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जैन साहित्य संशोधक.
[खंड २
स्वाध्याय-समालोचन ___ आगरे के श्रीआत्मानन्द पुस्तक प्रचारक मंडलने एक महत्त्वके प्रन्थका प्रकाशन किया है। इसका नाम है पातञ्जल योगदर्शन | यों तो पातञ्जल योग्दर्शन के अनेक संस्करण, अनेक स्थानोंसे, अनेक रीति और अनेक भाषाओंमें प्रकट हो चुके हैं लेकिन हम जो इस संस्करणको महत्त्वका कहते हैं उसका खास कारण यह है कि इस संस्करणमें जो व्याख्या प्रकट हुई है वह संस्कृतसाहित्यके ज्ञाताओके लिये एक विशेष वस्तु है । पातञ्जल योगदर्शन एक वैदिक संप्रदाय है । ब्राह्मण संप्रदायके जो छ दर्शन गिने जाते हैं उनमें इसका विशिष्ट स्थान है । सांख्य और योग ये दोनों दर्शन
युगलरूपसे व्यवहृत होते हैं और सब दर्शनोंमें प्राचीन हैं । असलमें सांख्य दर्शनका ही एक विशेषरूप योग दर्शन है । सांख्य दर्शनमें ईश्वर स्वरूप किसी व्यक्ति या तत्त्वका अस्तित्व नहीं माना जाता
और योगदर्शनमें उसको आश्रय दिया गया है-इतना ही इनमें मुख्य भेद है । जैन और बौद्ध दर्शनमें ऐसे अनेक तत्त्व और सिद्धान्त हैं जो सांख्य और योग दर्शनके तत्त्व और सिद्धान्तोंके साथ समता रखते हैं। इस लिये बहुत प्राचीन कालसे जैन और बौद्ध विद्वानोंको सांख्य और योग दर्शनके अध्ययन और मननका परिचय रहा है । इसी परिचयका उदाहरण स्वरूप यह प्रस्तुत प्रन्थ है । इस प्रन्थमें पातञ्जल योगदर्शनके सूत्रों पर जैन धर्मके एक अति प्रसिद्ध और महाविद्वान् पुरुषने व्याख्या लिखी है वह प्रकट की गई है । ब्याख्याकार है न्यायाचार्य महोपाध्याय श्रीयशोविजय गणी । इस व्याख्यामें महोपाध्यायजीने पातञ्जल योगसूत्रोंका जैन प्रक्रियाके अनुसार अर्थ किया है । व्यासकृत रूळ भाष्यके विचारोंके साथ जहां जहां अपना मतभेद मालूम दिया वहां उपाध्यायजीने बडी गंभीर भाषामें अपने विचारका समर्थन और भाष्यकारके विचारोंका निरसन किया है और यही इस व्याख्याकी खास विशिष्टता है।
इस प्रन्थका संपादन विद्वद्वर्य पं सुखलालजीने किया है । जहां तक हम जानते हैं, जैन साहित्यमें अभी तक कोई तात्विक ग्रंथ ऐसी उत्तम रीतिसे संपादित हो कर प्रकट नहीं हुआ। प्रन्थके महत्त्व और रहस्यको समझानेके लिये पंडितजीने परिचय, प्रस्तावना और सार इस प्रकारके तीन निबन्ध हिन्दी भाषामें लिखकर इसके साथ लगाये हैं जिनके पढनेसे, एक प्रन्थके पूर्ण अभ्यासके लिये जितने अंतरंग और बाह्य प्रश्नोत्तरोंकी आवश्यकता होती है, उन सबका ज्ञान पूरी तरहसे हो जाता है । परिचय नामक निबन्धमें, पंडितजीने योगसूत्र, योगवृत्ति, योगविंशिका आदिका परिचय कराया है और प्रस्तावनामें जैन और योगदशनकी तुलना तथा तद्विषयक साहित्यका विवेचन किया है । यह प्रस्तावना कैसी महत्त्वकी और कितने पांडित्यसे भरी हुई है इसका खयाल तो पाठकोंको इसके पढने ही सं आ सकता है और इसी लिये हमने इस सारी प्रस्तावनाको इसी अंककी आदिमें उध्दृत की है। _ इस पुस्तकमें योगदर्शनके सिवा एक योगविंशिका नामका प्रन्थ भी सम्मिलित है जो मूलहरिभद्रसूरिका बनाया हुआ है और उस पर टीका सइन्हीं यशोविजयजीने की है । जैन दर्शनमें 'योग' को क्या स्थान है और उसकी क्या प्रक्रिया है यह जानने के लिये यह योगविंशिका बहुत ही उपयोगी है।
पुस्तके अंतमें योगसूत्रवृत्ति और योग विंशिकावृत्ति का हिन्दी सार दिया है जिससे संस्कृत न जानने वाले भी इन प्रन्थगत पदार्थोंको सरलतासे समझ सकते हैं । इस पुस्तकका ऐसा उपयुक्त संस्करण निकालनेके लिये संपादक महाशय पं. सुखलालजी तथा मंडलके उत्साही संचालक श्रीयुत. बाबू दयालचंदजी-दोनों सज्जन विद्वानोंक विशेष धन्यवादके पात्र हैं।
Aho! Shrutgyanam