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बन चुका है, विराट् हो चुका है । उसके अस्तित्व को दुनिया में कहीं भी खतरा नहीं । मनुष्य भी 'मैं' और 'मेरा' में अवरुद्ध एक क्षुद्र बूँद है । वह यदि अपने क्षुद्र 'मैं' और 'मेरे' को 'हम' और 'हमारे' का विराट् रूप दे सके, तो वह बूँद से समुद्र बन जाए, देश और काल की सीमाओं को तोड़ कर अजर, अमर हो जाए ।
दूसरों के लिए जीना सीखो
सूरज और चाँद का जग को प्रकाश देने में अपना व्यक्तिगत क्या लाभ है ? फूलों और फलों का अपने लिए वृक्ष क्या उपयोग करते हैं ? नदियों का बहने में अपना क्या स्वार्थ है ? प्रकृति का सब काम निष्काम भाव से विश्वोपकार के लिए हो रहा है । क्या विश्व - सृष्टि का स्वामी चैतन्य मनुष्य अपने निजी स्वार्थी को भुला कर जनहित के लिए कार्य नहीं कर सकता ?
क्षुद्र और विराट प्रेम
क्षुद्र प्रेम पशुता की ओर ले जाता है और विराट् प्रेम मानवता की ओर । विराट् प्रेम वह प्रेम है, जहाँ घृणा, द्वेष, क्लेश और हिंसा . के लिए स्थान ही नहीं रहता । सुप्रसिद्ध अहिंसावादी चीनी संत माओत्जे कहते हैं कि “ चोर अपने घर से प्रेम करता है, पर दूसरे के घर से नहीं । यही करण है कि वह अपने घर के लिए दूसरे के घर में चोरी करता है । हत्यारा अपने शरीर से प्रेम करता है, दूसरे के शरीर से नहीं । इसी कारण वश अपने शरीर के पोषण के लिए दूसरे की हत्या करता है । अधिकारी - गण अपने परिवार से प्रेम करते हैं, दूसरे के परिवार से नहीं । इसी कारण वे अपने परिवार के पोषण के लिए दूसरे परिवारों का शोषण करते हैं । राजा लोग अपने देश से प्रेम करते हैं, दूसरे देशों से नहीं । इसी कारण वे भूमा त्वेव
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