Book Title: Amar Vani
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्याय अमरमुनि अमरवाणी सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा For Private & Personal US Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मति - साहित्य - रत्नमाला : ४७ वाँ रत्न अमर वाणी उपाध्याय अमर मुनि श्री सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक : अमर वाणी चिन्तनकार : उपाध्याय अमरमुनि सम्पादक : डॉ. इन्द्रचन्द्र, एम. ए., पी. डी. संस्करण : तृतीय अक्षय तृतीया : १६ अप्रैल १९८८ प्रकाशक : श्री सन्मति ज्ञानपीठ लोहामण्डी, आगरा-२ शाखा : वीरायतन राजगृह - ८०३११६ ( नालंदा- बिहार ) मूल्य : बारह रुपया मुद्रक : वीरायतन मुद्रनालय, राजगृह Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्री सन्मति ज्ञानपीठ के जिस अमर प्रकाशन की पाठक-गण चिरकाल से अपलक प्रतीक्षा कर रहे थे; आज उसे उनके करकमलों में अर्पित करते हुए हर्ष एवं उल्लास से मेरा रोम - रोम पुलकित हो रहा है । ज्ञानपीठ के प्रकाशनों में इस प्रकाशन का सर्वोपरि स्थान है-ऐसा मैं अधिकार की भाषा में कह सकता हूँ। __ वैज्ञानिक नीलाम्बर के नीचे आज सैकड़ों वैज्ञानिक पृथ्वी को पढ़ रहे हैं, और खोज कर रहे हैं कि पृथ्वी के अन्तर में कोयला कहाँ है ? लोहा कहाँ छिपा पड़ा है ? सोने-चांदी और हीरे जवाहरात की खानें कहाँ दबी पड़ी हैं ? पैट्रोल और तेल के स्रोत कहाँ बह रहे हैं ? सैकड़ों वैज्ञानिक आकाश को पढ़ रहे हैं और देख रहे हैं कि कौन ग्रह कब उदय हो रहा है और कब अस्त हो रहा है ? आकाश - मंडल में कौन-सा ग्रह नया आ रहा है और संसार पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होने वाली है ? सैकड़ों वैज्ञानिक समुद्र को पढ़ रहे हैं और पानी की एक-एक बूंद को तोड़कर देखा जा रहा है, उसमें कितनी एटम शक्ति है और कितनी विद्युत् शक्ति है ? । इस प्रकार मनुष्य के द्वारा आज पृथ्वी को पढ़ा जा रहा है, आकाश को खोजा जा रहा है और समुद्र को मथा जा रहा है। पर, खेद है कि वह सब - कुछ करके भी आज का मनुष्य अपनेआपको भूल रहा है और सब-कुछ पढ़कर भी मनुष्य आज अपने विषय में ही अनविज्ञ है। यह कैसी विचित्र लीला है आज के मनुष्य की ! जीवन की यह कैसी बिडम्बना है कि सब-कुछ देखपढ़ कर भी मनुष्य अपनी ओर से आँखें बन्द किये चल रहा है ? और, जब तक मनुष्य अपने आपको न पढ़े, अपने आपको न खोजे; तब तक इस बाहर की पढ़ाई का जीवन में अर्थ ही क्या है ? Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अमर वाणी' के स्वर्णिम पृष्ठों पर कविश्रीजी जीवन के एक सच्चे वैज्ञानिक बन कर चमके हैं । मानव जीवन का उन्होंने गहरा अध्ययन और मन्थन किया है । जीवन के अन्तस्तल में पैठकर मनुष्य की आत्मा को उन्होंने खोजा है, उसकी वृत्तियों को उन्होंने परखा है और उसकी भावनाओं को उन्होंने पकड़ा है । वस्तुतः 'अमर वाणी' के रूप में उन्होंने मानवीय जीवन का सर्वांगीण विश्लेषण हमारे सामने रख छोड़ा है । क्या अध्यात्म, क्या धर्म, क्या समाज, क्या राष्ट्र, क्या संस्कृति ओर क्या सभ्यता, जीवन का कोई भी पहलू उनके सूक्ष्म चिंतन से असम्पृक्त नहीं रह पाया है । - और, इस दृष्टिकोण से 'अमर वाणी' मानव-जीवन का एक बोलता हुआ नया भाष्य है, महाभाष्य है । और, अधिक स्पष्ट शब्दों में कहूँ, तो 'अमर वाणी' नये युग के नये मानव के लिए जीवन का एक ऐसा नया शास्त्र है, जो जाति, वर्ग, सम्प्रदाय और पंथ के सब बाधा - बंधनों से दूर, अति दूर रह कर मानव मात्र को जीवन की सच्ची कला सिखला रहा है, जीवन की सच्ची दिशा की ओर इंगित कर रहा है । काश, आज का मनुष्य उस कला को सीख पाता, उस मानवीय विज्ञान को जीवन की प्रयोगशाला में ढाल पाता और सच्चे अर्थों में मनुष्य बन पाता ! आशा ही नहीं, प्रत्युत पूर्ण विश्वास है कि पाठकों को नव जीवनोदय के लिए हमारा यह तृतीय संस्करण एक अमोध वरदान सिद्ध होगा ! मंत्री श्री सम्मति ज्ञानपीठ, आगरा [ ४ ] Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमर-वाणी : एक परिचय संस्थाओं तथा परीक्षाओं के आवेदन - पत्र भरते समय धर्म का खाना देखकर मेरे मन में कई बार आया-क्या मनुष्य के लिए जैन, बौद्ध, सनातनी, मुसलमान या ईसाई बनना जरूरी है ? क्या ऐसा नहीं हो सकना कि हम इनमें से कुछ न हों और फिर भी मनुष्य बने रहें ? मनुष्य ने मानवता को आँकने के लिए कुछ सांचे बनाए और सारी मानवता को उनमें भरने का प्रयत्न किया। किन्तु, वास्तव में देखा जाए, तो उसका असली स्रोत कभी किसी सांचे में बद्ध नहीं हुआ। मानवता सांचों के सहारे जीवित नहीं रहती, अपितु सांचे मानवता के सहारे जीवित रहते हैं। उपनिषदों में वर्णन आता है कि ब्रह्म, आकाश और पृथ्वी में व्याप्त हो कर भी दस अंगुल ऊपर उठा रहा। यही मानवता और सत्य के लिए भी है। साहित्य के लिए भी वही बात है। जव कोई नई रचना सामने आती है, तो हम उसको दर्शन, धर्म-शास्त्र, काव्य, इतिहास आदि धाराओं में सीमित करके देखना चाहते हैं। हम उन जलकणों को भूल जाते हैं, जो किसी धारा में न बहकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखते हैं और इसीलिए सभी धाराओं से वे अधिक निर्मल भी रह पाते हैं । हम वृक्ष की वर्तमान शाखाओं को गिनकर समझ लेते हैं कि सारे वृक्ष को जान लिया। उस मूल को भूल जाते हैं, जहाँ से शाखाएँ सतत प्रस्फुटित होती रहती हैं। _ 'अमर-वाणी' वह धर्मग्रन्थ है, जो जैन, बौद्ध आदि सम्प्रदायों में विभक्त नहीं हो सकता । मानवता का वह दिव्य संदेश है, जो किसी सांचे में नहीं ढल सकता। वह साहित्य है, जो वर्तमान धाराओं में परिगणित नहीं हो सकता । वह बिन्दु है, जो धारा बनकर बहना पसन्द नहीं करता। वृक्ष का वह स्कंध है, जहाँ अनेक शाखाएँ अंकुरित होती हैं। [ ५ ] Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सन्त के मन में समय-समय पर जो शाश्वत विचार उठा करते हैं, 'अमर-वाणी' उन्हीं का अविकल संग्रह है । जो व्यक्ति पथ के अन्त तक दूसरे की अंगुली पकड़ कर चलना चाहते हैं, अपनी आँखों से कुछ काम नहीं ले सकते, उन्हें 'अमर-वाणी' में अधूरापन प्रतीत होगा। किन्तु जो केवल मार्ग-दर्शन की अपेक्षा रखते हैं, जो अंधेरे में चलने के लिए केवल एक दीपक की आकांक्षा रखते हैं, उन्हें इसमें सब-कुछ मिल सकेगा। जब चिंतनकार अध्ययन की भूमिका से उठ कर अनुभव की भूमिका पर आ खड़ा होता है, तभी ऐसे अमर वाक्यों का उदय होता है । आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध में ऐसे ही फुटकर वाक्यों का बाहुल्य है। किन्तु, वे इतने जीवन-स्पर्शी हैं कि विशाल ग्रन्थों से भी अधिक महान् कहे जाते हैं । वे अपने आप में पूर्ण हैं। बड़े-से-बड़े ग्रन्थ उनकी तुलना में छोटे हैं। विशाल वट - वृक्ष की शाखाएँ, पत्ते, स्कन्ध आदि सब एकत्रित कर दिए जाएँ, फिर भी बीज का उनसे कहीं बड़ा अस्तित्व होता है । 'अमर-वाणी' उन्हीं बीजों का संग्रह है। उपाध्याय कवि श्री अमरमुनिजी सन्त हैं, कवि हैं और प्रौढ़ समालोचक भी हैं । केवल शाब्दिक रचना के नहीं, प्रत्युत समाज और धर्म के भी सर्जक हैं। उन्होंने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से जिन सत्यों का साक्षात्कार किया है, वे इस संग्रह में सन्निहित हैं। वे कहते हैं- "मनुष्य के सामने एक ही प्रश्न है, अपने जीवन को 'सत्यं, शिवं और सुन्दरं' कैसे बनाएँ ?" उद्दाम लालसाओं की तृप्ति के लिए पागल बना हुआ मनुष्य, क्या इस प्रश्न को समझने का प्रयत्न कर पाएगा ? जिस दिन यह प्रयत्न प्रारम्भ होगा, वह विश्व-मंगल का प्रथम प्रभात होगा। प्राचीन काल से समस्त विश्व शान्ति के लिए दो उपाय बरतता आ रहा है । जो बलवान है, उसे धन, संपत्ति, भोगविलास [ ६ ] Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के प्रलोभन देकर शान्त करता रहा है, और जो निर्बल हैं, उन्हें तलवार दिखा कर । किन्तु, इससे शान्ति कभी हुई ही नहीं। शान्ति का असली उपाय है, अपनी आवश्यकताएँ घटाकर दूसरे के अभाव की पूर्ति करना । यदि टोला अपनी उभरी हुई मिट्टी से पास के खड्डे को अपने आप भर दे, तो उसे आँधी और तूफानों का कोई भय ही न रहे । शान्ति का सच्चा मार्ग भी यही है। “मनुष्य ने समुद्र के गम्भीर अन्तस्तल का पता लगाया, हिमालय के उच्चतम शिखर पर चढ़ कर देखा, आकाश और पाताल की संधियों को नाप लिया, परमाणु को चीर कर देखा, किन्तु वह अपने आपको नहीं देख सका। अपने पड़ोसी को नहीं देख सका। दूरबीन लगाकर नये-नये नक्षत्रों को देखने वाला, पड़ोसी की ढहती हुई झोंपड़ी को नहीं देख सका । चन्द्रलोक की सैर करने वाला अपने प्रासाद के पीछे छिपी हुई अँधेरी गली की ओर कदम न बढ़ा सका । इसको विकास कहा जाए या ह्रास ?" अंधकार मानव से इस प्रश्न का उत्तर चाहता है। "आज का मंदिर ईश्वर का पूजा स्थान नहीं, बल्कि उसका कारावास है । आज की मस्जिद अल्लाह का इबादतखाना नहीं, उसकी कैद है। इन कैदखानों की दीवारों को गिरा दो। ईश्वर और खुदा को खुली साँस लेने दो। उन्हें दिल के आसन पर बैठाकर पूजो।" सम्प्रदायवाद पर यह कितना मार्मिक प्रहार है ? ग्रन्थकार जहाँ वैज्ञानिकों को कोसता है, वहाँ तर्क की शुष्क समस्याओं में उलझे हुए दार्शनिकों को भी नहीं छोड़ता । सुनिए "दार्शनिकों ! भूख, गरीबी और अभाव के अध्यायों से भरी हुई इस भूखी जनता की पुस्तक को भी पढ़ो। ईश्वर और जगत् की पहेलियाँ सुलझाने से पहले, इस पुस्तक की पहेलियों को सुलझाओ।" [ ७ ] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-मंगल का मार्ग बताते हुए उपाध्यायश्री एक नई घोषणा का उन्मेष करते हैं-"भारत के प्रत्येक नर - नारी को प्रतिदिन प्रातः और सायं यह गंभीर घोषणा करनी चाहिए कि मानव के बीच कोई भेद नहीं। मानवमात्र को जीवन विकास के क्षेत्र में सर्वत्र समान अधिकार है । 'मैं' को समाप्त करके 'हम' को इतना विशाल बना दो कि सारा विश्व उसमें समा जाए।" अतः वे कहते हैं-"बूद नहीं, सागर बनो।" बूद का जीवन अत्यन्त क्षुद्र है, किन्तु समुद्र में मिलने पर वही अमर बन जाती है। अनादि काल से सूर्य की किरणें उसे सुखाने का प्रयत्न कर रही हैं, किन्तु समुद्र उतना ही पूर्ण है, जितना पहले था। जैन-साधना का मूलमन्त्र सामायिक अर्थात् समता को आराधना है। उसकी विभिन्न व्याख्याओं द्वारा मुनिश्री ने जीवन-विकास के सभी अंगों का निष्कर्ष बता दिया है। अन्तरंग और बहिरंग जीवन में समता, धर्म का सर्वस्व है, अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में मानसिक सन्तुलन सफलता का मूलमन्त्र है, शत्रु और मित्र पर समबुद्धि रखते हुए लक्ष्य को सामने रखकर बढ़ते जाना कर्तव्य का मूलमन्त्र है, जो भगवान् कृष्ण द्वारा गीता में विस्तारपूर्वक बताया गया है । दुःख की अपेक्षा सुख में समभाव का रहना अधिक कठिन है। जो व्यक्ति त्याग और तपस्या के द्वारा बल प्राप्त करता है, तेज का संचय करता है, वही अधिकारारूढ़ होने पर किस प्रकार समता को खो देता है, और जिसका परिणाम यह होता है कि वह निस्तेज एवं निर्वीर्य हो जाता है, प्रतिदिन का इतिहास इसका उदाहरण है। रावण से लेकर कांग्रेस का वर्तमान पतन इसी सत्य को प्रकट करता है। उपाध्यायश्री स्पष्ट शब्दों में कहते है-"हमारा सुन्दर भविष्य आपसी भाई-चारे पर निर्भर है। इस विशाल पृथ्थी पर एक कोने से दूसरे कोने तक बसे हुए मानव-समूहों में जितनी अधिक भ्रातृत्व भावना विकसित होगी, उतनी ही शान्ति की वृद्धि होगी।" [ ८ ] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की परम्परा यथार्थवादी है । यहाँ सत्य केवल आदर्शवाद की वस्तु नहीं है, अपितु वास्तविकता का एक जाज्वल्यमानस्तंभ है । वह शुभ भी है और अशुभ भी । पुण्य भी सत्य है, और पाप भी सत्य है। देवी सम्पदाएँ भी सत्य हैं, और आसुरी भी। अतः सत्यमात्र उपादेय नहीं हो सकता। इसलिए मुनिश्री सत्य को तभी उपादेय बताते हैं, जब उसके साथ शिवम् का सामञ्जस्य हो। अहिंसा का स्वरूप बताते हुए आप लिखते हैं-- "अहिंसा, साधना-शरीर का हृदय भाग है। वह यदि जीवित है, तो साधना जीवित है, अन्यथा मृत ।" उनकी अहिंसा निष्क्रय नहीं, बल्कि सक्रिय है-"तलवार मनुष्य के शरीर को झुका सकती है, मन को नहीं । मन को झुकाना हो, तो प्रेम के अस्त्र का प्रयोग करो।" । "जो तलवार से ऊँचे उठेंगे, वे तलवार से ही नष्ट हो जाएँगे।" ईसा के इस बाक्य को उद्धृत करके मुनिश्री ने ईसाई तथा जैन दोनों धर्मों के मर्म को एक ही शब्द में प्रकट कर दिया है। ___जीवन की परिभाषा करते हुए वे कहते हैं "चलना ही जीवन है।" चाहे व्यक्ति हो या समाज, धर्म हो या राष्ट्र, जो चल रहा है, समय के साथ कदम बढ़ाये जा रहा है, जीवित है। जहाँ अटका, वहीं मृत्यु । यदि जीवन में सफलता प्राप्त करनी है, तो विश्वास, प्रेम और बुद्धि को साथ लेकर चलो। फिर प्रत्येक कार्य में आनन्द आएगा । समस्त जगत् रसमय हो जाएगा। कठिनाइयों से जूझने में भी आनन्द आएगा। फिर असफलता का प्रश्न ही खड़ा नहीं होगा । यही सफलता का मूलमन्त्र है। मानव सिद्धि से पहले प्रसिद्धि की कामना करता है, यही उसकी भूल है । प्रसिद्धि तो सिद्धि का आनुसंगिक फल है, जैसे गेहूँ के साथ भूसा । गेहूँ उगेगा तो भूसा अपने आप मिल जाएगा। मात्र भूसा प्राप्त करना चाहोगे, तो सारा प्रयत्न निष्फल होगा। [ ] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य, जीवन की विषमताओं और द्वन्द्वों से पराभूत होकर कष्टों का अनुभव करता है। यदि उन सब में समरसता का अनुभव करना है, तो ऊँचे उठकर देखने की आदत डालनी चाहिए। अध्यात्म-जीवन के कुतुब-मीनार पर चढ़कर मुनिश्री ने यही अनुभव किया है । अर्थात् अभेदानुभूति का मूल मन्त्र है-दूर रहकर तटस्थ वृत्ति से देखना । घास को आग का डर हमेशा बना रहता है, किन्तु सोने को कोई डर नहीं होता। वह तो आग में पड़कर ओर निखरता है। चोटें खाकर और गलकर नया सुन्दरतर से सुन्दरतम रूप पा लेता है। यह मानव जीवन के लिए कितना मार्मिक संदेश है ! प्रतिज्ञा जीवन - विकाश का अनिवार्य अंग है। किन्तु वह तभी, जब उसे पूरी तरह निभाया जाए। प्रतिज्ञा लेकर तनिक - सी प्रतिकूलता आने पर उसे तोड़ देना जीवन के खोखलेपन को सूचित करता है । 'आन लो और उस पर अड़े रहो' यही जीवन का महान् तत्त्व है। जीवन • व्यवहार आदान - प्रदान पर चलता है ! प्रदान के बिना आदान शोषण है, आदान के बिना प्रदान देवत्व है। मानवता में दोनों का सन्तुलन होता है। गाय की सेवा करके उससे दूध प्राप्त करना व्यवहार है। बिना कुछ दिए लेना अत्याचार है। जीवन-संगीत के दो स्वर हैं- "कठोरता और मृदुता ! जो व्यक्ति इन दोनों का ठीक प्रयोग करना जानता है, वही मधुर ध्वनि निकाल सकता है।" हृदय के अन्तस्तल से वे पुकार कर कहते हैं- “यदि किसी को हँसा नहीं सकते, तो किसी को रुलाओ भी मत । किसी को आशीर्वाद नहीं दे सकते, तो किसी को शाप तो न दो !" संसार को विष समझ कर भागने वालों से वे कहते हैं"भागना जीवन की कला नहीं, कायरता है। कला तो विष को अमृत बना देने में है। सोमल का जहर मर जाए, तो वही संजीवनी औषध बन जाता है।" [ १० ] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिश्री की परिभाषा में जीवन का अर्थ साँस लेना ही नहीं है । जीवन का अर्थ है, दूसरों को अपने अस्तित्व का अनुभव कराना । यह अनुभव ईंट पत्थरों के ढेर खड़े करके या शोषण करके नहीं कराया जा सकता । इसका उपाय यह है कि हम दूसरों के लिए साँस लेना सीख लें । अपने लिए सभी सांस लेते हैं, किन्तु जीवित वह है, जो दूसरों के लिए साँस लेता है । - " जो विकारों का दास है, वह पशु है, जो उन्हें जीत रहा है वह मनुष्य है, जो अधिकांश जीत चुका है, वह देव है और जो सदा के लिए जीत चुका है, वह देवाधिदेव है ।" जीवन विकास का उपर्युक्त क्रम कितना स्पष्ट और प्रेरक है । मानव को सम्बोधित करके वे कहते हैं- "मानव ! तेरा अधिकार कर्तव्य करने तक है, फल पाने तक नहीं । तू जितनी चिन्ता फल की रखता है, उतनी कर्त्तव्य की क्यों नहीं रखता ।" मानव जिस दिन इसे समझ लेगा, कष्टों से छुटकारा पा जाएगा । मानव जीवन का ध्येय बताते हुए वे चिरन्तन सत्य को नगारे की चोट के साथ दुहराते हैं- “मानव जीवन का ध्येय त्याग है, भोग नहीं; श्रेय है, प्रेय नहीं । भोग- लिप्सा का आदर्श मनुष्य के लिए सदैव घातक है, और रहेगा ।" उपदेश पुराना है, किन्तु मानव ने अभी तक सुना कहाँ है । मुनिश्री को पूर्ण विश्वास है- “जिस प्रकार धरती के नीचे सागर बह रहे हैं, पहाड़ की चट्टान के नीचे मीठे झरने बहते हैं, उसी प्रकार स्वार्थी मन के नीचे भी मानवता का अमर स्रोत बह रहा है । आवश्यकता है, थोड़ा-सा खोद कर देखने भर की ।” एक बूंद ने यदि किसी प्यासे रज-कण की प्यास बुझा दी, तो वह सफल हो गई, धन्य हो गई । सफलता का रहस्य आधिपत्य में नहीं, बल्कि उत्सर्ग में है । उत्सर्ग कोई छोटा या बड़ा नहीं होता । [ ११ ] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवमानव और महामानव में क्या भेद है ? इसका उत्तर देते हुए आप एक कसौटी बताते हैं। अवमानव उक्ति प्रधान होता है, उसके पास बातें अधिक होती है और काम कम । महामानव क्रिया-प्रधान होता है, उसके पास काम अधिक है और बातें कम । महामानव-महानता की पगडंडी बताते हुए आप कहते हैं"महानता की पगडंडी फल - फूलों से लदे उद्यानों में से होकर नहीं जाती। वह तो जाती है-कांटों में से, झाड़, झंखाड़ों में से, चट्टानों और तूफानों में से । यह वह पगडंडी है, जहाँ मृत्यु, अपयश और भयंकर यातनाएँ क्षण - क्षण पर आह्वान करती रहती हैं। और, जब आप अपने लक्ष्य के निकट पहुँच भी जाएँ, हो सकता है, फिर भी काँटे ही मिलें। एक तत्त्ववेत्ता ने कहा है___"प्रत्येक महापुरुष पत्थर मारे जाने के लिए है। उसके भाग्य में यहीं बदा होता है।" साधारण पुरुष वातावरण से बनते हैं । परन्तु, महापुरुष वातावरण को बनाते हैं। समय और परिस्थितियाँ उनका निर्माण नहीं करती, परन्तु वे समय और परिस्थितियों का निर्माण करते हैं । महापुरुष की परिभाषा है- "युगनिर्माता।" __ जैन परम्परा में महामानव ऊपर से नहीं उतरते। मानव ही परिश्रम और साधना द्वारा महामानव बनता है । आत्मा ही अपने स्वरूप को प्रकट करके परमात्मा बन जाता है। उसी को प्रकट करते हुए आप कहते हैं- "मनुष्यता के स्वस्थ विकास की पूर्णकोटि ही भगवान् का परमपद है।" आपकी महामानव की परिभाषा कितनी गहन है "महामानव वह है, निष्काम जन-सेवा ही जिसके जीवन का प्राण है। जनता जनार्दन ही जिसका आराध्यदेव है। सेवक बन कर रहना ही जिसके जीवन की आधारशिला है। अहिंसा और [ १२ ] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य की पवित्र साधना ही जिसके जीवन का प्रकाशमान इतिहास है। महामानव सत्य का वह प्रकाशमान स्तम्भ है, जो अपनी मृत्यु के बाद भी हजारों वर्षों तक अन्धेरे में भटकती हुई मानवता को प्रकाश देता रहता है । वह जनता का सर्वश्रेष्ठ कलाकार होता है। अब जरा महादेव का आदर्श सुनिए --"सब लोग अमृत पीने की चिन्ता में हैं, किंतु मैं विष की पूंट पीकर अजर-अमर होना चाहता हूं। मुझे फूलों की शय्या नहीं, काँटों का पथ चाहिए । व्यक्ति तथा समाज के विकास में बाधक वे लोग होते हैं जिनमें दूसरों को अपने पीछे चलाने की शक्ति नहीं है और जो स्वयं दूसरे के पीछे चलना नहीं चाहते। आपका उनके लिए सन्देश है-"या तो स्वयं दूसरे के पीछे चलो अथवा दूसरों को अपने पीछे ले लो। दोनों में से एक बात करनी ही होगी।" अवसर व्यक्ति को महान् नहीं बनाता; किन्तु व्यक्ति अवसर को महान बनाता है। पानी की बूंद को मोती बनाना सीप का काम है । दूसरे स्थान में पड़ी हुई वही बूंद शुद्ध बिन्दु के अतिरिक्त कुछ नहीं है । जिस क्षण को किसी तेजस्वी पुरुष ने पकड़ कर अपने जीवन का उन्मीलन मुहूर्त बना लिया, वही क्षण महान हो जाता है, अन्यथा वह काल की अनन्त-धारा का एक क्षुद्रतम अंश ही है। अवसर की प्रतीक्षा में बैठे रहने वाले अकर्मण्यों के सामने उपर्युक्त तत्त्व का मर्म रखते हुए वे लिखते हैं साधारण मनुष्य अवसर की खोज में रहते हैं- कभी ऐसा अवसर मिले कि हम भी कुछ करके दिखाएँ। इस प्रकार प्रतीक्षा में सारा जीवन गुजर जाता है, परन्तु उन्हें अवसर ही नहीं मिलता। परन्तु महापुरुष के पास अवसर स्वयं आते हैं । आते क्या हैं, वे छोटे-से-छोटे नगण्य अवसर को भी अपने काम में लाकर बड़ा [ १३ ] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बना देते हैं । जीवन का प्रत्येक क्षण महत्त्वपूर्ण है, यदि उसका किसी महत्त्वपूर्ण कार्य में विनियोग किया जाए ।" लोग यौवन और बुढ़ापे का सम्बन्ध शरीर से मानते हैं । किंतु वास्तव में देखा जाए, तो उनकी यह धारणा गलत है— मन की क्षीणता शरीर की क्षीणता की अपेक्षा अधिक भयंकर होती है । नित्य नव तरंगित रहने वाला उल्लास ही तो यौवन है और वह होता है मन में, शरीर में नहीं । पुरुषार्थियों को प्रेरणा देते हुए वे कहते हैं- “यदि तू अपने अन्दर की शक्तियों को जागृत कर ले, तो सारा भूमण्डल तेरे एक कदम की सीमा में है। तू चाहे तो घृणा को प्रेम में, द्वेष को अनुराग में, अन्धकार को प्रकाश में, मृत्यु को जीवन में, किं बहुना नरक को स्वर्ग में बदल सकता है । " साधना -साधक को ठीक मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हुए वे कहते हैं- "परमात्मपद पाना तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है । संसार की कोई भी शक्ति ऐसी नहीं, जो तुम्हें अपने इस पवित्र अधिकार से वंचित कर सके । " श्रद्धा के बिना साधना निष्प्राण है । जितना शिव और शव में अन्तर है, उतना ही अन्तर श्रद्धासहित और श्रद्धारहित साधना में है । पहली शिव है और दूसरी शव । जैन - परम्परा में साधना का प्रारम्भ सम्यक् - श्रद्धा से होता है । जिस प्रकार शरीर का जीवन साँस पर अवलम्बित है, साँस चल रही है तो जीवन है और बंद हो गई तो मृत्यु है । इसी प्रकार साधना-जीवन विश्वास पर अबलम्बित है । " विश्वास जीवन है और अविश्वास मृत्यु । विश्वास मानव जीवन में सबसे बड़ी शक्ति है | विश्वासी कभी हारता नहीं, थकता नहीं, गिरता नहीं, मरता नहीं । विश्वास अपने आप में अमर औषधि है ।" [ १४ ] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अपने आप में विश्वास करना ही ईश्वर में विश्वास करना है । जो अपने आप में अविश्वस्त है, दुर्बल है, कायर है, साहसहीन है, वह कहीं आश्रय नहीं पा सकता । स्वर्ग के असंख्य देवता भी मन के लँगड़े को अपने पैरों पर खड़ा नहीं कर सकते।" आदर्श की परिभाषा करते हुए आप लिखते हैं - "आदर्श वह जो जीवन की गहराई में उतर कर व्यवहार में आचरण का वज्ररूप ग्रहण कर ले।" जो आदर्श केवल सिद्धान्त बना रहता है, जीवन के व्यवहार में नहीं उतरता, उसका होना न होना, बराबर अश्रद्धा की चर्चा करते हुए आप कहते हैं-.-"श्रद्धाहीन अविश्वासी का मन वह अन्धकूप है, जहाँ साँप, बिच्छू और न मालूम कितने जहरीले कीड़े-मकोड़े पैदा होते रहते हैं।" वास्तव में श्रद्धा वह दीपक है, जो इन सब जहरीले जन्तुओं को भगा देता है । वे सब अश्रद्धा में ही पनपते हैं । श्रद्धा का प्रतिपादन करते समय मुनि श्री तर्क को भूलते नहीं ! आप कहते हैं-"तर्कहीन श्रद्धा अज्ञानता के अन्धकूप में डाल देती है और श्रद्धाहीन तर्क अन्तः सारहीन विकल्प तथा प्रतिविकल्पों की मरुभूमि में भटका देता है । अतः श्रद्धा की सीमा तर्क पर और तर्क की सीमा श्रद्धा पर होनी चाहिए। ___मानव अनादिकाल से बाहर के देवी-देवताओं को पूजता आ रहा है । अपने ही अन्दर विराजमान आत्मदेवता की पूजा करना उसने नहीं सीखा । कस्तुरीमृग अपनी ही सुगन्ध को खोजने के लिए जंगलों में भटकता रहता है और थक कर चूर-चूर हो जाता है, किन्तु उसे सुगन्ध का स्रोत नहीं मिलता। इसी प्रकार भोला-मानव मृग भी अपनी आत्मा में निहित शक्ति और सुगन्ध को बाहर खोज रहा है, जंगलों की खाक छानता है, पत्थरों से सिर फोड़ता है, सीढ़ियों में नाक रगड़ता है, फिर भी अतृप्त, का अतृप्त, निराश [ १५ ] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का निराश ! मुनिश्री उसे सम्बोधित करके आत्म-देवता की पूजा का संदेश दे रहे हैं । सन्देश कितना मार्मिक है, इसे जरा 'अमरवाणी' में पढ़कर देखिए। भक्ति का रहस्य दासता या गुलामी नहीं है। सच्ची भक्ति वह है, जहाँ भक्त भगवान् के साथ एकता स्थापित कर लेता है। अपना अस्तित्व भूल कर उसी के अस्तित्व में मिल जाता है।" स्वाध्याय का अर्थ पुस्तकों का अध्ययन नहीं है। उसका सच्चा अर्थ है, अपने आपको पढ़ना । पुस्तकें छोड़कर मनुष्य को चाहिए कि वह स्वयं को समझने का प्रयत्न करे । वर्तमान विज्ञानवादियों के लिए वे कहते हैं- "सच्चा ज्ञान प्रकृति के रहस्यों को खोलने में नहीं है, अपितु अपने रहस्यों के विश्लेषण में, उनकी जाँच करने में है। श्रमण संस्कृति-सभी देश, धर्म और समाज अपनी-अपनी संस्कृति के गीत गाने में लगे हैं। किन्तु ढोल बजाकर अपनी आस्तिकता का गीत गाने वाले सभ्य कहे जाएँ या असभ्य, उन्हें संस्कृत कहना चाहिए या असंस्कृत, यह विचारणीय है। संस्कृति का मूल आधार 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' है। अधिक से अधिक लोगों के सुख एवं हित का साधन ही संस्कृति है । यदि यह भावना नहीं है, तो ढोल बजाने का कोई अर्थ नहीं । संस्कृति का अमर आदर्श है-लेने की अपेक्षा देने में अधिक आनन्द का अनुभव करना। श्रमण संस्कृति किसी का विनाश नहीं चाहती। वह तो दानव को मानव और मानव को देव बनाना चाहती है । इसी को जैनसाधना में बहिरात्मा और परमात्मा कहा गया है। जैन परम्परा एवं धर्म का रहस्य मुनिश्री ने 'जैनत्व' और 'श्रमण संस्कृति' में समझाया है। जैन - धर्म जातिवाद को नहीं मानता । यहाँ विकास का द्वार प्रत्येक मनुष्य के लिए खुला है। इतना ही नहीं, पशु के लिए भी खुला है। इसने सम्प्रदायवाद को कभी [ १६ ] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्त्व नहीं दिया । वासना, कषाय, राग, द्वेष आदि शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाला प्रत्येक व्यक्ति जैन है । वह किसी वेष में हो, किसी भी नाम से पुकारा जाता हो, कोई क्रिया काण्ड करता हो, किसी को भी हाथ जोड़ता हो । जैन - धर्म की मुख्य प्रेरणा है 'आत्म-देव' होने में । अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त बल से सम्पन्न है । वही परमात्मा है । प्रत्येक व्यक्ति को उसी आत्म - देवता की पूजा करनी चाहिए। उसे पहिचान लिया, उसके ऊपर जमे हुए मैल को हटाकर असली स्वरूप प्रकट कर लिया, तो सब कुछ मिल गया । फिर कहीं भटकने की आवश्कता नहीं है । कर्मवाद का अटल नियम बताते हुए आप कहते हैं- “आग लगाने वालों के भाग्य में आग है और तलवार चलाने वालों के भाग्य में तलवार है । जो दूसरों की राह में काँटे बिछाते हैं, उन्हें फूलों की सेज कैसे मिलेगी ?" क्या अणुबम और उद्जनबम तैयार करने वाला राजनीतिक इस नीति को सीख सकेगा ? प्राणिमात्र का कल्याण करने के लिए पृथ्वी पर धर्म - संस्था का जन्म हुआ । किन्तु, उसी का नाम लेकर मनुष्य ने पशुओं का रक्त बहाया और मनुष्यों का भी रक्त बहाया। इतना ही नहीं, जघन्यतम नर-संहार को धर्म-युद्ध कह कर खून की नदियाँ बहाईं । धर्म-संस्था के आदर्श उदात्त भावनाओं से भरे हैं, किन्तु इतिहास रक्तरंजित है और उस इतिहास के नये पृष्ठ अब भी लिखे जा रहे हैं । मुनिश्री कह रहे हैं - "अखिल विश्व के प्राणियों में आत्मानुभूति करना ही सबसे बड़ा धर्म है ।" क्या विश्व के सभी धर्माचार्य इस परिभाषा को मानने के लिए तैयार होंगे ? केवल आदर्श और उपदेशों द्वारा नहीं, किन्तु व्यवहार द्वारा ? [ १७ ] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म - साधना क्या है ? मनुष्य के मन में रही हुई प्रेम की बूंद को सागर का रूप देने की साधना । वे स्पष्ट स्वर में कहते हैं - "तलवार से फैलने वाला धर्म, धर्म नहीं हो सकता। वह धर्म भी धर्म नहीं हो सकता, जो सोना-चांदी के चमकते प्रलोभनों को चकाचौंध में पनपता हो। सच्चा धर्म वह है, जो भय और प्रलोभनों के सहारे से ऊपर उठकर तपस्या और त्याग के, मैत्री और करुणा के सुनिर्मल भावना शिखरों का सर्वांगीण स्पर्श कर सके।" महावीर के अनुयायी जैन भी धर्म को सोने - चाँदी की चकाचौंध में पनपाने का प्रयत्न कर रहे हैं। क्या वे ऊपर की पुकार सुनेंगे ? धर्म का एकमात्र नारा है-"हम आग बुझाने आये हैं, हम आग लगाना क्या जाने।" जिस धर्म का यह नारा नहीं है वह धर्म धर्म नहीं है। धर्म का अर्थ समझाते हुए वे मनुष्य से पूछते हैं-- मनुष्य ! तेरा धर्म तुझे क्या सिखाता है ? क्या वह भूले-भटकों को राह दिखाना सिखाता है ? सबके साथ समानता का, भ्रातृभाव का, प्रेम का व्यवहार करना सिखाता है ? दीन-दुखियों की सेवा-सत्कार में लगना सिखाता है ? घृणा और द्वेष की आग को बुझाना सिखाता है ? यदि ऐसा है तो तू ऐसे धर्म को अपने हृदय के सिंहासन पर विराजमान कर ! पूजा कर ! अर्चा कर ! इसी प्रकार का धर्म विश्व का कल्याण कर सकता है। ऐसे धर्म के प्रचार में यदि तुझे अपना जीवन भी देना पड़े तो दे डाल ! हँस - हँस कर दे डाल !! पाप आने से पहले चेतावनी देता है। मन में एक प्रकार का भय तथा लज्जा का अनुभव होता है। यदि हम उस चेतावनी को सुनना सीख ले तो बहुत अंशों तक पाप से बच सकते हैं। सामाजिक संघर्षों का मूल कारण बताते हुए आप कहते हैं"आज के दुःखों, कष्टों और संघर्षों का मूल कारण यह है कि मनुष्य अपना बोझ खुद न उठाकर दूसरों पर डालना चाहता है।" [ १८ ] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज - सूत्र का रहस्य आप इस प्रकार प्रकट करते हैं " समस्त मानव-जीवन एक ही नाव पर सवार है । यहाँ सबके हित और अहित बराबर हैं । यदि पार होंगे तो सब पार होंगे और यदि डूबेंगे तो .......यदि मानव जाति व्यक्तिगत स्वार्थों के आगे झुक गई, तो बर्बाद हो जाएगी । व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठे बिना कहीं भी गुजारा नहीं ।" इस समय परिस्थिति यह है कि नाव के एक कोने में बैठा हुआ व्यक्ति चाहता है कि दूसरे कोने वाला डूब जाय और इसके लिए दूसरे कोने में छेद करने का प्रयत्न कर रहा है । उसे समझना चाहिए कि छेद कहीं हो, सारी नौका डूबेगी, एक कोना नहीं । समस्त मानव समाज एक शरीर है । रोग किसी अंग में प्रकट हो, कष्ट का अनुभव सारे शरीर को करना होगा । - संघ के जौहरियों से वे कहते हैं- "जौहरियो ! इन पत्थरों को रत्न समझ कर बहुत भटक लिए । पागल हो लिए। अब जरा इन जीते जागते मानव देहधारी हीरों की परख करो । दुःख है कि तुम कंकर पत्थर परखते रहे और इधर न जाने कितने अनमोल रत्न धूल में मिल गये ।" नेता होने की अपेक्षा नेता बनाने में सक्रिय भाग लेना कितना बड़ा गौरव है ?" विज्ञान के वर्तमान विकास की ओर लक्ष्य करके उन्होंने कहा है — "विज्ञान की तेज धार से प्रकृति की छाती को चीर कर क्या निकाला ? विष, विष और विष ! वह चला था अमृत की तलाश में, परन्तु ले आया विष ! भारत की नारी को लक्ष्य करके मुनि श्री का कथन कितना मार्मिक है - "भारत की नारी तप और त्याग की मोहक मूर्ति है, शान्ति और संयम की जीवित प्रतिमा है । वह अन्धकार से घिरे संसार में मानवता की जगमगाती तारिका है । वह मन के कण-कण [ १६ ] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में क्षमा, दया, करुणा, सहन - शीलता और प्रेम का ठाठे मारता समुद्र लिए घूम रही है । काँटों के बदले फूल बिछा रही है।" ___इच्छा होती है 'अमर-वाणी' का प्रत्येक सूत्र लेकर उसकी विस्तृत व्याख्या करूँ । उसका प्रत्येक वाक्य जीवन-स्पर्शी है, हृदय से निकला हुआ है। किंतु, व्याख्या करने में यह भय है कि वह कहीं वहीं तक सीमित होकर न रह जाए । मनुष्य ने आत्मा, धर्म, जीवन, प्रेम आदि अन्तर् - तत्त्वों की व्याख्या का प्रयत्न किया तो क्या परिणाम निकला ? उन्हें सम्प्रदाय और पन्थ की दीवारों में घोंट डाला । असीम को ससीम बनाने का प्रयत्न मृत्यु के द्वार पर ले जाना ही है । वास्तव में देखा जाए, तो व्याख्या उन लोगों के लिए होती है जो समझना नहीं चाहते, केवल विवाद करना चाहते हैं । समझने की लगन वालों के लिए सूत्र ही पर्याप्त हैं । स्वातिनक्षत्र के समय सीप के मुंह में गिरी हुई वर्षा की बूद मोती कैसे बन जाती है, इसके लिए केवल बूंद को जानना पर्याप्त नहीं है, स्वाति को समझना भी उतना ही आवश्यक है। इसी प्रकार जीवन के सूत्र निर्मल हृदय पर अपने आप भाष्य बन जाते हैं। दूषित हृदय पर भाष्य भी कोई असर नहीं डालता। मैं समझता हूँ, इन सूत्रों को समझने का प्रयत्न साक्षात् चिन्तन, मनन और जीवन में प्रयोग द्वारा होना चाहिए, टीका-टिप्पणियों द्वारा नहीं। टीका-टिप्पणियों की परम्परा तो इनके भी चारों ओर सम्प्रदायवाद की बाड़ खड़ी कर देगी, और उसमें इनका दम घुट जाएगा ! _ 'अमर-वाणी' में कहीं-कहीं पुनरावृत्ति प्रतीत होगी । कहींकहीं तनिक-सा विरोधाभास भी। किंतु जीवन के विविध पहलुओं को सामने रखकर विचार किया जाए, तो उनका रहना आवश्यक प्रतीत होता है। टाँचियों से गढ़-गढ़ कर बनाये गए ताजमहल में जितता सौन्दर्य [ २० ] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, हिमालय से अपने आप झरने वाले स्रोतों का सौन्दर्य उससे कहीं बढ़कर है। एक जड़ है, दूसरे में जीवन है । कृत्रिम साहित्य और स्वाभाविक उच्छवास के रूप में प्रकट हुए साहित्य में भी परस्पर यही भेद है। लाक्षणिक पण्डितों ने अपने जो माप-दण्ड बना रखे हैं, उनके अनुसार दूसरे प्रकार का साहित्य निर्दोष नहीं उतरता । किन्तु जीवन का अर्थ ही अपूर्णता है । पूर्णता आदर्श में रह सकती है जीवन में नहीं । जीवन में पूर्णता आते ही वह समाप्त हो जाएगा। जीवन गति का नाम है और पूर्णता का अर्थ है-गति की समाप्ति। कहा जाता है, शिव ने जब ताण्डव नृत्य किया, तो उनकी डमरू में से चौदह सूत्र अपने आप प्रकट हुए। वे ही चौदह सूत्र शब्द-शास्त्र के आदि बीज बन गए। महावीर और बुद्ध के लिए भी यही कहा जाता है कि वे मन में सोचकर नहीं बोलते, किन्तु उनके मुख से वाणी स्वतः झरती है । वेदों की उत्पत्ति के लिए भी यही कहा गया है “यस्य निःश्वसितं वेदाः" अर्थात् वेद उसके निःश्वास मात्र हैं। इस प्रकार हम देखते हैं, प्रत्येक परम्परा में समस्त विद्याओं का मूल प्रातिभ प्रस्फोट माना गया है। 'अमरवाणी' में भी उसी की झलक है । कवि हृदय सन्त के इस उद्गार का साहित्यक क्षेत्र में अवतरण स्वागत के योग्य है। दीपमालिका १९५४ इन्द्र [ २१ ] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहन स्वर्ग के असंख्य देवता भी मन के लँगड़े को अपने पैरों पर खड़ा नहीं कर सकते । आग लगाने वालों के भाग्य में आग है और तलवार चलाने वालों के भाग्य में तलवार है । जो दूसरों की राह में काँटे बिछाते हैं, उन्हें फूलों की सेज कैसे मिलेगी ? आज के दुःखों, कष्टों और संघर्षों का मूल कारण यह है कि मनुष्य अपना बोझ खुद न उठाकर, दूसरों पर डालना चाहता है । विज्ञान की तेज चाकू से प्रकृति की छाती को चीर कर क्या निकाला ? विष, और विष ! मनुष्य चला था अमृत की तलाश में; पर ले आया विष ! जीवन से अलग हटा हुआ धर्म, अधर्म है और आचार दुराचार | धर्म और आचार का प्रत्येक स्वर जीवन - वीणा के हर साँस के तार के साथ कृत रहना चाहिए । विचार ही मनुष्यता है और अविचार ही पशुता है । जीवन क्या है ? परस्पर विरोधी तूफानों का संघर्ष ! जो इस संघर्ष में अड़ा रहा, बढ़ता रहा, भूला भटका नहीं; वही शेर है, बाकी सब गीदड़ ! हंस मोती चुगते हैं, और काग? तुम निर्णय कर लो कि तुम्हें हंस बनना है या काग ? Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका १. विश्व - मंगल १. मूल प्रश्न २. भूमा ३. समता ४. सत्यं, शिवं, सुन्दरम् xv m M २. जीवन १. जीवन की कला २. मानवता ३. महामानव ४. यौवन ३. साधना १. बढ़े चलो २. श्रद्धा ३. भक्ति ज्ञान ५. वैराग्य ६. भावना ७. आत्म - शोधन ८. अन्तर्दर्शन . ८० Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. श्रमण - संस्कृति १. श्रमण - संस्कृति २. जैनत्व ३. आत्मदेवो भक ४. कर्मवाद १ orx ५. धर्म और अधर्म १. धर्म २. अधर्म ३. चरित्र-विकास के मूल तत्त्व ४. ज्ञान और क्रिया mmm ६. समाज और संघ mr mr १. समाज २. संघ ३. शिक्षा ४. नारी १४५ ७. बिखरे मोती १. बिखरे मोती २. इनसे भी सीखिए, ३. ओ मानव ! ४. सन्त . 6 [ २४ ] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ 시외요 अमर वा णी वा णी Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-मंगल * मूल प्रश्न * भूमा * समता * सत्यं, शिवं, सुन्दरम् Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल प्रश्न मूल प्रश्न मानव के सामने एक मूल प्रश्न है कि वह अपने क्षण - भंगुर जीवन को विश्व के इतिहास में 'सत्यं, शिवं, सुन्दरम्' कैसे बनाता है ? सजीव शान्ति मानव-संसार शान्ति के लिए छटपटा रहा है, आज से नहीं, अनादि काल से । परन्तु, सच्ची शान्ति, जीवन की शान्ति जहाँ है, वहाँ खोजने का प्रयत्न नहीं हुआ है । तलवार दिखाकर किसी को चुप कर देना, यह भी एक शान्ति है । प्रलोभन के सुनहरे स्वप्नसंसार में अपने को भुलाकर शान्त हो जाना, यह भी एक शान्ति है। परन्तु यह शान्ति मरण की शान्ति है, जीवन की शान्ति नहीं। जीवित शान्ति बाहर नहीं, अन्दर में जन्म लेती है । जब मनुष्य के मन की आवश्यकताएँ और वासनाएँ कम होती जाती हैं, स्वार्थ के स्थान पर परमार्थ की वृत्ति जागृत हो जाती है, विश्व-कल्याण मूल प्रश्न : Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में ही अपने कल्याण की पवित्र आकांक्षा विकसित होती है, तब जीवित शान्ति का जन्म होता है । और, मानव-समाज स्वर्ग भूमि पर उतार लाता है । मनुष्य ने मनुष्य को नहीं पहचाना मनुष्य ने आकाश का पता लगाया, भूमि का पता लगाया, सागर की गहराई का पता लगाया । उसने विश्व के सबसे क्षुद्रपिण्ड परमाणु पर भी हाथ डाला, उसकी शक्ति का पता लगाया और परमाणु बम के आविष्कार ने दुनिया में हा - हाकार मचा दिया ! किंबहुना, आज के मनुष्य ने विज्ञान की आँख लगाकर प्रकृति का कण-कण टटोल डाला, परन्तु दुर्भाग्य से मनुष्य ने पास खड़े अपने ही समानाकृति जाति-बन्धु आदमी को नहीं पहचाना | विकास या ह्रास देखिए, वह आसमान में कितनी ऊँचाई पर हवाई जहाज ता हुआ जा रहा है ! हाँ, आज का मनुष्य विज्ञान के पंख लगाकर हवा में उड़ रहा है । ठीक है, हवा में तो उड़ रहा है, पर जमीन पर चलना भूल रहा है । मनुष्य का पागलपन मनुष्य मकान बनाता है, ऊँची-ऊँची दीवारें खड़ी करता है, छत बनाता है, दरवाजे लगाता है, खिड़कियाँ खुलवाता है, और सबको बन्द करवा देता है । फिर सारे घर में पागल की तरह दौड़ता फिरता है । चिल्लाता है, हाय ! यहाँ सूरज की धूप क्यों नहीं आती ? अन्धकार क्यों है ? सील और सड़ांध क्यों है ? कोई पूछे, भले आदमी ! सूर्य तो चमक ही रहा है, हवा भी बह रही है ! अमर-वाणी ६ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्तु वह आए तो कैसे आए ? तूने ही तो सारे दरवाजे बन्द कर रक्खे हैं ! द्वार खोल दे, खिड़कियाँ खोल दे ! धूप आएगी, प्रकाश और हवा भी आएगी। फिर अन्धकार, सील और सड़ांध नहीं रहने की। मनुष्य अपने आप ही अपने को बन्धन में डाले हुए है, और बन्धन का ही रोना रो रहा है । कैसी विचित्र विसंगति है ! नए मन्दिर, नई मस्जिद आज का अल्लाह मस्जिद में बन्द है, तो आज का ईश्वर मन्दिर में रुका खड़ा है। दोनों ही मुक्ति की प्रतीक्षा में हैं और प्रतीक्षा में हैं-नई मस्जिद और नए मन्दिर की। मैं समभता हूँ, आज के मोमिनों और भक्तों को अपने दिल की मस्जिद के और अपने मन के मन्दिर के दरवाजे खोल देने चाहिएँ, ताकि अल्लाह और ईश्वर यहाँ आएँ तथा भटकते हुए मानव-जीवन को कल्याण का प्रशस्त-पथ दिखलाएँ। दार्शनिकों से दुनिया के दार्शनिकों ! भूखी जनता के मन की पुस्तक के पन्न उलटो ! वहाँ तुम्हें भूख की, गरीबी की, अभाव की फिलासफी पढ़ने को मिलेगी ! ईश्वर और जगत् की पहेलियाँ सुलझाने से पहले जनता के मन की गुत्थियाँ सुलझा लो। केवल बाल की खाल निकालने से क्या लाभ है, यदि यथार्थ रूप से वस्तु-स्थिति के दर्शन न किए जाए? मूल प्रश्न Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व - मंगल प्राणी का अहित भी हमारे जब मनुष्य का स्वार्थं विस्तृत हो जाता है, जब क्षुद्र ममत्व, विराट् ममत्व का रूप धारण कर लेता है, जब सर्वत्र 'स्व' ही दीखता है, 'पर' कोई नहीं दीखता, जब सबके भले में ही अपना भला नजर आता है, जब एक क्षुद्र लिए असह्य हो जाता है । तब समझना चाहिए कि मनुष्य के अन्दर में भगवत् - शक्ति का प्रादुर्भाव हो रहा है, और वह अन्धकार से प्रकाश में आ रहा है । मृत्यु से अमरत्व में आ रहा है । इस दशा में, मनुष्य की चेतना, मन, वागी, कर्म के रूप में जो कुछ भी सोचेगी, बोलेगी, करेगी, वह अखिल विश्व के लिए मंगलमय होगा । भूमा त्वेव ८ सच्ची विजय अनन्त काल से संसार के योद्धाओं की तलवारें विजय के पथ पर खनखना रही हैं । परन्तु विजय कहाँ ? वह आज भी स्वप्न है । विजय किस पर ? शरीर पर, या आत्मा पर ? विजय किससे ? तलवार के जोर से या प्रेम के बल पर ? जिस विजय और वीरता की अमर - वाणी - Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठभूमि में हृदय न हो, प्रेम न हो, आत्मा न हो, विजित का भी हित न हो, वह विजय नहीं, वीरता नहीं, बर्बरता है । सच्ची विजय वही है, जिसमें रक्त की एक भी बून्द न बहे, जिसमें विजेता के हृदय में अहंकार की और विजित के हृदय में पराजय एवं घृणा की भावना उत्पन्न न हो, जिसमें विजेता की आकांक्षा विजित की अधिक-से-अधिक सेवा में हो और विजित की आकांक्षा विजेता को अपने हृदय के सिंहासन पर विराजमान कर देने में हो। यह विजय विजेता और विजित- दोनों को ही ऊँचा उठाती है । और दोनों को महान् बनाती है। मानवता का मौलिक विधान मनुष्य - मनुष्य के बीच जो जाति, वर्ण, धन तथा प्रतिष्ठा आदि की भेद - भित्तियाँ खड़ी हुई हैं, इन्हीं के कारण भारत की पवित्र आध्यात्मिक संस्कृति की जड़ें खोखली हो गई हैं । जब तक भेद-भावना की इन दीवारों को धक्के - पर - धक्का देकर गिरा न दिया जाए, तब तक भारतीय संस्कृति के पनपने की आशा करना, दुराशा मात्र है । अतएव भारत के प्रत्येक नर - नारी को प्रतिदिन प्रातः और सायं यह गम्भीर विचारणा करनी चाहिए कि "मानव और मानव के बीच कोई भेद नहीं, मानव मात्र को जीवन-विकास के क्षेत्र में सर्वत्र समान अधिकार है, स्वयं जीना और दूसरों को जीने देना ही मानवता का मौलिक विधान है।" मैं और मेरा मैं और मेरा तभी तक कालकूट विष है, जब तक वह अपनेआप में सीमित है, क्षुद्र 'स्व' की परिधि से घिरा है, मन और इन्द्रियों की ही रागिनी सुनता है । परन्तु ज्यों ही विराट् बनता है, 'स्व' के क्षेत्र से 'पर' के क्षेत्र में प्रवेश करता है, अखिल जगत् के भूमा स्वेव........ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रति स्नेह और करुणा की वर्षा करता है, तो अमृत बन जाता है । "जगत् का दुःख ही अपना दुःख और जगत् का सुख ही अपना सुख"—यह है मैं और मेरा का विराट और विश्व-मंगल रूप, जो क्षणभंगुर संसार में भी मनुष्य को अजर-अमर बना देता है। मैं और हम मैं नरक की राह है, तो हम स्वर्ग की राह है। मनुष्य के अन्तर्मन में 'मैं' का अंश जितना कम होगा और 'हम' का अंश बढ़ेगा, उतना ही वह समाज के नारकीय वातावरण को स्वर्गीय बना सकेगा । जहाँ 'मैं' है, वहाँ अहंकार है, दम्भ है, कायरता है, ईर्ष्या है, लोभ है, तृष्णा है और अशान्ति है। जहाँ 'हम' है, वहाँ नम्रता है, सरलता है, प्रेम है, संगठन है, समता है, उदारता है, त्याग और वैराग्य है। 'मैं' क्षुद्र तथा संकुचित है, 'हम' विराट तथा असीम है। बूद नहीं, सागर बनिए जल की नन्हीं बूंद के लिए सब ओर संकट ही संकट है, आपत्ति ही आपत्ति है । उसे मिट्टी का कण सोखने को उभरता है, हवा का झोंका उड़ाने को फिरता है, सूरज की तपती किरण जलाने को उतरती है, पक्षी की प्यासी चोंच पीने को अकुलाती है। किं बहुना, जिधर देखो उधर ही मौत बरसती है। यदि बूंद को अपना अस्तित्व बचाना है, तो उसे अल्प से भूमा बनना होगा, क्षुद्र से विराट् होना होगा, महासमुद्र बन जाना होगा। समुद्र हो जाने के बाद कोई भय नहीं, आतंक नहीं। आँधी और तूफान आएँ, लाखों पशु और पक्षी आएँ, जेठ का सूरज आग बरसाए और कड़-कड़ाती बिजलियाँ मौत उगलें, परन्तु समुद्र को इन सब उपद्रवों का क्या डर है ? वह भूमा , १० अमर • वाणी Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन चुका है, विराट् हो चुका है । उसके अस्तित्व को दुनिया में कहीं भी खतरा नहीं । मनुष्य भी 'मैं' और 'मेरा' में अवरुद्ध एक क्षुद्र बूँद है । वह यदि अपने क्षुद्र 'मैं' और 'मेरे' को 'हम' और 'हमारे' का विराट् रूप दे सके, तो वह बूँद से समुद्र बन जाए, देश और काल की सीमाओं को तोड़ कर अजर, अमर हो जाए । दूसरों के लिए जीना सीखो सूरज और चाँद का जग को प्रकाश देने में अपना व्यक्तिगत क्या लाभ है ? फूलों और फलों का अपने लिए वृक्ष क्या उपयोग करते हैं ? नदियों का बहने में अपना क्या स्वार्थ है ? प्रकृति का सब काम निष्काम भाव से विश्वोपकार के लिए हो रहा है । क्या विश्व - सृष्टि का स्वामी चैतन्य मनुष्य अपने निजी स्वार्थी को भुला कर जनहित के लिए कार्य नहीं कर सकता ? क्षुद्र और विराट प्रेम क्षुद्र प्रेम पशुता की ओर ले जाता है और विराट् प्रेम मानवता की ओर । विराट् प्रेम वह प्रेम है, जहाँ घृणा, द्वेष, क्लेश और हिंसा . के लिए स्थान ही नहीं रहता । सुप्रसिद्ध अहिंसावादी चीनी संत माओत्जे कहते हैं कि “ चोर अपने घर से प्रेम करता है, पर दूसरे के घर से नहीं । यही करण है कि वह अपने घर के लिए दूसरे के घर में चोरी करता है । हत्यारा अपने शरीर से प्रेम करता है, दूसरे के शरीर से नहीं । इसी कारण वश अपने शरीर के पोषण के लिए दूसरे की हत्या करता है । अधिकारी - गण अपने परिवार से प्रेम करते हैं, दूसरे के परिवार से नहीं । इसी कारण वे अपने परिवार के पोषण के लिए दूसरे परिवारों का शोषण करते हैं । राजा लोग अपने देश से प्रेम करते हैं, दूसरे देशों से नहीं । इसी कारण वे भूमा त्वेव ११ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने देश - हित के लिए दूसरे देशों पर आक्रमण करते हैं । यदि सभी लोग दूसरों के घर को अपने - जैसा समझे, तो कौन चोरी करेगा ? यदि सभी दूसरों के शरीर को अपने - जैसा समझे, तो कौन हत्या करेगा ? यदि सभी अपने परिवार - जैसा सभी परिवारों को समझे, तो कौन शोषण करेगा ? यदि सभी देश दूसरे देशों को अपने देश - जैसा देखने लगें, तो कौन आक्रमण करेगा?" अमर - वाणी Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता समत्व-योग अन्तरंग और बहिरंग जीवन में समत्व-योग की साधना का ही प्रचलित नाम धर्म है। अन्दर और बाहर में जितनी समता (एकरूपता) उतनी शान्ति और जितनी विषमता, उतनी ही अशान्ति । धर्म और योग का मूल अर्थ ही है, जीवन का सन्तुलन । गीता में कृष्ण इसीलिए तो कहते हैं-"समत्व योग उच्चते ।" सफलता का मूल-मन्त्र क्या आप विरोधी परिस्थितियों में भी अपने मन - मस्तिष्क का उचित सन्तुलन बनाए रख सकते हैं ? क्या आप विरोधी तत्वों, वादों, दलों और व्यक्तियों को भी एकसूत्र में पिरो सकते हैं ? क्या आप कभी फूल से भी कोमल और वज्र से भी कठोर हो सकते हैं ? क्या आप कभी अनेकता में एकता और एकता में अनेकता के भी दर्शन कर सकते हैं ? यदि 'हाँ', तो मैं आज स्पष्ट रूप में आपको लिखे देता हूँ कि आप समय आने पर एक सफल साधक, शासक, नेता, गृहपति आदि सब-कुछ हो सकते हैं । समता: १३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तव्य का रहस्य माली, यह क्या कर रहे हो ? तुम जहाँ एक ओर एक पौधे को काट - छाँट रहे हो, तोड़ - ताड़ रहे हो, वहाँ दूसरी ओर दूसरे पौधे को लगा रहे हो, सींच रहे हो, यह कैसी भेद-बुद्धि ? यह कैसी विसंगति ? तुम्हारे लिए तो सब वृक्ष एक हैं । भला, तुम क्यों किसी एक पर राग और दूसरे पर द्वेष करते हो ? भैय्या ! यह राग-द्वेष नहीं, समभाव है. भेद-बुद्धि नहीं, समबुद्धि है । मुझे समष्टि का हित देखना है, उपवन की सुन्दरता को सुरक्षित रखना है, बाग का उचित पद्धति से विकास करना है। यदि मैं समभावपूर्वक कर्तव्य - बुद्धि से यथोचित अनुग्रह तथा विग्रह न करूं, तो कहीं का न रहैं ! तुम बाहर में न देख कर अन्दर में देखो। यह राग - द्वेष नहीं, पवित्र कर्तव्य है, जिसमें दोनों का ही एक - जैसा अभ्युदय है। सुख-दुःख हमारे मेहमान हैं आपका कोई मेहमान जब आपके द्वार पर आए, तो आप उसका स्वागत करते हैं न ? दुःख और सुख दोनों ही आपके मेहमान हैं। जिस प्रकार सुख का स्वागत करते हैं, उसी प्रकार दुःख का सहर्ष स्वागत कीजिए। वह भी आपका मेहमान है, आपका बुलाया आया है, फिर भला वह किसी अन्य पड़ोसी के यहाँ जाए, तो कैसे जाए ? वह नहीं जा सकता, कभी नहीं जा सकता । आप रोएँ, तब भी वह आपके यहाँ रहेगा और आप हँसें, तब भी । वह आपका मेहमान है। मेहमान के सामने रोनी सूरत बनाने की अपेक्षा प्रसन्न-मूर्ति होना ही गौरव की बात है। १४ अमर-वाणी Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख में समभाव मैं देखता हूँ, प्रायः धर्मोपदेशक या अन्य लोग दुःख को समभाव से सहन करने की शिक्षा देते हैं । परन्तु, क्या अकेले दुःख में ही समभाव की आवश्यकता है, सुख में नहीं ? मुझे तो ऐसा लगता है कि दुःख की अपेक्षा सुख में ही अधिक समभाव की आवश्यकता है । प्रायः लोगों को दुःख की अपेक्षा सुख ही कम हजम होता है । इतिहास में हजारों आदमी ऐसे मिल सकते हैं, जो प्राप्त सुख को समभाव से सहन न कर सकने के कारण पागल हो गए । रावण, दुर्योधन, कंस और जरासन्ध आदि इसी श्रेणी के पागल तो थे ! लाठी या लाठी वाला ? संसार में दो प्रकार की मनोवृत्तियाँ हैं---एक श्वान-मनोवृत्ति और दूसरी सिंह की । श्वान का अर्थ है-कुत्ता । कुत्ते को जब कोई लाठी मारता है, तब वह उछलकर लाठी को मुंह में पकड़ता है । कुत्ता समझता है, 'लाठी ही मुझे मार रही है।' परन्तु, क्या लाठी को पकड़ने से समस्या हल हो जाती है ? जब तक लाठी के पीछे का हाथ मौजूद है, तब तक लाठी की हरकत बन्द नहीं हो सकती ! दूसरी, सिंह - मनोवृत्ति है। सिंह को जब कोई लाठी या ढेले से मारता है, तो वह लाठी और ढेले पर नहीं झपटता । वह झपटता है, लाठी मारने वाले पर ! उसकी दृष्टि में लाठी कुछ नहीं है । जो कुछ है, लाठी मारने वाला है ! इसी प्रकार अज्ञानी आत्मा दुःख देने वाले पर क्रोध करता है, उसे ही उपद्रव का मूल कारण समझता है । परन्तु, ज्ञानी आत्मा दुःख या संकट देने वाले पर आवेश नहीं करता । उसका लक्ष्य, उसमें रहे हुए कषाय - भाव की ओर रहता है । वह समझता है, “यह बेचारा समता: १५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो निमित्त कारण है, कषाय - भाव से प्रेरित है, अतः पापाचरण के लिए विवश है । इस पर क्या रोष करूँ ? इसके अन्दर रहे हुए विकारों को मैं यदि दूर कर सकूँ, तो फिर वह अपने-आप अच्छा .हो जाएगा, भला हो जाएगा !" अस्तु, सिंह - मनोवृत्ति का साधक उपद्रवी के विकारों पर झपटता है, अहिंसा और प्रेम के अस्त्र से उन्हें पराजित करता है । भागो नहीं, दृष्टि बदलो गृहस्थो ! संसार से भागने की आवश्यकता नहीं है । भाग कर आखिर जाओगे भी कहाँ ? जहाँ जाओगे, वहाँ संसार तो रहेगा ही । अतः भागो नहीं, दृष्टि बदलो ! परद्रव्यों में से, पदार्थों और परिजनों में से ममत्वरूपी जहर निकाल दो, फिर भले ही उसका उपयोग करो, वह कष्ट नहीं देगा, अपितु बल देगा, अमरत्व देगा । आप जानते हैं, सोमल जहर को मार डालने से, वह संजीवन बन जाता है— अमृत बन जाता है । वैराग्य की ऊँचाई जब आप किसी पहाड़ की ऊँची चोटी पर चढ़े होते हैं, तत्र नीचे के पदार्थ क्षुद्र नजर आने लगते हैं । ऊँचे ऊँचे वृक्ष जमीन से लगे हुए से, और गाय, भैंस, मनुष्य सब छोटे - छोटे बौने से ! इसी प्रकार जब साधक वैराग्य की, आत्म - भाव की ऊँचाइयों पर चढ़ा होता है, तब उसे संसार के समस्त भोग-विलास, धन, वैभव, मानप्रतिष्ठा तुच्छ एवं क्षुद्र मालूम होने लगते हैं । संसार का महत्त्व संसार की ओर नीचे झुके रहने तक है, दूर ऊँचे चढ़ जाने पर नहीं । अमर-वाणी १६ 1 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहर • भीतर एक समान अरे मनुष्य ! तू नुमाइश क्यों करता है ? तू जैसा है, वैसा बन । अन्दर और बाहर को एक कर देने में ही मनुष्य की सच्ची मनुष्यता है। यदि मानव अपने को लोगों में वैसा ही जाहिर करे, जैसा कि वह वास्तव में है, तो उसका बेड़ा पार हो जाए। कर्मवाद का आदर्श एक सज्जन ने पूछा-“कर्मवाद का व्यावहारिक जीवन-क्षेत्र में क्या आदर्श है ?" मैंने कहा- “एक मनुष्य कहीं जा रहा है। दूसरा आदमी आता है और उसको पत्थर मार देता है। बताइए, तब क्या होता है ?" उत्तर मिला-“मन में भयंकर विद्रोह होता है, द्वन्द्व होता है, चारों तरफ घृणा, द्वेष, क्रोध एवं नफरत बरस पड़ती है। आखिर, उसने मुझे मारा ही क्यों ?" मैंने कहा"कल्पना करें, किसी ने मारा नहीं, व्यक्ति अपने आप ही गलती से ठोकर खा जाता है, और चोट लगने से तिलमिलाने लगता है। बताइए, तब क्या होता है।" उत्तर मिला--- "तब यही होता है कि अपनी गलती से ठोकर लगी है, अतः दूसरों को क्या दोष दें ? किससे द्वष, घृणा-नरफरत करें ? चोट लगी है, बस उसे समभाव से सहन कर लेना है। आखिर, अपनी भूल ने ही तो मारा है ?" मैंने कहा--"कर्मवाद यही सिखाता है कि अपना किया कर्म है। शान्ति से भोगो ! व्यर्थ ही दूसरों को दोष देने, और घृणा करने से क्या लाभ ? अपितु, दोषारोपण और घृणा, तो आगे के लिए और अधिक बन्धन में डालेगी ! दुःख का मूल कारण अपनी आत्मा में ही है, अपने दोष में ही है। दूसरे तो मात्र निमित्त हैं ! कर्मवाद, विचारक के लिए समभाव का आलम्बन है !" समता: Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यं शिवं सुन्दरम् जीवन में स्वर्ग उतारो मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग में जाना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना कि इस जीवन में ही आचरण के रंगमंच पर स्वर्ग को उतारना। यदि अगले जीवन में अपने मनोऽनुकूल कुछ परिवर्तन चाहते हो, तो पहले यहाँ इस जीवन में परिवर्तन करो। संघर्ष और सहयोग मानव - जाति का उत्थान संघर्ष में नहीं, सहयोग में है। स्पर्धा में नहीं, सहकारिता में है। वैमनस्य में नहीं, प्रेम में है। हमारा सुन्दर भविष्य आपसी भाईचारे पर निर्भर है। इस विशाल पृथ्वी पर एक कोने से दूसरे कोने तक बसे हुए मानव समूह में जितनी अधिक भ्रातृभावना विकसित होगी, उतनी ही शान्ति और कल्याण की अभिवृद्धि होगी। सत्य सत्य एक साधना है, कठोर साधना ! उसका मार्ग तलवार की पैनी धार पर होकर गुजरता है। उस पर चलते समय न इधर १० अमर - वाणी Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झुकना है और न उधर, और न कहीं भी बीच में झुक कर खड़ा होना पड़ता है । ठीक लक्ष्य के सामने एक - एक कदम बढ़ाना है। सत्य के राही का एक ही नारा है- “चरैवेति, चरैवेति”- चले चलो, चले चलो! सत्य और प्रिय सच्ची बात और है तथा चुभने वाली और । बात वह कहनी चाहिए, जो असर तो करे, पर सुनने वाले के हृदय को छेद न डाले। व्यक्ति और सत्य इस व्यक्ति या उस व्यक्ति की ओर न लुढ़क कर सत्य की शरण स्वीकार करो। व्यक्ति जन्मता है, तो मरता भी है, परन्तु सत्य अजन्मा है, अजर और अमर है। सत्यं, शिवम् जो सत्य है, वह बोलना चाहिए, यह ठीक नहीं है। अपितु, जो सत्य जनता का कल्याण करने वाला हो, शिव रूप हो, वह बोलना चाहिए, यह ठीक है। अहिंसा __ अहिंसा वह अद्भुत शक्ति है, जिसके समक्ष भय, आशंका, अशान्ति, कलह, घृणा और पशुत्व आदि भाव पल-भर के लिए भी नहीं ठहर सकते। ___ अहिंसा मानवता की आधार-शिला है, मानवता का उज्ज्वल प्रतीक है। परिवार में, समाज में, राष्ट्र में यदि शान्ति का दर्शन करना हो, तो अहिंसा का मूल - मंत्र जपना ही होगा । अहिंसासाधना शरीर का हृदय - भाग है । वह यदि सक्रिय है, तो साधना जीवित है, अन्यथा मृत है। सत्यं, शिवं, सुन्दरम् : १६ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी प्राणी को मारना अपने को मारना है । और दूसरे प्राणी को बचाना अपने को बचाना है । जब तक यह गम्भीर सत्य अन्तः करण की गहराई में न बैठे, तब तक अहिंसा कैसी ? अहिंसा का सफल प्रयोग अहिंसा और प्रेम की शक्ति दुर्बल तथा अशक्त तभी तक मालूम देती है, जब तक वह अविकसित है । जल अग्नि पर अवश्य विजय प्राप्त करता है, परन्तु तभी, जबकि उसका खुलकर पूरी शक्ति से प्रयोग किया जाए ! वन में दावानल लगी हो, अगर कोई चुल्लूभर पानी उस पर डाले, तो क्या होगा ? जलते दावानल पर वर्षा की झड़ी लगे, तो क्या अग्नि की एक चिनगारी भी शेष रहेगी ? आज के लोग अहिंसा का चुल्लू भर चुल्लू-भर क्या बूंद जितना तो प्रयोग करते हैं और चाहते हैं उससे घृणा तथा अहिंसा का दावानल बुझाना ! वह बुझे तो कैसे बुझे ? प्रेम और अहिंसा की झड़ी लगाइए, फिर देखिए, दावानल बुझता है या नहीं ? पाशविक शक्ति का प्रतिकार आपको एक आदमी ने कुत्ते की तरह काट खाया और बदले में आपने भी उसे कुत्ते की तरह काट खाया। अब मैं इस विचार में हैं कि उसमें और आप में अन्तर ही क्या रहा ? आप दोनों ही कुत्ते की भूमिका से आगे नहीं बढ़ सके । क्या पाशविक शक्ति का मुकाबला पाशविकता से ही किया जा सकता है, मानवी शक्ति से नहीं ? पाशविक शक्ति के कुचक्र में फंसी दुनिया के उद्धार के लिए मानवी - शक्ति को जागृत कीजिए । आखिर, इसके बिना गुजारा नहीं है। आग को बुझाने के लिए आग काम नहीं आएगी, पानी ही काम आएगा । अमर वाणी Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम की शक्ति तलवार मनुष्य के शरीर को झुका सकती है, मन को नहीं । मन को झुकाना हो, वश में करना हो, तो प्रेम के अस्त्र का प्रयोग करो। प्रेम का राज्य हजारों-लाखों वर्षों बाद भी चलता रहता है, जबकि तलवार मनुष्य के जीनन - काल में ही टूटकर खण्ड-खण्ड हो जाती है। ___अहिंसा के पुजारी का कोई शत्रु नहीं है। जो दूसरों के लिए हृदय में प्यार भर कर चला है, उसे सर्वत्र प्यार ही मिलेगा, आदर ही मिलेगा। प्यार को प्यार मिलता है और तिरस्कार को तिरस्कार! खरी - खरी "जो तलवार से ऊँचे होंगे, वे तलवार से ही नष्ट हो जाएँगे" प्रभु ईसा का यह अमर वाक्य क्या भूला देने योग्य है ? क्या इस वाक्य में मानव - जाति की युद्ध - परम्पराओं का विराट् इतिहास अंकित नहीं कर दिया गया है ? भूमण्डल पर शान्ति, शक्ति से नहीं, स्नेह से मिल सकती है । जो स्वयं जिन्दा रहेंगे और दूसरों को जिन्दा रहने देंगे, उनके हाथ में आई शक्ति ही विश्व के लिए वरदान होगी। जिस शक्ति के पोछे स्नेह नहीं है, जन-कल्याण नहीं है, वह शक्ति रावण की होती है, राम की नहीं। प्रेम की पगडंडी जहाँ विषय-वासना है, वहाँ प्रेम कैसा ? प्रेम की पगडंडी तो शुद्ध आध्यात्मिक भाव के ऊँचे शिखरों पर से होकर जाती है। प्रेम शरीर की सुन्दरता और धन की सम्पन्नता नहीं देखता है, वह देखता है- एकमात्र आत्मा की सुन्दरता और सद् - गुणों की सम्पन्नता। सत्यं, शिवं, सुन्दरम् : २१ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम और मोह प्रेम और मोह दोनों दो अलग-अलग चीजें हैं। दोनों को एक समझना भारी भूल है । प्रेम आत्मा को विकसित करता है, विराट बनाता है और मोह आत्मा को संकुचित करता है। प्रेम निष्कामभावना की शुद्ध स्नेहानुभूति है, तो मोह स्वार्थ की दूषित अनुरक्ति! प्रेम प्रेम क्या है ? प्रेम हृदय की वह तरंग है, जो शत्रुता से मित्रता की ओर, क्षुद्र - व्यष्टि से विराट् - समष्टि की ओर दौड़ती है, और अखिल विश्व को अपनी सहज ममता के द्वारा आत्मसात् कर लेती है। राम की उदारता भारतीय इतिहास कहता है कि जब विभीषण सर्व-प्रथम राम से मिले, तो राम ने उसका 'लंकेश' कहकर स्वागत किया। पास बैठा हुआ एक बानर मुस्कराया और बोला “यदि रावण सीता को लौटा दे तो फिर उसका कहाँ राज्य होगा ?" राम ने गम्भीरता से उत्तर दिया- “कोई आपत्ति नहीं। तब मैं भाई भरत को विभीषण के लिए अयोध्या का सिंहासन छोड़ने के लिए कहूँगा।" यह है भारतवर्ष का राम ! क्या हम अब भी कभी इतनी ऊँचाई पर चढ़ने का प्रयास करेंगे? ऊँचे जीवन,समेटने से नहीं,बल्कि उदारता पूर्वक बाँटने से बनते हैं । दिव्य सन्देश सब से अच्छी बात तो यह है कि तुम जहाँ रहते हो, वहाँ अमर वाणी Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने आस - पास, सेवा का एक छोटा - मोटा केन्द्र बनालो और उपलब्ध साधनों के साथ जन-सेवा में जुट जाओ। दुर्भाग्य से यदि सेवा की बुद्धि न हो, अथवा सेवा कर सकने की स्थिति न हो, तो किसी की अप - सेवा तो न करो, किसी को कष्ट तो न पहुँचाओ। यदि तुम किसी को हँसा नहीं सकते, तो किसी को रुलाओ तो मत ! किसी को आशीर्वाद नहीं दे सकते, तो किसी को श्राप तो न दो, गाली तो न दो ! दिव्य अमृत ___ कभी रुद्र कहा जाने वाला देव शिव क्यों हो गया ? कल्याण एवं मंगल का महादेव कैसे हो गया ? अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन करते समय सर्व प्रथम विष निकला। मंथन अर्थात् संघर्ष, द्वन्द्व । संघर्ष में सर्व प्रथम विष आता है। वह विष समग्र विश्व को मृत्यु के घाट उतार देने के लिए उद्यत था, अतः मंथन करने काले पौराणिक देव - दानव सभी भयभीत । शिव ही थे, जिन्होंने लोक - कल्याणार्थ सहर्ष विष को पी लिया, और पचा गए । और रुद्र सही अर्थ में शिव हो गए। यह शिव की,अहिंसा की, लोक-रक्षण की दिव्य - भावना का पौराणिक ही सही, किन्तु है अनुपम उदात्त उदाहरण । ऐसे शिव, महादेव अपेक्षित हैं- हर परिवार में, हर समाज में, हर धर्म में, हर राष्ट्र में, ताकि सब ओर अबाध गति से फैलता जा रहा घृणा, विग्रह, विद्वेष का हलाहल विष समाप्त हो और परस्पर मैत्री, करुणा, सहयोग एवं सेवा का दिव्य अमृत सबको प्राप्त हो। सत्यं, शिवं, सुन्दरम् : २३ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरम् सत्य विश्व - मंगल रूप है । इसलिए वह शिव है और सुन्दर है। विश्व कल्याण के लिए, जन - हित के लिए किया गया कर्म सुन्दर है । वस्तुतः सौन्दर्य केवल बाहर में नहीं, अन्तर् में निहित है । अनन्त करुणा, मैत्री एवं सद्भावना से ओत - प्रोत अन्तरंग सौन्दर्य ही जन - मन को आकर्षित करता है। वास्तव में सुन्दर एवं रमणीय वह है, जो प्रति क्षण नया बना रहता है । इस क्षण से आनेवाले आगे के क्षणों में, जो और भी सुन्दर प्रतीत होता है । यथार्थ में वह कभी पुराना पड़ता ही नहीं, सदा - सर्वदा नया बना रहता है। २४ अमर - वाणी Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन * जीवन की कला * मानव * महामानव * यौवन Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की कला जीवन का स्वरूप जीवन क्या है ? परस्पर विरोधी तूफानों का संघर्ष, जो इस संघर्ष में अड़ा रहा, बढ़ता रहा, भूला - भटका नहीं, वह शेर है बाकी सब गीदड़ है। चलना ही जीवन है चले चलो, चले चलो ! देखो कहीं खड़ें न हो जाना । चलना जीवन है, और खड़े होना मृत्यु । व्यक्ति हो या समाज, जो खड़ा हो गया, बह समाप्त हो गया और जो चलता रहा, वह प्रतिदिन नया जीवन प्राप्त करता रहा। झरने बहते रहे, बीच के साथियों से मिल - मिल कर नदी बनते रहे और सारे मार्ग में जन - कल्याण करते हुए समुद्र में पहुँच कर समुद्र बन गए, परन्तु गाँव का पोखर बिना प्रवाह के पड़ा-पड़ा सड़ गया, गन्दा हो गया, मच्छरोंकी जन्मभूमि बन कर वातावरण को दूषित करता हुआ, जन - जन की घृणा का पात्र बन कर समात हो गाया। जीवन की कला: २७ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन - पथ यह भी कोई जीवन है कि मरियल कुत्ते की तरह हरदम दुम दबाए, दुबके-से, डरे-से, फिरते रहें। गलत बात के आगे सिर झुकाना, दुर्बलता का चिन्ह है। भयभीत मनुष्य जीवन की लड़ाई नहीं लड़ सकता। वह दब्बू हर हालत में दूसरों को खुश करने में लगा रहेगा, और हर किसी के आगे आत्म-समर्पण करता-करता एक दिन चल बसेगा। और यह भी क्या जीवन कि भूखे भेड़िये की तरह हर दम गुर्राते रहें। न मिलने में रस और न बिछड़ने में। जीवन के चारों ओर आग ही आग बरसती रहे। पानी की एक बूंद भी न मिले। पत्थर की तरह कठोर होना ठीक नहीं है। जीवन में प्रेम की लचक भी होनी चाहिए। कठोरता और मृदुता ही जीवन है । जीवन का लक्ष्य मानव-जीवन केवल संग्रह करने के लिए नहीं है, अपितु संग्रह के साथ उसका उचित रूप से वितरण करने के लिए है। सफलता का मूल - मन्त्र आपका काम नीरस, असफल, अभद्र तथा अधूरा क्यों रहता है, क्या कभी इस प्रश्न पर विचार किया है ? नहीं किया हो तो अब कर लीजिए। आपका हर काम इसलिए अभद्र तथा अधूरा रहता है कि आप उसमें विश्वास, प्रेम और बुद्धिमत्ता का यथोचित मात्रा में उपयोग नहीं करते ! ये तीन गुण हैं, जो समस्त सद्गुणों, वैभवों, सफलताओं और ऐश्वर्यों के एकमात्र मूल कारण हैं। २८ अमर वाणी Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो लोग कर्मक्षेत्र में अधूरे मन से उतरते हैं, उसमें रस नहीं लेते, उसमें प्रतिभा का प्रकाश नहीं फेंकते, वे किसी भी उत्तरदायित्वपूर्ण पद को पाने की क्षमता नहीं रखते । मानव - संसार में एक पुरानी कहावत है कि 'जो रोता जाता है, वह अवश्य मरे की खबर लाता है !' हाँ, तो आप कर्तव्य के मोर्चे पर रोते हुए न जाइए ! हरगिज, न जाइए। हँसते जाओ, हँसाते जाओ, हँसते आओ, हँसाते आओ-सफलता का यही मूल - मन्त्र है, कृपया इसे भूलिए नहीं। वीर और कायर वीर और कायर में क्या अन्तर है ? सिर्फ एक कदम का । वीर का कदम जहाँ आगे की ओर बढ़ने में होता है, कायर का कदम पीछे की ओर भागने में होता है। सिद्धि और प्रसिद्धि मानव की सबसे बड़ी भूल यह है कि वह जितना प्रयत्न प्रसिद्धि पाने के लिए करता है, उतना सिद्धि पाने के लिए नहीं करता ! बिना सिद्धि ( सफलता ) के प्रसिद्धि (ख्याति) प्रथम तो मिलती नहीं है ! यदि कभी किसी कुचक्र से मिल भी जाती है, तो वह अधिक ठहर नहीं सकती। इतना कच्चा रंग है उसका ! अतएव जीवन की साधना में साधक को पहले सिद्ध होना चाहिए ! प्रसिद्ध होने की क्या चिन्ता ? सिद्ध हुए, तो प्रसिद्ध होना ही है । स्वयं बुद्ध या बुद्ध - बोधित अपनी आँखों में प्रकाश हो, तो सावधानी के साथ अपने आप तीर की तरह सीधे चलो। क्यों किसी की अँगुली पकड़ने का इन्तजार हो । यदि अपनी आँख में रोशनी न हो, तो किसी प्रकाशवान् जीवन की कला : Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आँखोंवाले को खुश करो, उसके कन्धे पर हाथ रखकर पीछे-पीछे हो लो। हाँ, खड़े मत रहो, चलो अवश्य । यात्रा चलने से ही पूरी होगी। गुरु बनकर चलो या शिष्य,यह आपकी अपनी योग्यता पर है। सूली और सिंहासन जैन - संस्कृति में सूली से सिंहासन होने की अनेक कहानियाँ आती हैं ! यह एक अलंकार है, जीवन का अलंकार ! संसार का धन, वैभव, स्वजन, परिजन, मान - पूजा आदि जो मिला है–सब सूली है, जीवन के मर्म-स्थल को बींध कर रख देने वाली इस सूली पर चढ़कर वही सुख पाएगा, जो सूली से सिंहासन बनाने की कला जानता है ! जीवन की सूली पर सुदर्शन की तरह चढ़ो, उसे सूली से सिंहासन बनाओ। ममता की नुकीली नोक को तोड़ डालो। अपनी समस्त उपलब्ध शक्तियों को जग - हित के पथ पर निछावर कर दो । जहाँ 'मैं' और 'मेरा' है, वहाँ जीवन सूली है और जहाँ 'हम' और 'हमारा' है, वहाँ वही जीवन सिंहासन है। जीवन का रहस्य : गिरकर उछलना वह जीवन ही क्या, जिसे चोट खाकर दूना उत्साह और वेग न मिले ! निर्भर पत्थर से टकरा कर दूना वेग प्राप्त करता है। वह देखिए, रबड़ की गेंद भूमि से टकरा कर कितना ऊपर उछलती है ! प्रत्येक विघ्न-बाधा एवं चोट मनुष्य को ऊँचा उठाने के लिए है। यह जीवन का रहस्य क्या कभी मनुष्य की समझ में आएगा ? कुतुब मीनार से जब मैं दिल्ली के पास कुतुब मीनार की आखिरी मंजिल पर चढ़ा, तो नीचे के ताँगे,मोटर और मनुष्यों के विभिन्न स्वर, जो नीचे अमर वाणी Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपस में टकराते - से मालूम होते थे, सब मिलकर एक अखण्ड मधुर गान से प्रतीत होने लगे। तब मुझे एक दार्शनिक विचारणा ध्यान में आई कि साधक, अपने मन को भव-प्रपंच से जितना भी ऊँचा उठाएगा, जितना भी अलग करेगा, उतना ही जीवन के परस्पर विरोधी मानसिक द्वन्द्व कम होंगे और अखण्ड एकाग्रता एवं एकरसता का आनन्द आएगा ! यदि नीचे उतरते हैं, तो भेद की प्रतीति होता है, और ऊँचे चढ़ते हैं, तो अभेदानुभूति होती है । दुःख का वरदान दुःख की चोट से क्यों घबराते हो ? उसे पड़ने दो, जोर से पड़ने दो। नगाड़ा अपने आप नहीं बजता। वह बजता है डंके की चोट पड़ने पर ! ज्योंही डंके की चोट पड़ी कि नगाड़े की गम्भीर ध्वनि दूर - दूर तक जनता के कानों को आकृष्ट करने लगती है । दुःख की कड़ी से कड़ी चोट भी, यदि जीवन का नगाड़ा मजबूत है, तो यश की गम्भीर ध्वनि से दिग्-दिगन्तर गुंजाने के लिए है। खरा सोना बनिए आग से घास - फूस डरता है। ज्योंही आग का स्पर्श हुआ कि भस्म ! परन्तु खरे सोने को क्या डर है ? आग में पड़कर सोने की दमक जाती नहीं, वह और भी अधिक चमकती - दमकती है। मनुष्य ! तू सोना बन, धास-फूस नहीं। फिर दुःख की आग, चाहे कैसी ही हो, वह तुझे चमकाएगी, जलाएगी नहीं। खतरों से खेलना सीखिए समाज में प्रतिष्ठा या सम्मान उन लोगों के लिए है, जो बढ़कर आगे आते हैं, सेवा में जुटते हैं, संघर्ष में पड़कर भी मस्नक पर बल जीवन की कला : Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं लाते । जो लोग पीछे पड़े हैं, कोने में दुबके हैं, उनके लिए संसार के सत्कार का उपहार कहीं भी नहीं है। हाथी रण-क्षेत्र में रहते हैं और मच्छर अँधेरी कोठरी के गन्दे कोने में ! प्रतिज्ञा पर अड़े रहो आपने प्रतिज्ञा कर ली, बुराई का परित्याग कर दिया । परन्तु फिर उसी बुराई को अपनाने लगे, स्वीकृत प्रतिज्ञा को भंग करने लगे। यह तो ऐसा हुआ कि पहले थूका, और फिर चाट लिया। बात कड़वी है। परन्तु, यह कटु औषध, हलाहल जहर पीने से बचाती है। सती राजीमती ने रथनेमि को इसी प्रकार ललकारा था-"क्या तुम वमन किए हुए भोजन को फिर खाना चाहते हो। यह तो कुत्तों का काम है, मनुष्यों का नहीं। इस प्रकार के कुत्सित जीवन से मृत्यु कहीं अच्छी है" ।' वस्तुतः प्रतिज्ञाहीन भोगासक्त जीवन मुरदे के बराबर है। १. राजामती की कथा जैन - साहित्य में अत्यन्त प्रसिद्ध है। बाईसवे तीर्थङ्कर भगवान् नेमिनाथ के साथ उसका विवाह निश्चित हुआ था। बरात के स्वागत में मारे जाने वाले पशु - पक्षियों के करुण - क्रन्दन को सुनकर नेमिनाथ विवाह किए बिना ही वापिस लौट गए और घर - बार छोड़ कर मुनि हो गए। राजीमती ने भी दूसरे व्यक्ति के साथ विवाह करने की अपेक्षा अपने मनोनीत पति के पथ पर चलना उचित समझा। वह भी परिव्राजिका हो गई। एक बार वह नगर से रैवताचल पर्वत पर जा रही थी। मार्ग में वर्षा होने लगी, और वह भींग गई। पास ही एक गुफा थी। वह उसमें घुसकर कपड़े सुखाने लगी। नेमिनाथ का छोटा भाई रथनेमि भी उसी गुफा में ध्यानस्थ खड़ा था। बिजली की चमक के कारण उसकी दृष्टि राजीमती के नग्न शरीर पर पड़ी। मन विचलित हो उठा और उसने राजीमती के आगे सांसारिक सुख भोगने का प्रस्ताव रक्खा। उस समय राजीमती ने त्यक्त भोगों की वमन से उपमा दी और उसे फिर संयम-पथ पर दृढ़ कर दिया। २२ अमर • वाणी Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषणपूर्वक शोषण जब तक मनुष्य संसार में है, तब तक व्यापार के द्वारा या और किसी साधन के द्वारा रोटी - कपड़े का संग्रह करना ही पड़ता है, जीवन - व्यवहार के साधनों को जुटाना पड़ता है। आस-पास के जन-समाज में से कुछ-न-कुछ शोषण भी करना पड़ता है। परन्तु वह शोषण-पोषण पूर्वक होना चाहिए। गाय को दुहने जैसा होना चाहिए। जिस प्रकार गाय को दुहने से पहले खिलाते - पिलाते हैं, सेवा - शुश्रूषा करते हैं। अपना खिलाया - पिलाया जब दूध का रूप ले लेता है, तब उचित मात्रा में दुह लिया जाता है। उसी प्रकार मनुष्य को भी चाहिए कि वह पहले आस - पास के समाज का पोषण करे, सेवा - शुश्रूषा करे और उसके बाद उचित मात्रा में अपने पोषण के लिए उसमें से रोटी - कपड़े का संग्रह करे। पोषण-पूर्वक शोषण गाय का दुहना है, तो पोषणहीन शोषण खून निचोड़ना है। कठोरता, कोमलता के साथ मनुष्य को कठोर होना हो, तो उसे नारियल के समान होना चाहिए। नारियल बाहर से रूखा, नीरस और कठोर होता हैपरन्तु अन्दर से कोमल, मधुर और जीवन - प्रद रस से सराबोर । पत्थर के टुकड़े की तरह अन्दर और बाहर सर्वत्र कठोर जीवन अपनाने से क्या लाभ ? जीवन - संगीत महापुरुष की परिभाषा है कि वह वज्र - सा कठोर हो, और नवनीत - सा मृदु । कठोरता और मृदुता का मधुर मिश्रण ही महापुरुषत्व का जीवन - संगीत है। जीवन की कला : Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन और मृत्यु कुछ दिनों सांस लेने का नाम जीवन नहीं है, और इस धकधक का रुक जाना मृत्यु नहीं है। जीवन का अर्थ है-विश्व को अपने अस्तित्व का अनुभव कराना। ईंट - पत्थरों के ढेर खड़े करके अथवा दूसरों का शोषण करके नहीं, किन्तु दूसरों के लिए प्राणों का बलिदान करके । प्रत्येक सांस दूसरे के लिए लेना सीखिए। जिस दिन आपने सिर्फ अपने लिए ही श्वास लेने प्रारम्भ किए, वही मृत्यु का दिन है। अहिंसा की ऊर्जा वस्तुतः जो सूक्ष्म है, यदि उसे स्थूल बना दिया जाता है, तो उसकी आस्मा, ऊर्जा समाप्त हो जाती है। यही बात अहिंसा के सम्बन्ध में है। अहिंसा बाह्य व्यवहार का स्थूल विधि - निषेध मात्र नहीं है, वह तो अन्तश्चेतना का एक सूक्ष्म भाव हैं । परन्तु, दुर्भाग्य से उसका सूक्ष्म भाव क्षीण - क्षीणतर होता गया और उसे व्यवहार का दिखाऊ स्थूल विधि - निषेध का रूप दे दिया गया। फलतः अहिंसा की ऊर्जा एक प्रकार से समाप्त हो गई। यदि अहिंसा की पुनः प्राण - प्रतिष्ठा करनी है, तो हम उसे स्थूल व्यवहार की क्षुद्र परिधि से मुक्त कर व्यापक बनाएँ और जीवन की सूक्ष्म अनुभूति एवं हृदय की गहराई तक अवतरित करें। अमर - वाणी Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवता चौराहा मानव विश्व के चौराहे पर खड़ा है। वह जिधर चाहे, जा सकता है। जो कुछ चाहे,बन सकता है । जो मनुष्य बन कर रहेगा, वह स्वर्ग और मोक्ष की ओर बढ़ेगा। और, जो मनुष्यत्व से गिर जाएगा, वह नरक या पशु-गति की राह पकड़ेगा। पशु, मनुष्य, देव और देवाधिदेव जो विकारों का दास है, वह पशु है। जो विकारों को जीत रहा है, वह मनुष्य है । जो विकारों को अधिकांश में जीत चुका है, वह देव है, और जो विकारों को पूर्णतः जीत चुका है, सदा के लिए जीत चुका है, वह मनुष्य होकर भी देवताओं का भी देवता है, देवाधिदेव है, विश्व-विजेता है। मनुष्य ही भगवान् है श्रमण भगवान् महावीर के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर है, परमात्मा है, ब्रह्म है. सिद्ध है, बुद्ध है, जिन है, यदि वह अपने-आपको पहचान ले,संवार ले, साफ कर ले और पूर्ण बनाले ! मानवता। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवता का केन्द्र मानव ! क्या तू अपने - आपको पहचानता है ? यदि हाँ, तो बतला तू कौन है ? तू स्थूल शरीर है या इसके कण-कण में समाया अत्मा ? जो आत्मा की ओर अग्रसर होता है, वह मनुष्य है, और जो शरीर के घेरे में ही अवरूद्ध है, आगे नहीं बढ़ता, वह नर-देह के रूपमें पशु है । मानवता का केन्द्र वस्तुतः आत्मा है, शरीर नहीं। कर्तव्य और अधिकार मानव ! तेरा अधिकार कर्तव्य करने तक है, फल तक नहीं। तू जितनी चिन्ता फल की रखता है, उतनी चिन्ता कर्तव्य की क्यों नहीं रखता ? किसान खेत को जोत-जात कर तैयार कर सकता है, बीज बो सकता है, सिंचाई की व्यवस्था कर सकता है, खाद डाल सकता है, रखवाली कर सकता है, परन्तु बीज को अंकुरित करने और उसे धीरे-धीरे विकसित करने का काम तो प्रकृति का है। इस सार्वमौम अटल सिद्धान्त को, क्या तू, अपने कर्तव्य की कृषि में नहीं अपना सकता ? मानव का मूल्य किसी भी मनुष्य का मूल्यांकन करते समय न उसके धन को देखो, न जन-गण को देखो और न उच्च पद को देखो ! मनुष्य का वास्तविक मूल्य प्रामाणिकता के साथ अपने यथाप्राप्त कर्तव्य का पालन करते रहना है । जो मनुष्य जितनी ही अधिक योग्यता और ईमानदारी के साथ अपना उत्तरदायित्व निभाता है, कर्तव्य के लिए जीता - मरता है, वह उतना ही अधिक मूल्यवान हो जाता है। अमर वाणी Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव-जीवन का ध्येय मानव-जीवन का चरम ध्येय त्याग है, भोग नहीं, श्रेय है, प्रेय नहीं । भोग-लिप्सा का आदर्श मनुष्य के लिए सदैव घातक है, और रहेगा। मानव-जीवन का अर्थ मानव-जीवन संसार में प्रत्येक प्राणी के लिए सुन और शान्ति की स्थापना करने के लिए है, व्यक्तिगत भोग - लिप्सा में उलझे रहने और तदर्थ संघर्ष करने के लिए नहीं । मनुष्यता क्या अच्छा खाना मनुष्यता है ? अच्छा खाना तो रईसों के कुत्ते-बिल्ली भी खा लेते हैं। क्या ऊँचे और भव्य भवनों में रहना मनुष्यता है ? ऊँचे और भव्य भवनों में तो चिड़ियाँ भी घोंसला बना लेती हैं, कीड़े - मकीड़े भी निवास कर लेते हैं। क्या संस्कृत, प्राकृत आदि भाषा की रचनाओं के पढ़ लेने में मनुष्यता है ? तोते और मैना भी संस्कृत के श्लोक बोल लेते हैं । क्या वीरता और बल में मनुष्यता है ? वीरता और बल में तो जंगल का शेर भी कहीं बड़ा क्रूर होता है। फिर मनुष्यता है कहाँ ? मनुष्यता है ऊँचे विचार और ऊँचे आचार में । मानवता का स्रोत मैंने कठोर पर्वतमालाएँ देखी हैं, और देखी हैं उन पर हरीहरी घास और झाड़ियाँ ! पत्थर की कठोर चट्टानों से मोती के समान शीतल एवं स्वच्छ झरने बहते देखे हैं । क्या मनुष्य पहाड़ से मानवताः Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी अधिक कठोर है, जो उसमें से प्रेम, सहानुभूति और दया का झरता न बहे, हरियाली न फूटे । पड़त को तोडिए धरती की पड़त के नीचे सागर बह रहे हैं। पहाड़ की चट्टान के नीचे झरने उछल रहे हैं । जरा पड़त हटाने की देर है और फिर पानी - ही - पानी ! मनुष्य के स्वार्थी - मन की पड़त के नीचे भी मानवता का, दया का और करुणा का अपार सागर लहरा रहा है। मन की पड़त को तोड़ कर मानवता का अमृत - झरना बहा देने में ही मानव-जीवन की सफलता का रहस्य छिपा हुआ है। मानव-जीवन की भूमिका यदि तू देवता है, तो कुछ नीचे उतर जा और यदि पशु है, तो ऊपर चढ़ जा । मानव-जीवन की भूमिका पशुत्व और देवत्व के बीच की भूमिका है। यहीं से निःश्रेयस की ओर सीधी पगडंडी जाती है । पशु अवनति में है, तो देवता उन्नति में। पर निःश्रेयस, आत्मिक अभ्युदय, दोनों ही जगह नहीं है। वह मानव - जीवन में ही है, यदि कोई मानवता के पथ पर चल कर उसे प्राप्त करना चाहे तो ! चेतना का विकास साधारण मानव की दृष्टि एक - मात्र अपनी ही देह और इन्द्रियों के भोग-विलास तक सीमित रहती है। उसकी चेतना केवल उसके अपने “मैं" में ही बन्द रहती है, आगे नहीं फैलती। ऐसा मानव स्वरक्षण वृत्ति के फंदे में पड़ कर भयंकर-से-भयंकर अन्याय, अत्याचार एवं पापाचार करने को कटिबद्ध रहता है। उसका उपास्य-देव एकमात्र अपना क्षुद्र 'मैं' ही है। अमर वाणी Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब मनुष्य आगे बढ़ता है, स्व - रक्षण से पारिवारिक रक्षण की चेतना से अनुप्राणित होता है, तो उसका जीवन-लक्ष्य परिवार की सीमा में पहुँच जाता है। इसके आगे समाज - रक्षण, और राष्ट्र - रक्षण की विकसित चेतना का नम्बर आता है। परन्तु, रक्षण-वृत्ति के विकास का महत्त्व यहीं तक सीमित नहीं है, उसका चरम विकास तो विश्व - रक्षण की चेतना में ही सन्निहित है। विश्व - रक्षण की उदार मनोवृत्ति को रखने वाला और उसी के अनुसार अपना विश्व - हितंकर आचरण करने वाला मानव ही मानवता का सच्चा पुजारी कहला सकता है । क्योंकि अन्ततोगत्वा विश्व - रक्षण की विराट् वृत्ति में ही मानवता की सर्वोच्च परिणति निहित है । स्व - रक्षण को सर्व - रक्षण वृत्ति में बदल देना ही मानव - जीवन की सर्व-श्रेष्ठ और ज्योतिष्मती दिशा है। मानवता मानव एकमात्र 'स्व' में ही सीमित रहने के लिए नहीं है। मनुष्य की महत्ता उसकी परार्थ-वृत्ति के विकासे में ही है । अतएव हमारी हृदय - वीणा का प्रत्येक तार विश्व-मैत्री की पवित्र भावना से प्रतिक्षण झंकृत रहना चाहिए । प्राणी-मात्र के कल्याण के लिए आत्मोत्सर्ग करना ही मानव - जीवन की सफलता का मूलमंत्र है, यह अमर सिद्धान्त कभी भी भूलने की चीज नहीं है। मनुष्य क्या है ? मनुष्य न केवल शरीर है, न केवल मन है और न केवल आत्मा है। इन सब की समष्टि का नाम ही मनुष्य है। अतएव मनुष्य का यह परम कर्तव्य है कि वह शरीर, मन और आत्मा तीनों को समान रूप से सन्तुलित रखे, इन्हें अस्वस्थ न होने दे। मानवता Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य की कसौटी आपत्ति या संकट से घबराओ नहीं। यह सब मनुष्य के खरेपन को परखने के लिए कसौटी है। और, यह याद रखना चाहिए कि कसौटी सोने के लिए होती है, लोहे या पीतल के लिए नहीं। मनुष्य, पशु और राक्षस जिसका जीवन संतुलित है, नियमित है, वह मनुष्य है। और जिसका जीवन सन्तुलित नहीं है, नियमित नहीं है, वह यदि अशक्त है, तो वह पशु है और सशक्त है, तो राक्षस ! मनुष्य की तीन कोटियां जिसका हृदय पहले बोलता है और वाणी बाद में बोलती है, वह महापुरुष होता है। जिसकी वाणी पहले बोलती है, हृदय बाद में बोलता है, वह मध्यम पुरुष होता है। जिसकी पहले - पीछे केवल वाणी ही बोलती है, हृदय कभी नहीं बोलता, वह अधम पुरुष है। उत्सर्ग ही महान है, वस्तु नहीं इस विराट् संसार में साधारण व्यक्ति की शक्ति अति क्षुद्र है। वह बहुत थोड़ी सेवा कर सकता है। किन्तु, जीवन की सफलता शक्ति की क्षुद्रता या विपुलता पर निर्भर नहीं है । अपनी क्षुद्र शक्ति का सम्यक् - विनियोग करनेवाला व्यक्ति सफल है, फिर चाहे वह कितनी ही अल्प क्यों न हो ? एक बूंद ने यदि किसी पिपासाकुल अमर-वाणी Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रज - कण की प्यास बुझा दी, तो उसका जीवन सफल हो गया, वह धन्य हो गई। उत्तम, मध्यम और अधम संसार में मनुष्यों की तीन श्रेणियाँ हैं। अधम, मध्यम और उत्तम । आचार्य भर्तृहरि ने कहा है कि 'जो विघ्न के डर से काम का आरम्भ ही नहीं करते, वे अधम जन हैं। मध्यम पुरुष वे हैं, जो साहस के साथ काम तो आरम्भ कर देते हैं, परन्तु बाद में विघ्नबाधाओं के आ जाने पर प्रयत्न - विमुख हो जाते हैं-सब - कुछ छोड़छाड़ कर भाग खड़े होते हैं। प्रारब्ध कार्य को पूरा करने में कितनी ही बाधाएँ आएँ, संकट आएँ, फिर भी प्रयत्न-विमुख न होने वाले- आरम्भ को सफल अन्त में परिणत करने वाले, उत्तम पुरुष होते हैं। उत्तम पुरुष जब यह मान लेते हैं कि यह बात न्यायोचित है, अतः होनी ही चाहिए, तो उसे करने के लिए कृत-संकल्प हो जाते हैं और जब तक वह पूरी नहीं होती, तब तक कदापि प्रयत्न विमुख नहीं होते। हिमालय की चट्टानों को ठुकरा कर अलग फेंकना और अपने लक्ष्य के प्रति सतत गतिशील रहना ही उत्तम पुरुष का अमर आदर्श है। मानव और महामानव मानव और महामानव की कृति तथा उक्ति में महान् अन्तर होता है। मानव का जीवन-मन्त्र है, एक गुनी कृति और कई गुनी उक्ति । कभी-कभी तो कृति नहीं, केवल उक्ति ही उक्ति ! और महामानव का जीवन-मंत्र होता है, महान् कृति और अल्प उक्ति । कभी-कभी तो उक्ति नहीं, केवल कृति ही कृति ! उक्ति और कृति में अभेद साधना ही महत्ता का प्रथम लक्षण है। मानवता । ४१ ४१ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिस्थिति और मानव परिस्थिति श्रेष्ठ है या पुरुष ? परिस्थिति शक्तिशाली है या पुरुष ? यह प्रश्न, कहते हैं कि इंगलैण्ड के सुप्रसिद्ध दार्शनिक एवं इतिहासज्ञ कार्लाइल ने उठाया था। किसी ने भी उठाया हो, यह प्रश्न आज का ही नहीं, मानव - जाति के आदि-काल का है। ऊपर के प्रश्न का उत्तर दो तरह से दिया जाता रहा है। 'हम मनुष्य बेबस और लाचार हैं। हमारा अस्तित्व ही क्या है ? परिस्थिति ही मनुष्य को बनाती और बिगाड़ती है। मनुष्य परिस्थिति का दास है, क्रीतदास ! वह नगण्य मानव महान् हो गया! हो गया होगा, उसे परिस्थिति अच्छी मिली होगी। मैं बर्वाद ही हो गया। क्या करूँ ? परिस्थिति ने साथ नहीं दिया।' यह एक उत्तर है। दूसरा उत्तर है- “परिस्थिति कुछ नहीं, मनुष्य ही सब-कुछ है । क्या परिस्थिति बलात् मनुष्य को नीचे - ऊँचे कर सकती है ? नहीं। मनुष्य स्वतन्त्र है। वह परिस्थिति के हाथ में नाचने वाली कठपुतली नहीं है। शक्तिशाली मनुष्य परिस्थिति को अपने नियंत्रण में लेता है, प्रतिकूल को भी अनुकूल बना लेता है और उसका स्वरूप जैसा चाहता है, बनाने में सफल होता है । पुरुष परिस्थिति का विजेता है, दास नहीं। परिस्थिति उसी पुरुष पर अधिकार करती है, जो अपने प्रचण्ड पुरुषत्व को पहले ही भूला बैठता है।" दूसरा उत्तर ही श्रमण-संस्कृति का उत्तर है । श्रमण-संस्कृति में परिस्थिति की नहीं, पुरुष की श्रेष्ठता है। अपने भाग्य का विधाता, अनन्त शक्तियों का केन्द्र, विश्व का विजेता, स्वयं पुरुष ही है, और कोई नहीं ! कोई नहीं !! कोई नहीं !!! ४२ अमर - वाणी Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामानव महानता की पगडंडी साधारण मानव वातावरण से बनते हैं । परन्तु, महामानव वातावरण को बनाते हैं ! समय और परिस्थितियाँ उनका कदापि निर्माण नहीं करतीं, परन्तु वे समय और परिस्थिति का निर्माण करते हैं । महामानव की परिभाषा ही है, 'युग का निर्माता ।' महामानव की परिभाषा मनुष्य एक ओर महान् होना चाहता है, दूसरी ओर संकटों से डरता है । विपत्तियों से भय खाता है । तूफानों से बचना चाहता है । यह जीवन की विचित्र विसंगति है ! महानता की पगडंडी फल-फूलों से लदे उद्यानों में से होकर नहीं जाती । वह तो जाती है काँटों में से, झाड़-झंखाड़ों में से, चट्टानों और तूफानों में से । यह वह पगडंडी है, जहाँ मृत्यु, अपयश तथा भयंकर यातनाएँ क्षण-क्षण पर आह्वान करती रहती हैं । और जब आप अपने लक्ष्य पर पहुँच जाएँ, हो सकता है, फिर भी काँटे ही मिलें । एक तत्त्ववेत्ता ने कहा है "प्रत्येक महापुरुष पत्थर मारे जाने के लिए है । उसके भाग्य में ही बदा होता है ।" महामानव : ४३ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनता का कलाकार महामानव वह है, निष्काम जन - सेवा ही जिसके जीवन का प्राण है । जनता - जनार्दन ही जिसका आराध्य देव है । सेवक बन कर रहना ही जिसके जीवन की आधारशिला है। अहिंसा और सत्य की पवित्र साधना ही जिसके जीवन का प्रकाशमान इतिहास है । महामानव सत्य का वह प्रकाश-स्तम्भ है, जो अपनी मृत्यु के बाद भी हजारों वर्षों तक अन्धेरे में भटकती हुई मानवता को प्रकाश देता रहता है । वह जनता का सर्वश्रेष्ठ कलाकार होता है । जिस प्रकार चतुर कलाकार बेडौल पत्थरके टुकड़े को घड़-घड़ कर सुन्दर, सुघड़ सजीव मूर्ति का रूप दे देता है, उसी प्रकार मानवता का कलाकार अविकसित, असंस्कृत, कुसंस्कार तथा कुरूढ़ियों से परिवेष्टित मानवता को प्रकाश में लाता है । उसे पशुता के स्तर से ऊँचा उठा कर देवता बना देता है। वही महामानव है, सब से ऊँचा, और सबसे महान् ! पूर्ण मानव पूर्ण मनुष्य वह है, जो राग-द्वेष की भूमिकाओं से ऊपर उठ कर मानवता के शिखर पर पहुँच गया हो, वासनाओं की गन्दी हवाओं से बच कर आत्मा की पवित्र सुगन्ध से महक रहा हो। महत्ता का गज क्या तू महान् होना चाहता है ? यदि हाँ, तो अपनी इच्छाओं को नियन्त्रण में रख । उन्हें बेलगाम न बढ़ने दे और इधर-उधर न भटकने दे। मनुष्य की महत्ता इच्छाओं का दमन करने में है, उनका गुलाम बनने में नहीं। महत्ता के पथ पर आने से पहले अपनी व्यक्तिगत वासनाओं-इच्छाओं पर नियन्त्रण करना आवश्यक है । अमर - वाणी Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेव का आदर्श सब लोग अमृत पीने की चिन्ता में हैं। किन्तु, मैं विष की चूंट पीकर अजर, अमर हो जाना चाहता हूँ। मुझे फूलों की शय्या नहीं, काँटों का पथ चाहिए । मैं प्रकाश की अपेक्षा अन्धकार में अच्छी तरह चल सकता हूँ । सुख के साधन मुझे पथ-विचलित कर देंगे, अतः मैं उनसे डरता हूँ। मुझे तो दुःख चाहिए दुःख, झंझावात - सा सनसनाता और दावानल - सा दहकता। जीवन - यात्रा पर चलते हुए दुःख निद्रा - मग्न नहीं होने देगा। हमेशा जागरण का सन्देश देता रहेगा। भगवान् कौन भगवान् वह, जो अपने विकारों से लड़ सके । केवल लड़ सके ही नहीं, विजय भी प्राप्त कर सके। और, वह विजय भी ऐसी विजय हो, जो फिर कभी पराजय में न बदले। भगवान् वह, जो संसार की अंधेरी गलियों में भटकता हुआ कभी मनुष्य बना हो। मनुष्य बनकर अपनी मनुष्यता का पूर्ण विकास कर पाया हो। मनुष्यता के स्वस्थ विकास की पूर्ण कोटि ही भगवान् का परम पद है । ___ क्या वह भगवान है, जो दुष्टों की दुष्टता का ही नहीं, अपितु दुष्टों का ही नाश करने के लिए अवतरित हुआ हो ? दुष्टता के नाश के लिए पहले दुष्टों का नाश करना, यह तो सभी दुनियादार लोग कर रहे हैं। इसमें भला भगवान् की क्या विशेषता ? भगवान् तो वह, जो दुष्टों का नाश नहों, प्रत्युत उनकी दुष्टता का नाश करे। दुष्टता को सज्जनता में परिणत करना, विष को अमृत में बदलना, यही तो है एकमात्र भगवान् की भगवत्ता ! महामानव : Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शहनशाह त्यागी ही विश्व में एकमात्र अभय है । वह तो वादशाहों का भी बादशाह है | भला उसे किस बात की परवाह ? किस बात की चिन्ता ? ऐसे ही फक्कड़ त्यागी के लिए एक सन्त ने कहा है "चाह गई चिन्ता मिटी, मनवा बेपरवाह । जिसको कुछ न चाहिए, सो ही शाहनशाह || " या तो स्वयं दूसरों के पीछे चलो अथवा दूसरों को अपने पीछे ले लो ! दोनों में से एक बात करनी ही होगी । यदि तुम्हें पीछे रहना पसन्द नहीं है और दूसरों को अपने पीछे चलाने की शक्ति नहीं है, तो फिर विचार करो, अफसोस किस बात का ? महत्ता का स्रोत महापुरुष लिखा- पढ़ा कर सिखा बताकर नहीं बनाए जाते ! वह महत्ता का अमर स्रोत तो उनके अन्दर ही छपा रहता है, जो समय पाकर अपने आप फूट निकलता है । गुलाब को खिलने की शिक्षा कौन देता है ? कोयल को पंचम स्वर में अलापना कौन सिखाता है ? कोई नहीं ! ४६ पीछे चलो, या चलाओ ? - मन की महानता मनुष्य का महत्त्व धन से बड़े होने में नहीं है, प्रत्युत दिल से बड़े होने में है । इसीलिए भारतीय संस्कृति के गायकों ने कहा है, 'मनस्ते महदस्तु ।' मनुष्य ! तेरा मन महान् होना चाहिए । अमर वाणी Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुरुष और अवसर साधारण मनुष्य अवसर की खोज में रहते हैं कि कभी कोई एसा अच्छा अवसर मिले कि हम भी अपना महत्त्व दिखाएँ। इस कार सारा जीवन गुजर जाता है, परन्तु उन्हें अवसर ही नहीं मलता, जिससे वे कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य करके दिखा सकें। परन्तु महापुरुषों के पास अवसर स्वयं आते हैं । आते क्या हैं, वे छोटे-से-छोटे नगण्य अवसर को भी अपने काम में ला कर बड़ा बना देते हैं । जीवन का प्रत्येक क्षण महत्त्वपूर्ण अवसर है, यदि उसका किसी महत्त्वपूर्ण कार्य में विनियोग किया जाए ! महामानव: ४ . Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यौवन M सतत यौवन चिर युवा रहने के लिए यह आवश्यक है कि मन में कभी भी किसी भी प्रकार की दुर्बलता, निराशा, उत्साह - हीनता न आने दी जाए। मन की क्षीणता, शरीर की क्षीणता की अपेक्षा अधिक भयंकर होती है । नित्य नव - तरंगित रहने वाला उल्लास ही तो यौवन है और वह होता है मन में, शरीर में नहीं। चुनौती तूफान आ रहे हैं, तो आने दो ! मुझे क्या डर है ? मैं दीपक की कंपकंपाती लौ नहीं हूँ, जो साँस के झोंके से ही बुझ जाऊँ ? मैं तो वह जलता अंगारा हूँ, जो तूफानों के धक्के खाकर और अधिक प्रचण्ड होता है, आगे बढ़ता है, जलता है और जलाता है । कष्टों और आपत्तियों का मैं हृदय से स्वागत करता हूँ ! जितने भी कष्ट, दुःख, आपत्ति, असफलता आएँ, सहर्ष आएँ। मैं इन सबसे यथाअवसर विकास ही प्राप्त करूँगा, ह्रास नहीं। ४८ अमर - वाणी Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषार्थ उद्यम ही सब - कुछ है। पुरुषार्थ ही सबसे बड़ी शक्ति है। अपने आप रोटी उठकर मुंह में नहीं चली जाती-'नहि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।' सोया आदमी मरे के बराबर है। जागकर अंगड़ाई लेकर, खड़े होकर चल पड़ना ही विजय - यात्रा है-''जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पेठ।" भाग्य और पुरुषार्थ आज का मानव - समाज भाग्यवाद की चक्की में बुरी तरह पिस रहा है। जिसे देखो, वही यही कहता है कि भाग्य में धक्के खाने लिखे हैं, सो खा रहा हूँ। क्या करूँ, भाग्य नपुंसकता का प्रतिनिधि है, निराशा का झण्डावरदार है। स्व-देश का मोह मैं देखता हूँ, हजारों आदमी घर से बाहर निकलते हुए डरते हैं, झिझकते हैं, रोते हैं। उनके अन्तर् - मन में उपभोक्ता की बुद्धि तो है, परन्तु कर्ता की बुद्धि नहीं है । उनके जीवन में न कोई अनूठा साहस है और न कोई अनूठी तरंग । कुछ लोग जब अपनी दुर्बलता को स्वदेश - प्रेम के नाम पर छुपाने लगते हैं, तो मैं उनसे पूछता हूँ-- सूर्य, चाँद और तारों का स्व-देश कौन है और पर-देश कौन है ? जो आगे बढ़कर धूप में, छाँह में, सरदी में, गरमी में प्रतिक्षण चलना जानते हैं, उन पुरोगामियों के लिए सारा विश्व ही स्व-देश है। 'को विदेश: सविद्यानां ? कि दूरं व्यवसायिनाम् ?' ज्ञानयोगियों के लिए कौन-सा विदेश है ? कोई नहीं। और यौवन : Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगियों के लिए क्या दूर है ? कुछ नहीं ! बाप के कुएँ का आलस्य - वश खारा जल पीते रहने वाले पुत्र सपूत नहीं होते। सपूत वे हैं, जो मीठा जल पीते हैं, भले ही कितनी ही दूर से और कितनी ही कठिनाई से लाना पड़े। वीर और कायर वीर और कायर में क्या अंतर है ? बस, एक कदम का अंतर है, जहाँ वीर का कदम आगे की ओर बढ़ता है, कायर का कदम पीछे की ओर पड़ता है। वीर रणक्षेत्र में अपने पीछे आदर्श छोड़ जाता है, वह मर कर भी अमर हो जाता है । कायर मैदान से मुंह मोड़ कर भाग खड़ा होता है, और कुत्ते की मौत मरता है। ओ पुरुषार्थी ! क्या तू पुरुषार्थी है ? यदि पुरुषार्थी है, तो फिर यह आलस्य कैसा ? यह अंगड़ाई - जंभाई कैसी ? तेरे लिए हिमालय ऊँचा नहीं है और न ही समुद्र गहरा है। यदि तू अपने अन्दर की शक्तियों को जागृत करे, तो सारा भूमण्डल तेरे एक कदम की सीमा में है। तू चाहे तो घृणा को प्रेम में, द्वष को अनुराग में, अन्धकार को प्रकाश में, मृत्यु को जीवन में, किं बहुना, नरक को स्वर्ग में बदल सकता है। ५० अमर-वाणी Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना * बढ़े चलो * श्रद्धा * भक्ति * ज्ञान * वैराग्य * भावना * आत्म - शोधन * अन्तर्दर्शन Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बढ़े चलो बढ़े चलो आज तक न मालूम कितने देवी - देवता मनाए, कितने ईंटपत्थर पूजे और कितने गंगा आदि नदियों और सागरों में नहाएधोए । परंतु, क्या लाभ हुआ ? आत्मा का एक बंधन भी नहीं टूटा, एक दुःख भी कम नहीं हुआ, एक दाग भी तो धुलकर साफ नहीं हुआ। व्यर्थ ही क्यों भटक रहे हो ? अपनी आत्मा के अन्तर्भाव को प्रकट करो, वीरता से सत्य के मार्ग पर आगे बढ़ो। लड़खड़ाओ नहीं, गिरो नहीं, वापस मुड़ो नहीं, परमात्म - पद पाना तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है । संसार की कोई भी शक्ति ऐसी नहीं, जो तुम्हें अपने उस पवित्र अधिकार से वंचित कर सके। साधना-पथ साधक ! देख, कहीं बीच में ही साधना भंग करके मत बैठ जाना ? सफलता कहीं इधर - उधर गलियों में पड़ी मिल जाने वाली चीज नहीं है । वह तो जी की चोट है। उसकी राह मर-मर कर जी उठने की है। देखते नहीं कि सूर्य को प्रातःकाल प्रकाश के शिखर पर पहुँचने तक रात भर अंधकार से जूझना पड़ता है ! बढ़े चलो: Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधक कौन ? साधकों को जिस साधना के पथ पर चलना है, वह फूलों से आच्छादित, सुसज्जित एवं सुगन्धित राज - पथ नहीं है । वह तो, एक दुर्गम पथ है। उस पर पैरों को लहू-लुहान कर देने वाले काँटे और नुकीले पत्थर बिछे पड़े हैं। उस पर वज्र-हृदय को भी दहला देने वाली एक-से-एक भयंकर दुर्घटनाओं का तांता लगा हुआ है। इस पथ पर कदम रखने से पहले कबीर के शब्दों में सिर काटकर हथेली पर रख लेना चाहिए। साधक वह, जो काँटों को कुचल कर एवं समुद्रों को चीर कर तूफानों पर शासन करे। पहाड़ों की ऊँची - से - ऊँची चोटियों पर विचरण करे। संकट उसका मित्र हो और सुख उसका शत्रु । साधना ध्याता, ध्येय और ध्यान । यह आध्यात्मिक - साधना की त्रिपुटी है। ध्याता भक्त है, ध्येय भगवान् है, और भक्ति ध्यान है। जब ध्याता ध्येय का ध्यान करते - करते ध्येयाकार हो जाता है, ध्येय रूप में परिणत हो जाता है, मोह - माया के बन्धन तोड़ कर स्वरूप में लीन हो जाता है, तब वह अपनी साधना का अमृतफल प्राप्त कर लेता है। आत्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञानोदय का नाम ही सच्चा ध्यान है, सच्ची भक्ति है। आत्मा से परमात्मा होना, भक्त से भगवान् बनना ही भगवत् स्वरूप की उपलब्धि है। जितनी - जितनी ध्येय के प्रति तन्मयता, उतनी - उतनी ध्येय के प्रति एकता, एकरूपता। तन्मयता की अखण्ड अनुभूति का रसास्वादन किए बिना साधक का कल्याण नहीं है। अमर वाणी Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु का डर साधक ! मृत्यु से डरता है ? क्या वह कोई भयानक वस्तु है? भद्र ! तेरी भूल ही तुझे तंग कर रही। मृत्यु कुछ नहीं, एक परिवर्तन है ! इस परिवर्तन से वह डरे, जो पापाचरण में लगा हुआ हो, धर्म से शून्य हो, मानवता का दिव्य प्रकाश बुझा चुका हो और जिसकी आँखों के आगे अन्याय, अत्याचार का अन्धकार घनीभूत होता जा रहा हो ! जो परिवर्तन, विकास के पथ पर हो और अधिक अभ्युदय का द्वार खोलने वाला हो, उसका तो खुले दिल से स्वागत करना चाहिए । तेरे जीवन की पवित्र महत्त्वाकांक्षा यहाँ नहीं पूर्ण हो सकी, तो मृत्यु के बाद अगले जीवन में पूर्ण होगी ! तेरी साधना का प्रकाश जन्म-जन्मान्तर तक जगमगाता जाएगा। पंजाब के प्रसिद्ध आर्य - समाजी विद्वान् पं०गुरुदत्तजी से जबकि वे जीवन की अंतिम घड़ियों में थे--मृत्यु के द्वार पर पहुँच रहे थे, लोगों ने पूछा- "इस समय आप इतने प्रसन्न क्यों हैं ?" उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा--"इसलिए कि इस देह में दयानन्द न हो सका, अब अगले जन्म में इससे उत्तम देह पाएँगे और दयानन्द बनेंगे।" सब लोग दंग रह गए। जैनाचार्यों ने कुछ ऐसे ही भावना - प्रसंगों को लक्ष्य में रख कर एक दिन कहा था-'मरण एक महोत्सव है ।' महादेवी वर्मा भी कुछ-कुछ इसी छायावादी स्वर में गुनगुना रही हैं-- 'तरी को ले जाओ उस पार, डूब कर हो जाओगे पार' मृत्यु तुझे मित्र नहीं मालूम होती, शत्रु मालूम होती है ? यदि तेरी दृष्टि में वह शत्रु है, तो आगे बढ़ कर उससे लड़ और जीत ! डरता क्यों है, घबराता क्यों है ? क्या तू समझता है कि वह डरे हुए को छोड़ देगी ? कभी नहीं-'न स भीतं विमुञ्चति ।' बढे चलो Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा W श्रद्धा श्रद्धा कहो, भक्ति कहो, एक ही बात है। साधक की साधना का मूल - प्राण श्रद्धा है। यदि श्रद्धा नहीं, तो साधना एक निर्जीव शव-स्वरूप हो जाती है। शिव और शव में क्या अन्तर है ? 'अ' और 'इ' का ही तो अन्तर है । जहाँ श्रद्धा है, भक्ति है, वहाँ शिव है, परमात्मा है । और जहाँ वह नहीं है, वहाँ आत्मा एकमात्र शव है, मुरदे की लाश है ! पहले विश्वासी बनो तुम चेतन आत्मा हो । जड़, ईंट-पत्थर नहीं। बताओ, तुम क्या बनना चाहते हो ? जो बनना चाहते हो, वही बन जाओगे। परन्तु, उसके लिए पहले विश्वासी बनो, योग्य बनो। फूल ज्यों ही महकने की भूमिका में आता है, त्यों ही खिल उठता है और भौरों की सैकड़ों टोलियाँ बिना बुलाए आ - आ कर उसका गुण - गान करने लगती हैं। अमर - वाणी Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वास विश्वास मानव जीवन में सब से बड़ी शक्ति है । विश्वासबल ही मनुष्य को संकटों से पार करता है, उसे लक्ष्य पर पहुँचाता है । दृढ़ विश्वासी कभी हारता नहीं, थकता नहीं, गिरता नहीं, मरता नहीं । विश्वास अपने आप में अमर औषध है । विश्वास जीवन है, अविश्वास मृत्यु । जिस मनुष्य का अपने ऊपर विश्वास नहीं, अपनों पर विश्वास नहीं, जीवन के ऊँचे आदर्शों पर विश्वास नहीं, वह संसार में किसी का भी कभी विश्वास - पात्र नहीं बन सकता, साथी नहीं हो सकता । निष्ठा वीर पुरुषों की आत्मा को बस एक वार सत्य की झलक दीख जानी चाहिए, फिर वे उस पर सदा के लिए अचल, अटल हो जाते हैं। शरीर भले ही नष्ट हो जाए, प्राण भले ही चले जाएँ, परन्तु क्या मजाल कि सत्य से तिल भर भी इधर उधर हो जाएँ । जो अपने सिद्धान्तों से हटने का पथ सदा के लिए भूल जाते हैं, उनके शब्द-कोष में ‘पथ-भ्रष्ट' जैसा कोई शब्द ही नहीं होता । श्रद्धा । 1 आत्म विश्वास अपने - आप में विश्वास रखना ही ईश्वर में विश्वास रखना है । जो अपने आप में अविश्वस्त है, दुर्बल है, कायर है, कहीं भी आश्रय नहीं पा सकता । स्वर्ग के असंख्य देवता भी मन के लँगड़े को अपने पैरों पर खड़ा नहीं कर सकते ! - - ५७ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी - अपनी योग्यता सूर्य बिना किसी पक्षपात या संकोच के सभी को समान-भाव से प्रकाश देता है। दर्पण में सूर्य का केवल प्रतिबिम्ब पड़कर रह जाता है, अन्य कुछ नहीं होता। परन्तु सूर्यकान्त मणि सूर्य के प्रकाश को पाकर दूसरी वस्तु को जला देती है। इसमें सूर्य का क्या दोष ? अपनी - अपनी योग्यता है । महापुरुषों के सत्संग में बैठकर जिनमें श्रद्धा अथवा प्रेम नहीं है, वे दर्पण की भाँति कम लाभ उठाते हैं और श्रद्धा, प्रेम व भक्ति रखने वाले सूर्यकान्त मणि की भाँति अधिक लाभ उठाते हैं। लक्ष्य की स्थिरता मनुष्य ! कुछ करने से पहले अपना लक्ष्य स्थिर कर ले । तुझे कहाँ जाना है- कहाँ नहीं जाना है, क्या करना है--क्या नहीं करना है, क्या बनना है-क्या नहीं बनना है, जब तक तू इस प्रश्न का निर्णयात्मक उत्तर न दे सकेगा, तब तक तू कुछ भी नहीं कर सकेगा-कुछ भी न बन सकेगा! एक चित्रकार, जबकि अपनी तूलिका को हाथ में लेकर कोई सुन्दर चित्र अंकित करना चाहता है, तो वह पहले से ही अपने मन में कल्पना कर लेता है कि मुझे अमुक आकार को इस-इस प्रकार मूर्त रूप देना है ! कोई भी मूर्तिकार हथौड़ी और छैनी उठाकर ज्यों ही पत्थर के टुकड़े को हाथ में लेता है, त्यों ही वह पहले से को गई कल्पना की भाव - भंगिमा उसमें देखने लगता है। गाँव का अनपढ़ कुम्हार भी पात्र बनाने से पूर्व मन में यह धारणा स्थिर कर लेता है कि इस मिट्टी के गोलमटोल पिंड को अमुक पात्र - विशेष के आकार में ढालना है ! जीवन भी एक कला है। अतः वह भी अपेक्षा करता है कि आप उसे क्या रूप देना चाहते हैं ? लक्ष्य बाँध कर ही तीर फेंकिए। अमर - वाणी Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिना लक्ष्य के यों ही शून्य - चित्त से तीर फेंकते जाइए, लक्ष्य वेध नहीं हो सकेगा, धनुर्विद्या का पण्डित नहीं बना जा सकेगा । श्रद्धा और तर्क साधक को श्रद्धा और तर्क की उचित सीमा रेखा का निर्धारण करना है । तर्क - हीन श्रद्धा जहाँ अज्ञानता के अंधकूप में डाल देती है, वहां श्रद्धाहीन तर्क, अन्ततः सारहीन विकल्पों तथा प्रतिविकल्पों की मरुभूमि में भटका देता है । अतः श्रद्धा की सीमा तर्क पर होनी चाहिए और तर्क की सीमा श्रद्धा पर । अविश्वास अनाज बोने के समय धरती में बीज फेंक देने के लिए भी, जब ग्रामीण किसान को कुछ विश्वास की आवश्यकता है, सुन्दर भविष्य के भरोसे की जरूरत है, तब क्या धर्माचरण के मार्ग में कुछ भी विश्वास अपेक्षित नहीं है ? खेद है कि आज का अश्रद्धालु मानव, संसार के कार्यों में तो सर्वत्र विश्वास का सहारा लेकर चलता है, भविष्य पर भरोसा रखकर आगे बढ़ता है, परन्तु धर्म के मार्ग में, जीवन-निर्माण की राह में, आज.... अभी....इसी.... घड़ी इसी क्षण ही सब कुछ प्राप्त करना चाहता है । धर्म - फल के प्रति इतनी आसक्ति ! धर्म की सर्वतो महती अनन्त अनन्त प्रभु - शक्ति पर इतना भयंकर अविश्वास !! अश्रद्धा अश्रद्धा अधर्म है । अश्रद्धा की नींव असत्य है, और जहाँ असत्य है, वहाँ धर्म कहाँ ? श्रद्धा हीन अविश्वासी का मन अन्ध कूप है, जहाँ साँप, बिच्छू और न मालूम कितने जहरीले कीड़े श्रद्धा : ५६ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मकोड़े पैदा होते रहते हैं। अविश्वासी मन हलाहल विष है, उससे बचकर ही रहना चाहिए। आदर्श और व्यवहार आदर्श वह, जो जीवन की गहराई में उतर कर व्यवहार में आचरण का वज्र - रूप ग्रहण कर ले । न उसे दुःख की गर्म हवाएँ मुरझा सकें और न सुखकी ठंडी हवाएँ गुद-गुदा सकें। आदर्श. भय और प्रलोभन की क्षुद्र सीमाओं से परे होता है । सच्चा आदर्शवादी सत्पुरुष वह है, जिसे संसार के भयंकर - से - भयंकर तूफानी झंझावात भी अपने निर्धारित आदर्श-पथ से विचलित न कर सकें। ६० अमर - वाणी Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ति आत्म-देवता की पूजा मनुष्य ! तेरे अपने अन्दर भी एक देवता है, जिसके मन्दिर में अनादि काल से कोई आरती नहीं संजोई गई है, पूजा नहीं की गई है। न कभी घंटा बजा है, न घड़ियाल ! और न कभी शंख ध्वनि ही हुई है। कितना भीषण डरावना सन्नाटा है यहाँ ! अरे ! मन्दिर में झाडू - बुहारी तक न लगाई ! कितना कूड़ा है ! बेचारा देवता कूड़े - करकट के ढेर में दब - सा गया है । जरा एकाध बार झाडू तो लगाओ, जिससे देवता ठीक से दिखलाई तो पड़े ? __अन्धेरे का भी कोई ठिकाना है ! कुछ भी तो नहीं सूझता ! दीपक जला कर बाहर ही क्यों रख देते हो ? जरा अन्दर भी तो दीपक जलाओ ! सुगन्ध ! यहाँ कहाँ सुगन्ध है ? दुर्गन्ध के मारे बुरा हाल है ! देवता के मन्दिर में इतनी गन्दगी ! वेदी पर एक भी तो फूल नहीं चढ़ा है ! हाँ ! चन्दन का लेप उस अन्तर्-वासी देवता पर करो ! फूलों का हार भी अपने हृदय-देवता को चढ़ाओ। यह आत्म - पूजा ही परमात्मा की पूजा है। बाहर के देवीदेवताओं की अर्चना माया - जाल है। जाल बन्धन के लिए होता है, मुक्ति के लिए नहीं। भक्ति : Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् और भक्त जो मनुष्य जितना ही आग के समीप होगा, वह उतना ही अधिक प्रकाश पाएगा। आप इसे पक्षपात कहें या और कुछ, यह आपकी इच्छा पर निर्भर है । भगवान् और भक्त का सम्पर्क-बिन्दु भी ठीक इसी कोटि का है। यहाँ कर्तृत्व और अकर्तृत्व का उतना प्रश्न नहीं, जितना कि सम्पर्क की घनिष्ठता और दूरी का प्रश्न है । सच्ची पूजा __ ईश्वर की पूजा न फल-फूल चढ़ाने में है, और न दीप जलाने में। ईश्वर की सच्ची और श्रेष्ठ पूजा यही है कि मनुष्य ईश्वरीय आदर्शों, अच्छे और भले विचारों को, अपने आचरण में उतारे, ईश्वर के निर्देशानुसार अपना जीवन व्यतीत करे । कर्मवाद और भक्तिवाद हम ही कर्म करते हैं और हम ही उसका फल भोगते हैं। यह जैन-धर्म का कर्मवाद है। भगवान् करता है और भगवान् ही उसका फल भोगता है। यह वैष्णव-धर्म का भक्तिवाद है। जीवन की समस्या दोनों ही वादों से हल हो सकती है, यदि ईमानदारी के साथ उनको जीवन में उतारा जाए तो। निर्द्वन्द्वता जीवन का रस है और यह रस दोनों ही वादों के द्वारा प्राप्त हो सकाता है। भक्ति का रहस्य भक्ति का अर्थ दासता नहीं है, गुलामी नहीं है । भक्ति का अर्थ है-अपने आराध्य - देव के साथ एकता और अभेदता की अनुभूति । ६२ अमर - वाणी Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान wwwwwwwwwww w अभेद - दृष्टि संसारी आत्माओं में जितना भी भेद है, वह सब कर्मोपाधि के कारण है । यदि निश्चय दृष्टि के द्वारा शुद्ध आत्म - स्वरूप का निरीक्षण किया जाए, तो भेद बुद्धि दूर हो जाती है और सभी आत्माएँ समान प्रतीत होने लगती हैं। सच्चा साधक भेद से अभेद में पहुँचता है, सब जीवों को अपने समान समझता है। और, जिस साधक ने यह अभेद - दृष्टि पा ली, फिर उसके लिए कैसा मोह ? कैसा शोक ? कैसा राग ? कैसा द्वेष ? अभेद-दृष्टि तो समता का अखण्ड साम्राज्य स्थापित करती है। अन्तज्योति जगाओ अपने अन्तर में जब अपने कल्याण और सुधार की प्रेरणा स्वयं जागृत होती है, तभी कुछ परिवर्तन हो सकता है, अन्यथा नहीं। ऊपर की कोई भी शक्ति किसी का बलात् हित-साधन नहीं कर सकती। आप देख सकते हैं कि पतंगे दीपक पर जल मरते हैं। दयालु पुरुष उन्हें बचाने के लिए कृपापूर्वक दीपक को बुझाकर ज्ञान: Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनका हित करना चाहते हैं, परन्तु पतंगे दूसरे दीपकों पर जल मरते हैं । बाहर के उद्धारकों का अवलम्बन करते समय प्रथम अपने अन्दर भी अन्तविवेक - कलिका का विकास प्राप्त करो। आँखें अन्धी हों, तो आकाश में लाखों सूर्य उदय हो जाएँ, तब भी क्या ? स्वाध्याय आप जानते हैं, स्वाध्याय का क्या अर्थ है ? स्वाध्याय का अर्थ केवल कागजी पुस्तकें पढ़ लेना नहीं है। स्वाध्याय का अर्थ हैअपने अन्दर के जीवन की किताब का पढ़ना। 'स्वस्य स्वस्मिन् अध्यायः = स्वाध्यायः ।' अर्थात् अपने अन्दर अपना अध्ययन करना ही स्वाध्याय है। मनुष्य का सर्व-प्रथम कर्तव्य यही है कि वह अपने को जाने, अपने को परखे । 'मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और क्या कर रहा हूँ ?' इन प्रश्नों का उत्तर जिसने जाना, वस्तुतः उसने ही सब-कुछ जाना। अपने अध्ययन के सिवा अन्य सब अध्ययन मूर्ख का प्रलाप है, अध्ययन नहीं । जो ग्रन्थ या शास्त्र आत्मा के अनुकूल हैं, जिनमें अन्दर के शास्त्र का प्रतिबिम्ब है, उनके अध्ययन को लोक - भाषा में स्वाध्याय कहा जाता है । परन्तु यह गौण है, और वह मुख्य । प्रगति का मार्ग मनुष्य की आत्मा नाम और रूप की माया से घिरी हुई है । आखिर, संसार है क्या ? कुछ नाम है, तो कुछ रूप है । विशुद्ध जीवन को बाँधने वाले इन खूटों को जड़-मूल से उखाड़े बिना मानवता को प्रगति के लिए मार्ग नहीं मिल सकता। सुख और शान्ति सच्चा सुख और सच्ची शान्ति कहाँ है ? क्या वह बाहर के पदार्थों में है ? उनके योग - क्षेम में है ? नहीं, वह बाहर के सुख - साधनों के संग्रह और उनके योग पर निर्भर नहीं है। अमर वाणी Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चे सुख और शान्ति का कोष अन्दर के आध्यात्मिक सन्तोष में निहित है। अन्तर्ज्ञान सच्चा ज्ञान प्रकृति के रहस्यों को खोलने में नहीं हैं, अपितु अपने जीवन के रहस्यों के विश्लेषण में है, उनके जाँचने-परखने में है। प्रकृति उतनी रहस्यमयी नहीं है, जितनी अन्तरंग चेतना। क्रियाकांड और साधना बाह्य क्रियाकांडों की साधना, साधना है, साध्य नहीं । यदि ये क्रियाकांड हमें नम्र और सरल नहीं बनाते, आत्म-तत्त्व के पाने में सहायता नहीं पहुँचाते, तो फिर भार हैं, व्यर्थ हैं । जड़ और चेतन वह, वह है, जो अपने को आप ही जानता है। दूसरा कौन है उसे जानने वाला ? इस संसार में दो भाई विचरण कर रहे हैं, उनमें एक सुआँखा है तो दूसरा अंधा। क्या आप जान गए, ये कौन हैं ? चेतन सुआँखा है, तो जड़ अंधा । बस, अब सर्वोपरि सत्य का निर्णय हो गया। शत्रु और मित्र लोग कहते हैं, राम ने रावण को मारा । परन्तु, क्या यह सच है ? रावण को मारने वाला स्वयं रावण ही था, और कोई नहीं। मनुष्य का उद्धार एवं संहार, उसका अपना भला-बुरा आचरण ही ज्ञान: Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता है, यह एक अमर सत्य है। इसे हमें समझना चाहिए । मनुष्य, अपना शत्रु अपने अन्दर ही क्यों नहीं देखता ? सूक्ष्म चितन चिन्तन को सूक्ष्म बनाओ। इतना सूक्ष्म, कि वह आत्मा और अनात्मा के रहस्य में गहराई तक प्रवेश पा सके । लोहे की तीक्ष्ण कील हर जगह जरा से धक्के से फंस सकती है। परन्तु, लोहे की मोटी छड़ ठोकने पर भी प्रवेश नहीं पाती। अमर - वाणी Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य वैराग्य जब आप किसी पहाड़ की ऊँची चोटी पर चढ़ते हैं, तो नीचे के सब पदार्थ क्षुद्र दिखाई देते हैं। इसी प्रकार जब साधक वैराग्य की, आत्म - सम्मान की ऊंचाई पर चढ़ा होता है, तो संसार के सब वैभव, मान, प्रतिष्ठा, भोग, बिलास, तुच्छ एवं क्षुद्र मालूम होते हैं। संसार का महत्त्व उसकी ओर नीचे झुके रहने तक रहता है, दूर ऊंचे चढ़ जाने पर वह नहीं रहता। सांसारिक वैभव अरे, जरा तुम अपनी इच्छाओं और कामनाओं से ऊपर उठो। तुम्हारे ऊपर उठ कर अलग हटने - भर की देर है, इच्छित पदार्थ अपने - आप तुम्हें ढूँढ़ने चले आएँगे। कामनाओं का वैभव तो शरीर की छाया जैसा है। यदि छाया को पकड़ने दौड़ोगे, तो वह हाथ नहीं आएगी, आगे - आगे भागती चली जाएगी। परन्तु, ज्योंही पीठ देकर वापस लौटे नहीं कि वह अपने - आप पीछे-पीछे चुप-चाप भागती चली आएगी। मनुष्य का अन्वेषण भूमण्डल पर आज तक कितने फूल खिले, महके और मुरझा गए ! परन्तु, किस के जीवन का इतिहास लिखा गया, और पढ़ा वैराग्य : ६७ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया ? किसने यह दावा किया कि आने वाला युग मुझसे प्रेरणा प्राप्त करेगा ? फिर मनुष्य ही ऐसी इच्छा क्यों करता है ? जरासा काम करके वह गुणगान सुनने के लिए उत्कण्ठित हो जाता है। अपना नाम इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित कराना चाहता है । समझता है, भावी सन्तति उससे प्रेरणा प्राप्त करेगी। वह नहीं सोचता कि दूसरे भी तुम्हारे समान योग्यता रखते हैं और तुमसे भी दो कदम आगे बढ़ सकते हैं। हमारा लक्ष्य आत्मा की ओर ध्यान जाता है, तो हम ऊपर ऊठते हैं, ऊँचे चढ़ते हैं। और, जब शरीर की ओर, केवल शरीर की ओर ही ध्यान जाता है, तो नीचे गिरते हैं, नीचे लुढ़कते हैं। बस, इतने से समझ लो, तुम्हें नीचे गिरना है या ऊपर चढ़ना है ? __ जीवन का रहस्य मैं देख रहा हूँ—पानी पर तैरते, इठलाते, मचलते बुलबुलों को। वे उठते हैं, जल - गर्भ से बाहर आते हैं, कुछ क्षण तैरते हैं। और, फिर सहसा पानी में डूब कर विलीन हो जाते हैं। कितना क्षण - भंगुर जीवन है इनका ? क्या मानव - जीवन का रहस्य भी बुलबुलों की इस क्षण-भंगुर लीला में सन्निहित नहीं है। अस्तित्व का मोह नदी की बीच धारा में देखिए, वह क्षुद्र टीला अपने दोनों ओर बहने वाले जल - प्रवाहों के संघर्ष से गल-गल कर, कट-कट कर किस प्रकार अपनी जीवन - लीला समाप्त कर रहा है ? क्या हम सब भी महाकाल के अविराम प्रवाह में प्रतिपल E अमर वाणी Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीण होने वाले वैसे ही क्षुद्र टीले नहीं हैं ? हमारा अस्तित्व, उस टीले से क्या अधिक सुरक्षित है ? मैं समझता हूँ, नहीं। मानव कितना क्षुद्र है ! मनुष्य बड़े - बड़े विशाल महल खड़े करता है, संगमरमर पत्थर पर लम्बी - चौड़ी प्रशस्तियाँ लिखाता है और उस पत्थर से अपने को अजर, अमर समझ कर अहंकार से फूल उठता है । परन्तु, उसके इस अहंकार का मूल्य क्या है ? वह स्वयं इस विराट् विश्व का एक छोटा - सा रज - कण है और उसका जीवन है, काल के महासागर में क्षण-भंगुर नन्हा-सा जल-कण ! क्या यह क्षुद्र अस्तित्व अकड़ने - मचलने के लिए है ? जीवन का आरा मेरी साँस अन्दर से बाहर जाती है और फिर बाहर से अन्दर आती है । यह बाहर और अन्दर का सिलसिला एक क्षण भी कभी रुके बिना वर्षों से चला आ रहा है। मुझे मालूम नहीं, यह क्या हो रहा है ? किन्तु, कुछ ऐसा लगता है, मानो जीवन - कण्ठ पर बड़ी तेज धारवाला आरा चल रहा है, जो जीवन को प्रतिपल काटकाट कर नष्ट किए जा रहा है। लोग कहते हैं, साँस जीवन का प्रतिनिधि है और मैं कहता हूँ कि यह 'मृत्यु का प्रतिनिधि है।' __ अनासक्ति शहद की मक्खी मत बनो। पदार्थ का भोग करने बैठे, तो बस उस में फँस गए, फिर कभी छुटकारा ही न हो। मिश्री की डली पर बैठने वाली मक्खी बनो, ताकि समय पर भोग कर सको और जब चाहो, तब उड़ भी सको। वैराग्य । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृक्ष की डाल पर पक्षी बैठा है । यदि डाल टूटे, तो पक्षी को क्या ? वह झट उड़ कर आकाश में पहुँच जाएगा ! हाँ, बन्दर को अवश्य दिक्कत है, क्योंकि वह डाल के साथ जमीन पर ही आएगा आकाश में ऊपर उड़कर नहीं जा सकता । संसार वृक्ष की पदार्थरूपी टहनियों पर भी इसी प्रकार दो तरह के मनुष्य हैं । आसक्त मनुष्य बन्दर है, वह पदार्थ के नष्ट होने पर नीचे गिरता है, रोता है, बिलखता है और पछताता है । अनासक्त मनुष्य पक्षी है, वह पदार्थ के नष्ट होने पर ऊपर उड़ता है, वैराग्य भाव में विचरण करता है । संसार के हानि - लाभ को खेल समझता है । फलतः उसे कुछ भी दुःख नहीं होता । । सुख का केन्द्र सुख कहाँ है ? वह संसार की विभिन्न सुन्दर वस्तुओं के होने में नहीं, अपितु उन वस्तुओं की अभिलाषा न रहने में है । अभिलाषा की पूर्ति में जो पौद्गलिक सुख होता है, वह सुख, सुख नहीं, दुःख - मिश्रित सुख है, सुखाभास है । सच्चा सुख इच्छा की पूर्ति में नहीं, प्रत्युत इच्छा के त्याग में है । रोग हो कर दूर हो जाए, यह क्या स्वास्थ्य है ? स्वास्थ्य वह है, कि रोग होने ही न पाए । अतएव सच्चा सुख उसे है, जिसका हृदय शान्त है । हृदय उसी का शान्त है, जिसका मन चंचल नहीं है । मन उसी का चंचल नहीं है, जिसको किसी भोग्य वस्तु की अभिलाषा नहीं है । अभिलाषा उसी को नहीं है, जिसकी किसी वस्तु में आसक्ति नहीं है । आसक्ति उसी को नहीं है, जिसकी बुद्धि में मोह नहीं है, राग-द्वेष नहीं है । वही तो महान् है, महात्मा है, साक्षात् देहाधिष्ठित परमात्मा है ! वही है सच्चिदानन्द ! अर्थात् सत्स्वरूप, चित्स्वरूप और आनन्दस्वरूप ! ७० - * अमर वाणी Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना WW MM मैं आत्मा हूँ, ईश्वरत्व के अनन्तानन्त तेज से परिपूर्ण ? मैं स्वयं अपने - आप ही अपने भाग्य का विधाता हूँ ? भला, मैं कभी किसी दूसरे के हाथ का खिलौना बन सकता हूँ ? कभी नहीं ! कभी नहीं !! कभी नहीं !!! विचार और जीवन आप का भविष्य आपके वर्तमान विचार में है। आप अपने सम्बन्ध में आज जो कुछ भी सोचते हैं, विचारते हैं, कल आप ठीक हूबहू वही बन जाएँगे। अपने को नीच, अधम, पापी समझने वाला नीच, अधम, पापी बनता है, और अपने को श्रेष्ठ, पवित्र, धर्मात्मा समझने वाला श्रेष्ठ, पवित्र, धर्मात्मा बनता है। मनुष्य का जीवन उसके अपने विचारों का प्रतिबिम्ब है। एक दार्शनिक ठीक ही कहता है-'भाग्य का दूसरा नाम विचार है।' अपने-आप को समझिए आप अपने को तुच्छ, दीन-हीन और पापी क्यों समझते हैं ? भावना: ७१ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप तो मूल में शुद्ध, बुद्ध, पवित्र, परमात्मा हैं। जरा अपने ऊपर पड़ी हुई विकारों की राख को साफ कर दीजिए, फिर आप किस बात में तुच्छ और हीन हैं ? आत्म - वैभव से बढ़ कर अन्य कोई वैभव नहीं। आत्म - तेज से बढ़ कर अन्य कोई तेज नहीं । स्थित-प्रज्ञ मैं अजर हूँ, अमर हूँ, अनन्त हूँ। मैं ईश्वर हूँ, खुदा हूँ, गॉड हूँ । न मेरा जन्म है और न मरण है ! मैं महाकाल की भुजाओं से बाहर हूँ। मेरा प्रकाश देश और काल की सीमाओं को समाप्त करने वाला है । मैं महाप्रकाश हूँ-असीम हूँ और अनन्त हूँ ! मैं सन्त हूँ, सच्चा सन्त । मैं दुःख - सुख के खिलौनों से खेलते समय एक जैसा अट्टहास करता हूँ । न मुझे सम्मान झुका सकता है और न अपमान, न सुख और न दुःख, न हानि और न लाभ, न जीवन और न मरण । मैंने जीवन और मृत्यु में समान सौन्दर्य देखने का जादू सीख लिया है। मैं स्थित - प्रज्ञ हूँ, अतः प्रत्येक स्थिति में एक-सा रहता हूँ। मन की शुद्धि मनुष्य का मन एक क्षेत्र है, और अच्छे - बुरे विचार उसमें बोये जाने वाले बीज हैं । जैसा बीज बोया जाएगा, वैसा ही तो फल भी होगा। यह नहीं हो सकता कि बीज तो वोए बबूल के और फल लगें आम के । अच्छा फल पाना है, तो अच्छाई के बीज बोने चाहिए । भगवान् महावीर ने कहा है- “सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णा फला हवन्ति, दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णा फला हवन्ति ।" आप पूछते हैं पानी भरने वाले से कि डोल में पानी कैसा है ? उत्तर मिलता है—जैसा कुएँ में पानी है , वैसा ही डोल में है। यह ७२ अमर - वाणी Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं हो सकता कि कुएँ में पानी और हो, और डोल में और हो ! मन एक कुआ है, विचार उसमें पानी है । मन के विचार ही अन्ततोगत्वा वाणी में उतरते हैं, और फिर कर्म में । अतएव वाणी और कर्म को पवित्र बनाना है, तो सर्व-प्रथम मन को ही पवित्र बनाना चाहिए । आचार का मूल - स्रोत विचार है, और विचार की जन्मभूमि मन है । मन को शुभ संकल्पों की सुगन्ध से भरो, यदि बाहर के जीवन में आचार की सुगन्ध को महकाना है तो ! भाव-लहरी वह दिन धन्य होगा, जिस दिन हम सुख - दुःख के घेरे को तोड़ेंगे, जीवन-मरण के स्तर से ऊपर उठेगे, और कभी क्षीण नहीं होने वाले आत्मा के अनन्त सौन्दर्य को प्राप्त करेंगे। भावना मनुष्य का हृदय अच्छाई और बुराई के संघर्ष का अखाड़ा है। उस धन्य दिवस की प्रतीक्षा है, जिस दिन भलाई, बारई पर विजय प्राप्त कर मनुष्य को अपने वास्तविक अर्थों में मनुष्य बना सकेगी। aantilitility भावना: ७३ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म - शोधन आत्मदेवो भव आत्म-देवता संसार के सुख और दुःखों से परे रहता है । न पाप-पुण्य की परिधि में आता है और न महाकाल की सीमा से ही बंधता है। उसका जीवन-सौन्दर्य अजर, अमर, नित्य और शाश्वत है । संसार की कोई भी मोह-माया उसे मलिन नहीं कर सकती। बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा दृश्य वस्तुओं में अहत्व और ममत्व का भाव बहिरात्म-भाव है। अन्तरंग आत्म - तत्त्व के शोधन का भाव अन्तरात्म-भाव है। और, पूर्ण वीतराग विज्ञानमय आत्म-तत्त्व का शुद्ध सिद्धत्व भाव परमात्मभाव है । बहिरात्मा बहिर्मुख होता है। अन्तरात्मा अन्तमुख होता है । अन्तरात्मा अन्तर्मुख होता है, किन्तु अपूर्ण । और, परमात्मा सदा - सर्वदा अन्तर्मुख ही होता है—पूर्ण, शुद्ध, निर्मल तथा शान्त ! स्वयं परमात्मा बनिए एक कर्त्तावादी दार्शनिक कहता है-'हम मिश्री चखना चाहते अमर - वाणी Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, मिश्री की डली बनना नहीं चाहते।' उसका अभिप्राय यह है कि 'हम परमात्मा के दर्शन का आनन्द तो लेना चाहते हैं, परमात्मा बनना नहीं चाहते।' परन्तु मैं इस दार्शनिक के विवार में कतई विश्वास नहीं रखता । मैं कहूँगा-'मैं मिश्री चखना भी चाहता हूँ, और साथ ही मिश्री बनना भी चाहता हूँ । मिश्री अर्थात् अनन्त आत्म-गुणों की अनन्त मधुरिमा ! मैं स्वयं अपने रस का चखने वाला हूँ। दूसरों के रस पर कब तक ललचाई दृष्टि रखू ? राजा बनने में आनन्द है, या राजा के दर्शन करने में ?' ईश्वर या परमात्मा अपने अन्दर ही है, बाहर कहीं भी, किसी भी स्थान पर नहीं। जब यह बात है, तो फिर पूजा किसको करें, ध्यान किसका धरें ? उत्तर आज का नहीं, लाखों वर्षों का हैअपना, अपना और अपना ! यही कारण है कि श्रमण-संस्कृति का प्रतिक्रमण ईश्वरीय प्रार्थनाओं की ओर प्रगति नहीं करता, वह प्रगति करता है-आत्म-निरीक्षण एवं आत्म-मनन की ओर। उत्थान आत्मा का स्वभाव है 'मनुष्य का गिरना सहज है, उठना कठिन है। पतन की ओर जाना स्वभाव है, प्रकृति है, और उत्थान की ओर आना कठिन है, दुष्कर है ! संक्षेप में निष्कर्ष यह है कि पतन स्वभाव है, और उत्थान विभाव है।' जो धर्मोपदेशक, दार्शनिक पा विचारक ऐसी भाषा का प्रयोग करते हैं, वे अज्ञान-रात्रि के अन्धकार में ही भटक रहे हैं । उनके पास मानव-जाति को प्रेरणा देने के लिए कुछ भी सन्देश नहीं है । यदि मनुष्य का पतन स्वभाव है और उत्थान विभाव है, तो फिर धर्म का उपदेश, सदाचार की पुकार, उपासना का शोर किस लिए हो रहा है ? क्या कभी कोई अपने स्वभाव से विपरीत भी हो सकता है ? उसे छोड़ भी सकता है ? कभी नहीं। आत्म - शोधन : ७५ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर की दार्शनिक भाषा, इस भाषा से सर्वथा विपरीत है । वे कहते हैं, उत्थान सहज है, निज परणति है और पतन विभाव है, पर परणति है । उठना सहज है, गिरना कठिन है । क्रोध, मान, माया और लोभ से क्षमा, नम्रता, सरलता एवं उदारता में आना स्वभाव में आना है, अपने सहज भाव में पहुँचना है ! इसके लिए किसी बाह्य आलम्बन की आवश्यकता नहीं है ! हाँ, क्रोध, मान आदि कषायभाव में जाना, विभाव में जाना है, अतः वह कठिन कार्य है। इसके लिए औदयिक भाव का आलम्बन चाहिए। तुम्बा पानी की सतह पर तैरता है, यह उसका स्वभाव है, इसके लिए किसी बाह्म साधन की अपेक्षा नहीं है । क्या तुम्बा तैरने के लिए किसी का सहारा लेता है ? नहीं, वह अपने अन्तःस्वभाव से तैरता है। पर, तुम्बे को डूबने के लिए अवश्य ही बाह्य साधन की अपेक्षा रहेगी। पत्थर बाँध दें, वह डूब जाएगा। तुम्बा अपने - आप नहीं डूबा है, पत्थर ने जबर्दस्ती डुबाया है। यही बात आत्माओं के लिए है। संसार - सागर में तैरना उनका अपना स्वभाव है। और, संसार सागर में डूबना ? यह विभाव है, कर्मो का या वासनाओं का परिणाम है। वासनाओं को दूर करो। फिर हे विश्व की आत्माओं ! तुम सब तैरने के लिए हो, डूबने के लिए नहीं। आत्म-शोधन आत्मा वस्तुतः शुद्ध, निर्मल और महान् है, परन्तु वासनाओं के अनादि प्रवाह में पड़े रहने के कारण वह अनेकानेक दोषों और भूलों से दब-सी गई है । कीचड़ में पड़े हुए सोने की तरह से अपना स्वरूप ही भुला बैठी है । अतः जब कभी वह ऊपर उठने का प्रयत्न करती है, अहिंसा और सत्य की साधना के मार्ग को पकड़ती है, तो अमर वाणी Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनादिकालीन कुसंस्कारों के कारण बीच - बीच में भूल हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं। साधक को इस दशा में हताश और निराश नहीं होना चाहिए । अपनी स्वाभाविक पवित्रता में विश्वास रख कर भूलों का संशोधन करते हुए आगे बढ़ना चाहिए। और, हाँ, भूलों का संशोधन कुछ रोना-धोना और हाय-हाय करना नहीं है । भूलों का संशोधन करने का अर्थ है, भूलों के मूलउद्गम का पता लगाना और भविष्य में बचे रहने के लिए दृढ़ संकल्पपूर्वक निश्चय करना । अतएव जैन - संस्कृति की प्रतिक्रमणसाधना का उद्देश्य पूर्व दोषों को दूर करना और पुनः उस प्रकार के दोषों के न होने के लिए सावधान होना है। यह भूल संशोधन की पद्धति धीरे - धीरे आत्मा को दोषों से मुक्त करती है, अनादिकालीन कुसंस्कारों को दूर करती है और साधक को अपने आत्मस्वरूप में स्थिर कर अजर-अमर निजानंद का द्वार खोल देती है। भीतरी सफाई दीप - मालिका का त्यौहार आता है, तो लक्ष्मी के स्वागत - समारोह में मकान साफ किए जाते हैं, कूड़ा - करकट बाहर फेंक दिया जाता है, रंगरोगन और सफेदी सब तरफ चमचमा उठती है। परन्तु, मैं पूछता हूँ-मकान तो साफ - सुथरे हो रहे हैं, किन्तु आपके मन्दिर का क्या हाल है ? कितनी गन्दगी है, कितनी बदबू है, वासनाओं के कूड़े का कितना ढेर लगा है वहाँ ? जब तक आप का मन मैला है, तब तक लक्ष्मी अन्दर कैसे आएगी ? वह बदबू से तंग आकर वापस लौट जाएगी। और यदि वह किसी तरह भुलावे में आ भी गई, तो वह गन्दी, मैली, कुचैली होकर भी नहीं रहेगी, चुडैल हो जाएगी। अरे, आप तो जानते हैं कि घर में चुडैल का घुस आना, क्या कुछ गुल खिलाता है ? आत्म - शोधन : ७७ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म - विजय आत्म - विजय का मार्ग शरीर, इन्द्रियाँ, मन, सुख - दुःख, मान - अपमान, हानि - लाभ आदि द्वन्द्वों से सर्वथा दूर हो कर जाता है। आत्मा मन, वाणी और शरीर की समस्त क्रियाओं को चलाने वाली एक चैतन्य शक्ति है, जिसे आत्मा, जीव या ब्रह्म कहते हैं। यही ज्ञान और आनन्द का केन्द्र है। यदि आत्मा स्वस्थ है, उसमें किसी प्रकार का विकार नहीं है, तो दुःख कैसा ? धधकती ज्वालाओं में भी फूलों का गुदगुदापन मालूम होगा ! खोल को तोड़ो आत्मानुभूति कोई बाहर से प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं है । - वह तो अन्दर ही मिलेगी, एकमात्र अन्दर ही। शरीर, इन्द्रिय और मन की वासना के खोल को तोड़ कर फेंक दो, आत्मानुभूति का प्रकाश अपने - आप जगमगा उठेगा। सबसे बड़ा आदर्श मनुष्य के सामने सबसे बड़ा आदर्श क्या है ? मनुष्य के सामने सबसे बड़ा आदर्श अपने - आपको परिष्कृत कर, सँवार कर साफ कर पूर्ण और उत्कृष्ट बनाना है, नर से नारायण बनाना है गरुड़ की उड़ान के आदर्श गगन - चुम्बी हिम - शिखर हैं, और मक्खी-मच्छरों के आदर्श कूड़े के ढेर । मनुष्य जहाँ बाहर में मर्ख अमर.वार्ण Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मच्छर है, वहाँ अन्दर में गरुड़ है। बाहर की उड़ान त्याग कर अन्दर की उड़ान अपनाने में ही मनुष्य की महत्ता है। आत्मा और देह आत्मा नित्य है, देह अनित्य है । आत्मा, अजर-अमर है, देह क्षणभंगुर नाशवान है । आत्मा पवित्र है, देह अपवित्र है । आत्मा रोग, शोक, दुःख, द्वन्द्व से परे है, देह इनसे घिरा है । आत्मानुभूति और कालमर्यादा आत्मानुभूति के लिए कितना समय अपेक्षित है ? यह प्रश्न ही अनावश्यक है। वैसे तो अनन्त काल गुजर गया है, आज तक कुछ भी प्रकाश नहीं मिला । और जब प्रकाश मिलता है, तो क्षणभर में मिल जाता है । हजार वर्ष की नींद, जब टूटती, तो मिनिटों में टूटती है। क्या मनुष्य को जगने में बरसों लगते हैं ? आजकल की साधना एक मनुष्य छेद वाला फूटा घड़ा लेकर क्षीर-सागर में अमृतरस भरने गया। जब तक वह घड़ा क्षीर-सागर में डूबा रहा, तब तक तो भरा हुआ मालूम देता रहा, पर ज्योंही ऊपर उठाया कि खाली ! आजकल साधकों के साधना - घट की भी यही दशा है । विकारों के छेद बन्द नहीं करते, फिर साधना - घट आध्यात्मिक रस से भरे, तो कैसे भरे ? आत्म - शोधन: ७६ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर्दर्शन तू सर्वशक्तिमान् है ! महावीर, बुद्ध, राम, कृष्ण, ईसा और मोहम्मद जितने भी संसार के महापुरुष हैं, उन सब की शक्तियाँ तुझ में भी हैं । स्थिर चित्त से एकाग्र होकर विचार ले, तुझे क्या बनना है ? फिर तू जो चाहेगा, वही बन जाएगा। परदा हटाओ व्यक्तिगत लोभ, मोह और स्वार्थ ही मनुष्य की पवित्र ज्ञानचेतना पर परदा है, जो उसे अंधा बना देता है, पथभ्रष्ट कर देता है, हिताहित का यथार्थ निर्णय नहीं होने देता। बुद्धि पर से स्वार्थ का परदा हटाओ, सत्य का उज्ज्वल प्रकाश जगमगाने लगेगा। सत्य के प्रकाश में जो भी निर्णय होगा, वह सर्वोदय की दृष्टि से होगा, फलतः सब के लिए मंगलमय होगा। अन्तर की चिनगारी मनुष्य ! तेरे अन्दर ज्ञान-दीपक जल रहा है । तू केवल उसके ऊपर से अज्ञान की चपली हटा दे। चिनगारी जल रही है, ऊपर आई झाई को हटाने के लिए साधना की जोर से फूंक मार । ८० अमर - वाणी Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर्-मुखी बनो आत्मा ! तुझे दुनिया की तू-तू, मैं-मैं से क्या लेना-देना है ? तू तो बाहर नहीं, अन्दर देख ! दूसरों को नहीं, अपने को निहार ! बाहर देखने वाला भिखारी है और अन्दर देखने वाला चक्रवर्ती है, सम्राट् है ! सुख का स्त्रोत सच्चे सुख का अखण्ड स्रोत आत्मा में अपने अन्दर ही है। देह में नहीं, इन्द्रियों में नहीं, धन में नहीं, जन में नहीं, अधिक क्या, अन्यत्र कहीं नहीं ! कहीं नहीं !! कहीं नहीं !! अपने को पहचान मनुष्य ! तू जाग, उठ और खड़ा हो जा। यदि तू अपने अन्दर की प्रभुता को पहचान ले, तो फिर तेरा छोटे-से-छोटा मूक संकेत भी नरक को स्वर्ग में बदल सकता है। तेरी शक्तियाँ एक-दो, तीन की गिनती से नहीं गिनी जा सकतीं। उनके लिए तो एक ही शब्द है-अनन्त ! अनन्त !! अनन्त !!! अरे ! तुम आत्मा हो, फिर भी डरते हो, गिड़गिड़ाते हो ! तुम्हारा प्रकाश तो वह प्रकाश है, जो सूरज में भी नहीं, चाँद में भी नहीं । तुम्हारी शक्ति तो वह शक्ति है, जो इस विश्व में अन्यत्र कहीं भी नहीं है। तुम कौन हो ! तू न स्त्री है, न पुरुष, न ब्राह्मण है, न शूद्र, न स्वामी है, न दास ! तू तो एक आत्मा है, शुद्ध, बुद्ध, अजर, अमर, अरूप ! अन्तर्दर्शन । ८१ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या तू जड़ कर्म-पुद्गलों के इन विकारी भावों को अपना समझता है ? यदि ऐसा है, तो तुझसे बढ़ कर कोई मूर्ख नहीं, कोई पागल नहीं। आत्म - चिन्तन मनुष्य है, तो मनन करे कि मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? क्या करके आया हूँ ? अब क्या कर रहा हूँ ? क्यों कर रहा हूँ ? कहाँ जाना है ? कब जाना है ? क्या कमाया ? क्या खोया ? कितना आगे बढ़ा ? कितना पीछे हटा ? मेरे अन्दर कितना पशुत्व का अंश है ? कितना मनुष्यत्व का और कितना देवत्व का ? भावना तू तो वह आत्मा है, जिसे न आँख देख सकती है, न कान सुन सकता है, न नाक सूघ सकती है, न रसना चख सकती है और न स्पर्श छू सकता है। और तो क्या, संसार में सूक्ष्म निरीक्षण का सबसे बड़ा दावेदार मन भी तुझे नहीं जान सकता। तू अपना रूप आप ही निहार सकता है। बता, तू इस दिशा में कब प्रयत्नशील होगा ? अपने आप को पहचानो अपने अन्दर अनन्त ज्ञान, अनन्त चैतन्य एवं अनन्त शक्ति का अनुभव करो। तुम कीड़े बनकर भोग - विलास की कीचड़ में कुलबुलाने के लिए नहीं हो ! तुम गरुड़ हो, अनन्त शक्तिशाली गरुड़ ! तुम उड़ो, अपने अनन्त गुणों की अनन्त ऊँचाई तक उड़ो। आत्मा महाशक्तिशाली है ! सिंह के नवजात बच्चे को गड़रिया उठा लाया और भेड़ - बकरियों में छोड़ दिया । बस, वह अपने को भेड़-बकरी ही समझने ८२ अमर • वाणी Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगा । परन्तु, ज्योंही एक दिन सिंह को गरजते और भेड़-बकरियों को भागते देखा, तो अपने स्वरूप को समझने में, उसे देर न लगी । स्वयं भी गरजा, भेड़-बकरियाँ भाग खड़ी हुई । आत्मा ! तू भी सिंह है, कहाँ जड़ पुद्गल के संग में अपने को भूल बैठा है ? तेरी एक गर्जना काफी है, जड़ पुद्गल के विकारी भावों को भागते देर नहीं लगेगी ! देखने वाले को देखो आँख नहीं देखती । वह तो एक खिड़की है, उसके द्वारा कोई और ही देख रहा है । वह जब देखता है, आँखें खुली होने पर देखता है, आँखें बन्द होने पर देखता है, सोते रहने पर भी देखता है और जागते रहने पर भी । बस, आँख से परे उस आँख वाले को देखो, देखने वाले को देखो । अन्तर्दर्शन : ज्ञाता इन्द्रिय और मन आदि के माध्यम से जो ज्ञान होता है, उसके सम्बन्ध में यथार्थ स्थिति यह है कि ज्ञान, आत्मा का स्वरूप है, इन्द्रिय आदि का नहीं । इन्द्रिय ज्ञान, मनो- ज्ञान आदि जो कहा जाता है, वह आत्मा के ज्ञान का इन्द्रिय आदि में उपचार है । शरीर, इन्द्रिय आदि में जब तक आत्मा - ज्योति प्रज्वलित रहती है, चैतन्य तत्त्व व्याप्त रहता है, तब तक उसकी क्रियाएँ शरीर के अंग-प्रत्यंगों इन्द्रिय एवं मन आदि के माध्यम से परिलक्षित होती रहती हैं । परन्तु, वास्तव में वे उनकी अपनी नहीं, आत्मा की है । अत: आत्मा ही ज्ञाता - द्रष्टा है । - द्रष्टा ८३ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्म है। जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया । जो आत्मा है, वही विज्ञाता है । और, जो विज्ञाता भगवान् महावीर है, वही आत्मा है । विज्ञानं ब्रह्म विज्ञान अर्थात् ज्ञान स्वरूप विशुद्ध आत्म - ज्योति ही वेदान्त स्व पर विवेको हि दर्शनम् · स्व और पर का विवेक - बोध ही दर्शन है । - चिदचिद् भेदविज्ञानं हि दर्शनम् • जड़ और चेतन का भेद - विज्ञान ही दर्शन है । - उपाध्याय अमरमुनि अमर वाणी र वा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण- संस्कृति * संस्कृति * जैनत्व * आत्मदेवो भव * कर्मवाद Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण - संस्कृति महावीर का सन्देश श्रमण - संस्कृति के अमर देवता भगवान् महावीर का सन्देश है कि- क्रोध को क्षमा से जीतो, अभिमान को नम्रता से जीतो, माया को सरलता से जीतो, और लोभ को सन्तोष से जीतो ! जब हमारा प्रेम विद्वष पर विजय प्राप्त कर सके, हमारा अनुरोध विरोध को जीत सके और हमारी साधुता असाधुता को झुका सके, तभी हम धर्म के सच्चे अनुयायी हो सकेंगे, सच्चे मानव बन सकेंगे। श्रमण - संस्कृति श्रमण - संस्कृति की गंभीर वाणी हजारों वर्षों से जन-मन में गूंजती आ रही है कि-यह अनमोल मानव - जीवन भौतिक जगत् की अँधेरी गलियों में भटकने के लिए नहीं है, भोग - विलास की गन्दी नालियों में कीड़ों की तरह कुलबुलाने के लिए नहीं है। मानव ! तेरे जीवन का लक्ष्य तू है, तेरी मानवता है। वह मानवता, जो हिमालय की बुलंद चोटियों से भी ऊँची, तथा महान् है । क्या तू इस क्षणभंगुर संसार की पुत्रैषणा, वित्तषणा और लोकेषणा श्रमण - संस्कृति: ८७ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की भूली - भटकी, टेढ़ी - मेढ़ी पगडंडियों पर ही चक्कर काटता रहेगा ? नहीं, तू तो उस मंजिल का यात्री है, जहाँ पहुँचने के बाद आगे और चलना शेष ही नहीं रह जाता - "इस जीवन का लक्ष्य नहीं है, श्रान्ति-भवन में टिक रहना। किन्तु, पहुँचना उस सीमा तक, जिसके आगे राह नहीं ॥" महान संस्कृति आज सब ओर अपनी - अपनी संस्कृति और सभ्यता की सर्वश्रेष्ठता के जयघोष किए जा रहे हैं । मानव - संसार संस्कृतियों की मधुर कल्पनाओं में एक प्रकार से पागल हो उठा है । विभिन्न संस्कृति एवं सभ्यताओं में परस्पर रस्साकशी हो रही है। परन्तु, कौन संस्कृति श्रेष्ठ है, इसके लिए एकमात्र एक प्रश्न ही काफी है, यदि उसका उत्तर ईमानदारी से दे दिया जाए तो? वह प्रश्न है कि क्या आपकी संस्कृति में बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय की मूल भावना विकसित हो रही है ? व्यक्ति स्वपोषण - वृत्ति से विश्वपोषण की मनोभूमिका पर उतर रहा है ? निराशा के अन्धकार में शुभाशा की किरणें जगमगाती आ रही हैं ? प्राणिमात्र के भौतिक एवं आध्यात्मिक जीवन के निम्न धरातल को ऊँचा उठाने के लिए कुछ-न-कुछ सत्प्रयत्न होता रहा है ? यदि आपके पास इन प्रश्नों का उत्तर सच्चे हृदय से 'हाँ' में है, तो आपकी संस्कृति निःसन्देह श्रेष्ठ है । वह स्वयं ही विश्व संस्कृति का गौरव प्राप्त करने के योग्य है । जिसके आदर्श विराट् एवं महान हों, जो जीवन के हर क्षेत्र में व्यापक एवं उदार दृष्किोण का समर्थन करती हो, जिसमें मानवता का ऊर्ध्वमुखी विकास अपनी चरम सीमा को सजीवता के साथ स्पर्श कर सकता हो. वही विश्वजनीन संस्कृति विश्व-संस्कृति के स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान हो सकती है। ८८ अमर-वाणी Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण- संस्कृति का आदर्श श्रमण संस्कृति का यह अमर आदर्श है कि जो सुख दूसरों को देने में है, वह लेने में नहीं । जो त्याग में है, वह भोग में नहीं । श्रमण - संस्कृति और पापी श्रमण - संस्कृति दानव को मानव के रूप में बदल देने की पवित्र शक्ति में विश्वास रखती है। उसका आदर्श संहार नहीं, सुधार है। उसकी भाषा में दण्ड का अर्थ बदला नहीं, उद्धार है । जिस दण्ड के पीछे अपराधी के प्रति दया न हो, सुधार की भावना न हो, केवल बदले की क्रूर मनोवृत्ति हो, वह दण्ड पाप है, स्वयं एक अपराध है । वस्त्र यदि मलिन हो जाए, तो क्या उसे नष्ट कर दिया जाए ? मैले वस्त्र को तो साफ किया जाता है और फिर पहनने के योग्य बना लिया जाता है । और, मनुष्य भी अपराध के द्वारा मैला हो जाता है । अतः उसे भी सस्नेह धोकर साफ करो और शुद्ध मानव बना कर जन - सेवा के क्षेत्र में काम आने योग्य बनाओ। श्रमण - संस्कृति अपराधी के प्रति अधिक दयालुता का व्यवहार करती है, उसी प्रकार, जिस प्रकार कि रोगी के प्रति किया जाता है । अपराध भी एक मानसिक रोग ही है, अतः तदर्थ दण्ड के रूप में अपराधी के लिए सुधार चाहिए, संहार नहीं। मानव और अदृश्य शक्ति मनुष्य के जीवन में किसी अदृश्य शक्ति का हाथ नहीं है । मनुष्य किसी के हाथ का खिलोना नहीं है। वह अपने - आप में एक स्वतन्त्र विराट् शक्ति है । वह अपने - आप को बदल सकता है समाज को बदल सकता है, राष्ट्र को बदल सकता है । और तो श्रमण - संस्कृति : Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या, विश्व तक को बदल सकता है। नरक को स्वर्ग बना देना मनुष्य के लिए एक साधारण-सा खेल है। साम्यवाद और श्रमण-संस्कृति मैं साम्यवाद से डरता नहीं हूँ। मेरा धर्म श्रमण - संस्कृति का धर्म है, और उसका मूलाधार अपरिग्रह है, जो साम्यवाद का ही दूसरा नाम है। श्रमण - संस्कृति का आदर्श है, कम-से-कम लेना और बदले में अधिक - से - अधिक देना । अपनी इच्छाओं, आवश्यकताओं का क्षेत्र कम करना, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न रखना, अपने समान ही-अपितु अपने से भी अधिक दूसरों की भूख और नग्नता का ध्यान रखना, जीवन का महत्व अपने लिए नहीं, अपितु दूसरों के लिए समझना, यह है श्रमण - संस्कृति के अपरिग्रहवाद की मूल भावना। _ 'जीओ और जीने दो' यह स्वर है, जो श्रमण - संस्कृति के इतिहास में लाखों वर्षों से मुखरित होता आया है। आज के साम्यवाद का भी तो यही स्वर है । हूँ, आज के साम्यवाद के स्वर में हिंसा, घृणा, बलात्कार और वर्ग - संघर्ष के भीषण चीत्कार एवं हाहाकार भी सम्मिलित हो गए हैं ! हमारा कर्तव्य है कि हम चीत्कार और हाहाकार की पशुत्व - भावना को दूर करके पारस्परिक सहयोग, मैत्री एवं प्रेम के बल पर मानव - भावना का मधुर घोष मुखरित करें। आज के साम्यवाद में जहाँ भोगवाद का स्वर उठ रहा है, जहाँ सर्वहारा के नाम पर तानाशाही का बोलबाला है, वहाँ हमें त्यागवाद एवं मानव के स्वतंत्र अस्तित्व का स्वर छेड़ना होगा, और यही होगा साम्यवाद का भारतीय संस्करण! 80 अमर-वाणी Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व जैन - धर्म और त्याग जैन-धर्म का त्याग वासनाओं का त्याग है । जैन - धर्म त्याग के लिए अग्नि में जिन्दा जल जाने को नहीं कहता, गंगा या यमुना में डूब मरने को नहीं कहता, पहाड़ की ऊँची चोटियों से कूद जाने या बर्फ में गलकर मर जाने को भी नहीं कहता। भूख, प्यास, शर्दी, गरमी सह लेना भी कोई त्याग नहीं है। यह त्याग तो अनेक अपराधी जेलखाने का कैदी बनकर भी कर लेते हैं। परन्तु अपने-आप को कामनाओं के जाल से मुक्त कर लेना ही सच्चा त्याग है । त्यागी के लिए जीवन या मरण महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण है, कामनारहित हो जाना ! जैन - संस्कृति और मानवता जैन - संस्कृति मानव - संस्कृति है। मानवता के विकास की चरम सीमा को सर्वतोभावेन स्पर्श करना ही जैन - संस्कृति का अमर लक्ष्य है। यही कारण है कि जैन - साहित्य का प्रत्येक शब्द मानव - जीवन की पवित्रता एवं सर्वश्रेष्ठता के प्रशस्त राग से अलंकृत एवं झंकृत है। जैनत्व और जातिवाद जैनत्व किसी एक व्यक्ति, जाति या संप्रदाय की सम्पत्ति नहीं जैनत्व : ११ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। वह तो उसकी संपत्ति है, जो इसे सच्चे मन से अपनाए, भले ही वह ब्राह्मण हो या शूद्र, हिन्दू हो या मुसलमान, भारतवासी हो या और कहीं का निवासी । जैनत्व पर मानव-मात्र का एक समान अधिकार है। जैन - धर्म जैन - धर्म, मानव - धर्म है । वह मानवता के पथ पर चलने के लिए प्रेरणा देता है। और, वह मानवता क्या है ? मनुष्य में, मनुष्य बनकर रहने की योग्यता और कला ! जैन - संस्कृति और पुरुषार्थ जैन-संस्कृति पुरुषार्थ-प्रधान संस्कृति है । हताश और निराश व्यक्तियों के लिए उसका सन्देश है कि क्या भाग्य के गीत गा रहे हो ? भाग्य है क्या चीज ? अतीत पुरुषार्थ का वर्तमान परिणाम ही तो भाग्य है ! भाग्य के चक्कर से निकलकर कुछ कर्म करो, कुछ पुरुषार्थ करो। अन्यथा जीवन पर एक असह्य भार लद जाएगा, जो मनुष्य को कुचल कर मिट्टी में मिला देगा। साम्य - योग संसार में जितने भी सुखोपभोग के साधन हैं, उन सब में सभी मनुष्यों का बराबर का हिस्सा है। किसी एक व्यक्ति, जाति, समाज या राष्ट्र को उस पर एकाधिपत्य जमाने का कोई अधिकार नहीं है। हर चीज का न्यायपूर्वक समुचित बँटवारा करने पर ही पृथ्वी पर अखण्ड शान्ति का स्वर्ग स्थापित हो सकता है । बँटवारा करते समय हर मनुष्य को हमें अपना सगा भाई समझना है, विचारों में भी और व्यवहार में भी। अकेले बैठ कर खाना, महापाप है, घोर ६२ अमर - वाणी Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपराध है । भगवान् महावीर ने कहा है- दुनिया में भले ही किसी और की मुक्ति हो जाए, परन्तु बाँट कर नहीं खाने वाले की मुक्ति कभी नहीं हो सकती __ 'असंविभागी नहु तस्स मोक्खो ।' यह कहाँ की मनुष्यता और न्यायवृत्ति है कि हमारा सगा भाई मनुष्य भूखा और नंगा रहे और हम आवश्यकता से भी अधिक खाएँ, आवश्यकता से अधिक पहनें, आवश्यकता से अधिक सुखसाधन संग्रह कर उस पर साँप की तरह फन फैलाकर बैठे रहें ! आवश्यकता से अधिक संग्रह मनुष्य को राक्षस बना देता है। और अपनी आवश्यकताओं को घटाकर यथावसर अपने सुख - साधनों में दूसरों को भी साझीदार बनाना ऊँची श्रेणी की मनुष्यता है। यह मनुष्यता ही विश्व की मूलाधार वस्तु है। जैन - अहिंसा जैन - धर्म की अहिंसा इतनी सूक्ष्म और इतनी विराट् है कि उसका अनुसरण करना कुछ लोग असाध्य एवं अव्यवहार्य समझते हैं। परन्तु, क्या वस्तु - स्थिति ठीक ऐसी ही है ? चीनी प्रोफेसर तान-युन-शान ने जैन अहिंसा मार्ग की उपर्युक्त मिथ्या धारणा का निराकरण करते हुए कहा कि यह मार्ग असाध्य इसलिए प्रतीत होता है कि मानवता अभी उतनी प्रगति नहीं कर पा सकी है। जब मानवता का पर्याप्त विकास हो जाएगा और वह एक उच्चतर स्तर पर पहुँच जाएगी, तो अहिंसा को सभी लोग व्यवसाय एवं आदरणीय मान कर अपने जीवन में उसे बरतने लगेंगे। __ चीनी सन्त की वाणी में अहिंसा के देवता-भगवान् महावीर की वाणी का स्वर गूंज रहा है, जिसमें उन्होंने कहा है- “सब्वभूयप्पभूयस्स ---" अर्थात् सर्वभूतात्म भूत बनो। जैनत्व : Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-धर्म : आत्म-धर्म जैन - धर्म वीतराग भावना का धर्म है। अतः उसमें आज के साम्प्रदायिक पक्षपात, कदाग्रह या मताग्रह को कहाँ स्थान है ? जो अपने शरीर पर भी मोह नहीं रखता, वह भला शरीर पर लगे धर्म-चिन्हों का क्या मोह रखेगा? धर्म का सम्बन्ध आत्मा से है। धर्म न शरीर में है, न शरीर पर लगे बाहरी चिन्हों में । मठ, मंदिर और मस्जिदों की तो बात ही क्या है ? जैनत्व जैनत्व जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है। अतएव यह हमें संघर्ष का उपदेश देता है कि जहाँ एक ओर आत्मा के विकारों को दूर करने के लिए धर्म-साधना के पथ पर संघर्ष करो, वहाँ समाज के विकारों और बुराइयों को दूर करने के लिए, अन्याय और अत्याचार को मिटा कर शान्ति स्थापना के लिए भी संघर्ष करो। अत्याचार का डटकर विरोध करना और उसे नष्ट करना, पाप नहीं है, प्रत्युत एक पवित्र कर्तव्य है। प्रत्येक संघर्ष के मूल में पवित्र संकल्प होना चाहिए, फिर कोई पाप नहीं। जैन-धर्म को सार्वभौमता जैन - धर्म में जीवमात्र का समान अधिकार है। यहाँ देश, जाति या कुल आदि के कारण किसी भी प्रकार की प्रतिबन्धता नहीं है। फिर हमें क्या अधिकार है कि हम एक सार्वजनिक तथा सार्वभौम धर्म को अमुक देश, जाति अथवा सम्प्रदायवाद के संकीर्ण घेरे में अवरुद्ध रखें ? धर्म को तो पवन के समान सर्व - स्पर्शी होना चाहिए। ६४ अमर - वाणी Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मदेवो भव तू स्वयं ईश्वर है ओ मानव ! तेरा सत्य तेरे अन्दर है बाहर नहीं ! तू जीवित ईश्वर है। अपने-आपको जरा कस कर रख । फिर, जो चाहेगा, हो जाएगा। सारा दायित्व अपने ऊपर तुम किस भाग्य विधाता का सहारा खोज रहे हो ? क्या तुम्हारे अतिरिक्त कोई और भी तुम्हारे भाग्य का निर्माण कर सकता है ? तुम्हारे जीवन के पृष्ठ मन चाहे ढंग से उलट सकता है ? तुम खड़े हो, अपने पैरों पर, तुम आगे बढ़ो अपने पैरों पर ! तुम्हारे पैर ही तुम्हें मंजिल पर ले जा सकते हैं। जो विचारोगे, वही बन जाओगे। स्वर्ग और नरक तुम्हारे ही अन्दर है। दार्शनिक भाषा में उत्तम विचार का नाम स्वर्ग है और निम्न विचार का नाम नरक है। आत्मा ही परमात्मा है जैन धर्म के अनुसार आत्मा, शरीर और इन्द्रियों से पृथक् है । मन और मस्तिष्क से भी भिन्न है। वह जो कुछ भी है, इस मिट्टी आत्मदेवो भव: Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के ढेर से परे है। वह जन्म लेकर भी अजन्मा है और मर कर भी अमर है। ___कुछ लोग आत्मा को परमात्मा या ईश्वर का अंश कहते हैं। परन्तु, वह किसी का भी अंश - वंश नहीं है, किसी परमात्मा का स्फुलिंग नहीं है। वह तो स्वयं पूर्ण परमात्मा, विशुद्ध आत्मा है। आज वह बेबस है, बे - भान है, लाचार है, परन्तु जब वह मोहमाया और अज्ञान के परदों को भेदकर, उन्हें छिन्न - भिन्न करके अलग कर देगा, तो अपने पूर्ण परमात्म स्वरूप में चमक उठेगा ! अनन्तानन्त कैवल्य - ज्योति जगमगा उठेगी उसके अन्दर ! कस्मै देवाय विद्या, विद्या के लिए कुछ अर्थ नहीं रखती। विद्या का महत्त्व चरित्र - बल के विकास में है। भारत के एक ऋषि ने कहा है कि "जो लोग केवल विद्या के लिए ही विद्या की पूजा करते हैं, वे अन्धकार में जाते हैं।" अपना आदर अपने हाथ तुम शिकायत करते हो कि कोई कदर नहीं करता, कोई पूछता नहीं। लोगों से झगड़ने और शिकायत करने से क्या लाभ ? तुम पहले स्वयं अपने को योग्य बनाओ, फिर जो चाहोगे, हो जाएगा। जवाहर का काम पहले अपनी योग्यता प्रमाणित कर देना है, फिर उसके लिए सोने की अंगूठी का चमकता हुआ सिंहासन अपने-आप तैयार है। जीवन क्यों और किसलिए ? पहाड़ की गहरी गोद में, जहाँ कोई न पहुँच सके, गुलाब का अमर वाणी Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक फूल खिला हुआ था । मैंने पूछा " तू यहाँ किस लिए खिला हुआ है ? न कोई देखता है, न सुगन्ध लेता है । आखिर, तुम्हारा क्या उपयोग है यहाँ ?" उसने उत्तर दिया – “मैं इसलिए नहीं खिलता, कि मुझे कोई आकर देखे या सुगन्ध ले ! यह तो मेरा स्वभाव है । कोई देखे या न देखे, मैं तो खिलूँगा ही ।" मैं मन में सोचने लगा- "क्या मानव भी प्रकृति से निष्काम कर्म - योग का यह पाठ सीख सकेगा ?" किसके लिए सूरज और चाँद चमकते हैं, विश्व को प्रकाश देने के लिए । वृक्ष फूलते हैं और फलते हैं, दूसरों को आनन्दित करने के लिए । नदियाँ मीठा पानी लेकर बहती हैं, दूसरों की प्यास व तपन शान्त करने के लिए | क्या मनुष्य भी दूसरों के लिए जीना सीख सकेगा ? ईश्वरत्व की अनुभूति अन्तर्भाव प्रकट एवं विससित हो रहा है या नहीं, इसकी भी पहचान है, यदि तुम पहचान सको तो ! जब तुम क्रोध में नहीं, क्षमा में होते हो, अहंकार में नहीं, नम्रता में होते हो, माया में नहीं, सरलता में होते हो, लोभ में नहीं, सन्तोष में होते हो, तब तुम अन्तर्भाव के प्रकाश में होते हो ! वह पवित्र घड़ी तुम्हारे लिए ईश्वरत्वानुभूति की घड़ी है । आत्मदेवो भव : ६७ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद जैसा कर्म, वैसा भोग आग लगाने वालों के भाग्य में आग है और तलवार चलानेवालों के भाग्य में तलवार । जो दूसरों की राह में काँटे बिछाते हैं, उन्हें फूलों की सेज कैसे मिलेगी ? फूलों की सेज फूल बिछाने वाले को ही मिलती है। कर्मवाद कर्मवाद का सिद्धान्त साधक के लिए धैर्य और साहस का सिद्धान्त है । जब हम अपने ही पूर्व कुकर्मों के फलस्वरूप त्रास और दुःख पाते हैं, तो बड़ी सहिष्णुता एवं धैर्य से उसे सहन कर सकते हैं । अपने किये का किस पर दोष दें ? और, यह विश्वास कि यदि इस जीवन में सुकर्म करेंगे, तो हमारा शेष जीवन और अगले जन्म का जीवन भी सुखमय होगा, हमें सत्कर्म के लिए नवीन स्फूर्ति देता है। इसी प्रकार जब हम यह विश्वास कर लेते हैं कि दूसरे लोगों को भी पूर्वजन्म के कुकर्मों के कारण ही दुःख भोगना पड़ रहा है, गलत आदतों का शिकार होना पड़ रहा है, तो हमें उनपर विद्वेष एवं वैर - भाव न आ कर सहज ही दया - भाव आने लगता है, अमर वाणी Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और हम दूसरों का दुःख दूर करने के लिए उत्साहित होकर सत्कर्म में लग जाते हैं। ईश्वर या देवदूतों के नाम पर मनुष्य न जाने कितने पाप कर्म करता है, न जाने कितने अपराध, अन्याय, अत्याचार करता है ? क्योंकि वह समझता है कि उसका रक्षक तो है ही। फिर भला उसे डर क्या ? ईसा ने कहा- " मैं दुनिया के पापात्माओं का उद्धार करने के लिए सूली पर चढ़ रहा हूँ।" मुस्लिम धर्म कहता है— "खुदा जब कयामत के दिन सब आत्माओं का इन्साफ करेगा. तो पास बैठे हुए मुहम्मद से पूछेगा-बता, तेरी रजा क्या है ? और मुहम्मद जिसकी सिफारिश कर देंगे, वह अपराधों से बरी कर दिया जाएगा । और वह सिफारिश किसकी करेगा ? उसकी जो ईश्वर और पैगम्बर पर ईमान ले आएगा।" कृष्ण ने भी गीता में कहा है-"मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा, तू किसी तरह की चिन्ता न कर" 'अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।' विश्व में श्रमण - संस्कृति के उन्नायक महावीर और बुद्ध ही ऐसे महापुरुष हैं, जो किसी प्रकार का अनुचित आश्वासन नहीं दे गए हैं। उन्होंने यही कहा है कि "ईश्वर या देवदूत कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुम्हें पापों से मुक्ति दिला सके । जो कर्म किए हैं, वे अवश्य भोगने होंगे। एभ मात्र तुम्हारा अपना शुद्ध आचरण ही तुम्हारी रक्षा कर सकता है।" श्रमण - संस्कृति का कर्मवाद का यह आदर्श साधक को, सहृदय भक्त को, पापों के फल से नहीं, अपितु पापों से ही बचने की प्रेरणा देता है । क्योंकि दुष्कर्म करोगे, तो उसका परिणग्मफल तो अवश्य मिलेगा ही। यदि कटुफल नहीं चाहते हो, तो दुष्कर्म नहीं, सत्कर्म करो। कर्मवाद Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तू ही अपना मित्र है वस्तुतः जब तक आत्मा की दृष्टि बहिर्मुखी रहती है, तब तक उसके लिए सर्वत्र बन्धन - ही - बन्धन हैं। जब वह बाहर में किसी मित्र को खोजेगी, तो एक मित्र के साथ, बाहर में अनेक शत्रु भी मिल जाएँगे। किन्तु, जब अन्तर्मुखी हो कर अपनी आत्मा को ही, स्वयं में स्वयं को ही मित्र के रूप में देखेगी, तो बाहर में न कोई मित्र होगा और न कोई शत्रु ही होगा। संसार के सभी बाह्य शत्रु और मित्र नकली प्रतीत होंगे। श्रमण भगवान् महावीर की दिव्य देशना है "पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं, किं बहिया मत्तमिच्छसि ?" - आचारांग, १, ३, ३. १०० अमर - वाणी Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और अधर्म * धर्म का मर्म * अधर्म * चरित्र - विकाश के मूल - तत्त्व * ज्ञान और क्रिया Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव-प्रेम अखिल विश्व के प्राणियों में आत्मानुभूति प्राप्त करना ही सबसे बड़ा धर्म है, सबसे बड़ी मानवता है । अपने साढ़े तीन हाथ के मानवाकार मृत्पिड में ही आत्मानुभूति होना, और अन्यत्र न होना, समस्त झगड़ों की जड़ है। अधिकतर संकट और आपत्तियाँ उन्हीं लोगों से पैदा होती हैं, जो दूसरे को अपना नहीं समझते, और न दूसरों से निश्छल प्रेम करना ही जानते हैं । धर्म और वेश भूषा अरे ! तुम यह क्या कर रहे हो ? बाँध रहे हो, चोके - चूल्हे में घेर रहे हो, पवीतों पर टाँग रहे हो ? क्या तुम्हारा तुम अनन्त, असीम धर्म को सान्त, ससीम, बाह्य चिह्नों एवं क्रियाकाण्डों में अवरूद्ध नहीं कर सकते । धर्म को दाढ़ी - चोटी से छापे - तिलक तथा यज्ञोधर्म इन्हीं बातों में है ? धर्म धर्म विश्व बन्धुत्व धर्म किसी अमुक - विशेष क्रिया - काण्ड में नहीं है । वह है, १०३ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य के मन में स्थित प्रेम की बूंद को सागर का रूप देने में । प्रेमाचरण का विराट रूप ही धर्म है जैन धर्म कहता है- 'सव्व-भूयप्प-भूयस्स' अर्थात् विश्व के सब प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझो, प्राणिमात्र में आत्मानुभूति का ज्ञान करो। धर्म का स्वरूप तलवार के सहारे फैलने वाला धर्म, धर्म नहीं हो सकता। और वह धर्म भी धर्म नहीं हो सकता, जो सोने - चाँदी के चमकते प्रलोभनों की चकाचौंध में पनपने वाला हो। सच्चा धर्म वह है, जो भय और प्रलोभन के सहारे से ऊपर उठ कर तपस्या और त्याग के, मैत्री और प्रेम के उच्चात्युच्च भावना-शिखरों का सर्वांगीण स्पर्श कर सके। धर्म जोड़ता है, तोड़ता नहीं जो धर्म किसी के यहाँ भोजन कर लेने से या किसी को छु लेने मात्र से अपने को अपवित्र मानता हो, मनुष्य - मनुष्य में घृणा का भेद-भाव रखता हो, वह धर्म नहीं, अधर्म है, महान् अधर्म है। धर्म का काम मानव - समूह की बिखरी कड़ियों को जोड़ना है, तोड़ना नहीं। सत्य सत्य एक जलती हुई चिनगारी है । वह लाखों मन असत्य के काठ को जला कर भस्म कर सकती है। सत्य एक दिव्य ज्वाला है, जिससे समस्त मल जलकर नष्ट हो जाता है । जीवन दिव्य प्रकाश से भर जाता है जिससे ! १०४ अमर - वाणी Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम आग लगाना क्या जाने ! वह धर्म क्या, जो आग लगाता चले, छुरियाँ खट-खटाता चले ! सच्चा धर्म तो प्रेम और करुणा के अमृत-जल से घृगा और नफरत की धधकती आग को बुझाता है। सच्चे धर्मानुयायी लोगों की हृदय-वीणा से एकमात्र यही अमर स्वर झंकृत होता है 'हम आग बुझाने वाले हैं, हम आग लगाना क्या जाने ?" धर्म का सवाल सच्चा धर्म यह नहीं पूछता कि तुम गृहस्थ हो या साधु हो। वह तो जब भी पूछता है, यही पूछता है कि साधक ! तेरा क्रोध, तेरा अहंकार, तेरा दंभ और तेरा लोभ, कितना घटा है, कितना बढ़ा है ? धर्म की परीक्षा धर्म को न पुरानेपन की कसौटी पर चढ़ाओ और न नयेपन की कसौटी पर । धर्म का महत्त्व उसकी स्व - पर हितकारिणी पवित्र परम्पराओं एवं आचार-विचार में है, नये-पुरानेपन में नहीं। धमं का लक्ष्य धर्म का लक्ष्य क्या है ? धर्म का लक्ष्य है- विकारों से मुक्ति, वासनाओं से मुक्ति । और, अन्त में परम सत्य को साधना के बल पर पाकर सदा काल के लिए जन्म - मरण के बन्धन से मुक्ति ! धर्म - साधना का लक्ष्य क्या आपकी धर्म - साधना आपको राग - द्वेष की जहरीली धर्म : १०५ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवाओं से बचाती है, मोह एवं घृणा से मुक्ति दिलाती है ? यदि नहीं, तो फिर आपको विचारना चाहिए कि भूल कहाँ है ? धर्म और सम्प्रदाय सम्प्रदाय और धर्म में बड़ा भारी अन्तर है । सम्प्रदाय शरीर तो धर्म आत्मा है, सम्प्रदाय सरोवर है, तो धर्म जल है, सम्प्रदाय फूल है, तो धर्म सुगन्ध है, सम्प्रदाय फल है, तो धर्म रस है । धर्मशून्य सम्प्रदाय मानव जाति के लिए विष है, उसके त्याग में ही संसार का कल्याण है । धर्म और जीवन वह जल धर्म और कर्तव्य वार - त्यौहार की चीज नहीं है, जो अमुक दिन इष्ट मित्रों के साथ बैठकर मिठाई की तरह चखा जाए तो जीवन में नित्यप्रति काम आने वाला अन्न-जल है । अन्न भी क्या, वह तो स्वच्छ हवा है, जिसके बिना क्षण भर भी जीवित नहीं रहा जा सकता । भगवान् सत्य की पूजा नित्य ही करनी चाहिए । जो लोग सत्य की पूजा के लिए पूर्णिमा या अमावस्या, रविवार या मंगलवार, अथवा शुक्रवार की बात सोचते हैं, वे सत्य की पूजा नहीं, सत्य की विडम्बना ही करते हैं । धर्म और अधर्म - १०६ अन्तर्मुखी चेतना धर्म है और बहिर्मुख चेतना अधर्म ! यह एक संक्षिप्त सूत्र है, और इसका विस्तृत भाष्य या महाभाष्य है कि यदि मनुष्य अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, दया, करुणा, क्षमा, शील, सन्तोष, तप, त्याग आदि आत्म-भाव की ओर अग्रसर है, तो वह धार्मिक है | और यदि वह विषयाभिमुख होकर क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेष आदि कषाय-भाव की ओर अग्रसर है, तो अमर वाणी - - Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधार्मिक है। धर्म और अधर्म का मूल स्वरूप बाहर की स्थूल धर्म - परम्पराओं में नहीं मिलता । वह मिलता है, मानव के अन्तः करण के अन्धकार और प्रकाश में । अन्दर में जागरण है, तो धर्म है, और यदि अन्दर का देवता सोया पड़ा है, तो अधर्म है। धर्म और प्रलोभन जो धर्म एक ओर नरक का डर दिखाता है एवं दूसरी ओर स्वर्ग का लालच बताता है, वह धर्म क्या खाक जनता का कल्याण करेगा ? सच्चा धर्म सत्य के अमर स्वर का गायक होता है, डराने और ललचाने वाला नहीं। सत्य और सम्प्रदाय वह सत्य ही क्या, जो किसी एक व्यक्ति या सम्प्रदाय की सीमा में घिर कर रह जाए ! सत्य अनन्त है, अत: वह सीमित मान्यताओं एवं क्रिया-काण्डों में सीमित नहीं हो सकता। सब से बड़ा धर्म संसार का सबसे बड़ा धर्म कौन है ? जो मनुष्य को 'स्व'अपने में सन्तुष्ट रहना सिखाए और 'पर' में उलझने से बचाए, वही सबसे बड़ा धर्म है। एक म्यान में एक तलवार राम और रावण एक सिंहासन पर कैसे बैठ सकते हैं ? नहीं बैठ सकते हैं न ? तब फिर मन के सिंहासन पर भगवान् और शैतान की एक तरह से प्रतिष्ठा कैसे की जा सकती है ? या तो अपने मन में भगवान् को जगह दो, या फिर शैतान को। दोनों में से एक को विदा करना ही होगा। शैतान के रहते भगवान् कैसे धर्म: १०७ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्दर आ सकते हैं ? राम को शैतान के सिंहासन पर बैठाने के लिए रावण को नीचे उतारना ही होगा। प्रेम और मोह वह प्रेम है, जिसमें वासना की तनिक - सी भी दुर्गन्ध न हो, दुर्भावना का कीड़ा न हो! जो गंगा की धारा के समान स्वच्छ हो, निर्मल हो, पवित्र हो ! और मोह ? मोह वह है, जिसमें वासना की गंदगी हो, दुर्भावना का कीड़ा हो ! और, जहाँ स्वार्थ का हाहाकार हो, परमार्थ की पुकार न हो ! धर्म और पंथ सदाचार और संयम धर्म का सूक्ष्म रूप है, जो अन्दर रहता है। और, साम्प्रदायिक क्रिया-काण्ड तथा वेष-भूषा उसका स्थूल रूप है, जिसे हर कोई देख सकता है, जान सकता है। धर्म के सूक्ष्म रूप की रक्षा के लिए बाहर का स्थूल आवरण आवश्यक है। परन्तु, यदि ऐसा हो कि सुन्दर, सचित्र रंग-विरंगा लिफाफा हाथ में आ जाए और खोलने पर पत्र न मिले, तो वह कितना मर्म - भेदक परिहास होगा। आजकल के धर्म - पंथों को इससे बचना चाहिए। बाह्य क्रिया-काण्ड अन्तर्भावना से शून्य बाहर का मोहक क्रिया - काण्ड वैसा ही है, जैसा कि प्राण - शून्य मृत शरीर का मोहक रूप । हृदय की गति के अभाव में रूप की मोहकता कितनी देर जीवित रहेगी ? मृत रूप के भाग्य में सड़ना लिखा है, और वह देर-अबेर एक दिन सड़ कर रहेगा। १०८ अमर • वाणी Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म - शून्य पंथ मैं धर्म से शून्य मत, पंथ या सम्प्रदाय को वैसा हो मानता हूँ, जैसा कि आत्मा से शून्य निर्जीव शरीर को। चैतन्य - शून्य शरीर लड़ता नहीं, सड़ता है। उसी प्रकार धर्म से शून्य सम्प्रदाय भी पवित्र जीवन के लिए संघर्ष नहीं करता, अपितु कदाग्रह की अपवित्रता से सड़ता है और धर्म - मूढ़ जनता को बर्बाद करता है। धर्म का मर्म मनुष्य ! तेरा धर्म तुझे क्या सिखाता है ? क्या वह भूलेभटके लोगों को राह दिखाना सिखाता है ? सब के साथ समानता का, भ्रातृ-भाव का, प्रेम का व्यवहार करना सिखाता है ? दीनदुःखियों की सेवा - सत्कार में लग जाना सिखाता है ? घृणा और द्वेष की आग को बुझाना सिखाता है ? यदि ऐसा है, तो तू ऐसे धर्म को अपने हृदय के सिंहासन पर विराजमान कर ! पूजा कर ! अर्चा कर ! इसी प्रकार का धर्म विश्व का कल्याण कर सकता है। ऐसे धर्म के प्रचार में यदि तुझे अपना जीवन भी देना पड़े, तो दे डाल ! हँस-हँस कर दे डाल !! अन्तर् - दृष्टि मिसरी की डली का माधुर्य मिसरी में ही है, बाहर नहीं। इसी प्रकार आत्मा का सत्य मनुष्य के भीतर आत्मा में है, बाहर नहीं। अतएव जीवन - सुधार के लिए सच्चरित्रता का प्रारम्भ अपने अन्दर में होना चाहिए, बाहर के स्थूल क्रिया-काण्डों में नहीं। धर्म : १०६ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर्मुख धर्म जब तक धर्म अन्तर्लीन रहता है, तब तक अक्षत, स्थिर एवं सजीव रहता है | परन्तु, ज्यों ही वह अन्दर से निकल कर बाहर के छापा - तिलक, जनेऊ, दाढ़ी, चोटी, माला, मठ और मंदिर - मस्जिदों में पहुँच जाता है, त्यों ही क्षत-विक्षत एवं निर्जीव होने लगता है । धर्म को जीवित रखना है, तो उसे बाह्य की ओर प्रवाहित न कर, अन्दर की ओर प्रवाहित करो । धर्म का मूल बाह्य धर्माचरण में देश, काल और समाज की परिस्थिति के कारण कितना ही क्यों न परिवर्तन हो, सब क्षम्य हो सकता है । धर्म का मूलरूप आत्म विजय है, राग द्वेष का क्षय है, परन्तु, उसकी उपेक्षा किसी भी दशा में क्षम्य नहीं हो सकती । - धर्म की पहचान क्या आपका धर्म आपको व्यक्ति, जाति या संप्रदाय आदि के छोटे-छोटे घेरों से बाहर निकाल कर स्वतंत्र चिन्तन एवं स्वतंत्र मनन करने का अवसर देता है ? यदि हाँ, तो आपका धर्म श्रेष्ठ है, उसे पकड़े रखिए, कभी छोड़िए नहीं । वह पवित्र है । 990 भला और बुरा जो भी कार्य करना हो, वह अच्छा है या बुरा, यह जाँचने का एक ही तरीका है । वह यह कि विचार की तराजू पर उसे तोल कर देख लो कि उसमें तेरा स्वार्थ अधिक है या जनता का ? यदि तू अपना स्वार्थ अधिक पाए, तो वह कार्य बुरा है और यदि जनता का स्वार्थ अधिक पाए, तो वह अच्छा है । - अमर वाणी - Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का उद्देश्य धर्म का उद्देश्य आत्मा के शुद्ध स्वरूप का दर्शन करना है। धर्म का प्राण जीवन से अलग हटा हुआ धर्म, अधर्म है और आचार, दुराचार है। धर्म और आचार का प्रत्येक स्वर जीवन - वीणा के हर सांस के तार पर झंकृत रहना चाहिए। प्रवृत्ति और निवृत्ति मनोनिग्रह का अपने-आप में कोई अर्थ नहीं है। हजारों दार्शनिक पुकारते हैं- मन को रोको, मन को वश में करो। परन्तु मैं पूछता हूँ "मन को रोक कर आखिर करना क्या है ?" यदि मन को अशुभ संकल्पों से रोक कर शुभ संकल्पों के मार्ग पर नहीं चलाया, तो फिर वही दशा होगी कि घोड़े को गलत राह पर जाने से रोक तो लिया, किन्तु वहीं लगाम पकड़े खड़े रहे। उसे ठीक राह पर न चला सके। आज का धर्म आज के मनुष्य के मन को न स्वर्ग का लालच दिखा कर बदला जा सकता है और न नरक का भय दिखा कर। आज का मनुष्य वर्तमान जीवन में ही स्वर्ग और नरक की समस्या का हल देखना चाहता है। अतः उसे वह विचार चाहिए, जो उसे जीवित रहते हुए मनुष्य बनने की यथार्थ प्रेरणा दे सके। क्या आज के धर्म और पन्थ के धर्म गुरु उपर्युक्त समस्या पर ठंडे दिल से कुछ विचार कर सकेंगे ? धर्म: १११ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और मानवता संसार में वही धर्म श्रेष्ठ है, जो जीवन का धर्म है। जीवन धर्म का अर्थ है-अहिंसा का, सत्य का, संस्कारिता का, समानता का, करुणा का, बन्धुता एवं मानवता का धर्म । जिस धर्म में मानवता को जितना ही अधिक सक्रिय रूप मिलेगा, वह उतना ही श्रेष्ठ एवं जन-कल्याणकारी धर्म होगा। पवित्र जीवन जीना ही जीवन - धर्म का परम लक्ष्य है। योग या क्षेम योग भव्य है, सुखद महत्त है, किन्तु, योग से क्षेम महत्ततर । अतः व्यर्थ ही नहीं गंवाएँ, चिन्तामणी-सा नर भव पाकर । ११२ अमर - वाणी Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधर्म Mon क्या यह भी धर्म है ? मनुष्य ! तेरा धर्म तुझे क्या सिखाता है ? क्या वह मासूम बच्चों को शस्त्र से घायल करना सिखाता है ? बहन - बेटियों की इज्जत लूटना सिखाता है ? किसी का गला घोंटना सिखाता है ? किसी के घर में आग लगाना सिखाता है ? यदि ऐसा है, तो तू उस धर्म को ठुकरा दे, ठोकर मार कर चूर-चूर कर दे । इस प्रकार के धर्म को एक पल भी जिन्दा रहने का अधिकार नहीं है। सज्जन और दुर्जन जो व्यक्ति चन्दन के समान दूसरों के सन्ताप को दूर करने वाले हैं, वे सचमुच चन्दन ही हैं। इस संसार में वे ही कर्मशील सज्जन धन्यवादाह हैं, जो परोपकार के लिए भयंकरतम कष्ट सहने को तैयार रहते हैं। और, समय पड़ने पर अपने प्राणों को तृण के समान निछावर कर देते हैं। संतों की भाषा में “वह मनुष्य पापी है, दुर्जन है, जो समर्थ होकर भी आर्त - जनों का दुःख दूर नहीं करता।" अधर्म। ११३ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह भी पापी है किसी पर अत्याचार करना, जैसे एक पाप है, उसी प्रकार अत्याचार को चुपचाप सह लेना, उसके सामने सिर झुका देना भी एक पाप है । अत्याचार का विरोध होना ही चाहिए । अत्याचार का विरोध न करना, उसे बढ़ावा देना है। प्रवृत्ति और निवृत्ति __ आज से नहीं, हजारों वर्षों से प्रवृत्ति और निवृत्ति में संघर्ष चला आ रहा है। कुछ लोग प्रवृत्ति पर बल देते हैं, तो कुछ निवृत्ति पर ! किन्तु, मैं समझता हूँ, यह संघर्ष प्रवृत्ति और निवृत्ति में नहीं है, अपितु अति - प्रवृत्ति और अति - निवृत्ति में है। अस्तु, जहाँ तक हो सके, साधक को दोनों ओर की 'अति' से बचना चाहिए। जहाँ अति निवृत्ति साधक को जड़ एवं निष्क्रिय बनाती है, वहाँ अति प्रवृत्ति व्यर्थ के संघर्षों एवं उलझनों को जन्म देती है। जीवन में साधना का सही मार्ग, दोनों अतियों के बीच में से यथाप्राप्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को ध्यान में रखते हुए गुजरता है। राम और रावण शक्ति अपने - आप में कोई बुरी चीज नहीं है। परन्तु, शक्ति का प्रभु बन कर रहिए, दास बन कर नहीं। राम शक्ति के प्रभु थे, तो रावण शक्ति का दास । शक्ति दोनों के पास थी। शक्ति बुरी नहीं, शक्ति का दास होना बुरा है। सबसे बड़ा अपराध एक अंग्रेज डाक्टर से पूछा गया-"सब से बड़ा रोग कौन है ?" ११४ अमर वाणी Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाक्टर ने उत्तर दिया-रोग को रोग न समझना ।" और यदि मुझ से पूछे कि “सबसे बड़ा अपराध कौन है ?" तो मैं कहूँगा "अपराध को अपराध न समझना।" ईर्ष्या दूसरों की सम्पत्ति, प्रतिष्ठा और सुख - सुविधाओं की तरफ ललचाई आँखों से देखने वाला बाहर से कितना ही बड़ा साधक क्यों न हो, अन्दर से चोर है, लुटेरा है, डाकू है। पाप और पुण्य किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से पहले यदि उसमें भय या लज्जा दोनों में से कोई अनुभूति आए, तो समझ लेना चाहिए कि वह अन्तरात्मा के लिए हितकर नहीं है, वह पाप है । पाप छपना चाहता है, अन्धकार चाहता है। और पुण्य ? पुण्य प्रकट होना चाहता है, प्रकाश चाहता है-- "गुप्तं पापं, प्रकटं पुण्यम् ।" - भगवान महावीर अधर्म: Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्र - विकास के मूल तत्त्व उपदेश और आचरण मैं भूमण्डल पर के सभी धर्म - गुरुओं एवं धर्म - प्रचारकों से एक प्रार्थना करना चाहता हूँ कि वे जहाँ कहीं धर्म - प्रचार करने जाएँ, अपने - अपने धर्म शास्त्रों के साथ अपने सुन्दर आचरणों की पुस्तकें भी साथ लेते जाएँ। कागज की पोथियों की अपेक्षा आचरण की पोथियाँ अधिक प्रभावशालिनी होती हैं। इच्छाओं के दास नहीं, स्वामी बनो मनुष्य ! तू अपनी ही इच्छाओं के हाथ का खिलौना बन रहा है। तेरा गौरव इच्छाओं द्वारा शासित होने में नहीं, अपितु अपने को उनका शासक बनाने में है। राम और रावण राम और रावण में क्या अन्तर है ? एक इच्छाओं का स्वामी है और दूसरा उनका दास है, एक जीवन की मर्यादाओं में रह कर मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाता है, तो दूसरा जीवन की मर्यादा को ध्वस्त कर राक्षस कहलाता है। ११६ अमर वाणी Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर पर मन का प्रभाव स्वस्थ रहने के लिए तन और मन को अन्दर और बाहर से पवित्र रखने की आवश्यकता है। तन की अपेक्षा मन की पवित्रता और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। स्वस्थ और उच्च जीवन की सफलता मन पर निर्भर करती है, क्योंकि शरीर मन का प्रभावक्षेत्र है। इसलिए मानसिक स्वास्थ्य, शारीरिक स्वास्थ्य से भी अधिक आवश्यक है । मन के विकार-युक्त होने से अवश्य ही किसीन-किसी रूप में शरीर भी विकार - युक्त हो कर ही रहेगा। मन के अन्तर्-द्वन्द्वों को छाया शरीर पर पड़ कर रहती है। मन को वश में रखिए शरीर कहीं भी, किसी भी काम में लगा रहे । परंतु,मन को अंदर में आत्मा के केन्द्र से सम्बंधित रहना चाहिए। यदि मन नहीं भटकता है तो शरीर और इन्द्रियाँ बाहर दूर-दूर तक उड़ कर भी नियन्त्रण में रह सकेंगे, वापस लौट सकेंगे। पतंग कितनी ही दूर आकाश में उड़ती चली जाए, परन्तु उसकी डोर हाथ में है, तो फिर कोई खतरा नहीं। क्रोध की चार परिणतियाँ मनुष्य का निकृष्ट तामसिक-रूप है, क्रोध का मार-पीट आदि किसी भी तरह की हानि पहुँचाने में प्रयोग करना। मध्यम-रूप है गुस्से को व्यक्त करके रह जाना, आगे न बढ़ना । इससे अच्छा रूप है, क्रोध को अन्दर - ही - अन्दर पी जाना, बाहर व्यक्त भी न करना । इससे भी अच्छा रूप है, क्रोध को समाप्त कर विरोधी से चरित्र - विकास के मूलतत्त्व । .११७ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम करने का प्रयत्न करना । परन्तु, सबसे उत्कृष्ट और महान् रूप है, सबसे प्रेम-ही-प्रेम करना, कभी क्रोध या द्वष के भाव को हृदय में आने ही न देना। नम्रता मनुष्य जितना ही अपने को छोटा समझता है, वह उतना ही बड़ा बनता है, श्रेष्ठ बनता है । मनुष्य की महिमा अहंकार में नहीं, नम्रता में है, अकड़ने में नहीं, झुकने में है। नीच होइ सो झुक पिये, ऊंच पियासा जाय । सरोवर के मधुर जल को पीने के लिए तन कर खड़े न रहो, जरा नीचे झुको। यह या वह ? तुम एक तरफ संसार के गंदे भोग - विलास भी चाहो और दूसरी तरफ आत्म - साक्षात्कार भी, ईश्वरीय दर्शन भी, तो दोनों काम एक-साथ कैसे हो सकते हैं ? पशुत्व और देवत्व की एक साथ उपासना नहीं की जा सकती। दोनों में से एक का मोह छोड़ना ही होगा। यह तुम्हारी योग्यता पर है कि तुम किस का मोह छोड़ना चाहते हो ? ऊपर की ओर देखिए इधर - उधर कहाँ गड्ढों में भटक रहे हो ? अधोमुख न होकर ऊर्ध्व-मुख बनिए और चोटी पर पहुँचिए । याद रखिए, नीचे अधिक भीड़ है, गन्दगी है । ऊपर का स्थान खुला है, स्वच्छ है। वहाँ जीवन का आनन्द अच्छी तरह उठाया जा सकता है। ११८ अमर - वाणी Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विडम्बना इधर अंट-संट जो चाहा, वही अपथ्य खाते जाना और उधर वैद्य या हकीम से दवा मांगते रहना, कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? इधर पाप-पर- पाप करते जाना, और उधर भगवान् से क्षमा पर - क्षमा माँगते रहना, कहाँ की धार्मिकता है ? बाहर-भीतर एक समान अरे मनुष्य ! तू नुमाइश क्यों करता है ? तू जैसा है, वैसा ही बन ? अन्दर और बाहर को एक कर देने में ही सच्ची मनुष्यता है | यदि मानव अपने को लोगों में वैसा ही जाहिर करे, जैसा कि वह वास्तव में है, तो उसका बेड़ा पार हो जाए ! - वाणी नहीं, आचरण स्वामी रामतीर्थ परमहंस ने ठीक ही कहा है कि "शब्दों की अपेक्षा कर्म अधिक जोर से बोलते हैं ।" अतएव संसार के धर्मसाधको ! तुम चुप रहो, अपने आचरण को बोलने दो । जनता तुम्हारे उपदेश की अपेक्षा तुम्हारे आचरण के उपदेश को सुनने के लिए अधिक उत्कण्ठित है । ब्रह्मचर्य धन की सुरक्षा के लिए क्या उसे सुन्दर सोने की तिजोरी में रखा जाए ? इस प्रश्न का जो उत्तर है, वही ब्रह्मचर्य और शृंगार के सम्बन्ध में है | जहाँ मर्यादा हीन उद्दाम शृंगार वासना की आग को उदीप्त करता है, वहाँ ब्रह्मचर्यं सुरक्षित नहीं रह सकता । चरित्र - विकास के मूल तत्त्व : ११६ - Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य जीवन का अग्नि-तत्त्व है, तेज है। उसका प्रकाश, उसका प्रताप जीवन के लिए परम आवश्यक है। भौतिक और आध्यात्मिक, शारीरिक और मानसिक सभी प्रकार का स्वास्थ्य ब्रह्मचर्य पर अवलम्बित है। ब्रह्मचर्य का अभिप्राय शरीर की अन्तिम साररूप धातु, वीर्यरक्षा और पवित्रता ही नहीं है, वह मन, वाणी और शरीर-तीनों की पवित्रता है। ब्रह्मचर्य की साधना मन, वचन और कर्म से होनी चाहिए । मन में दूषित विचारों के रहने से भी ब्रह्मचर्य की पवित्रता क्षीण हो जाती है । बाहर में भोग का त्याग होने पर भी वह कभी-कभी अन्दर जा बैठता है। अतः अत्यन्त सावधान रहने की आवश्यकता है, ताकि बाहर छोड़ी हुई भोग-वस्तुएँ, कहीं अंदर न घुस जाएँ। अनुशासन एक कठोर एवं सदा जागृत रहने वाले पहरेदार के समान अपने प्रत्येक विचार, शब्द और कार्य पर कड़ी निगाह रखो । देखना, कहीं भूल न होने पाए ? अनुशासन जीवन का प्राण है। अपने छोटे-से-छोटे कार्य और व्यवहार पर कठोर नियन्त्रण रखो, अपना शासन चलाते रहो । कोमलता बनाम कठोरता अखिल विश्व की कोमलता ममता मन में इतनी ठसाठस भर गई है कि अपने प्रति कोमलता को कहीं जगह ही नहीं रही है। कोमल रूई भी जब अधिक दवाकर गाँठ बना दी जाती है, तो उसकी कोमलता विनष्ट हो कर. हो जाती है काठ-सी कठोरता। १२० अमर - वाणी Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः कोमलता को ठसाठस भरने की अपेक्षा नहीं होती, हल्केपन की आवश्यकता होती है। त्याग को ऊँचाई त्याग, आत्मा की वह ऊँचाई है, जहाँ शरीर और इन्द्रियों की आवाज नहीं पहुँच सकती। और, मन की आवाज भी वहाँ सुनाई नहीं दे सकती। आत्मा के गंभीर नाद में और सब ध्वनियाँ क्षीण हो जाती हैं। अपनी दुर्बलता दूर कीजिए आप का पतन आप की दुर्वलता में है, और आप का उत्थान आप की सबलता में है। आप अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं को जितना ही दूर करेंगे, उतने ही मानवता के विकास-पथ पर अग्रसर होते जाएँगे। प्रलोभन जब मनुष्य का प्रकाशपूर्ण हृदय प्रलोभन के अन्धकार से आच्छादित होने लगता है, तो वह धर्म-अधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य के विचार से सर्वथा शून्य हो जाता है । जीवन-पथ में काँटे मिलें, तो कोई बात नहीं, परन्तु चिन्ता है फूलों के बिछे होने की। सच्चा त्याग त्याग का अर्थ किसी वस्तु को छोड़ देना मात्र नहीं है । त्याग का सच्चा अर्थ है, वस्तु को हाथ से छोड़ देने के साथ - साथ मन से भी छोड़ देना। चरित्र-विकास के मूल तत्व : १२१ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब तक आसक्ति दूर न हो, निष्काम भाव न आए, तब तक त्याग विडम्बना है"त्याग न टिके रे, वैराग्य बिना" मन की सीमा बाँधो मन को खुला छोड़ दोगे, तो वह कहीं जाकर न रुकेगा। उसकी सीमा कहीं न आएगी। आत्मा द्वारा उसकी सीमा बाँधने का प्रयत्न करो। जो अपने मन की सीमा नहीं बाँध सके, वे रावण, दुर्योधन, कंस और कुणिक हुए। जिन्होंने सीमा बाँध ली, वे महावीर, बुद्ध और गाँधी हुए। दान जितना अधिक आपको मिले, उतना ही अधिक तीव्र गति से आप दूसरों को दे डालिए। यह दिव्य सिद्धान्त ही आस - पास के व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के अभाव-ग्रस्त जीवन को मालामाल कर देता है, अन्धकार को प्रकाश में बदल देता है । उक्त प्रसंग को लेकर किसी पुराने मनीषी ने भी कहा है कि घर में लक्ष्मी बढ़ने लगे और नाव में पानी बढ़ने लगे, तो चतुरता का काम यह है कि उसे दोनों हाथों से उलीचा जाए। नाव के पानी की तरह संग्रह एक दिन भार बन जाता है, और वह भार मानव-जीवन की तैरती हुई नाव को एक दिन सहसा डुबो देता है "पानी बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम ।। दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो कान ॥" निन्दक नियरे राखिए तुम्हारी यदि कोई निन्दा करता है, तो करने दो। तुम उसकी १२२ अमर - वाणी Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओर ध्यान क्यों देते हो ? क्यों कुढ़ते हो ? अपने अन्दर में तलाश करो, यदि तुम्हारे अन्दर सचमुच ही कोई निन्दा - योग दोष हो, तो उसे छोड़ दो, अन्यथा प्रसन्न भाव से निर्भय, निर्द्वन्द्व होकर विचरण करो । किसी के कहने से तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ता बनता है । w श्रम आज का मनुष्य विश्राम चाहता है, काम से जी चुराता है । समाज और राष्ट्र में सब ओर दरिद्रता का जो नग्न नृत्य हो रहा है, वह इसी विश्राम - वृत्ति के कारण है । उत्पादन का शोर है, परन्तु जहाँ खटिया पर पड़े - पड़े ऊँघने तथा खर्राटे लेने वाले लोग हों, वहाँ उत्पादन बढ़े, तो कैसे बढ़े ? उत्पादन, आखिर मनुष्य के हाथ में जन्म लेता है । मनुष्य जब तक जिए, तब तक श्रम करता रहे, श्रम करता हुआ ही मरे । श्रम जीवन है और विश्राम मरण । जीवन का एक क्षण भी व्यर्थ आलस्य में नहीं जाने देना चाहिए । - सेवा आपका हृदय स्फटिक जैसा स्वच्छ हो। उसमें अजस्र गति से करुणा और सेवा की पवित्र धारा बहती रहनी चाहिए । निष्काम सेवा में जो रस है, आनन्द है, वह अन्यत्र कहाँ है ? मन के रोग हिंसा, असत्य, घृणा, ईर्ष्या, द्व ेष, दंभ, लोभ, मोह और अहंकार आदि मन तथा बुद्धि के रोग हैं । जीवन नौका जीवन की नौका डूब जाएगी, यदि उसके छेदों को बंद न चरित्र - विकास के मूल तत्त्व : १२३ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया तो ? भला आज तक कोई छेदों से जर्जर हुई नाव पर बैठकर पार पहुँच सका है ? हाँ, तो जीवन की नाव में जितने भी क्रोध, मद, लोभ आदि के छिद्र हैं, सबको बंद कर दो और फिर आनन्द से संसार - सागर से पार हो जाओ ! काम, आत्म - सुधार प्रिय बन्धुओ ! यदि तुम अपनी पत्नी को सीता के रूप में देखना चाहते हो, तो पहले तुम राम बन जाओ ! सीता, राम के घर में रह सकती है, रावण के घर में नहीं । और, मेरी प्यारी बहिनो ! यदि तुम अपने पति को राम देखना चाहती हो, तो तुम पहले सीता बन जाओ ! राम, सीता के ही पति हो सकते हैं, अन्य किसी निम्न नारी के नहीं । नींव की ईंट भयभीत मनुष्य में भय मनुष्य की सबसे बड़ी दुर्बलता है । गीदड़ की आत्मा निवास करती है, जो कुछ दिन इधर उधर लुकी छिपी भटक कर मर जाने के लिए है, काम करने के लिए नहीं । जब तक मनुष्य में भय रहता है, वह सत्य के पथ पर नहीं चल सकता है । न उसमें नैतिकता हो सकती है, न धर्म, न समाज का हित और न राष्ट्र का प्रेम । निर्भयता और साहस ही मनुष्य के चरित्र - बल के महल की पहली नींव की ईंट है । - १२४ बचन के रोग ज्वर, श्वास, खाँसी, दुर्बलता, क्षय, बात और शूल आदि शरीर के रोग हैं । · अमर वाणी Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक बोलना, असमय में बोलना, असत्य भाषण, कटुभाषण, चुभती बात और रागद्वेष-वर्द्धक वचन इत्यादि मन के रोग हैं। जहाँ राग है, वहाँ द्वष भी है राग और द्वेष जुड़वाँ भाई हैं । जहाँ एक है, वहाँ दूसरा अवश्य है। किसी से राग है, तो उसके विपरीत किसी से द्वोष भी है । और, यदि किसी से द्वेष है,तो उसके विपरीत किसी से राग भी है । वीतराग पद पाने के लिए दोनों से ही मुक्त होना आवश्यक है। हर्ष और शोक जब तक हर्ष और शोक की तरंगें तुम्हारे मन के सागर में उठ रही हैं, तब तक अपने को बन्धन में समझो ! ज्ञानी का ऊँचा दर्जा पाने में अभी देर है। अहंकार अधिकार का एक कुख्यात साथी है, जिसका नाम अहंकार है। यही कारण है कि अधिकार पाते ही मनुष्य अपने को असाधारण तथा दूसरों से भिन्न समझने लगता है, अधिकार के मद में झूमने लगता है । धन्य हैं वे, जिनके पास अधिकार है, परन्तु अधिकार का सह-यात्री अहंकार नहीं है । अधिकार विनय एवं नम्रता का स्पर्श पाकर ही चमकता है, और तभी वह जन-कल्याण करता है। बुराई के प्रति जागरूकता बुराई, बुराई है, वह छोटी क्या और बड़ी क्या ? बुराई छोटी है, नगण्य है, अतः उपेक्षणीय है--साधक के लिए यह आदर्श ही गलत है । कभी-कभी बुराई बिल्कुल छोटे-से, सूक्ष्म-से बीज के रूप चरित्र - विकास के मूल तत्त्व : १२५ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में आती है, समय पाकर वह अंकुरित होती है, बढ़ती है, फूलती है, फलती है, बड़े वृक्ष के रूप में सब ओर फैल जाती है, आस - पास छा जाती है। फिर उसे काटने के लिए कितना श्रम और समय अपेक्षित होता है ? वृक्ष का रस चूसने वाली अमर बेल की तरह बुराई भी धीरे-धीरे फैलकर साधना की आध्यामित्क - भावना का रस चूस लेती है। अतः इसका स्वप्न में भी विश्वास न करो। निरन्तर आत्म-निरीक्षण करते रहो, जीवन के पल-पल का हिसाब रखते रहो कि कौन बुराई, कब और किस रूप में अन्दर घुस आई है ? पता लगते ही उसे बाहर निकाल फेंको, और भविष्य में बुराई के स्पर्श से बचे रहने का दृढ़ संकल्प करो ! HTRACK ESENIOSHDS S AEHA १२६ अमर - वाणी Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान और क्रिया तरने की कला तालाब हो या नदी हो-तट पर खड़े-खड़े हजार वर्ष भी यदि तैरने की कला पर शास्त्रार्थ करते रहो, तो तैरना नहीं आ सकता। तैरने की कला के लिए तो जल में कूदना होगा, हाथ - पाँव मारने होंगे। उस समय डूबने से बचने के लिए जो भी प्रयत्न होगा, उसी से तैरना आएगा। धर्म के लिए भी यही बात है । वह केवल ज्ञान - गोष्ठियों में शास्त्रार्थ करने की चीज नहीं है। उसका सीधा सम्बन्ध आचरण से है । अतः जो महानुभाव धर्म पर बहस करना छोड़ कर उसे आचरण में उतारेंगे, वे अवश्य ही संसार-सागर में सैरने की कला सीख जाएँगे। मुट्ठी में बन्द मिश्री की डली से मिठास न देने की शिकायत नहीं कर सकते । हाँ, मुंह में डालें, चूसें और फिर मिठास न आए, तो शिकायत ठीक है, परन्तु यह शिकायत कभी होने की नहीं। मिश्री और फिर मीठी न लगे, ऐसा कभी हो सकता है ? मान और क्रिया : १२७ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की मिश्री को भी पुस्तकों की मुट्ठी में बंद न किए फिरें । उसे आचरण की जिह्वा पर चखिए, फिर देखिए, कितनी शान्ति और मधुरता प्राप्त होती है ! ज्ञान और किया ज्ञान अंक है, तो क्रिया-काण्ड उसके आगे लगने वाला बिन्दु है । अंक के बिना शून्य का क्या मूल्य होता है, गणित शास्त्र में ? कुछ नहीं ! पहले धन या तिजोरी ? ज्ञान मूल धन है, तो क्रियाकाण्ड की साधना तिजोरी है । पहले अहिंसा और सत्य आदि का ज्ञान होता है और वही बाद में अहिंसा और सत्य के आचरण-स्वरूप क्रियाकाण्ड में उतरता है । ज्ञान का बीज क्रियाकाण्ड में विराट् वृक्ष हो जाता है । परन्तु पहले वीज का अस्तित्व तो चाहिए ? आज के जड़ क्रिया-काण्डियों को बड़ी ईमानदारी के साथ ज्ञान का मूल्य आँकना है । विवेक और शास्त्र यदि आप आँख बन्द कर लें और उस पर दस हजार मील दूर तक देखने वाली दूरबीन लगा लें, तो क्या दिखाई देगा, कितना दीखेगा ? यही बात विवेक की आँख और शास्त्र की दूरबीन के सम्बन्ध में है | विवेक - ज्ञान के बिना शास्त्र बेचारा क्या कर सकता है ? ज्ञानहीन क्रिया ज्ञान के बिना जो भी प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण, जप, तप, अहिंसा आदि की साधना है, वह सब आज्ञान क्रिया है । अज्ञान क्रिया अमर - वाणी १२८ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्रव का हेतु है, कर्म - बन्धन का कारण है । उस से निर्जरा और मोक्ष की आशा रखना, आकाश पुष्प की कल्पना मात्र है, और कुछ नहीं । आचारहीन पाण्डित्य आचार-हीन पाण्डित्य घुन लगी हुई लकड़ी के समान अन्दर से खोखला होता है । रोगन की पालिश उसे बाहर से चमका सकती है, उसके अन्दर शक्ति नहीं डाल सकती । भक्ति, कर्म एवं ज्ञान - योग बचपन से यौवन और यौवन से वार्द्धक्य, जिस प्रकार जीवन का आरोहण क्रम है, उसी प्रकार साधना का भी - भक्ति-योग से कर्म - योग और कर्म - योग से ज्ञान - योग के रूप में ऊर्ध्वमुखी आरोहण क्रम है । एक दृष्टि से भक्ति योग में साधना की कोई विशिष्टता नहीं रहती और अन्तिम ज्ञान - योग की पूर्णता में भी उसकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, इसलिए कर्म - योग ही साधना का मुख्य केन्द्र रहता है । किन्तु हमें एक बात भूल नहीं जानी है कि हमें कर्म - योग में भक्ति योग तथा ज्ञान - योग का उचित सहारा लेना पड़ता है । इसलिए साधना - स्वरूप केन्द्र पर स्थित होकर हमें भक्ति एवं ज्ञान का आश्रय लेकर चलना पड़ता है । रूपक को भाषा में- भक्ति हमारा हृदय है, ज्ञान हमारा मस्तिष्क है और शरीर, हाथ-पैर आदि कर्म है । तीनों का सुन्दर समन्वय ही सम्यक् - साधना का आधार है । ज्ञान और क्रिया - १२६ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर् - हृदय धर्म का क्या है ? वह है विश्वात्मा होना । तेरे • मेरे के द्वन्द्वों का, अन्तर् से अपगत होना । जहाँ राग है, जहाँ द्वष है, वहाँ धर्म कैसे होगा? अंधकार की अमानिशा में, भास्कर रवि कैसे होगा? - उपाध्याय अमरमुनि Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज और संघ * समाज * संघ * शिक्षा * नारी Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज संघर्षों का मल कारण आज के दुःखों, कष्टों और संघर्षों का मूल कारण यह है कि मनुष्य अपना बोझ खुद न उठाकर दूसरों पर डालना चाहता है । अपना बोझ दूसरों पर डालना, अपना काम खुद न करके दूसरों से करवाना, आज के जन-समाज में गौरव समझा जा रहा है। परन्तु यह सबसे बड़ा अन्याय है, अत्याचार है, दुराचार है । अपना काम खुद करने में लज्जा किस बात की ? अपना काम दूसरों से कराने का हक या तो बीमार को है या अपंग, अपाहिज को। स्वस्थ होते हुए भी अपने काम का बोझ दूसरों पर डालना प्रतिष्ठा नहीं, पाप है। व्यक्ति और समाज मनुष्य ! तू यह न समझ कि तेरी भलाई, और बुराई तेरी अपनी व्यक्तिगत है, अतः वह तेरे तक ही सीमित है । याद रख, तेरे प्रत्येक कार्य का प्रभाव विराट् संसार में दूर - दूर तक पड़ता है। क्या यह सत्य नहीं है कि एक कोने में कंकर फेंकने से सरोवर की सम्पूर्ण जलराशि तरंगित हो उठती है ? समाज १३३ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज - हित समस्त मानव-जाति एक ही नाव पर सवार है। यहाँ सबके हित और अहित बराबर है। यदि पार होंगे, तो सब होंगे, और यदि डूबेंगे, तो सब डूबेंगे। सबका भाग्य एक साथ है । सब का समान भाव से किया जाने वाला सम्मिलित प्रयत्न ही नाव के सकुशल पार होने में सहायक हो सकता है । ___ यदि मानव - जाति व्यक्तिगत स्वार्थों के आगे झुक गई, तो कह कर्बाद हो जाएगी। व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठे बिना आज कहीं भी गुजारा नहीं है। अखण्ड मानवता मनुष्य ! क्या तू अपने ही समानाकृति मनुष्य से घृणा करता है, जाति-भेद के नाम पर, देश-भेद के नाम पर, धर्म-भेद के नाम पर ? भोले साथी ! ये सब भेद काल्पनिक हैं, मिथ्या हैं ! भला मनुष्य - मनुष्य में भेद कैसा ? द्वन्द्व कैसा ? घृणा कैसी ? तू तोड़ दे, इन भेद की दीवारों को। और, भूमण्डल पर विचरण कर अखण्ड मानवता के गीत गाता हुआ ! श्रेष्ठ मनुष्य वह है, जो भेद . में भी. अभेद के गीत गा सके। महापुरुष और जनता संसार के महापुरुष अबोध जनता का हित करना चाहते थे, उसके अज्ञान को नष्ट करना चाहते थे; परन्तु दुर्भाग्य से जनता उनकी भावना को न समझ सकी, उलट कर उनका विरोध करने लगी। यही कारण है, सभी महापुरुषों को अबोध जन-समाज की ओर से आज तक भर्त्सना, पीड़न एवं धिक्कार ही मिला है। एक १३४ अमर - वाणी Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुत्ता था। उसने चीनी के घड़े में मुह डाल दिया। इतने में खड़खड़ाहट की आवाज हुई। कुत्ते ने भागना चाहा। इसी गड़बड़ में घड़ा फूट गया । घड़े की गर्दनी कुत्ते के गले में रह गई । कुत्ते को कष्ट पाते देख कर दयाखु मनुष्य हाथ में लाठी लेकर, इसीलिए कुत्ते के पीछे दौड़ा कि यदि लाठी से घड़े की गर्दनी तोड़ दी जाए, तो कुत्ता कष्ट से बच जाएगा। कुत्ते ने अपने पीछे लाठी लिए दौड़ते हुए आदमी के असली उद्देश्य को न समझ कर उलटा यह समझा कि यह मुझे मारने को दौड़ रहा है। वह भौंकने लगा, तथा और भी जोर से भागने लगा। बात कड़वी अवश्य है, परन्तु आज तक अबोध जनता अपने उद्धारक महापुरुषों के साथ यही कुत्ते-जैसा व्यवहार करती आ रही है। धर्म और समाजवाद सच्चा मनुष्य वही है, ओ अपने परिवार, पड़ौस, समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों को ईमानदारी से पूरा करता है। आस-पास के किसी भी जीवन की किसी भी समय, किसी भी तरह की उपेक्षा न हो, यह सामाजिक सन्तुलन है, यही भारत की पुरानी भाषा में धर्म है और आज की नई भाषा में समाजवाद । नैतिकता का आधार आज सब ओर से पुकार आ रही है कि नैतिकता नहीं है, ईमानदारी नहीं है। मैं कहता हूँ, नैतिकता और ईमानदारी हो,तो कैसे हो ? जब कि यहाँ त्याग को भावना लुप्त होती जा रही है । जनता की मनोवृत्ति __ महान् पुरुषों की जीभ आसमान पर है और दुनियादार लोगों के कान होते हैं जमीन पर । अब समस्या यह है कि महापुरुषों की वाणी को दुनियादार लोग सुनें, तो कैसे सुनें ? समाज: १३५ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषमता का राज्य एक तरफ दावतों में मोहन-भोग उड़ रहे हैं, तो दूसरी तरफ भूखे पेट को अन्न का एक घुना दाना भी नहीं है ! एक तरफ सोनेचाँदी के तारों से गुथे हुए, रेशमी वस्त्र चमचमा रहे हैं, तो दूसरी तरफ लज्जा ढाँपने को फटी - पुरानी लँगोटी भी नहीं है ! एक तरफ आकाश को चूमने वाले संगमर्मर के महल खड़े हैं, तो दूसरी तरफ कच्ची मिट्टी की जर्जर दीवारों पर घास का छप्पर भी नहीं है ! यह है विषमता, जो देश की शक्ति को, शान्ति को, गौरव को, प्रतिष्ठा को निगले जा रही है ! आज सारी सभ्यता, संस्कृति और कलचर का केन्द्र रुपया हो गया है ! आज के युग में मानवता की कोई आवाज नहीं । आज मनुष्य की मुट्ठी गर्म है और उसमें झनकार है अटन्नियों, चवनियों ,अधन्नों और पैसों की ! और इस झनकार में डूब गया है, मानवता और धर्म का मर्म स्वर ! यह स्थिति बदलनी होगी ! रुपये को सर्वश्रेष्ठता के पद से नीचे उतारना होगा ! आज का पूंजीवाद एक अजगर है, जो निगल रहा है गरीब जनता के रोटी-कपड़ों को, दीन-ईमान को। इसके जहरीले दाँतों को उखाड़ डालने में ही भूखी जनता का कल्याण है ! परिग्रह का अभिशाप एक ओर, दिन-रात कड़ी धूप और सर्दी में तन तोड़ परिश्रम करने के बाद भी भर - पेट भोजन नहीं मिलता और नंगी जमीन पर तारों की छत के नीचे सोना पड़ता है। दूसरी ओर, दीन - हीन पद-दलितों का रक्त चूस कर मेवामिष्टान्न उड़ते हैं । और सोने के गगन - चुम्बी महलों में फूलों की सुगन्धित सेज पर पहर दिन चढ़े तक खर्राटे लेते हैं । यह अभिशाप परिग्रहवाद का है और जब तक यह दूर नहीं होगा, १३६ अमर वाणी Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब तक यह निश्चित है कि संसार में शान्ति का राज्य किसी दशा में भी कायम नहीं हो सकेगा। नया और पुराना क्या आप को पुराने का मोह है, तो पुराने कटे - फटे चिथड़े पहनो, पुरानी सड़ी - गली, वासी रोटियाँ खाओ। पुराने टूटे-फूटे ध्वस्त खंडहरों में रहो। क्या आपको नये का मोह है ? यदि आप को नये का मोह है, तो आम की नई कच्ची केरियाँ चूसो, नए अंकुरित वृक्ष की शीतल छाया में विश्राम करो, बिल्कुल नएआज के जन्म पाए बच्चे को दूकान और दफ्तर का काम सौंप दो। कोई भी विचारक नये - पुराने के मोह में नहीं पड़ता है। वह तो एक ही बात देखता है, वस्तु की द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार उपयोगिता ! पुरानी, किन्तु आज के युग में अनुपयोगी परम्पराओं एवं रूढ़ियों से चिपटे रहना धर्म नहीं है। धर्म है, उनको नष्ट कर नई उपयोगी परम्पराएँ चालू करना। क्या कभी पुराने-से-पुराने घरों को जनहित की दृष्टि से गिराना धर्म नहीं है ? आध्यात्मिक दरिद्रता किसी भी समाज और राष्ट्र का पतन धन-जन की दरिद्रता के कारण नहीं होता। भारत के निवासियो ! तुम भले ही अपना और सब-कुछ खो देना, परन्तु अपने परम्परागत आध्यात्मिक वैभव को खोकर आध्यात्मिक दरिद्र न बन जाना। समाज: १३७ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ संघ आकाश के सघन बादलों से धरती पर उतरने वाली अकेली बूद हवा में सूख जाती है या मिट्टी में मिलकर विलीन हो जाती है। न वह स्वयं बह सकती है और न किसी दूसरे को ही बहा सकती है। बहने और बहाने की शक्ति एकमात्र जल-प्रवाह में है, जो एक के पीछे एक लगे रहने वाली कोटि - कोटि बून्दों का संघ है। कोई भी विचारक इस पर से निर्णय कर सकता है कि शक्ति का केन्द्र व्यक्ति नहीं, संघ है । हजारों मील के लम्बे-चौड़े रेतीले मैदान में एक ही वृक्ष हो, उसकी एक ही शाखा हो, शाखा पर एक ही पत्ता हो, तो कैसा लगेगा ? सर्वथा अभद्र ! और हजारों प्रकार के वृक्षों का एक उपवन हो, प्रत्येक वृक्ष हरा - भरा और फला - फूला हो, तो कैसा लगेगा ? सर्वथा सुन्दर ! कोई भी विचारक इस पर से निर्णय कर सकता है कि सौन्दर्य का केन्द्र व्यक्ति नहीं, संघ है। प्रकाश से प्रकाश मिलता है ज्योतिर्मय बनना है, तो किसी ज्योतिर्मय की शरण लो, उसकी १३८ अमर - वाणी Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा और सत्संग का लाभ उठाओ। पवित्र घृत से भरा हुआ दीप भी है, बत्ती भी है, पर प्रकाश नहीं दे रहा है। प्रकाश की योग्यता है, पर वह व्यक्त नहीं ! उसे व्यक्त करना है, तो किसी प्रदीप्त दीपक से भेंट करनी होगी, स्पर्श - दीक्षा लेनी होगी। आत्मा में प्रकाश शक्ति है, परन्तु वह व्यक्त नहीं है। उसे व्यक्त करने के लिए किसी साधक की चरण-शरण में पहुँचना ही होगा । ज्यों ही स्पर्शदीक्षा की भावना से दीक्षित होंगे, त्यों ही आपका अन्तर्जगत् आध्यात्मिक ज्योति से जगमगा उठेगा। सत्संग गंगा की धार में पड़ कर गन्दा नाला भी गंगा बन जाता है। चन्दन के आस-पास खड़े हुए वृक्ष भी सुगन्ध से महकने लगते हैं। कहते हैं, पारस के स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता है । संग का बड़ा प्रभाव है ? मनुष्य जैसा संग करता है, वैसा ही बन जाता है। वह देखिए संगतरा क्या सूचना दे रहा है ? उसका संकेत है कि मैं मिट्ठा का पौधा नारंगी के संग जोड़ा जाकर स्वयं नारंगी का वृक्ष बन गया हूँ, और संगतरे के नाम से सूचना दे रहा हूँ कि मैं संग से तर गया हूँ । क्या मानव इन उदाहरणों पर कुछ विचार करेगा ? जौहरियों से जवाहरात के पारखी जौहरियो ! इन कंकर-पत्थरों को रत्न समझ कर बहुत दिन भटक लिए, पागल हो लिए। अब जरा इन जीते-जागते मानव-देहधारी हीरों की भी परख करो। दुःख है कि तुम जड़ कंकर-पत्थर परखते रहे और इधर न जाने कितने अनमोल रत्न धूल में मिल गए। “वह धनी, धनी नहीं, पापी राक्षस है, जो सेवा करने योग्य धन रखते हुए भी किसी को भूख से बिलबिलाता हुआ देखता रहे, और कुछ-भी न करे !" संघ : Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेता नहीं, नेता के निर्माता बनिए आज का प्रत्येक मनुष्य अधिकार चाहता है, पद चाहता है, राजा होना चाहता है। इसके लिए कितना संघर्ष है, कितना लड़ाई-झगड़ा है, परन्तु राजा बनने की अपेक्षा राजा बनाने का अधिकार बड़ा है, सब से बड़ा पद है । क्या मनुष्य इस पद का गौरव प्राप्त नहीं कर सकता ? नेता होने की अपेक्षा,अच्छा है नेता बनाने में सक्रिय भाग लेना, कितना बड़ा गौरव है । आचार सब से बड़ा प्रचार आज कल धर्म-प्रचार की धूम-सी मच रही है । जिधर देखिए, उधर ही प्रचार का तूफान उठ रहा है, कोलाहल हो रहा है । चन्दे-चिट्टे उगाए जा रहे हैं, और सोने-चांदी के गोले फेंक कर मार्ग साफ किया जा रहा है। परन्तु, धर्म - प्रचार का सर्वश्रेष्ठ मार्ग उसे अपने आचरण में उतार लेना है, उसे अपने जीवन व्यवहार में एकरस बना लेना है। शिथिलाचार और संघ जैसे एक गन्दी मछली तालाब को गन्दा कर देती है, उसी प्रकार एक आचार - हीन भ्रष्ट साधक समस्त समाज को गन्दा और बदनाम कर देता है। संघ के अधिनायकों को इन पतितों से सतर्क रहने की आवश्यकता है। गृहस्थ जैन-धर्म में गृहस्थ का पद कम महत्त्व का नहीं है । वह यदि पुरुष है, तो साधुओं का पिता है, यदि स्त्री है, तो साधुओं की माता है । जो सर्वश्रेष्ठ साधु-संघ के भी माता-पिता हैं, उन्हें अपने १४० अमर वाणी Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचरण में कितना पवित्र, उज्ज्वल और महान् होना चाहिए, यह बहुत गम्भीरता के साथ सोचने की बात है। रोओ मत, हँसो आज मुझे एक धनी सेठ मिले । सट्टे में धन के चले जाने पर रो रहे थे । क्या मैं उनसे पूछ लू कि 'आपने कभी किसी को रोटी का दान दिया है ? किसी गरीब को तन ढाँपने के लिए खद्दर का टुकड़ा अर्पण किया है ? किसी रोते हुए के आँसू पोछे हैं ? आपके महल की शीतल छाया में क्या कभी किसी को दो घडी खड़े होने का सौभाग्य मिला है ? देश या समाज की भूखी मरती संस्थाओं ने आपके धन से क्या कभी थोड़ा-बहत जीवन पाया है ? आपके धन ने आपका यह लोक या परलोक सुधारा है ? 'यदि यह सब नहीं हुआ है, तो फिर उस धन के लिए क्यों रो रहे हो ? बिलख क्यों रहे हो ? वह धन नहीं था, जहर था ! चला गया, तो ठीक हुआ ! अन्यथा वह तुम्हारी आत्मा की हत्या कर देता ! दान के चार प्रकार दानार्थी के पास स्वयं पहँच कर सम्मान के साथ दान देना, उत्तम दान है। अपने यहाँ बुला कर दान देना, मध्यम दान है। माँगने पर दान देना, अधम दान है। किसी सेवा के बदले में दान देना, अधमाधम दान है। संख्या नहीं, गुण भगवान् महावीर ने और उन्हीं के पथ के यात्री दूसरे मनीषी आचार्यों ने एकमात्र गुणी को महत्त्व दिया है, संख्या को नहीं। वन में एक सिंह का महत्त्व अधिक है, या हजारों गीदड़ों का ?* संघ : १४१ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ হিপ্পা सच्ची शिक्षा सच्ची शिक्षा जीवन का प्रकाश है। भला वहां व्यक्तिगत स्वार्थों का अन्धकार कहाँ रह सकता है ? सच्ची शिक्षा पाये हुए युवक अपनी भूख के लिए नहीं, अपितु जनता की भूख के लिए लड़ते हैं । अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के लिए नहीं, समूचे समाज और राष्ट्र की प्रतिष्ठा के लिए लड़ते हैं। ___मनुष्य की विशेषता : विचार मनुष्य का गौरव विचारों का प्रकाश लेकर चलने में है। केवल श्रम और शक्ति के भरोसे कुछ नहीं हो सकता। श्रम और शक्ति में तो आप से बैल और गधे भी कहीं अधिक परिश्रमी और मजबूत होते हैं। परन्तु मालूम है, वे हाँकने पर चलते हैं ? और इसलिए पशु हैं, घास खाते हैं। मनुष्य के पास भी यदि विचारों का प्रकाश नहीं है, तो वह “साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः" है। वह हाँका जाएगा। लादा जाएगा। उसे मनुष्य रूप में जीने का कोई अधिकार नहीं है। शिक्षा का आदर्श शिक्षा का अर्थ केवल लम्बी-चौड़ी दुरूह पुस्तकें पढ़ लेना और १४२ अमर - वाणी Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व - विद्यालयों को ऊँची - से - ऊँची उपाधियाँ प्राप्त कर लेना नहीं है । शिक्षा का अर्थ है, आत्मा का विकास, जीवन का विकास समाज का विकास, और समूची मानवता का विकास । पाण्डित्य पाण्डित्य लम्बे - चौड़े पोथी - पन्नों में नहीं है, वह है जीवन को अनुभूति में, यदि कोई सहृदय उसे पा सके तो। विद्या का उद्देश्य आचार्य मनु कहते हैं कि “सा विद्या या विमुक्तये ।' विद्या वह है, जो भौतिक वासनाओं से तथा अन्ध - परम्पराओं एवं कुप्रथाओं से मुक्ति दिला सके । स्वतन्त्र रूप से जनहित के सम्बन्ध में सोचना और करना ही एकमात्र विद्या का पुनीत उद्देश्य है। सच्ची विद्या सच्ची विद्या जीवन में आनन्द लेने की कला सिखाती है; मजदूर की तरह नहीं, स्वामी की तरह श्रम करना सिखाती है । प्रतिकूल परिस्थिति में भागना नहीं, अपितु उसको अपने अनुकूल बना लेना ही जीवन की सच्ची विद्या है। ज्ञान या अज्ञान ! आज के मनुष्य ने रेशम के कीड़े की भाँति अपने ऊपर ज्ञान के नाम से अज्ञान का जाल गूथ रक्खा है, जिसे काटकर वह बाहर नहीं निकल सकता ? विज्ञान का फल आज की मानव - जाति मौत से खेल रही है, आग पर चल रही शिक्षा: १४२ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। वह अपनी सारी बुद्धि, सारी प्रतिभा अपने को ही नष्ट करने के प्रयत्न में लगा रही है। विज्ञान की तेज चाकू से प्रकृति की छाती को चीर कर भी मानव ने, आज क्या निकाला ? विष, विष और विष। वह चला था, अमृत की तलाश में ! परन्तु ले आया विष । शिक्षा की कसौटी कौन मनुष्य शिक्षित है, इसकी सच्ची कसौटी यह है कि वह सच्चे अर्थों में मनुष्य बना है कि नहीं ? अपने नैतिक व्यवहार व आचरण को ऊँचा उठा पाया है या नहीं ? अपने पुराने एवं गलत दृष्टि - कोणों को बदल सका है या नहीं ? उसके आस - पास का मानब - समाज सुव्यवस्थित एवं संयत हुआ है या नहीं ? उसमें बुराई से अन्त तक लड़ते रहने का साहस है या नहीं ? पण्डित, मूर्ख और महामूर्ख __ मूर्ख और पण्डित में क्या अन्तर है ? पण्डित पहले सोचता है और बाद में काम करता है; परन्तु मूर्ख पहले काम करता है और बाद में प्रतिकूल परिणाम आने पर सोचता है, पछताता है। और जो असफल होने पर बाद में भी नहीं सोचता, वह तो महामूर्ख है, पशु है, उसकी बात रहने दीजिए। विचार ही मनुष्यता है और अविचार ही पशुता है । विचार ही एक ऐसी वस्तु है, जो मनुष्यता एवं पशुता का विभेद स्पष्ट करती है। १४४ अमर - वाणी Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी भारत की नारी भारत की नारी तप और त्याग की मोहक मूर्ति है, शान्ति और संयम की जीवित प्रतिमा है। वह अन्धकार से घिरे संसार में मानवता की जगमगाती तारिका है। वह मन के कण-कण में क्षमा, दया, करुणा, सहिष्णुता और प्रेम का ठाठे मारता समुद्र लिए घूम रही है। वह विष के बदले अमृत बाँट रही है ! काँटों के बदले फूल बिछा रही है ! वह भारत की नारी है, सीता और द्रौपदी की बहिन है ? दोष किसका? नारी सरस्वती है ! सभ्यता के आदि युग में ब्राह्मी और सुन्दरी के रूप में उसी ने तो हमें पढ़ना सिखाया था, अ..."आ... इ.."ई.."रटाया था ! एक, दो, तीन, चार गिनना सिखाया था। भगवान् ऋषभदेव के द्वारा दिए गए लिपि तथा गणित के प्रकाश को सर्व-प्रथम उनकी सुपुत्रियों ने ही ग्रहण किया था ! आज वही नारी अज्ञान है, मूर्ख है, तो इसमें उसका दोष नहीं, दोष है पुरुषजाति का, जिसने अपना ऋण अच्छी तरह नारी : १४५ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदा नहीं किया ! जिनसे ज्ञान का प्रकाश पाया, उन्हीं की बहनों को उसने अन्धकार में रखा और अपना स्वार्थ साधा ! देवियों से देवियों ! मैं तुम्हारे बनाव - शृंगार पर आलोचना नहीं करूँगा, तुम्हारे पहनने-ओढ़ने और चाल-ढाल पर नुक्ताचीनी नहीं करूँगा ! यह सब मूरों का काम है, विचारकों का नहीं ! तुम अपने को जितना सुन्दर बना सकती हो, बनाओ ! यह कोई पाप नहीं है, गुनाह नहीं है ! सुन्दरता में तो प्रेम की सुगाव रहती है । परन्तु, एक बात का खयाल रखना । कहीं बाहर की सुन्दरता के फेर में पड़ कर अन्दर की सुन्दरता नष्ट न हो जाए ? तुम अन्दर ओर बाहर दोनों ओर से सुन्दर बनो ! तुम्हारा तन सुन्दर हो, उससे भी बढ़ कर वचन सुन्दर हो, और इन दोनों से बढ़कर अन्दर में मन सुन्दर हो ! बहनों से बहनों ! तुम्हें अलंकार चाहिए ? लज्जा, शील, संयम और कर्तव्य-निष्ठा के अलंकार पहनो ! तुम अंधकार में बिजली की तरह चमकोगी ! तुम्हारे प्रकाश से मानव-जगत् में नया प्रकाश भर जाएगा ! ये सीने-चाँदी के गहने, हीरे - जवाहरात के अलंकार ! ये तुच्छ हैं, भला इन कंकर - पत्थरों को पहन कर क्या प्रकाश प्राप्त करोगी ? अन्धकार में जग - मगाती दीपशिखा को कौन-सा अलंकार चाहिए ? वह अपना अलंकार आप है ! पुरुष और नारी ओ पुरुष ! तूने नारी को क्या समझ रखा है ? क्या वह भोगविलास की गुड़िया है, खिलौना है ? क्या तू उसे रेशमी साड़ियों १४६ अमर वाणी Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और सोने - चाँदी के गहनों से जीतना चाहता है ? वह गृह - पत्नी - है, उसे यह सब नहीं चाहिए, उसे चाहिए प्रेम, अधिकार, आदर और गृहस्थी होने का स्वाभिमान ! यह ठीक है, कि वह आवश्यकता पड़ने पर सुन्दर से - सुन्दर गहने और वस्त्र मांग सकती है । वह सौन्दर्य की पुजारिन है, उसे सुन्दरता से प्रेम है । परन्तु वह, वह भी है, जो आवश्यकता पड़ने पर एक क्षण में सब कुछ निछावर भी कर सकती है, ठुकरा भी सकती है। याद है, सीता यह सब ठुकरा कर एक दिन नंगे पैरों छाया की तरह राम के पीछे-पीछे किस प्रकार वन - यात्रा को निकल पड़ी थी ? नारी का आदर्श अतीत श्रमण भगवान् महावीर की अमृत वाणी का रस का सबसे ज्यादा उन बहनों ने पान किया, जो सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी हुई थीं और जिन्हें हम अज्ञान के अंधकार में रहने को मजबूर करते चले आ रहे थे । वास्तव में वे शक्तियाँ रूढ़ियों के शिला - खण्डों से दबी हुई थीं, परन्तु ज्यों ही उन्हें उभरने का अवसर मिला, भगवान् महावीर की दिव्य - देशना का प्रकाश मिला, त्यों ही वे एक बहुत बड़ी संख्या में राजमहलों को छोड़कर साधना की कांटों भरी राह पर बढ़ चलीं । - वे संसार की विपरीत परिस्थतियां एवं विपत्तियाँ से टक्करें लेती हुई, भयानक से भयानक सर्दी-गर्मी और वर्षा की यातनाएँ झेलती हुई भी श्रमण भगवान् महावीर का मंगलमय संदेश घर घर में पहुंचाती रही । और, जिनके हाथों ने देना - ही - देना जाना था, वे ही राज- रानियाँ अपनी प्रजा के सामने, यहां तक कि झोपड़ियाँ में भिक्षा के लिए घूमती थीं और साथ में भगवान् महावीर की वाणी का अमृत बाँटती थी । * नारी 1 - १४७ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन का कण • कण मधुमय हो, मधु - रस क्षिति पर बरसाओ। अन्दर में अपने प्रसुप्ततम - भाव सुदिव्य जगाओ । रोता आया मानव जग में, अच्छा हो अब हंसता जाए। और, दूसरे रोतों को भी, जैसे बने हंसाता जाए ॥ - उपाध्याय अमरमुनि Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिखरे मोती * बिखरे मोती * इनसे भी सोखिए * ओ मानव ! * सन्त Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिखरे मोती पूर्व और पश्चिम पूर्व और पश्चिम दोनों दो किनारों पर खड़े हुए हैं। पूर्व की संस्कृति मनुष्य को अन्तर्मुख बनाती है और पश्चिम की संस्कृति बहिर्मुख । पूर्व की संस्कृति का आधार आत्मा-निरीक्षण है, और पश्चिम की संस्कृति का आधार है प्रकृति-निरीक्षण ! पूर्व की संस्कृति का आराध्य है विराट् चैतन्य देव और पश्चिम की संस्कृति का आराध्य है क्षुद्र जड़ राक्षस ! पूर्व के हाथ में शीतल जल की सुराही है, तो पश्चिम के हाथ में जलती हुई लकड़ी। रूप नहीं, गुण देखिए रूप का क्या देखना, गुण देखिए । कुल का क्या देखना, शील देखिए । अध्ययन का क्या देखना, प्रतिभा का चमत्कार देखिए । भाषण का क्या देखना, आचरण देखिए । तप का क्या देखना, क्षमा एवं सहनशीलता देखिए। धर्म का क्या देखना, दया की भावना देखिए। बिखरे मोती: १५१ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंजिल की ओर जब तक राह पर नजर है, तभी तक लड़ाई है, झगड़ा है। ज्यों ही मंजिल पर नजर पहुँची नहीं कि सब समाधान हो जाता हैं। भले लोगों ! क्यों मत - मतान्तरों की पगडंडियों पर लड़झगड़ रहे हो ? चले चलो, चले चलो, उसी परम सत्य की चमकती हुई मंजिल की ओर। सच्ची दीवाली दीवाली की अँधेरी रात्रि में दीपक जलाते हैं, और दरवाजे के बाहर या मोरी के ऊपर रख आते हैं। यह कैसी दीवाली ? बाहर उज्ज्वल ज्योति जग-मग, जग-मग कर रही है और अन्दर अन्धकार भय की हुँकार भर रहा है ! प्रकाश-पर्व को अन्तरंग और बाह्य दोनों ही प्रकाश के रूप में मनाना चाहिए । मानवता और पशता मनुष्य की मनुष्यता का गौरव इसी में है कि वह जो पाए, उससे अधिक दे। यदि अधिक नहीं, तो आधा भाग तो अवश्य अर्पण करे । मनुष्य को कमाने के लिए दो हाथ मिले हैं। परन्तु, भोजन तो एक ही हाथ से खाना चाहिए ! दोनों हाथों से कमाना, एक हाथ से देना और एक हाथ से खाना, यह मानवता है। और, दोनों हाथों से खाना पशुता है। नेतागिरी आज जो बड़े हैं, समाज के या देश के नेता हैं, उन पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। वे स्वयं दुःख में रह कर ही जनता को सुख १५२ अमर - वाणी Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितरण कर सकते हैं । नेता के भाग्य में विष पान ही लिखा है । जो नेता अमृत पीने वाले हैं, उनकी जनता विष पान करती है और जो विष पीने वाले हैं, उनकी जनता अमृत पान करती है । समुद्रमंथन के समय यदि शिवजी विष-पान न कर लेते, तो देवताओं को अमृत पान किसी भी तरह न प्राप्त होता । विष के बाद ही अमृत का नम्बर है | स्वतन्त्रता स्वतन्त्रता वह अनोखी और अनूठी वस्तु है, जो भूखों मरने की दशा में भी आनन्द देती है, हृदय के कण-कण को गुदगुदा देती है। पक्षी पिंजरे में सुरक्षित है, आहार आदि के लिए निश्चित है, फिर भी क्यों उन्मन है, उदास है ? इसलिए कि वह आखिर, है तो परतन्त्र ही । वह स्वच्छन्द अनन्त आकाश में उड़ जाना चाहता है; फिर भले ही भूखा रहे तो क्या, प्यासा रहे तो क्या, और किसी जालिम के हाथों मारा भी जाए तो क्या ? मैं जब स्वतन्त्र भारतीयों को अपनी अपनी दाल - रोटी के अधिकार के लिए पुकार मचाता देखता हूँ, तो मुझे ऐसा लगता है, जैसे इनकी नजरों में दाल - रोटी का तो कुछ मूल्य है, किन्तु स्वतन्त्रता का कुछ भी मूल्य नहीं । स्वतन्त्र रह कर भूखा मर जाना सिंहत्व है, और परतन्त्र रहकर नित नए मोहनभोग उड़ाना गीदड़पन है । ज्येष्ठ और श्रेष्ठ ज्येष्ठ और श्रेष्ठ में कौन महत्वपूर्ण है ? ज्येष्ठ का अर्थ बड़ा होता है और श्रेष्ठ का अर्थ अच्छा । कुछ लोग कहते हैं कि हम धन में बड़े हैं । मैं कहता हूँ-धन में बड़े हो, परन्तु धन में श्रेष्ठ भी हो या नहीं ? जब धन का उपयोग परोपकार के लिए होता है, तत्र उसमें श्रेष्ठत्व आता है । कुछ लोग कहते हैं - हम बुद्धि में बड़े I बिखरे मोती : १५३ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। मैं कहता हूँ – बुद्धि में बड़े हो, पर बुद्धि में श्रेष्ठ भी हो या नहीं ? जब बुद्धि का उपयोग मानव समाज के कल्याण के लिए होता है, तभी उसमें श्रेष्ठत्व आता है। एक-दो क्या, दुनिया भर के ज्येष्ठत्व से श्रेष्ठत्व महान् है । अतः ज्येष्ठत्व के लिए नहीं, श्रेष्ठत्व के लिए प्रयत्न करो । वस्तुतः श्रेष्ठत्व में ही ज्येष्ठत्व की प्राण प्रतिष्ठा है । पाप और पापी से मनुष्य ! तुझे पाप से घृणा करने का अधिकार है, परन्तु पापी घृणा करने का अधिकार नहीं है । पाप कभी धर्म नहीं बन सकता, परन्तु पापी तो पाप को छोड़कर, कल क्या, आज ही, अभी ही पवित्र, पुण्यात्मा, धर्मात्मा बन सकता है । - बोलिए कम, सुनिए अधिक चतुरता अधिक बोलने में नहीं है, अपितु चुपचाप अधिक सुनने में है । मनुष्य को समझने में जल्दी करनी चाहिए और सुनने में देर - 'क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति ।' घर और वन क्यों वन - वन भटक रहे हो ? क्या वन में रहने से कुछ बन जाता है, घर में नहीं ? यदि घर में नहीं बन सके, तो वन में ही क्या बनना है ? हंस या काग हंस मोती चुगते हैं और काग विष्ठा ! तुम निर्णय कर लो, कि तुम्हें हंस बनना है अथवा काग ? १५४ अमर - वाणी Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनसे भी सीखिए जीवन - कला बरसने वाले बादलो! गरजो, गरजो, और फिर गरजो ! तुम्हारा गर्जन मुझे प्रिय लगता है। मैं तुम्हारा गर्जन सुनूंगा, हजार बार सुनूंगा; क्योंकि तुम बरसने वाले बादल जो हो ! कुछ करने वाले बोलें, यह पाप नहीं है । यह तो उनका अधिकार है। परन्तु, अरे ! तुम क्यों गरज रहे हो ! क्यों कान फोड़े जा रहे हो ? तुम्हें बरसना नहीं है और व्यर्थ ही गरज रहे हो ! जिस बोलने के पीछे करना नहीं है, वह बोलना भी कभी शोभता है ? अरी ! ओ नन्ही बदलिया ! चुप - चाप आई, बरस गई ! कुछ भी तो नहीं बोली ! आने की सूचना तक नहीं दी ! तू ने तो एक ही झटके में जमीन पर पानी ही पानी कर दिया ! तू धन्य है, श्लाघनीय है। तू जीवन की कला का मर्म पहचानती है। चुपचाप बरसना ही तो जीवन का सौन्दर्य है ! वह कोई भी हो, शतशः वन्दनीय है; जो बोलता नहीं, कर डालता है। वाणी की अभिव्यक्ति क्रिया में करता है। अरे ! तुम कैसे बादल ? न गरजते, न बरसते ! चुप-चाप अनंत इनसे भी सीखिए : १५५ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाश के पथ पर व्यर्थ ही अर्ध - मृत कीड़ों की तरह रेंगते, लुढ़कते, क्षत-विक्षत होते चले जा रहे हो यह भी क्या जीवन ? न किसी को आने का पता, न जाने का पता ! जीवन का अर्थ है, गौरवपूर्ण अभिव्यक्ति । अज्ञात जीवन भी कोई जीवन है । चार प्रकार के फूल एक फूल है, जो सुन्दर अवश्य है, किन्तु सुगन्धित नहीं । दूसरा सुगन्धित है, किन्तु सुन्दर नहीं। तीसरा न सुन्दर है, न सुगन्धित | चौथा सुन्दर भी है और सुगन्धित भी । भगवान् महावीर कहते हैं, मनुष्य को चौथे प्रकार का फूल बनना चाहिए । उसमें सौन्दर्य होना चाहिए और सुगन्ध भी । उस का बाहर का आकार - प्रकार सौम्य होना चाहिए और भीतर सत्य और अहिंसा, प्रेम आदि की सुगन्ध होनी चाहिए । जब तक जीवित रहे, महकता रहे, मरने के बाद भी महक फैलती रहे । मानवपुष्प की यही विशेषता है कि वह मुरझाने और झड़ जाने के वाद भी अपनी महक को शाश्वत काल के लिए छोड़ जाता है । महावीर भवन से मैं देख रहा हूँ, दिल्ली के महावीर भवन से गाँधी मैदान में, जामुन के आस-पास बच्चों की भीड़ जमा हो रही है और सब की नजर प हु काले-काले जामुनों पर है ! पत्थर उठाया जाता है, निशाना साधकर फेंका जाता है और फिर कुछ देर इन्तजार की जाती है कि वह फलों के गुच्छे को लगता है या नहीं ? यदि फल टूट कर नीचे आता है, तो उछल कर उसे झोली की भेंट कर दिया जाता है और यदि नहीं लगता, लक्ष्य वेध असफल हो जाता है, तो दूसरा पत्थर उठा कर मारा जाता है, और फिर वही प्रतीक्षा | अमर - वाणी १५६ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य को भी ऐसा जीवन बनाना है। यह जीवन, एक खिलाड़ी का जीवन है ! पासा फेंक दिया और बस, अब दाँव का इन्तजार है कि वह अनुकूल पड़ता है या प्रतिकूल ? मनुष्य प्रयत्न करे, पुरुषार्थ करे और फिर परिणाम की प्रतीक्षा करे ! सफल हो तो ठीक । यदि असफल हो, तो फिर प्रयत्न करे, पुरुषार्थ करे ! मनुष्य का अधिकार प्रयत्न करने का है, सदैव अपने मनोऽनुकूल फल पाने में नहीं ! बच्चों के हाथ में पत्थर का फेंकना है, फल के लग जाना नहीं। अमर आकांक्षा मेरे जीवन की यह अमर आकांक्षा है कि मैं अगरबत्ती की भाँति जन-हित के लिए तिल-तिल जल कर समाप्त हो जाऊँ और आस-पास के जन-समुदाय को सेवा की सुगन्ध से महका हूँ! विरोध में भी एकता देखो दूर काले बादलों में, बिजली किस प्रकार इधर - उधर रह-रह कर झम - झमा रही है ? जल में भी अनल ! पानी में भी आग ! है न आश्चर्य की बात ? परस्पर विरोधी द्वन्द्वों में भी समन्वय का यह सुन्दर सन्देश प्रकृति की मूल देन है, यदि कोई भाग्यशाली समझ सके तो। गाय का उपकार गाय भूसा खाती है और देती है दूध ! मनुष्य मिष्ठान्न खाता है और देता क्या है ?.."मल । गाय भी गोबर के रूप में मल देती है, पर उससे घर के आंगन पुतते हैं, चौके लिपते हैं। सूखा गोबर जल कर रोटी पकाता है, राख बन कर मनुष्य द्वारा झूठे किए गए पात्रों को माँज कर शुद्ध, पवित्र बनाता है। और, मनुष्य का मल इनसे भी सीखिए !: १५७ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या करता है ? मानवी माता थोड़े दिन दूध पिलाकर माता बनती है और फिर जीवन-भर सेवा कराने का अधिकार प्राप्त कर लेती है । परन्तु, गाय जीवन-भर दूध पिलाती है । जरा सोचिए तो, गौ माता को अपने मानव-पुत्र से कितनी सेवा लेने का अधिकार है ? इस प्रश्न का सही उत्तर मानव-जाति को आज या कल देना ही होगा । मयूर से कुछ सीखना है ? यदि कि लोग उसकी सुरूपता को देखते हैं, कुरूपता को देखता है । चींटियों से भी सीखिए चींटियों से मिलकर चलने की शिक्षा लो। देखो, किस प्रकार एक पंक्ति में संगठित अपनी मंजिल की ओर रेंग रही हैं ? चुपचाप बिना शोर मचाए शान्ति के साथ यात्रा तय हो रही है ? मयूर से भी सीखिए सीखना हो, तो यह सीखो और वह अपने पैरों की जब आपकी छड़ी आपके हाथ में होती है, तो उपदेश करती है | क्या ? यही कि मैं बेजान होकर भी तुम को बल देती हूँ, सहारा देती हूँ | और तुम जानदार होकर भी कभी दुर्बलों को बल एवं सहारा देते हो, या नहीं ? मनुष्य को आस-पास के वातावरण में गुलाब बन कर रहना चाहिए । यह जीवन खिला हुआ गुलाब हो, जिसके प्रत्येक आचार और विचार से दिल और दिमाग को तर करने वाली एक मीठी, महक निकलती रहे ! १५८ पचर - वाणी Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाश में घटाएँ घुमड़ रही हों, वर्षा हो रही हो और शीतल, मन्द, सुगंधित पवन चल रही हो, तब मोर खुशी में आकर नाचता है, बोलता है। सबकी खुशी में ही उसकी खुशी है । जहाँ घटाओं को देख कर हजारों किसानों के दिल उछलने लगते हैं, वहाँ मोर का मन भी उछल पड़ता है। क्या कभी आप भी इसी प्रकार दूसरों की खुशी में खुश हुए हैं, नाचे हैं, और बोले हैं। घड़ी से भी सीखिए आपकी घड़ी ठीक टाइम नहीं देती, तो क्या आप उसे सुधरवाने की चिन्ता नहीं करते ? अवश्य करते हैं । इसी प्रकार यदि आपका मस्तिष्क ठीक तरह नहीं सोचता-विचारता, तो क्या यह चिन्ता की बात नहीं है ? अप्रामाणिकता चाहे घड़ी की हो, किसी साथी की हो, या स्वयं अपने मस्तिष्क की ही हो, वह तत्काल सुधार चाहती है। - शरीर का अन्त हाथी क्या कर रहा है ? अपने सूड में धूल भरता है और सिर पर डाल लेता है। क्या भाव है इसका ? अपने शरीर को कितना ही पालो, पोसो, सजाओ, मोटा - ताजा बनाओ, आखिर मिलना है इसे मिट्टी में ही ! इनसे भी सीखिए ! : Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओ मानव ! अन्धकार से प्रकाश की ओर मनुष्य ! तेरे चारों ओर गहरा अन्धकार है। लोग भटक रहे हैं, आपस में टकरा रहे हैं और विनाश के पथ पर जा रहे हैं। वस्तुतः अन्धकार अपने - आप में इतना ही बुरा है । क्या तू इस अन्धकार में से बाहर आना चाहता है ? यदि आना चाहता है, तो प्रेम, दया तथा सत्य की अखण्ड ज्योति बनकर आ। आने का मजा तब है, जबकि तेरी ज्योति से अन्धकार का काला मुख भी उजला हो जाए ! विचार कर मनुष्य ! यदि तू किसी का पुत्र है, तो विचार कर, क्या तूने पुत्र का कर्तव्य पूरा किया है ? तूने पिता का कैसा आशीर्वाद लिया है ? अपने ऊँचे आचरण से उनके गौरव को कितना ऊँचा उठाया है ? यथावसर सेवा के रूप में कब, कितना समय लगाया है ? क्या तुझे देख कर तेरे पिता प्रसन्न होते हैं ? तेरी इधर-उधर प्रशंसा करते हैं ? उनके मन के किसी कोने में तेरे कारण कोई आँसू की बूंद तो नहीं उभर रही है ? १६० अमर वाणी Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य ! यदि तू किसी का पिता है, तो विचार कर, क्या तूने पिता का कर्तव्य पूर्ण किया है ? अपनी सन्तति को शिक्षण दिया है ? उसे मानवता का संदेश सुनाया है ? उसे कितना ऊँचा उठाया है ? देश का योग्य नागरिक बनने के लिए तेरी ओर से उसे कितनी प्रेरणा मिली है ? मनुष्य ! यदि तू किसी का भाई है, तो विचार कर, क्या तूने भाई का कर्तव्य पूरा किया है ? भाई के सुख में सुख और दुःख में दुःख, यही है भाई के भाईपन को जांचने की कसौटी । इस कसौटी पर तू कब कितना खरा उतरा है ? अपने स्वार्थों का भाई के लिए कब कितना बलिदान किया है ? अपने वैभव में कब कितना साझीदार बनाया है ? यदि तू बड़ा भाई है, तो क्या कभी राम बना है ? और यदि तू छोटा भाई है, तो क्या कभी लक्ष्मण बना है ? मनुष्य ! यदि तू किसी का पड़ोसी है, तो विचार कर, क्या तूने पड़ोसी का कर्तव्य पूरा किया ? पड़ौसी के पास तेरी वाणी की कितनी मधुरता जमा है ? तेरे स्नेह की कितनी पूँजी उसके मन की तिजोरी में सुरक्षित है ? उसके पुत्र को अपना पुत्र और पुत्री को अपनी पुत्री समझा है ? उसकी पत्नी के साथ बहन जैसा शिष्टाचार रखा है ? उसके आसुओं में अपने आँसू, उसकी हँसी में अपनी हँसी क्या कभी मिलाई है ? पड़ौसी के मान अपमान को अपना मान-अपमान और पड़ौसी के हानि-लाभ को अपना हानिलाभ समझने में ही सच्चे पड़ौसी का कर्तव्य अदा होता है । जब ऐसा अवसर मिले, तब इस कसौटी पर अपने आपको कसकर, परखा कर ! बहन ! यदि तू किसी की माता है, तो विचार कर, तूने माता का क्या कर्त्तव्य पूरा किया है ? तूने अपने पुत्र-पुत्रियों से कब कितना प्रेम किया है ? उन्हें कब कितनी धर्म और नीति की शिक्षा दी है ? मोह के कारण भोजन, वस्त्र एवं अन्य कार्यों में कोई ओ मानव ? १६१ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुचित मार्ग तो उनके लिए नहीं अपनाया है ? अपनी सन्तान के लिए दूसरों की सन्तानों से डाह और वैर - भाव तो नहीं रखा है। तुम्हारे कारण तुम्हारे अपने बच्चों में, परिवार के दूसरे बच्चों में और आस-पास के पड़ोसियों के बच्चों में परस्पर कितना स्नेह, सौजन्य बढ़ा है ? कहीं तुमने अपने किसी बच्चे के कोमल मन पर जाति, व्यक्ति या और किसी प्रकार की ऊँच - नीचता से सम्बन्धित घृणा-भावना का जहर तो नहीं छिड़क दिया है ? बहन ! यदि तू किसी की पत्नी है, तो विचार कर, तू ने पत्नी का क्या कर्तव्य पूरा किया है ? तू ने अपने पति को परिवार के दूसरे लोगों के प्रति गलत धारणाएँ तो नहीं दी है ? सास - ससुर के प्रति, माता - पिता जैसी ही श्रद्धा, भक्ति और सेवा - भावना रखी है न ? स्वच्छता का ध्यान न रख कर भोग - विलास एवं श्रृंगार की भावना में ही अधिक समय तो नहीं गुजारा है? घर की परिस्थिति ठीक न होते हुए भी सुन्दर गहने और वस्त्रों के लिए पति को तंग तो नहीं किया है ? ननद, देवरानी, जेठानी और दूसरी पड़ौसिनों के साथ स्नेह, सद्व्यवहार का लेन - देन उचित रूप में किया है न ? अपने - आपको जब कभी अवसर मिला, तो क्या सीता और द्रौपदी के गज से नापने की कोशिश की है ? याद रख, ताजा गुलाब के फूल की तरह महकना तेरा काम है, बस तू अपने पवित्र जीवन को सुगन्ध से आस - पास के वातावरण को महका दे। मनुष्य ! यदि तू किसी का पति है, तो विचार कर कि क्या तूने पति का कर्तव्य पूरा किया है ? अपनी पत्नी को सहधर्मिणी समझता है न ? उसके साथ बराबर के सहयोगी मित्र-जैसा ही व्यवहार करता है न ? उसके स्नेही कोमल मन को कभी अपने अहं या किसी के बहकाए से चोट तो नहीं पहुँचाता ? अपने मन के १६२ अमर - वाणी Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्नी-सम्बन्धी प्रेम को अपनी विवाहित पत्नी तक ही सीमित रखता है न ? उसको केवल भोग-विलास की पूर्ति का खिलौना तो नहीं समझ रहा है ? पत्नी के सुख-दुःख के साथ अपने अन्दर भी सुख-दुःख की अनुभूति कर सका है न ? रोग आदि की भयंकर स्थिति में मन लगा कर दिन-रात सेवा में जुटा रहा है न ? संकट का समय आने पर अपने प्राणों की आहुति दे कर भी पत्नी की लाज बचाने का प्रबल साहस किया है न ? मनुष्य ! यदि तू दूकानदार है, तो काले बाजार से बचकर रहना, ग्राहक को धोखा न देना, अपने मुनाफे पर ही नजर न लगाए रखना, ग्राहक की सुविधा और सन्तोष का भी ध्यान रखना, जो बताना, वही दिखाना और जो दिखाना. वही देना। देखना, कहीं तेरे गलत आचरण से समाज और देश की शान को बट्टा न लगने पाए ? ___मनुष्य ! यदि तू शिक्षक या मास्टर है, तो बच्चों का पिता बन कर रहना, उचित शिक्षा के साथ-साथ उचित दीक्षा का भी ध्यान रखना, कहीं पिछड़े - गंदे-सड़े और छोटे विचार न दे देना। विचार और आचार दोनों ही दृष्टियों से तुझे अपने देश की संतानों को ऊँचा उठाने का महान कार्य सौंपा गया है। बच्चे अभी मिट्टी के पिंड है, तू इनमें से राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, गाँधी और नेहरू की मूर्तियाँ बना। तुझे इन अज्ञान पशुओं को मनुष्य बनाना है, देव बनाना है । समाज और देश के लिए अच्छे आदमी, एवं अच्छे नागरिक बनाने का उत्तरदायित्व तुझे मिला है । देखना, कहीं भूल न कर जाना ? मनुष्य ! यदि तू अपने देश के शासन - तन्त्र का कहीं कोई अधिकारी है, तो क्या तू समझता है कि मैं जनता का एक तुच्छ सेवक हूँ ? मेरा काम शासन करना नहीं, सेवा करना है। जनता ने अपने पैसों से मेरे और परिवार के लिए खाने, पीने, पहनने ओ मानव : १६३ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि का सुन्दर प्रबन्ध कर मुझे अपनी सेवा के लिए नियुक्त किया है ? तू किसी से घूस तो नहीं लेता है ? किसी पर धौंस तो नहीं जमाता है ? अपने काम को व्यर्थ का भार तो नहीं समझता है ? किसी विशिष्ट व्यक्ति, परिवार, जाती या धर्म आदि की अनुचित तरफदारी तो नहीं करता है ? मनुष्य ! यदि तू मनुष्य है, तो तेरा काम कठोर श्रम करके अपने जीवनोपयोगी साधन प्राप्त करना है। दयानतदारी और ईमानदारी ही तेरा सबसे बड़ा गुण है। पशुओं या राक्षसों की तरह किसी से कुछ छीन लेना अथवा उड़ा लेना, तेरा धर्म नहीं है। मनुष्य को चाहिए कि वह दीपक की लौ न बने। यह भी क्या साहस कि जरा संकट या विरोध की हवा का झोंका आए, और दीपक की तरह बुझ गए ? फिर अन्धकार-ही-अन्धकार ! प्रकाश का कहीं चिन्ह तक भी नहीं। मनुष्य को तो प्रज्वलित दहकता अंगारा होना चाहिए, जो तूफानी हवाओं के थपेड़ों से भी बुझे नहीं, प्रत्युत और अधिक धधक उठे, महानल का विराट रूप प्राप्त कर सके। ऊंचे उड़ो अपने अन्दर अनन्त ज्ञात, अनन्त चैतन्य तथा अनन्त शक्ति का अनुभव करो। तुम भोग-विलास के कीड़े बन कर रेंगने के लिए नहीं हो । तुम गरुड़ हो, अनन्त शक्तिशाली गरुड़ ! तुम उड़ो, अपने अनन्त गुणों की अनन्त ऊँचाई तक उड़ते चले जाओ। द्विभुजः परमेश्वरः मानव । तेरा ईश्वर न पत्थर में है, न लकड़ी में है, न आग में है, न पानी में है, न आकाश में है और न मिट्टी की मूरत में है । वह १६४ अमर : वाणी Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो तेरे अन्दर है, तेरी नस-नस में है। अपना ईश्वर तू अपने आप ही तो है। तेरे से अलग दूसरा ईश्वर कौन है। कोई नहीं ! तुझे कुछ शास्त्रकारों ने 'द्विभुजः परमेश्वरः' कहा है। क्या समझा ? दो हाथ वाला ईश्वर ! देख, तेरा ईश्वरत्व कहीं तेरी गलतियों से मिट्टी में न मिल जाए। उबलते रहो अरे ! हृदय में कुछ बल है या नहीं ? बल है, तो बड़वानल की तरह समुद्र की अपार जलराशि में रह कर भी उबलते रहो, ठण्डे पड़ो नहीं। यह भी क्या उबाल कि गर्म दूध की तरह उबल पड़े और जल के कुछ छींटों से ठंडे हो कर बैठ गए ? ओ मानव ! ओ मानव ! तू इस दुनिया के पीछे क्यों पागल है ? क्यों वेकल है ? यहाँ रहने के लिए तेरे पास दो-चार साँसों के सिवा और है ही क्या ? इस क्षणभंगुर जीवन के प्रति यह कैसा मोह और कैसी ममता ? कैसा राग और कैसा द्वेष ? किस ओर देखना है ? यदि तुम अपने मन के कोष में दोषों को जमा करना चाहते हो, तो अपने गुणों की ओर देखो, और यदि गुणों को जमा करना चाहते हो, तो अपने दोषों की ओर देखो ! विचार लो, तुम्हें क्या पसन्द है ? अतिथिदेवो भव ओ मानव ! जब कोई जरूरतमन्द तेरे द्वार पर आए, तो हृदय से उसका स्वागत कर । भारतीय संस्कृति अतिथि को अतिथि नहीं, ओ मानव: १६५ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् मानती है | अतः अतिथि की सेवा ईश्वर - भाव से करो, इसी में जीवन की सफलता है । ओ मानव ! तेरे मन का गड्ढा क्या कभी भर सकता है ? संसार में परिग्रह की सीमा है । धन, सम्पत्ति एवं सुखोपभोग के साधन गिने चुने हैं । और मन की तृष्णा ? अरे, वह तो असीम है, असीम ! क्या असीम को ससीम से भरा जा सकता है कभी ? क्या मिट्टी का ढेला आकाश के उदर को भर सकता है ? क्या धधकती आग में ईंधन डालने से वह बुझ सकती है ? नहीं, कभी नहीं, तीन काल में भी नहीं ! तुझे अपने मन के घेरे को छोटा बनाना चाहिए | तुझे अपनी आवश्यकताओं का क्षेत्र संकुचित करना चाहिए । मन की भूख संग्रह से नहीं मिट सकती । वह तो मिटेगी सन्तोष के द्वारा, त्याग के द्वारा। आग को बुझाने के लिए पानी चाहिए, ईंधन नहीं । १६६ अमर वाणी Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्त सन्त सच्चा सन्त नख से लेकर शिखा तक शीतल रहता है। उसके मन के कण-कण में अहिंसा, दया और करुणा की सुगन्ध महकती रहती है। उसकी ज्ञान-चेतना प्रातःकाल सो कर, अंगड़ाई ले कर, तन कर खड़े हुए मनुष्य के समान सदा जागृत रहती है । सच्चा साधु सच्चा साधु कष्ट देने वाले को भी क्षमा करता है । चन्दन अपने काटने वाले कुल्हाड़े को भी सुगन्ध से भर देता है । ज्ञानमार्ग पर चलने वाले साधक सम्पूर्ण विश्व के साथ आत्मवत् व्यवहार करते हैं । अत: कष्ट देने वाले को भी वे अपना ही अंग समझते हैं। इसके लिए एक उदाहरण है । अपने दाँतों से भी जीभ के कट जाने पर कोई भी मनुष्य उन्हें कष्ट नहीं देना चाहता; क्योंकि वह जानता है कि जीभ में तो दर्द है ही, दाँतों में भी तकलीफ क्यों की जाए ? ते धन्याः स्वार्थ की अपेक्षा सेवा अधिक मूल्यवान है। धन्य हैं वे महानुभाव, जो सेवा के लिए अपने स्वार्थ का बलिदान करते हैं या करने को सदा तत्पर रहते हैं ! सन्त: १६७ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भल्य : रु. 15.00 R acejbrary.org