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अंक १]
२,५० ( १५९८ ). १६
२,९५ ( १६४३ ).
प्रो. ल्युमन अने आवश्यक सूत्र
यजति यन्नैजति यद्दूरे यद्वान्तिके । यदन्तरस्य सर्वस्य यदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ॥ १२ - वाजसनेयी संहिता ४०, ५.
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[ तथा ] श्रुतौ [ अपि ] उक्तं
अस्तमिते आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते शान्तेऽनौ शान्तायां वाचि किंज्योतिरेवायं पुरुषः ? 'आत्मज्योतिः सम्राडि' ति होवाच ।
—बृ. आ. उप. ४, ३, ६, आमांना केंटलांक वाक्यो ए ज उपनिषद्ना ४, ३, २ मां पण आवे छे. भाष्यनी मूळ गाथा २, ५० मां पण आ अवतरण अनुवादित छे.
( स सर्वविद् यस्यैवा महिमा भुवि दिव्ये । ब्रह्मपुरे ह्येष व्योम्न्यात्मा सुप्रतिष्ठितः ॥ ' -मुण्डकोपनिषद्, २, २,५. पूर्वार्ध. तमक्षरं वेदयतेऽथ यस्तु स सर्वज्ञः सर्ववित् सर्वमेवाविवेश || - प्रश्नोपनिषद्, ४, ११. उत्तरार्ध. एकया पूर्णाहुत्या सर्वान् कामानवाप्नोति । - सरखावो, तै० ब्रा० ३, ८, १०, ५.
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बदले घणा भागे जूना लहिआओ 'प्र' आंबा रूपमां लखता. ए रूपने बराबर न समजवाथी प्रो. वेबरे बर्लिन लाईब्रेरीना म्येनुस्क्रिप्टस् केटलॉगमां ' समुग्गय ' जेवी शब्दोनी रोमन जोडणी : ' Samugrya ' आवी खोटी करी घणो घोटाको उभो कयौं छे. एवी ज रीते बीजा विद्वानोना हाये पण भ्रम थई शके ते स्पष्ट छे. पण अमने अहिं बीजी रीते ए नोध विचारणीय लागे छे; अने ते ए छे के आवश्यकटीका कर्ता हरिभद्रसूरिने वैदिक साहित्य के तेना संकेतथी अपरिचित मानी शकाय तेम नथी. कारण के ते पोते जैन दीक्षा लीघा पहेला जातिए ब्राह्मण अने विद्याए सर्वशास्त्र निष्णात हता, ए सुविश्रुत छे भने जो ते वात बाजुए मूकिए तो पण तेमणे जुदा जुदा दर्शनो अने मतोना विषयमा जे अनेकानेक अपूर्व अने गहन प्रन्यो लख्या छे; तेम ज सांख्य, वेदांत, न्याय, मीमांसा आदि वैदिक संप्रदायोनी जे खूब सूक्ष्म रीते आलोचना - प्रत्यालोचना करी छे ते जोतां स्पष्ट जणाय छे के तेओ वेद, ब्राह्मण, सूत्र, स्मृति भने उपनिषदोना घणा फंडा अभ्यासी अने ज्ञाता हृता. तेथी तेमना जेवा विद्वान् आवा आंबाल-प्रसिद्ध अनुस्वारना चिन्हने न समजी शके अने तेने कांई बीजुं ज कल्पी ले, ए मानवुं बिल्कुल अशक्य छे. हरिभद्रसूरि आ शब्द ' निं' कहे छे अने एने वाक्यालंकार रूपे उक्त वाक्यमां वपराएलो लखे छे.- ( मिमिति वाक्या लंकारे - आवश्यकसूत्र, आ. स. पू. २४४ ) वर्तमान उपनिषदोमां पण पाठ-मेद अने पाठ-फेर क्या ओछ पलाछे जेथी आपणे जैन विद्वानोना आवा पाठान्तरोने एकदम भ्रमोत्पन्न कही शकिए.
१२. ईशावास्योपनिषद्मा पण आ श्रुति आवेली छे अने त्यां 'यद्' ना ठेकाणे सर्वत्र 'तद्' पाठ मळे छे.' १३. उपलब्ध उपनिषद्मा वर्तमान पाठ आ प्रमाणे छे:
यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्यैष महिमा भुवि । दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठितः ॥ १४. वर्तमान पाठ आ प्रमाणे
तदक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य स सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेशेति ।
-- हरिभद्रसूरिंए शास्त्रवार्तासमुच्चय, ६२४, मां पण आ अवतरणो सूचवेल छे ( मुद्रित पृ० ३८५ ). १५. हरिभद्रसूरिए पोतानी ललितविस्तरा नामे चैत्यवन्दनवृत्ति ५-११ ( मुद्रित पृ० १११ ) मां पण आ अवतरण उरेल छे, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३, ८, १०, ५, मां आने मळती हकीकतनो आ प्रमाणे उल्लेख आवेलो :
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