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________________ कर्तव्य का रहस्य माली, यह क्या कर रहे हो ? तुम जहाँ एक ओर एक पौधे को काट - छाँट रहे हो, तोड़ - ताड़ रहे हो, वहाँ दूसरी ओर दूसरे पौधे को लगा रहे हो, सींच रहे हो, यह कैसी भेद-बुद्धि ? यह कैसी विसंगति ? तुम्हारे लिए तो सब वृक्ष एक हैं । भला, तुम क्यों किसी एक पर राग और दूसरे पर द्वेष करते हो ? भैय्या ! यह राग-द्वेष नहीं, समभाव है. भेद-बुद्धि नहीं, समबुद्धि है । मुझे समष्टि का हित देखना है, उपवन की सुन्दरता को सुरक्षित रखना है, बाग का उचित पद्धति से विकास करना है। यदि मैं समभावपूर्वक कर्तव्य - बुद्धि से यथोचित अनुग्रह तथा विग्रह न करूं, तो कहीं का न रहैं ! तुम बाहर में न देख कर अन्दर में देखो। यह राग - द्वेष नहीं, पवित्र कर्तव्य है, जिसमें दोनों का ही एक - जैसा अभ्युदय है। सुख-दुःख हमारे मेहमान हैं आपका कोई मेहमान जब आपके द्वार पर आए, तो आप उसका स्वागत करते हैं न ? दुःख और सुख दोनों ही आपके मेहमान हैं। जिस प्रकार सुख का स्वागत करते हैं, उसी प्रकार दुःख का सहर्ष स्वागत कीजिए। वह भी आपका मेहमान है, आपका बुलाया आया है, फिर भला वह किसी अन्य पड़ोसी के यहाँ जाए, तो कैसे जाए ? वह नहीं जा सकता, कभी नहीं जा सकता । आप रोएँ, तब भी वह आपके यहाँ रहेगा और आप हँसें, तब भी । वह आपका मेहमान है। मेहमान के सामने रोनी सूरत बनाने की अपेक्षा प्रसन्न-मूर्ति होना ही गौरव की बात है। १४ अमर-वाणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003414
Book TitleAmar Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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