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________________ आत्म - शोधन आत्मदेवो भव आत्म-देवता संसार के सुख और दुःखों से परे रहता है । न पाप-पुण्य की परिधि में आता है और न महाकाल की सीमा से ही बंधता है। उसका जीवन-सौन्दर्य अजर, अमर, नित्य और शाश्वत है । संसार की कोई भी मोह-माया उसे मलिन नहीं कर सकती। बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा दृश्य वस्तुओं में अहत्व और ममत्व का भाव बहिरात्म-भाव है। अन्तरंग आत्म - तत्त्व के शोधन का भाव अन्तरात्म-भाव है। और, पूर्ण वीतराग विज्ञानमय आत्म-तत्त्व का शुद्ध सिद्धत्व भाव परमात्मभाव है । बहिरात्मा बहिर्मुख होता है। अन्तरात्मा अन्तमुख होता है । अन्तरात्मा अन्तर्मुख होता है, किन्तु अपूर्ण । और, परमात्मा सदा - सर्वदा अन्तर्मुख ही होता है—पूर्ण, शुद्ध, निर्मल तथा शान्त ! स्वयं परमात्मा बनिए एक कर्त्तावादी दार्शनिक कहता है-'हम मिश्री चखना चाहते अमर - वाणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003414
Book TitleAmar Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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