમાં એક જુવાન જોડાને ઘેર લેઈ આવી. એ વાતની ખખર થતાં, એમને જોયા પહેલાં જ કાળીની સ્તુતિ થવા લાગી ને એમને (અમારા) સરદાર પાસે આણ્યાં.. એ સ્રીપુરૂષને જ્યારે એણે જોયાં, ત્યારે તેઓએ પેાતાની સુરતાને લીધે એનુ હૈયું હરી લીધું. એણે નિશ્ચય કર્યો કે આ અપ્સરાશી સુદરીના કાળીને લેગ આપવા. કાળીની બીકથી એને પોતાની સ્રી મનાવવાની એની હિં`મત ચાલી નહિ, પણું મનમાની રીતે લૂટારાઓને દાગીના તેા લેઈ લેવા દીધા અને એ જોડા પાસે જે કંઈ કીમતી ચીજ હતી તે સા એણે એમને સોંપી દીધી.. ૧૪૫૬–૧૪૬૧. “ સરદારે મને કહ્યુ: આ મહિનાની નવમીએ એ એને કાળીને ભાગ આપવાના છે.’. પછી મને . એમના ઉપર ચેકી કરવા રાખ્યા, અને મરણચિંતાને લીધે એ બે જણ આંસુભરી આંખાએ ખાવરાં જેવાં થઈ ગયાં, ત્યારે હું એમને મારા ઘરમાં લેઈ ગયા, એ પુરૂષને મેં તાણી બાંધ્યા તેથી તે સ્ત્રી પાતાના સ્વામી ઉપરના સ્નેહને લીધે ભયંકર વિલાપ કરવા લાગી ને છાતીફાટ ચીસેા પાડવા લાગી. એથી બીજી કેદ પકડાએલી ને જીવનથી નિરાશ થઈ ગયેલી સ્ત્રીઓ ત્યાં ટાળે મળી ગઇ ને દયાભાવે ને આકાંક્ષાએ એમને પુછવા લાગીઃ ૮ ક્યાંથી આવા છે ને કયાં જતાં હતાં ? લૂટારાના હાથમાં કેવી રીતે પડત્યાં ?
"
૧૪૬૨–૧૪૭૧, “ આંસુભરી આંખે ડુસકાં ખાતાં એણે ઉત્તર આપ્યા. અમે અહીં શી રીતે આવ્યાં એનું દુઃખભર્યું વર્ણન પહેલેથી સાંભળે. સુંદર ચપાનગરવાળા વનમાં ગ‘ગાને કાંઠે અમે ગેરૂઆ રગનાં ચક્રવાક પખી હતાં. આ મારા સ્વામી તેવારે મારા ચક્રવાક હતા અને હુ' એમની પ્રિય નારી હતી. અમે ગંગા ઉપર કુશળતાએ તરતાં અને માજાના રેતીકિનારા પેઠે શણગારરૂપ હતાં. એકવાર એક પારધિ ધનુષમાણુ લેઇને આવ્યા અને એણે એ જ ગલી હાથીને મારવા જતાં એમને મારી નાખ્યા. (આ અપકૃત્યને કારણે) ખેદ કરતાં કરતાં એણે એમના મૃતદેહને અગ્નિદાહ દેવા માટે કિનારા ઉપર અગ્નિ સળગાવ્યેા. સ્વામીની પાછળ જવાને માટે મેં પાતે પણ એ અગ્નિમાં પડતું મેલ્યું. એમ મરી ગયા પછી જમુનાને કિનારે આવેલા સુંદર કૈાશામ્બી નગરમાં નગરશેઠને ઘેર હુ તા કન્યારૂપે અવતરી, અને તે જ નગરમાં ત્રણ સમુદ્ર પાર પ્રખ્યાત થયેલા શેઠને ઘેર આ મારા પ્રિય નવા અવતારમાં પુત્ર થઈને અવતર્યા. (મોટાં થતાં.) અમે ચિત્રવડે એક બીજાને ખોળી કાઢ્યાં, એમણે મારૂં' માનુ` કરાવ્યું, પશુ મારા પિતાએ એ માણુ પાછુ વાળ્યું. મેં એમની પાસે હતી માકલી અને પછી એક વારના સ્નેહથી પ્રેરાઇને રાતને અંધારે હું પાતે પણ મારા પ્રિયની હવેલીએ ગઇ.
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તરસાવવી. અમને અમારાં માબાપની બીક લાગી, તેથી મછવામાં બેશી નાશી ચાલ્યાં ને પછી ગંગાને રેતીકિનારે લૂટારાને હાથે પકડાઈ ગયાં.”
૧૪૭૨-૧૪૭૮. “એ રીતે એ જુવતીએ પોતે અનુભવેલી પિતાની સુખદુઃખભરી સે કથા રેઈઈને એ પકડાએલી સહભાગિનીઓને કહી સંભળાવી. પણ મને એ વર્ણનથી મારા પૂર્વભવની વાત સાંભરી આવી ને તેથી હું બેભાન થઈ ગયે. જ્યારે મને પાછું ભાન આવ્યું ત્યારે તે (ભવના) મારા પિતા, મારી માતા તથા પત્ની અને તે વખતને મારે સિત અનુભવ તેમજ (તે કાળે હું પાળતું હતું તે) કુળધર્મ પણ મારા મન આગળ તરી આવ્યું. અને તે સ્ત્રીએ તેના (પિતાના મૃતિ-). વપ્નમાં જે જોયું હતું તે હું સમજી ગયે, તેથી મારું હૈયું દયાથી અને ભલી લાગણીથી (એ જેડા તરફ) નરમ બની ગયું. હું જાણી શકો કે જેનું મેં વગર વિચારે મેત નિપજાવ્યું તે ગંગાના શણગારરૂપ ચક્રવાકનું જોડું આ જ છે. હવે આ સંકટમાં આવી પડેલા સ્નેહજુગલને ફરી તે મોતના મોંમાં મુકી શકું નહિ. એકવાર કરેલી એ હિંસાને બદલે મારા જીવનને જોખમે પણ આપ જોઈએ. એ બંનેને હું ઉગારી લઈશ અને તે રીતે હું શાનિ પામીશ.
૧૪૭૮-૧૪૮૨. “આ ઠરાવ કરીને હું ઘરમાંથી નિકળે અને તે પુરૂષના બંધ ઢીલા કરી નાખ્યા. પછી મેં પિતે કેડ બાંધી કટાર તથા તલવાર લીધી અને રાત્રે તે કેદીને અને તેની સ્ત્રીને લૂટારાની ગૂફામાંથી બહાર કાઢયાંને ભયંકર જંગલમાં થઈને એક ગામ સુધી સુકી આવ્યું. જુદા પડ્યા પછી સંસારથી વિરક્ત થઈને મેં હૈયામાં વિચાર્યું
૧૪૮૩-૧૪૮૬. મેં “લૂટારાઓને અપરાધ કર્યો છે તેથી હું એમની પાસે તે પાછા જઈ શકું નહિ. એ જમદૂત સરદારની આંખ સામે હવે ફરી હું શી રીતે જઈ શકું? વળી મેં લોભે ને વિલાસવાસનાએ જે કર્યું છે એ સા મહાભયંકર પાપ છે, માટે હવે તે એમાંથી મોક્ષ મેળવવાને માટે મારે પ્રાયશ્ચિત્ત કરવું જોઈએ. વિલાસની માયામાં પીને જે બીજાની હિંસા કરે છે તે પિતાની મૂર્ખતાએ કરીને (મનગમતું) વધારે દુઃખ માગી લે છે, જે મમતામાયામાંથી મુક્ત થઈ શકે છે, સ્ત્રીઓના પ્રપંચજાળમાંથી સરકી શકે છે અને પ્રેમનાં બંધનથી છુટો રહી શકે છે એ જ સુખી થઈ શકે છે અને સુખદુઃખમાં સમાન રહી શકે છે.'
૧૪૮૭-૧૫૦૦. “આ વિચાર કરીને હું ઉત્તર તરફ (અથવા પાછે પર્વત સરક) ચા, મેં સંન્યસ્ત લીધું ને (સાંસારિક) વાસનાઓને ત્યાગ કર્યો. દેવનગરી અલકાપુરીનાં તાલવનાની યાદ આપતી “પૂર્વતાલ” (નામની નગરી) જઈ પહેરશે. નગરની દક્ષિણ બાજુએ કોઇપણ માનવાટિકા કરતાં પણ સુંદર, અને માત્ર વર્ગના નંદનવનની જ સરખામણીમાં મુકી શકાય એ એક બાગ છે. એની લીલોતરી, કુલ અને ફળની શેભાએ કરીને હદયને આનંદ આપે છે. ભમરાનાં ટેળાંએ અને પંખીના
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સાધુની આત્મકથા લૂટારાને ગષભપ્રતિમાનાં દર્શન. ગાન કરીને પૃથ્વીના સિા બાગને જાણે અહી સાર ખેંચાઈ આવ્યું હોય એવું લાગે છે. માત્ર ખામી એટલી જ છે કે પંખીના ગીતને અને ભમરાના ઉડવાને મધુર સુર (ત્યાં ભરાતાં) માણસની વાતચિતના ગણગણાટમાં ભળી જાય છે. એ ઉદ્યાનમાં, ધોળાં વાદળાંમાંથી નિકળતા સૂર્યના વિમાન જેવું ભવ્ય અને ચળકતું દેવમંદિર મારી દષ્ટિએ પડયું, તે લાકડાના કેતરકામ વાળું અને સે થાંભલા ઉપર ઉભું કરેલું હતું. એના પ્રાંગણમાં શ્રદ્ધાળુ જાત્રાળુઓ દ્વારા કુલ, ફળ, પત્ર, માળા અને ચંદન વિગેરેથી પૂજાએલ અને વસ્ત્રખંથી વિભૂષિત થએલ રમણીય ન્યધ વૃક્ષ શેલી રહ્યું હતું. પ્રથમ તે મેં એ દેવમંદિરની બહારથી પ્રદક્ષિણા કરી અને પછી એ પવિત્ર વૃક્ષ નીચે જઈ ઉભે રહે. એની નરમ પાંદડાંવાળી ડાળીઓ ચારે બાજુ પ્રસરી હતી અને મીઠી મધુર પત્રશોભા આપતી હતી. ત્યાં ઉભેલા એક જણને મેં પુછ્યું: “આ બાગનું નામ શું? અને કયા દેવની અહી સ્થાપના છે? મેં ઘણું ઘણું સ્થાને અને સ્થળે જોયાં છે, પણ કયાંય કદી મેં આવે બાગ તો જોયા નથી.”
૧૫૦૧-૧૫૦૬. “હું કે પરદેશી છું એવું એ તુરત કળી ગયે ને તેથી તેણે ઉત્તર આપેઃ “આ બાગનું નામ શકટમુખ છે. પૂર્વે ઈવાકુ કુળના મુકુટમણિ સમાન અષભ નામે રાજા થઈ ગયા. તેઓ હિમાચળથી લઈ સાગર સુધી પ્રસરી રહેલી પૃથ્વીના સ્વામી હતા. જન્મમરણની જાળમાંથી છુટવા માટે જ્યારે તેઓ એ સર્વ અદ્ધિસમૃદ્ધિને ત્યાગ કરી તપસ્યા તપતા હતા ત્યારે આ વૃક્ષ નીચે તેમને અનંત અને અક્ષય એવું કેવલ્ય જ્ઞાન પ્રાપ્ત થયું હતું. એટલા માટે આ પરમ પવિત્ર સ્થાન મનાય છે અને એથી જ અદ્યાપિ કે એની પૂજા કરે છે. આ મંદિરમાં પણ એ જ યુગાદિદેવ અષભતીર્થંકરની પ્રતિમા સ્થાપિત થએલો છે? - ૧૫૭-૧૫૮૯ “આ સાંભળીને મેં પણ એ ઝાડની અને મૂત્તિની વદના કરી. ત્યાર પછી આસન વાળીને ઉંડી શાન્તિમાં બેઠેલા એક સાધુને-મહાપુરૂષને મેં ત્યાં જોયા. એમણે પાંચે ઈદ્રિયને પિતાની અંદર વાળી દીધી હતી અને તેમના સર્વે વિચારે ધ્યાનમાં અને આત્મસંયમમાં વળી ગયા હતા. હું ત્યાં ગયે ને જેમના હદયમાંથી સો પાપવાસના ચાલી ગઈ છે એવા એ પુરૂષને પગે લાગે. પૂજ્યભાવે હાથ જોડીને હું બે
૧૫૧૦-૧૫૧૧. ““હે પરમપૂજ્ય, રાગ અને દ્વેષને નાશ કરવા, ધનજનને મેહ છોડવા અને પાપપ્રવૃત્તિઓમાંથી નિવૃત થવા માટે હું આપને શિષ્ય થવા ઈચ્છું છું. જન્મમરણનાં વમળ જ્યાં ઘેરાય છે. મૃત્યુ બંધન ને વ્યાધિરૂપી સમુદ્ર રાક્ષસ જ્યાં પ્રવર્તે છે એવા સંસારસાગરથી તમારું શરણરૂપી શઢ લઈને તરી જઈશ.' - ૧૫૧૨–૧૫૧૩. “કાનને ને હૃદયને મધુર લાગતે સુરે એ બોલ્યાઃ “મરતા સુધી સાધુને ધર્મ પાળ ને ભાર વહે એ કંઈક કઠણ છે. ખભે કે માથે જડ વસ્તુને ભાર વહે એ માણસ માટે બહુ સહેલું છે, પણ ધમને ભાર વહન કરે ઘણું કઠણ કામ મનાય છે.”
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સરગવતી. ૧૫૧૪-૧પ૧૫. મેં ઉત્તર આપે છવનના એક કે બીજા હેતુ માટે અથાત) આનંદ, પવિત્રતા કે લાભની ઈચ્છા જેને હોય તે જે નિશ્ચય કરે તે એને કયું વસમું નથી. ગૃહસ્થાશ્રમમાંથી નિકળી સાધુજીવન ગાળવાને મેં નિશ્ચય કર્યો છે, કારણ કે એથી જ દુઃખ ટળશે.”
૧૫૧૬-૧૫૨૪. “પછી મને એ સાધુએ જીવને તારનાર અને જન્મમરણમાંથી મુક્તિ અપાવી મોક્ષે લઈ જનાર વિતરાગ દીક્ષા આપી. આ સાધુધર્મ પંચમહાવત સ્વરૂપ છે, તેથી તેનું રહસ્ય, અને વિનય, પ્રત્યાખ્યાન, પ્રતિકમણ, સમ્યભાષણ વિગેરે આચારવિચાર એમણે મને સમજાવ્યા. ત્યાર પછી ક્રમથી મને જેન આગમને અભ્યાસ કરાવ્યું એમાં સિાથી પ્રથમ હું ઉત્તરાધ્યયનરૂપે ગણાતાં ૩૬ અધ્યયને શીખે. એ અધ્યયનમાં બ્રહ્મચર્ય, ગુણિ, કર્મ વિગેરેનું સ્વરૂપ બતાવેલું છે. એના પછી આચારાંગસૂત્ર ભયે, એમાં મુકિતમાર્ગ બતાવનાર નવ અધ્યયને આવેલાં છે. એના પછી સૂત્રકૃત, સ્થાન અને સમવાય નામનાં શાઓ ઉડે ઉતરીને નિયમ પ્રમાણે શીખે. તે પછી શેષ રહેલા કાલિકસૂત્રે અને અંગપ્રવિણ ગ્રંથ શીખ્યા બાદ પૂર્વગત ગ્રંથને પણ બરાબર અભ્યાસ કર્યો, એણે કરીને જગના ભાતિક અને મૈલિક સ્વરૂપનું મને જ્ઞાન થયું. આવી રીતે બાર વર્ષ ભણવામાં ને સાથે સાથે સંસાર ઉપરને મોહ છોડવામાં ચાલ્યાં ગયાં. આમ સમ્યગુ જ્ઞાન અને આત્મસંયમ વડે હું મારા આત્મકલ્યાણને માર્ગે આગળ વધતું જાઉં છું. અને લકને પણ એ અનુત્તર-સર્વશ્રેષ્ઠ ધર્મને ઉપદેશ આપ્યા કરું છું.”
(૧૧, ત્યાગ અને સાધના.) ૧૫૨૫-૧૫૨૯. (સાત્રિી આગળ કથા કહે છે.) જ્યારે અમે આ ખેદજનક અનુભવ સાંભળ્યો, ત્યારે અમે અનુભવેલું દુખ નવેસરથી તાજું થયું. આંસુભરી આંખે અમે એકબીજા તરફ જોયું અને અમને લાગ્યું ): “આ પુરૂષ આપણને વિષ તેમજ અમૃત સમાન નિવડ્યા છે. (વળી અમે વિચાર્યું છે જ્યારે એકવારના આ મહાપાપીએ પણ પિતાના ઉપર વિજય મેળવ્યું છે, ત્યારે આપણે તે દુખને નાશ કરવાને માટે, જરૂર જ તપસ્યા કરવી જોઈએ. વીતેલાં દુઃખને વિચાર કરતાં અમને સ્નેહવિલાસ ઉપર ઉપરાતિ થઈ અને અમે એ પવિત્ર પુરૂષને પગે પડયાં. પછી પાછાં અમે ઉભાં થયાં, ને બે હાથ જોડી કપાળે અડાડી અમારા એ જીવનતારીને અને પછીથી બની રહેલા અમારા સન્મિત્રને કહ્યું:
તા ૧પ૩૦-૧૫૩૩. “જે ચક્રવાકનું જેઠું માનવદેહમાં તમારે હાથે લૂટારાની ગૂફી" માંથી ઉગરી ગયું તે અમે પિતે જ છીએ. તમે અમને જ્યારે જીવન આપ્યું ત્યારે તે - હવે દુઃખમાંથી મેક્ષ પણ આપ. મરણ અને દુઃખ જ્યાં રાજરાજ આવ્યા જ જય છે એવા જીવનરૂપની સાંકળવાળા ચંચળ સંસાર અમને સંતાપે છે. અમને નિર્વાણની ઈચ્છા છે. તીર્થંકરેએ બતાવેલે પવિત્ર માર્ગે અમને, કૃપા કરીને દેરી જાઓ! સાધુજીવનનાં વિવિધ શાસને અમારી જાત્રાનું ભાથું છે !'
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સો ના ઉપદેશ
૧૫૩૪–૧૫૪૨. એ મહાસંયમી બેલ્યાઃ “ધર્મને જે આત્મિક બળ રાખી પાળે 'છે, તે જરૂર બધાં દુઃખમાંથી તરત મુક્તિ પામે છે. જો તમે પુનર્જન્મનાં વિવિધ પરિણાએનાં દુઃખ ટાળવા ઇચ્છતા હે, તે સ્વાર્થવૃત્તિ છે દે ને હવે હમેશને માટે તપસ્યા કરે. માણસ એ તે જરૂર જાણે છે જ કે મરણ આવશે, પણ ક્યારે આવશે તે માત્ર જાણ નથી; તેથી એ આવે તે પહેલાં તેણે ધર્મ પાળી લેવું જોઈએ; ડાખલી વગાડતું મેત આવે, ત્યાર પછી તે કંઈ તપસ્યા થઈ શકે નહિ. જયાં લગી ઇકિયે સાબુત હોય અને શરીર ચાલતું હોય ત્યાં સુધી માણસ મુક્તિની તૈયારી કરી શકે. જીવન ચંચળ છે અને અનેક વિદથી ભર્યું છે, માણસે એના ઉપર વિશ્વાસ ન રાખવે અને પારમાર્થિક કાર્ય કરવા માટે ક્ષણભરને પણ વિલંબ ન કર. જે મરણને દુઃખ કંઈ હેય જ નહિ તે માણસ ધર્મ આચરે કે છેડે તે પાલવે, પણ જે મરણ આવવાનું જ છે તે કરેલી આળસ માથે પડશે. તેથી શરીર સાજું હોય ને શક્તિ સારી પેઠે હોય ત્યાં સુધી જ જીવનસુધારણાનું કાર્ય મનુષ્ય સફળતાપૂર્વક કરી શકે છે.”
૧૫૪૩-૧૫૪૬. એ પવિત્ર પુરૂષના શબ્દો સાંભળીને સંસાર ઉપર અમને ક્ષોભ થ અને પવિત્ર જીવન આરંભવાને અમે નિશ્ચય કર્યો. તેથી અમે ત્યાં જ અમારે શણગાર ઉતારી દીધા અને દાસીઓને સોંપી દેઈ કહ્યું: અમારાં માબાપને આ સોંપજે અને કહેજો કે “એ બંને દુઃખથી અને જન્મમરણની પરંપરાથી કંટાળ્યાં છે. અને એટલા માટે એ દુઃખથી પાર કરનાર ધર્મમાર્ગે ચડ્યાં છે. અવિચાર અને બેદરકારીને કારણે અમે જે સારાનરસા આચારથી તમને હેરાન કર્યા હોય એને માટે તમે અમને ક્ષમા આપજો.”
. ૧૫૪૭-૧૫૪૯. આ સમાચાર દાસીઓમાં ફેલાતાં તે તથા નર્તકીઓ પણ દેડતી આવી. એ મારા પ્રિયને પગે પડયાં ને કાલાવાલા કરવા લાગ્યાં: ‘અમને અનાથ કરી મારી નાના!” કેટલીકે એમના પગને અડવા પુલ વેયાં, જે કુલ એમણે જાણી જઈને હાથમાંથી સેરવી દીધાં હતાં (અને તે બેલી): ૫ ૧૫૫૦-૧૫પર. “અમારા જીવનમાં વગર કંટાળે અમારી (ગુપ્ત) કામના પ્રમાણે તમારા આલિંગનની આશામાં અમે અમારા જીવનને આનંદી માનતી આવી છીએ. હવે એ અમારી કામના તમારી પાસેથી જે પરિપૂર્ણ ન થાય તે ભલે ! માત્ર તમને જોઈને જ અમે સંતેષ ધરીશું. શ્વેત કમળ જેવા ચંદ્રને માણસ જે અડકી શકે નહિ, તે ય એના શુદ્ધ બિંબને જોઈ કેને આનંદ ના થાય!”.
૧૫૫૩-૧પપ૯. એમ તે સ્ત્રીઓ અનેક રીતે રોવા લાગી અને મારા સ્વામીને પિતાના વિરક્તભાવમાંથી પાછા વાળવા કાલાવાલા કરવા લાગી. પણ આવાં પ્રલેશનની પરવા કર્યા વિના અને પિતાને અડવા દીધા વિના મારા પ્રિય એ બધાંથી ફરી જઈને પેલા સત્યરૂષ તરફ મેં કરીને ઉભા. સંસારથી વિરક્ત થઈને સાધુજીવનમાં પ્રવેશવા માટે એમણે જાતે જ એકેએકે બધા વાળ ખુંટી નાખ્યા. મેં પણ પોતે મારા બધા વાળ ખુંટી નાંખ્યા ને મારા સ્વામી સાથે એ સાધુને પગે પડી, અમે પ્રાર્થના
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સરગવતી. કરીઃ “અમને દુઃખમાંથી મેક્ષ આપે. તે ઉપરથી એમણે આગળ કહ્યા પ્રમાણે (સાધુસાધ્વીઓને માટે નક્કી થએલું) સામાયિક વ્રત અમારી પાસે લેવરાવ્યું, (તેમાં એવી પ્રતિજ્ઞા લેવાની છે કેઃ “હે પૂજ્ય પુરૂષ, હું સામાયિક વ્રત પાળીશ, એટલે
જ્યાં સુધી એ વાતમાં હઈશ ત્યાં સુધી ધર્મથી મના કરેલાં બધાં અસત્કમને ત્યાગ કરીશ, અને મનસા વાચા કાયા, બનતા સુધી હું જાતે એવાં કર્મ નહિ કરું, બીજા પાસે નહિ કરાવું, તેમ જે કઈ કરે તે તેમાં સમ્મતિ પણ નહિ આપું, આવા બધાં કાથી, હે પૂજ્યગુરૂષ, હું દૂર રહીશ.) આ વ્રત જે સરળતાથી સારી રીતે પળાય તે મેક્ષ પમાય. વળી આ વ્રતને કારણે જીવહિંસાથી, અસત્યથી, અસ્તેયથી, સ્ત્રીસંસર્ગથી અને પરિગ્રહથી તથા રાત્રિભેજનથી, અમારે દૂર રહેવાનું હતું. વળી જીવનના, મરણના અને દેહના સિ સવા ત્યાગ કરવા જણાવનારા જે ઉપવતે તે પણ અંતે અમે ગ્રહણ કર્યો. "
૧૫૬૨-૧૫૬૬. ચાકરાએ ખબર પહોંચાડ્યાથી અમારાં માબાપ ત્યાં આવી પહોંચ્યાં અને અમારી દીક્ષાની વાત સાંભળીને નગરમાંથી બાળકા વૃદ્ધ ને સ્ત્રીઓ પણ ઉત્કંડિત થઈને આવી પહોંચ્યાં. એમ એ મોટે બાગ સ બંધીઓથી અને અનેક જિજ્ઞાસુજનથી ભરાઈ ગયે. લેકનાં શરીર એકબીજાથી દબાવા લાગ્યાં અને મહેમાથા પરથાર થઈ ગયું હોય એટલી ભીડ થઈ ગઈ. વ્રતના નિયમને અનુસરીને અમે અમારું એકએક ઘરેણું ઉતારી દીધું હતું એ જોઈને અમારાં સગાં તે રેવા મંડ્યાં, અને અમારાં બંનેનાં માબાપ તો આવતાંની સાથે જ છુટે મહેડે રડવા લાગ્યાં. વળી મારાં સાસુસસરા તે અમને જોતાની સાથે જ મૂરછ ખાઈ જમીન ઉપર પડયાં. મારાં માબાપને આત્મા ધર્મના બધથી કંઈક વિશુદ્ધ બનેલો હતું અને એ જન્મમરણના સંસારદુઃખને જાણતાં હતાં જ, તેથી એ પિતાની આંખનાં આંસુ કંઈક ખાળી શક્યાં, ત્યારે મને ઠપકે દેતાં હેય એમ નહિ, પણ વારતાં હોય એમ બેલ્યાં:
૧૫૭-૧૫૬૮. “દીકરી, તારી આ નાની ઉમરમાં આ તે તે શું સાહસ કર્યું? આવી કુમળી સ્થિતિમાં સાધુજીવનનાં ધર્મકર્મ પાળી નહિ શકાય. તારી નિર્બળતાને કારણે એ જીવનમાં પાપ ના થઈ જવાય એટલા માટે હજી ચેતી જા. જ્યારે જીવનના આનંદને ભેગવી રહે ત્યારે તું સાધુજીવન લેજે.
* ૧૫૯-૧૫૭૦. હું બેલી ઉઠી. “જીવનના આનંદને ભેગ તે ક્ષણિક છે અને પછીથી તે કડવા બની જાય છે. કુટુંબજીવનથી ઘણું દુઃખ ખમવું પડે છે, નિર્વાણુના જેવું કશું સારું નથી. બને ત્યાં સુધી માણસે ધર્મને માર્ગે આવી જવું જોઈએ એમાં કલ્યાણ છે; માત આવી ચઢે તે પહેલાં આપણે પરવારી લેવું જોઈએ?
૧૫૭૧. ત્યારે મારા પિતાએ ઉત્તર આપેઃ “જાળામાં લૂંટારા ભરાઈ રહે એમ ઇંડિયે ભરાઈ રહેલી છે જેમાં, એવી તમારી જુવાની હોવા છતાં યે આ સંસારસાગરની ઉપર થઈને નિર્ભયતાએ તરી જજે.”
- ૧૫૭૨. એટલામાં સગાંસંબંધીના ઉપચારથી મારાં સાસુસસરાને ચેતન આવ્યું, તેમણે મારા સવામી તરફ જઈને કહ્યું
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તર'ગવતીની દીક્ષા
૧૫૭૩ ૧૫૭૭. • દીકરા, આ તને કોણે શીખવ્યું ? અમારી સાથે રહેવું તને ના ગમ્યું ? એવું તે તને શું દુઃખ પડયું કે કંટાળીને તું સાધુ થઈ ગયા ? આધ્યાત્મિક જીવનથી જ નહિ પણ ધર્મવિહિત સંસારભાગથી પણ સ્વર્ગ મળે છે. અને લેાકમાં કહેવત છે કે જીવનમાં આ એ રત્નરૂપ છે. અપ્સરા જેવી સુંદર તારે માટે અહી સ્ત્રીઓ છે. તું જ્યારે સ્નેહ લાગવી રહે ત્યારે ધમ જીવન પાળજે. આપણા વિશાળ ધનને, અમને પાતાને અને (તે છેડવેલી) આ દીકરીને, એ બધાને તું શું છેડી જશે ? હજીયે ચેડાં વર્ષ તુ જીવનના માનદ લાગવી લે; ત્યાર પછી, જ્યારે આવા કઠણુ વ્રત સ્વીકારવાના દહાડા આવે ત્યારે તું તે ખુશીથી લેજે.
૧૫૭૮. શેઠને પુત્ર દઢમને દૃષ્ટાન્તા દેશને ( અને રીઆ આપીને) પેાતાનાં માબાપના કાલાવાલાભર્યા શબ્દના આમ જવાબ આપ્યુંઃ
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૧૫૭૯ ૧૫૯૩. અજ્ઞાને કરીને રેશમના કીડા જેમ પાતે ઉપસેાગ કરવાને પોતે જ વળેલા કાકડામાં ગુંચાઈ રહે છે, તેવી જ રીતે માહાન્ય પુરૂષ ઉપભાગની લાલ સાએ સ્ત્રીને કારણે માયામાં પડે છે અને તેથી અનેક દુઃખ લાગવે છે. બેટા રૂપી ભાળવાઈને અને માહથી ભરમાઈને વિવિધ પ્રકારની વસ્તુરૂપ કાંટાવાળા સ’સારમાર્ગના જાળામાં એ ક્રૂસાઈ પડે છે. સ્ત્રીના વિજોગથી જેટલું દુઃખ થાય છે એટલું પણ સુખ થી એને મળી શકતું નથી. ધનમાલથી પણ દુઃખ છે, તેને પ્રાપ્ત કરતાં પણ દુઃખ અને સાચવતાં પણ દુઃખ; અને જ્યારે નાશ પામે છે ત્યારે ખેદ થાય છે. અને માબાપ, ભાઈ, વહુ, કરાં ને સગાંવહાલાં એ તે નિર્વાણુના માર્ગમાં મધનની સાંકળા છે. જેમ સઘમાં એકઠા મળેલા લેાક એકબીજાની સાથે રહેવા ઈચ્છે છે અને પ્રવાસનાં દુઃખને લેખને સાથે ચાલે છે, પણ વનમાં (ભય) આવી પડતાં જુદી જુદી દિશામાં પાતપોતાને માગે વેરાઈ જાય છે, તેમ સગાંસંબધી આ સ’સારાત્રામાં
સ્નેહસ બધે સુખદુ:ખ ભાગવવાને અને એકબીજાને મદદ કરવાને એકઠાં મળ્યાં છે, પણ પછી મરણ થવાથી કે સ'સારમાંથી નિકળી જવાથી એ જુદાં પડે છે, ત્યારપછી પાતપાતાનાં કર્મ પ્રમાણે પાતપાતાને માગે ચાલતાં થાય છે. પાતાનાં સખપી વિના કે બીજી કશી પ્રતીતિ વિના માણસે પોતે જ માહ છેાડીને સમજી જવું જોઈએ કે એમાંથી મુક્ત થયે જ નિર્વાણને માગે જઈ શકાશે; અને તેને સારી રીતે નિશ્ચય થયા હોય તા તા કાળદેવ પાતાની ગુફામાંથી નિકળીને જીવન તાડી નાખે તે પહેલાં જ પાતે ડાહ્યા થઈને અને જાતને કમજે રાખીને કરવા જેવું કરી લેવું જોઈએ. તેથી
'તા ષ્ટિ અનેધુઇચ્છાખળવાળા પુરૂષ તે, સ્ત્રના મા સહેલા કરવા હાય તા, કશાને (ન તા વસ્તુને કે ન તા માણુસને, ન તે માલને કે ન તા સગાંને) વળગી ન રહે. ત્યારે ‘હજી ચે થાડાં વર્ષ તું જીવનના આનંદ ભગવી લે’ એવા જો છેવટે ઉપદેશ તમે આપતાં હા તે એ પણ ભૂલ છે, કારણ કે સ‘સાર તે અનિત્ય છે અને જીવનની
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તરાવતી.
રાઇને ખાતરી નથી, મરણની સત્તાને અહી કોઈથી હડસેલી શકાતી નથી, તેથી એ આવે તે પહેલાં, વખત ખાયા વિના માણસે આ વ્રત લેઇ લેવુ. ઉચિત છે.”
૧૫૯૪-૧૬૦૨. આવાં આવાં વચનાથી શેઠને પુત્ર પેાતાનાં માબાપને અને સગાંસ‘બધીઓને પાછાં જવા સમજાવ્યું; વળી જે મિત્રા એમની સાથે નાનપણથી મૂળમાં રમીને મિત્રતાને અંધને અંધાયા હતા તેમને પણુ પાછા જવા સમજાવ્યું". પાતાના પુત્ર ઉપરની ખૂબ મમતાને કારણે અમને છેડીને જવુ શેઠને ગમતું નહેતું અને એમણે કહેલી વાત અમને ગમતી નહોતી, કારણકે જે સાધુજીવનનું વ્રત અમે લીધુ‘ હતું તેને પાળવાની જ અમારી ઈચ્છા હતી. ( પાસે ઉભેલા ) ઘણા લેાકાએ જ્યારે કહ્યું: પોતાની ઈચ્છા પ્રમાણે એ બે જણ પેાતાની આધ્યાત્મિક સાધના ભલે સાધે, કારણકે જન્મમરણની ચિંતાથી એ પીડાય છે; સંસારસુખથી પાછા હેઠેલા અને તપસ્યા તરફ વળેલા ચિત્તને જે પકડી રાખે છે તે મ્હોં ઉપરથી મિત્ર છે, પણ સાચી રીતે તે શત્રુ છે,' ત્યારે અતે લેાકાએ કહેલા સમજાવટના એ શબ્દોથી માની જઇને, માત્ર ક્રમને, ( કુટુ'બથી ) અમને જુદા પડવાની એમણે રજા આપી અને એ હાથ જોડીને ખેલ્યાઃ ' ત્યારે તમે આત્મસયમ પાળવામાં અને તપો કરવામાં વિવિધ પ્રકારની કઠણુ સાધનાવાળી તપસ્યા · આચરીને પાર ઉતરશે. આ ક્ષણુભંગુર સમુદ્રમાંથી, જન્મમરણનાં એનાં માજા'માંથી, એક ખાળેથી ખીજે ખાળે જવાનાં વમળમાંથી, અષ્ટપ્રકારનાં કર્માએ કરીને વલેવાતા જળમાંથી નેગવિજોગના કલેશનાં તાફાનમાંથી અને તેના માહુમાંથી પાર ઉતરી જાશે. ’
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૧૬૦૩-૧૬૦૭. વખતે અમારા પગ નગર તરફ વળવાનુ મન કરે, પણ આ વચનાથી શેઠે ભલા થઈ તેમને અટકાવ્યા. નગરશેઠે ( મારા પિતાએ) તે કહ્યું: ‘તમે ધન્ય છે કે (ગૃહસ્થજનને પાળવા જેવું જે સાદું વ્રત એ નહિ પણુ) પુરૂં વ્રત લીધું છે અને તેથી કલેશમય ગૃહજીવન તજી દીધુ છે અને સ્નેહના બ‘ધમાંથી ને બેડીઓમાંથી છુટાં થયાં છે. સુખદુઃખમાં સમાન થવાય એવાં મેહમુક્ત ધર્મસ્વરૂપ તમે ધારણ કર્યું છે. સ્રીજાળ તાડીને, સ્નેહસમાંથી છૂટીને જે વિનાઅંભિમાને તે વિનાક્રોધે તીર્થંકરાના ઉપદેશને અનુસરે છે તેને ધન્ય છે. અમે તા હજી લેાક્ષ અને ભાગમાં આનદ માન્યા જઈએ છીએ અને મેાહના પાશથી ને સાંકળેાથી બધાયલા હોવાથી તમારી સાથે આવી શકીએ એમ નથી.
૧૬૦૮-૧૬૧૩. આમ નગરશેઠે સાધુવ્રત ઉપર અનેક રીતે વ્યાખ્યાન કર્યું, કારણ કે એ ખાખતમાં એમને ઉંડું જ્ઞાન હતું. પશુ અને કુટુંબની સ્રી, અમારા ઉપરના સ્નેહને લીધે રડાયુ એટલે રડી; એટલા વિલાપ કર્યો, એટલાં ડુસકાં ખાધાં કે વરસાદથી પલળે એમ બાગની જમીન એમનાં આંસુથી પલળી ગઈ. તે શેઠ ને નગરશેઠને સ્ત્રીઓ, સબધીઓ, અને મિત્રાને લેઇને, દાસ તથા દાસીઓને લેઈને, સાને રડતાં લેઇને પાછા નગરમાં આવ્યા; અને ( જતાં જતાં ય નગરશેઠ અમારા તરફ
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દીશામાં કુટુંબની સમ્મતિ. પાછું વાળી જતા હતા, ત્યારે માણસોના ટેળામાં પેલા ભવ્ય સાધુને એમણે જેયા) અમારા સંસારત્યાગથી ચકિત થતા અને ધર્મ ઉપરની આસ્થામાં ડુબેલા એ સા લેક જ્યાંથી આવ્યા હતા ત્યાં ચાલ્યા ગયા. * ૧૬૧૪-૧૨૧. હવે એક સાધી એ સાધુનાં દર્શન કરવાને એમની પાસે આવી, એને દેખાવ સાધાને ઘટે એ જ હતું. તે નમ્ર હતી, ને ધર્મનું તેમજ સાધ્વીઓનું રક્ષણ કરનારી હતી, તપસ્યામાં તથા જ્ઞાનમાં પ્રખ્યાત થયેલી (મહાવીર દેવના શાસનમાં પ્રખ્યાત થયેલી ) સાધ્વી ચંદનાની એ શિખ્યા હતી. એણે ધર્મિષ્ઠ સાધુનાં અને એમના સાથનાં દર્શન કર્યો, ત્યાર પછી સંઘનિયમના પિતાના જ્ઞાનને લીધે એ બોલ્યા “સંસારઃખથી વિરક્ત થતી આ સાધ્વીને તમારી શિષ્યા બનાવે.” સાદેવીએ પિતાની ખુશી બતાવી, તેમાં તેમના આત્માને વિવેક અને સાધુજીવનમાં પણ પળાતી સભ્યતા સાફ તરી આવતી. પછી એ સાધુએ મને કહ્યું: “આ સાધ્વીની પૂજા કર, એ સાધ્વી પિતાના રક્ષણ નીચે તને લેઈ જાય છે, પંચમહાવ્રતના ધર્મમાં સફળ થએલાં એ પ્રસાધ્વી સુત્રતા છે.” એગ્ય રીતે મેં કપાળે હાથ અડાડીને નમસ્કાર કર્યો, અને નિર્વાણને પંથે ચઢવા માટેની આકાંક્ષાએ એ સાધ્વીને પગે પડી; એમણે મારા તરફ જોઈને આશીર્વાદ આપ્યાઃ “પાળવે અઘરું એવું જે સાધ્વીજીવન તે તને સફળ થાઓ. અમે તે માત્ર ઉપદેશ આપીને તેને ધર્મને માર્ગે ચઢાવીશું જે તે સત્યરીતે પ્રયત્ન કરીશ તે નિર્વાણને માર્ગે ચઢી શકીશ.”
૧રર-૧દર૭. મેં ઉત્તર આપેઃ “પૂજ્ય સાધ્વીજી, જન્મમરણથી ભર્યા સંસારપ્રવાહમાં અથડાવાને ભય મને બહુ લાગે છે, તેથી તમારા શબ્દને અનુસરીશ.” પછી ( છુટાં પડતી વખતે) પોતાની વિશાળ ને કઠણ તપસ્યાને બળે બળતા અગ્નિસમાન દીસતા એ સાધુને શ્રદ્ધાપૂર્વક મેં નમસ્કાર કર્યો. તેમજ પ્રેમને ત્યાગ કર્યો છે અને સર્વોચ્ચ સાધના ગ્રહણ કરી છે જેમણે એવા એ વણિપુત્રને પણ (એમની વિદાય લેતાં) નમસ્કાર કર્યો. ત્યાર પછી સ્ત્રીએ જ આવી શકે એવા અમારા શાન્ત એકાન્ત મઠમાં આ સાધ્વીઓની સાથે જવા માટે (એ પ્રસાધ્વી તથા એમની સંગિનીઓ સાથે) નગર તરફ ચાલતી થઈ. એટલામાં તે આકાશના શણગારરૂપ સંયે પશ્ચિમમાં ઉતરવા માંડયું. પ્રસાદેવીની સાથે જ્ઞાનની અને (આજ સુધીના વ્યવહારના) ત્યાગની વાતો કરતાં કરતાં ધર્મમાં શ્રદ્ધા બેસાડતી હતી ને એમાં રાત કેમ પી ગઈ એ તે જણાયું ય નહિ,
* ૧૬૨૮-૧૬૩૦. બીજે દિને તે વણિપુત્ર તથા તે ઉત્તમ (અમને દીક્ષા આપનાર) સાધુ કંઈ પણ સ્થાન નિર્ણય કર્યા વિના પરિભ્રમણ કરવાને માટે અન્ય દિશામાં નિકળી પડયા. મને તે એ પ્રસાધ્વીએ બંને પ્રકારના (સાધુજીવનમાં અને સાધ્વીજીવનમાં પાળવાના) નિયમ શીખવ્યા, અને હું તપસ્યામાં તથા સંસારત્યાગમાં દઢ થઈ. આવું
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સરગવતી. જીવન ગાળતાં ગાળતાં (થે એક સ્થાનમાં રહીએ અને ડું સ્થાને સ્થાને પરિભ્રમણ કરીએ એમ કરતે કરતે) અને અહીં. (રાજગહ નગરમાં) અમે આવી પહોંચ્યાં છીએ, અને આજે ( મારી સહચરી સાથે ) છઠના પારણાને માટે ભિક્ષા માગવા નિકળી છું.
૧૬૩૧.(શેઠાણ, ) તમારા પુછયા પ્રમાણે, ગયા જન્મમાં અને ત્યાર પછી જે સુખદાખ ભેગવ્યાં છે અને તેનાં જે પરિણામ આવ્યાં તે બધું આ વર્ણવી બતાવ્યું.
૧૨ પ્રશસ્તિ.) ૧૬૩ર-૧૬૩૬. સાધ્વી તરંગવતીએ પિતાની કથા પુરી કરી ત્યારે શેઠાણીએ વિચાર્યુઃ “કેવું કઠણ આમણે કર્યું છે. આવી કુમળી અવસ્થામાં, આવી સારી સ્થિતિમાં, આવું વૈધવ્યવ્રત ગ્રહણ કરીને પણ આવી કઠણ તપસ્યા !” અને તેણે નગરશેઠની
કરીને કહ્યું: “હે સાધવી, તમારા જીવન સંબંધે પ્રશ્ન પુછીને મેં આપને જે આટલું બધું કઈ માગ્યું તેને માટે કૃપા કરીને ક્ષમા આપે.” તે એને પગે પડી અને અનંત ભવસાગરના કલેશને કારણે કહેવા લાગીઃ “સંસારગના કાદવમાં કળી ગયેલાં એવાં જે અમે તેમનું શું થશે ! મેહાન્વકારે અમને ઘેરી લીધાં છે અને ત્યારે તમે તે કઠણ આ સાધુજીવન ગ્રહણ કર્યું છે. છતાં યે અમને બતાવે કે પુનર્જન્મમાં કષ્ટ ટાળવાને માટે અમારે શું કરવું જોઈએ?
૧૯૩૭-૧૬૪૧, તરંગવતીએ જવાબ દીધેઃ “તમે સાધુજીવન પાળી શકે એમ ન છે, છતાં યે સંસારમાં એવી રીતે રહે કે તીર્થંકરના ઉપદેશ પ્રમાણે ચાલી શકે.” તે સાધ્વીના આ શબ્દ અમૃતની પેઠે શેઠાણી ઉતારી ગઈ અને મહાકૃપાએ મળ્યા હોય એમ માનવા લાગી. અને નિશ્ચય કરીને શ્રદ્ધાપૂર્વક ગૃહસ્થ ધર્મ પાળવાનું માથે લીધું અને (સછવને ઉગારવા માટે) સજીવનિર્જીવ વચ્ચેનો ભેદ જાણી લીધે. આમ (ગૃહસ્થજન પાળી શકે એવાં) સરળ પાંચ વ્રત અને બીજી અનેક ક્રિયાઓ અને વિધિએ એણે પાળવા માંડી. જે જુવાન દાસીઓએ પણ આ કથા સાંભળી હતી તેમને પણ અસર થઈ અને તીર્થંકરના ઉપદેશ ઉપર ઉંડી શ્રદ્ધા તેમને બેઠી.
- ૧દર, સાધ્વીએ અને તેની સહચરીએ (પિતાના ધર્મને બાધ ન આવતે હાય એવી) ભિક્ષા લીધી અને જોઈજોઈને અને જાળવીજાળવીને પગલાં ભરતી ક્યાંથી આવી હતી ત્યાં એ પાછી ગઈ.
- ૧૬૪૩. તમને (સાંભળનારને અને વાંચનારને) મેં આ કથા આધ્યાત્મિક શાન થાય એટલા માટે કહી બતાવી છે. આના શ્રવણથી સર્વ દુરિત દૂર થાઓ અને જિનેશ્વરની ભક્તિમાં તમારું મન લીન થાઓ.
૧૬૪૪. હાઈલ પુરીય ગચ્છમાં થએલા આચાર્ય વિરભદ્રના શિષ્ય સાધુ નેમિચદ્વિગણિએ આ કથાનું આલેખન કર્યું.
Aho! Shrutgyanam
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= = = = = = = = = ॥ जैन साहित्य संशोधक समिति
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पेट्रन. श्रीयुत हीरालाल अमृतलाल शाह. बी. ए. मुंबई.
वाईस पेट्रन. श्रीयुत केशवलाल प्रेमचंद मोदी. बी. ए. एलएल. बी. वकील अहमदाबाद श्रीयुत अमरचंद घेलाभाई गांधी, मुंबई.
सहायक. शेठ परमानंददास रतनजी, मुंबई. शेठ कांतिलाल गगलभाई हाथीभाई, पूनाः शेठ केशवलाल मणीलाल शाह, पूना. शेठ बाबूलाल नानचंद भगवानदास झवेरी, पूना.
आजीवन-सभासद. श्रीयुत बाबू राजकुमार सिंहजी बद्रीदासजी, कलकत्ता. श्रीयुत बाबू पूरणचंदजी नाहार. एम्. ए.एलएल.बी. कलकत्ता शेठ लालभाई कल्याणभाई झवेरी. वडोदरा (मुंबई.) शेठ नरोत्तमदास भाणजी, मंबई. शेठ दामोदरदास, त्रिभुवनदास भाणजी, मुंबई. शेठ त्रिभुवनदास भाणजी जैन कन्याशाला, भावनगर. शेठ केशवभाई माणेकचंद, मुंबई. शेठ देवकरणभाई मूळजीभाई, मुंबई. शेठ गुलाबचंद देवचंद, मुंबई. श्रीयुत मातचिंद गिरधरलाल कापडिया, बी. ए. एलएल बी. सोलीसाटर, मुंबई. श्रीयुत केशरी चंदजी भंडारी, इंदोर. शाह अमृतलाल एण्ड भगवानदास कं० मंबई. शाह चंदुलाल वीरचंद कृष्णाजी, पूना. शेठ लाधाजी मोतीलाल, पूना. शाह धनजीभाई वखतचंद साणंदवाळा, (अहमदावाद ) शाह बाळुभाई शामचंद, तळेगाम ( ढमढेरे ). शाह चुनिलाल झवेरचंद, मुंबई.
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________________ हमणां ज प्रकट थएल अत्युत्तम ग्रन्थ आ चा रांग सूत्र. एम तो आचारांगसूत्रनी आज सुर्धामां अनेक आवृत्तियो छपाई गएल छ परंतु शुद्धता अने उत्तमतानी दृषिए एनी बराबरी करी शके एवी एके आवृत्ति हजी सुधी बहार पडी नथी.. आ आवृत्ति जर्मनीना एक विद्वाने वर्षीसुधी आचारांगसूत्रनो ऊंडो अभ्यास करी तैयार करेल छे. मूळनी अनेक प्रतो सेगी करी तेमांथी प्रथम मूळपाठ तारवी काढी, पछी चूर्णि टीका, अवचूरी, टब्बार्थ अने वालावबोध आदि जुदी जुदी व्याख्या करनाराओना पाठो साथे सरखावी, आनो पाठ निर्णय करवामां आव्यो छे: एटलं जनही पण आज स टीकाकार जे वस्तु ए सूत्रमा जोई शक्या न हता ते ऐमां तारवी काढवामां आवी छे. अने ए वस्तु ते आखा सूत्रमा गद्यभाग अने पद्यमाग केटलो छ तेनुं पृथक्करण छे. पश्चिमना विद्वानो आपणा. देशना शास्त्रोनो केवी पद्धतिए अने केटली बारीकीथी अभ्यास करे छे तेनी कल्पना आचा. रांगसूत्रनी आ आवृत्ति जोवाथी थशे. आनी महत्तानो खयाल एटला उपरथी आवी शकशे के जर्मनीनी एक प्रख्यात युनिवर्सिटीए ए ग्रन्थना संशोधक विद्वानने एमना आवा अथाग बोद्धिक परिश्रमना बदलामां ऊंचामां ऊंची पांडित्यप्रदर्शक " डॉक्टर "नी डीग्री आपी छे. सारामां सारा एन्टीक कागळ उपर सुन्दर रीते अने नवी पद्धतिए छपाववामां आवल छे. पाछळ ग्रन्थमा आवता दरेक शब्दनो प्राकृत अने संस्कृत शब्द कोष आपवामां आवेल छे. तेम ज खास खास महत्त्वना पाठान्तरो पण आपेला छ. दरेक भंडार, लाईब्ररी अने ग्रन्थसंग्रहमां आनी एकेक नकल खास राखवा लायक छ तेम ज ट्रेक साधुसाध्वीन स्वाध्यायमाटे अत्यंत उपयोगी होवाथी तेमने पण खास संग्रहवा लायक छ. जर्मनीनी लिप्जीग युनिवसीटी तरफथी ए ग्रन्थनी रामनलीपिमां जे मूळ आवृत्ति प्रकट थई छे तेनी किंमत लगभग 6-7 रूपिया जेटली पडे छे. छतां आ आवृत्तिनी किंमत मात्र // रुपिया ज राखवामां आवी छे. घणी ज थोडी नकलो छपापली छ माट मगाववानी इच्छा वाळाए शीघ्रता करवी. त्रण छेद सूत्र बृहत्कल्प, व्यवहार अने निशीथ. जैन आगम साहित्यमां आ त्रण छेद सूत्र सौथी वधारे प्राचीन अने प्रधान आगम गणाय छे. एमना कर्ता भद्रबाहु स्वामी छे. ए छेद सूत्रो उपर पूर्वाचार्योए जेटली व्याख्याओ लखी छ तेटली बीजा कोई पण आगमो उपर नथी लखी. ए छेद सूत्रो हजी सुधी कोईए छपाव्या न हता. परंतु जर्मनीना प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. शुब्रींग, जेमणे उपरोक्त आचारांगसूत्रनुं संशोधन कर्यु छे तेमणे ज सौथी प्रथम आ त्रण छेद सूत्रोन पण अत्युत्तम संशोधन करी प्रकट करवानुं प्रशंसनीय श्रेय प्राप्त कर्य छे. आ सूत्रोना पाठो पण आचारांग सूत्रनी माफक टीका, चूर्णि, भाष्य, नियुक्ति आदि जुनी व्याख्याओ अने मूळनी जुनामा जुनी प्रतिओ भेगी करी सायन्टीफिक पद्धतिए तैयार करवामां आव्या छे. साथे एवी उत्तम रीते छपाववामां आव्या छे के जेथी आखा सूत्रनुं रहस्य वांचतांनी साथे ज, यंत्रने जोवनी माफक, आंखो आगळ तरी आवे छे. अंतमा जुदाजूदा पाठान्तरो पण आपवामां आव्यां छे. ऊंचा एन्टीक कागळ उपर सुंदर रीते छपावेलां होवा छतां त्रणे सूत्रोनी किंमत फक्त 2 // रूपिया छे. हवे थोडी ज प्रतिओ शिलकमां रहेली छे. मळवावें स्थानगुजरात पुरातत्त्वमंदिर भारत जैन विद्यालयः एलीसनीज, अमदाबाद. ) पो० डेक्कन जीमखाना, पूना सिटी. Aho ! Shrutgyanam