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पृष्ठभूमि में हृदय न हो, प्रेम न हो, आत्मा न हो, विजित का भी हित न हो, वह विजय नहीं, वीरता नहीं, बर्बरता है । सच्ची विजय वही है, जिसमें रक्त की एक भी बून्द न बहे, जिसमें विजेता के हृदय में अहंकार की और विजित के हृदय में पराजय एवं घृणा की भावना उत्पन्न न हो, जिसमें विजेता की आकांक्षा विजित की अधिक-से-अधिक सेवा में हो और विजित की आकांक्षा विजेता को अपने हृदय के सिंहासन पर विराजमान कर देने में हो। यह विजय विजेता और विजित- दोनों को ही ऊँचा उठाती है । और दोनों को महान् बनाती है।
मानवता का मौलिक विधान मनुष्य - मनुष्य के बीच जो जाति, वर्ण, धन तथा प्रतिष्ठा आदि की भेद - भित्तियाँ खड़ी हुई हैं, इन्हीं के कारण भारत की पवित्र आध्यात्मिक संस्कृति की जड़ें खोखली हो गई हैं । जब तक भेद-भावना की इन दीवारों को धक्के - पर - धक्का देकर गिरा न दिया जाए, तब तक भारतीय संस्कृति के पनपने की आशा करना, दुराशा मात्र है । अतएव भारत के प्रत्येक नर - नारी को प्रतिदिन प्रातः और सायं यह गम्भीर विचारणा करनी चाहिए कि "मानव और मानव के बीच कोई भेद नहीं, मानव मात्र को जीवन-विकास के क्षेत्र में सर्वत्र समान अधिकार है, स्वयं जीना और दूसरों को जीने देना ही मानवता का मौलिक विधान है।"
मैं और मेरा
मैं और मेरा तभी तक कालकूट विष है, जब तक वह अपनेआप में सीमित है, क्षुद्र 'स्व' की परिधि से घिरा है, मन और इन्द्रियों की ही रागिनी सुनता है । परन्तु ज्यों ही विराट् बनता है, 'स्व' के क्षेत्र से 'पर' के क्षेत्र में प्रवेश करता है, अखिल जगत् के
भूमा स्वेव........
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