________________
२० ]
जैन साहित्य संशोधक
२ प्रसुप्त, तनु आदिक्लेशावस्था 1, पाँच यम, 2 योगजन्य विभूति, 3 सोपक्रम निरुपमक्रम 4 कर्मका स्वरूप, तथा उसके दृष्टान्त, अनेक कार्योंका 5 निर्माण आदि ।
[ खंड २
1 प्रसुन, तनु, विछिन्न और उदार इन चार अवस्थाओंका योगसूत्र २-४ में वर्णन है । जैन - शास्त्रमें वहीं भाव मोहनीयकर्मकी सत्ता, उपशमक्षयोपशम, विरोधिप्रकृतिके उदयादिकृत व्यवधान और उदयावस्था वर्णनरूपसे वर्तमान है । देखो योगसूत्र २-४ की यशोविजयकृत वृत्ति ।
2 पाँच यमोंका वर्णन महाभारत आदि ग्रन्थों में है सही, पर उसकी परिपूर्णता जातिदेशकालसमयाऽनवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् " योगसूत्र २ - ३१ में तथा दशवैकालिक अध्ययन ४ आदि जैनशास्त्र पतिपादित महाव्रतों में देखने में आती है ।
(4
3 योगसूत्रके तीसरे पाद में विभूतियोंका वर्णन है, वे विभूतियाँ दो प्रकारकी हैं । १ वैज्ञानिक २ शारीरिक । अतीताऽनागतज्ञान, सर्वभूतरुतज्ञान, पूर्वजातिज्ञान, परचित्तज्ञान, भुवनज्ञान, ताराव्यूहज्ञान, आदि ज्ञानविभूतियाँ हैं । अन्तर्धान, हस्तिबल, परकायप्रवेश, अणिमादि ऐश्वर्य तथा रूपलावण्यादि कायसंपत्, इत्यादि शारीरिक विभूतियाँ हैं । जैनशास्त्र में भी अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान, जातिस्मरणज्ञान, पूर्वज्ञान आदि ज्ञानलधियाँ हैं, और आमौषाध, विप्रुडौषधि, श्लेष्माषधि, सर्वौषधि, जंघाचारण-विद्याचारण, वैक्रिय, आहारक आदि शारीरिक लब्धियाँ हैं | देखो गा० ६९, ७० आवश्यकनिर्युक्ति लब्धि यह विभूतिका नामान्तर 1
4 योगभाष्य और जैनग्रन्थों में सोपक्रम निरुपक्रम आयुष्कर्मका स्वरूप बिल्कुल एकसा है, इतना ही नहीं बाल्क उस स्वरूपको दिखाते हुए भाष्यकारने यो. सू. ३- २२ के भाष्य में आर्द्र वस्त्र और तृणराशिके जो दो दृष्टान्त लिखे हैं, वे आवश्यकनिर्युक्ति ( गाथा - ९५६ ) तथा विशेषावश्यक भाष्य ( गाथा - ३० ६१ ) आदि जैनशास्त्र में सर्वत्र प्रसिद्ध हैं, पर तत्त्वार्थ ( अ० - २५२ ) के भाष्यमें उक्त दो दृष्टान्तोंके उपरान्त एक तीसरा गणितविषयक दृष्टान्त भी लिखा है । इस विषय में उक्त व्यासभाष्य और तत्त्वार्थभाष्यका शाब्दिक सादृश्य भी बहुत अधिक और अर्थसूचक है ।
* यथाऽऽर्द्रवस्त्रं वितानितं लघीयसा कालेन शुष्येत् तथा सोपक्रमम् । यथा च तदेव सपिण्डितं चिरेण मनुष्येद् एवं निरुपक्रमम् । यथा चाभिः शुष्के कक्षे मुक्तो वातेन वा समन्ततो युक्तः क्षेपीयसा कालेन दहेतु तथा स्त्रोपक्रमम् । यथा वा स एवाऽभिस्तृणराशौ क्रमशोऽवयवेषु न्यस्तश्विरेण दहेत् तथा निरुषक्रमम् ” योग ३–२२ भाष्य । यथाहि संहतस्य शुष्कस्यापि तृणराशेरवयवशः क्रमेण दह्यमानस्य चिरेण दाहो भवति, तस्यैव शिथिलप्रकीर्णोपचितस्य सर्वतो युगपदादीपितस्य पवनोपक्रमाभिहतस्याशु दाहो भवति, तद्वत् । यथा वा संख्यानाचार्यः करणलाघवार्थे गुणकारभागहाराभ्यां राशि छेदादेवापवर्तयति न च संख्येयस्यार्थस्याभावो भवति, तद्वदुपक्रमाभिहतो मरणसमुद्घातदुःखार्त्तः कर्मप्रत्ययमनाभोगयोगपूर्वकं करणविशेषमुत्पाद्य फलोपभोगलाघवार्थं कर्मापत्रर्तयति न चास्य फलाभाव इति । किं चान्यत् । यथा वा धौतपटो जलार्द्र एव संहतश्विरेण शोषमुपयाति । स एव च वितानितः सूर्यरश्मिवाय्वभिहतः क्षिप्रं शोषमुपयाति । तत्त्वा० अ० २-५२ भाष्य ।
"3
Aho ! Shrutgyanam
5 योगबल से योगी जो अनेक शरीरोंका निर्माण करता है, उसका वर्णन योगसूत्र ४-४ में है, यही विषय वैक्रिय - आहारक - लब्धिरूपसे जैनग्रन्थोंमें वर्णित है ।