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७२ जैन साहित्य संशोधक
[ खण्ड २ चार्य भोय भाउग्गमसत्तिए, पइं प्रणवरय रइय कइमित्तिए ॥ १६ ॥ राउ सालिवाहणु वि विससिउ, पई णियजसु भुवणयले पयासिउ । कालिदासु जे खैध णीयउ, तहो सिरिहरिसहो तुहुँ जगि बीयर्ड ॥ १७ ॥ तुहुं कइकामधेणु कइवच्छल, तुहुं करकप्परुक्खु ढोइयफलु । तुहु कइ सुरवरकोलागिरिवरू, तुहूं का रायहंसमाणससरु ॥ १८ ॥ मंदु मयालसु मयणुम्मत्तउ, लोउ असेसुवि तिठ्ठए भुत्तउ। केण वि कव्वपिलल्लउ मरिणो, केण वि थतु भणेवि अवगरिणउ ।। णिश्चमेव सम्भव पउंजिउं, पई पुणु विणउ करे वि हउं रंजिउं ॥ १६ ॥
घत्ता । धणु तणुसमु ममु ण तं गहणु णेहु णिकॉरिमु इच्छमि । देवीसुत्र सुदणिहि तेण हउं णिलए तुहारए अच्छमि ॥२०॥ महु समयागमे जायहे ललियहे, वोल्लइ कोइल अंबयकलियाँ । काणणे चंचरीउ रुणुरुंटह, कीरु किरण हरिसेण विसट्टइ ॥ २१ ॥ मज्मु कहत्तणु जिणपयभत्तिहे, पसरइ उ णियजीवियवित्तिहें । विमलगुणाहरणंकियदेहउ, एह भरह णिसुणइ पहं जेहउं ।। २२ ॥ कमलगंधु घिइ सारंगें, उ सालूरे णीसॉरंगें। गमणलील जा कयसारंग सा किं णासिज्जइ सारंगे ॥२३॥ वड्ढियसजण दूसणवसणे, सुका कित्ति किं हम्मैड पिसुणे ।
कहेमि कव्वु वम्मैहसंहारणु, अजियपुराणु भवएणवतारणु ॥ २४ ॥ शालिवाहन राजा से भी बढ़ गये हो और अपने यश को तुमने पृथ्वीतलपर प्रकाशित कर दिया है। इस समय जगत
म दूसरे श्रीहर्ष हो जिसने कविकालिदास को अपने कन्धे पर चढ़ा लिया था। ६-७॥ तुम कविकामधेनु, कविवत्सल, कविकल्पवृक्ष, कविनन्दनवन और कविराजहंस समान सरोवर हो ॥१८॥ ये सारे लोग मूर्ख, मदालस, और मदोन्मत्त बने रहें, ( इन से मुझे कुछ प्रयोजन नहीं )। किसी ने मुझे काव्यराक्षस कह कर माना और किसी ने ढूँठ कह कर मेरी अवमानना की । परन्तु तुमने सदा ही सद्भावों का प्रयोग करके और विनय करके मुझे प्रसन्न रक्खा है ॥ १९ ॥
मैं धन को तिन के के समान गिनता हूं और उसे नहीं चाहता हूं। हे देवीसुत श्रुतनिधि भरत, मैं अकारण प्रेम का भूखा हूं और इसी से तुम्हारे महल में रहता हूं॥२०॥
वसन्त का आगमन होनेपर जब आमो में सुन्दर मौर आते हैं तब कोयल बोलती है और बगीचों में भौरें गुंजारव करते हैं, ऐसे समय में क्या तोते भी हर्ष से नहीं बोलने लगते हैं ? ॥ २१॥ जिन भगवान के चरणों की भक्ति से ही मेरी कविता स्फुरायमान होती है अपने जीवित की वृत्ति से या जीविकानिर्वाह के खयाल से नहीं। हे विमलगुणाभरणाकित हे भरत, अब मेरी यह रचना सुन ।। २२ ॥ कमलों की सुगन्ध भ्रमरगण ग्रहण करते हैं, निःसार शरीर मेंढक
हाथी या हंस जिस चाल से चलते हैं, उस से क्या हरिण चल सकते हैं। इसी तरह से जिन्हें सज्जनों को दोष लगाने की आदत पड़ गई है, ऐसे दुर्जन क्या सुकवियों की कीर्ति को मिटा सकते हैं ? अब मैं मन्मथसंहारक और भवसमुद्रतारक आजितपुराण नामक काव्य को कहता हूं।
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१४ त्यागः । १५ स्कन्धे धृतो येन श्रीहर्षेण । १६ तेन सदृशो महान् त्वं । १७ मूर्यो लोकः । १८ सद्भाव । १९ अकृत्रिम धर्मानुराग ।
१ वसन्तसमागमे । २ जातायाः सहकारकलिकायाः। ३ आम्र कलिकानिमित्तं । ४ गृह्यते । ५ भ्रमरेण । ६ भेकेन । ७ निःसारांगण निकृष्ट शरीरेण । ८ हस्तिना हंसेन वा। ९ मृगेण । १० हन्यते । ११ कथयामि । १२ मन्मथ ।
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