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सुख में समभाव
मैं देखता हूँ, प्रायः धर्मोपदेशक या अन्य लोग दुःख को समभाव से सहन करने की शिक्षा देते हैं । परन्तु, क्या अकेले दुःख में ही समभाव की आवश्यकता है, सुख में नहीं ? मुझे तो ऐसा लगता है कि दुःख की अपेक्षा सुख में ही अधिक समभाव की आवश्यकता है । प्रायः लोगों को दुःख की अपेक्षा सुख ही कम हजम होता है । इतिहास में हजारों आदमी ऐसे मिल सकते हैं, जो प्राप्त सुख को समभाव से सहन न कर सकने के कारण पागल हो गए । रावण, दुर्योधन, कंस और जरासन्ध आदि इसी श्रेणी के पागल तो थे !
लाठी या लाठी वाला ?
संसार में दो प्रकार की मनोवृत्तियाँ हैं---एक श्वान-मनोवृत्ति और दूसरी सिंह की । श्वान का अर्थ है-कुत्ता । कुत्ते को जब कोई लाठी मारता है, तब वह उछलकर लाठी को मुंह में पकड़ता है । कुत्ता समझता है, 'लाठी ही मुझे मार रही है।' परन्तु, क्या लाठी को पकड़ने से समस्या हल हो जाती है ? जब तक लाठी के पीछे का हाथ मौजूद है, तब तक लाठी की हरकत बन्द नहीं हो सकती ! दूसरी, सिंह - मनोवृत्ति है। सिंह को जब कोई लाठी या ढेले से मारता है, तो वह लाठी और ढेले पर नहीं झपटता । वह झपटता है, लाठी मारने वाले पर ! उसकी दृष्टि में लाठी कुछ नहीं है । जो कुछ है, लाठी मारने वाला है !
इसी प्रकार अज्ञानी आत्मा दुःख देने वाले पर क्रोध करता है, उसे ही उपद्रव का मूल कारण समझता है । परन्तु, ज्ञानी आत्मा दुःख या संकट देने वाले पर आवेश नहीं करता । उसका लक्ष्य, उसमें रहे हुए कषाय - भाव की ओर रहता है । वह समझता है, “यह बेचारा
समता:
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