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अकं १]
योगदर्शन
सत्त्वगुणका परमप्रकर्ष मान कर तद्वारा जगत्उद्धारादिकी सब व्यवस्था घटाl दी है।
३ योगशास्त्र दृश्य जगत्को न तो जैन, वैशेषिक, नैयायिक दर्शनोंकी तरह परमाणुका परिणाम मानता है, न शांकरवेदान्त दर्शनकी तरह ब्रह्मका विवर्त या ब्रह्मका परिणाम ही मानता है, और न बौद्धदर्शनकी तरह शून्य या विज्ञान्यत्मक ही मानता है। किन्तु सांख्य दर्शनकी तरह बह उसको प्रकृतिका परिणाम तथा अनादि -अनन्त-प्रवाहस्वरूप मानता है।
४ योगशास्त्रमें वासना क्लेश और कर्मका नाम ही संसार है, तथा वासनादिका अभाव अर्थात् चेतनके स्वरूपावस्थानका नाम मोक्ष2 है। उसमें संसारका मूल कारण अविद्या और मोक्षका मुख्य हेतु सम्यग्दर्शन अर्थात् योगजन्य विवेकख्याति माना गया है।
__ महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टिविशालता-यह पहले कहा जा चुका है कि सांख्य सिद्धान्त और उसकी प्रक्रियाको ले कर पतञ्जलिने अपना योगशास्त्र रचा है, तथापि उनमें एक ऐसी विशेषता अर्थात् दृष्टिविशालता नजर आती है जो अन्य दार्शनिक विद्वानोंमें बहुत कम पाई जाती है । इसी विशेषताके कारण उनका योगशास्त्र मानों सर्वदर्शनसमन्वय बन गया है । उदाहरणार्थ सांख्यका निरीश्वरवाद जब वैशेषिक, नैयायिक आदि दर्शनोंके द्वारा अच्छी तरह निरस्त हो गया और साधारण लोक-स्वभावका झुकाव भी ईश्वरोपासनाकी ओर विशेष मालूम पड़ा, तब अधिकारिभेद तथा रूचिविचित्रताका विचार करके पतञ्जलिने अपने योगमार्गमें ईश्वरोपासनाको भी स्थान दिया, अ र ईश्वरके स्वरूपका उन्होंने निष्पक्ष भावसे ऐसा निरूपण4 किया है जो सबको मान्य हो सके।
पतअलिने सोचा कि उपासना करनेवाले सभी लोगोंका साध्य एक ही है, फिर भी वे उपासनाकी भिन्नता और उपासनामें उपयोगी होनेवाली प्रतीकोंकी भिन्नताके व्यामोहमें अज्ञानवश आपस आपसमें लड मरते हैं, और इस धार्मिक कलहमें अपने साध्यको लोक भूल जाते हैं। लोगोंको इस अज्ञान पथपर लानेके लिये उन्होंने कह दिया कि तुम्हारा मन जिसमें लगे उसीका ध्यान करो। जैसी प्रतीक तुम्हें पसंद आवे वैसी प्रतीककी5 ही उपासना करो, पर किसी भी तरह अपना मन एकाग्र व स्थिर करो, और तद्वारा परमात्म-चिन्तनके सच्चे पात्र बनों। इस उदारताकी मूर्तिस्वरूप मतभेदसहिष्णु आदेशके द्वारा पतञ्जलिने सभी उपासकोंको योग-मार्गमें स्थान दिया, और ऐसा करके धर्मके नामसे होनेवाले कलहको कम कर
1 यद्यपि यह व्यवस्था मूल योगसूत्रमें नहीं है, परन्तु भाष्यकार तथा टीकाकारने इसका उपपादन किया है। देखो पातञ्जल यो. पा. १ सू, २४ भाष्य तथा टीका ।
2 तदा द्रष्टुः स्वरूपावस्थानम् । १-३ योगसूत्र । 3 " ईश्वरप्रणिधानाद्वा” १-३३ ।
4 " क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः " " तत्र निरशितयं सर्वशबीजम्"। " पूर्वेषामपि गुरुः कालेनाऽनवच्छेदात् ” । (१-२४, २५, २६)
5 " यथाऽभिमतध्यानाद्वा" १-३९ इसी भावकी सूचक महाभारतमेंध्यानमुत्पादयत्यत्र, संहिताबलसंश्रयात् । यथाभिमतमन्त्रण, प्रणवाद्यं जपेत्कृती ।। ( शान्तिपर्व प्र. १९४ श्लो. २०) यह उक्ति है । और योगवाशिष्ठमेंययाभिवाञ्छितध्यानाच्चिरमेकतयोदितात् । एकतत्त्वघुनाभ्यासात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।
(उपशम प्रकरण सर्ग ७८ श्लो. १६ । ) यह उक्ति है ।
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