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जैन साहित्य संशोधक
[खण्ड २
सियदंतपंतिधवलीकयासु, ता जंपइ वरवायाविलासु । भो देवीणंदण जयसिरह, किं किजइ कन्वु सुपुरिससीह ॥ २७॥ गोषजिएहिं णं घणदिणोहिं, सुरवरचाहिं वणिग्गुणोहिं । मइलियचित्तहिं णं जरघरेहिं, छिद्दण्णेसिहि णं विसहरोहिं ॥ २८ ॥ जडवाइपहिं णं गयरसेहिं, दोसायरेहिं णं रक्खसोहिं । आचक्खिय परपुठीपलेहिं, वर का णिदिज्जइ हयखलेहिं ॥ २६ ॥ जो वाल बुद्ध संतोसहेउ,रामाहिरामु लक्खणसमेउ।। जो सुम्मई कहवह विहियेसेउ, तासु वि दुजणु किं परे म होउ ॥ ३० ॥
घत्ता । णउ महु बुद्धिपरिग्गहु, णउ सुयसंगहु, णउ कासुधि केरउ बलु । भणु किह करमि कइत्तणु, ण लहमि कित्तणु, जगु जे पिसुणसयसंकुलु ॥ ३१ ॥ तं णिसणेवि भरहें वुत्सु ताव, भो काकुलतिलय विमुक्ताव । सिमिसिमिसिमंतकिमि भरियरंधु, मेल्लेवि कलेवरु कुणिमगंधु ॥ ३२॥ यवगयविवेउ मसिकसणकाउ, सुंदरपएसे किं रमई काउ । णिकारणु दारुणु बद्धरोस, दुज्जणु ससहावें लेइ दोसु॥ ३३ ॥ हयतिमिरणियरु वरकरणहाणु, ण मुहाइ उलूयहो उइउ भाणु । जइ ता किं सो मंडियसराई, उ रुश्च वियसियसिरिहराहं ॥ ३४॥ को गणई पिसुणु अधिसहियतेउ, भुक्कउ छणयंदहो सारमेउ। जिण चलणकमल भत्तिलपण, ता जंपिउ कव्वपिसलपण ॥ ३५ ॥
घत्ता । णउ हउं होमि घियक्खणु, ण मुणमि लक्खणु, छंदु देसि णवि याणमि । सब उस वाणी विलास कवि ने अपनी श्वेत दन्तावली से दिशाओं को उज्ज्वल करते कहा-हे देवीनन्दन (भरत ) हे सुपुरुषसिंह, मैं काव्य क्या करूं ? श्रेष्ठ कवियों की खलजन निन्दा करते हैं । वे मेघों से घिरे हुए दिन के समान गोवर्जित (प्रकाशरहित और वाणीरहित), इन्द्रधनुष के समान निर्गुण, जीर्ण गृह के समान मलिनचित्त (चित्र), सर्प के समान छिद्रान्वेषी, गत रस के समान जडवादी, राक्षसों के समान दोषायर (दोषाचर और दोषाकर) और पीठ पीछे निन्दा करनेवाले होते हैं। कविपति प्रवरसेन के सेतुबन्ध (काव्य) की भी जब इन दुर्जनों ने निन्दा की तब फिर ओरों की तो बातही क्या है ?॥ २९-३०॥
फिर न तो मुझ में बुद्धि है, न शास्त्रज्ञान है और न और किसी का बल है, तब बतलाइए कि मैं कैसे काव्यरचना करूं? मुझे इस कार्य में यश कैसे मिलेगा ? यह संसार दुर्जनों से भरा हुआ है॥ ३१॥
यह सुनकर भरत ने कहा-हे कविकुलतिलक और हे विमुक्तताप, जिस में कीड़े बिलबिला रहे हैं और बहुत ही घृणित दुर्गन्ध निकल रही है, ऐसी लाशको छोड़ कर विवेकरहित काले कौए क्या और किसी सुन्दर स्थान में क्रीड़ा कर सकते हैं। अकारण ही आतिशय रुष्ट रहनेवाले दुर्जन स्वभाव से ही दोषों को ग्रहण करते हैं ॥ ३२-३३ ॥ उल्लुओं को यदि अन्धकार का नाश करनेवाला और तेजस्वी किरणोंवाला ऊगा हुआ सूर्य नहीं सुहाता तो क्या सरोवरों की शोभा बढानेवाले विकसित कमलों को भी न सुहायेगा?॥ ३४ ॥ इन खलजनों की परवा कौन करता है? हाथी के पीछे कुत्ते भौंकते ही रहते हैं।
यह सुनकर जिन भगवान के चरणकमलों की भक्ति में लीन रहनेवाले काव्यराक्षस (पुष्पदन्त ) ने कहा ॥३५॥ आप का यह कथन ठीक है, परन्तु न तो मैं विचक्षण हूं और न व्याकरण, छन्द आदि जानता
१ परपुष्टिमासैः परोक्षवादैश्च । १ वाला अंगदादयः; वृद्धा जांबवदादयः अन्यत्र श्रुतहीनाः श्रुताव्याश्च । ३ हनुमान । ४ कृतसमुद्रवंधः अन्यत्र कृतसेतुबंध नाम काव्यं । ५ पद्माना । ६ काव्यराक्षसेन । ७ कुक्कुरः।
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