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जैन साहित्य संशोथक . [नोटः- भारतीय वाङ्मय' का जर्मन भाषामें विस्तृत और परिपूर्ण इतिहास लिखनेवाले प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ.विण्टरनित्स, जो वर्तमानमें बगीय साहित्य सम्राट कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर संस्थापित शांतिनिकेतमकी विश्वभारती संस्थाको अपने ज्ञानका दान कर रहे हैं। उनके पास नीतिवाक्यामृत' की । प्रति अभिप्रायार्थ भेट की गई थी। इस भेटके स्वीकाररूपमें डॉ. महाशयमे अम्पमालाके मंत्री और इस प्रस्तावनाके लेखक श्रीयुत प्रेमीजीके पास जो एक पत्र भेजा है वह यहाँपर मुद्रित किया जाता है। इससे, सोमदेवसूरिके नीतिवाक्यामृतके बारेमें डॉ. महाशयका कैसा अभिप्राय है वह थोडेमें ज्ञात हो जाता है। इस प्रन्धके बारेमें, जैसा कि डॉ. महाशयने अपने इस पत्रमें सूचित किया है. विशेष उल्लेख, उन्होंने अपने भारतीय वाध्ययके इतिहासके तीसरे भाग, (जो हालहीमें प्रकाशित हुआ है) पू० ५०२७-५३० में किया है। -संपादक ।
(Santiniketana, Birbhum, Bengal)
Srinagar ( Kashmir ) 26-4-23, To Nathurama Premi, Mantri, Manikachanda-Jaina Granthamala,
Bombay.
Dear Sir,
I beg to acknowledge the receipt of one copy of Nitivakyamritam Satikam, published in the Jaina Granthamala. As I have pointed out in the third volume of my 'History of Indian Literatura,' the work is of the greatest importance both on account of its contents and especially as the date of its author is well known. Though quoting largely from the Kautilya ArthaSastra, Somadeva is yet quite on original writer and treats his subject from a different point of view. The late Jainacharya Vijaya Dharma Suri had lent me a copy of the old edition of the book which is very rare. I often urged upon him the necessity of a new edition of this important work. I am very glad that the work is now accessible in such a handy and excelent edition, and I am very much obliged to you for sending me a copy.
It is a pity that the introduction is not in English or in Sanskrit, as few Europeans read the Vernacular.
Yours truly, M. WINTERNITZ. (शान्तिनिकेतन, बीरभूम बंगाल)
श्रीनगर ( काश्मीर ) ता. २५-४-२१ नाथूराम प्रेमी, मंत्री.
माणिकचन्द्र जैन ग्रंथमाला मुंबई. प्रिय महाशय,
आपकी जैन ग्रंथमाळामें प्रकाशितक सटीक नीतिवाक्यामृतकी पुस्तक मुझे मिली। जैसा कि मैंने अपन भार तीय वाध्ययका इतिहास' नामक ग्रन्थके तीसरे भागमें लिखा है, यह ग्रन्थ, अन्दरके विषय और इसके कर्ताके समयकी दृष्टिसे बहुत महत्वका है। यद्यपि कौटिल्यके ग्रन्थका इसमें अनुसरण किया गया है तथापि सोमदेवसरि स्वतंत्र लेखक हो कर विषय प्रतिपादनकी शैली उनकी निराली ही है । जैनाचार्य विजयधर्मसूरिने इस ग्रन्थकी अत्यंत दुर्लभ्य ऐसी एक प्रति मुझे दी थी और इस महत्त्वके ग्रन्थकी दूसरी आवृत्ति प्रकट करनी चाहिए ऐसा मैंने आग्रह भी उनसे किया था। अब इस प्रन्यकी सुन्दर आकारमें उत्तम रीतीसे प्रकट की हुई इस आवृत्तिको देख कर मुझे आनंद होता है और थापने जो इसकी एक प्रति मुझे भेजी इस लिए मैं आपका बहुत ही उपकृत हूं।
इसकी प्रस्तावना इंग्रेजी या संस्कृतमें नहीं लिखी गई इस लिए मुझे खेद होता है, क्यों कि देशभाषा जानने वाला युरपियन क्वचित् ही होता है।
आपका, एम्. विंटरनित्स्
Aho! Shrutgyanam