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जैन साहित्य संशोधक
[खण्ड २ तीवापहिवसेषु बन्धुरहितेनैकेन तेजस्विना
सन्तानक्रमतो गतापि हि रमाऽऽकृष्टा प्रभोः सेवया । यस्याचारपदं वदन्ति कवयः सौजन्यसत्यास्पदं
सोऽयं श्रीभरतो जयत्यनुपमः काले कलौ साम्प्रतम् ॥ अर्थात् बड़ी ही विपत्ति के दिनों में जिस अकेले और बन्धुरहित तेजस्वी ने सन्तानक्रम से चली गई हुई भी लक्ष्मी को अपने प्रभु की सेवा से फिर आकृष्ट कर ली और कविगण जिस के चरित्र को सौजन्य और सत्य का स्थान बतलाते हैं, वह भरत इस कलिकाल में अपनी जोड़ नहीं रखता।
इससे जान पड़ता है कि भरत के पूर्वजों के हाथ से उक्त मंत्रीपद चला गया था और उसे भरत ने हो अपनी योग्यता से फिर से प्राप्त किया था। अपनी पूर्वावस्था में उन्होंने बड़ी विपत्ति भोगी थी और उस समय उन का कोई बन्धु या सहायक नहीं था।
यशोधरचरित की रचना महापुराण के कितने समय बाद हुई, इस के जानने का कोई साधन नहीं है। यशोधरचरित में समय सम्बन्धी कोई उल्लेख नहीं है, परन्तु यह निश्चय है कि उस समय राजसिंहासन को वल्लभनरन्द्र या कृष्णराज हो सुशोभित करते थे । हाँ, मंत्री का पद भरत के पुत्र गण को मिल गया था। रणरण के उस समय कई पुत्र भी मौजूद थे जिन को यशोधरचरित्र के दूसरे परिच्छेद के प्रारंभ में श्राशीर्वाद दिया गया है। मालूम नहीं उस समय भरत जीते थे या नहीं। महापुराण जिस समय बनाया गया है उस समय पुष्पदन्त-भरत के ही घर रहते थे-" देवीसुत्र सुदाणिहि तेण हउं णिलए तुहारए अच्छमि ।” ६७ वे परिच्छेद के प्रारंभ में कहा है:
इह पठितमुदारं वाचकैर्गीयमानं इह लिखितमजनं लेखकैश्चारुकाव्यम् ।
गतवति कविमित्रे मित्रतां पुष्पदन्ते भरत तव गृहेऽस्मिन्भाति विद्याविनोदः॥ इस से भी प्राभास मिलता है कि कविराज भरत के ही गृह में रहते थे और उन का काव्य वहीं पढ़ा, गाया और लिखा जाता था।
इस के बाद यशोधरचरित जब लिखा गया है, तब वे णण्ण के ही घर रहते थे-- " णण्णहु मंदिरणिवसंतु संतु, हिमाणमेरु कविपुष्फयंतु ।” परन्तु इसी ग्रन्थ के अन्त में लिखा है कि गन्धर्व (नगर? ) में कन्हड़ (केशव) के पुत्र ने पूर्वभवों का वर्णन स्थिर मन होकर किया-"गंधळ कण्हडणंदणेण" इत्यादि । तब क्या यह गन्धर्व नगर कोई दूसरा स्थान है ? संभव है, यह मान्यखेटका ही दूसरा नाम हो अथवा कोई दूसरा स्थान हो जहाँ कुछ समय टिककर कविने ग्रन्थ का उक्त अंश लिखा हो । यह भी संभव है कि णण्ण के महल का ही नाम गन्धर्व या गन्धर्वभवन हो।
यशोधरचरित जिस समय समाप्त हुआ है उस समय कोई बड़ा भारी दुर्भिक्ष पड़ा था जिस का वर्णन कविने इन शब्दों में किया है-'जगह जगह मनुष्यों की खोपड़ियां और ठठरियां पड़ी थीं, रंक ही रंक दिखलाई पड़ते थे। बड़ा भारी दुष्काल था। ऐसे समय में भी णगणने मुझे रहने को अच्छा स्थान, खाने को सरस अाहार, पहिमने को स्वच्छ वस्त्र देकर उपकृत किया ।" जान पड़ता है यह घटना उस समय की होगी जब धारानरेशने मान्यखेट को लूट कर बरबाद कर दिया था। ऐसी सैनिक लूटों के बाद अक्सर दुर्भिक्ष पड़ा करते हैं।
महापुराण में कविने नीचे लिखे ग्रन्थकारों और ग्रन्थों का उल्लेख किया है। कवि के समय निरूपण में इन नामों से बहुत सहायता मिल सकती है
Aho I Shrutgyanam