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________________ १४ ] जैन साहित्य संशोधक [ खंड २ योगशास्त्र-ऊपरके वर्णनसे मालूम हो जाता है कि-योगप्रक्रियाका वर्णन करनेवाले छोटे बडे अनेक ग्रन्थ हैं । इन सब उपलब्ध ग्रन्थों में महर्षि पतञ्जलिकृत योगशास्त्रका आसन ऊंचा है । इसके तीन कारण है -१ ग्रन्थकी संक्षिप्तता तथा सरलता, २ विषयकी स्पष्टता तथा पूर्णता, ३ और मध्यस्थभाव तथा अनुभवसिद्धता यही कारण है कि योगदर्शन यह नाम सुनते ही सहसा पातञ्जल योगसूत्रका स्मरण हो आता है । श्रीशंकरा बह्मसूत्रभाष्यमें योगदर्शनका प्रतिवाद करते हए जो " अथ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः" ऐसा उल्लेख किया है, उससे इस बातमें कोई संदेह नहीं रहता कि उनके सामने पातञ्जल योगशास्त्रसे भिन्न दूसरा कोई योगशास्त्र रहा है। क्यों कि पातञ्जल योगशास्त्रका आरम्भ " अथ योगानुशासनम्” इस सूत्रसे होता है, और उक्त भाष्योल्लिखित वाक्यमें भी ग्रन्थारम्भसूचक अथ शब्द है, यद्यपि उक्त भाष्यमें अन्यत्र और भी योगसम्बन्धी दो उल्लेख हैं2 जिनमें एक तो पातञ्जल योगशास्त्रका संपूर्ण सूत्र ही है 3 और दूसरा उसका अविकल सूत्र नहीं, किन्तु उसके सूत्रसे मिलता जुलता है4 । तथापि " अथ सम्यग्दर्श नाभ्युपायो योगः ” इस उल्लेखकी शदरचना और स्वतन्त्रताकी और ध्यान देनसे यही कहना पडता है कि पिछले दो उल्लेख भी उसी भिन्न योगशास्त्रके होने चाहिये, जिसका अंश " अथ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः " यह वाक्य माना जाय । अस्तु, जो कुछ हो, आज हमारे सामने तो पतञ्जालका ही योगशास्त्र उपस्थित है, और वह सर्वप्रिय है; इसलिये बहुत संक्षेपमें भी उसका बाह्य तथा आन्तरिक परिचय कराना अनुपयुक्त न होगा। इस योगशास्त्रके चार पद और कुल १९५ सूत्र हैं । पहले पादका नाम समाधि, दूसरेका साधन, तीसरेका विभूति, और चोथेका कैवल्यपाद है । प्रथमपादमें मुख्यतया योगका स्वरूप, उसके उपाय और चित्त. स्थिरताके उपायोंका वर्णन है । दूसरे पादमें क्रियायोग, आठ योगाङ्ग, उनके फल तथा चतुर्दूहका मुख्य वर्णन है ॥ ___ तीसरे पादमें योगजन्य विभूतियोंके वर्णनकी प्रधानता है। और चौथे पादमें परिणामवादके स्थापन, विज्ञानवादके निराकरण तथा कैवल्य अवस्थाके स्वरूपका वर्णन मुख्य है । महर्षि पतञ्जालने अपने योगशास्त्रकी नीव सांख्यसिद्धान्तपर डाली है। इसलिये उसके प्रत्येक पादके अन्तमें " योगशास्त्रे सांख्यप्रवचने" इत्यादि उल्लेख मिलता है । " सांख्यप्रवचने " इस विशेषणसे यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि सांख्यके सिवाय अन्यदर्शनके सिद्धांतोंके आधारपर भी रचे हुए योगशास्त्र उस समय 1 ब्रह्मसूत्र २-१-३ भाष्यगत । 2 " स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोगः " ब्रह्मसूत्र १-३-३३ भाष्यगत । योगशास्त्रप्रसिद्धाः मनसः पश्च वृत्तयः परिगृह्यन्ते, " प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रासमृतयः नाम" २-४-१२ भाष्यगत । पं. वासुदेव शास्त्री अभ्यंकरने अपने ब्रह्मसूत्रके मराठी अनुवादके परिशिष्टमें उक्त दो उल्लेखोंका योगसूत्ररूपसे निर्देश किया है, पर " अथ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः " इस उल्लेखके संबंधमें कहीं भी ऊहापोह नहीं किया है। 3 मिलाओ पा. २ सू. ४४ । 4 मिलाओ पा. १ सू. ६ । 5 हेय, हेयहेतु, हान, हानोपाय ये चतु!ह कहलाते हैं। इनका वणर्न सूत्र १६-२६ तकमें है। Aho Shrutgyanam
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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