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कुंरपाल लोणपाल प्रशस्ति
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. १२. अंत में मैं यह निवेदन करना चाहता हूं कि इस प्रशस्ति के संबंध में दो बातों की अधिक खोज आवश्यक है एक तो यह कि मुगल बादशाहो के इतिहास में कुं[ व ]रपाल और सोनपाल या उन के पिता का नाम ढूंडना चाहिये, और दूसरी यह कि बैसाख सुदि ३ को बहस्पति और शनि क्योंकर हो सक्ते हैं; इस का समाधान करना चाहिये ॥ -१३. मूर्तियों के लेख: जैन लेख संग्रहः पृष्ठ ७८, ७९, १०५
नं० ३०७. सम्बत १६७१ आगरावास्तव्य ओसवाल ज्ञातीय लोढा गोत्रे गाणी वंसे सं० ऋषभदास भार्या सुः रेष श्री तत्पुत्र संघराज सं० रूपचन्द चतुर्भुज सं० धनपालादि युते श्री मदंचलगच्छे पूज्य श्री ५ धर्ममूर्ति सूरि तत् पट्टे पूज्य श्री कल्याणसागर सूरीणामुपदेशेन विद्यमान श्री विसाल जिनबिंब प्रति....
नं० ३०८. संवत १६७१ वर्षे ओसवाल ज्ञातीय लोढा गोत्रे गाणी वंसे साह Qरपाल1 सं० सोनपाल प्रति० अंचलगच्छे श्री कल्याणसागर सूरीणामुपदेशेन वासुपूज्यबिंब प्रतिष्ठापितं ।
नं० ३०९. ॥ श्रीमत्संवत १६७१ वर्षे वैशाष सुदि ३ शनौ आगरा वास्तव्योसवाल ज्ञातीय लोढा गोत्रे गावंसे संघपति ऋषभदास भा० रेषश्री पुत्र सं० कुंरपाल सं० सोनपाल प्रवरौ स्वपितृ ऋषभदास पुन्याथै श्रीमदंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री पदमप्रभु जिनविंबं प्रतिष्ठापितं सं० चागाकृतं ॥
नं० ३१०. श्रीमत्संवत १६७१ वर्षे वैशाष सुदि ३ शनौ श्री आगरावास्तव्य उपकेस ज्ञातीय लोढा गोत्र सा० प्रेमन भार्या सादे पुत्र सा० षेतसी लघुभ्राता सा० नेतसी सुतेन श्रीमदंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री वासपूज्यबिंब प्रतिष्ठापितं सं० कुंरपाल सं० सोनपाल प्रतिष्ठितं ।
लर-उक्त ( Epig. Ind. ) Jaina inscriptions from Satrunjaya, Nos. XXI, XXVII, और CV. XXI यह लेख स. १६७५ का है
श्रीसिंहप्रभसूरीशाः सूरयोऽजितसिंहकाः । श्रीमद्देवेन्द्रसूरीशाः श्रीधर्मप्रभसूरयः ॥ ८॥ __ श्रीसिंहतिलकाव्हाश्च श्रीमहेन्द्रप्रभाभिधाः । श्रीमन्तो मेरुतुङ्गाख्या बभूवुः सूरयस्ततः ॥ ९॥ XXVII यह लेख सं० १६८३ का है
तेभ्यः क्रमण गुरवो जिनसिंहगोत्राः बभूवुरथ पूज्यतमा गणेशाः॥ देवेन्द्रसिंहगुरवोऽखिललोकमान्याः धर्मप्रभा मुनिवरा विधिपक्षनाथाः॥९॥ पूज्याश्च सिंहतिलकास्तदनु प्रभूत-भाग्या महेन्द्रविभवा गुरवो बभूवुः ॥
चक्रेश्वरी भगवती विहितप्रसादाः श्रीमेरुतुङ्गसूरो नरदेववन्द्याः ॥ १० ॥ CV यह लेख सं १९२१ का है। इस में आचार्य कल्याणसागर तक लेख नं XXVII के ही श्लोक उध्दृत किये हैं । इन लेखों की भाषा जैन संस्कृत है।
1 सिवाय लेख ४३३ के और सब जगह कुंर को कुंर या क्रुर पढा है। 2 प्रशस्ति में तथा मूर्ति के अन्य लेखों मे नेतसी ।
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