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जैन साहित्य संशोधक
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के प्रवर्तक प्राथमिक ज्ञानमें कुछ भिन्नता अनिवार्य है । इस प्रवर्तक ज्ञानका मुख्य विषय आत्माका अस्तित्व है । आत्माका स्वतंत्र अस्तित्व माननेवालोंमें भी मुख्य दो मत हैं- पहला एकात्मवादी और दूसरा नानात्मबादी । नानात्मवादमें भी आत्माकी व्यापकता, अव्यापकता, परिणामिता, अपरिणामिता माननेवाले अनेक पक्ष हैं। पर इन वादोंको एकतरफ रख कर मुख्य जो आत्माकी एकता और अनेकताके दो वाद हैं उनके आधार पर योगमार्गकी दो धारायें हो गई हैं। अत एव योगविषयक साहित्य भी दो मार्गों में विभक्त हो जाता है । _कुछ उपनिषदें, 1 योगवाशिष्ठ, हठयोगप्रदीपिका आदि ग्रन्थ एकात्मवादको लक्ष्यमें रख कर रचे गये हैं । महाभारतगत योग प्रकरण, योगसूत्र तथा जैन और बौद्ध योगग्रन्थ नानात्मवादके आधार पर रचे गये हैं ।
योग और उसके साहित्य के विकास का दिग्दर्शन-आर्यसाहित्यका भाण्डार मुख्यतया तीन भागों में विभक्त है - वैदिक, जैन और बौद्ध । वैदिक साहित्यका प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद है । उसमें आधिभौतिक और आधिदैविक वर्णन ही मुख्य है । तथापि उसमें आध्यात्मिक भाव अर्थात् परमात्मचिन्तनका अभाव नहीं है 2 | परमात्मचिंतनका भाग उसमें थोडा है सही, पर वह इतना अधिक स्पष्ट, सुन्दर और भावपूर्ण है कि उसको ध्यानपूर्वक देखनेसे यह साफ मालूम पड जाता है कि तत्कालीन लोगोंकी दृष्टी केवल बाह्य न थी
ध्यानबिन्दु, तेजोबिन्दु, शिखा,
1 ब्रह्मविद्या, क्षुरिका, चूलिका, नादबिन्दु, ब्रह्मबिन्दु, अमृतबिन्दु, योगतत्त्व, हंस, इत्यादि । -
2 देखो " भागवताचा उपसंहार "
पृष्ठ २५२.
3 उदाहरणार्थ कुछ सूक्त दिये जाते हैं। ऋग्वेद मं. १ सू. १६४-४६
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् । एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ॥ भाषांतर:- लोग उसे इन्द्र, मित्र, वरुण, या अनि कहते हैं । वह सुंदर पांखवाला दिव्य पक्षी है । एक । ही सत्का विद्वान् लोग अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं। कोई उसे अभि, यम या वायु भी कहते हैं ।
ऋग्वेद मण्ड. ६ सू. ९
विमे कर्णो पतयतो वि चक्षुर्वीदं ज्योतिर्हृदय आहितं यत् ।
वि मे मनश्वरति दूर आधीः किंस्विद् वक्ष्यामि किमु नु मानिष्ये ॥ ६ ॥
[ खंड २
विश्वे देवा अनमस्यन् भियानास्त्वाम ! तमसि तस्थिवांसम् । वैश्वानरोऽवतूतये नोऽमर्त्योऽवतूतये नः ॥ ७ ॥ भाषांतरः -- मेरे कान विविध प्रकारकी प्रवृत्ति करते हैं । मेरे नेत्र, मेरे हृदयमें स्थित ज्योति और मेरा दूरवर्ती मन [भी] विविध प्रवृत्ति कर रहा है । मैं क्या कहुं और क्या विचार करूं ? । ६ । अंधकार-स्थित हे अनि ! तुजको अंधकार से भय पानेवाले देव नमस्कार करते हैं । वैश्वानर हमारा रक्षण करे । अमर्त्य हमारा रक्षण करे । ७ ।
ऋग्वेदः -- पुरुषसूक्त, मण्डल १० सू० ९०
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १ ॥ पुरुष एवेदं सर्वे यद्भूतं यच्च भव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ २ ॥
एतावानस्य महिमाSतो ज्यायांश्च पूरुषः । पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३ ॥
भाषांतरः -- ( जो ) इजार सिरवाला, हजार आंखवाला, हजार पाँववाला पुरुष ( है ) वह भूमिको चारों ओर से घेर कर ( फिर भी ) दस अंगुल बढ कर रहा है । १ । पुरुष ही यह सब कुछ है जो भूत और जो भाबि । ( वह ) अमृतत्वका ईश अन्नसे बढ़ता है । २ । इतनी इसकी महिमा - इससे भी वह पुरुष अधिकतर है । सारे भूत उसके एक पाद मात्र है - इसके अमर तीन पाद स्वर्ग में है । ३
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