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मृत्यु का डर साधक ! मृत्यु से डरता है ? क्या वह कोई भयानक वस्तु है? भद्र ! तेरी भूल ही तुझे तंग कर रही। मृत्यु कुछ नहीं, एक परिवर्तन है ! इस परिवर्तन से वह डरे, जो पापाचरण में लगा हुआ हो, धर्म से शून्य हो, मानवता का दिव्य प्रकाश बुझा चुका हो और जिसकी आँखों के आगे अन्याय, अत्याचार का अन्धकार घनीभूत होता जा रहा हो ! जो परिवर्तन, विकास के पथ पर हो और अधिक अभ्युदय का द्वार खोलने वाला हो, उसका तो खुले दिल से स्वागत करना चाहिए । तेरे जीवन की पवित्र महत्त्वाकांक्षा यहाँ नहीं पूर्ण हो सकी, तो मृत्यु के बाद अगले जीवन में पूर्ण होगी ! तेरी साधना का प्रकाश जन्म-जन्मान्तर तक जगमगाता जाएगा।
पंजाब के प्रसिद्ध आर्य - समाजी विद्वान् पं०गुरुदत्तजी से जबकि वे जीवन की अंतिम घड़ियों में थे--मृत्यु के द्वार पर पहुँच रहे थे, लोगों ने पूछा- "इस समय आप इतने प्रसन्न क्यों हैं ?" उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा--"इसलिए कि इस देह में दयानन्द न हो सका, अब अगले जन्म में इससे उत्तम देह पाएँगे और दयानन्द बनेंगे।" सब लोग दंग रह गए।
जैनाचार्यों ने कुछ ऐसे ही भावना - प्रसंगों को लक्ष्य में रख कर एक दिन कहा था-'मरण एक महोत्सव है ।' महादेवी वर्मा भी कुछ-कुछ इसी छायावादी स्वर में गुनगुना रही हैं--
'तरी को ले जाओ उस पार, डूब कर हो जाओगे पार'
मृत्यु तुझे मित्र नहीं मालूम होती, शत्रु मालूम होती है ? यदि तेरी दृष्टि में वह शत्रु है, तो आगे बढ़ कर उससे लड़ और जीत ! डरता क्यों है, घबराता क्यों है ? क्या तू समझता है कि वह डरे हुए को छोड़ देगी ? कभी नहीं-'न स भीतं विमुञ्चति ।'
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