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________________ हैं, मिश्री की डली बनना नहीं चाहते।' उसका अभिप्राय यह है कि 'हम परमात्मा के दर्शन का आनन्द तो लेना चाहते हैं, परमात्मा बनना नहीं चाहते।' परन्तु मैं इस दार्शनिक के विवार में कतई विश्वास नहीं रखता । मैं कहूँगा-'मैं मिश्री चखना भी चाहता हूँ, और साथ ही मिश्री बनना भी चाहता हूँ । मिश्री अर्थात् अनन्त आत्म-गुणों की अनन्त मधुरिमा ! मैं स्वयं अपने रस का चखने वाला हूँ। दूसरों के रस पर कब तक ललचाई दृष्टि रखू ? राजा बनने में आनन्द है, या राजा के दर्शन करने में ?' ईश्वर या परमात्मा अपने अन्दर ही है, बाहर कहीं भी, किसी भी स्थान पर नहीं। जब यह बात है, तो फिर पूजा किसको करें, ध्यान किसका धरें ? उत्तर आज का नहीं, लाखों वर्षों का हैअपना, अपना और अपना ! यही कारण है कि श्रमण-संस्कृति का प्रतिक्रमण ईश्वरीय प्रार्थनाओं की ओर प्रगति नहीं करता, वह प्रगति करता है-आत्म-निरीक्षण एवं आत्म-मनन की ओर। उत्थान आत्मा का स्वभाव है 'मनुष्य का गिरना सहज है, उठना कठिन है। पतन की ओर जाना स्वभाव है, प्रकृति है, और उत्थान की ओर आना कठिन है, दुष्कर है ! संक्षेप में निष्कर्ष यह है कि पतन स्वभाव है, और उत्थान विभाव है।' जो धर्मोपदेशक, दार्शनिक पा विचारक ऐसी भाषा का प्रयोग करते हैं, वे अज्ञान-रात्रि के अन्धकार में ही भटक रहे हैं । उनके पास मानव-जाति को प्रेरणा देने के लिए कुछ भी सन्देश नहीं है । यदि मनुष्य का पतन स्वभाव है और उत्थान विभाव है, तो फिर धर्म का उपदेश, सदाचार की पुकार, उपासना का शोर किस लिए हो रहा है ? क्या कभी कोई अपने स्वभाव से विपरीत भी हो सकता है ? उसे छोड़ भी सकता है ? कभी नहीं। आत्म - शोधन : ७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003414
Book TitleAmar Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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