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________________ समता समत्व-योग अन्तरंग और बहिरंग जीवन में समत्व-योग की साधना का ही प्रचलित नाम धर्म है। अन्दर और बाहर में जितनी समता (एकरूपता) उतनी शान्ति और जितनी विषमता, उतनी ही अशान्ति । धर्म और योग का मूल अर्थ ही है, जीवन का सन्तुलन । गीता में कृष्ण इसीलिए तो कहते हैं-"समत्व योग उच्चते ।" सफलता का मूल-मन्त्र क्या आप विरोधी परिस्थितियों में भी अपने मन - मस्तिष्क का उचित सन्तुलन बनाए रख सकते हैं ? क्या आप विरोधी तत्वों, वादों, दलों और व्यक्तियों को भी एकसूत्र में पिरो सकते हैं ? क्या आप कभी फूल से भी कोमल और वज्र से भी कठोर हो सकते हैं ? क्या आप कभी अनेकता में एकता और एकता में अनेकता के भी दर्शन कर सकते हैं ? यदि 'हाँ', तो मैं आज स्पष्ट रूप में आपको लिखे देता हूँ कि आप समय आने पर एक सफल साधक, शासक, नेता, गृहपति आदि सब-कुछ हो सकते हैं । समता: १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003414
Book TitleAmar Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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