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________________ तो निमित्त कारण है, कषाय - भाव से प्रेरित है, अतः पापाचरण के लिए विवश है । इस पर क्या रोष करूँ ? इसके अन्दर रहे हुए विकारों को मैं यदि दूर कर सकूँ, तो फिर वह अपने-आप अच्छा .हो जाएगा, भला हो जाएगा !" अस्तु, सिंह - मनोवृत्ति का साधक उपद्रवी के विकारों पर झपटता है, अहिंसा और प्रेम के अस्त्र से उन्हें पराजित करता है । भागो नहीं, दृष्टि बदलो गृहस्थो ! संसार से भागने की आवश्यकता नहीं है । भाग कर आखिर जाओगे भी कहाँ ? जहाँ जाओगे, वहाँ संसार तो रहेगा ही । अतः भागो नहीं, दृष्टि बदलो ! परद्रव्यों में से, पदार्थों और परिजनों में से ममत्वरूपी जहर निकाल दो, फिर भले ही उसका उपयोग करो, वह कष्ट नहीं देगा, अपितु बल देगा, अमरत्व देगा । आप जानते हैं, सोमल जहर को मार डालने से, वह संजीवन बन जाता है— अमृत बन जाता है । वैराग्य की ऊँचाई जब आप किसी पहाड़ की ऊँची चोटी पर चढ़े होते हैं, तत्र नीचे के पदार्थ क्षुद्र नजर आने लगते हैं । ऊँचे ऊँचे वृक्ष जमीन से लगे हुए से, और गाय, भैंस, मनुष्य सब छोटे - छोटे बौने से ! इसी प्रकार जब साधक वैराग्य की, आत्म - भाव की ऊँचाइयों पर चढ़ा होता है, तब उसे संसार के समस्त भोग-विलास, धन, वैभव, मानप्रतिष्ठा तुच्छ एवं क्षुद्र मालूम होने लगते हैं । संसार का महत्त्व संसार की ओर नीचे झुके रहने तक है, दूर ऊँचे चढ़ जाने पर नहीं । अमर-वाणी १६ Jain Education International 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003414
Book TitleAmar Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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