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अंक १ ]
सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत ।
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शास्त्रीजीने उक्त परीक्षा बारीकीसे या अच्छी तरह विचार करके नहीं की । यह हम मानते हैं कि नीतिवाक्यामृतकी रचना में अर्थशास्त्रकी सहायता अवश्य ली गई है, जैसा कि आगे दिये हुए दोनोंके अवतरणोंसे मालूम होगा। पाठक देखेंगे कि दोनोंमें विलक्षण समता है, कहीं कहीं तो दोनों के पाठ बिल्कुल एकसे मिल गये हैं । परन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि नीतिवाक्यामृत अर्थशास्त्रका ही संक्षिप्त सार है । अर्थशास्त्रका अनुधावन करनेवाला होकर भी वह अनेक अंशों में बहुत कुछ स्वतंत्र है । अर्थशास्त्र के अतिरिक्त अन्यान्य नीतिशास्त्रोंके अभिप्राय भी उसमें अपने ढंगसे समावेशित किये गये हैं । इसके सिवाय ग्रन्थकर्ता ने अपने देश-काल पर दृष्टि रखते हुए बहुत सी पुरानी बातोंको— जिनकी उस समय जरूरत नहीं रही थी या जो उनकी समझमें अनुचित थीं--छोड़ दिया है या परिवर्तित कर दिया है। साथ ही बहुतसी समयोपयोगी बातें शामिल भी कर दी हैं ।
यहाँ हम अर्थशास्त्र और नीतिवाक्यामृतके ऐसे अवतरण देते हैं जिनसे दोनोंकी समानता प्रकट होती है :१ - दुष्प्रणीतः कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वानप्रस्थपरिव्राजकानपि कोपयति, किमङ्ग पुनर्गृहस्थान् । अप्रणीतो हि मात्स्यन्यायमुद्भावयति । बलीयानबलं ग्रसते दण्डधराभावे । - अर्थशास्त्र १०९ । दुष्प्रणीतो हि दण्डः कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वा सर्वजनविद्वेषं करोति । अप्रणीतो हि दण्डो मात्स्यन्यायमुद्भावयति । बलीयानबलं ग्रसते ( इति मात्स्यन्याय : ) । - नीतिवा० पृ० १०४-५ । -अर्थ० ० पृ० १० । -नी० १६७ ।
२- ब्रह्मचर्य चाषोडशाद्वर्षात् । अतो गोदानं दारकर्म च । ब्रह्मचर्यमाषोडशाद्वर्षात्ततो गोदानपूर्वकं दारकर्म चास्य । ३ - गुरोहितमुदितोदितकुलशीलं षडङ्गे वेदे दैवे निमित्ते दण्डनीत्यां च अभिविनीतमापदां देवमानुषीणां अथर्वभिरुपायैश्च प्रतिकर्त्तारं कुर्वीत । पुरोहितमुदितकुलशीलं षडंगवेदे दैवे निमित्ते दण्डनीत्यामभिविनीतमापदां दैवीनां मानुषीणां च प्रतिकर्त्तारं कुर्वीत । नीति० पृ० १५९ ।
अर्थ० पृ० १५-१६ ।
४ परमर्मज्ञः प्रगल्भः छात्रः कापटिकः । अर्थ पृ० १८ । परमर्मज्ञः प्रगल्भः छात्रः कापटिकः । - नी० पृ० १७३ ।
५ - श्रूयते हि शुकसारिकाभिः मन्त्रो भिन्नः श्वभिरन्यैश्च तिर्यग्योनिभिः । तस्मान्मन्त्रोद्देशमनायुक्तो नोपगच्छेत् । अर्थ० पृ० २६ ।
अनायुक्तो न मन्त्रकाले तिष्ठेत् । श्रूयते हि शुकशारिकाभ्यामन्यैश्च तिर्यग्भिर्मन्त्रभेदः ६ - द्वादशवर्षा स्त्री प्राप्तव्यवहारा भवति । षोडशवर्षः पुमान् । द्वादशवर्षा स्त्री षोडशवर्षः पुमान् प्राप्तव्यवहारौ भवतः ।
इस तरह के और भी अनेक अवतरण दिये जा सकते हैं ।
यहाँपर पाठकों को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि चाणक्यने भी तो अपने पूर्ववर्ती विशालाक्ष, भारद्वाज, बृहस्पति आदिके ग्रन्थोंका संग्रह करके अपना ग्रन्थ लिखा है । ऐसी दशा में यदि सोमदेवकी रचना अर्थशास्त्रसे मिलती जुलती हो, तो क्या आश्चर्य है। क्योंकि उन्होंने भी उन्हीं प्रन्थोका मन्थन करके अपना नीतिवाक्यामृत लिखा है । यह दूसरी बात है कि नीतिवाक्यामृतकी रचनाके समय प्रन्थकर्ताके सामने अर्थशास्त्र भी उपस्थित था।
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कृतः । —नीति० पृ० ११८। -अर्थ० १५४ ।
- नीति० ३७३ ।
परन्तु पाठक इससे नीतिवाक्यामृतके महत्त्वको कम न समझ लें। ऐसे विषयोंके प्रन्थोंका अधिकांश भाग संग्रहरूप ही होता है । क्योंकि उसमे उन सब तत्वों का समावेश तो नितान्त आवश्यक ही होता है जो प्रन्थकर्ताके पूर्वलेखकों द्वारा उस शास्त्र के सम्बन्धमें निश्चित हो चुकने हैं। उनके सिवाय जो नये अनुभव और नये तस्थ उपलब्ध होते हैं उन्हें ही वह विशेषरूपसे अपने ग्रन्थ में लिपिबद्ध करता है । और हमारी समझमें नीतिवाक्यामृत ऐसी बातोसे खाली नहीं है । ग्रन्थकत्तीकी स्वतंत्र प्रतिभा और मौलिकता उसमें जगह जगह प्रस्फुटित हो रही है ।
देखो पृष्ठ ५ की टिप्पणी 'पृथिव्या लाभे' आदि ।
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